‘आई’ लाधी गांगड़ी का न्याय

:::: ठा. नाहर सिंह जसोल द्वारा संकलित पुस्तक “चारणों री बातां” से :::::

माघ मास की धवल चांदनी में ‘वराणा’ नामक गांव के मां खोडियार के मंदिर के प्रांगण में चारणों का पूरा समुदाय इधर-उधर की बातों में मस्त है। उपलियाला गांव का लाभूदान चारण बीच में बैठा चुटकले, दोहे, छंद सुना रहा हैं।

बातों ही बातों में लाधी गांगड़ी का प्रसंग आया तो किसी ने पूछाः

‘‘लाधी गांगड़ी तो खोडि़यार की भक्त थी ना!’’

‘‘उनको तो लोग खोडि़यार की बड़ी बहन आवड़ स्वरूप मान के नमन करते थे, परन्तु वे खोडि़यार की परम उपासक थी।’’

चारणों की गांगड़ा शाखा चाणस्मा के पास आया ब्राह्मणवाड़ा गांव उनका पीहर था। वरसोडा गांव उनका ससुराल था।

‘‘तब तो ब्राह्मण वाड़ा में चारणों के बहुत से घर होंगे?’’

‘‘हां उस समय थे। खैर जाने दो इस बात को!’’

नहीं-नहीं बात बीच में काटो मत। पूरा खुलासा तो करो प्रश्न का? उस समय थे और आज नहीं का कारण क्या?

लोगों के बहुत आग्रह करने पर लाभूदानजी ने कहना शुरू कयाः

बात बहुत पुरानी है। पीढ़ी दर पीढ़ी सुनते आये हैं कि लोगों के झूठ सच का न्याय देवी उपासक चारणों के घरों में ही होता था। उन दिनों कोर्ट कचेरी कहां थे। चारणों के घरों में देवी की आराधना करने वाली आई (चारण महिला हेतु आदरपूर्ण संबोधन) ही न्याय करती थी और उसका निर्णय सभी को सर्वमान्य होता था। ऐसा श्रद्धा और विश्वास था लोगों में उस समय। ब्राह्मणवाड़ा में चैधरियों की भी जाड़ी बस्ती थी। पता नहीं क्यों इन दोनों जातियों में (चारण और चैधरियों में) वैमनस्य पैदा हो गया? उन दिनों लाधी गांगड़ी का निवास अपने ससुराल वरसोड़ा में था।

गांगड़ा पशुपालक चारण थे। उनका पशुधन खुल्ला ही चरता और चैधरियों के खेतों में नुकसान पहुंचाता। चैधरियों ने चारणों के मुखियाओं को अपने यहां अफीम लेने हेतु आंमंत्रित किया।

चारणों के मुखियाओं के आगे चैधरियों ने बात छेड़ीः

‘‘तुम्हारे भाईयों के पशु हमारी खड़ी फसल चरा देते हैं तो हम फसल कैसे पकायें? इसका आप लोग कुछ प्रबन्ध करो। बहुत दिनों से हम यह बात आप लोगों से करना चाहते थे। आप तो देवी पुत्र हो। आपके तो देवी की कृपा है। बात तो यह छोटी सी है पर हमारे रोटी का प्रश्न हैं। रात दिन एक करके फसल खड़ी करते हैं और आपका पशुधन चर जाता है, यह कहां का न्याय हैं? चौधरियों के मुखिया ने कहा।

‘‘तो क्या करें?’’

‘‘पशुधन को बांध के रखो। छूटा मत छोड़ो।’’

‘‘तुम लोगों ने गोचर कहां छोड़ा हैं? जमीन पर तो सब काश्त कर ली। अब हमारे पशु जायें तो कहां जाये? तुम्ही बताओ।’’

‘‘अपने पशुधन को योंही चरने हेतु छोड़ने के बजाय यदि ग्वाला रख दो तो क्या हानि?’’

‘‘आठो प्रहर ग्वाला कहां-कहां चरायेगा?’’

इस प्रकार प्रश्नों और उत्तर का क्रम चलता रहा। ब्राह्मणवाड़ा के गांव की इस सभा में गर्मा-गर्मी का माहौल बन गया। एक पक्ष कहे ऐसे नहीं चलेगा, दूसरा पक्ष कहे हम हमारे पशुधन को बांध दें तो पशु भूखे मर जायेंगे। इन मूक पशुओं की दुराशीष हमसे नहीं ली जायेगी। गांव के कुछ बड़े बुजुर्ग बीच में पड़े और चराई विषय पर हो रही तूं-तूं, मैं-मैं को शान्त करके दोनों पक्षों को समझाने का प्रयत्न किया। आज ब्राह्मणवाड़ा गांव में एक पक्ष ने लाठीयें व धारिये इकट्ठे किये तो दूसरा पक्ष अपने झोंपड़ों मैं बैठा विचार विमर्श में तल्लीन था। घुसपुस चल रही थी।

