भूरजी बलजी के कवित्त – महाकवि हिंगऴाजदान जी कविया

भूरसिंह और बलसिंह रावजी की शेखावत शाखा के वंशज थे और काका भतीज थे, इनका गांव बठोठ, सीकर जिले में स्थित है। ये अपने समय के प्रसिध्द (धाड़ायती) वीर थे। यह दानवीर, धर्मप्राण, गरीबनवाज, जनसाधारण के प्रिय पात्र व शासकवर्ग तथा अंग्रेजों के घोर विरोधी थे। इन्हे जयपुर, बीकानेर, जोधपुर रियासत व अंग्रेज अफसरों ने पकड़ने का प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली। अन्त में जोधपुर रियासत की पुलिस से आमने सामने के मुकाबले में वीरतापूर्वक संघर्ष कर वीरगति को प्राप्त हो गए। इन वीरों की वीरता पर कविया कविवर ने वीर रस के द्वादस कवित्त दो दोहा व एक गीत बड़ो साणोर की रचना की थी जो यहाँ प्रेषित है।

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।।दोहा।।
श्री लंम्बोदर सुरसति, मन क्रम वचन मनाय।
बिग्रह भूर बला तणूं, बरणूं कवित्त बणाय।।

।।कवित्त।।
चढ्यो जोधपुर तैं रसाला बीर चाला चहि,
तालन में चालत चंदोल जल तुच्छ पै।
चित्त में घमंड ब्रह्मंड लखैं चकरी सो,
अकरी अदा ते आये सेखाधर स्वुच्छ पै।
पोते राव वीर बनरावन पै दिट्ठि परी,
परी दिट्ठ हूरन की फूलन के गुच्छ पै।
डाकी डाकुवन कूं बकारे किधौं डारे कर,
बाघन के मुच्छ, पांव नागन के पुच्छ पै।।1।।
वीरता के कार्य करने की चाह में जोधपुर से रिसाला ने चढाई की। यह रिसाला इतना बड़ा था कि उसके चलने से तालाबों का पानी सेना का अंतिम भाग पहुंचने तक समाप्त होकर कीचड़ रह जाता था। रिसाला के सैनिकों के चित्त मे इतना घमंड था कि वे ब्रह्मांड चकरी के बराबर समझते थे। ऐसी अकड़ी हुई अदा से वे शेखावतों की पवित्र धरती पर आये। रावजी के शेखावत सिंहों पर उनकी दृष्टि पड़ी। इधर आकाश में परियों की दृष्टि फूलों के गुच्छों पर पड़ी। बलशाली डाकुओं को ललकारना ऐसा प्रतीत हुआ जैसै सिंहों की मूंछों पर अथवा नागों की पूंछों पर पांव रख दिया हो।

कवि हिंगऴाज जमराज को जगैबो किधों,
जेठी के कनैठी को जंजीर को जकरिबो।
किधों रवि अत्थत जयदत्थ पै पत्थ कोप,
अकूपार ऊपर अगत्थ को अकरिबो।
घटा घहराय छूट परिबो छटा को किधों,
थंभ थहराय नरसिंह को निकरिबो।
कैरवन हल्ला पै इकल्ला भीम को सो कोप,
प्रान छतै वीर भूर बल्ला को पकरिबो।।2।।
कवि हिंगऴाजदानजी कविया कहते हैं कि भूरसिंह और बलसिंहको जीवित पकड़ना उसी प्रकार था जैसा यमराज को जगाना अथवा छोटे पहलवान द्वारा बड़े पहलवान की जंजीर को दबाना, अथवा सूर्यास्त के समय जयद्रथ पर अर्जुन का क्रोध अथवा अगस्त मुनि समुद्र से अकड़ गए हो अथवा बादलों की घटा गहरा कर बिजली का टूट पड़ना अथवा थंम्भे को कंम्पायमान करके नरसिंह भगवान का निकलना अथवा कोरवों के दल पर अकेले ही भीमसेन का क्रोधित होना। आदरणीय कविया हिंगऴाजदानजी की उपमा अजब अनूठी और सतोली सटीक है।

