डिंगळ/पिंगळ की पोषक एक महान संस्था “भुज की पाठशाला” एवं उसका त्रासद अंत

अपने भौगोलिक सौंदर्य, भव्य इतिहास एवं सांस्कृतिक सौष्ठव से अलंकृत कच्छ, भारत के पश्चिमी सीमांत से जुड़ा, अरब सागर की गोद में पला कच्छपाकार में फैले विशाल रेतीले रण से सुप्रसिद्ध एक विशिष्ट प्रायद्वीप है। इस प्रदेश की राजधानी भुज है। पंद्रहवीं पाताब्दी से इस प्रदेश में जाडेजा वंशीय महाराजाओं का शासन रहा। कच्छ का अर्थ है पानी के संग्रह स्थान के बीच का प्रदेश। कच्छ महाभारत और भागवत की पूण्यभूमि, रामकृष्ण और बुद्ध-महावीर की तीर्थ भूमि, दश प्रचेता मच्छंद्र और मेंकण, कंथड की तपोभूमि, जगडुअबडा और सुंदर-फतीया की जन्मभूमि, लाखो-लखपत और देशल-खेंगार की कर्मभूमि रही है। हालांकि कच्छ एक शुष्क प्रदेश है, फिर भी इसका हवामान तंदुरस्ती प्रदान करने वाला है। रामसिंह जी राठोड़ ने इस प्रदेश के विषय में सत्य ही कहा है-

शियाले सोरठ भलो, उनाले गुजरात।
चोमासे वागड भली, कच्छडो बारे मास।।

इसी कच्छ के महाराव लखपति सिंह (सन १७१०-१७६१ ई.) ने गुजरात/राजस्थान की काव्य परंपरा को सुद्रढ़ एवं श्रंखलाबद्ध करने का अभूतपूर्व कार्य किया जिसका साहित्यिक के साथ साथ सांस्कृतिक महत्त्व भी है। उन्होंने भुजनगर में लोकभाषाओँ एवं उनके काव्य-शास्त्र के अध्ययन एवं अध्यापन के लिए सन १७४९ ई. में “रा. ओ. लखपत काव्यशाला, भुजनगर” की स्थापना की जो “डिंगळ-पाठशाला” एवं “भुज नी पोशाळ” अथवा “भुज की पाठशाला” के नाम से लोकप्रिय हुई। यह पाठशाला स्वातंत्र्य-पूर्व काल अर्थात सन १९४७ ई. तक कार्य करती रही।

अपने लगभग २०० वर्षों के अंतराल में भुज की इस अनौखी काव्यशाला ने काव्य जगत को सैंकड़ों विद्वान् कवि दिए जिन्होंने अनेकों ग्रन्थ रचे एवं डिंगल/पिंगल काव्य परंपरा को नयी ऊँचाइयों पर पहुचाया।

भुज की यह पाठशाला तीन भवनों में स्थानांतरित होकर संचालित होती रही थीI १. मुख्य एवं प्रथम भवन जो भुज के शराफा बाजार में स्थित है। २. द्वितीय भवन सरपट नाके जूना हाथी थान के सामने के मकान में था, जहाँ आज कल जिला पंचायत द्वारा संचालित शाला नम्बर पाँच चलती है। ३. पाठशाला का तृतीय व अंतिम भवन भुज के आशापुरा मंदिर के निकट का दुमंजिला भवन था, जो आजकल चारण छात्रालय के नाम से प्रसिद्ध है।

कच्छ के महारावों का चारण विद्वानों एवं चारण साहित्य के प्रति अत्यधिक प्रेम रहा है। विभिन्न धार्मिक संप्रदायों एवं मठों के द्वारा साहित्यिक विनिमयों में चारणों का आवागमन एवं साथ-साथ साहित्यिक विनिमय एक श्रृंखलाबद्ध परम्परा बन गयी थी। इन कारणों ने यहाँ के साहित्यिक विद्वानों को कच्छ में एक काव्यशाला की स्थापना करने के लिए बाध्य किया। इसके अलावा इस पाठशाला की स्थापना के प्रेरणा स्त्रोतों में से मुख्य प्रेरणा स्त्रोत हैं-

  1. कच्छ के महारावों का कला एवं साहित्यिक प्रेम। इसी प्रेम की वजह से अनेक विद्वान, चारण कवि एवं संत महात्मा कच्छ निवासी बनने के लिए उत्सुक रहे।
  2. कच्छ की मोटी पोशाल से प्रभावित होकर, कच्छ के अनेक विद्वान काव्यशाला की स्थापना के लिए प्रेरित हुए।
  3. हमीरजी रतनु की प्रतिभा से प्रेरणा लेकर भी कई साहित्यिक प्रेमी इस ओर अग्रसर हुए।
  4. जैन यतियों की असाधारण प्रतिभा ने भी इसकी स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तथा
  5. अंतिम प्रेरणा स्त्रोत महाराव लखपति का कवि रूप है।

महाराव लखपति सिंह जी ने कच्छ की धरा पर लम्बे समय से अजस्त्र रूप में बहने वाली डिंगल/पिंगल काव्य-धारा को काव्य-धाम के रूप में बांधा है। इनका जन्म कच्छ के जाड़ेजा महारावों की यशस्वी वंश परम्परा में सन् १७१९ में कच्छ की राजधानी भुज नगर में हुआ था। बचपन से ही ये बड़े विद्यानुरागी थे। ये अनेक कलाओं के ज्ञाता एवं आश्रयदाता थे। उस समय के प्रसिद्ध कवियों एवं कलाकारों को बुलाकर उन्होंने काव्य, शिल्प, चित्र, संगीत, नृत्य आदि कलाओं का तलस्पर्शी अध्ययन किया। युवावस्था को प्राप्त होने तक वे स्वयं पिंगल में काव्य-रचना करने लगे तथा गायन चित्र इत्यादि में भी निपूण हो गये। सन् १९५२ में वे विधिवत सिंहासनारूढ़ हुए। राज्यसत्ता को अंगीकृत करते ही उन्होंने काव्य और कलाओं के विकास की योजनाएं बनाई जिनको कार्यान्वित करने में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया। इनकी उदारता, कलाप्रियता एवं रसिकता कच्छ के नरेशों में अद्वितीय थी।

महाराव लखपति के विषय में कु. निर्मला आसनानी ने कहा है-“महाराव लखपति जी स्वयं भी एक श्रेष्ठ कवि एवं सुंदर ग्रंथों के रचयिता थे। इनका समय रीतिकाल के उत्कर्ष का युग था, जिसमें कवितारानी सोलह श्रृंगार सजकर राजभवनों को चमत्कृत कर रही थी। शब्दों की पैनी छैनी लेकर कविगण कविता के भिन्न भिन्न रूपों को तराशने में लगे हुए थे। छंद-अलंकारों के सिंहासन पर आरूढ़ कविता की आराधना करने वालों के लिए पिंगल शास्त्र का ज्ञान अनिवार्य बन गया था। उस समय के कविजनों के लिए यह यह उक्ति कसौटी बनी हुई थी-

