भगू पारस भेट

यूं तो साख (रिश्ता, रक्त-संबंध) सोनो अर प्रीत पीतल़ मानीजै। इण विषय में ओ कैताणो चावो है- ‘साख सोनो अर प्रीत पीतल़।’ आ ई बात देवकरणजी बारठ ईंदोकली आपरी रचना ‘साख-प्रीत समादा’ में कैयी है–
साख कहै सुण प्रीत सयाणी,
लड़तां थनै न आवै लाज।
सोनो साख प्रीत पीतल सुण,
इल़ पर चलै कहावत आज।।
साख रो ओ ओल़भो सुण’र प्रीत जिको पड़ुत्तर दियो उवै उल्लेखणजोग है-
मैं नही साख कहावत मांनूं,
खेलूं दाव प्रमांणां खास।
हिरणाकुश प्रहल़ाद होल़का,
है संसार प्रसिद्ध इतिहास।।
यानी कदैई-कदैई साख रो पोत उगड़ जावै अर प्रीत जगत में जस कमा जावै। जणै ई तो जमाल कह्यो है-
मा ऊभी महल़ी जल़ै,
कारण कौण जमाल?
कैवण रो मतलब है कै ऐड़ी-ऐड़ी कवितावां पढण नै मिलै जिणां नै पढियां आपां ई गतागम में फस जावां अर निर्णय नीं कर सकां कै दोनां में मोटी अर सही कुण है ? क्यूं कै साख बडी कै प्रीत इण पेटे इतियास रा पानां पल़टां तो केई ऐड़ा उदाहरण ई मिल़ जावै जठै साख आपरी साख खोई अर प्रीत पखै हुय सुजस कमायो।
इण पेटे राजस्थानी कवियां रो तो स्पष्ट मानणो हो कै जे प्रीत उत्तम सूं लागोड़ी है जणै तो पुराणी नीं पड़ै। ज्यूं सौ वरसां जल़ में रैवण पछै ई पत्थरी आग रो साथ नीं छोडै-
प्रीत पुराणी नह पड़ै, जो उत्तम सो लग्ग।
सौ वरसां जल़ में रहै, (तोई) पत्थरी तजै न अग्ग।।
ऐड़ो ई एक उदाहरण है डांगरी रै भाटी भगजी (भगवानसिंह) अर सांढां रै किणी रतनू रो।
“किणी रतनू” रो मतलब समय री मार अर वाचिक परंपरा री खेवटा नीं राखण सूं ओ नाम उण अलेखूं नामां भेल़ो दोटीजग्यो जिणां रो कदै ई इतियास ऊजल़ रह्यो हो।
“सांढां” रतनू चारणां री जागीर अर जैसल़मेर रै उण गीरबैजोग गांमां में शुमार हो जिणांनै जैसल़मेर रियासत कानी सूं फौजदारी अधिकार प्राप्त हा।
किंवदंती चालै कै इण गांम रै एक मोतबर घराणै रै रतनू री सगाई बाल़पणै में रतकोड़िया रै चारणां रै अठै हुई। थोड़ो मोटो हुयो तो दुजोग सूं उण रतनू रा माईत रामसरण हुयग्या-
मोत मुकदमो मांदगी, मंदी नै महमाण।
पांचूं ई मम्मा बुरा, राखै पत रहमाण।।
नैनप पड़गी। जिण घरै नैनप पड़ै! उणरो कोई धणी-धोरी नीं। सतरै खसम बणै। पछै भाई गोई हुवै। ऐ एक बेटी नीं परणीजै बीजा सब थोक करै। इण रतनू रै भाइयां ई उणनै होल़ै-होल़ै अमल रो बंधाणी बणा दियो तो साथै ई उणरी जमी जागा ई दाबली। एकलो मिनख। आदत सूं लाचार हुयग्यो यानी-
हाल़ी अमली हेक, वल़ै पग मांयां बाल़ो।
खेत आथूणो खड़ै, जठै भूतां रो जाल़ो।।
बंधाणी ई ऐड़ो बणियो कै कंडीरां री गिणत में आवण लागो। बिंयां ई कवियां कह्यो है कै अमल रो नशो रंकां सारू नीं बणियो है ओ तो अमीरां रो नशो है पछै इणनै सीख रंक क्यूं विरथा कल़क लेवै? –
गल़ थाट कसूंबा रंग घण,
(ज्यांरै) वारण घूमै बारणै।
क्यूं लियो रंक विरथा कलंक,
ओ, कियो अमीरां कारणै।।
इण रै अमलदार बणण री बात पूगती-पूगती रतकोड़िया ई पूगी। जणै बेटी री मा आपरै घर धणी नै कह्यो-
“इण चारण नै डीकरी दैणो रो मतलब है कै छोरी नै कुए में नाखणी। तो पछै इणनै साचाणी कुए में नाखो जको धमीड़ बाजै अर हूं एक दिन कूक’र जी में माठ झालूं। उठै दियां नितरो कूकणो। बेटी दोरी जिणरो जमारो बिगड़ै।”
आ सुण’र घरधणी कह्यो कै-
“बडभागण ! रतनुवां री धणियाप भाटी राखै। उवै इणांनै आपरा भाई मानै। सो उणांसूं कुण कजियो मोल ले?”
