आणंद करमाणंद मीसण

मरुधरा के अनमोल रत्न: आणंद करमाणंद मीसण
~~डॉ. अंबादान रोहड़िया
गुजरात और राजस्थान में आणंद करमाणंद का नाम जन-जन की जिह्वा पर है। राजस्थान के अनेक प्रतिष्ठित कवियों द्वारा रचित भक्तमाल में आणंद करमाणंद का उल्लेख हुआ है:
ईसरदास अलुनाथ कविया, करमाणंद, आनंद मीसण, सूरदास।
मांडण दधवाड़िया, जीवानंद, भादा, केसोदास गाडण,
माधवदास दधवाड़िया, नरहरिदास बारहठ१।।
आणंद करमाणंद मीसण रचित उच्चकोटि की काव्य-रचनाओं के कारण इन्हें चारण कवियों की श्रृंखला में, प्रथम पंक्ति में स्थान दिया जाता है:
कविते अलु, दुहे करमाणंद, पात ईसर विद्या चो पूर।
मेहो छंदे, झूलणे मालो, सूर पदे, गीते हरसूर२।।
(कवित्त रचने में अलुजी कविया, दुहा में करमाणंद बेजोड़ है। इसी प्रकार ईसरदास रोहड़िया सर्वविद्या में परिपूर्ण होने के कारण विद्वज्जनों में श्रेष्ठ है। मेहाजी छंद रचना में, माला सांदू झूलणा रचना में, पदों में सूरदास और गीतरचना में हरसूर रोहड़िया जैसा कोई ज्ञानी नहीं। )
आणंद करमाणंद के जीवनप्रसंगों के साथ ईसरदास रोहड़िया का नाम जोड़ा जाता है। कई विद्वानों का मत है कि आणंद-करमाणंद ईसरदासजी के समकालीन थे। परन्तु आणंद-करमाणंद का समय निर्धारित करते समय अनेक प्रसंग ऐसे मिलते हैं जिससे कहा जा सकता है कि आणंद करमाणंद ईसरदासजी के समकालीन नहीं थे। संभव है आणंद करमाणंद नाम के व्यक्ति ईसरदासजी के समकालीन और कोई व्यक्ति होंगे पर ये आणंद करमाणंद मीसण नहीं।
इस बात को सही ठहराने में, कि आणंद करमाणंद मीसण ईसरदासजी के समकालीन नहीं थे, दो तीन उदाहरण देना उपयुक्त होगा:
आणंद करमाणंद का समय: आणंद करमाणंद की कृतियों में जिन ऐतिहासिक व्यक्तिओं का उल्लेख हुआ है, एवं समकालीन घटनाओं का वर्णन किया गया है उनसे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इनका समय लगभग वि. सं. ११५० से १२५० के बीच का होना चाहिए।
आणंद करमाणंद का संबंध: गुजरात एवं राजस्थान में आणंद करमाणंद के बीच क्या सम्बन्ध था, उस हेतु भी विद्वान एकमत नहीं है। कोई इन्हें पिता पुत्र मानता है३, कोई काका भतीजा का रिश्ता बताता है४ तो कोई यह मानते है कि ये मामा-भानजे थे। कुछ विद्वानों का मत है कि ये गुरु-शिष्य हो सकते हैं५। परन्तु इन दोनों के जीवन विषयक उपलब्ध सामग्री से यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ये पिता पुत्र थे।