पिंगल बिन कविता करे, सो नर पशु समान। “

उस समय उत्तम कवि बनने के लिए पिंगल शास्त्र का ज्ञान अत्यावश्यक समझा गया था। इसी बात को ध्यान में रखते हुए महाराव लखपति ने पिंगल ज्ञान-तृष्णा बुझाने के लिए कवि बनने की कामना करने वाले अनेक साहित्यिक प्रेमियों हेतु अनुपम एवं बेजोड़ काव्यशाला की स्थापना की, जिसने लोक साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

आचार्य कनक कुशल एवं उनके शिष्य कुंवर कुशल के संचालन में सन् १७४७ ई. में इस काव्यशाला की विधिवत् स्थापना हुई। महाराव लखपति सिंह जी ने इन दोनों की काव्य प्रतिभा एवं साहित्यिक प्रेम देखकर दोनों को कच्छ की इस पाठशाला के आचार्यपद से सम्मानित किया। महाराव लखपति सिंह जी ने इस काव्यशाला की स्थापना के पश्चात् समस्त भारत के विभिन्न प्रदेशों से कवि बनने की इच्छा रखनेवाले अनेक सहृदयों को विज्ञापन द्वारा आमंत्रित करके नि:शुल्क काव्य शास्त्र की शिक्षा देने की पूर्ण व्यवस्था करवायी। इस आमंत्रण से कवि बनने की जिज्ञासा रने वाले काव्य जिज्ञासु भारत के विभिन्न प्रदेशों से कच्छ में आये। इनके शिक्षण, भोजन, आवास एवं निवास का पूरा खर्चा कच्छ राज्य सरकार भरती थी।

पाठशाला का श्रीगणेश भुज के एक विशाल भवन में हुआ। इस पाठशाला के निमित्त तीन प्रकार की गतिविधियाँ हुई-

  1. काव्य-कला शिक्षण के लिए पाठ्यक्रम निर्मित किये गये।
  2. प्रशिक्षार्थी कवियों को बहुज्ञ बनाने, दरबारी संस्कृति से परिचित कराने एवं काव्यकला कुशल बनाने के लिए उन्हें काव्यशास्त्र के अतिरिक्त इतिहास, धर्म, राजनीति, अश्व-परीक्षा, रत्नपरीक्षा, दर्शन, ललितकलाओं एवं युद्ध सम्बन्धी जानकारी को भी पाठ्यक्रम में जोड़ा गया। अभिव्यक्ति कौशल हेतु डिंगल/पिंगल भाषा के अलावा अन्य भाषाओं का ज्ञान भी दिया जाना निश्चित हुआ।
  3. कवि आत्मविश्वास के साथ राज दरबार में अपनी कविता पेश कर सके इसके लिए उसे व्यावहारिक अभ्यास करवाने की उत्तम व्यवस्था की गयी।

काव्य के दसों अंगों की शिक्षा यहाँ पर विधिवत् दी जाती थी।

कवि दलपतराम ने अपने निबन्ध “भुजमा कविताशाला विषे” में पाठयक्रम की रूपरेखा संक्षेप में इस प्रकार दी है- “भुज में पिछली कितनी ही पीढ़ियों से कविता सिखाने की पाठशाला स्थापित की जा चुकी है। उसमें पढ़ाने वाले गोरजी है। उन्हें वहाँ के राज्य की ओर से वर्षासन मिलता है, और पढ़ने वालों के खाने पीने का सामान भी राज्य की ओर से मिलता है, और वे वहाँ पढ़ने के उपरांत जैसी परीक्षा देते हैं, वैसा ही शिरपाव मिलता है। इस प्रकार की शाला समस्त गुजरात में अन्यत्र न तो देखने में आयी है और न सुनने में। हमने सुना है इस पाठशाला में कविता सिखाने के लिए छोटे-बड़े कुल मिलाकर लगभग तीस ग्रंथ हैं, उनमें से कुछ के नाम मुझे याद हैं वे नीचे दिये जाते हैं।
१. भाषा व्याकरण, २. मानमंजरी कोष, ३. अनेकार्थ मंजरी, ४ नीचे लिखे हुए कई पिंगल चलते हैं किन्तु उनका मतलब प्रायः एक ही है-(अ) छन्द श्रृंगार पिंगल (सबसे उत्तम) (आ) चिन्तामणि पिंगल (इ) छन्द भास्कर पिंगल (ई) हमीर पिंगल (चारणी भाषा में) (उ) लखपति पिंगल, एवं (ऊ) नागराज पिंगल। ५. भाषा-भूषण ६. वंशीधर, ७. कविप्रिय, ८. रस-रहस्य, ९. काव्यकुतोहल, १०. रसिकप्रिया, ११. सुन्दर षणगार, १२. बिहारी सतसई, १३. वृंद सतसई, १४. देवीदास कृत राजनीति, १५. नाथूराम कृत राजनीति १६. सुन्दर विलास १७. ज्ञान समुद्र, १८. पृथ्वीराज रासो १९. अवतार चरित्र २०. कृष्ण बावनी २१. कवित्त बन्ध रामायण, २२. रामचन्द्र चन्द्रिका, २३. राग माला, २४. सभा-विलास।”

कवि दलपतराम द्वारा दिये गये पाठ्यक्रम की सराहना करते हुए कुंवर चंद्रप्रकाश सिंह कहते हैं- “भुज की काव्यशाला के पाठ्यक्रम का जो आंशिक विवरण कविवर दलपत के लेख में मिलता है, उससे वहाँ की अध्ययन-अध्यापन की परिपाटी की प्रौढता और गम्भीरता का प्रमाण मिलता है। आज के विश्वविद्यालयों में साहित्य की उच्चतम उपाधि के लिए भी प्रायः इतने साहित्य का पाठयक्रम के रूप में विशिष्ट अध्ययन नहीं होता।“

इस पाठ्यक्रम की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह काव्य-साहित्य की सभी प्रचलित साहित्यिक परम्पराओं और विधाओं का प्रतिनिधित्व करता था। पाठशाला के व्यवस्थापकों ने अपनी सीमाओं मे रहकर पाठ्यक्रम को अधिकाधिक पूर्ण एवं श्रेष्ठ बनाने की चेष्ठा की थी।

पाँच वर्ष के अभ्यास के बाद परीक्षा ली जाती थी। विद्यार्थियों का अभ्यास-काल साधारणतया पाँच से लेकर सात वर्षों का रहता था। कुछ विशिष्ट प्रतिभा वाले विद्यार्थी इससे भी कम समय में अपना पाठ्यक्रम पूर्ण कर लेते थे, तो इसके विपरीत सामान्य स्तर अथवा विशेष अभ्यास करनेवाले विद्यार्थी निर्धारित अभ्यासकाल से भी अधिक समय लेकर अपना अभ्यास करते रहते थे। परीक्षार्थियों के लिए परीक्षा पूरे वर्ष में सिर्फ एक ही बार ली जाती थी। यहाँ पर अभ्यास करने के लिए किसी प्रकार की वय सीमा नहीं थी। चौदह वर्ष से तीस वर्ष तक के विद्यार्थी एक साथ अभ्यास पाने इस पाठशाला में आते थे।