“ऐड़ो किसो भाटी है? जको इण मसाण री धणियाप करै? सगल़ा बोलतै अर दीसतै मिनख रा सीरी है। घर-धणियाणी कह्यो जणै घरधणी पाछो कह्यो कै-
“थारी बात सही है पण तूं आ तो जाणती ई हुसी कै कनै कीं हुवै उण भाई सूं बैन गनो टोरै अर भाई कनै कीं नीं हुवै उणसूं फखत भाई गनो टोरै। धरती बीज गमायो नीं है। धरती माथै अजै अणीपाणी वाल़ा मिनख जीवै-
हूंत की बैन अणहूंत को भाई।
सो दूजां रो तो ठाह नीं है पण डांगरी रो भगजी भाटी जरूर इण चारण री मदत करसी। उवो आ नीं मानै कै रतनुवां री मांग कोई बीजो परणीजै। जे ई रतनू उठै जाय रड़ करी तो उवो राजपूत जरूर धांपल़ घालसी। पछै आपां रो उजर नीं चालै। गैलसफी लांठाई बिचै गरीबी दरसावणी ठीक रैसी।”
“अरे भगजी हुसी तो मिनख ! ईज। इण रतनू रो डोल़ किसो उणांसूं छानो है? क्यूं नीं भगजी सूं ईज फारगत करायलो। भगजी कोई जीवती माखी थोडी ई गिटैला?”
घर-धणियाणी कह्यो जणै उण चारण पाछो कह्यो कै-
“हूं भगजी कनै जाऊंलो।”
अठीनै उण रतनू विचारियो कै-
“म्हारै सूं नीं तो कमाईजै अर नीं अंग में चंचल़ाई। म्हारै तो बिंयां ई जवानी तोटै अर बूढापा दो है! पछै क्यूं उण चारण री बेटी सूं हथल़ेवो जोड़’र पाप भेल़ो होऊं? क्यूं नीं उणांनै सगाई छोडण रो कागज लिखदूं। तो साथै ई माईतां रो दियो टूम-छल्लो ई पाछो ले आऊं जिणसूं कीं दिन थोड़ो काम सोरो चालसी”
आ सोच’र उवो पाल़ो ई रतकोड़िया कानी बहीर हुयो। कड़क राख’र आखड़तो-पड़तो रतकोड़िया री कांकड़ में पूगो। चौमासा रो बखत। खेतां में हरियाल़ी। एक खेत में सौल़ै-सतरै साल री एक बायली डेरे में बैठी तो दूजै कानी दूजी पिटियारी में परिया दो-चार मिनख सिट्टा तोड़ै। उवो डेरे पूगो अर निजर नीचां कियां ई बोल्यो कै-
“पाणी पीणो है!”
आ सुण’र उण बाई कह्यो-
“उवो पड़ियो घड़ो पीवो ! इणमें पूछण री कांई बात? मिनख पाणी पतल़ो थोड़ो ई हुवै। पण जात कांई है? ”
जणै उवै कह्यो
“चारण”
आ सुण’र उण पूछ्यो-
“कठै रा?”
