आवां छां अमरेस!

किंवदंतियों के अनुसार जिस महावीर का दाहसंस्कार तीन बार हुआ। उन पर कुछ मेरी कलम से। तीनों ही जगह दाहसंस्कार के स्मृति चिह्न आज भी इन बातों के साक्षी है। स्मृति चिह्न इतिहास वेत्ता आदरणीय भंवरदानजी सिधमुख के सौजन्य से।
स्वाभिमान अर हूंस आजरै जमाने में तो फखत कैवण अर सुणण रा ईज शब्द रैयग्या। इण जमाने में इण दो शब्दां नै लोग जितरा सस्ता अर हल़का परोटै, उणसूं लागै ई नीं कै कदै, ई शब्दां रा साकार रूप इण धर माथै हा।
आज स्वाभिमान अर हूंस राखणा तो अल़गा, इण शब्दां री बात करणियां नै ई लोग गैलसफा कै झाऊ समझै। पण कदै ई धर माथै ऐड़ा मिनख ई रैवता जिकै स्वाभिमान री रुखाल़ी सारू प्राण दे सकता हा पण स्वाभिमान नै तिल मात्र ई नीं डिगण देता। कट सकता हा पण झुक नीं सकता। ‘मरणा कबूल पण दूध-दल़ियो नीं खाणा।’
यूं तो ऐड़ै केई नर-नाहरां रा नाम स्वाभिमान री ओल़ में हरोल़ है पण ‘सांवतसिंह झोकाई’ री बात मुजब ‘मांटियां रो मांटी अर बचकोक ऊपर’ री गत महावीर बलूजी(बलभद्र) चांपावत रो नाम अंजसजोग है।
मांडणजी चांपावत रै गोपाल़दासजी अर गोपाल़दासजी रै आठ सपूतां मांय सूं एक हा निकलंक खाग रा धणी बलूजी गोपाल़ोत।
बलूजी रो नानाणो बीकमपुर रै भाटी गोयंददास मानसिंहोत रैअठै हो। मामा ज्यांरा मारका, भूंडा किम भाणेज। भाटियां री बधताई बतावतां मानसिंहजी जोधपुर लिखै-
गहभरिया गात गढां रा गहणा,
उर समाथ छिबता अनड़।
बलूजी राजपूती रो सेहरो अर साहस रो पूतलो हा। ज्यूं चावल़ छड़णै सूं ऊजल़ हुवै उणी गत रजपूती ई सैलां रै घमोड़ां सूं छड़ियां निकलंक हुवै। बलूजी अर रजपूती एक-दूजै रा पर्याय हा-
रजपूती चावल़ रती, घणी दुहेली जोय।
ज्यू़ं ज्यूं छड़जै सेलड़ी, त्यूं त्यूं ऊजल़ होय।।
बलूजी, जोधपुर रा राजकुमार अमरसिंहजी रा खास मर्जीदान हा। बलूजी नै महाराजा गजसिंहजी पाट बैठतां वि.सं. 1619 री आसोज सुदी 10 रै दिन 21गांमां सूं हरसोल़ाव री जागीर दी ही।
एक दिन महाराजा गजसिंहजी री प्रीति-पात्र अनारा बेगम अमरसिंहजी नै आपरी पगरखियां उठाय झलावण रो कह्यो तो रीस में झाल़बंबाल़ हुवतां अमरसिंहजी कह्यो कै- “ओ म्हारो काम थोड़ो ई है?”
