कविराजा बांकीदास आसिया

कविराजा बांकीदास आसिया का जन्म वि.सं.1828 (ई.1771) में जोधपुर राज्य के पचपद्रा परगने के भांडियावास गाँव में हुआ। ये अपने ज़माने के डिंगल भाषा के श्रेष्ठतम कवि माने जाते हें। इन्होंने 26 ग्रंथों की रचना की, जिनमे से “बांकीदास री ख्यात” सर्वप्रमुख रचना है। यह ग्रंथ, ख्यात लेखन परम्परा से हटकर लिखा गया है। यह राजस्थान के इतिहास से सम्बन्धित घटनाओं पर लिखा गया 2000 फुटकर टिप्पणियों का संग्रह है। ये टिप्पणियाँ एक पंक्ति से लेकर 5 से 6 पंक्तियों में लिखी गई हैं तथा राजस्थान के इतिहास लेखन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। नागरी प्रचारणी काशी ने बांकीदास ग्रंथावली का प्रकाशन किया है|

KavirajaBankidasAsiyaसाहित्यिक भाषाशैली के लिये “डींगल” शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग बाँकीदास ने “कुकवि बतीसी” (वि.सं.1871) में किया है : ‘डींगलियाँ मिलियाँ करै, पिंगल तणो प्रकास ‘।

जोधपुर महाराजा मानसिंहजी के समय में सं. १८७९ में मारवाड़ में अत्यधिक वर्षा हुई तो समीपवर्ती “सूरसागर” बाँध की विपुल जलराशि देखने हेतु वहाँ गोठ का आयोजन किया गया, जिसमें महाराजा के भाई-बेटे, सपरिवार निमंत्रित किए गए थे और बाकी बड़े-बड़े सामंत एवं कविराजजी भी थे। जोधपुर की संकरी गलियों से लवाजमा निकल रहा था। महाराजा के पीछे महाराणी साहिबा भटियाणी जो जाखण गाँव की थी उनका रथ एवं उनके ठीक पीछे कविराजा बांकीदासजी का रथ चल रहा था। अनायास, महाराणी साहिबा का एक पैर रथ के पर्दे के बाहर दिख गया। शीघ्रतावश कविराजजी ने आव देखा न ताव, घोड़ा हांकने के चाबुक को महाराणी साहिबा के पैर पर दे मारा। महाराणी साहिबा को गुस्सा आना स्वाभाविक था कि मारवाड़ में ऐसा कौन शख़्स है, जो मारवाड़ की स्वामिनी के पैर पर चाबुक लगाने का दुस्साहस करे? किले पर पहुंचते ही महारानी साहिबा ने इस सारी घटना को महाराजा साहिब से शिकायत करके अर्ज़ करते हुए कहा कि हुजूर! आप कविराजा बांकीदासजी को प्राण दंड दें अथवा अपनी सेवा से निकाल दें। इस पर महाराजा साहिब ने महाराणी साहिबा को सांत्वना देते हुए समझाया कि महाराणीजी! आप थोड़ी शांति रखें एवं फिर कहा कि मैं आप जैसी नौ महाराणियां तो एक दिन में ला सकता हूं लेकिन मारवाड़ में बांकीदास जैसा कोई दूसरा एक भी आदमी नहीं है, उसे देश-निकाला कैसे दूं? आप शांति रखें। आज से दो शताब्दी पूर्व, ऐसी राज-व्यवस्था थी, जोधपुर के राज्य में और ऐसा सम्मान था महाकवि बांकीदास के प्रति|
हालांकि कुछ मान्यताओं के अनुसार बाद में किसी प्रसंग रै कारण बाँकिदास जी को देश निकाला भी मिला था वो भी एक नही दो दो बार। इसी प्रसंग पर किसी का दोहा है

बाँका थारी बाँक नै, काढ सक्यो नह कोय।
लाख पसाव तो एक दियो, देस निकाल़ा दोय।।

मानसिंह जी और बाँकीदास जी हम उम्र ही थे। दोनो के ननिहाल भी आस पास ही थे। महाराजा गाँव राखी में चौहानो के भाणेज और कविराजा गाँव सरवड़ी में बोक्षा के भाणेज।