इस पाठशाला में पाठ्यक्रम एवं अभ्यासक्रम समाप्त होने के पश्चात विधार्थियों को मौखिक तथा लिखित दोनों परीक्षाएं देनी पड़ती थी। जिसमें परीक्षार्थी को दिये गये विषय पर काव्य-रचना सुनानी होती थी तथा कोई रचना बनाकर पेश करनी होती थी। महाराज प्रागमल्ल एवं महाराव खेंगार जी (तृतीय) के दीवान मणिभाई जसभाई बड़े साहित्य-प्रेमी तथा कला-कौशल में प्रवीण थे। उन्होंने विशेष रस लेकर इस काव्यशाला के उद्धार एवं इसके रचनात्मक पक्ष को उभारने के लिए “बावनी” लिखने की इनामी योजना आयोजित की थी। उनकी इसी योजना से प्रभावित होकर कवि नवलदान आशिया “नीति रत्नावली बावनी” में सराहना करते हुए कहते हैं-

कीनो उपकार ब्रजभाषा सु विद्यालय को,
सक्ल विधि याते कल कीर्ति विस्तारी है।
पाय प्रभुता की तें दिवान मनिलाल नित्य,
सकल विधि ऐती कल रीति विचारी है।।

कवि खेतदान दोलाजी भी इसी प्रकार अपनी रचना “वैराग्योपदेश बावनी” में इसी बात से सहमत होते हुए कहते हैं-

सागर बुध नागर गुनी, नागर मनि मनिलाल।
धनि धनि कीरति जगतकरि, गो शिव थान विशाल।।

कवि हरदान जसाभाई बारोट द्वारा रचित “कवि गुन प्रभाकर बावनी” का निम्न छन्द दृष्टव्य है, जिसमें उन्होंने महाराव लखपति सिंह जी तथा दीवान मणिभाई जसभाई दोनों के उपकार का अनुमोदन किया है-

आगे जदुकुल कलम भी, लखपति भूप उदार।
परम धर्म-मग साध किय, काव्यालय उपकार।।
तिहि कुल मण्डन प्राग सुत, सकल क्षत्रि सिरमौर।
जाके उर दुरजन दबत, जश जाहिर चहुँ ओर।।
पुनि दीवान ताके सुधर, गुनग्राहक गुनगार।
जसनन्दन सुकृत किया, यह इनाम उपकार।।
यह इनाम उपकार को, हुकम कमिटी कीन।
सौ आयस अनुसार तें, विरच्यों ग्रंथ नवीन।।

इस योजना के अनुसार अन्तिम परीक्षा देने वाले विद्यार्थी को दिये गये विषय पर बावनी ग्रंथ की रचना करनी पड़ती थी। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थी को कच्छ राज्य की ओर से उचित (सौ कोरी) का इनाम एवं पोशाक के साथ कवि पद प्रदान करते हुए सम्मानित किया जाता था। इस इनामी योजना ने काव्यशाला एवं काव्य-साहित्य को अनेक बावनियों का भंडार प्रदान किया। निम्न सूची में बावनी संज्ञक अनेक रचनाएं परीक्षार्थियों द्वारा इसी योजना के अंतर्गत पेश की गयी कृतियाँ हैं।
१. हम्मीरसर बावनी-कवि गोप
२. काव्य प्रभाकर अथवा रूक्मिणी हरण-कवि गोपाल जगदेव
३. शौर्य बावनी-कवि हम्मीर दशोंधी
४. नीति रलावली बावनी-कवि नवलदान आशिया
५. धैर्य बावनी-कवि माधव ब्रह्मभट्ट
६. देशोन्नति प्रकाशिका बावनी-कवि मंडूभाई
७. पतिव्रता चरित्रावली बावनी-कवि धनदास
८. औदार्य बावनी-कवि गौरीशंकर मेहता
९. धमेश धर्म बावनी-कवि मेघराज
१०. कविगुन प्रभाकर बावनी-कवि हरदान बारोट
११. वैराग्योपदेश बावनी-कवि खेतदान दोलाजी
१२. सृष्टि-सौंदर्यवाटिका बावनी-कवि जीवाभाई वीसाभाई
१३. स्वधर्म निष्ठाबावनी-कवि देवीदास
१४. गृहस्थ धर्म गुण प्रकाश बावनी-कवि जसकरण
१५. स्वदेश हुन्नर कला बावनी-कवि जयसिंह
१६. शंकर महात्म्य बावनी-कवि कलाभाई
१७. देवी महिमा बावनी-कवि शिवदान
१८. खेंगार गुण रत्नाकर बावनी-कवि राज वेराभाई
१९. वसन्त बावनी-कवि वसन्तराय
२०. उपदेश बावनी-कवि श्यामजी ब्रह्मभट्ट
२१. त्रीकम यश बावनी-कवि तख्तदान मीशण

उपर्युक्त बावनियों में से कई बावनियों को कच्छ दरबारी प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया।

इनके अतिरिक्त यहाँ पर शिक्षा पाने वाले कवियों ने प्रबन्धकाव्य तथा चरितकाव्य भी लिखे हैं, व्याकरण और भाषा ग्रंथ जैसे हम्मीर नाम माला, लखपत मंजरी नाममाला, काव्य शास्त्र एवं काव्यांगों को लेकर अनेक लक्षण ग्रंथों की रचना की। संगीत एवं नृत्य से संबंधित अनेक गणनीय ग्रंथों की रचना की जैसे, लखपत ताल विधान, संगीत रत्नाकर, सुर-तरंगिनी, राग सागर आदि, इसके अलावा नड़ियाद स्थित देसाई जी ने “साहित्य-सिन्धु” नामक ग्रन्थ की रचना की तथा राजकुमार मेहरामणसिंह जी ने कई कवियों के साथ मिलकर “प्रवीण सागर” लिखा।

इस पाठशाला में विद्यार्थी की परीक्षा लेने के लिए एक त्रिसदस्यीय समिति बनाई गयी थी। जिसमें निर्धारित सदस्य इस प्रकार थे- (१) कच्छ राज्य के वरिष्ठ शिक्षाधिकारी (२) संस्कृत पाठशाला के प्रधानाचार्य तथा (३) कच्छ राज्य के दशोंधी राजकवि। इसी संबंध में कवि देवीदान शामल का निम्न छन्द दृष्टव्य है-

विद्या अधिकारी विमल विठ्ठल जी वरनाम।
प्रभायुत शंकर अरू, कवि लखधीर ललाम।।
न्याय दियो उनही नवल, यथामति अनुसार।
स्वधर्म निष्ठा बावनी, बरनी विमल विचार।।

कवि लखधीर खड़िया की मृत्यु के पश्चात् पाठशाला के प्रधानाचार्य का पद कवि हम्मीर जी खड़िया ने ग्रहण किया, ये इनके उत्तराधिकारी वंशज भी थे। इनामी योजना के आयोजक कवि दीवान मणिभाई जसभाई के देहान्त के बाद परीक्षा पद्धति तो पूर्ववत् ही चलती रही किन्तु इनामी योजना बंद हो गयी। विद्यार्थी को पाठयक्रम में निर्धारित सभी ग्रंथ अर्थ के साथ कण्ठस्थ होने के पश्चात् उसे परीक्षा में बैठने के काबिल समझा जाता था, मौखिक परीक्षा में विद्यार्थी को विभिन्न छन्द, रस, अलंकार आदि से सम्बंधित प्रश्न पूछे जाते थे। विद्यार्थी की स्मरण शक्ति की कसौटी हेतु परीक्षार्थी से प्रसिद्ध ग्रंथों के उदाहरण पूछे जाते थे। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद विद्यार्थी को निश्चित समय-मर्यादा में निर्धारित विषय पर रचना लिखनी पड़ती थी या फिर दी गयी समस्या की पाद-पूर्ति करने के लिए कहा जाता था।