लोग तो आ ई कैवै कै वै उण बखत बेगम नै घणा आवल़िया-कावल़िया बकिया। जिणसूं उण महाराजा रा कान भरणा शुरू कर दिया। जिणसूं महाराजा रीसायग्या अर अमरसिंहजी नै आपरै हक सूं वंचित हुवणो पड़ियो। किवंदती तो आ ई है कै अमरसिंहजी, नै जोधपुर छोडण रो आदेश ई दियो गयो हो। जद अमरसिंहजी जोधपुर छोडियो उण बखत जिकै मौजीज सरदार साथै टुरिया, उणां में एक सिरै नाम हो बलूजी चांपावत रो।
गजसिंहजी रै देहावसान पछै शाहजहां जसवंतसिंहजी नै जोधपुर रो तिलक अर अमरसिंहजी नै नागौर स्वतंत्र रूप सूं दी अर राव रो खिताब ई दियो।
अमरसिंहजी नै घेटा(मिंढा) पाल़ण रो शौक हो। सो वै घेटा तो पाल़ता ई साथै ई आ पण जिद्द ही कै नागौर रा टणकसिंह ठाकरां ने बारी-बारी सूं घेटा चरावणा पड़सी। जद बल्लूजी री बारी आई तो बल्लूजी भरिये दरबार में ना देतां कह्यो कै- “ऐवड़ चरावण रो काम गडरियां रो है, हूं हाथ में गेडी नीं तरवार राखूं। म्हारो ओ काम थोड़ो ई है? म्हैं घेटां लारै आज उछरूं न को काल। जाडी पड़ै जठै घेर लीजो।”
केसरीसिंहजी सोन्याणा रै आखरां में-
बोल्यो बलू वीरवर, हम न चरावहि नाथ।
एडक झुंड चरायबो, होत गडरिया हाथ।।
अमरसिंहजी नै ऐड़ो जवाब देण रो मतलब हो नाग रै मूंढै में आंगल़ी देणी कै सूतै सिंह रै डोको लगावणो। अमरसिंहजी रीस में लालबंब हुयग्या पण बाबै रै ई बाबो हुवै। बलूजी ई अकूणी रा हाड हा। अमरसिंहजी जाणता कै फफरायां सूं बलू डरै! वा जागा खाली है सो उणां आकरा पड़तां पूछियो कै- “पछै आपरो कांई काम है?”
जणै बलूजी कह्यो कै- “खमा! म्हारो काम पातसाही सेनावां पाछी घेरण रो है घेटा चरावण रो नीं”
आवै जद सांम मुगल दल़ उरड़ै,
करड़ै वैणां कटक कियां।
राखूं तिणवार पिंड राठौड़ी,
मरट मेट सूं भेट मियां।
टोरूं जवनाण हाक जिम टाटां
झाटां लेसूं गात झलू।
तोड़ण मुगलांण माण कज तणियो,
वणियो मरवा वींद बलू।।(गि.रतनू)
“पातसाही सेनावां रो म्हनै डर नीं है, वै तो हूं आपै पाछी ठेल देसूं पण अठै तो घेटा चरासी वो ई रैसी।” अमरसिंहजी कह्यो तो बल्लूजी भचाक उठिया अर कह्यो – “आपनै तो ठाह ई है कै हूं तो ढांग माथै डेरा राखूं जणै ई तो पट्टो तरवार री मूठ बंधियो राखूं।ओ पट्टो काठो राखो।”
उणां नागौर छोड दी अर बीकानेर महाराजा कर्णसिंहजी रै कनै बीकानेर आयग्या। कर्णसिंहजी ई स्वाभिमानी अर साहसी राजा हा। हीरे री परख जौहरी ई जाणै।बीकानेर दरबार बल्लूजी नै घणै आदर साथै राखिया।
पण छछवारी नै छछवारी कै चढी नै चढी सुहावै नीं। आ ई बात अठै ई हुई बल्लूजी री कीरत अठै ई घणै मिनखां नै नीं भाई–
सूरां पूरां वत्तड़ी, सूरां कांन सुहाय।
भागल़ अदवा राजवी, सुणतां ई टल़ जाय।।
चौमासै रो समय हो अर बल्लूजी आपरै डेरे में आराम करै हा जितरै किणी बीकानेरिये सरदार रै चाकर आय बल्लूजी नै मतीरो भेंट करता कह्यो कै- “हुकम! दरबार आपरै आ भेंट मेलतां कह्यो है कै – “मती रो(मतलब अठै मत रैवो) अरोगो।”
