अबखी करी अजीत!

किणी राजस्थानी कवि कह्यो है कै बात भूंडी है कै भली, ओ निर्णय फखत विधाता रै हाथ है पण जैड़ी सुणी ऊड़ी री ऊड़ी कवि नै तो कैवणी ईज पड़ै-
भूंडी हो अथवा भली, है विधना रै हाथ।
कवि नै तो कहणी पड़ै, सुणी जिसी सह बात।।
अर्थात असली कवि उवो ईज है जिको पखापखी बिनां निपखी बात कैवै। निपखी बात उवो कवि ईज कैय सकै जिको लालच अर डर सूं कोसां आगो रैय डांग माथै डेरा राखै। जिकै डांग माथै डेरा राखै उवै ईज इण बात नै डंकै री चोट निशंका घोषणा करै-
हूं तो देखी जैड़ी दाखूं।
हूं तो झूठ रति ना भाखूं।
हूं तो गुणसबदी में आखूं।
~~रांमदानजी रतनू दासोड़ी
जका देखी जैड़ी कैवण अर साच री आरसी बतावण री ऊरमा राखै, उवै इण जग में विरल़ा ईज हुया है।
ऐड़ै विरल़ कवियां में रंगरेला वीठू, केसोदासजी गाडण, दलपतजी बारठ, करनीदानजी कविया आद रा नाम तो जग जाहिर है ईज पण भभूतदानजी सूंघा ई साचड़िये कवियां में सिरोमणी हुया।
भभूतदानजी री कवितावां पढां तो मन में अंजस आवै कै उवै डकरेल जिको लिखग्या उणनै देख’र आ बात मन में घर करगी कै, उवां नै घड़गी जिकी बाड़ में बड़गी।
उवै खरी- खरी कैय उण लोगां रै साम्हीं नजीर राखग्या जिकै सदैव आ कैवता रैवै कै चारण कवेसरां हमेश ठकुर सुहाती ईज कैयी। पण जद इण निडर कवियां री कवितावां पढां तो आज रै इण तथाकथित जनवादियां, स्त्री विमर्श री बातां बगारणियां अर प्रगतिशीलता रो ढोल बजावणियां माथै तरस आवै। क्यूंकै उण कवियां जिणभांत निरभै हुय’र निरंकुश सत्ता नै साची सुणाई उणभांत री हिम्मत अबार किणी में आवणी आंझी है। आज रा प्रगतिवादी कवि जिकै सदैव डिंगल़ कवियां री ठकुर सुहाती रै जुमले सूं कटवीं करता रैवै जे ऐ लोकशाही रै नुमायदां नै उणां री साची कैयी ई सुणायदे अर ओलो नीं तकै तो हूं इणां री मरदामरदी समझूं। पण ओ काम ई उदरां रै कानी सूं मिनकी रै गल़ै घंटी बांधण जैड़ो ईज है। पण उण निडर कवि भभूतदानजी सूंघा री साच कैवतां छाती नीं फाटी।
भभूतदानजी रो जनम कैर गांम में हुयो। कैर, लोहियाणा रा राणा रो दियोड़ो गांम। लोहियाणा पड़िहार शाखा री उपशाखा देवल़ां रो नामी ठिकाणो।
कैर, छोटड़िया(चूरू) रा सूंघा सोनजी(सोहनजी ) नै मिल़ी। इण विषय में एक किंवदंती घणी चावी है कै एक’र काल़ री बखत सोनजी आपरी मवेसी लेय’र जाल़ोर री धरा कानी गोल़ गया। जंगी जाल़ां, परगल़ो पाणी, घणो खड़ देख’र सूंधा री पाहड़ियां में एक जागा इणां आपरा डेरा दे दीना। उणां, जिण जागा डेरा दिया वा कांकड लोहियाणा री ही। अठै रा राणा वडा दातार, वडा सतवादी हा पण उण दिनां उवां रै रावल़ै में कीं काठोज हो। जद सोनजी री मतवाल़ी मवेशी अर उणां रा ठाठ-बाट देखिया तो लोहियाणा रै हेरां जाय’र तत्कालीन राणै नै बतायो कै कोई बीकानेरियो चारण गोल़ लेय’र आयो है। ठावको कनै वित्त है। क्यूं नीं उणनै लूट लियो जावै। समय रै फेर सूं उणां आपरै आदम्यां नै मून स्वीकृति दे दीनी अर खुद ई साथै टुरग्या।