‘‘पर भाई यह अन्याय कब तक सहन करते रहेंगे? इतना परिश्रम करके खेत का एक-एक पौधा हम सींच कर बड़ा करके फसल पकाते हैं।

एक वृद्ध बोला, ये चारण देवी पुत्र हैं। देवी के उपासक हैं। इनकी ओर तो हम अंगुली भी उठायें तो पाप के भागी बनते हैं। इनकी दुराशीस से हमारा कभी भला न होगा! यह ध्यान रखना।

उधर चारण आपस में बहस कर रहे थे। अपना गांव कोई आज का बसा नहीं है। अपने पूर्वजों ने वर्षों पहले यहां आकर बसाया था। पीढ़ीयें खप गई। इन चैधरियों को तो अपने पूर्वज साथ में लाये थे। इनको बसाया, और आज वे ही लोग अपने पशुधन के मुंह से घास का तिनका छीन लेना चाहते हैं। हमने पशुधन को अपनाया। चैधरियों ने खेती का धंधा अपनाया। रूपये पैसों में वे हमसे समृद्ध हो गये। इसका अर्थ यह तो नहीं कि वे हमारे पशुधन को चरने से रोके। भले ही वे संख्या में अधिक हों पर हमको इस प्रकार दबा थोड़े ही सकते हैं?

‘‘और भाइयों! यह प्रश्न आज की क्यों उठा? पीढ़ीयों से हमारा पशुधन चरता आया हैं। अब ये अपनी गायों के मुंह पर छींका बांधने की बात कर रहे हैं। मुझे लगता है, ये हमको इस प्रकार प्रताडि़त करके यह गांव छुड़वाना चाहते हैं।’’

‘‘नहीं इस विचार से तो वे लोग यह बात नहीं कर रहे हैं।’’ एक युवा बोला।

यही तो बात है। तूं इन चौधरियों का पक्ष न कर। दूसरे ने थोड़ा उत्तेजित होकर कहा।

ब्राह्मणवाड़ा में धीरे-धीरे आपसी मनमुटाव की आग फैल रही थी। कभी भी कोई बड़ा हादसा दोनों पक्षों के बीच हो जाने की आशंका, लोगों के दिलों में घर कर गई थी।

तुम लोग मेरी बात मानोगे? धीरे से एक वृद्ध चौधरी बोला।

बोलो भा! हमारे गले उतरेगी तो अवश्य मानेंगे।

‘‘तुम्हारे गले उतरे या न उतरे, मेरा जी कहता है कि हमें इस मार्ग पर चलना चाहिए।’’

हम तो तुम कहोगे वैसे ही कर लेंगे। हमे रोजी-रोटी से मतलब हैं, फालतू टचाटच कौन चाहता हैं?’’

‘‘वहां उपस्थित सभी चौधरी समाज के लोग, उस वृद्ध की ओर उत्सुकता से देख रहे है। देखें बुढ़ा क्या मंत्रणा देता है!’’

‘‘तो सुनो! अपनी आई लाधी गांगड़ी वरसोड़ा ब्याही है, इसकी तुम्हें जानकारी है या नहीं?’’

‘‘अरे उनकी जानकारी किसको नहीं हैं? वे तो आज देवी के रूप में पूजी जा रही हैं। उन्होंने तो अपने गांव का नाम उजाला हैं। उनके चरणों में तो अपनी पगड़ी रखते लज्जा थोड़े ही आयेगी?’’

‘‘तो उन तक यह बात पहुंचाओ और सच्ची हकीकत समझाओ।’’

‘‘पर उनको इस संसारिक प्रपंच में डालना उचित रहेगा?’

‘‘उनको ही इस प्रपंच में डालना चाहिए। वो ही कोई मार्ग निकालेगी और जिसे डांट फटकार देनी है वो ही देगी।’’

‘‘तो क्या करें?’’