चारणकुल में जन्मे एवं चारणी साहित्य के प्रखर विद्वान श्री छत्रदान जवाहरदान मेहड़ू (मु. सोहागी, जिला बाड़मेर, राजस्थान) द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार आणंद-करमाणंद मिसण पिता पुत्र थे। इस विषय पर विशेष प्रकाश डालते छत्रदान कहते हैं कि-“पाटणपति सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के राजकवि आला वरसडा की पुत्री तेजलबा का विवाह करमाणंद के साथ हुआ था। इस प्रकार पाटण के राजकवि एवं आणंद मीसण सामाजिक सम्बन्ध में समधी होते हैं। तेजलबा का जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ, जहां सभी प्रकार के सुख उपलब्ध थे। उनका विवाह मरु प्रदेश में करमाणंद के साथ हुआ, जहां मरु प्रदेश की विषम परिस्थितियां में उन्हें अपना शेष जीवन व्यतीत करना पड़ा। तेजलबा ने बाल्यावस्था में अपने पिता के सान्निध्य में काव्यसृजन प्रारम्भ किया और विवाह के पश्चात् अपने पति करमाणंद से भी काव्यरचना में उन्हें मार्गदर्शन मिला। मरुप्रदेश के कठोर एवं संघर्षमय जीवन हेतु उन्होंने अपने मन की पीड़ा निम्न छप्पय रचकर उजागर की:
खींपां हंदा खोलड़ा, छाज मरठ छाई दे,
मांय जुवा मोकळा, खड़ ऊंचो खाई दे,
साठीको सींचणो, तिको पण नीर खारो,
हळ ओठी हांकणो, दूध पीणो अजा रो,
जीवतां मनुष्य भूतां जेहां, प्रथी पसुवत पाजरण,
तण देश तेजल तवे, तज दिय यती हे राधा रमण ६।
(अर्थात्: जिस प्रदेश में खींप नामक एवं झाड़ी से झौंपड़ा बनाया जाता है, जिससे घास पर डाल कर कच्ची दीवारें बनाई जाती है, जहां आंगन में जुवा (एक प्रकार का कीट जो पशुधन व इन्सानों को चिपक जाता है व खून चूसता है) की अधिकता है, वाहन यहां ऊंट है, पानी साठ हाथ के कूए से सींचना पड़ता है और वह भी खारा, खेती यहां ऊंटों से होती है, और दूध बकरी का उपलब्ध होता है, जहाँ जीवित पुरुष भूतों जैसे विकराल होते है, पशु की तरह जहां धरती पर सोना नसीब है। दुखियारी तेजल ईश्वर से आराधना करती हुई कहती है कि-“हे राधा रमण ! ऐसे प्रदेश में किसी को ससुराल न देना।”)
तेजल की इस मनोदशा की ही भांति ईसरदास रोहड़िया की पुत्री पद्माबा का स्मरण हो आता है। उनका विवाह भी मरुभूमि के चारण अवचलदास मीसण के साथ हुआ। जामनगर के पास ही आया हुआ संचाणा गांव की यह कन्या जब मरुप्रदेश में अपने ससुराल जाकर वापस पीहर आती है और फिर वापस आते वक्त अपने पीहर वालों को अपने मन की वेदना इस प्रकार कहती है:
सरवर तरवर मेरुवड़, वाड़ी वशे के वाव,
हैया म कर हेडको, फरी संचाणा म आव।
(“रे मन ! खुले मैदान में आया यह तालाब, मेरु पर्वत के समान ऊंचा यह वट वृक्ष और इस मैदान में आई यह हरी भरी बाड़ी, इन सबको तूं भूल जा। इनकी स्मृति मात्र से तुझे वेदना होगी। मुझे अब संचाणा वापस आने की आशा नहीं। अर्थात् मातृभूमि के वियोग में मैं तड़प-तड़पकर मारवाड़ में ही अपना शरीर तजूंगी।”)
ईसरदास को अपनी पुत्री के हृदय की व्यथा का आभास हो जाता है और अपने जामाता को सचाणा में सादर जायदाद देकर ही रोक लेते है७।