वां खुद चारणां रै डेरे सूं थोड़ो पाखती आपरो घोड़ो रोक लियो। जद डेरां में धाड़ो पड़ण लागो तद सोनजी कह्यो –
“रे कांगां धन नै हाथ सोच’र घालजो। एक तो हूं चारण ! दूजो लोहियाणा री धरा में। सो धन पचैलो नीं। अठै रो राणो शरणायतां रो रुखाल़ो है। आ बात तो थे जाणतां ई हुसो।”
आ बात परिया ऊभां राणैजी सुणी तो उणां आपरै आदम्यां नै “मत ! मत!” कैय’र रोक दिया अर खुद ई उठै आयग्या। आवतां कह्यो –
“देवीपुत्र ! जुलम कर देतो। म्हारी आं हरामखोरां रै कैणै सूं अकल निकल़ी परी, सो म्हैं रजपूती भूलग्यो। पण जोगमाया लाज राखी। आपरै धन हरण रो म्हैं मतो कियो। पण कीरत रै कलंक नीं लागो।”
आ सुणी जद सोनजी कह्यो कै –
“ऐड़ी कांई बात हुई? सो आप जैड़ै जोगतै राजपूत ओ अजोगतो मतो कियो!”
जणै राणैजी हाथ काठौज री बात बताई।
आ सुणी जणै सोनजी कह्यो –
“भला सरदार रुपियो हाथ रो मैल है। आप हाथ उधारा ले जाओ। उधारो लाय में नीं बल़ै।”
आ कैय’र सोनजी उणां नै बजावण वाल़ो ढोल एकै कानी सूं फाड़र भर’र दियो। जद राणैजी कह्यो कै –
“म्हैं चारणां सूं इयां तो पईसा नीं ले जाऊं। आप एक दिन में जितरी भांय आपरी घोड़ी फेर लेवो। उवां जमी आपरी।”
सोनजी घोड़ी फेरी अर आ कैर पाई।
आं सोनजी री वंश परंपरा में भभूतदानजी हुया। भभूतदानजी निर्भीक, स्वाभिमानी, लागलपेट रै बिनां साची-साची कैवणिया कवि हा। जोधपुर महाराजा अजीतसिंह जी री भभूतदानजी माथै विशेष किरपा ही। अजीतसिंहजी री वीरता अर दातारगी रा घणा किस्सा चावा है-
बीबी सह दासी हुई, बीबा हुआ फजीत।
हिंदू सह ताजा हुआ, राजा हुआ अजीत।।
पण दुरगादासजी नै देश निकाल़ो देवण अर राजकंवरी इंद्रकंवर रो डोल़ो बूढै पातसाह फर्रुखसियर नै मेलण सूं अजीतसिंहजी री कीरत रै बटो लागो। इंद्रकंवर री ऊमर उण बखत फखत सतरै वरस री ईज ही अर पातसाह रा पग कबर में लटक्योड़ा हा। महाराजा रा ऐ दोनूं काम मारवाड़ री संवेदनशील जनता रै हिंयै नुं ढूका। इणसूं, उणांरी धवल़ कीरत मगसी पड़गी।
उण बखत घणै चारण कवेसरां इण अजोगतै कामां नै करण सारू अजीतसिंहजी नै भूंडिया-
महाराजा अजमाल री, पारख पहचाणीह।
दुरगो देसां काढियो, गोलां गांगाणीह।।
इणी बात सूं रीसाय समकालीन कवि समरथदानजी बेबाक ओल़भो देतां कह्यो कै-
रखवाल़ी कर राज री, पाल़ी अणहद प्रीत।
दुरगो देसां काढनै, अबखी करी अजीत।।
समो तो पल़टणशील व्है, रजा बदल़ जुग रीत।
देसी महणी देसड़ा, आगम तनै अजीत।।
इंद्रकंवर रै डोल़ै री बात जद कैर में कवि भभूतदानजी सुणी तो उणांनै उणी समय मोटै नामां सूं घिन आयगी अर उणांरै कामां सूं तो मन ई फाटग्यो।
उणां उणी बखत कह्यो कै-
अबै रजवट री आंख्यां आडो तो काच फिरग्यो अर्थात मोतियाबिंद हुयग्यो है। ओ ई कारण है कै जोगती-अजोगती बात रो आंनै ठाह नीं पड़ रह्यो। सो ऐड़ै नाजोगां रै चंवर मत डुल़ावो –
भभूता अबै करो याद भगवान नै,
अजमल मेल्यो डोल़ो।
रजवट नैणां काच बीड़गा,
मचगो मुरधर रोल़ो।।
गायड़ भलो गमायो मांन,
आंरै चंवर मत ढोल़ो।
भभूता….