तुपकान ताक हुय हाक बीर बाक बढ्यो,
महा धमचाक मंढ्यो कातिक कै महनै।
जुध्द जगती पै जोगनिन की जमात जुरी,
परी अंग ऊबट सिंगार हार पहनै।
देखै प्रातकाल को पतंग हिंगऴाजदान,
सिमिट भुजंग लगो जंग भार सहनै।
भैरव भवानी भूरी भोजन की भूकें भगी,
बीज की सी बहन बंदूकें लगी बहनै।।3।।
कार्तिक के महीनें में बन्दूकों को ताक पर वीर वाक्यों (मारो-मारो, बढो-बढो आदि) का हल्ला हुआ। युध्दभूमि पर योगिनियों की जमात जुड़ गई। वे अंगों पर उबटन लगाकर हारसिंगार भी पहन कर आई हैं। प्रातःकाल का सूर्य भी युध्द देखने लग गया। शेषनाग भी युध्द के भार को सिमट कर सहन करने लगा। भैरव और भवानी को लगी हुई भूख भग गई और बिजली की बहनों जैसी बंन्दूकें चलने लगी।

कातुर भयातुर ह्वै मन में बिचार करैं,
खोटे ग्रह आन परे मोटे रूजगार पै।
बीरन के तीर अरू अच्छरी कटच्छ बहैं,
ग्रीधन गुड़ी सी उड़ी आवत अहार पै।
शेखावत रावत संहार करै शत्रुन को,
कैद करे कौन मुसतैद मर मार पै।
पायन अचल्ला सूर वारों भूर बल्ला पर,
वारों बज्र बिजुरी बन्दूकन के वार पै।।4।।
कायर लोग भयभीत होकर विचार ने लगे कि बड़े रोजगार पर खोटे ग्रह आ गए हैं। वीरो पर तीर और अप्सराओं के कटाक्ष चल रहे है। गीधनियां पतंग के समान उड़ कर आहार पर आ रही है। रावजी के शेखत शत्रुओं का संहार कर रहे हैं। उनको कौन कैद करे जो कि मरने मारने को तत्पर है। मैं, अडिग पैरों पर चलने वाले वीरों को बलजी और भूरजी पर न्यौछावर कर दूं। और उनकी बन्दूकों के वार पर वज्र और बिजली को न्यौछावर कर दूँ।

काँपत रसाला को कऴेजा चाँप चांपत ही,
धीर धारैं धीरज बिचारै भीरू भगिबो।
सोर को महान घोर सबद सुनाई देत,
ज्वाला को उजाला मुचकंद को सो जगिबो।
बे बे कारतूस मार मूकैं बार बार बिखै,
चूकैं न बन्दूकैं निशानूं पै चोट लगिबो।
काली फनमाली फूँतकारैं बनमाली पै कि,
भूरा बल्ला वाली द्वै दुनालिन को दगिबो।।5।।
बन्दूक की चाप को दबाते ही रसाले का कलेजा कांपने लगता है। धीर पुरूष धैर्य धारण कर रहे हैं और कायर भागने पर विचार कर रहे हैं। बारूद का घोर शब्द सुनाई दे रहा है, (बन्दुकों को) ज्वाला का उजाला ऐसा लग रहा है जैसे मुचकंद (यह दैत्य जिसकी आँखों की नजर के पड़ते ही हर कोई भस्म हो जाता था) का सा जागना। ऐक ऐक बार में दो दो कारतूस बार बार चल रहे हैं, बन्दूकें निशानों पर चोट लगानें से नहीं चूक रही हैं। कालीया नाग जैसे कृष्ण पर फूंफकार कर रहा हो उसी तरह से भूरजी व बलजी की दूनाली बन्दूकें चल रही हैं।

इते जंग अंगन में बिग्रह बिभाति उभै,
भिरैं मूँछ भूँहैं छुटैं फुँहैं छितछित में।
लोचन गुलाली द्वै दुनाली भुजादंडन में,
खाली कारतूसन के झुंड परैं खित में।
रत तैं तृपत पवसाक को कुसुंबी रंग,
खत्रवट खूबी चारनों के चूभी चित्त में,
जीरन शरीर बन्दूकन तैं बिदीरन की,
बीरन की पूगी तसबीर बिलायत में।।6।।
इधर युध्द के आंगन में उनके दोनों के शरीर शोभा दे रहै थे। मूंछैं भौंहौं से भिड़ रही है रक्त की छोटी फुंहांरै भूमि पर इधर उधर बिखर रही हैं, आँखै गुलाल सी लाल हो रही है, उनकी भुजाओं पर दुनाली बन्दूकें है रणक्षैत्र में खाली कारतूसों के झुंड बिखरे पड़े हैं, रक्त से तृप्त हुई पोशाक का रंग कसूमल हो रहा है। क्षत्रियत्व की खूबी चारणों (कवि लोगों) के चित्त में अंकित हो गई है, बन्दूकों से विदीर्ण होने के कारण शरीर जीर्ण हो गया है। वीरो की तस्वीरैं भी विलायत तक पहुँच गई है।