बल्लूजी तो तिणै माथै तेग राखता। वां अर्थ लगायो कै दरबार म्हनै ‘मती -रो’ मेल’र परबारू अठै नीं रैवण रो संदेश दिरायो है।उणां भच घोड़ै जीण कसी अर बड़गड़़ां-बड़गड़ां वै ई जा! वै ई जा!! कर्णसिंहजी नै इण तोत रो ठाह लागो तो उणां नै एक राजपूत गमावण रो घणो दुख अर पछतावो हुयो।
बलूजी अठै सूं आमेर महाराजा कनै गया परा। उठै महाराजा उणांनै घणै कूरब सूं राखिया। पण हांती थोड़ी अर हुल़हुल़ घणी री गत आमेरियां रो घमंड बलूजी सूं सहन नीं हुयो अर वै आमेर छोड बूंदी शत्रसालजी कनै गया परा। उठै ई हाडां री ओछी बातां, आप सूं सही नीं गी अर आप उठै सूं मेवाड़ महाराणा जगतसिंहजी कनै गया परा।
जगतसिंहजी मिनख रा पारखी अर उदार मिनख हा। उणां, बल्लूजी रो घणो माण बधायो।
बल्लूजी रै तो आखड़ी ही कै तिल मात्र ई अपमान कै तोत निगै आवै तो उठै नीं रैणो। मेवाड़ रा सरदार बल्लूजी री आदत नै जाणतां तो साथै ई वै ताक में रैवता कै कीकर ई बल्लू नै अठै सूं काढियो जावै। एक दिन सिंघ री शिकार री बात हुई अर मेवाड़ां आपरी चालां चली। चाल बल्लूजी रै समझ में आयगी अर उणां टप पट्टो तरवार री मूंठ सूं काढ’र राणाजी नै झलावतां कह्यो कै- “मोटो बोल अर तोत बल्लू सहन नीं करै। अठै आपरै सरदारां री बातां में घात री गिंध आवै। ओ म्हारै खानदानीपणै अर रजपूतपणै री बेकद्री है सो हूं उदयपुर अजेज छोडूं।”
महाराणा घणा ई नोरा काढिया पण बल्लूजी नीं मानिया अर सीधा आगरै गया परा। जठै शाहजहां इणांनै मनसब दे राखिया।
उण दिनां ई बल्लूजी आपरी बेटी परणावण री त्यारी करी। जणै उणांनै कीं नाणै री जरूरत पड़ी। उणां एक बाणिये सूं रुपिया लेवण री बात करी। बाणिये रो नेम हो कै अडाणै टाल़ै वो किणी नै ई कीं देतो नीं। उण बलूजी नै कह्यो कै- “हुकम ! कीं अडाणगत है, आपरै कनै?”
जणै बल्लूजी आपरी मूंछ रो एक माल़ (बाल़) उखाड़’र बाणिये नै देतां कह्यो कै- “लो सेठां।”
सेठां बाल़ देख’र कह्यो कै- “हुकम!बाल़ तो बांको है!”
जणै बल्लूजी कह्यो कै- “सेठां! बांको है! तो ई म्हांको है!!”
बाणियो समझग्यो कै मिनख कोई अणपाणी वाल़ो अर खरीखो है। उण बल्लूजी नै जोईजतो नाणो एक बाल़ रै बदल़ै दे दियो।बल्लूजी आपरी बाई ब्याव घणै थाट सूं कियो।
खासै दिनां पछै नागौर राव अमरसिंहजी नागौर सूं आगरै आय पातसाह रै पेस हुवण री सलावतखां सूं अरजी गुदराई।सलावतखां, अमरसिंहजी माथै लागतो सो उण बिनां सोचियां-समझियां अमरसिंहजी नै गंवार कैवण सारू मूंढो खोलियो अर ग.. ई कह्यो जितै अमरसिंहजी री कटार आछटी जिको सलावतखां रै गल़ै पार हुयगी। अमरसिंहजी री कटार रै तेज रो बखाण करतां माधोदासजी गाडण(छींडिया) नव रोमकंद छंदां में कटारी रै नव रूपां रो ठावको वर्णन कियो है। कटार यूं आछटी जाणै सिंघण, बीजल़, नागण, हथणी, अगन, सूरणी, नदी, गिरजणी, अर साकण रै रूप में सलावतखां रो भख ले रैयी है। कवि री वर्णन विशदता अर अमरसिंहजी री अडरता री नामी ओल़खाण इण छंद में हुई है। एक दाखलो-
रण बीझ विचाकर बाघण संघिय,
छावाय मेलण छाय छिपी।
झरड़ै असुरायण लोहिय झागिय,
रंग सुरंगिय जंग रुपी।
अणियां नहराल़ अछ़ैड़य आतम,
