हमारे अग्रज – भंवरदान रत्नू ‘मधुकर’ (खेड़ी)


किसी राजस्थानी कवि ने कितना सटीक कहा है कि शारदा के आराधक इहलोक से गमन कर जाते हैं जबकि वो न तो मरती है और न ही वृद्ध होती है। वो तो नित्य नूतन रूप में प्रकट होती है-

माला सांदू मर गया, दुरसा ही मर जाय।
सदा नवली सारदा, मरै न बूढी थाय।।

इस संदर्भ में जब हम महाकवि नरहरिदासजी विरचित ‘अवतार चरित्र’ की बात करते हैं तो हमारा मष्तिष्क श्रद्धा से झुक जाता है तो साथ ही हृदय गौरवान्वित हो जाता है।

कहते हैं कि नरहरिदासजी की पत्नी अपनी निसंतानता के कारण व्यथित रहती थी। वो यदाकदा अपनी व्यथा-कथा कविवर के समक्ष रखती भी थी। एक दिन कविश्रेष्ठ ने कहा कि-
“पगली! मैं एक ऐसा पुत्र पैदा करने जा रहा हूं, जिसे समग्र समाज श्रद्धा से अपनी गोद में रखेगा। उस पुत्र की बदौलत हमारा नाम अमर रहेगा क्योंकि- ‘मरणहार संसार, अमर तो आखर है।’ ”

उन्होंने ‘अवतार चरित्र’ रचना शुरु किया, जो आषाढ़ कृष्णा अष्टमी वि. सं, 1733 को पुष्कर में संपूर्ण किया गया। नरहरिदासजी का गांव टेला, पुष्कर के पास ही है। जहां इनके परवर्तियों में बारठ तेजसी उच्चकोटि के कवि व भक्त हुए थे। जिन्हें लोक ने दूसरे नरहरदास की संज्ञा से अभिहित किया था-

संत कवेसर तेजसी, दूजो नरहरदास।
जपियो कल़प मनौज जिण, राधा विष्णु विलास।।

‘अवतार चरित्र’ गहन गंभीर ग्रंथ है। जो सर्वसाधारण के लिए बौधगम्य नहीं था। अतः इसकी सरल व सारगर्भित टीका की है भंवरदान रतनू ‘मधुकर’ खेड़ी ने। अतः संक्षेप में मधुकरजी का परिचय देना समीचीन समझता हूं।

स्वतंत्रता से पूर्व चारण मनीषी राजस्थानी कविता के साथ-साथ ब्रज भाषा में भी निष्णांत थे। या यों कहें कि इनकी पहचान राजस्थानी के क्षेत्र में अपनी प्रज्ञा व प्रतिभा की बदौलत गिरा गरिमा के गौरव की अभिवृद्धि करने में रही है।

आजादी के बाद चारण मनीषियों ने राजस्थानी साहित्य की श्रीवृद्धि करने के साथ-साथ हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि करने में भी अपना अमूल्य अवदान प्रदान किया है।

जिन चारण साहित्यकारों ने व्यापक फलक पर काम किया लेकिन अपरिहार्य कारणों से उनकी पहचान सर्वत्र नहीं बन पाई।कारण कोई भी रहा हों लेकिन यह सत्य तथ्य है कि इन मनीषियों के काम की कूंत साहित्यिक जगत के समक्ष नहीं के बराबर आई है। ऐसे ही काम में अग्रणी और नाम में विश्वास नहीं रखने वालें एक मनीषी हैं, भंवरदान रत्नू ‘मधुकर’

‘मधुकर’ एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने मौलिक लिखने के साथ अपने पूर्ववर्ती विद्वानों द्वारा प्रणीत काव्य जो आजकी पीढ़ी के लिए सुलभ तो हैं लेकिन अध्ययनाभाव के कारण उनके लिए सुगम नहीं, को बौधगम्य बनाने हेतु स्तुत्य कार्य किया है।

इनके कार्य की तरफ इंगित करूं उससे पहले इनकी साहित्यिक विरासत की तरफ थोड़ा ध्यानाकर्षण करना समीचीन रहेगा।