इस पाठशाला के परीक्षकों का निर्णय दृढ एवं न्यायपूर्ण हुआ करता था। इसी संबंध में शंभुदान अयाची स्वानुभव का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि उन्हें भी एक घन्टे की समय-मर्यादा देते हुए समस्या-पूर्ति के लिए निम्न पंक्ति दी गयी थी-

“ये खादी ने विलायत की, कीनी बरबादी रे।”

उपर्युक्त छन्द-पूर्ति हेतु आचार्य जी के द्वारा रचित प्रस्तुत छंद दृष्टव्य है

कीरति कथी न जाय, सुतवे सुता की खास,
मोह मंत्र मार सारी, आतम जगा दी रे।
फेसन फितुरी फन्द में हु जो फंसी थी ऐसी,
कैसी शाहजादी को सिखाई रीति सादी रे।
मानचेस्टर मीलन को, रक्षा राजधानी बीच,
अमर कटारी सम, भीति की मचा दी रे।
देस की आजादी शंभु, प्रगट दिखानेवाली,
ये खादी ने विलायत की, कीनी बरबादी रे।।

इस पाठशाला में कवि-पद का प्रमाणपत्र एवं सम्मान देने की अनोखी परम्परा थी। कच्छ नरेश स्वयं उत्तम कवि को शाल, पगड़ी एवं इनाम देकर सम्मानित करते थे। सुप्रसिद्ध कवि श्री दुलेराय काराणी ने भी पद्धति का समर्थन करते हुए अपनी रचना में कहा है-“कवि के रूप में अन्तिम परीक्षा उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों को योग्य इनाम, पोशाक, और कवि की पदवी देकर सम्मानपूर्वक विदा किया जाता था। इस संस्था से निकलने वाले कवियों ने सौराष्ट्र और राजस्थान के अनेक प्रदेशों में अपना नाम प्रख्यात कर इस संस्था को यशस्वी बनाया है।“

इसी बात का अनुमोदन करते हुए कवि दलपतराम ने अपने लेख में कहा है- “वहाँ पढ़ने के पश्चात् जैसी परीक्षा देते थे वैसा ही शिरपाव मिलता था। इस प्रकार की शाला समस्त गुजरात में अन्यत्र न तो देखने में आयी है और न सुनने में।“

इस संस्था से कवि-पद पाने वाले कवियों ने गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान एवं सिंध के राजदरबारों को अपनी रचनाओं से शोभायमान करके अत्यधिक यश, सम्मान एवं धन-राशि प्राप्त की थी। गुजरात के सुप्रसिद्ध कवि न्हानालाल दलपतराम ने इस पाठशाला को अध्ययन-अध्यापन में अद्वितीय बताया है एवं उसकी इसी विशेषता को गौरवपूर्ण भावांजलि देते हुए कहा है- “काव्यकला की शिक्षा देने के लिए भुज में एक पाठशाला थी। आज भी है। कवियों की सर्जना करनेवाली यह पाठशाला कदाचित दुनिया भर में अद्वितीय होगी। अनेक काव्य-रसिक यहाँ शिक्षा प्राप्त कर राजदबारों में राजकवि हो गये हैं। इस काव्यशाला में काव्यशास्त्र सिखाया जाता है। और जिस प्रकार बगीचाशास्त्र का शास्त्री उदीयमान बागवानों को ऋतुओं की धूप छाँह से परिचित कराकर उन्हें फल-फूल-सिंचन, पालन-पोषण, चयन और संग्रथन सिखाता है, इसी प्रकार यहाँ रसोपासकों को नवरस की वाटिकाओं में भ्रमण कराकर शिक्षा दी जाती है। कच्छ राज्य का सिंहासन तो भुजिया है, पर उनका कीर्ति-मुकट तो भुज की यह काव्य पाठशाला है।“

महाराव लखपत के सत्तारूढ़ होते ही उनके दरबार में अनेक कवि एवं विद्वान आये जिनमें कवि भारमल तथा मारवाड़ स्थित धड़ोई गांव के चारण कवि हम्मीरदान रतनू भी थे। हम्मीरदान जी अपनी विशिष्ट काव्य-विद्वता के कारण कुछ ही समय में राव लखपति की कृपा के विशेष अधिकारी बन गए तथा महाराव ने भी उन्हें “लाखपसाव” एवं जागीर देकर “अयाची” घोषित कर दिया। राव के आश्रय में रहकर ही कवि हम्मीरदान रत्नू ने नौ ग्रंथों की रचना की है जो इस प्रकार है-१. हम्मीर नाममाला, २. गुण पिंगल प्रकाश, ३ पिंगल कोष, ४. जदुवंश वंशावली, ५. महाराव देशल जी री वचनिका, ६. लखपत गुण पिंगल ७. ज्योतिष जड़ाव, ८. भागवत दर्पण तथा ९. ब्रह्मांड पुराण

इस प्रकार महाराव लखपति जी के आश्रय में रहकर जब अनेक कवि एवं विद्वान काव्य-रचना करने लगे तब उनके मन में यह दिली तमन्ना जागृत हुई कि काव्यशास्त्र के ग्रंथों के अध्ययन अध्यापन, प्रणयन एवं प्रचार के लिए किसी स्थायी व्यवस्था का प्रबन्ध होना चाहिए, जिससे कवियों की काव्य-पिपासा को तृप्ति मिले। वस्तुतः हम्मीरजी रावदेशल जी प्रथम के राज-कवि और राव लखपत के काव्य-गुरू थे। भुज की पाठशाला की स्थापना की प्रेरणा भी महाराव जी को हम्मीरदान रत्नू से मिली थी। इसी बात का समर्थन करते हुए डॉ गोवर्धन शर्मा कहते हैं- “राव लखपत को काव्याभिरूचि के परिष्कार और काव्य पाठशाला की स्थापना की प्रेरणा देने का श्रेय मूल घड़ोई के कच्छी दरबार के राजकवि हम्मीर जी रत्नू को जाता है। हम्मीरदान जी रत्नू के प्रयत्नों के फलस्वरूप ही जैन यति कनक कुशल को किशनगढ (राजस्थान) से बुलाया गया था तथा पाठशाला के प्रथम प्रधानाचार्य का पदभार सौंपा गया था। कनककुशल स्वयं प्रतिभा सम्पन्न कवि थे, वे पिंगल, संस्कृत, अर्धमागधी एवं राजस्थानी के महान पंडित थे। राव लखपति जी ने उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर पाठशाला की देखरेख एवं व्यवस्था के लिए रेहा नामक गाँव तथा भट्टारक की पदवी प्रदान की थी।

महाराव लखपति जी स्वयं एक कुशल कवि थे। अनेक कवियों ने उनके नाम लखपत से आरंभ होने वाली रचनाएँ लिखी है। काव्यशाला के प्रथम प्रधानाचार्य कनक कुशल ने भी “लखपत मंजरी नाम माला” तथा “सुंदर श्रृंगार” इन दो ग्रंथों की रचनाएं की हैं। उनके शिष्य कुंवर कुमाल ने भी इसी तरह “लखपत जससिंधु” नामक ग्रंथ लिखा है।