घूमण लागिय रोस घणै।
अमरेस कटारिय मेछ तणै उर,
तोखिय गाजियसाह तणै।।
महाकवि नरहरदासजी बारहठ, अमरसिंहजी रै आपांण रा बखाण करतां उण परवर्ती वीरां रै जोड़ मानिया जिणां दिल्ली में साको कर’र सुजस रो डंको घुरायो-
एकलै भुजां बिहूं छखंड छाते उवर,
दिस दिसा बजै जस तणो डाको
मालहर वीरहर पढै वैढीमणै,
सूरहर तीसरो कियो साको।।
जिण मुगलां रो डंको लगटगै भारत में बाजतो वै अमरसिंहजी री कटार रै तेज सूं डरता खुणां में लुकग्या। कवियां लिख्यो है–
दिल्ली तणै दरबार, इम कह कह नर ओल़खै।
मुगलां मारणहार, ओ भड़ आयो अमरसी।।
पण होणहार नै कुण टाल़ै सकै। अमरसिंहजी जैड़ो शेर आपरै ई लोगां रै हाथां वीरगत पाई। अर्जुन गौड़ धोखै सूं अमरसिंहजी रै झाटको बाह्यो जिणसूं वो नर-नाहर सुरग रो राही बणियो। उण वीर री लास उठै ई पड़ी रैयी। जाणै पूरै राठौड़ां नै साप सूंघग्यो हुवै। किणी चूंकारो ई नीं कियो। अठीनै अमरसिंहजी रै रावल़ै राणियां अमरसिंहजी री लास नै इण आस में उडीकै ही कै सती होय पति रै साथै सुरग जावां। आ बात जद बलूजी री ठकराणी मायाकंवरजी सुणी तो उणां बल्लूजी नै कह्यो कै-
“म्है तो आजतक आ सुणती कै –
बलहठ बंका देवड़ा, करतब बंका गौड़।
हाडा बंका गाढ में, रणबंका राठौड़।।
पण म्हनै ‘रणबंका राठौड़’ री बात सफा ठायोड़ी लागै! आज म्हनै तो लागै कै राठौड़ रैयत सूं ई माड़ा है। धातू सूं इयां डरै जाणै चनण-गोयरो बीजल़ी सूं डरतो हुवै।”
जाणै नाग री पूंछड़ी माथै किणी रो पग आयो हुवै। आ बात सुणतां ई बलूजी री मूंछां रा भ्रूह़ारा तणग्या। वां आपरी ठकराणीसा नै कह्यो- “तैं आ बात कीकर कैयी? तूं तो राठौड़ां री बाण अर उणांरो आपाण जाणै ई है! तैं तो हाथ उण बलू रो पकड़ियो है जिणरो हाथ आठपौर तरवार री मूठ माथै ई रैवै। बलू जीवतो जितै राठौड़ी कीकर मर सकै।”
ठकराणी ई रजपूताणी री जायोड़ी ही। उणा़ं पाछो कह्यो कै – “म्हनै लागै कै आज आपरै जीवतां-जीवतां ई राठौड़ी रुखसत हुयगी। मोकाण करावणो ई ईज बाकी रह्यो है। आप सुणी नीं कै नीच गौड़ां रै हाथां नागौर धणी वीरगत पायग्यो अर लास माथै अजै गिरजड़ा भमै। अमरसिंहजी जैड़ै राठौड़ री आ दसा है, जणै बापड़ो कोई खेतधणी अठै काम आवतो तो उणरी कांई गत हुवती ? म्हनै तो कल्पना कर’र ई डर लागै!!”
बलूजी एक’र तो निसासो नाखियो। निसासै सूं एक’र उणां रो हियो हल़को हुयो। जणै ई तो कवियां नीसासै नै ई बखाणियो है-
निसास तूं भल सरजियो, आधो दुक्ख सहंत।
जे निसासउ सरजत नहिं, तो हीया हूं मरंत।।
पछै बोलिया- “बडभागण तनै तो ठाह है नीं, कै म्हारो नागौर धणी सूं रूसणो है। म्हैं उणां सूं रीसाय’र ई तो नागौर छोडी हूं। पछै क्यूं उणां री गिनार करूं?”
ठकराणीसा कह्यो- “गोत री गाल़ तो भैंस नै ई लागै ! पछै आप तो मिनखां जैड़ो मिनख हो। रूसणै सूं रगत थोड़ो ई बदल़ीजै, आखिर अमरसिंहजी आपरा धणी हा। लोग बीजां नै नीं, पण आपनै मेहणी जरूर देसी कै अमरसिंहजी री लास नै चीलां खाई उण दिनां बलू आगरै ई हो। जे नव री तेरा करतो तो कर लेतो!!”