करमाणंद तेजलबा की मनोवेदना समझ लेते है और उसे पाटण लेकर आते हैं। ठीक इसी समय पता लगा कि कंकालण भाट पाटन के राजदरबार में अपनी काव्यप्रतिभा का प्रदर्शन करने व शास्त्रार्थ करने पाटन आ रही है। इस समाचार से पाटन के राजकवियों में खलबली मच गई। कहीं पाटन के राजकवि की ही हार न हो जाय, इसकी चिन्ता सब को सताने लगी। तेलजबाने अपनी माता द्वारा अपने पिता को कहलवाया कि आप चिन्ता न करें। अपने जामाता (करमाणंद) एवं उनके पिता (आणंदजी) को यहां बुलालें। ये दोनों काव्यशास्त्र में बेजोड़ है।
दूसरे दिन राजकवि ने सिद्धराज जयसिंह से मिलकर आणंद-करमाणंद को बुलाने हेतु निवेदन किया। इनको बुलाने हेतु ऊंटसवार को मारवाड़ की ओर भेजा और इसी समय कंकालण को भी समाचार भेजे कि तुम्हारा हमारे दरबार में काव्यशास्त्र पर शास्त्रार्थ करने हेतु आने के समाचार हमें मिले, तुम्हारा स्वागत है। मगर हम समय निश्चित करें तब आना। आणंद करमाणंद के पाटन पहुंचने के पश्चात् उन्हें काव्यशास्त्र पर कंकालण के साथ शास्त्रार्थ करने के विषय से अवगत कराया। उनकी सहमति मिलने के पश्चात् शास्त्रार्थ हेतु समय निश्चित करके कंकालण को आमंत्रण भेजा गया। इस शास्त्रार्थ को सुनने हेतु आस-पास के राज्यों के राजाओं एवं विद्वानों को भी आमंत्रण भेजे गये। कंकालण, पड़दे के पीछे बैठकर शास्त्रार्थ करती थी, यह उसका नियम था। अत: उसके लिए उसी प्रकार का प्रबन्ध किया गया। सबसे पहले कंकालण एवं करमाणंद के बीच काव्यशास्त्र पर चर्चा हो, यह तय किया गया। सर्वप्रथम कंकालण ने करमाणंद को प्रश्न पूछने हेतु अपनी इच्छा व्यक्त की, जिसकी स्वीकृति मिलते ही कंकालण ने प्रथम प्रश्न पूछा: “पर्वत के शिखर पर मछलियां कैसे चढी?”
इसका उत्तर करमाणंद ने पद्य की रचना में दिया:
अवधचंद्र श्रीराम आप वनवास पोहोते,
हरि सीता दसकंध, गिओ संग्राम अंतते,
भड़ अनेक लखण भिड़े, बांण लखण धर पाड़े,
अनड़ मूल उपाड़े, आगवे ध्रुण धर गिर पाड़े,
अणि वे ध्रुण धर गरजिओ, लहर नीर ऊपर पडी,
करमाणंद कहे कंकालण, तहिंए मच्छ गरवर चडी ८।
(अर्थात्: ‘‘अयोध्या के चंद्र श्रीराम वन में गये। वहां रावण ने सीता का हरण किया। जिसके फलस्वरूप संग्राम हुआ। इस युद्ध में लक्ष्मण ने अनेक योद्धाओं के साथ संग्राम किया। जहां उनके बाण लग जाने से मूछिर्त होकर वे धरती पर गिर पड़े। तब हनुमान द्रोणाचल पर्वत को उखाड़कर ले आये। पर्वत उठाते समय हनुमान ने भारी गर्जना की। उस गर्जना से एवं पर्वत के उखड़ने से ऐसी हलचल मची कि सागर की लहरें ऊंचे आकाश में उछली। करमाणंद कहता है कि, हे कंकालण! उन लहरों के साथ मछलिर्यां ऊंची उछली और पर्वत पर आ गिरीं। )
करमाणंद के विद्वत्तापूर्वक उत्तर से पूरी राज सभा वाह-वाह के नाद से गूंज उठी। कंकालण स्वयं करमाणंद के उत्तर से बहुत प्रसन्न हुई।
कंकालण का दूसरा प्रश्न था, ‘‘एक रात को चकवा और चकवी का मिलन कैसे हुआ ?”