दुरगै बिखो झेलियो आलम,
वो रजपूत पड़ियो मोल़ो।
भभूता….
जद ऐ आकरा आखर पाखती बैठे लोगां सुणिया तो उणांनै कह्यो कै –
“आ कविता दरबार सुणली तो आपरै लैणै री जागा दैणा पड़ जावैला। आली चामड़ी में आक चोय दे ला। आपनै देसूंटो दे देवैला अर आपरी आ जागीर जबत हुय जावैला जद कविता भूल जावोला। आपनै ठाह है! कै कविता इण सारू ऊकलै-
घर में हो वित्त।
चित्त हो सुचित्त।
तब उपजै कवित्त।।”
आ सुणतां ई उणां कह्यो कै –
“दरबार आपरी जागीर गोचै में घाल ले। भभूतो जीवती माखी नीं गिटै। म्हैं नीं तो इण जागीर में रैवूं अर नीं ई पाप नै पचाऊं। हमै तो इतरी कविता सूं नीं सजै। आगै भल़ै कैवूंलो।”
आ कैय’र उणां उणी बखत आपरा पैर्योड़ा ग्रहस्थी रा गाभा उतार फैंक्या अर भगमा धार लिया। सूंधा री पहाड़ियां में रैवण लागा। उणां उण बखत दूह़ां रै माध्यम सूं जिको ओल़भो अजीतसिंहजी नै पूगतो कियो। वो आज ई जनकंठां में चारण कवियां रै त्याग अर रजवट सूं अनुराग री अनुगूंज है।
एक संवेदनशील कवि नै अजीतसिंह री आ बात इतरी असह्य हुई कै उणां भगमां लियां पछै ई आ बात हजम नीं करी अर अंतस सूं जिका उकल़ता आखर कह्या वै सायत अजीतसिंहजी नै दोरा पचिया हुसी पण कवि आपरो कविधरम निभावण में चूक नीं पड़ण दी-
रोवै रजपूतीह, डबडब नैणां देखलै।
मनरी मजबूतीह, अख वीसरग्यो तूं अजा।।
काल़च री कुल़ में कमध, राची किम आ रीत।
दिल्ली डोल़ो भेजनै, (तैं)अबखी करी अजीत।।
फरकसर फेराह, डोल़ो तुरक ज देखनै।
डरिया तव डेराह, उखड़ता रैसी अजा।।
मुरधर रो मूंडोह, काल़ो किम कीधो कुंवर?
असी घाव ऊंडोह, अबखो मन लागै अजा।।
रण रा रंग राताह, शाहां रै खाता शरण।
नित जोड़्यो नाताह, अवचल़ नह रैसो अजा।।
इंदरकुंवरी नैह, हाय भेजी तैं तुरक संग।
मैणी मुरधर नैह, इतियासां दीधी अजा।।
भभूतदानजी रो एक-एक दूहो इण बात रो साखीधर है कै चारण कवेसर श्रेष्ठ रो अभिनंदन अर निकृष्ट रै निंदन में चूक नीं पड़ण देता अर नीं आगत आफत सूं डरता।
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”