‘‘क्या करें नहीं! कल ही कुछ पंच लोग वरसोड़ा पहुंचो और ‘आई’ को पूरी बात से अवगत करो।’’

‘‘वे भी तो चारण कुल की है न? आखिर में तो घुटने पेट की ओर नमेंगे। निश्चय ही वे चारणों का पक्ष लेगी। पीछे से किसी ने आशंका व्यक्त की।

‘‘अरे भाई! अभी से ये आशंकायें मन में क्यों ला रहे हो! देवी पुत्रों से हमें झगड़ा नहीं करना है। उनको कठोर शब्द कहना ही हमारे लिए लज्जाजनक बात होगी। थोड़ा बहुत विचार तो करना पड़ता हैं ना! आवेश-आवेश में हम कोई ऐसा कदम न उठा बैठें जिससे पछताना पड़े। उनको तो ‘त्रागा’ (आत्म बलिदान) करने में कोई देर नहीं लगती। उनके खून से यह धरती भयंकर लगेगी और यहां चुड़ैलें रास नृत्य करेंगी। बात बिगाड़ने में एक क्षण लगता है, और यदि समझायश से काम बन जाता है तो किसको आपत्ति हैं?’’ समझायश के प्रस्ताव पर अन्त में सभी ने स्वीकृति दी।

दूसरे दिन सूर्य उगनें से पहले चैधरियों के एक समूह ने वरसोड़ा गांव में प्रवेश किया।

लाधी गांगड़ी माताजी की लोवड़ी धारण किये पूजा कर रही थी। अपने पीहर के लोगों को देख, हर्षित हुई।

‘‘आहो! आज तो मेरा पीहर आया हैं। सबको देख मैं प्रसन्न हूं। सबके लिये नाश्ता तैयार करने हेतु आवाज दी। चौधरियों ने अपनी पागें उतारकर उनके चरणों में रख, आर्शीवाद लिया।

गांव के चारण परिवारों के और अन्य वृद्धजनों के समाचार पूछे। पूछा, ‘‘आगे कितनी दूर जाने का है?’’

‘‘आगे तो कहीं नहीं जाना माअड़ी, हम तो आप के पास ही आये हैं।’’

‘‘तो तो मेरे धन्य भाग्य। आज तो मैं मेरे भायों से मिली। बहुत आनन्द का अनुभव हो रहा है मुझे। ‘‘आई’’ ने कहा।

‘‘माअड़ी एक निवेदन करने आये हैं।’’

‘‘अरे इन्सान के पास इन्सान ही तो आता है। निवेदन की कहां आवश्यकता है। निवेदन करने योग्य तो मां खोडियार और आवड़ हैं’’, कहते हुए उन्होंने भळहळ करती जोत की ओर इशारा किया।

माअड़ी! आप तो इनके परम उपासक हो। प्रश्न अपने गांव का है। यह समस्या आप ही सुलझा सकती हैं। एक व्यक्ति ने बात शुरू की।

चारणों का पशु धन हमारी सब खेती नष्ट कर देता है। हम संकोचवश एक अक्षर भी मुंह से नहीं निकाल सकते। पर क्या करें? मजबूर हैं। हमारे पास दूसरा कोई मार्ग नहीं अतः आपके पास फरियाद करने आये हैं।

लाधी गांगड़ी ने बड़ी शान्ति से चौधरियों की बात सुनी। सबको नाश्ता कराया। फिर कहाः माताजी सब ठीक करेगी। तुम चिन्ता न करो। सांत्वना देकर सभी को आशीर्वाद दे, विदा किया।

पीछे से चारणों को पता चला कि चौधरी ‘आई’ के पास फरियाद लेकर गये हैं।

‘‘अरे भाई आई तो अपनी ही हैं। इन चौधरियों ने आई को उल्टी-सुल्टी बातें करके भ्रमित किया होगा। क्यों न हम आई को यहीं बुला लें। वे तो देवी स्वरूपा हैं। वे जो कहती हैं वह फलीभूत होता हैं। हम उनके मुंह से ही इन चौधरियों को श्राप दिला दें ताकि रोज का रगड़ा मिट जाय। तभी इन लोगों की अक्ल ठिकाने आयेगी।’’ एक वृद्ध बोला।

‘‘हां! बात तो ठीक कही। ‘आई’ को यहीं बुला लें। चौधरियों को भी बुला लें और यहीं आई द्वारा उनको श्राप दिलायें, कि क्यों मेरे कुटम्ब वालों को तंग करते हो! वे अवश्य इनको श्राप देगी।

यह तय करके चारणों का एक दल चल पड़ा वरसोडा की ओर। ‘आई’ से मिले और शिकायत की कि ये चौधरी हमको गांव से निकालने हेतु हमको तंग कर रहे हैं। नित नये-नये बहानों से हमको त्रसित कर दिया। हमारे पशुधन को हम कहां रखें? गांव की जमीन पर नहीं चरायें तो कहां चरायें? इस प्रकार चौधरियों के विरूद्ध अनेक बातें ‘आई’ को कह सुनाई।

‘‘माअड़ी! तुम इन चौधरियों की एक न सुनना। चारणों का मान रखो, नहीं तो ये हम पर हावी हो जायेंगे। ऐसे ही रहा तो एक दिन हमारे छोकरे इनके वहां झाडू निकालेंगे।

