आप गिनायत हो! नीतर मांगता सो हाजर

कवि अर कविता री कूंत रो अद्भुत प्रसंग
किणी कवि कविता नै संबोधित करतां कविता नै चारणां रैअठै हालण रो सटीक कारण बतायो है, कै चारण प्राकृतिक रूप सूं काव्य रा प्रेमी होवै सो कविता अधूरी है तो पूरी करावैला अर जे पूरी है तो मुक्तकंठ सूं प्रशंसा करेला-
हाल दूहा उण देसड़ै, जठै चारण बसै सुजाण।
करै अधूरा पूरती, पूरां करै बखाण।।
ऐड़ो ई एक काव्य प्रेम रो अजंसजोग प्रसंग है ऊजल़ां रै गुलजी ऊजल़ (गुलाबजी) रो। ठिरड़ै रो गाम ऊजल़ां आपरी साहित्यिक अर सांस्कृतिक विरासत रै पाण चावो रैयो है। मोगड़ा रा संढायच गोपालजी रै तीन बेटा 1रानायजी 2सोढजी 3ऊदलजी (शायद ऊदलजी रो ई नाम ऊजल़जी होवैला) इणी ऊदलजी री वंश परंपरा में लालैजी नोखावत नै गोविंद नारावत ऊजलां गाम सांसण इनायत कियो। इणी गौरवशाली वंश परंपरा में बीसवैं सईकै में कवि गुलजी रो जनम होयो। कविता री गुटकी विरासत में मिल़ी सो कविता करणो इणांरै सारु सहल। एकर गुलजी घूमता-घूमता झिणकली (बाड़मेर) ढूका। झिणकली गाम ई चारणाचार रै पाण चावो। कवि मेहाणंद, कवि गेहलाणंद आद सिरै कवियां री जनमभोम तो भगवती शीलां अर देमां री कर्मभोम झिणकली ठावो गाम। झिणकली रो ढाकणियो खड़ीण आपरी ऊपज में चौताल़ै चावो। जिण माथै जैसलमेर महारावल़ रणजीतसिंह री कुदीठ पड़ी। बाद बधियो अर छेवट सांसण री मरजादा सारु शीलां माऊ जमर कियो। उल्लेखजोग है कै शीलां रो जनम कोडां रै रतनू शंकरदान रै घरै होयो अर ब्याव झिणकली रै बीठू जोगराजजी साथै। किंवदंती है कै शीलां माऊ रै प्रकोप सूं जमर रै तीजै दिन ई रणजीतसिंह रो एकाएक बेटो मरग्यो। इण जमर रो सुजस घणो पसरियो। ऐड़े ई बगत में थोड़ै महिणां पछै कवि गुलजी झिणकली पूगा। जोगराजजी रै बेटै सारंगदानजी रै ‘उतारै’ में कवि रो डेरो होयो। रात री साहित्यिक अर सांस्कृतिक हथाई होई अर दिनुंगै रैयाण रो हेलो होयो। जाजमां जमी अर कवि गुलजी री गिरा गरिमा सूं माऊ शीलां रै सुजस री सोरम पसरी-
अविरल शुभ दीजै उकत, माता तूं महमाय।
सुजस शीलां रो केहूं, रमै झिणकली राय।।
।।छंद रेंणकी।।
घूघर पद घुरत रमत नित रांमत,
इल़ आवड़ अवतार इसी।
शंकर घर जलम लियो जो शीलां,
दुसमण डरप्या दसो दिसी।
करनल ज्यां कोप वहैणजै बंका,
जस डंका जुग च्यार जमै।
सिमर्या नित साद सुणंती सांप्रत,
राजल शीलां रूप रमै।।
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रमै जु शीलां रास, सुणीजै सदा सचाल़ी।
रमै जु शीलां रास, आद कुल़वाट उजाल़ी।
रमै जु शीलां रास, जग जाहर जस जाणै।
रमै जु शीलां रास, वरण कथ च्यार बखाणै।
जैसाणै गढ पूगी जबर, ताकव व्रण नै तारणी।
जादमां छात हूतो जबर, चवड़ै मार्यो चारणी।।
ज्यूं ई छंदां री छौल़ां थमी अर त्यूं ई आणद री इल़ोल़ां अंतस में उपज वहा कविवर वाह!! री एककंठै सराह अर कवि रै आखरां रा वारणा लेवण री चाह सभा में देखणजोग बणी। शीलां रै सुजस सूं गदगद छभा में बैठा कोई दाना वीठू सिरदार बोलिया “वहा रै चारण वाह !! वहा गुलजी वाह! थूं गिनायत रैयग्यो अबै तनै कांई भेंट करां ? जे मोतीसर कै रावल़देव होतो तो कैतो ज्यूं हाजर कर देता ! मांगतो तो काल़जो ई काढ देता ! पण थूं माथै रो मोड़ ! तनै कीं नीं देय सकां।” आपरै आखरां री कूंत सूं अभिभूत कवि बोलियो “हुकम ! गिनायत हूं तो गिनायत रै लायक भेंट दिरावो।” उणां कैयो आदेश करो ! गुलजी कैयो “म्हारो भतीजो अणददान दीसतो-पाखतो मोटियार। छाछ अर बेटी मांगण री मैणी नीं जे आप सिरदार इतरा ई राजी तो म्हारै भतीजै अणदै नै थांरी दीकरी दिरावो।” गुलजी री बात पूरी ई नीं जितै बिचै उण सिरदारां में बैठा शीलां माऊ रा पोतां अचलदानजी सारंगदानजी रां कैयो “म्हारी बाई फूलां दी अणददान नैं! गिनायत तो गिनायत री जड़ होवै। तो ई आपरै आखरां री कीमत म्है नीं चूका सकां।” अचलदानजी, बेटी फूलांबाई अणददान ऊजल़ नै परणाय दी पण जड़ राखणी कै नीं राखणी आ तो हरि रै हाथ। थोड़ै दिनां पछै ई दुजोग सूं अणददान इण लोक सूं गमन कर दियो। फूलांबाई बाकी रो जीवण आपरै पिहरै में ई बितायो।
पण कविता रै कूंत री आ अमर कथा आज हथाई में अजंस उपजावै।
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”