इस काव्यशाला के प्रथम प्रधानाचार्य जैन यति भट्टारक कनक कुशल के पश्चात परवर्ती आचार्यो में कुंवर कुशल, वीर कुशल, राज कुशल, जय कुशल, धर्म कुशल, वल्लभ कुशल, जीवन कुशल, भक्ति कुशल आदि आचार्य हुए। यह काव्यशाला इन “कुशल” शाखा के जैनाचार्यों के संचालन में लगभग सवा सौ वर्ष तक चलती रही। जैनाचार्यों में जब प्रमाद की मात्रा बढ़ गयी तब उनसे यह आचार्य पद एवं पाठशाला लेकर जैनेतर विद्वानों को इस कार्यभार की जिम्मेदारी सौंपी गयी, जैनेतर आचार्यों के अधिकार में आने पर जो पाठशाला जैनाचार्या के समय में “नानीपोशाल” के नाम से प्रसिद्ध थी, वही पाठशाला आचार्य पद में परिवर्तन आने पर कुछ समय के लिए एक छोटे से मकान में चलने लगी। जिसमें सुविधाएँ पूर्ण न होने की वजह से पाठशाला के व्यवस्थापकों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। जैनेतर आचार्यों के अंतर्गत प्राण-जीवन, हम्मीर जी खड़िया, केशव अयाची, जाडेजा कवि उन्नड जी, जीवराम अजरामर गोर आदि पाठशाला के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। पाठशाला के अंतिम आचार्य पद का सेहरा शंभुदान आयाची जी को पहनाया गया।

इस प्रकार यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि कच्छ की यह काव्य पाठशाला अनेक अर्थो में विशिष्ट थी। इसकी सर्व प्रथम विशेषता यह थी कि आज से करीब ढाई सौ वर्ष पूर्व एक हिन्दीतर भाषा-भाषी प्रदेश में इसका पल्लवन हुआ था।

इस काव्यशाला की दूसरी एवं अनोखी विशेषता यह थी कि यह विज्ञान की पाठशाला न होकर कवि बनाने की पाठशाला धी। विश्व की यह लोक प्रचलित एवं बहुश्रुति मान्यता है कि-“कवि जन्मते हैं बनाये नहीं जा सकते। ” परंतु कलारसिक महाराव लखपति जी ने इस काव्यशाला की स्थापना करके यह प्रमाणित कर दिया कि जिस प्रकार अन्य कलाओं में निपुणता आ सकती है उसी प्रकार प्रतिभा पर भी प्रशिक्षण का औप चढ़ा कर कवि तैयार किये जा सकते हैं। इस संस्था से शिक्षा पाकर निकले सेंकडों छात्रों ने कवि के रूप में यश प्राप्त करके सौराष्ट्र, राजस्थान और मध्यप्रदेश के रजवाडों में अपना नाम प्रख्यात करके इस संस्था अर्थात् पाठशाला को यशस्वी बनाया है। गुजरात के प्रख्यात कवीश्वर दलपतराम एवं स्वामिनारायण संप्रदाय के यशस्वी कवि ब्रह्मानंद स्वामी (लाडूदान आसिया) दोनों काव्य साहित्य को इसी पाठशाला की देन है।

इस काव्यशाला की तीसरी एवं अद्वितीय विशेषता यह थी कि इसके संरक्षक एवं संचालक महारावों तथा आचार्यों ने कविता करने के साथ-साथ काव्यशास्त्र एवं काव्यशिक्षा विषयक पिंगल एवं डिंगल भाषा में अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी की है। इतना ही नहीं इसके अलावा अनेक ग्रंथों की टीकाएं एवं अनुवाद भी किये हैं। इस प्रकार के ग्रंथों में कनक कुशल के शिष्य कुंवर कुशल कृत “लखपति जससिंधु” हम्मीरजी रतनू कृत-“लखपति पिंगल”, तथा उन्नड़जी कृत “भागवत पिंगल” विशेष उल्लेखनीय हैं। टीकाओं में आचार्य कनक कुशल द्वारा रचित कविप्रिया एवं रसिकप्रिया की टीका तथा हम्मीर दान लाखाजी मोतीसर द्वारा रचित नागदमण टीका सचमुच उल्लेखनीय है। अनुवाद में “भागवत दर्पण”, एवं “ब्रह्माण्ड पुराण” आदि के अनुवाद वास्तव में सराहनीय है।

इस काव्यशाला की ध्यानपात्र एवं चौथी विशेषता यह थी कि इसमें काव्य के दसों अंगों का अभ्यास करवाया जाता था। पाठ्यक्रम में व्याकरण, पिंगल, अलंकार, नायिका भेद आदि सभी विषयों पर विशेष भार दिया जाता था। अतः इसमें पढ़ाया जानेवाला पाठ्यक्रम आज की स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रम से भी अधिक सारगर्भित सघन एवं उच्चस्तरीय था। इसी बात का अनुमोदन करती हुई डॉ. निर्मला आसनानी कहती है-“आज विश्वविद्यालयों में हिन्दी के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में भी न तो वह स्तर दृष्टिगोचर होता है और न वह ज्ञान गरिमा। यदि पाठ्यक्रम के आधार पर किसी शेक्षणिक संस्था की महत्ता निर्धारित की जा सकती हो तो भुज की पाठशाला निश्चित रूप से एक उच्चकोटि की शिक्षण संस्था थी।

प्रत्येक छात्र को अपना अध्ययन पूरा करने के पश्चात् पिंगल/डिंगल भाषा में सतसई, शतक या बावनी रचकर परीक्षणार्थ प्रस्तुत करनी होती थी। उस काव्य के मान्य हो जाने पर ही परीक्षार्थी को सुकवि पद से विभूषित किया जाता था। पाठशाला के छात्रों द्वारा रची गयी अनेक बावनियाँ प्रकाशन के अभाव में अज्ञात एवं उपेक्षित अवस्था में सौराष्ट्र व कच्छ के चारणों की काव्य-मंजूषाओं में दबी पड़ी है।

इस पाठशाला से सुकवि पद से सम्मानित होने के पश्चात् सिद्धि प्राप्त करने वाले कवियों से काव्य साहित्य के भंडार में वृद्धि तो हुई ही है, साथ ही साथ इन कवियों ने तहेदिल से इस काव्यशाला को अपनी भावांजलि प्रदान करते हुए लिखा है-

इन शाला आश्रयी, गाम गज पशा कमाया।
इन शाला आश्रयी, बड़ा वैभव सु वसाया।
इन शाला आश्रयी, राव राणा रिझवाया।
इन शाला आश्रयी, देव इतिहास दिखवाया।
इन तरह यहे शाला तणो, सुज्जस सह जग संचर्यो।
कवि कथे आदि कविता करत, भुजनाथ नाम भलमण भर्यो।

इसी प्रकार कवि शंभुदान अयाची का भावपूर्ण शब्दों की अंजलि देता निम्न पद दृष्टव्य है-