उण घड़ै सूं लोटो भरियो अर कंठां ढाल़’र बिनां उण कन्या कानी देखियां बोल़्यो-
“सांढां रो रतनू।”
“आगै सिध जासो? ”
उण बाई पूछियो तो उण कह्यो कै-
“हूं रतकोड़िया फलाणजी रै अठै जासूं, म्हारी सगाई छोडण री लिखत करसूं अर म्हारो मांगणो पाछो लासूं।”
उवा बाई ई रतकोड़िया रै फलाणजी चारण री बेटी ही जिणरी सगाई इण रतनू साथै कियोड़ी ही। आ सुणतां बाई, उण मिनख नै खराय जोयो तो उवां समझगी कै इणरी सगाई म्हारै साथै ईज कियोड़ी है।
उण भल़ै कह्यो-
“भला मिनखां! लोग तो मांग मरियां ई नीं छोडै अर थे जीवता ई मांग छोडो! आ कांई ऊंधी ऊकली है? ऐड़ै कन्याकाल़ में सगाई हुवणी ई आंझी है। भला-भला मिनख ब्याव री मनमें लेय’र मरग्या अर एक थे हो जको घर आई लिछमी रै ठोकर मारो।”
जणै उण रतनू कह्यो कै-
“बात थांरी सही चोर चोरी करै पण घरै आय’र साच बोलै। हूं खल़ियो परो! नसाई हुयो। खावण-कमावण री आसंग नीं। तामणियो तेरे वानां मांगै। पछै नसाई तो आधी ऊमर में ई मरै। क्यूं विचारी चारण री बेटी नै रुल़ाऊं। आ सोच’र हूं आज लिखत करणनै आयो हूं। पछै म्हारै भलांई कठै ई परणावो। म्हारो कोई उजर नीं।”
आ सुण’र उण चारण-कन्या सोचियो कै-
“स्याल सम शेर होत निर्धन कुबेर होत,
दीनन के फेर ते सुमेर होत माटी को!
कितरो संवेदनशील अर खानदानी मिनख है। मरजादा रो कोट अर लाज रो लंगर है। एकली लुगाई जात, रोही रो वासो पण मजाल है कै साम्हों ई जोयलै। बखत रै मारियोड़ो अर हतभाग मिनख है, बाकी मिनखापण में कोई खामी नीं। हूं ई चारण-कन्या हूं! सगाई हुई, सो ई वर। परणीजूंला तो इणनै ई नितर कुंवारी रैवणो मंजूर है।”
आ तेवड़’र उण उठै पड़ी एक ठीकरी उठाई अर कोयलै सूं एक दूहो लिख्यो। पछै उण चारण ने कह्यो कै-
“म्हारो एक कैणो मानोला?”
चारण बोल्यो कै-
“म्हारै जोग हुयो तो अवस मानसूं। बतावो।”
जणै उवा बोली-
“आ ठीकरी एक’र भगजी डांगरी नै देय दीजो पछै उवै कैवै तो लिखत करण पाछा आ जावजो। दूहो हो-
भगू पारस भेट, कव लोहा कंचन करै।
मस रा आखर मेट, कींकूं रा भाटी करै।
अर्थात हे भगू ! तूं तो पारस है ! इण लोह रूपी कवि नै स्पर्श सूं कंचन कर अर इणरै लिलाड़ में जिका स्याही सूं विधाता रा लिखिया काल़ा आखर है उणांनै मेट’र कींकूं रा कर। अर्थात इण मदत कर।”
चारण रै ई भाग बारो दियो जको उवो बिनां कीं कह्यां उठै सूं सीधो डांगरी आयो। डांगरी कुशल़सिंहजी भाटी री वंश परंपरा में सहसमलजी अर सहसमलजी रै हिंदूसिंहजी अर हिंदूसिंह जी रै भगजी हुया। इयां तो कुशल़सिंहजी ई वीर अर उदार मिनख है। इणांरै विषय में कैताणो चावो है-
कुशल़ा थारो कोट,
इडग रह नित डांगरी।
डांगरी पोकरण ठाकुर सवाईसिंहजी रो ई नानाणो हो। “मामा ज्यांरा मारका, भूंडा किम भाणेज?”