आ बात सुणतां ई बलूजी री भुजावां फड़कण लागी, मूंछां री भ्रूहां तणगी। उणां कह्यो- “बात थारी सही” आ कैयर उणां उठै भाऊसिंह कूंपावत जैड़ै जीवतै जमीर रै राठौड़ सूं सलाह करण री तेवड़ी।
अठीनै थोड़ै दिनां पैला ई खारोड़ै रा देथा चारण नेतसी-खेतसी चार घोड़ा लेय’र उदयपुर जगतसिंहजी कनै आया। हर घोड़ै रो मोल दस हजार हो। राणाजी घोड़ां री बधताई पूछी, जणै इणां कह्यो कै घोड़ा नीं, ऐ तो बलाय रा बटका है। खाडै में बूरिया निकल़ण री खिमता राखै। मनै नीं, तो परख करलो। राणाजी परख रो आदेश दियो। एक घोड़ै रा च्यारूं सुम सीसै में गढाय’र सवार ऐड लगाई तो घोड़ो बेग सूं आगो कूदियो अर च्यारूं सुम सीसै में गढिया रह्या। थोड़ी ताल़ पछै घोड़ो छूटो(मर गया)। आ देख राणाजी दो घोड़ा खरीदतां कह्यो कै आ तीन री रकम लिरावो पण चौथो हूं नीं खरीद सकूं। उण बखत वो चौथो घोड़ो देथां भायां, खारी रा मोतीसर पंचायणजी नै उपहार सरूप दे दियो-
नेता रहसी नाम, देथा दातारां तणा।
बद कायर बदनाम, मूंजीड़ा जासी मरै।
उण दो घोड़ां मांय सूं एक घोड़ो राणैजी आपरी सवारी सारू अर दूजो बल्लूजी री सवारी सारू आगरै पूगतो करतां कह्यो कै-“ओ घोड़ो बलू रै जोग है”-
यों तो बहुत सवार है, रान कहि यम मत्त।
याके योग्य सवार तो, बल्लू चांपावत्त।।
जद सूं ओ कैताणै चावो हुयो कै- “घोड़ो बल्लू रै जोग हो।”
जद घोड़ो आगरै पूगो उण बखत बल्लूजी अमरसिंहजी री लास लावण सारू आगरै रै किल्ले माथै आक्रमण री तजबीज सोचै हा। जितरै राणैजी रै चाकर आय बल्लूजी नै घोड़ो भेट कियो।
घोड़ो देखतां ई बल्लूजी कह्यो कै- “मेवाड़पति म्हनै अबखी में घोड़ो मेल राजपूत कियो। म्हारो माण बढायो। पण हूं तो मरणमतै हूं। हूं जाणूं कै इण घोड़ै रो ओसाप म्हारै माथै थिर रैसी। पण ओ राजपूत रो वचन है कै जीवतो रह्यो तो ई घोड़ै रो बदल़ो देसूं अर मरग्यो तो ई सुरग सूं आय काम पड़ियां राणैजी री किरपा रो ओसाप चूकावसूं” –
इण विरिया हौं जात हो, अमर पास सुरथान।
या को बदल़ो आतमा, देहे मेरी आन।।
बल्लूजी घोड़ै जीण कसी उण बखत बलूजी रो तेज अर पौरस देखणजोग हो। कै मरण कै मारण रै मतै हुवणिया ई जगत में नाम उबारै-
नर सैणां सूं व्है नहीं, निपट अनौखा नाम।
दैणा मरणा मारणा, कालां हंदा काम।।
बल्लूजी रै आपाण अर नूर नै देख’र कवियां लिख्यो है–
बगतर नह पैरै बलू, वागां करै बणाव।
आजोको उजवाल़सी, रिणमल चांपो राव।।
ठकराणीसा रै खरै अर खारै आखरां सूं बलूजी नै हड़मान वाल़ो बल़ याद आयो। उणां आपरो कर्तव्य चितारियो कै-
साम उबलेण सांकड़ै, रजपूतां ऐह रीत।
जबलग पाणी आवटै, तबलग दूध नचीत।।
पण इण नचीत-नचीत में चिड़ियां खेत चुगगी। म्हैं आगै जाऊंलो तो ईस री दरगाह में कांई जवाब देऊंलो? कै हूं आगरै में होतां थकां अमरसिंहजी री रक्षा नीं कर सकियो। वा तो कोई बात नीं पण हूं राणीसा नै धणी री देही नीं लाय’र दे सकियो। लोग म्हारै कांई ? आखी मारवाड़ रै माजनै में धूड़ न्हांखसी। नाक बाढसी। खैर ‘गई हो गई अब राख रही को’। पाछत बूठां ई सुगाल़ है। हमै का ई पार कै उण पार।”