इनके पूर्वज भरमसूरजी रतनू को मेड़ता के राव जयमल मेड़तिया ने मौड़ी व बासणी (नागौर)नामक दो गांव इनायत किए थे। भरमसूरजी के डिंगल़ गीत उपलब्ध हैं। इन्हीं रतनू भरमसूरजी की ही वंश परंपरा में ईसरदासजी रतनू हुए, जो अकबर द्वारा किए गए चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण के समय जयमल मेड़तिया की सेना में मौजूद थे। इन्होंने जयमल मेड़तिया जैसे दुर्धर्ष वीर की वदान्य वीरता को रेखांकित करते हुए ‘जयमल मेड़तिया रा कवत्त’ लिखे थे जो डिंगल़ की महनीय ऐतिहासिक रचना है। रचना की एक बांनगी कवि की मेधा को दर्शाने हेतु-

आभ लग्ग रिण बग्ग, किये कर खग्ग करारै।
दियै धार पाहार, सार सेलार संघारै।
भरै बत्थ समत्थ, करै खल़हट्ट निहट्टो।
रूक झट्ट खत्रवट्ट, हुवै थट्टां आवट्टो।
ऊछल़ै जीव जल़ तोछतै, तड़फड़ धड़ भड़ माछ जिम।
जैमाल करै चित्तौड़ सिरि, रामायण हणमंत जिम।।

इन्हीं ईसरदास जी रतनू को आमेर राजा मानसिंहजी ने करोड़ पसाव के साथ खेड़ी नामक गांव भेंट किया था-

कोट कचोल्यो डोगरी, भल सांसण भैरांण।
खेड़ी और गंगावती, मांन दिया महरांण।।

इसी खेड़ी गांव में वि.सं 1999 जन्माष्टमी को भंवरदान रत्नू का जन्म हुआ।

बाल्यकाल से ही साहित्य व संगीत से आपके प्रीति तंतु जुड़ गए जो कालांतर में आच्छादित होते गए। होना भी लाजमी था क्योंकि साहित्यिक पृष्ठभूमि आपको वीरासत में मिली थीं तो संगीत की शिक्षा आपने स्वयं अर्जित की।

भंवरदान रत्नू ने न केवल डिंगल बल्कि पिंगल़, संस्कृत, हिंदी, गुजराती आदि भाषाएं स्वाध्याय से सीखी। आपने उपनिषद, पुराण, वेद आदि धर्मग्रंथों का विशद अध्ययन किया। इसी के फलस्वरूप आपकी रुचि काव्य के साथ ही आध्यात्मिक की ओर उन्मुख हों चली। भलेही आप लंबे समय तक राजनीति के रंग में रंगे रहे लेकिन चंगे मन के बूते कठौती में गंगे अवतरण के विश्वास को बनाए रखा। तीन बार अपनी ग्राम पंचायत के मुख्या रहकर अपनी विकासोन्मुखी छवि को बरकरार रखा। हालांकि सरपंचों के विषय में प्रसिद्ध है-

सोज्यां सरपंच नह मिलै, जम्मां जागण जोय।
चोखा जीमै चूरमा, दिन में वेल़ा दोय।।

परंतु आप चूरमा जीमने में नहीं अपितु आमजन को चूरमा खिलाने के पक्षधर रहे हैं। यही कारण है कि आपकी छवि एक नेता की नहीं अपितु पथ प्रणेता की रही है। आप सरपंच कम संत की भूमिका में दृष्टिगोचर अधिक होतें हैं। इसी का उदाहरण है, आप द्वारा महाकवि नरहरदासजी बारठ के वृहद ग्रंथ ‘अवतार चरित्र ‘ की सुलभ सुगम व बौधगम्य हिंदी टीका।

अवतार चरित्र के विषय में धीरजी बारठ की यह उक्ति जितनी नरहरदासजी पर समीचीन है उतनी ही ‘मधुकरजी पर सटीक-

दुझल़ झोक रुघवीर नरहर दहूं देखतां,
उकत क्रांमत नखत छित अफारा।
हद हुई लंक रा लहणहारा ज्यूं हिज,
हद हुई ग्रंथ रा कहणहारा।।

