गीत वांमणावतार रौ – महाकवि नांदण जी बारहठ

गीत वांमणावतार रौ (नांदण कहै)

आखै दरबार ब्रिहामण उभा,अंग दिसै लुघ वेदअगांह।
रीझ सु इती दीधयै मो राजा,मांडू मंढी जिती भुंम मांह।।1

विप्र विनंतिपयंपै वांमण,मैहर करै लेइस माप।
इळ थी आठ पांवडा अमकै,एकण कुटी जिती तूं आप।।2

जग ताहरा तणौ सांभल जस,हूं आयो मन करै हट।
दुज उंचरै दीये मो दाता,धर्मसाला जेतली धर।।3[…]

» Read more

કચ્છી ભાષાના આદિ કવિ સામુર ચારણ

સામુર ચારણ કચ્છી ભાષાના આદિ કવિ મનાય છે. સામુર ચારણથી પહેલા કોઈ કચ્છી કવિનું નામ ઈતિહાસમાં નોધાયેલ હોય તેવું મારી જાણમાં નથી. ચારણ કુળની તુંબેલ ગોત્રની વંશાવળીમાં ગુગળ ચારણ પહેલાં સામુર કવિનું નામ આવે છે. સામુર તુંબેલ જામ નરપતનાં સમકાલીન હતા. બારોટોના ચોપડા અનુસાર જામ નરપતની ગાદી સંવત ૬૮૩ થી સંવત ૭૦૧ સુધી છે. સામુર તુમેર ચારણોનો તુંબેલ પછીનો આદિ પુરુષ છે. કચ્છી લોક સાહિત્યનાં જૂના દોહામાં સામુરનું નામ આવે છે અને એ બધા દુહાના રચયિતા સામુર ચારણ છે. જો કે તેમની અનેક કાવ્ય રચનાઓ કાળના પ્રવાહમાં લુપ્ત થઈ ગઈ હશે. ચારણોના રાવળદેવોની વહી અનુસાર સામુરની વંશાવાળી આ મુજબ છે. શબ્દસહ આપવામાં આવી છે.

આદ લગ ઈસવર: નઃ ચારણીયોઃ
કવ ચારણ પેદા કિયો, અંગરો મેલ ઉતાર,
પતા જાસ શંકર પણા, માત જશી મહામાએ..[…]

» Read more

खूबड़जी री स्तुति – गंगारामजी बोगसा

डिंगल कवियों की यह उदारता भी रही है कि अपने मित्रों, हितेषियों व संबंधियों के आग्रह पर ये उन्हीं के नाम से भी रचनाएं लिख देते थे। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण मिलते हैं। बाद में मूल कवि के स्थान पर उस कवि का नाम चल पड़ता है जिसके नाम से मूल कवि ने रचना बनाई।

ऐसा ही एक उदाहरण आज गंगारामजी बोगसा सरवड़ी की कुछ पांडुलिपियां पढ़ते हुए मिला। गंगारामजी ने किन्हीं ठाकुर सरदारसिंहजी के नित्य पाठ हेतु मा खूबड़ी की स्तुति लिखकर दी थी।[…]

» Read more

कविता रो प्रभाव

दूहो दसमो वेद,
समझै तैनै साल्है।

काव्य मर्मज्ञां दूहै नै दसमे वेद री संज्ञा दी अर कह्यो कै ओ फखत उणरै काल़जै नै ईज छूवै जिको इणरो मर्म जाणतो हुवै !नीतर आंधै कुत्तै खोल़ण ही खीर वाल़ी बात है। जिणांरै सातै सुआवड़ी हुवै उणांरै दूहे रो मर्म नैड़ैकर ई नीं निकल़ै पण जिकै रै नैड़ैकर निकल़ै, उणनै ओ चित नै चकित करै तो साथै ई चैन ई देवै। आ ई नीं ओ उणरै दिल में दरद उपावै तो साथै ई दवा पण करै-

दूहो चित चक्रित करै, दूहो चित रो चैन।
दूहो दरद उपावही, दूहो दारू ऐन।।[…]

» Read more

गीत – प्रिथीराज राठौड़ रो – लक्खा बारठ रो कहियो

गीत नायक पृथ्वीराजजी राठौड़ है। जो वीर प्रकृति व प्रभु भक्ति में समरूप अनुरक्ति रखते थे। इन्होंने अकबर के कहने पर ‘वेली किसन रुकमणी री’ की ब्रजभाषा में टीका भी की थी। उस टीका की भाषा का उदाहरण रावतजी सारस्वत ने अपने विनिबंध ‘पृथ्वीराज राठौड़’ में उद्धृत किया है। लक्खाजी को थोड़ा पढ़ने पर मेरे अंतस में जची है कि छोटा ही सही इन पर एक लेख किसी पत्रिका हेतु लिखूं। बहरहाल लखावत साहब के आदेशों की पालनार्थ-

।।गीत – प्रिथीराज राठौड़ रो- लक्खा बारठ रो कहियो।।

वपि वाधै नितूं विराजै अविरच,
भले बिहुं विध उर नवली भांत।
प्रभु सूं जेतो हेत प्रिथीमल,
पैररसौ ऐतो पुरसात।।[…]

» Read more

न्यात न्यात में होवत नाथो!