आ धार विचार’र बल्लूजी आपरो लीलो घोड़ो आगरै रै किलै में कुदावण अर भाऊसिंह कूंपावत नै अमरसिंहजी री हवेली रुखाल़ण रो जिम्मो दियो। बल्लूजी मुगलां री गिनर करियां बिनां आपरो घोड़ो आगरै री आग में झोखियो। देखणियां री राफां फाटगी। सुणी जिणां रै मनी नीं, कै कोई रांघड़ इणगत मोत नै अंगेज’र मुगलां रै अजय गढ री भींत घोड़ो कुदाय सकै? पण ओ तो बल्लू हो! जिणसूं जम ई दो पाऊंडा आगो बैवतो। बैवणो ई हो। क्यूंकै जिणां नै प्राण प्यारो नीं जस प्यारो हुवै। जिकै आपरै माथै ऊपर रूठा बहै, उणां सूं दई ई डरतो कानो लेवै–
प्राण पियारा नह गिणै, सुजस पियारा ज्यांह।
सिर ऊपर रूठा फिरै, दई डरप्पै त्यांह।।
मुगलां माथै घोड़ो ठेलण रो मतो ई कुण करै। पूरो हिंदुस्तान जिणां सूं शंकतो। उणांरी कंवारी घड़ां(वा सेना जिण माथै किणी हमलो नीं कियो हुवै) नै परणीजण सारू कोडकर’र बलू आगरै रै किलै तोरण वांदियो। किणी चारण कवेसर कह्यो है-
कंवारी घड़ां नवसाहसै कोडकर,
परणियो बलू पतसाह री पोल़।
बलूजी रो विकराल़ रूप देख’र एक’र तो मुगलां खुणा तकिया। खुद पातसाह सुरक्षित जागा जाय लुकियो। किलै में सरणाटो छायग्यो-
माची हहकार आगरो मरघट,
साहजहां मन कियो सँको।
रूठै भड़ पाल तणो हद राटक,
दाटक बलियै दियो डँको।
आण्यो तन अमर गुमर सूं अडरै,
चरचा अजतक बहै चलू।
तोड़ण मुगलांण मांण कज तणियो,
बणियो मरवा वींद बलू।।(गि.रतनू)
पण पातसाह री मूंछां खांच’र उणरी नाक नीचै सूं अमरसिंहजी री लास इणगत ले जावतां देख’र मुगल अर उणां रा भाड़ेतियां तरवारां खांची अर सोचियो कै घणां नै देख’र कैड़ै ई जोधारां रा खांचा ढीला पड़ ज्यावै पछै बलू री कांई जनात है?
पण वाह रे बलू ! होफर रै ज्यूं ई साम्हीं डकर कर निडर रह्यो। पूठ नीं बताई अर नीं डरतै डग आगै दिया। बलूजी रै उण समय रै मनगत नै किणी चारण कवेसर कांई सजोरै आखरां में पोया है। बलू भगवत नै संबोधित करतां कैवै कै मरद नै रणांगण में मरण मतै हुयां नठाणणो भगवत रै हाथ में नीं है। पछै ऐ तो बापड़ा मिनख है। जे भगवत रै हाथ में नठाणणो हुवै तो म्हनै नठाण’र बतावै-
गोपाल़ोत कहै गढपतियां,
मंडियां मरण तणै हिज मंत।
भाजवणो सारो भगवत रै,
भजवो नीं मोनूं भगवंत।।
बलूजी पूठ नीं फोरी। अमरसिंहजी री लास बाजतै डंकै राणीसा नै लाय दी। जठै जमना रै किनारै अमरसिंहजी री राणी सत कियो। उण बखत बलूजी सतियां रै साथै अमरसिंहजी तक आपरा भाव पूगाया। उणांमें घेटा घेरण री ठौड़ पातसाही घड़ां अपूठी घेरण री बात गीरबै साथै कैयी। किणी कवि रै आखरां में-
पयँपै बलू गोपाल़ रो, सतियां हाथ संदेश।
पतसाही घड़ मोड़नै, आवां छां अमरेस।।
उण बखत उठै बलूजी रो मुकाबलो मुगलां सूं पाछो हुयो अर ओ स्वाभिमान वीर वीरगत पाय अमरसिंहजी रै लारै रो लारै सुरग पूगो। बलूजी रै बांकपणै अर खत्रवट रै आंकपणै नै कूंततां नवलजी सांदू लिखै-
साथ रा सांकता पांक अस सेलियो,
विजड़ उझाकि रिणखेत वल़ियो।
वांक रिण काढते बलू रिण वांकड़ा,
वांक विण खत्रीवट आंक वल़ियो।।
हिंदू मरै जठै ई हद है। उठै ई बल्लूजी रो दाग हुयो। जठै आज ई उण अश्व मूर्ति उणांरै अदम्य साहस अर स्वाभिमान री साखीधर है, जिणरी पीठ बैठ उणां रजपूती राखी ही।