यानी जितना उक्ति चातुर्य व वैचित्रयपूर्ण वर्णन नरहरदासजी ने किया है उतनी ही सहजता, सुगमता प्रगल्भता के साथ आपने इस गौरव ग्रंथ का अर्थ किया है। जिस ग्रंथ की सतरहवीं सदी में रचना हुई। जिसकी हजारों प्रतियां बनी लेकिन लंबे समय तक किसी विद्वान ने इसकी हिंदी अथवा राजस्थानी टीका करने का साहस नहीं जुटाया। जुटाते भी तो कैसे? क्योंकि नरहरदासजी ने अपनी कविता में अर्थ गांभीर्य, लालित्य व ओज को बनाएं रखते हुए वेदांत के आधार पर इस ग्रंथ को प्रणीत किया जबकि राजस्थानी कवियों में अपवाद स्वरूप को छोड़कर अन्य का वेदांत से कोई सरोकार नहीं रहा। मधुकरजी ने महनीय संस्कृत ग्रंथों के साथ ही वेदांत व उपनिषदों का व्यापक अध्ययन मनन किया है। जिस प्रकार का श्लिष्ट विशेषणों का प्रयोग नरहरदासजी ने किया उसी पारंगता के साथ आपने उनका हृदयग्राही विवेचन किया।

लगभग चार हजार पृष्ठों का यह ग्रंथ हिंदी टीका के कारण पाठकों के लिए चित्ताकर्षक सिद्ध होगा क्योंकि पाठक इसके मूल भावों को पकड़ने में सहजता महसूस करता है।

जिस प्रकार आपने ‘विजय अवतार गीता’ (अवतार ग्रंथ) का अनुवाद कर पाठकवृन्द को लाभान्वित किया है उसी प्रकार आपने डिंगल की उत्कृष्ट रचना ‘मेहाई-महिमा’ का अद्भुत गद्य में अनुवाद कर पाठकों को कृतार्थ किया है क्योंकि जितना उक्ति चातुर्य व वैचित्रयपूर्ण वर्णन हिंगलाजदान जी ने किया है उतनी ही सहजता, सुगमता प्रगल्भता के साथ आपने इन रचनाओं का अर्थ किया है।

ये दोनों रचनाएं हिंदी टीका के कारण पाठकों के लिए चित्ताकर्षक सिद्ध होंगी क्योंकि पाठक इसके मूल भावों को पकड़ने में सहजता महसूस करेगा। मुझे लगता है कि मूल सृजण से अनुवाद का कार्य श्रमसाध्य अधिक है क्योंकि अनुवादक को अनुदित रचना के मूल भावों, सरोकारों तथा संदर्भों तक पहुंचना पड़ता है। इस क्षेत्र में ‘मधुकरजी’ पूर्णरूपेण सफल रहे हैं।
तीनों मनीषियों को मेरा सादर वंदन-

सदैव उक्ति की आभा भक्ति में प्रदीप्त मान,
ग्यान को महोदधि ध्यान हरि हर को।
अवतारन की कथा को अनूप गूंथ अहो,
भाव की सरिता प्रवहित घर घर को।
भाषा कीअनोखी छटा शिव की जटा में गंग,
पाप प्रक्षालन मंत्र मनो नारी नर को।
रोहड़ अंश चारण अवतंश को सदा ही,
गिरधर को प्रणाम ऋषि नरहर को।
कविया हिंगलाज !सदी को शिखर पुरूष,
कवि सिरताज जाको सेवापुरा धाम है!!
उक्ति अनुपम वहा !जुक्ति को बखानू कहा,
शब्द को घड़ैया अहो दुनि सरनाम है!!
सुरवाणी मरूवाणी उर्दू पिंगल में पटू,
ग्रंथन को गूढ कोश सुनी बात आम है!!
अलू को वंशज अंशज कवि सागर को,
गुन आगर को कवि गीध का प्रणाम है!!