संवत सतर की सदी, भूप लाखौ भुज भायो।
कवि सुत पर कर कृपा, दिव्य वर हुक्म दिवायो।
सह साधन युत सरस, काव्यशाला करवायी।
इण रीतां अखियात, कच्छ कीरत कहवायी।
बीसमीं सदी लग के निकट, वरती वेला वापरे।
सुखधाम तोऊ विद्यासदन, कव काज आज ही विस्तरे।

उपर्युक्त अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि महाराव लखपति द्वारा स्थापित भुज की पाठशाला काव्य जगत की एक अनूठी उपलब्धि थी। इस पाठशाला से तत्कालीन दरबारों में पिंगल/डिंगल भाषा कवियों की मांग की पूर्ति हुई थी। पिंगल/डिंगल भाषा में काव्यरचना करके इस काव्यशाला के आश्रयदाता आचार्यों एवं कवियों ने भारत के पश्चिमांचल में पिंगल/डिंगल भाषा काव्य परंपरा का प्रवर्तन किया था और गुजरात में रीतिकालीन काव्य-परम्परा को प्रतिष्ठापित किया था। इस काव्यशाला के आश्रय में लिखा गया साहित्य, भाषा की भंगिमा, छंदों की छटा, अलंकारों की अनुसरणात्मकता एवं भावों की विदग्धता की दृष्टि से वैशिष्ट्यपूर्ण है। इसकी पुष्टि के लिए प्रस्तुत छंद अवलोकनीय है-

कौन को तात और कौन की मात और कौन को पूत ओ कोन की नारी,
कौन को माल मुलक है सु कोन को यातनु कौन को कौन की यारी।
माया के जाल में आई परे सब आय की आप उठावत मारी,
नाथ के हाथ है बात सबै लखधीर कहे अभिमान कहा री।

इस गौरवपूर्ण एवं अनूठी काव्यशाला का अन्त सचमुच काव्यसाहित्य की बदनसीबी है। इस काव्यशाला का अन्त दो-ढाई सौ वर्षों की गौरवपूर्ण सुदीर्घ परम्परा का निर्वाह करने के पश्चात् समय एवं संजोगों के परिवर्तन के साथ ई. सन् १८४८ में विधि के क्रूर हाथों हो गया। इस काव्यशाला के अन्तिम आचार्य श्री शम्भुदान अयाची ने इसकी समाप्ति का विवरण देते हुए इस प्रकार कहा है-“अर्ध शताब्दी तक पाठशाला के आचार्य पद को संभालने वाले श्री हम्मीर जी खड़िया के देहावसान के पश्चात पाठशाला का दायित्व इनके दो पुत्रों कविश्री देवीदान खड़िया एवं शक्तिदान खड़िया के कन्धों पर आया। किन्तु वे भी परिस्थितिवश इस पद से त्यागपत्र देकर निवृत्त हो गये और तब इस पाठशाला का आचार्यपद कविश्री शंभुदान आयाची को दिया गया। तब तक पाठशाला की व्यवस्था काफी उखड़ चुकी थी।

संवत् २००५ में जब कच्छ के शिक्षणाधिकारी श्री द्विवेदी साहब तथा दीवान आसर साहब पाठशाला का निरीक्षण करने आये थे तब वहाँ की दीन-हीन दशा को देखकर वे निराश हो गये लेकिन शाला में पढ़ाये जाने वाले उच्च स्तरीय पाठ्यक्रम एवं उसके गरिमामय इतिहास को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। तत्काल दोनों महानुभावों ने पाठशाला के पुनरूद्धार हेतु दृढनिश्चय किया। एक तीर से दो कार्य सिद्ध करता कवि श्री शम्भुदान अयाची द्वारा रचित एवं उनके शिष्य द्वारा मधुर कंठ से गाया गया निम्न पद नि:संदेह अवलोकनीय है, जिसमें एक ओर दीवान साहब का सम्मान व्यक्त किया गया है तो साथ ही साथ दूसरी ओर मनहर कवित्त में अपनी इस पाठशाला को फिर से व्यवस्थित करने की नम्र विनती है यथा-

आसर आगम आपको, आशा दीयण अपार।
शाला ब्रजभाषा सदन, धन्य भयों निरधार।।
काव्य कुसुममय कवित यह, पुष्पहार उपहार।
आसर तुम उर में धरो, सुयशकाज स्वीकार।।

।।मनहर कवत्त।।
अरजी सुणावो, फिर मरजी मुनासिब पे,
नाम रह जायगो जरूर यह निभाने में।
कवियन के काज-राज लखपति रचाई रम्य,
शाला ब्रजभाषा में विदित राज राने में।
दो सौ साल देख हाल काल में बेहाल बनी,
ताको प्रतिपाल ख्याल धरो निजराने में।
देतहार दाता बिजराज, बली मौंज है तू,
आसर प्रधान जल ले लो ये जमाने में।
पिता राव खेंगार ढिंग, ज्यो दीवान मणिलाल।
जस खाट्यो जयराय तिम, अवनी नाम उजाल।।

कवि शंभुदान अयाची द्वारा दी गयी सलाह पर विचार करते हुए कच्छ के दीवान साहब ने पाठशाला के उद्धार हेतु अयाची जी को विशेष प्रशिक्षण के लिए कच्छ से बाहर इलाहाबाद, वर्धा एवं काशी भेजा था। वहाँ से अयाची जी २५ जनवरी १९४८ में हिन्दी साहित्य की आंशिक जानकारी प्राप्त करके बम्बई आये। और दूसरे ही दिन २६ जनवरी १९४९ को कच्छ नरेश का देहांत हो गया। उनकी अकाल मृत्यु की वजह से उन्हें (अयाची जी को) कच्छ लौटना पड़ा।

देश के अन्य राज्यों के विलीनीकरण के साथ-साथ कच्छ राज्य का भी विलीनीकरण सन् १९४८ में हुआ। और इसी विलीनीकरण के कारण कच्छ की बागडोर श्री देसाई साहब (प्रथम चीफ कमिश्नर) के हाथों में सौंपी गयी। तब इसी राज्य से संलग्न इस गौरवशाली काव्यशाला को चारणों एवं अन्य कवियों का राजशाही शौक समझकर उसे बन्द करने का आदेश जारी किया गया। अनेक सत्प्रयत्नों के पश्चात भी इस पाठशाला को नीरस एवं क्रूर हाथों से बचाने में सफलता नहीं मिली तथा इसे हमेशा के लिए बन्द कर दिया गया। इसके अतिरिक्त इस पाठशाला से संबंधित सभी कागजों को अनुपयोगी मानकर जला दिया गया।

इस प्रकार रीतिकालीन प्रवृत्तियों का पोषण करने वाली यह प्राचीन संस्था भुज की पाठशाला भारतीय स्वतंत्रता के स्वर्ण विहान में काल-कवलित हो गयी।

कच्छ भूमि पर निर्मित एवं पोषित इस प्राचीन संस्था “रा. ओ. लखपत काव्यशाला, भुजनगर” में जन्मे सुकवियों एवं उनके द्वारा विरचित साहित्य का गुणगान सदियों तक काव्य एवं साहित्य जगत में गूंजता रहेगा।

सन्दर्भ:

शोधप्रबंध – “महाराव लखपति सिंह – व्यक्तित्व और साहित्यिक कृतित्व” – कांतिलाल शाह
शोध-निबंध – “भुज (कच्छ) की व्रजभाषा पाठशाला” – डॉ. कुंवरचन्द्र प्रकाशसिंह