उतैं घूमि घूमि झूमि भवांय के झोटन तैं,
चोटन तैं लोटे नवकोटे चवगान में।
बाकी जो बचे सो वाकी क्रिया करबे को पचे,
आटा को प्रथम घाटा पिंड परधान में।
दुल्लभ सनैती को सलूक हिंगऴाजदान,
राम नाम सत्त जां निमत्त न जबान में।
काठ कफ्फनन को कसाला रसाला को कियो,
काला मुख दपटि दुसाला दपटान में।।7।।
उधर धूम-धूम और झूम-झूम करके बेहोशी के झोटे लग रहे है, चोटे लगने से (नवकोटि) मारवाड़ वाले चौगान में लौट गऐ हैं। बाकी जो बचे वो क्रियाकर्म करने में व्यस्त हो गए। पहले ही पिंड सराने के हेतु आटे का घाटा पड़ रहा है व अर्थी का प्रबन्ध दुर्लभ हो रहा है, “राम नाम सत्य” भी जबान से नहीं निकल रहा है लकड़ी और कफन की कमी के कारण उन रसाले वालों का दुसालों और दुपट्टों से काला मुख किया (दाग दिया )।

लोहित लिपित वरदीन को बरन लाल,
घायल शरीर सुधि आवत घरन की।
होय रही हालत शिकारी के हिरन की सी,
पर गई खबर लुटेरे पकरन की।
हर हर हाय हाय करि करि जेर ह्वै ह्वै,
मांगै जल बेर बेर देर न मरन की।
कटक कटीले के कलेजों पै कजाकन द्वै,
डाकिन बन्दूकें डसी डाकू डोकरन की।।8।।
रक्त से लिपटी हुई वर्दीयों का रंग लाल हो रहा था, उनके शरीर घायल थे और उन्हे घर की याद आ रही थी। डाकुओं को पकड़ने की खबर से उनकी हालत शिकारी के हिरण की सी हो रही थी। वे हरि-हरि और हाय-हाय के शब्द परेशान होकर बोल रहे थे, प्यासे होकर बार-बार जल मांग रहे थे और उनके मरने में देरी नहीं थी, तेज सेना के कलेजों के उपर वृध्द डाकुओं की बन्दूकें डायन के समान उन्हैं डस गई, खा गई।

दुहूं ओर सोर को संग्राम घन घोर देख,
मुनिराज नारद प्रसन्न भए मन में।
त्यौंही तीन फैर तुपकानको तमासा तकि,
सूर कही स्याबस रही न कमी रन में।
दाख्यौ भूर बल्ला को रटल्ला हिंगऴाजदान,
काव्य रस चाख्यौ जस भाख्यौ कवित्तन में।
दोऊ बीर आखिर अरीन को निमत्त दैकैं,
परन परीन को बिराजे बिमानन में।।9।।
दोनों ओर बारूद का घोर युध्द देख कर मुनिराज नारद अपनें मन में प्रसन्न हुए। इसी तरह तीन पहर तक बन्दूकों का तमाशा देखकर सूर्यदेव नें भी “शाबास” कहा। रण में कोई कमी नहीं रही। कवि हिंगऴाजदान भूरजी-बलजी को जरूर दाद देता है कि वे बुढापे में भी जवान पठ्ठों से नहीं हटे। अन्त में दोनों वीर शत्रुओं को बड़ा निमित देकर परियों से विवाह करके विमानों में बिराजमान हुऐ।