प्रश्न सुनकर करमाणंद को हंसी आ गई। हंसते हुए कहा, कंकालण यह प्रश्न तो बहुत सरल है। कोई कठिन प्रश्न पूछती तो उत्तर देने में आनन्द आता। यह तो जग जाहिर है कि चकवा और चकवी का मिलन दिन में ही होता है रात तो उन्हें वियोग में बितानी पड़ती है, यह प्रकृति का उनके लिये शाप है, परन्तु एक बार ऐसा योग बना कि उनका मिलन रात्रि को होने का संयोग बना:
हरि सित दसकंध, बाण लखमण कुं लग्गा,
हणु सहित बंदरा, आप आपपिये भग्गा,
गया बीच परबत, जोई जड़ी पहचाणी,
अनड़ मूळ उपाड़ लियो, कढऊं दार अणी,
लंक ऊजाळूं तव भयुं, सव जीव जिवा सळवळे,
करमाणंद कहे जेसिंघ राऊ, तेण रेयण चकुवे मळे।।
(अर्थात्: रावण द्वारा सीताहरण के कारण युद्ध हुआ। मेघनाद के बाण से लक्ष्मण मूछिर्त हुए, तब लक्ष्मण के लिये औषधि लाने वानर दशों दिशाओं में दौड़े। ये बंदर समुद्र के बीच स्थित द्रोणाचल पर्वत पर चढे। इस समय रावण की माया से पर्वत पर स्थित सभी पेड़ों व पौधों में दीये ही दीये प्रज्वलित हो गये ताके सही जड़ी-बूटी की पहचान वानर न कर सके। उस समय हनुमान ने पूरा का पूरा पर्वत उठा लिया और लंका में पहुंचे। लंका में पर्वत पर प्रज्वलित दीयों से इतना प्रकाश हो गया मानो दिन उग आया हो। सभी प्राणी दिन उगने का समय जान, निद्रा त्याग कर उठ गये। उस वेला में, हे राजा, जयसिंह ! चकवे और चकवी का मिलाप हुआ। )
कंकालण ने तीसरा प्रश्न पूछा कि चंद्र एवं पायल का मिलन कैसे हुआ ?
करमाणंद ने कहा यह घटना पौराणिक कथा पर आधारित है, सुनो:
पार्वती ने ईससु, वेध लीधुं कसूं कारण,
जटा मगट में गंग, आधी अरधंग वहेरण,
भरड़ा भेख भरथार तुंज वेण कोण पतीजे,
चुगल करत नारदे, तां ऊमिया कोपीजे,
सिव हुंत सकत रूठि र\े, ईस मनावा वळकळे,
सिवनाथ सीस चरण धरे, तब चंद्र नेवर मळे।।
(अर्थात्: “शिवजी और पार्वती के बीच कोई बात पर कलह हो गया। पार्वती से नारद ने कहा कि शिवजी तो आपसे ज्यादा स्नेह गंगा से रखते हैं, इसी कारण उसे आपसे भी ऊपर अपनी जटा में समा रखा है। इस पर उमा शिवजी को कहती है, ‘‘हे नाथ, हे भोलेशंकर, आप पर कैसे विश्वास किया जाय ? यूं शिवजी से रूठकर उमा पहाड़ों में घूमने लगी। रूठी हुई पार्वती को मनाने शिवजी अपना मस्तक पार्वती के चरणों में झुकाते हैं। इस समय शिवजी की जटा में स्थित चन्द्रा पार्वती के पैरों में पहन रखी पायल से मिलता है।”)
कंकालण ने चौथा प्रश्न पूछा कि-“चंद्रग्रहण का योग होते हुए भी, चंद्रग्रहण क्यों न हुआ ?”