राजस्थान के राजाओं ने 1750 ई. के बाद के समय में मराठों व पिंडारियों के अत्याचारों से त्रस्त हो कर नव आगन्तुक अंग्रेजों से संधि करली। सर्वप्रथम 1798 ई. में जयपुर ने संधि की। सन् 1805 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के जनरल लेक ने भरतपुर पर तोपों और बन्दूकों से हमला किया। राजपूताना में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का यह प्रथम सशस्त्र-आक्रमण था। भरतपुर का किला अजेय था, जो मुग़ल बादशाहों द्वारा भी जीता नहीं जा सका था। लेकिन अंग्रेजों ने “आडा-टीला-वाले” (तिरछे-तिलक लगाने-वाले) महंत को रिश्वत देकर किले के सब भेद जान लिए, जिसके बाद अंग्रेजों ने भरतपुर के अजेय किले को जीत लिया। और उस के बाद तो 1817 ई. के आते आते तो सभी रियासते अंग्रेजों के अधीन हो गई। इस पराधीनता की स्थिति से कवि मन आहत हो उठा। कविराजा बांकीदास ने भरतपुर के राजा की वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए, एक भविष्य-द्रष्टा की तरह “आयो अंग्रेज़ मुल्क रे ऊपर” जैसा अमर गीत लिखकर तत्कालीन राजाओं को उलाहना देते हुए कहा कि “एक वो मालिक थे जिनहोने मरते दम तक अपनी धरती पर किसी का कब्ज़ा नही होने दिया और एक ये धणी है जिनके जीते रहते धरती चली गई“। 1805 में रचित यह गीत इस प्रकार है:-

आयो इंगरेज मुलक रै ऊपर, आहँस लीधा खैंचि उरा।
धणीयाँ मरै न दीधी धरती, धणीयाँ ऊभाँ गई धरा।।1।।
अंग्रेज नामक शैतान हमारे देश पर चढ़ आया है। देश रूपी शरीर की सारी चेतना को उसने अपने खूनी अधरों से सोख लिया है। इसके पहले धरती के स्वामियों ने मर कर भी धरती को दुश्मन के हवाले नहीं किया था और आज यह स्थिति आ गई है कि धरती के स्वामी ज़िन्दा हैं और धरती उनके हाथ से चली गई।

फोजाँ देख न कीधी फोजाँ, दोयण किया न खळा डळा ।
खवाँ-खाँच चूडै खावंद रै, उणहिज चूडै गई ईळा।।2।।
दुश्मन की फौजों को सामने देख कर भी उन्होंने अपनी फौजों को तैयार नहीं किया। दुश्मन बड़े मज़े से उनका विनाश करते रहे लेकिन वे दुश्मन का नाश नहीं कर सके। अक्षत चुड़ले का सुहाग धारण किए, पति की मौजूदगी में ही पृथ्वी, सुहाग के समस्त प्रतिमानों सहित, दूसरों के अधिकार में चली गई।

छत्रपतियाँ लागी नह छाँणत ! गढ़पतियाँ धर परी गुमी।
बळ नह कियो बापडाँ बोताँ, जोताँ-जोताँ गई जमी।।3।।
धरती के छिन जाने से न तो छत्रपतियों ने लज्जा का अनुभव किया न गढ़पतियों ने ही इसे अपनी अपकीर्ति समझा। प्राणों की कुशलता में ही उन्होंने सब कुछ भर पाया। बेचारे अभ्यागतों ने अवरोध तक प्रकट नहीं किया। वह देखते रहे और ज़मीन उनके हाथ से जाती रही।

दुय चत्रमास बाजियो दिखणी, भोम गई सो लिखत भवेस।
पूगो नहीं चाकरी पकड़ी, दीधो नही मरेठाँ देस।।4।।
दक्षिण देश-वाले मरहठों ने आठ महीनों तक डट कर अंग्रेजों का मुकाबिला किया। लेकिन इस पर भी वे अपने देश को नहीं बचा सके, यह उनके वश के परे की बात थी। मज़बूर होकर उसने दूसरी जगह चाकरी मंजूर करली परन्तु अपने जिन्दा हाथ से धरती को अंग्रेजों के हवाले नहीं किया।

बजियो भलो भरतपुर वाळो, गाजै गजर धजर नभ गोम।
पहिलाँ सिर साहब रो पड़ियो, भड़ ऊभाँ नह दीधी भोम।।5।।
भरतपुर वालों ने खूब सामना किया। शरीर छोड़ दिया पर जीते जी किले को नहीं छोड़ा। तोपों का ज़वाब तोपों से देने-वालों की कीर्ति, आज दिन तक भी नभ में सर्वत्र गर्जन-तर्जन का रूप धारण किए हुए हैं। तोप के मुंह से निकली हुई आग आज भी उनकी प्रतिष्ठा को प्रज्वलित कर रही है। सबसे पहले फिरंगी साहब का सिर ज़मीन पर गिरा। उन वीरों के पांव जब तक ज़मीन पर टिके रहे, तब तक अपनी ज़मीन को दुश्मन के अधिकार में नहीं जाने दी।