बात आई गी हुई। उदयपुर महाराणा जगतसिंहजी राम कियो(सुरगवास) अर राजसिंहजी पाट बैठा। रूपनगढ री कंवरी चारूमति सूं ओरंगजेब री इच्छा रै विरोध में जाय ब्याव कियो। पातसाह आपरी सेना उदयपुर माथै मेली। पातसाह री विशाल सेना देख राजसिंहजी रो मन काचो पड़ियो अर उणां रै मूंढै सूं निकल़ियो कै- “कांई बल्लूजी आपरो वचन नीं पूरै? बल्लूजी जैड़ो राजपूत वचनहीण कीकर हुय सकै? पण मरियोड़ा कद पाछा आवै भला। ऐ तो खाली मन राजी करण री बातां है पण जे आज बलू राठौड़ जीवतो होवतो तो घोड़ै री भरपाई करण सारू आंनै आपरा हाथ अवस बतावतो।”
ऐड़ी किवंदती है लड़णियां देखियो कै एक लीले घोड़ै रो असैंधो असवार महाराणा री सेना कानी सूं मुगलां सूं हरोल़ में लड़ै हो। उण रा वार बखाणणजोग हा जिण प्रबल प्रहारां सूं वो मुगलां रा माथा बाढै हो उणसूं सिसोदिया निचींत हुया। लड़ाई ठंभी। महाराणा उण वीर रा वारणा लेवण सारू जोयो तो वो वीर तो नीं लाधो पण लड़ाई रै मैदान में एकै कानी परिया एक दुसालो पड़ियो मिलियो। महाराणा समझग्या कै वो वीर दूजो कोई नीं बल्कि बलूजी चांपावत ईज हो क्यूंकै बलूजी वचन नीं चूकै। उणां मेवाड़ त्यागती बखत कह्यो हो कै घोड़ै रो मोल जीवतो नीं चूका सकियो तो अबखी पड़ियां सुरग सूं आय चूकाऊंलो। बलूजी री वीरता अर घोड़ै रो ओसाप उतारण रै वचनपूर्ति रै भावां नै किणी चारण कवेसर कितरै सतोलै आखरां में प्रगट किया है। कवि लिखै कै जितै बलूजी घोड़ै रो मोल नीं चूकायो जितै नरलोक में ई रह्या, सुरग नीं ग्या। जद देबारी घाटी में जुद्ध हुयो तो वचनां री पूर्ति कर’र बलू सुरग पूगो-
जग पर वचन कहै जोधपुरो,
पता वचन नह खता परै।
दहबारी कांकल़ व्है जिण दिन,
भाड़ो अस चो लीध भरै।।
घाट निराट अहाड़ा घड़तो,
झाट खगां अर थाट झलू।
नरपुर तणो वचन निरभाए,
बसियो सुरपुर जाय बलू।।
इण आखरां रै (गि.रतनू)लिखणहार रै शब्दां में-
हिंदवापत ऊपर रूठ नैं हेकर
औरंग फौजां ले अड़ियो।
देबारी कमध पमँग चढ अदरस,
लाज उबारण आ लड़ियो।
अस रो अहसान चुकायो इणविध,
अधपत कायम कर अमलू।
तोड़ण मुगलांण मांण कज तणियो,
बणियो मरवा वींद बलू।।
कृतज्ञ महाराणा बलूजी रै उण दुसालै रो उठै विधिवत रूप सूं दाग कराय’र बलूजी री स्मृति में एक छत्री बणाई। जिकी आज ई इण बात री साख भरै कै बलूजी इण घाटी में ‘राणा री आण अनूठी’ है रै ऊल़लतै गाडै आय डगां दी अर रणबंका राठौड़ रो विरद एक’र भल़ै ऊजल़ कियो।
अठीनै घणा वरस बीतां आगरै रै उण बाणिये रै बेटे/पोते (जिणसूं बलूजी आगरै में रकम उधारी ली ही) आपरै मुनीम नै कह्यो कै- “भाई! कोई ऐड़ो खातो जोय जिणमें अडाणगत पड़ी है अर रुपिया नीं आया हुवै।”
मुनीम बही फिरोल़’र कह्यो- “सेठां रकम तो सांवठी है पण अडाणगत साव हुप्फ है! लोग भारी रकमां ई नीं छोडावै, वै डूल हुय ज्यावै। पछै ऐड़ी अडाणगत छोडावै ई कुण ? आ रकम तो धरमखाते ई समझो अर अडाणगत नै आगड़ी फैंको।”
जणै सेठां इचरज में पड़तां पूछियो- “ऐड़ी कांई रकम है? जको धणी छोडावै ई नीं।”
जणै मुनीम कह्यो कै- “मारवाड़ रै गांम हरसोल़ाव रै ठाकुर बलूजी चांपावत री मूंछ रो एक माल़(बाल़) है अर बदल़़ै में रुपिया है, जिको अबार रै हिसाब सूं एक लाख हुवै। कुण छोडासी?”