इसका उत्तर देते करमाणंद इस तरह कहते है:
मांडण पिऊ सो मन करे, ग्रह आंगण सोती,
अडी अड जंभ आकास, मांग जप दीपे मोती,
सोळ कळ संपूर्ण चंद्र, भाल पण सोहे,
खण अधिर खण अधरि, राहु भूल्यो मुख जोवे,
टळ गयो संजोग वेळा टळि, हेक त्रिपे न थयुं हरण,
करमाणंद कहे, हे जेसंग राऊ, तेण रेण न थयुं गरण।
(अर्थात्-“एक नारी अपने मन में पति को संजोये घर के आंगन में सो रही थी। आकाश में जिस प्रकार तारे शोभित होते हैं उसी प्रकार उसके गले में मोतियों की माला जगमगाहट कर रही थी। सोलह कलाओं से सुशोभित चंद्र के समान, सुन्दरी का मुख शोभायमान हो रहा था। ठीक उसी समय ग्रहण योग का समय था और नारी के मुखचन्द्र को देखकर राहु भी कुछ देर के लिये वहीं ठहर गया और चन्द्र को भूल गया। नारी के रूप को देखते-देखते राहु को समय का ध्यान ही न रहा, और समय टल जाने के कारण ग्रहण का समय टल गया। करमाणंद कहता है कि, हे जेसिंघदेव ! नारी की सुन्दर छवि को देखते, एक सुन्दर नारी के कारण, रात्रि में ग्रहण न हो सका।”)
कंकालण ने एक और प्रश्न करमाणंद से किया, कि सागर के मध्य से मछुआरे मोती ले आये जो रक्तवर्ण थे। मोती रक्तवर्ण कैसे बन गये ?
करमाणंद उत्तर देता है:
जद्ध हुवो जादवा, दळे स्त्रव दारामती,
छपन करोड़ कळ छात्र, जुए लखमण सह जती,
अळां भार उतार, खपे परभास खंधार,
विओ क्रसन वैकुंठ, सह जादव संघार,
सौ असु नखत्र सात न वळे, वहे स्त्रग जादव वुआ,
जेसंग राण सांभळे, त दन लाल मोती हुआ।
(अर्थात्: “द्वारका के छप्पन करोड़ यादवों की महासभा हुई जिसको लक्ष्मण सहित सभी यतियों ने निहारा। पृथ्वी का भार उतारकर सभी यादव खप गये। कृष्ण महासंहार में वैकुण्ठ वासी हुए। उस समय स्वाति नक्षत्र चल रहा था। विपुल मात्रा में रक्त समुद्र में बहने के कारण, हे राजा जेसिंघ ! मोती रक्तवर्ण हो गये।”)
इस प्रकार कंकालण और करमाणंद के मध्य लम्बे समय तक काव्यशास्त्र की चर्चा चली पर कंकालण की जीत न हो सकी इस घटना के समय रचे गये अनेक कवित्त मिलते हैं, जो इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि राजा जैसिंघदेव की राजसभा में करमाणंद और कंकालण के बीच काव्यशास्त्र पर चर्चा हुई।
इस बार करमाणंद की बारी थी। उसने कंकालण को प्रश्न पूछा:
पवन कदी प्रकाश, हर अगनी कदी कीधी,
मेह कदी मंडाण, आभ हरि कदी आदरिया,
नाथ्या कदी नाग, लंक हरि कदी लहियो,
उपायुं कदी अनाज, गगन हरि कदी गहियो,
खट वरण ने नथी खबर, वध-वध पूछुं तने वदी,
करमाणंद कहे सुण कंकालण, एता वांना हुआ कदी ? ८
(अर्थात् इस पृथ्वी पर पवन कब प्रकट हुआ ? प्रभु ने अग्नि का सृजन कब किया ? सृष्टि पर मेघ का मंडान कब हुआ ? आकाश कब अस्तित्व में आया ? कृष्ण ने कालीया नाग को कब नाथा ? राम ने लंका कब जीती ? अनाज कब उत्पन्न हुआ ? प्रभु ने आकाश कब धारण किया ? खट् वर्ण को इन प्रश्नों का उत्तर मालूम नहीं, इस कारण हे कंकालण ! मुझे बता, कि सभी बातें कब घटी। )
करमाणंद के इन रहस्यों का उत्तर कंकालण न दे सकी। करमाणंद विजेता घोषित किया गया। जैसिंघदेव ने करमाणंद को पाटण का राजकवि बनाकर उसको सम्मानित किया।
दोहों की रचना में भी आणंद करमाणंद की जोड़ी बेजोड़ है। इन्होंने अनेक दोहें रचे व आज भी गुजरात राजस्थान में जन-जन के कंठों में प्रचलित हैं। इनके द्वारा रचे गये अनेक दोहें समस्या खड़ी करके उसका समाधान करता है। इनके अनेक दोहें स्थान-स्थान पर से एकत्रित करके उनका संकलन किया गया है परन्तु अनेक दोहें अभी भी लोकजिह्वा पर तो है पर संकलित नहीं किये गये हैं। उनको संकलन करके प्रकाशित करना आवश्यक है।
इनके दोहें में सांसारिक एवं लोकव्यवहार के गूढ ज्ञान की झलक साफ नजर आती है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है:
आणंद कहे करमाणंदा, वांका केम वल्या ?
