चारण जिकी अमोलख चीज

।।चारण उत्तम चीज।।
उत्तम कुल़ देख्यो अवन, चारण धारण चाय।
सगत हींगल़ा सांपरत, सदन प्रगट सुरराय।।1
करणी जन कलियाण कज, सरब हरण संताप।
चंडी जद घर चारणां, आई आवड़ आप।।2
पर्यावरण पशु प्रेम पुनी, जात सरब सम जाण।
भरण भाव प्रगटी भली, कुल़ चारण किनियाण।।3[…]

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सजधज हालां,घूमर घाला

सजधज हालां, घूमर घाला, ले रिपियां री थेली।
बैठौ साजण सेठ बजारां, आव सखी! अलबेली।।

हेली हालों भाल़वा, बैठौ कुण बजार।
चख डंडी मन पालडै, जोखै नेह जँवार।।
जोखै नेह जँवार, करै नी बिलकुल धोखो।
बालम रो व्यवहार, चातुरी भरियौ चोखो।
मोठ बाजरी मूंग, बांटतौ भर भर थेली।
किं रूपियां रो काम, हेरतां देसी हेली।।
मन रो भोल़ो, हेत हबोल़ो, फिकर मती कर गैली!
बैठौ साजण सेठ बजारां, आव सखी! अलबेली।।१

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गोख खडी छै गोरडी

चंदा थारी चांदणी, कीकर पडगी मंद?
गोख खडी छै गोरडी, निरखण नें नँद नंद।।१
अली !कली सूं आज कल, रहे न क्यूं रति रंग?
राधा मिसरी री डल़ी, चली श्याम रै संग।२

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चारण ने हमेशा उत्कृष्ट के अभिनंदन एवं निकृष्ट के निंदन का अहम कार्य किया है

कल की अशोभनीय खबर का खेद प्रकट करते हुए आज राजस्थान पत्रिका ने लिखा है कि उन्होंने ‘ऐसा मुहावरे के तौर’ पर लिखा है। जहां तक हमारी जानकारी है हिंदी शब्दकोश या मुहावरा-लोकोक्तिपरक कोशों में ऐसा कोई मुहावरा नहीं जो कल के समाचार में लिखे मंतव्य को बयां करता हो। और जहां तक जातिसूचक मुहावरों या लोकोक्तियों की बात है तो बहुत से ऐसे मुहावरे हो सकते हैं लेकिन क्या किसी मुहावरे को मनचाहे ढंग से कहीं भी प्रयुक्त करना सही है। यदि ऐसा है तो मैं ऐसे अनेक शब्दों की जानकारी राजस्थान पत्रिका एवं लेखक मि. वर्मा को उपलब्ध […]

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सतगुरु माग सुधार दे

आज गुरु पूर्णिमा रै दिन ज्ञात-अज्ञात उण तमाम श्रद्धेय गुरुजनां रै श्रीचरणां में सादर वंदन। कैयो जावै कै दत्तात्रेय चौबीस गुरु किया।कविराजा बांकी दासजी तो अठै तक लिखै कै जितरा माथै में केस है उतरां ई उणां रै गुरु-‘बंक इतियक गुरु किए,जितियक सिरपर केस।’आपांरै अठै गुरु नैं गोविंद सूं बधर बतायो गयो है अर्थात ईश मिलण रै मारग रो माध्यम ई गुरु है। आप सगल़ै जोगतै शिष्यां नैं पावन गुरु पूर्णिमा री अंतस सूं बधाई अर गुरुवां रै चरणां में पांच छप्पय भेंट- वदै जगत गुरु ब्रह्म,सदा गुरु शंभ सुणीजै। वसुधा गुरु ही विसन,परम ब्रह्म गुरु पुणीजै। चाल ओट गुरु […]

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पहले जान लें कि चारण क्या है, फिर टिप्पणी करें