डिंगळ पाठशाला (भुज-कच्छ) के कवियों द्वारा रचित ग्रन्थों की सूची

क्रमांकग्रन्थ-नामग्रन्थकार
1अन्योक्ति विलासश्यामजी जयसिंह बारोट
2अनामी ग्रन्थमेघराज हम्मीरजी वीठू
3पिंगल विरहदेवीदान नारायणदान शामल
4अनाम ग्रन्थकानदास मेहडू
5अभमाल यशोभूषण पृथ्वीदान खेतदान माहिया
6अभोजस गाथाबाजीभाई प्रभातसिंह बाटी
7अमर आशागौरीशंकर गोविन्दजी मेहता
8अमर काव्य कलापनथुराम सुन्दरजी शुक्ल
9अम्बाष्टकशंकरदान जेठीभाई देथा
10अरज पत्रिकाजीवन कुशल
11अर्जन विलासदलपतराम
12अलंकारनिधिभैरवदान खेतजी लालस
13अवधान मालउदयराम बारहट्‌ठ
14अहीर पच्चीसीभीमजी भारमल्ल रावल
15आई खोडियार रा छन्द कानदास मेहडू
16आत्मबोधलाधाजी खड़िया
17आदि खेंगार चरित्र चन्द्रिका देवीदान वेराभाई
18आध्यात्म कीर्तनमाला मास्टर रतनसिंह पाण्डे
19आठो होथलजीवराम अजरामर गोर
20आमोद राजवंश का ग्रन्थकानदास मेहडू
21आला खाचरना कुमारनो विवाहखोड़ाभाई सिंहढायेच
22ईश्वर स्तुतिउन्नड़जी जाडेजा
23उपदेश बावनीश्यामजी जयसिंह ब्रह्मभट
24उन्नड बावनीउन्नड़जी जाडेजा
25उपदेश मालादेवीदान नारायणदान शामल
26उपदेश चिन्तामणीब्रह्मानन्द
27उपदेश रत्न दीपक झूलणाब्रह्मानन्द
28एकादशी महात्मलांगीदास मेहडू
29ओखाहरणलांगीदास मेहडू
30औदार्य बावनीगौरीशंकर गोविन्दजी मेहता
31कृष्ण कुब्जा रसिक बत्तीसी मूलूभाई मेहडू
32श्रीकृष्ण बाल लीला संग्रह नथुराम सुन्दरजी
33कृष्णराम जुगल स्वरूपरो छन्द हम्मीरजी रतनु
34कर्म पच्चीसीशंकरदान देथा
35कर्म बावनीउन्नड़जी जाडेजा
36कविगुन प्रभाकरहरदान जसाभाई
37कवि कुल बोधउदयराम बारहट्‌ठ
38कविप्रिया की टीकाकनक कुशल
39कच्छ गरबावलीदलपतराम
40ककाना कुण्डलियाउन्नड़जी जाडेजा
41कवित अने कुण्डलिया प्रतापहरि जुणाजी
42काव्यकुसुमाकरहम्मीरजी खड़िया
43काव्य कलाधर, कच्छ नी (रसधार)लोक वार्ता, कच्छ भूपति नी कविता जीवराम अजरामर गोर
44काव्य प्रभाकरगोपाल जगदेव भाट
45काव्य चातुरीदलपतराम डाह्याभाई
46काव्य विनोद अथवा वखत विलास लाधाराम विश्राम
47काशी विश्वनाथना छन्दकानदास मेहडू
48कीर्ति वाटिकाशंकरदान जेठीभाई देथा
49कीर्तन, मुक्तावलीजयसिंह ब्रह्मभट
50केशव कल्याणकवि केशव राजगोर
51कोटेश्वर कीर्तनमालामेघराज हम्मीरजी वीठू
52खुश्बू कुमारीउन्नड़जी जाडेजा
53खेंगार उद्वाहनन्द पियूषप्राणजीवन मोरारजी त्रिपाठी
54खेंगार खम्मा बावनीमेघराज हम्मीरजी वीठू
55खेंगार गुन रत्नाकर बावनी कनराज वेराभाई झीबा
56खेंगार यशमालिकादेवीदान खड़िया
57गृहस्थाश्रम धर्म गुन प्रकाश यशकरण अचलदान रतनु
58गायन तरंगगौरीशंकर गोविन्दजी मेहता
59गीत चौबीस जातराहम्मीरजी गिरधर जी रतनु
60गुर-चित उल्लोलहम्मीरजी रतनु
61गोरक्षण विचारहरदान बेचरदान देथा
62गुण बाबीरोलांगीदास मेहडू
63गुण श्री झुलणा ठाकर लखाजी धनराज कलहट्ट
64गुण-पिंगल-प्रकाशहम्मीरजी रतनु
65गुरु महिमामेघराज हम्मीरजी वीठू
66गौड़ पिंगलकुँवर कुशल
67गौड़ रत्नाकरकवि लाल
68घनश्याम जन्म चरित्र प्रकाश जीवणलाल डोसाभाई झीबा
69चहमान सुधाकरनवलदान आशिया
70चाणक्य नीतिगौरीशंकर गोविन्दजी मेहता
71चारण धर्म और जागृतिगौरीशंकर गोविन्दजी मेहता
72चारणी रामायणभोजा गढवी
73छन्द मुक्तावलीजीवणलाल डोसाभाई झीबा
74छन्द रत्नावलीलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
75छन्द विधिगीत चन्द्रिकाभैरवदान खेतजी लालस
76छन्द रत्नावलीनुं भाषान्तरदलपतराम डाह्याभाई
77श्री ज्वालामुखी देवीनी स्तुति शंकरदान जेठीदान देथा
78ज्योतिष जड़ावहम्मीरजी रतनु
79जगतविनोद की टीकाजीवाभाई वीसाभाई शामल
80जदुवंश वंशावलीहम्मीरजी रतनु
81जसवन्त विरह बावनीजीवाभाई शामल 'मस्त कवि'
82जसवन्त सुयश बावनीहरदान देथा
83जसुराम कृत राजनीति की टीका देवीदान नारायणदान शामल
84जाडेजा खेंगाररो छन्दलाधाजी खड़िया
85जाम लाखाजीनी निशाणीहम्मीरजी रतनु
86जालमसिंह वाघेलाना बारहमासा कानदास मेहडू
87जेठाजी विरहगौरीशंकर गोविन्दजी मेहता, भलु बापजी
88श्री जोगमायारो छन्द हम्मीरजी रतनु
89झण्डू विरहनथुराम सुन्दरजी शुक्ल
90तख्त यश संगीत सुमन नथुराम सुन्दरजी शुक्ल
91तत्वात्मा बोधगोपाल जगदेव भाट
92तख्त विरह बावनी नथुराम सुन्दरजी शुक्ल
93तख्त यश त्रिवेणिका नथुराम सुन्दरजी शुक्ल
94दरयाई पीरना छन्द कानदास मेहडू
95दलपत सतसईदलपतराम डाह्याभाई
96दत्त बिरदावलीप्रभुदान रेवादान लांगा
97दातार दीपावलीशंकरदान जेठीभाई देथा
98दादाभाई स्तोत्रजीवराम अजरामर गोर
99दामोदर शतकशंकरदान जेठीभाई देथा
100दीनता शतकशंकरदान जेठीभाई देथा
101देवपुरी प्रबोध प्रकाशिका जैतमाल गोविन्दजी बाटी
102देवा विरह वारिधि जाडेजा प्रतापहरि जुणाजी
103देवा पीर विलासनाथा वरसड़ा
