भरतपुर अंग्रेज संग्राम और कविराजा बांकीदासजी आसिया – राजेन्द्रसिंह कविया

कविराजा बांकीदासजी आसिया पहले राष्ट्रीय भावना के प्रबल पक्षधर व स्वदेशप्रेम भावना से ओत-प्रोत कवि थे। कविराज नें डिंगऴ काव्य में अंग्रेजी शासनके खिलाफ बिगुल बजा दिया तथा तात्कालीन राजन्यवर्ग को रजपूती (वीरत्व) रखने के लिए निम्न प्रकार से प्रेरित किया:-

।।दोहा।।
महि जातां चींचाता महऴां, ऐ दुय मरण तणां अवसाण।
राखौ रे कैंहिक रजपूती, मरद हिन्दू की मुसऴमान।।

पुर जोधांण उदैपुर जैपुर, पह थारा खूटा परियांण।
आंकै गई आवसी आंकै, बांकै आसल किया बखांण।।[…]

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अटल स्वातंत्र्य उपासक महाराणा प्रताप

अनूठी आन, बान एवं शान वाला यह राजस्थान प्रांत शक्ति, भक्ति एवं अनुरक्ति की त्रिवेणी माना जाता है। यहां का इतिहास शौर्य एवं औदार्य के लिए विश्वविख्यात रहा है। यहां जान से बढ़कर आन तथा प्राण से बढ़कर प्रण की शाश्वत परम्परा रही है। राजस्थान की इस तपोभूमि की कुछ ऐसी विशेषताएं रही हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ है। यहां के वीरों ने धरती, धर्म, स्त्री एवं असहायों की रक्षार्थ मरने को मंगल माना; यहां की वीरांगनाओं ने अपनी कंचन जैसी काया का मोह त्यागते हुए अपने हाथों अपना सीस काट कर वीर पतियों को प्रणपालन का अद्वितीय पाठ पढ़ाया; यहां के संतों ने जन-जन की जड़ता को दूर करते हुए मानवधर्म की अलख जगाई; यहां के साहित्यसेवकों ने राजा से रंक सभी को कर्तव्यपथ पर अडिग डग भरने की सुभट सीख दी। जीवन से अत्यधिक मोह होते हुए भी काम पड़ने पर मरने से मुंह नहीं मोड़ कर सिंधुराग पर रीझते उन वीरों की मरदानगी की मरोड़ देखते ही बनती है। दुनिया में दूसरी जगह शायद ही ऐसा उदाहरण हो जहां वचन प्रतिपालन हेतु विवाह के ‘कांकण डोरड़े’ खोले बिना ही दूल्हे ने चंवरी में ‘राजकंवरी’ को छोड़कर ‘भंवरी’ की पीठ पर सवार हो युद्धभूमि की ओर प्रस्थान किया हो।[…]

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मेहाई-महिमा – हिगऴाजदान जी कविया

।।आर्य्या छन्द।।
पुरूष प्रराण प्रकती, पार न पावंत शेष गणपती।
श्रीकरनी जयति सकत्ती, गिरा गो अतीत तो गत्ती।।1।।

।।छप्पय छन्द।।
ओऊंकार अपार, पार जिणरो कुण पावै।
आदि मध्य अवसाण, थकां पिंडा नंह थावै।
निरालम्ब निरलेप, जगतगुरू अन्तरजामी।
रूप रेख बिण राम, नाम जिणरो घणनामी।
सच्चिदानन्द व्यापक सरब,
इच्छा तिण में ऊपजै।
जगदम्ब सकति त्रिसकति जिका,
ब्रह्म प्रकृति माया बजै।।2।।[…]

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लाखो फूलाणी लछो!!

“ठगीजै सो ठाकर” री बात कुड़ी नीं है। हथाई रो कोड हुवै उण नै दमड़ा खरचणा पड़ै। ओ काम कोई मोटै मन रो मानवी ई कर सकै। इण में कोई जात रो कारण नीं है। ऐड़ै ई एक मोटै मन रै मिनख रो किस्सो चावो है।

पोकरण रै पाखती गांव लालपुरो। रतनूवां रै जागीरी रो गांम। इण गांम रै रतनू भोजराज री उदारता विषयक ओ दूहो घणो चावो-

लायक रतनू लालपुर गिरवर सुत बड गात।
कवि भोजै री कोटड़ी रहै सभा दिन रात।।

उल्लेखणजोग है कै सिरूवै में रतनू तेजमालजी हुया। जिणांरा माईत बाल़पणै में ई गुजरग्या हा। नेनप पड़गी। इणां रो नानाणो भाखरी रै मिकसां रै अठै। तेजमालजी री मा तेजमालजी नै लेय आपरै पीहर भायां कनै आयगी। दिन लागां तेजमालजी मोटा हुया। भाग बारो दियो। घोड़ां रा मोटा वौपारी हुया। एकर चांदसमा ठाकुर लालकरनजी इणां सूं एक घोड़ो लियो पण रकम ऊभघड़ी हुई नीं जणै ठाकुरां तेजमालजी नै कह्यो कै “आप सिरूवै क्यूं रैवो? म्हारै कनै रैवो। आवण-जावण रो पंपाल़ मिटै।”[…]

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क्रांतिकारी कुँ. प्रताप सिंह बारहठ – उम्मेद सिंह देवल

चलतो रथ रवि रोकियो, पवन थामियो साँस।
कह जननी सूरो जन्यो कह सुर धरा प्रकाश।।
तन-मन दोन्यू ऊजला, सिर केसरिया पाग।
हरियाली हिरदै बसी कुँवर तिरंगों राग।।
~~स्वरचित