जोधपुर माथै महाराजा सूरसिंहजी रो राज। सूरसिंहजी रै खास मर्जीदानां मांय सूं एक पुष्करणा ब्राह्मण नाथोजी व्यास ई हा। नेकदिल अर उदारमना मिनख। उणांरै एकाएक बाई ही। दिन लागां बाई परणावण सावै हुई।

बेटी मोटी हुवै जणै बाप सूं पैला मा नै चिंता हुवै। इणी चिंता रै वशीभूत एक दिन गुराणी रै मन में जची कै हमै बाई रा हाथ पील़ा कर दैणा चाहीजै। इण सारू एक दिन उवां व्यासजी नै कह्यो कै –
“जगत में खांचिया फिरो। डूंगर बल़ता निगै आवै पण पगै नीचै सिल़गती निगै नीं आवै। बाई मोट्यार माल हुई है अर थे आंधा हुयोड़ा हो। कांई आ बोल’र कैसी कै म्हनै हमे परणावो।”[…]

» Read more

वाह तरव्वर वाह

लालच ना जस लैण रो, चित न बडाई चाह।
आये नै दे आसरो, वाह तरव्वर वाह।।1

गहडंबर फाबै गजब, रल़ियाणो मझ राह।।
पथिक रुकै परगल़, छिंयां, वाह तरव्वर वाह।।2

विहँग सीस वींटा करै, उर ना भरणो आह।
दंडै नीं राखै दया, वाह तरव्वर वाह।।3

फूल तोड़ फल़ तोड़णा, पुनि सथ तोड़ पनाह।
उण पँछिया नै प्रीत दे, वाह तरव्वर वाह।।4[…]

» Read more

किरसाण बाईसी – जीवतड़ो जूझार

।।दूहा।।
तंब-वरण तप तावड़ै, किरसै री कृशकाय।
करण कमाई नेक कर्म, वर मैंणत वरदाय।।1

तन नह धारै ताप नै, हिरदै मनै न हार।
कहजो हिक किरसाण नै, सुज भारत सिंणगार।।2

गात उगाड़ै गाढ धर, फेर उगाड़ी फींच।
खोबै मोती खेत में, सधर पसीनो सींच।।3

कै ज सिरै किरतार है, कै ज सिरै किरसाण।
हर गल्ल बाकी कूड़ है, कह निसंक कवियाण।।4[…]

» Read more

જેણે રામને ઋણી રાખ્યાં – દુલા ભાયા કાગ

જગતમાં એક જ જન્મ્યો રે જેણે રામને ઋણી રાખ્યાં
રામને ચોપડે થાપણ કેરા ભંડાર ભરીને રાખ્યાં
ન કરી કદીએ ઉઘરાણી તેમ સામા ચોપડા ન રાખ્યાં
જગતમાં એક જ જન્મ્યો રે જેણે રામને ઋણી રાખ્યાં
માગણા કેરા વેણ હરખથી કોઈને મોઢે ન ભાખ્યાં
રામકૃપાના સુખ સંસારી સ્વાદભર્યાં નવ ચાખ્યાં[…]

» Read more

માવલ સાબાણી અને આઇ રવેચીનો કુંભ (मावल साबाणी अने आई रवेची नो कुंभ)

કેરાકોટની રાજમહેલની અટારીયે આથમતાં સુર્યની ચર્ચા જોતી ચારણ આઇ જશી, રાણી સોનલ અને તેની દાસી ડાઈ એ ત્રણેય બેઠી હતી. એ દરમ્યાન સુર્યના કિરણમાંથી એક ફુલ મેડીની અટારીમાં પડયું. ફુલની સુવાસ ચોતરફ મધમધ ઊઠી. આઇ જેસી રાણી સોનલ અને દાસી ડાઈએ ક્રમશઃ ફુલ સુંઘે છે. ફુલની સુગંધ અલૌકિક ત્રણેય સખીઓ એ ફુલ સુંધી ઘોડારમાં નાંખે છે ત્યાં ઘોડારમાં નેત્રમ નામની ધોડી આ ફુલ સુંધે છે. આ ફુલમાં એવી દૈવીશક્તિ હતી કે જે સુંઘે તેને ઓધાન રહે. આથી ત્રણેય સખી અને ઘોડીને ઓધાન રહે છે. નવમે મહિને સોનલરાણીને પુત્ર લાખાનો જન્મ, ચારણઆઇ જેસીને પુત્ર માવલસીનો જન્મ, ડાઈબેનડીને કમલ દિકરીનો જન્મ અને ઘોડીને માણેરા વછેરાનો જન્મ થાય છે.આ ધટનાની ક્વિદંતી લોકોમાં ખુબજ પ્રચલીત છે.[…]

» Read more
1 2