उनाळे हळ हांकल्या, ने भादरवा में भर्या।।१।।
आणंद कहे करमाणंदा, माणसे माणसे फेर,
एक गां ऊजड़ करे, ने एक बसावे सेर।।२।।
आणंद कहे करमाणंदा, जोई ने पगलुं भरवुं,
नहि तो गूंजी खोई गांठनी, मोत विना मरवुं।।३।।
आणंद कहे करमाणंदा, मोटामां जावुं थोडुं,
काम करावे ठूंठ कढावे, कां तो कहेशे ओडुं।।४।।
आणंद कहे करमाणंदा, माणसे माणसे फेर,
एक बेसे गादीये, ने एक वगाडे भेर।।५।।
आणंद कहे करमाणंदा, केनी जाने जाये ?
करम में होय लूखुं, तो चोपड़ क्यां थी खाये।।६।।
आणंद कहे करमाणंदा, गुण कर्यो कां जाय ?
सावज पड़ियो अजाड़िये, काढे एनें खाय।।७।।
आणंद कहे करमाणंदा, माणसे माणसे फेर,
एक आपे सदाव्रत, ने एक मांगे घेर घेर।।८।।
आणंद कहे करमाणंद, माणसे माणसे टाळा,
एक एक सारुं मरी पड़े, एक भरावे ऊचाळा।।९।।९
आठसो साल पूर्व सृजित इन दोहों में आणंद-करमाणंद की व्यावहारिक सूझ-बूझ, मानवीय दृष्टिकोण एवं जीवनरीति उजागर होती है। मरुप्रदेश के शुष्क सूखे प्रदेश में शब्दसाधना करने वाले ये कवीश्वर, मरुधर के अनमोल रत्न हैं। हस्तलिखित अनेक ग्रन्थों में इनके द्वारा रचित दोहें व काव्यकृतिर्यां अभी भी अदेखी पड़ी हैं जिनका संशोधन एवं संपादन, नितांत आवश्यक है।
(अनुवादक: ठाकुर नाहरसिंह जसोल)
*
संदर्भसूची:
१. ‘सरस्वती पुत्रङ्क त्रैमासिक, वर्ष-२, अंक-१, २, १९९१, पृ. ५८
२. हीरालाल माहेश्वरी: बारहठ ईसरदास, पृ. १४
३. महेशदान मीसण: ‘भृंगीपुराणङ्क, पृ. ६
४. पिंगलशी पायक: चारणो नी शाखा प्रशाखाओं, पृ. ३४
५. सौभाग्यसिंह शेखावत: पूजो पांव कविसरां, पृ. ५१
६. छत्रदान मेहडू: मु. सोहागी, राजस्थान, रूबरू मुलाकात, १७-३-८८
७. डॉ. शिवदान चारण: भक्त कवि ईसरदास नी भक्ति भावना, पृ. १३८
८. ‘ऊमिर् नवरचनाङ्क: अगस्त, १९७८, पृ. १७८
९. जयमल्ल परमार: दूहो दसमो वेद, पृ. ११३
चारण साहित्य से रूबरू कराने के लिए धन्यवाद