आउवा सत्याग्रह – वंश भास्कर

।।पादाकुलकम्।।
कलिमल जो इहिं घोर कुमायो, अब कहियत अवसर तस आयो।
पहिलें यह जब हुतो बालपन, जननी तब याकी सह परिजन।।
जान लगी तीरथ या सुत जुत, दासिन रथ बृख इक तब मृत द्रुत।
स्व प्रतिसीम मग जंह बहु सासन, नियति कियऊ तंहं तिहिं बृख नासन।।
दस दस कोस हिराया चहुंदिस, मिल्यो न कहुं पतिग्राम भई निस।
सासन ग्राम मिले मंडल सब, तिनमैं नमि इक वृख मंग्यो तब।।
कहुं द्विज कहुं चारन दुर्बिधि करि, मिलि रु मूढ़ बोले देहें मरि।
भेजें हमन त्रनहु आजू भनि, बालिस बके बिबिध पर ज्यो बनि।।
मुल्लहु दे रानी वृख मंगिह, सोहु दयो न नटेहि कुसंगिय।
रत्ति रही तत्थहि तब रानिय, अह दूजे अनुगन वृख आनिय।।
जब आदरवारी दासिन जुति, द्वारावति सु गई रिस मैं द्रुति।
रानी को हि कहत कति वह रथ, पै निज देसहु दुक्ख लह्यो पथ।।
इहिं सिसु उदय प्रसू दुःख इक्ख्यो, सु नृप लेन बदला अब सिक्ख्यो।
जिते नटे सासन वारे जन, सासन तिन्ह लिए छिन्नि क्रोध सन।।
पुर खैरवा हुतो जब पापी, थिर ले दत्त कुमति तंहं थापी।
सुनत मिले सासन जीवी सब, तिन्ह इतरन दत्तहु छिन्नें तब।।
खट दरसन इम अखिल खिजाये, इहिं सर मरन आउआ आये।
करि इक सिवमंदिर बिच मैं किर, सब बैठे लंघत धरनां सिर।।
चंपाउत गोपाल मुखन चहि, सुभटन नृप बरज्यो कुबैन सहि।
मन्नि न तदपि कह्यो उत धरि मन, धरनां तुमहि दिवायो धुत्तन।।
यह बिखतरू तुम कुमति उपायो, अरु खैहो ब फलहु तस आयो।
लंघत दिन सप्तम इत लग्गो, भ्रम तब जियन सबन मन भग्गो।।
अक्खयराज बारहट अप्पन, मुन्ध्याहरपति बुल्लि महीधन।
भेज्यो वह रु कह्यो इम भाखहु, रसा अमंतु लै रु जिय राखहु।।
अपराधिन संगति पै उज्झहु, गिनि तिन्ह हेय देह तजि गुज्झहु।
अक्खय इतर पठावन अक्खिय, राजा वहही भेजि हट रक्खिय।।
पटगृह तैं सु निकसि नय पावन, स्वामि निदिष्ट चल्यो समुझावन।
जब नृपकों दुन्दुभिबादक जो, संगहि गय गोबिंद नाम जो।।
अक्खय जब धरना बिच आयो, जाचक जूह बिबिध बिरूदायो।
बुल्ले बिरुद चारन रु बिप्रहु, छोरन बपुन भये हम छिप्रहु।।
अक्खय सब स्वामी जब अेहैं, बसुधेसहि तब खेल बतेहैं।
अह लंघाई इते प्रभु आये, स्वजन तदपि हम अधिक सुहाये।।
अक्खय कहिय मंडि बिच आसन, समुझावन आयो नृप सासन।
अब पै मरत जाति द्विज आदिक, मरन हितन जावन प्रासादिक।।
इम कहि ह्रीत अक्खयहु इनमैं, रहिगो मरन धरन धारिन मैं।
गह्यो मरन बादक गोबिंदहु, उत यह सुनत कुप्पि नरइंदहु।।
भेजी कटार कहाई निर्भय, यहै तुमहु मारहु गुद अक्खय।
हरखि लयो सुहु उट्ठि बारहठ, हुव प्रातहि अब मरन फार हठ।।
जरठ इक्क खाटिक आयो जहं, तिहिं प्रातहि ध्रुव मरण सुन्यों तंहं।
जो चारन भजिगो घर डर जुत, सदन परनि आयो तब तस सुत।।
पुच्छयो तिहिं वह करत प्रबेसहि, दैवविलोम बच्यो किम देसहि।
किम हुव साम उठ्यो धरनां किम, जंपहु तात उदंत बन्यों जिम।।