गिरा ज्ञान गंभीर, सहज फिर सरल़ सभावां।
गरव रहित गुणवान, भक्त हृदय शुद्ध भावां।
बहुभाषी विद्वान, उरां अपणास अथागी।
परापरी सूं प्रीत, इधक पाल़ै अनुरागी।
धिन थान खेड़ी ढुंढाड़ धर, जगत भँवर सह जाणियो।
रतनुवां वंश सारी रसा, अंजस कारज आणियो।

प्रथम तो हिंगलाजदानजी जैसे उद्भट विद्वान की कृति फिर भंवरदानजी रतनू जैसे मनीषी का अनुवाद और फिर मुझ अकिंचन को पाठकीय टिप्पणी करने हेतु आदेश मिलना न केवल असहज कर गया बल्कि लघुता भी महसूस हुई। लेकिन मैं आदरणीय भंवरदानजी के आत्मीय आदेश कि – ‘ईं कै ऊपर तनै ई लिखणो है!’ से मेरी हूंस बढ़ी और उसी हूंस की बदौलत ये हृदय के भाव आप तक पहुंचाएं हैं।

संस्कृत, डिंगल, हिंदी, ब्रज, उर्दू जैसी भाषाओं में बराबर प्राविण्य प्राप्त दिग्गज विद्वान मनीषी भंवरदानजी रतनू ‘मधुकर’ खेड़ी जिन्होंने ‘अवतार चरित’ जैसे वृहद ग्रंथ की हृदयग्राही टीका कर साहित्यिक जगत को कृतार्थ किया। इनकी सेवा में एक कवित्त निवेदन किया-

श्रद्धेय मधुकर को सादर प्रणाम पुनि,
भाव के लगाव एक प्रार्थना हमारी है।
आपकी विद्वता की पताका आसमान देख,
गिरधर को गुमान जो तो बलिहारी है।
अवतार चरितन को नितार काढ्यो सार
पाठक को हित कियो काज उपकारी है।
ऐसी सुनी सारभूत बातें अदभूत जबै,
ग्रंथ पढ़बा की आस खास मन धारी है।।

इस पर आपका प्रत्युत्तर-

सिद्धः श्री शुभ स्थान, राज बीकाण विराजै।
गुन गाहक गिरधार, छती उपमा सब छाजै।।
यत्र तत्र सर्वत्र, मात सब मँगल करणी,
हरणी विघन हजार, सेवकां कारज सरणीं।।
बीनती एक मधुकर भणें, मम आलय पगुधारिये।
दर्शन देय कृतार्थ कर, पुस्तक लेय पधारिये।।
~~शुभेच्छु। भँवर दान रत्नू, मधुकर, खेडी।

इस पर आदरणीय को पुनः निवेदन किया-

मधुकर विनती मेक, जय माता री जानो।
पुणूं फेर परणाम, महर करनै आ मानो।
सरव ओपमा मान, खिती खंड राजो खेड़ी।
दासोड़ी थल़ देश, कहूं फिर दूरी कैड़ी?
आपरो सदन म्हारो अखूं, कहो कूड़ इणमें किसी।
कोथल़िये भेंट व्यजन समो, बडपण धर मेलो इसी।।

मधुकरजी के इस प्रत्युत्तर मैं नतमस्तक हूं-

रस अवतार चरित्र रो, रुचि रुचि पीवां राज।
शुभ दर्शन सतसंग सुख, ऐक पंथ दो काज।।
~~मधुकर

करनीदानजी झीबा (भंवरदानजी के दामाद)-

मधुकर महिमा मुदित मन, गिरधर रतनू गाय,
भाव मधुर लेखन ललित, पढ़त हृदय पुलकाय!!

इस पर झीबा साहब को निवेदन किया-

तिम ही तुलसीदास रै, हुवो मदत हड़ुमान।
जिम ही झीबा आजदिन, मदती करनीदान।।

आदरणीय मधुकरजी को मेरा पुनः निवेदन-

पीथल हूं की धरा पे पधारे थे आप तब,
अकिंचन कियो दर्श हरसायो उर में।
अवतार चरित को पियूष पान किंहिक,
पठावो अबे प्रभु थली के शुष्क सर में।
आचमन कर अरूं मन को प्रक्षाल कछु,
शीश पे चढाय सो तो वांद लूंगो कर में।
सतसंगी सो मैं तो आपको ही को अनुरंगी,
कृपाप्रसाद गहूंगो बैठो यहीं घर में।।

~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी

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