आ सुण’र सेठां कह्यो- “रे बावल़ा! जिणांनै आपांरै वडेरां मूंछ रै माल़ सटै रुपिया दिया हा तो कीं सोच’र ई दिया हुसी। ठाकुर भलांई सौ वरस करग्या हुवै पण लारै ई मिनख तो हुसी कै ना? उणांरी अऊत थोड़ी गी है। रूंखां जैड़ा ई छोडा हुवै। आ बात तो तैं सुणी हुसी। अजै धरती बीज गमायो नीं है। मारवाड़ हालण री त्यारी करावो।”
सेठ पूछता-पूछता हरसोल़ाव पूगा अर तत्कालीन ठाकुर सूरतसिंहजी चांपावत नै पूरी बात विगतवार बताई। पूरी बात सुण’र सूरतसिंहजी कह्यो कै- “सेठां !आपरो पूरो हिसाब कियो जासी पण आजसूं बारहवैं दिन।”
आ बात सुण सेठां कह्यो- “कोई बात नीं। इतरा वरस तक कीं खाटो-मोल़ो नीं हुयो तो दस-बारह दिन भल़ै ई सही। इतरी सांवठी रकम एकाएक कैड़ै ई आदमी सूं नीं बणै। म्हैं बारै दिन भल़ै उडीक लूं लो।”
आ बात सुण’र ठाकरां कह्यो कै – “रकम तो हाथवल़ू ई है। उण सारू उडीकणो नीं है आपनै। बात आ है कै आज तो म्हैं म्हारै दाता रै बाल़ रो दाग करसूं, पछै खरड़ी(मृतक के शोक में बैठने वालों के लिए बिछाई छानी वाली दरी आदि) ढाल़सू। बैठक राखसूं। बारियो करियां अर पाघ बंधाई पछै ई आपरी पाई-पाई चूकती करीजसी।”
सेठ रै इचरज रो पार नीं रह्यो कै ऐड़ा लोग ई अजै है जिकै आपरै वडेरां रै बाल़ रो दाग कर’र बारै दिन सोग राखै! बाकी केइयां रा तो इयां ई खोखा खावता जावै।
सूरतसिंहजी बलूजी रो ऐढो कियो। पूरा नेगचार हुयां पछै सेठां रो हिसाब कर’र एक लाख रुपिया चूकाया अर बलूजी रै बाल़ नै जठै दाग दियो उठै उणांरी स्मृति में एक छत्री बणाई। कवियां सूरतसिंहजी रै मिनखपणै अर वडेरां रै प्रति उणांरी संवेदना अर समर्पण नै सरावतां लिख्यो-
कमंध बलू मुख केस, महपत गहणै मेलियो।
सो लीनो सुरतेस, एक लाख द्रब आपियो।।
राजस्थान रै मध्यकाल़ीन इतियास में बलूजी एकमात्र ऐड़ो नाम है जिणांरो न्यारी न्यारी बखत में तीन बार दाहसंस्कार हुयो। जिण-जिण जागा दाग हुयो उण तीनूं जागा आज ई स्मृति चिन्ह उण अजरेल री अडरता अर आखड़ी पाल़ण रै अड़ीखंभ नेम रा साखीधर है। दानवीर जेहा भाराणी माथै कह्यो किणी कवि रो एक दूहो जिणमें कवि कह्यो है के-हे जेहा! भाराणी म्हैं ओ जुग फिर फिर’र जोयो। जिणमें थारी जात समोवड़ तो घणा ई मिलिया पण थारी रात समोवड़ करणियो तैं टाल़ कोई बीजो निगै नीं आयो। ओ दूहो महावीर बलूजी रै माथै एकदम चरितार्थ हुवै-
जेहलिया भारै तणा, जुग फिर दीठो जोय।
जात समोवड़ लाख व्है, (थारी)रात न पूगै कोय।।
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़़ी”