पूगे खिन अन्दर पुरन्दर के पत्तन में,
लेन देन लगि फेन बासिक फनिन्द के।
मिले रम्य महल कमी न अमी अमृत की,
तलप में फैलैं फूल कलप तरिन्द के।
हेर-हेर देवन को मन को हरस होत,
अरस-परस होत दरस गोविन्द के।
परी पांव चम्पत न संम्पत को कहा पार,
राव के मयंन्द उमराव भए इन्द के।।10।।
वे क्षणभर में ही इंन्द्र के नगर पहुंच गए और अफीम के दौर लेने लगे, वहां उनको सुंन्दर महल मिले, अमृत की कोई कमी नहीं थी उनकी शैयाऔं पर कल्पवृक्ष के फूल बिछे हुए थे, उनके मन को देवताऔं को देख-देख कर प्रसन्नता होती थी और भगवान से प्रत्यक्ष मिलना होता था, उनके पांव परियां दबाती हैं। वहां की संम्पती का क्या पार है, रावजी के पुत्रों (कछवाहा शेखावतों की रावजी की शाखा) को, जो कि सिंह सदृष्य है, इंन्द्र के सभासद व सामन्त बनने का मौका मिल गया।।

डाका डारबे की हिंदवान में बजाई डाक,
खाँप ना लजाई राव राजेसुर कल्ला की।
बांसवाड़ा आगरा पिटाला झालावाड़ बीच,
ज्यादा घबराई जान जोधपुर जिल्ला की।
पेशा मरमार बारदातन को कहा पार,
बाजे बाजे बिगत हवेलिन पै हल्ला की।
हा हा हिंगऴाज मृगराज भूर बल्ला बिना,
सैरन में आवत रिपोटें खैर सल्ला की।।10।।
भूरजी बलजी नें हिंदुस्तान में डाका डालने का डंका बजा दिया, उन्होनें राव राजा कल्याणसिंह की खाँप को नही लजाया। और बांसवाड़ा, आगरा, पटियाऴा, झालावाड़ के बीच डाके डाले, परन्तु जोधपुर जिले की जान ज्यादा घबराई, उनका पेशा ही मरने तथा मारने का था, वारदातों का कोई पारावार नही था, कई कई अवसरों पर अन्यायी व दुष्ट सेठों की हवेलियों पर भी हमला करते थे। हिंगऴाज दानजी कहते हैं कि भूरजी व बलजी जैसे सिंहों के बिना आज शहरों से खैरियत (शान्ति) की रिपोर्टें आ रही है।

उस समय के डाकू जिनको धाड़वी भी कहते थे कभी भी गरीब, अबला, असहाय, अनाथ आदि को नही सताते थे तथा अपने लूटे हुए धन में से जरूरतमंद गरीब की मदद करते थे और अपनी मर्यादा का कभी भी उल्लंघन नही किया करते थे इसीलिए उस जमाने के धाड़वी आम जन के हीरो तथा राजा महाराजा अंग्रेज अफसर व बड़े सेठ साहूकारों के दुश्मन होते थे। आमजन कभी भी उनके छुपने की जगह का राज नही बताते थे।

श्रीफल सती के बावरी के कुंभ राव बंसी,
जेहै जुग जोलौं बात जिनकी न जायगी।
दोनूं देह वीर बल्ला-भूरा की बनाई बेह,
पानिन पखार फेर फुरसत पायगी।
कवि हिंगऴाज भवितव्य को इलाज कहा,
अन्त समै पै पापिन अचानक आयगी।
देखत दृगन दो घरीक में अगन द्वारा,
वीरा रस मूरत की सूरत विलायगी।।12।।
सती के नारियल और काल्ही (बावऴी) के कऴश की भांति उन दोनों वीरों व राजवंशी यौध्दाओं की बात युगपर्यन्त अमिट रहेगी। विधाता नें बल्ला एंव भूरा दोनों की देह बनाकर पानी से हस्त-प्रक्षालन कर फुरसत पा ली थी। कवि हिंगऴाजदान जी के अनुसार अब भवितव्यता का कोई इलाज नहीं होता, अतः अंतिम वेला रूपी पापिन आ ही गई। देखते ही देखते दो घड़ी में अग्नि की ज्वाला में वीर रस की मूरत रूपी वह सूरत विलीन हो गई।।

।।दोहा।।

द्वादस कवित्त दो दूहा, सुन्दर रतन समाज।
मानसिक सामुद्र मथि, लिए काढ हिंगऴाज।।

कवि हिंगऴाजदानजी के मन रूपी समुद्र को मथकर उसमें से बारह कवित्त और दो दोहों के रूप में चौदह रत्न निकालै हैं।

इनके अलावा एक बड़ो साणोर गीत भी कवि ने भूरजी बलजी पर बनाया है।

~~महाकवि हिंगऴाजदान जी कविया
भावार्थ: राजेंन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर (राज.)

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