अभिराम छबि घनश्याम की

।।कवित्त।।

मोरपंखवारा सिर, मुकुट सु धारा न्यारा,
नंद का कुमारा ब्रज, गोप का दुलारा है।
कारा कारा देह, मन मोहता हमारा गिध,
गनिका उबारा अजामिल जिन तारा है।
वेद श्रुति सारा “नेति नेति” जे पुकारा, जसु-
मति जीव-प्यारा मैने, उर बिच धारा है।
आँखिन की कारा बिच घोर हा अँधारा, सखि !
कृष्ण दीप बारा, तातें फैला उजियारा है।।१

छंद का विधान न है लय का भी ग्यान मुझे,
तुक का न भान नही यति गति आते है।
गण से बेध्यान निरा निपट नादान मूढ़,
रस से अंजान, अलंकार न सुहाते है।
होके गुलतान जब होता रसलीन कान्ह,
कान्हा तब उर भाव सहज जगाते है।
बाजती है ज्यों ज्यों वेणु, मन होता ब्रज रेणु,
शब्द मेरे पल में कवित्त बन जाते है।।२

मुरलीबजैया! चरवैया गैया ! गोप! बल-
देव जू को भैया !दैया!, मोरी मति हर गो।
माखन चुरैया !, पुनि, नाचत जो थैया थैया,
किशन कनैया ! आली, मतवारी कर गो।
साँवरी सी सूरत पे, जाय वारी जसुमैया
हों ही लूं बलैयां मोरे, जिया में उतर गो।
नैया भव सिंधु का खिवैया, आज बाल रूप,
लीला कर ब्रज माँहि, खूब रंग भर गो।।3

।।सिंहावलोकनघनाक्षरी।।

शाम की बेला में जब बाजी मीठी बाँसुरिया,
रौनक बदली बरसाना नंदग्राम की
ग्राम की गली की, पनघट की औ, कुंजगली,
बंसीवट, जमुना के तट ब्रजधाम की
धाम की न काम की हो गोपीयाँ अधीर दौड़ी
लाज पाज छोड़ सुधि भूल निज नाम की
नाम की जपे है माला, बाँवरी हो ब्रजबाला,
हिव अभिराम छबि धर घनश्याम की।।४

।।घनाक्षरी कवित्त / मध्यमेल सोरठा।।

मोरी सजनी ! का करूं, छीने सुख अरु चैन।
बाज रही दिन रैन, प्यारी प्यारी बाँसुरी।
छेडत मीठी रागिनी, ब्रज में राजिवनैन,
मानहु करती सैन, न्यारी न्यारी बाँसुरी।
आन मिलो श्री राधिका, मान मोर मनुहार,
करती यही पुकार, बारी बारी बाँसुरी।
धीर नहीं है चित्त मे, मनवा होत अधीर,
गिरधर जू ! आभीर, कान्हा धारी बाँसुरी।।५

।।कवित्त: मनहरण घनाक्षरी-इकतीसा।।

(८-ऽ। -४ ), (८-ऽ। -४), (८-ऽ। -४), के तीन आवर्तन, (७-। $। $। $)

गुंजमाल कंठ हार, मोर पंख का किरीट,
ऽ।   ऽ।   ऽ।   ऽ।   ऽ।   ऽ।   ऽ    ।ऽ। (8 X ऽ।)
पीत वस्त्र अंग धार चित्त में रहा करें।
ऽ।    ऽ।   ऽ।   ऽ।   ऽ।   ऽ  ।ऽ   ।ऽ (7 X ऽ। + ऽ)
वेणु को बजाय और धेनु को चराय दिव्य
रूप सु दिखाय मोह जाल को हरा करे।
संग गोप बाल वृक्ष बैठ के कदंब डाल,
नंद लाल दीन दास पे दया जरा करे।
नागरं नमामि कृष्ण, सागरं कृपा निधान,
ग्यान के प्रलंब स्तूप, वासुदेव श्री हरे!।।६

।।कवित्त: बत्तीसा।।

८;८;८;८ (।ऽ के सोलह आवर्तन)

ब्रजेश गोप नायकं, धनंजय: सहायकं,
।ऽ।     ऽ।   ऽ।ऽ     ।ऽ  ।ऽ   ।ऽ  ।ऽ  (8 X ।ऽ )
सुवंशिका बजायकं, मनोविकार भंजनं।
मयूर पंख मस्तकै, सुशंख चक्र हस्तकै,
सुपूजितै समस्तकं, सुरम्य नेत्र खंजनं।
रसाधिराजनागरं, कृपालुशीलसागरं,
त्रिलोकमोहनं हरिं, मुनीन्द्र संत रंजनं।
नमामि नाथ भूधरं, प्रणम्य राधिका प्रियं,
तथैव रुकम्णीवरं, स्मरामिनंद नंदनं।।७

~~©नरपत आसिया “वैतालिक”

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