बदलते हैं – ग़ज़ल – राजेश विद्रोही (राजूदान जी खिडिया)

बदलने को बहुत कुछ आज भी अक्सर बदलते हैं।
न शीशे हम बदलते हैं न वो पत्थर बदलते हैं।।

ज़मीं फिरती है बरसों और फ़लक बरसों बरसता है।
कसम से तब कहीं जाकर ये पसमंजर बदलते हैं।।

हमें ख़ौफ़े ख़ुदा है और तुम्हें ज़ालिम जहाँ का डर।
चलो कुछ देर की ख़ातिर हम अपने डर बदलते हैं।।

किरायेदार भी हैं और सरकारी मुलाज़िम भी।
कभी हम घर बदलते हैं कभी दफ्तर बदलते हैं।।

ये पाँखें बीनता बचपन हमें महफ़ूज़ रखना है।
इन्हीं बच्चों की ख़ातिर तो परिन्दे पर बदलते हैं।।

सुना है के पुराने दौर के ‘पगङी बदल भाई’।
बदलते वक्त में अब सरहदों पे सर बदलते हैं।।

~~राजेश विद्रोही (राजूदान जी खिडिया)

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