किसनाजी आढ़ा विरचित डिंगल गीतों/छंदों का प्रसिद्ध लाक्षणिक ग्रंथ
संपादक : डॉ.सीताराम लालस
| कड़ी-36 | विषय: बावीस छप्पै-समबळ विधांन, जाता संख, वळता संख, संकळ जात, कमळबन्ध…
| धारावाहिक श्रंखला – प्रत्येक मंगल, शुक्र एवं रविवार को प्रेषित

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किसनाजी आढ़ा विरचित डिंगल गीतों/छंदों का प्रसिद्ध लाक्षणिक ग्रंथ
संपादक : डॉ.सीताराम लालस
| कड़ी-36 | विषय: बावीस छप्पै-समबळ विधांन, जाता संख, वळता संख, संकळ जात, कमळबन्ध…
| धारावाहिक श्रंखला – प्रत्येक मंगल, शुक्र एवं रविवार को प्रेषित
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प्राक्कथन
राजस्थान वीर प्रसविनी धरा के रूप में विश्वविदित है। इसे धारा तीर्थ के धाम के रूप में जाना जाता है। जहाँ शूरमाओं ने केशरिया कर शाका किए वहीं वीरांगनओं ने अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ जौहर की अग्नि में स्नान कर अपनी कुलीन परम्पराओं को अक्षुण्ण रखा। यहाँ के वीरों ने मातृभूमि के मान-मंडन व अरियों के दर्प खंडन हेतु रणांगण में वीरगति प्राप्त करने में मरण की सार्थकता मानकर यह घोषित किया कि ”मरणो घर रै मांझियां, जम नरकां ले जाय।[…]
।।गीत – त्रिकुटबंध।।
शुभ जात चारण सोवणी,
महदेव रे मन मोवणीं,
कंठा’ज शारद भुज भवानी, देवियां री दूत।
खग समर मांही खांचता।
भट ओज आखर बांचता।
कवि गीत डिंगल सृजन कर कर।
कहत दहुकत सबद खर खर।[…]
।।छंद नाराच।।
लड़े लड़ाक धू धड़ाक जंग पाक जोवता।
किता कजाक व्हे हलाक हाक बाक होवता।।
धुवां धमाक झीकझाक रुद्र डाक रूंसणा।
बज्राक हिन्द जुद्ध वीर धाक शत्रु धूंसणा।।
जी धाक रिम्म धूंसणा[…]
।।छन्द रोमकंद।।
अतुळीबळ झेल भुजां ब्रिद ऊजळ, सायर लंघ उझेल सची
गजठेल प्रजाळण लंक तणौ गढ़, मारुत नन्दण हेल मची।
नित तेल सिंदूर चढ़ै कपिनायक, भाव अपेल सुं होय भली।
अजरेल जयो हड़ुमांन अणंकळ, बेल करे बजरंग बली।।१[…]
किसनाजी आढ़ा विरचित डिंगल गीतों/छंदों का प्रसिद्ध लाक्षणिक ग्रंथ
संपादक : डॉ.सीताराम लालस
| कड़ी-36 | विषय: बावीस छप्पै-समबळ विधांन, जाता संख, वळता संख, संकळ जात, कमळबन्ध…
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गीता रौ राजस्थानी में भावानुवाद (चौपाई छंद अर गद्य)
[…]वेद सार खंड ससि, वाम अंक गति मिति,
नौमि गुरू शुक्ल मधु मास के समास ही।
देथा मारू चारन जो भव्य है कहाति जाति,
देस कच्छ स्वच्छ ग्राम बाबिया निवास ही।
देवीदान दीनो “देवी दास” ही प्रकास कीन्हौ,
नवीनो नगीनो ग्रंथ बावनी विलास ही।
सुबुधि उपावनी सो, ताप को नसावनी है,
भावनी सुजान को, बढावनी हुलास की।।५४।।[…]
हालाँ झालाँ रा कुँडळिया” ईसरदास जी की सर्वोत्कृष्ट कृति है। यह डिंगल भाषा के सर्वश्रेष्ट ग्रंथों में से है। अपने कवि धर्म का पालन करने के लिए भक्तवर व भक्ति काव्य के प्रधान कवि इसरदास जी को इस वीर रस के काव्य का सर्जन क्यों करना पडा इसके पीछे निम्नलिखित किंवदंती प्रसिद्ध है।