वीर प्रसूता गौरवमयी मेवाड़ की मॉंटी के उदयपुर में ज्येष्ठ शुक्ला ९ वि. सं. १९५० दिनांक 24 मई 1893 को स्वनाम धन्य वीरवर ठाकुर केसरी सिंह बारहठ की धर्म-पत्नी यथा नाम तथा गुणा माणिक कँवर की कोख से एक पुत्र-रत्न ने जन्म लिया। ”होनहार बिरवान के होत चीकने पात ”-पिता की पारखी नज़रों ने बालक के शुभ शारीरिक लक्षणों से तत्काल ही पहचान लिया कि कुल कीर्ति में वृद्धि करने वाला यह वीर विलक्षण प्रतिभा का धनी है, उसके प्रबल पराक्रम को पहचान पुत्र का नाम रखा-प्रताप। प्रताप का जन्म पिता की ओजस्विता, माता की धीरता एवं स्वयं की वीरता का अद्भुत् त्रिवेणी संगम था।[…]

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व्रजलालजी रो विविध वरणो काव्य : विजय विनोदः गिरधर दान रतनू दासोड़ी

चारण जाति आपरी विद्वता, प्रखरता, सत्यवादिता अर चारित्रिक दृढ़ता रै पांण चावी रह्यी है। इणी गुणां रै पांण इण जाति नैं मुलक में मांण मिलतो रह्यो है। संसार रै किणी पण कूंट में अेक ई अैड़ो उदाहरण नीं मिलै कै चारणां टाळ दूजी कोई पण जाति समग्र रूप सूं आपरै साहित्यिक अवदान रै पांण ओळखीजती हुवै! चारण ई अेक मात्र अैड़ी जाति है जिणरो राजस्थानी अर गुजराती साहित्य रै विगसाव पेटै व्यक्तिगत ई नीं अपितु सामूहिक अंजसजोग अवदान रह्यो है। इणी अवदान रै पेटै लोगां इणां री साहित्यिक सेवा रो मोल करतां थकां राजस्थानी साहित्य रै इतियास रै अेक काळखंड रो नाम ‘चारण साहित्य’ तो गुजराती में इणां री प्रज्ञा अर प्रतिभा री परख कर’र इणां रै रच्यै साहित्य रो या इण परंपरा में रच्यै साहित्य रो नाम ‘चारण साहित्य’ रै नाम सूं अभिहित कियो जावै।[…]

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साँवरा!बाजी खेलो! चोपड़ ढाल़ी!

साँवरा! बाजी खेलो! चोपड़ ढाल़ी!
हारूं तो हरि दासी थोंरी, जीत्यां थें मारा वनमाल़ी!

नटनागर जाजम है ढाल़ी, बैठो आप बिचाल़े।
म्हूँ बैठूं चरणाँ रे नेड़ी, पीव पलांठी वाल़े।।
धवली कबड़ी रख धरणिधर, म्हनै दिरावो म्हारी काल़ी।।१

साँवरा! बाजी खेलो चोपड़ ढाल़ी!
हारूं तो हूं दासी थोंरी, जीत्यां थें मारा वनमाल़ी![…]

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वीरता किसी की मोहताज नहीं होती !!

डिंगल़ के सुविख्यात कवि नाथूसिंहजीजी महियारिया ने क्या सटीक कहा है-

जो करसी जिणरी हुसी, आसी बिन नू़तीह!
आ नह किणरै बापरी, भगती रजपूतीह!!

अर्थात भक्ति और वीरता किसी की बपौती नहीं होती, यह तो जो प्रदर्शित अथवा करते हैं उनकी होती है। इसमें कोई जाति का कारण नहीं है। इस बात को हम दशरथ मेघवाल के गौरवमयी बलिदान की गाथा के मध्यनजर समझ सकते हैं। जब कालू पेथड़ और सूजा मोयल (दोनो राजपूत) ने करनी जी की गायों का उस समय हरण कर लिया जब वे पूगल राव व अपने ‘धर्म भाई’ शेखा की सहायतार्थ मुलतान गई हुई थी।[…]

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भूरजी बलजी के कवित्त – महाकवि हिंगऴाजदान जी कविया

चढ्यो जोधपुर तैं रसाला बीर चाला चहि,
तालन में चालत चंदोल जल तुच्छ पै।
चित्त में घमंड ब्रह्मंड लखैं चकरी सो,
अकरी अदा ते आये सेखाधर स्वुच्छ पै।
पोते राव वीर बनरावन पै दिट्ठि परी,
परी दिट्ठ हूरन की फूलन के गुच्छ पै।
डाकी डाकुवन कूं बकारे किधौं डारे कर,
बाघन के मुच्छ, पांव नागन के पुच्छ पै।।1।।[…]

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प्रसिध्द ऐतिहासिक चिरजा – कवि हिंगऴाजदान जी जगावत

।।दोहा।।
मंयकअंक पख मांगसिर, सिध्दियोग शनिवार।
कृष्ण पक्ष की चौथ कौ, ले देव्यां घण लार।।

।।चिरजा।।
जंग नृप जैत जिताबा, लागी असवारी लोवड़ वाऴ री।।टेर।।

शोभित आप शक्ति संग केती,
(अरू) जो जोगण जगमांय।
आसव लेण बेर हिय आंरै,
ना कारो मुख नांय।।1।।[…]

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