महि जाताँ चींताताँ महलाँ, ऐ दुय मरण तणाँ अवसाँण।
राखो रै किहिंक रजपूती, मरद हिन्दू की मुसलमाण।।6।।
इस तरह मरने के सुअवसर मनुष्य को जिन्दगी में केवल दो ही बार मिलते हैं, एक तो, उस वक्त जिन्दा रहना व्यर्थ हो जाता हैं जब देश की धरती कोई विदेशी हथियाना चाहता हो। दूसरे, उस वक्त, मरना जरूरी हो जाता है जब दुःख में पड़ी हुई किसी अबला की करूण चीत्कार सुनाई दे! देश और जननी की रक्षा करना किसी जाति-विशेष की बपौती नहीं है। आज देश पर भयंकर आपत्ति छाई हुई है। अरे, तुम मनुष्य हो! कुछ तो वीरता दिखलाओ! देश की आज़ादी के लिए क्या हिन्दू और क्या मुसलमान, सब बराबर हैं।

पुर जोधाण, उदैपुर, जैपुर, पह थाँरा खूटा परमाँण।
आंकै गई आवसी आंकै, “बांकै” आसल किया बखाँण।।7।।
जोधपुर, उदयपुर और जयपुर के स्वामियों! तुम्हारा सब गौरव और शौर्य मानों खत्म हो गया है! “बांकीदास” आसिया कहता है कि किसी मनहूस-घड़ी में भारत-वासियों की राज-सत्ता विदेशियों द्वारा हस्तगत हुई थी लेकिन फिर जब कोई मंगल-मयी ऐसी ही शुभ-घड़ी आयेगी तो गयी हुई राज-सत्ता उन्हें पुनः मिल जाएगी।

कविराजा बांकीदासजी, एक क्रांतिद्रष्टा एवं सिद्ध-हस्त कवि थे। उनकी उपरोक्त भविष्यवाणी को सत्य होने में पूरे 142 वर्ष लगे, जब भारतवर्ष, अंततः 15 अगस्त, सन् 1947 को ब्रिटिश सत्ता की पराधीनता से पूर्ण स्वतंत्र हुआ।

बाँकीदास ने तत्कालीन मारवाड़ के चौहटन ठिकाने के ठाकुर श्याम सिंह चौहान की प्रशंसा में भी गीत लिखा, जिन्होंने गोरी सत्ता के विस्तार को रोका था तथा वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हुए थे-

हट वदी जद नहर हो फरिया, सादी जिसड़ा साथ सिपाह,
मेरी जदीमंड बाहड़ मेरै, गोरां सू रचियौ गज गज-गाह।

महाराजा मान सिंह जी को मज़बूरी में अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। परन्तु उन्होंने अंग्रेजों को अपना सम्प्रभु नही माना। सन १८०४ में जसवंतराव होल्कर ब्रिटश सत्ता का कोप भाजन बना और पराजित होकर जोधपुर चला आया। महाराजा ने क्षात्र धर्म का पालन करते हुये उसे शरण दी। बांकीदास जी ने इस संबंध में यह दोहा कहा :-

किंग इंद्र जिम कोपियो, जसवंत मैनाक।
सरण राखियो समंद ज्यूँ, पह मान दिल पाक।।
इंद्र रूपी ब्रिटिश किंग के कोप से बचाने हेतु मैनाँक पर्वत रूपी जसवंत होल्कर को समुद्र रूपी महाराजा मान सिंह ने शरण देकर उस की रक्षा की।

महाकवि द्वारा लिखी अथवा उनसे सम्बंधित रचनाओं व संस्मरणों के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं| पढने के लिए नीचे शीर्षक पर क्लिक करें।
श्री केलाश दान जी उज्जवल की आवाज में कविराजा बाँकीदास जी को सुने

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5 comments

  • jagdish c sharma

    kaviraaj bankidasji asiya was reformer, patriot, philosopher, historian and writer. we wonder, govt. has failed to include his creations in primary to post graduat studies schools and colleges of not only in rahasthan but whole country.
    i further request to create a chair for philosophy doctorate degree studies in rajasthan university on books written by banlidas ji. and dr. sitaram ji lalas.

  • sangram singh

    Lekin is khyat me maldev ko lekr galat baate likhi gyi h

  • ओमपाल सिंह आसिया

    प्रसंगानुसार–
    कविराजा ने राजपूत ठिकाने का दो लाख रुपये का कर माफी आदेश जारी कराते हुए उसे यह दोहा लिख कर आश्वस्त किया था->
    ।। माळी ग्रीखम मोय पोख घणा दिन पाळियो ।।
    ।। वो गुण किम विसराय आज घण वुठोंअजा ।।

  • ओमपाल सिंह आसिया

    युनानी चिंतक ने कविराजा से भेंट के बाद उन पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि – he is a great philosopher & he know more than me about my country .

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