एक बार हलवद नरेश झाला रायसिंह ध्रोळ राज्य के ठाकुर हाला जसाजी से मिलने के लिए ध्रोळ गये। ये उनके भानजे होते थे। एक दिन दोनों बैठकर चौपड़ खेलने लगे। इतने में कहीं से नगाड़े की आवाज इनके कानों में पड़ी। सुनकर जसाजी क्रोध से झल्ला उठे और बोले – “यह ऐसा कौन जोरावर है जो मेरे गांव की सीमा में नगाड़ा बजा रहा है” फौरन नौकर को भेजकर पता लगवाया गया।[…]
छंद – अनुष्टुप्
गुणालंकारिणो वीरौ, धनुष्तोत्र विधारिणौ।
भू भार हारिणौ वन्दे, नर नारायणो उभौ।।१।।
दोहा
ध्यान-कीरतन-वंदना, त्रिविध मंगलाचर्न।
प्रथम अनुष्टुप बीच सो, भये त्रिधा शुभ कर्न।।२।।
नमो अनंत ब्रह्मांड के, सुर भूपति के भूप।
पांडव यशेंदु चंद्रिका, बरनत दास स्वरूप।।३।।[…]
।।गीत – झमाऴ।।
[१]
करत निरंतर निकट कट, झंकारव अलि झुंड।
विधु ललाट बारण बदन, सिंदूरारूण सुंड।।
सिंदूरारूण सुंड, धजर बिख-धारणै।
हद उजवल रद हेक, बदन रै बारणै।।
कर-मोदक करनल्ल, जनम जस गाणनूं।
जग जाहर घण जाण, नमो गणराज नूं।।
भावार्थ: जिनकी कनपटी के पास लगातार भौंरों के झुंड झंकार की ध्वनि करते रहते हैं, जिनके ललाट पर चंद्रमा है, हाथी के मुंह वाले जिनकी सूंड सिंदुरी रंग की है। सूंड सांप के फ़न की भांति शोभायमान है, जिनका एक ही दांत, जो मुँह के द्वार पर है, बहुत उजवल हैं। जिनके हाथ में लड्डू है। उन जगत-विख्यात व बहुविज्ञ गणनायक गणेश जी को मैं करनीजी के जन्मोत्सव का यशगान करने के लिये नमस्कार करता हूँ।[…]
सांयाजी झूला महान दानी, परोपकारी भक्त कवि थे। वे कुवाव गांव गुजरात के निवासी थे। इनका लिखा हुआ “नागदमण” भक्ति रस का प्रमुख ग्रन्थ है|
भक्त कवि श्री सांयाजी झूला कृत “नागदमण”
।।दोहा-मंगलाचरण।।
विधिजा शारदा विनवुं, सादर करो पसाय।
पवाडो पनंगा सिरे, जदुपति किनो जाय।।…१
प्रभु घणाचा पाडिया, दैत्य वडा चा दंत।
के पालणे पोढिया, के पयपान करंत।।…२
किणे न दिठो कानवो, सुण्यो न लीला संघ।
आप बंधाणो उखळे, बीजा छोडण बंध।।…३
अवनी भार उतारवा, जायो एण जगत।
नाथ विहाणे नितनवे, नवे विहाणे नित।।…४
।।छंद – भुजंगप्रयात।।
विहाणे नवे नाथ जागो वहेला।
हुवा दोहिवा धेन गोवाळ हेला।।
जगाडे जशोदा जदुनाथ जागो।
मही माट घुमे नवे निध्धि मांगो।।…१[…]
महाभारतकार ने द्रोपदी की कृष्ण से करुण विनय को ५-७ पक्तियों में सिमटा दिया है| इसी विनय के करुण प्रसंग को लेकर श्री रामनाथजी ने अनेक दोहों व् सोरठों की रचना की है| सती नारी के आक्रोश की बहुत ही अच्छी व्यंजना इन सोरठों में हुई है|
।।दोहा।।
रामत चोपड़ राज री, है धिक् बार हजार !
धण सूंपी लून्ठा धकै, धरमराज धिक्कार !!
द्रोपदी सबसे पहले युधिष्टर को संबोधित करती हुई कहती है| राज री चौपड़ की रमत को हजार बार धिक्कार है| हे धरमराज आप को धिक्कार है जो आप ने अपनी पत्नी को (लूंठा) यानि जबर्दस्त शत्रु के समक्ष सोंप दिया|[…]