किणी कवि रो ओ गीत घणो चावो है-
हाड में डांगरी करै हेला।
उवो रतनू सीधो डांगरी आयो। भगजी घरै नीं मिलिया, जणै ठीकरी भगजी री ठकुराणीसा नै दीन्ही अर पूरी बात बताई।
ठकुराणीसा दूहो पढियो। एक-एक आखर काल़जै उतरग्यो। बात धुरपेटे सूं समझग्या। जितरै भगजी आयग्या। ठकुराणीसा कह्यो कै-
“ई रतनू री सगाई इणगत कियोड़ी ही ओ छोडण गयो पण उण कन्या ओ दूहो लिख मेलियो। हमै ऐ माठा आखर मेटो सो काम करो।”
आ सुण’र भगजी कह्यो-
“बडभागण ! ओ बंधाणी। अमल में चूंच रैवै। नीं बैठण री सुद्ध नीं बोलण नै बुद्ध। झेरां खावतो रैवै। ओ तो कोडी ई नीं कमावै पछै कन्या कांई ई रै घरै भूख सूं भचीड़ खावण आवैली। उवै चारण री डीकरी नै डूबोवण रो पाप कुण लेवै?”
आ सुण’र. ठकुराणीसा कह्यो-
“गूंगो गैलो बावल़ो!
तो ई चाकर रावल़ो!!
पाप हूं लेऊंली। म्हैं पण लियो। इणरो घर नीं मांडूं जितै मरी नै मुखातर नीं मिलै। आप हां भरो जकी बात करो। सेवट त्रिया हठ जीतियो। भगजी कह्यो कै-
“ओ अमल छोडै तो हां भरूं।”
ठकुराणीसा कह्यो-“अमल हूं छोडावूंली।”
उणां रतनू नै कह्यो कै-
“बाजीसा ! आप म्हारै भाई सूं बधीक। हमै अठै आया हो तो म्हनै बिनां पूछियां कठै ई नीं जावोला। थांनै म्हारी गल़ात है (गल़ै री सोगन) कै अमल म्हारै हाथ सूं दियो लेवोला, आपै नीं।”
चारण हां भरी। ठकुराणीसा पुत्र सूं बधीक लाड राख’र होल़ै-होल़ै अमल कम कियो अर दूध-घी बधायो। आखिर में बाजीसा नै खाली अमल लेवण रो वहम-वहम रह्यो। जणै ठकुराणीसा भगजी नै कह्यो कै हमे बाजीसा रो ब्याव मांडो। भगजी राजी-राजी ब्याव मांडण गया।
रतकोड़िया रै चारणां नानुकुर करी पण भगजी कह्यो कै-
“थांरी चारणां री पंचायती में हूं नीं पड़ूं पण म्हांरै रैतां रतनू नै मांग नटै आ म्हांरै सारू असह्य है।”
चारणां वैर बधावणो ठीक नीं समझियो अर सावो दे दियो। डांगरी सूं जान चढी। जान रतकोड़िया पूगी पण बेटी री मा नटगी कै-
“ऐड़ै नसाई अर कठरूप नै म्हारी गवर जैड़ी बेटी नीं दूं।”
जणै किणी कह्यो कै-
“एक’र आप बींद देखो तो सही। लोगां री सुणी बातां रो पतियारो मत करो।”
सासू बींद देखियो तो किलकी रै कुंवर सिरखो हो। ब्याव हुयो। रतनू सांढां पाछो वसियो। सगल़ा थोक पाछा हुया।
भगजी री कीरत घणी पसरी। समकालीन कवियां उणांरी उदारता नै घणी बखाणी-
दादो जिणरो सहसमल, है नानो शिवदान।
लंगर फाबै लाजरा, भुज थारै भगवान।।
उदियापुर आमेर, सोभा माल़ागर सुणी।
जादम जैसल़मेर, भाटीपै दाता भगो।।
आज ई जठै मिनख अर मिनखपणै री बात आवै उठै भगू पारस री बात अवस आवै।
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी