21 वीं सदी की चुनौतियां और साहित्य-सृजन

यह चिरंतन सत्य है कि समय निरंतर गतिमान है और समय की गति के साथ सृष्टि के प्राणियों का गहन रिश्ता रहता है। सांसारिक प्राणियों में मानव सबसे विवेकशील होने के कारण समय के साथ वह अपनी कदम ताल मिलाते हुए विकास के नवीनतम आयाम छूने के लिए प्रयासरत्त रहता है। समय के बदलाव के साथ व्यक्ति की सोच, उसकी आवश्यकताएं, अपेक्षाएं, मान्यताएं तथा वर्जनाएं बदलती हैं। इसी बदलाव में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा अन्यान्य जीवनमूल्यों में परिवर्तन होता है। समय के साथ बदलाव आता ही आता है, उसे रोक पाना किसी सत्ता के बूते की बात नहीं है। आज हम भूमंडलीकरण के संप्रत्यय को साकार कर सूचना एवं संचार-प्रौद्योगिकी के माध्यम से विश्वगांव की सैर करने में सफल हुए हैं। 21 वीं सदी का युग ‘ग्लोबल विलेेज’ का युग है अतः इसमेें विश्वस्तरीय सोच, संपर्क तथा पारस्परिक लेन-देन अवश्यंभावी नजर आता है।

सूचना क्रांति के साथ-साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था ने काफी रफ्तार पकड़ी है, जिसके परिणाम स्वरूप आज का आदमी पहले से काफी दक्ष, कार्यकुशल तथा आत्मविश्वास से भरा प्रतीत होता है। आर्थिक उदारीकरण के साथ भारत ने भी वैश्वीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया है और हमने दूसरे देशों के साथ जुड़कर विकास की गति को तेज किया है। भारतीय बाजारों में विदेशी ब्रांडों की संख्या तथा पहुंच बढ़ने लगी है। हमने वैश्विक चीजों को अपनाना सीखा है। यह बदलाव आज हमारे दैनन्दिन जीवन में देखने को मिलता है। व्यक्ति के जीवन में आने वाले बदलाव से समाज में बदलाव आया और समाज के बदलाव ने साहित्य, संस्कृति, कला तथा जीवन के विविध आयामों को प्रभावित किया है। आज इस 21 वीं सदी के मानव के सामने अनेकानेक चुनौतियां है और इस चुनौती भरे दौर में मीडिया और साहित्य के समक्ष इन सारी चुनौतियों को प्रतिबिंबित करने तथा चकाचौंध में फंसे मानव को उचित राह दिखाने की सबसे बड़ी चुनौती है। वर्तमान दौर में जीवनमूल्यों तथा सामाजिक एवं वैयक्तिक प्रतिमानों में आए बदलाव के कारण साहित्यकार को जिन चुनौतियों से होकर गुजरना पड़ता है, उन पर एक आम साहित्यप्रेमी की नजर से इस आलेख में मंथन करने का प्रयास किया गया है-

आज साहित्य के सामने सबसे बड़ा संकट तो सृजन का ही है। कभी समय था कि तुलसी जैसे लोग रामचरितमानस जैसे वृहद ग्रंथ की रचना का उद्देश्य ‘स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ बताते थे। पंत जैसे रचनाधर्मी ने कहा कि ‘‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान/उमड़कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान’’ लेकिन आज घनीभूत पीड़ा, जो स्वतः सृजन का रूप ले ले, वह कहां है? संवेदनाओं का सागर तो धीरे-धीरे सूख रहा है। आज का रचनाकार तो संवेदनाओं की तलाश में है क्योंकि एक समय था जब तुलसी के राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या से वनवास की तरफ रवाना होते थे तो रंगमंच के सामने बैठे हजारों लोगों की आंखों से अश्रुधाराएं फूट पड़ती थीं लेकिन आज वैसी सहानुभूति कहां?

विज्ञान और तकनीकी के इस युग में टी.वी. में किसी स्थान के वीभत्स नर-संहार को लाइव देखते हुए हम चटकारे लेकर बर्गर-पिज्जा खा रहे होते हैं, कभी न मरने वाले के प्रति करुणा होती है ना मारने वाले के प्रति आक्रोश। ऐसे में स्वाभाविक रूप से संवेदनशील लोग कहां से आएंगे। साहित्यधर्मा लोग कैसे भाव और मर्म लाएं कि लोगों में कोई बेचैनी पैदा हो। दर्द या पीड़ा तो तक होती है, जब आपका पहले से किसी से कोई आत्मीय रिश्ता हो, आज तो सारे रिश्ते फिल्मी है, जो दृश्य के साथ नया अंदाज ग्रहण करते हैं।

अब तो व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा का जमाना है अतः साहित्य सृजन भी एक व्यवसाय हो गया है। यह बात नहीं है कि व्यावसायिक या व्यक्तिगत मान-प्रतिष्ठा की चाहत पहले नहीं थी, पहले भी कहीं-कहीं थी। आचार्य केशव की रामचंद्रिका इसी तरह दूसरों से आगे निकलकर बताने का परिणाम थी। लेकिन भगवान राम जैसे चरित्र नायक, जिनके लिए कवियों ने कहा कि ‘‘राम तुम्हारा चरित्र, स्वयं ही काव्य है/ कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है’’, के होते हुए भी रामचंद्रिका ने केशव को तुलसी जैसी प्रतिष्ठा नहीं दी वरन ‘कठिन काव्य के प्रेत’ जैसी संज्ञा से अभिशप्त किया। ऐसी बात नहीं है कि केशव की कविता और उसके लालित्य में कहीं कमी है लेकिन उसके सृजन का उद्देश्य दूसरा था। बस यही कारण रहा कि प्रतिभावान होते हुए भी केशव को सूर एवं तुलसी की तरह सूर्य, चंद्रमा बनने का सौभाग्य नहीं मिला और सितारा बनकर संतोष करना पड़ा। (सूर, सूर, तुलसी शशि, उड़गनु केशवदास)

जरा सा विचार करेंगे तो आज की सृजनधर्मा पीढ़ी के पास भी केशव जैसी ही जल्दबाजी और पैंतरेबाजी नजर आती है, जिनके सृजन का उद्देश्य तो दूसरा होता है लेकिन अवसर हाथ लगते ही उसे नए खांचे में फिट करने में देरी नहीं लगती। ऐसे-ऐसे उदाहरण देखने-सुनने को मिलते हैं कि जिस रचनाकार के पास दस दिन पहले किसी एक भाषा विशेष की दो-चार रचनाएं थीं और दस दिन बाद उसी भाषा की साहित्य अकादमी में उन लेखक महाशय की पुस्तक पांडुलिपि सहायतार्थ प्रस्तुत हो जाती है।

बाद में पता लगता है कि यही पांडुलिपि पहले किसी दूसरी भाषा में थीं, वहां की अकादमी ने स्वीकार नहीं किया तो दो-चार दिन में इस भाषा में रूपांतरित करके इस अकादमी मेें प्रस्तुत कर दिया। और कई बार सहायता लेने में सफल भी हो जाते हैं। यह प्रवृत्ति साहित्य सृजक, प्रकाशक और पाठक तीनों के लिए चुनौती है।

एक जमाना था जब काव्य की एक विधा थी, आज गद्य और पद्य में विविध विधाओं ने जन्म ले लिया। हिंदी साहित्य में आदिकाल, भक्तिकाल एवं रीतिकाल तक कविता ही सृजित होती रही, गद्य बहुत कम मात्रा में लिखा जाता था अतः साहित्यकार मूलतः कवि होता था। दूसरा आदिकाल में वीरगाथात्मक काव्य था, भक्तिकाल में भक्तिप्रधान तथा रीतिकाल में लक्षणग्रंथ और नख-शिख वर्णन की प्रवृत्तियां प्रधान रहीं अतः कवियों के लिए साहित्य सृजन का प्रेरणा-श्रोत, प्रतिपाद्य एवं प्रवृत्ति पहले से विद्यमान रहती थीं लेकिन आधुनिक युग पद्य के साथ-साथ गद्य की विविध विधाएं और उनका विश्वस्तरीय मूल्यांकन साहित्य सृजक के सामने बड़ी चुनौती है।

विधा की विविधता के साथ विषय की विविधता भी चुनौतीपूर्ण है। विषय और विधा चुनने के बाद जब आज का सृजनकार साहित्य सृजन में प्रवृत्त होता है तो उसके सामने चंद्रबरदाई, कबीर, सूरदास, तुलसीदास, मलिक मोहम्मद जायसी, केशव, बिहारी, घनानंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रसाद, पंत, निराला या महादेवी वर्मा की तरह अपने-अपने समय के प्रवृत्ति नायकों की तरह आज कोई विधावार या प्रवृत्तिवार नायक नहीं नजर आता, जिसे पढ़कर या सुनकर आज का सृजनकार अपनी रचना को भावात्मक या कलात्मक आधार प्रदान कर पाए। सभी विधाओं मेें बहुत सारा लिखा जा रहा है। एक ही विषय पर अनेक लोग लिख रहे हैं और अलग-अलग तरह का लिख रहे हैं। लिखने वालों के लेखन को मूल्यांकित करने वाले आलोचक की अत्यधिक कमी नजर आती है।

यद्यपि ऐसा नहीं है कि आलोचना का कॉलम खाली है लेकिन इस क्षेत्र में गिने-चुने नाम ही हैं। अतः नयी पीढ़ी विकल्पों में फंस गई कि क्या लिखे; विधा, विषय और प्रतिमान क्या हों फिर किसको आधार नायक बनाएं, यह भी नवोदित रचनाकारों के लिए संकट है। साहित्यिक धड़ाबंदी का ऐसा मंजर है कि व्यंग्य रूप में एक नारा चलने लगा है- ‘‘तुम मुझे गोडफादर कहो, मैं तुम्हें जीनियस कहूंगा’’ यानी नए लोग किसी एक तथाकथित बड़े धड़ावान साहित्यकार को अपना गोडफादर बनाएं, उसके कसीदें पढ़ें तो वह नए लोगों को जीनियस कहेगा। इसमें साहित्य या उसकी गुणवत्ता नजर अंदाज की जा सकती है। साहित्य सृजन के साथ ही दूसरी चुनौती है उसके प्रकाशन की।

पहले की तरह ना तो साहित्यकारों को राजकीय संरक्षण है और नां ही किसी सेठ-साहूकार या संस्थान द्वारा साहित्य प्रकाशन का कार्य अपने सौजन्य से कराने की सुलझी हुई कोई परंपरा विद्यमान है। इसलिए जो लिखे, वही छपाए। अब साहित्यकार सृजन के साथ ही प्रकाशन व्यय की पीड़ा से गुजरने को भी मजबूर है। सृजन और प्रकाशन कर लिया तो अब उसका पाठक कहां से लाए, यह चुनौती है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, सूचना एवं संचार अभियांत्रिकी, रेडियो, टी.वी., कम्प्यूटर, विकिलीप्स, नेट और साइबर केफै के जमाने में पुस्तक कौन पढ़े ?

book_clubs_what_to_read_nextमहाकाव्य और खंडकाव्य का जमाना तो कभी का लद चुका लेकिन अब तो उपन्यास, नाटक, एकांकी और यहां तक की कहानी भी लोगों के लिए दुरूह हो गई। इसका बड़ा कारण तो यह है कि साहित्य के अलावा मनोरंजन के अनेकानेक साधन विद्यमान है और वे दृश्य-श्रव्य है, जिनसे व्यक्ति सबसे बात करते हुए, खाते-पीते, मोबाइल इस्तेमाल करते हुए भी मनोरंजन कर लेता है तब बताइये साहित्य को क्यों पढ़े ? पाठक की भी पीड़ा है कि वह कैसा साहित्य पढ़े क्योंकि पहले तो लोगों में साहित्य को लेकर सामूहिक चर्चाएं हुआ करती थी अतः साहित्य खरीदने वाले को चयन करने में दिक्कत नहीं आती थी। बाजार में विकल्प भी कम ही थे, आज तो किताबों के ढेर हैं। सामग्री क्या है तथा कैसी है यह नहीं कह रहा हूं लेकिन पुस्तकें बहुत हैं। अतः चयन की चुनौती पाठक के सामने है।

साहित्य के पाठक के सामने और स्वयं साहित्यकार के सामने एक और चुनौती यह है कि आज के उपभोक्तावादी युग में विशुद्ध रूप से व्यावसायिक सोच वाले लोगों ने साहित्य के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ किया है। व्यस्तता के दौर से गुजरते हुए आदमी ने कविमंचों के माध्यम से साहित्य से जुड़े रहने का एक रास्ता निकाला था, जिसमें वह तीन घंटे की पिक्चर की बजाय तीन घंटे के कवि सम्मेलन में पांच-छह कवियों की सरस एवं सामयिक रचनाएं सुनकर अपनी काव्य पीपासा को शांत करने लगा था। लेकिन आज कविमंचों पर जो कुछ हो रहा है, उसे बयां करना सबसे बड़ी पीड़ा से गुजरना होगा।