आप ही हमारी बात न रखोगी तो कौन रखेगा? हमारे पास न तो इन चौधरियों जितना पैसा है न जन बल ही।’’

‘‘ऐसा करो! दो दिन बाद मैं वहीं आ जाती हूं। सबसे मिलूंगी। सबकी बात सुनुंगी और जैसा ठीक होगा वही निर्णय दूंगी।’’

चारणों को आशा बंधी। सोचा ‘आई’ जाति पक्ष लेकर इन चौधरियों को अवश्य श्राप देगी। आनन्द के हिलोरे खाते, चारणों का दल वापस ब्राह्मणवाड़ा आया।

दो दिन पश्चात लााधी गांगड़ी ने अपने पीहर ब्राह्मणवाड़ा की ओर प्रस्थान किया। सभी ने ‘आई’ को नमन किया। ‘आई’ ने दोनों पक्षों की बात बड़े धैर्य से सुनी। जिसको कहना था वह कहा। फिर भी चारणों ने निवेदन किया हम आपसे एकान्त में कुछ निवेदन करना चाहते हैं।

एक तरफ जाकर कहा, माअड़ी आपके मुंह से ही श्राप दो, बस यही आग्रह चालू रखा।

‘‘ऐसे नहीं हो सकता?’’ आई बोली।

‘‘तो कैसे होगा?’’ चारणों ने पूछा।

एक ओर चारण तेवर दिखावे, दूसरी और चैधरी न्याय हेतु प्रार्थना करे।

‘आई’ के समझ में नहीं आवे क्या करे? कुछ देर आंखे मूंदकर ध्यान लगाकर बैठ गई। एकदम उठ खड़ी हुई। काळी धाबलियाली चारणी का रूप देखे जैसा था। सभी स्तब्ध थे। सोच रहे थे क्या कहेगी?

‘‘यह समस्या आज ही सुलट जानी चाहिए। मेरा तो यही कहना हैं कि नीति की जय और अनीति का क्षय होगा।’’ इतना सुनना था कि दोनों पक्षों में खलबली मच गई। आई ने गुप्त मंत्रणा दे डाली, समझ सको तो समझ लो। लोगों ने कहा।

पूरी रात अंदर ही अंदर ‘आई’ के बोल पर दोनों पक्षों में चर्चा होती रही। पूरे क्षेत्र में लाधी गांगड़ी के बोल की खबर फैल गई।

चारणों ने विचार किया, नीति तो यही कि हम इनकी फसल को नुकसान न पहुंचावें।

‘‘तो क्या करें?’’

‘‘गायों के पीछे ग्वाल रखो। चौधरियों के खेतों में पशुधन मत जाने दो। इनके पकाया हुआ धान वापस हमारे ही तो घरों में आता है! फिर पीढि़यों से साथ-साथ रहते आये है, क्यों एक छोटी सी बात का बतंगड़ बनाते हो? एक वृद्ध बोला।

दूसरे दिन चारणों ने अपने गोधन के पीछे ग्वाले रख लिये।

उधर चौधरियों के भी पंच इकट्ठे हुए। विचार किया इन चारणों के और हमारे पीढि़यों का सनातन है। इनको नाराज किया तो लुटेरों से हमारी रक्षा कौन करेगा? तलवार तो ये लोग ही चलाते हैं ना!

तो क्या करें? किसी ने पूछा।

क्या क्या करें? करना वही हैं जो गांव के हित में हो। एक वृद्ध बोला।

अरे बाबा कुछ कहो तो सही क्या करें? वही तो हम तुम बुजुर्गों से पूछ रहे हैं।

‘‘कल अपने यहां चारणों को अफीम की मनुहार हेतु आमंत्रित करो। एक दूजे को अफीम देकर वापस संधी करके मन का मैल साफ करो।’’

दूसरे दिन चौधरियों के वहां चारणों को आमंत्रित किया गया। चारण सब आये। भारी सभा जुड़ी। कविता और छंदों का दौर चला। चारणों ने और चैधरियों ने एक दूजे को अफीम की मनुहारें देकर दोनों पक्षों में पैदा हुई वैमनस्यता को तोड़ा। चौधरणों ने मंगल गीत गाये।

आज पूरे गांव में खुशी का माहौल था। खोडि़यार मां और लाधी गांगड़ी के जयकारों से आकाश गूंज उठा।

धीरे-धीरे ये मालधारी चारण खुले चरागाह की खोज में अपने गांव से राजी खुशी पलायन करते गये। पीछे कुछ ही घर चौधरियों की रक्षार्थ आग्रह पूर्वक रोक लिये गये।

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