राजस्थान पत्रिका जैसे राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध समाचारपत्र में ‘तथाकथित रूप से  अतिख्याति प्राप्त पत्रकार’ महोदय श्री आनन्द स्वरूप वर्मा की ‘चारण’ समाज के प्रति अभद्र टिप्पणी को पढ़कर अत्यंत वेदना हुई।
आदरणीय वर्मा साहब!  वैसे तो किसी जाति या परंपरा पर बिना सोचे समझे टीका-टिप्पणी करने वाले लोग किसी समाज के प्रतिनिधि नहीं हो सकते लेकिन फिर भी आपसे यह जानने की इच्छा जरूर है कि चारण तो जैसे थे या हैं, वैसे ठीक हैं पर आपकी जाति, जो भी है, उसमें कितने तथा किस तरह के साहित्यकार एवं कलाकार रहे हैं, जरा उनका परिचय करवाइए ताकि साहित्य के इतिहासों से‘चारण-साहित्य’, चारण-काल, चारण-युग, चारण-प्रवृत्तियां आदि के स्थान पर आप द्वारा निर्दिष्ट नाम लिखकर समाज का उचित मार्गदर्शन करें। उनके साहित्य की उपादेयता एवं उल्लेखनीय प्रवृत्तियों से भी अवगत करवाएं। इससे हम जैसे लोगों को यह फायदा होगा कि हम भी कहीं सही मायने में कलाकार एवं साहित्यकार बन सकें।

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मंडी रास दासोड़ी मढ में

।।गीत जांगड़ो।।
चवदस आसाढ चांदणी चंडी,
खळ खंडी धर खागां।
मंडी रास दासुड़ी मढ में,
रीझ अखंडी रागां।।1
कीधो उछब आज करनादे,
तद चौरासी तैड़ी।
सरसज मनां साबळी सगळी,
नाहर चढियां नैड़ी।।2 […]

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चंदू मा रा छंद – धूड़जी मोतीसर जुढिया

।।छंद – सारसी।।
मनधार मत्ती सज सगत्ती, आप रत्थी आविया।
पोक्रण पत्ती बड कुमत्ती, छोह छत्ती छाविया।
तन झाल़ तत्ती सूर सत्ती, रूक हत्थी राड़वै।
बढ चरण वंदू शील संधू, मात चंदू माड़वै।।1[…]

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सोढै ऊमरकोट रै, सिर पड़ियां बाहीह !

किणी राजस्थानी कवि रो ओ दूहो कितरो सतोलो है कै-

हीरा नह निपजै अठै, नह मोती निपजंत।
सिर पड़ियां खग सामणा, इण धरती उपजंत।।

आजरै संदर्भ में ओ दूहो भलांई केवल एक गर्विली उक्ति लागती हुसी जिणरै माध्यम सूं कवि आपरी मातृभूमि री अंजसजोग बडाई करी है पण जिण कवियां इण भावां रै मार्फत परवर्ती पीढी नै प्रेरणा दी है तो कोई न कोई तो कारण रह्यो ई हुसी। सूर्यमल्लजी मीसण लिखै–

बिन माथै बाढै दल़ां, पोढै करज उतार।
तिण सूरां रो नाम ले, भड़ बांधै तरवार।।[…]

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बिन बेटी सब सून

यह संसार सामाजिक संबंधों का जाल है, जिसमें हर व्यक्ति एक-दूसरे से किसी न किसी रिश्ते से जुड़ा हुआ है। अरस्तु ने तो यहां तक लिखा है कि बिना समाज के रहने वाला व्यक्ति या तो पागल है या फिर पशु है यानी कि व्यक्ति के लिए समाज का होना अत्यावशक है। समाज की एक सशक्त कड़ी है – परिवार। परिवार ही वह आधारशिला है, जहां रिश्तों का ताना-बाना बुना जाता है, रिश्तों की फसलों को सींचने तथा सहेजने-संवारने का काम यहीं से होता है। परिवार रूपी बगिया में खिलने वाला हर पुष्प रिश्तों के मिठास का जल पाकर सुरभित […]

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