इन मंचीय कवियों ने सैक्स, रोमांस और स्त्री-पुरुष संबंधों की भूलभुलैया वाली फिल्मों से दूर काव्य सरिता में निमज्जित होने आए लोगों को उसी फिल्मी दुनियां जैसी चुहुलबाजी में धकेलने का कुत्सित काम किया है। कविता के नाम पर कोरी लफ्फाजी और अश्लील चुटकुले परोसने का धंधा चल रहा है। साहित्य सृजकों ने आत्मकथात्मक और जीवनीपरक ऐसी कृतियां बाजार में उतारी है कि साहित्य से पहले पाठक के लिए साहित्यकार के व्यक्तित्व को समझना जरूरी हो गया और आलोचकों को साहित्य की लोकधर्मिता पर मंथन करने को मजबूर होना पड़ा है।

अपनी व्यक्तिगत कुंठाओं, असफलताओं तथा हताशाओं का सामान्यीकरण कर आम पाठक की संवेदना बटोरने का असफल प्रयास कर रहे लोगों के साहित्य को पढ़कर पाठक को कौनसे संस्कार मिलेंगे। एक पुरुष अपनी व्यक्तिगत कुंठा के कारण संपूर्ण नारी जाति पर प्रहार करता है तो नारी इसके उलट, और कुछ बुद्धिजीवी इसे उनकी बोल्डनेस बताकर समीक्षाएं लिख देते हैं। जैसे फिल्मों में सबसे ज्यान नग्न दिखना बोल्डनेस का पर्याय बना इधर साहित्य में भी वैसे ही कुछ-कुछ दिखने लगा है।

एक जमाना था जब कविमंचों पर साहित्य सुरसरि की कलकल निनाद हुआ करती थी लेकिन भले साहित्यसृजकों ने मंच से तौबा कर लिया और उस साहित्य प्रेमी पाठक और श्रोता को दोहरे संकट में बीच राह छोड़ दिया। वह पाठक जो बेचारा अपने परिवार के साथ फिल्म देखने में कुछ हिचकिचाता था, उसने सोचा कविमंचों की रचनाओं को परिवार के साथ बैठकर सुनेगा लेकिन उसे कुंएं से निकलते ही खड्डे में गिरा दिया गया। अच्छा, शालीन और प्रेरक साहित्य लिखने वाले लोग भी इस बात के दोषी हैं, जिन्होंने साहित्य के प्रति आस्था रखने वाले लोगों को मदारियों के हाथों में सौंपने का कार्य किया है। सरे आम कविता की निर्मम हत्या हो रही है और कविकर्म से जुड़े लोग उसे देखकर राह बदल रहे हैं। गाहे-बगाहे किसी सेमीनार के बहाने पीड़ा सुनने-सुनाने का अवसर मिलता है तो पाठक व श्रोता को कुशलक्षेम पूछ ली जाती है। कैसी विडंबना है देखिए –

सजा देने वाले रजा पूछते हैं,/ जीने की हमसे वजा पूछते हैं,
देते हैं खुद ही जहर हम को आकर,/ असर कितना हुआ फिर पूछते है। (अज्ञात)

बाजारों के पुस्तक भंडारों में भी इसी मिजाज के साहित्यकारों की पुस्तकों का बाहुल्य नजर आता है। अतः पाठक के लिए घासलेटी और शुद्ध साहित्य में से चयन का संकट है। यह सर्वविदित सत्य है कि पाठक ही सृजक बनता है लेकिन विकल्पों की विविधता, विषयों की विविधता और समय की अल्पता इसमें बाधक है। साहित्य के अध्ययन से व्यक्ति के मन में एक बैचेनी सी पैदा होती है और वह उस बैचेनी को किसी दूसरे के साथ बांटना चाहता है लेकिन आज समूह चर्चा और वह भी साहित्यिक चर्चा, किसके साथ करे।

निष्कर्षतः 21 वीं सदी में साहित्य का पाठकवर्ग ऊहापोह की स्थिति में है। आज के मध्यम या निम्न परिवार के पिता के लिए यह बड़ा संकट है कि वह अपने बेटे-बेटी के साथ घर-परिवार और पढ़ाई के अलावा कोई और बात करे तो क्या करे, जिससे वह अपनी औलाद को सामाजिक सरोकारों से जोड़ सके। साहित्य की विविध विधाएं हैं और फिल्म भी साहित्य का एक हिस्सा है, सब क्षेत्रों में सजग होना होगा। सामाजिक सरोकारों तथा मानवीय मूल्यों को बचाकर रखने का कार्य साहित्य का है अतः साहित्य को पूरे समाज का समग्र प्रतिबिंब बनना होगा। …………….

~~डॉ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’

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