ह्रीत जनक बुल्ल्यो खय होतैं, मरिजैबो न बन्यों सुत मोतैं।
आलय मैं यातैं भजि आयो, सह दुलही तू दुलह सुहायो।।
यह सुनि त्रपित छुराइ सु अंचल, चढ़ि देहलि दुलही तजि चंचल।
सुरजन बसन मोर कंकन सह, आयो भजि धरनां तस सुत वह।।
अह खट लंघि दिवस सप्तम इत, हिय धरि ध्रुव प्रातहि मरनो हित।
बिबिध सुरस भोजन बनवाये, इकठां सब जिम्मन जूरि आये।।
पंति बनत वह दुलह पइठ्ठो, दृढ करि नर्म कतिन हंसि दिठ्ठो।
परिबेसन पर्बहु इम अक्खिय, पिता पुत्र ए दुव हि असन प्रिय।।
पत्तरि दुव तातै परिबेसहु, इक लै जाइ खाय इक एसहु।
इम रिस दुलहु खाटिक हिं आई, पत्रावलि द्वै ही परुसाई।।
उमामूर्ति थप्पी सु पूजि अब, सप्तम दिन बित्तत जिम्मे सब।
अंबा की प्रतिमा के अग्गैं, ज्वलन हविस्य धूप जहं जग्गैं।।
बाद्य पटह दुन्दुभि मुख बग्गैं, लक्खन बिध पद्यन नुति लग्गैं।
भीरु सुनत सिंधुन स्वर भग्गैं, मरुप उदय पीठहु डगमग्गैं।।
अस्त्रन मैं हु उमा आवाहन, करिकरि कढ्ढि जजन लग्गे जन।
बैठैं सबन निसा सु बिहाई, इम इच्छित बेला ढिग आई।।
अर्धउदित रवि जानि तजन असु, सिवगृह सिर थप्प्यो गोविन्द सु।
खिल रहि मैं न लखो इतनों खय, इम गल छेदि गिर्यो सु इनोदय।।
पिक्खि गिरत गोबिंदहि दृढपन, तित तित मरन लगे जाचक जन।
वह खाटिक दुल्लह बिच आयो, बप्प तनय जुग मरन बतायो।।
यह मेरी रु जनक की है यह, बिधि इम छिन्न भिन्न किय बिग्रह।
सबन अरज किय इष्ट देव सन, जिम हम मरत सरे नहिं द्वै जन।।
जीवहिं इक दुरसा अढ्ढा जकि, तो इहिं नृपहिं लजावे खल तकि।
जीवहिं यह दुल्लह दूजो जिम, तिय जुत आयु समय बिलसैं तिम।।
उमा सबन बिन्नति मन्नी यह, जुग ये बचे छिन्न भिन्नहु जह।
जन खिल मृत घायल हुव जानहुं, मानव सहस अधिक तंहं मानहु।।
बपु गोबिंद तज्यो बिनु बाचक, जिहिंकुल हम किन्नों निज जाचक।
लखि वध यह फटिगो सिवलिंगहु, हठि नृप बहुरि भत्त दिय हिंगहु।।
भूपहिं सुनि मरतहु नहिं भाये, पीठिबिदारन अनुंग पठाये।
जब पल्ली पुरपति परिकर जुत, चढ़ि गोपालदास चंपाउत।।
अड्डो रहि रु रोकि नृप अनुगन, पीठि भजावत भयो निबहिपन।
इम खल नृप पल्लीहु उतारी, धीर सु बहि गोपाल सु धारी।।
संग निजहि लैकैं जाचक सब, तजि पल्ली मेवार सु गो तब।
उदयरान जो पट्ट याहि दिय, सु सबन बंटि स्वयंमत बिलसिय।।
इम गोपालदास चंपाउत, जाचक अखिल निबाहे जसजुत।
जब खल नृप मरिहै तब जैहैं, द्विज सूतन पुनि थान दिवैहैं।।
करि भुव त्याग बारहट संकर, बीकानेर तबहि गो बुधबर।
पाइ पलोधि ग्राम दुवसतदस, खिल खट बरन जिवायो लै जस।।
पर दुख दुखित देखि इहिं भूप्रिय, पुरनागोर त्रिलक्ख पटा दिय।
अखय मर्यो संकर कढिगो इम, तहं गल भिन्न बच्यो दुरसा तिम।।
न हुव नाम माला नृप न्यारो, इक संदू जु भदोरे वारो।
बहुदिन खल सु जाति के बाहिर, जिहिं अपराध रह्यो जग जाहिर।।
दोहा
पापी नृप हुव जोधपुर, इम सु उदय अभिधान।
नाम तज्यो जाको नरन, मानि अबाच्य समान।।