104देवा विलासदेवीदान कायांभाई देथा
105देवानुभव दिवाकर प्रतापहरि जुणाजी
106देवी महिमा बावनी शिवदान डोसाभाई
107देवी मोगलनी स्तुति कवि खेंगार
108देवी सूक्तिशंकरदान जेठीभाई देथा
109देवी स्तुतिरविराज हमलभाई सिंहढायेच
110देशल वचनिकाहम्मीरजी रतनु
111देशोन्नति प्रकाशिका भलुभाई बापजी
112धनेश धर्म बावनी मेघराज हम्मीरजी वीठू
113धर्मवन्द वंश प्रकाशलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
114धर्म सिद्धान्तलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
115धैर्य बावनीमाधव पुरुषोत्तम ब्रह्मभट
116नटवर गुणमाल बावनी रामदान केसरभाई टापरिया
117नर्मदा स्तवनदेवीदान नारायणदान शामल
118नर्बदा लहरीरविराज हमलभाई सिंहढायेच
119नर्बदाष्टकमेघराज हम्मीरजी वीठू
120नर्बदालहरी की टीका जैतमाल गोविंदजी बाटी
121नृसिंहावताररविराज हमलभाई सिंहढायेच
122नृत्य सुधारस मंजरी फकीरचन्द
123नृसिंहावतार की टीका हम्मीरदान लाखाजी मोतीसर
124नलाख्यानजीवाभाई वीसाभाई शामल
125नागदमणबाजीभाई प्रभातसिंह बाटी
126नागदमण की टीका हम्मीरदान लाखाजी मोतीसर
127नरसिंह पुत्ररा मरसिया कानदास मेहडू
128श्री नारायण गीताब्रह्मानन्द
129निर्वाण प्रबोधिनीनवलदान शक्तिदान आशिया
130नीति मर्यादाउन्नड़जी जाडेजा
131नीति रत्नावलीनवलदान आशिया
132नीति प्रकाशलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
133प्रताप प्रतीक्षानथुराम सुन्दरजी
134प्रताप सागरकानदास मेहडू
135प्रवीण सागरमहेरामण जाडेजा (तीन चारण कवि (1 जैसा लांगा, 2 जैन मुनि जीवनदान, 3 दुर्लभ दास वरसड़ा))
136पृथ्वीराज रासो की टीका भोजा गढवी
137पृथ्वीराज विवाहलक्ष्मी कुशल
138प्रभानाथने काव्य कुसुमांजलि शंकरदान जेठीभाई देथा
139प्रभुपदालयप्रतापहरि जुणाजी
140प्रमोद पत्रिकाहम्मीरजी लाखाजी मोतीसर
141प्रेम पंचोतरीजीवराम अजरामर गोर
142पतिव्रता चरित्रावलीधनदास तुलसीदास
143पतित प्रेमदा पोकलमेघराज हम्मीरजी वीठू
144पाण्डव यशेन्दु चन्द्रिका की टीका खेतसिंह दोलाजी मीसण एवं जीवाभाई 'हंसराज' (मेहडू)
145पारसत नाममालाकुँवर कुशल
146पूर्णेन्दु यश प्रकाशमेघराज हम्मीरजी वीठू
147पूरणराम बावनीमेघराज हम्मीरजी वीठू
148पुरुषोत्तम चरित्रदलपतराम
149प्रभु प्रार्थना पच्चीसी शंकरदान जेठीदान देथा
150पूर्णराम जन्म चरित्रमेघराज हम्मीरजी वीठू
151फतेहसिंह विरह बावनी नाथा वरसड़ा
152फतेह सागरकवि केशव
153फारबस विरहदलपतराम डाह्याभाई
154फारबस विलासदलपतराम डाह्याभाई
155ब्रह्म छत्तीसीउन्नड़जी जाडेजा
156ब्रह्म विलासलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
157ब्रह्मानन्द काव्यलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
158ब्रह्मानन्द पुराणहम्मीरजी रतनु
159बालबोधगौरीशंकर गोविन्दजी मेहता
160बालक बोधनवलदान शक्तिदान आशिया
161बिहारी सतसई की टीकामहाराव लखपति
162बुद्धिविलासपंचाणजी रावल
163भगवतप्रसाद विरह दलपतराम
164भगवत गीताकनराज वेराभाई झीबा
165भवान जशाभरणनवलदान आशिया
166भाईजीनो जसलक्ष्मी कुशल
167भागवत दर्पणहम्मीरजी रतनु
168भागवत पिंगलउन्नड़जी जाडेजा
169भागवत पिंगलजीवराम अजरामर गोर
170भागवत गीताउन्नड़जी जाडेजा
171भाव आशिर्वचन काव्य नथुराम सुन्दरजी शुक्ल
172भाव विरह बावनीनथुराम सुन्दरजी शुक्ल
173भाव सुयश वाटिका नथुराम सुन्दरजी शुक्ल
174भीम भाष्करप्रतापहरि जुणाजी
175भुज भूयंग वर्ननकनक कुशल
176भावेशाष्टकप्रभुदास मावाभाई बोक्षा
177मृदंग मोहरामहाराव लखपति
178मंगल साहित्यमतिनैन
179मंगल प्रकाशगुगली पुरुषोतम
180मनहर लग्न महोत्सव नथुराम सुन्दरजी शुक्ल
181महाराव फतेहसिंहना छन्द कानदास मेहडू
182मन बोधक ज्ञान माला जीवाभई मेहडू 'हंसराज'
183मणियश मालिकाजीवराम अजरामर गोर
184महामाना छन्दउन्नड़जी जाडेजा
185मांगलिक गीतावली दलपतराम
186माधवानन्द काव्यामृतहरदान देथा
187महाराणा श्री दौलतसिंह ने स्मरणान्जलि शंकरदान जेठीभाई देथा
188महाराव लखपति दुवावैत कुँवर कुशल
189महाराव श्री तख्त विराज्या तिणरो जस कनक कुशल
190मातानो छंदकुँवर कुशल
191माता खोडियारना छन्दकानदास केसरदान मेहडू
192माता-पिता की भक्तिरविराज सिंहढायेच
193माण सुजस माण अने नजराज जस विधान बावनीपृथ्वीराज खेतदान माहिया
194माणेक रासोभोजा गढवी
195मिलिन्द शतकगोपाल जगदेव भाट
196मेकरण चरित्रमेघराज हम्मीरजी वीठू
197मेघाडम्बरउन्नड़जी जाडेजा
198मेवाड़ केसरी याने हिन्दवो सूर्य गोपाल वीरमजी गढवी
199मोहन महोत्सवमेघराज हम्मीरजी वीठू
200मोहन मालाकनराज वेराभाई झीबा
201मोजदीन मेहताबउदयराम बारहट्‌ठ
202यदुवंश चरित्र अथवा खेंगार सुयश लखधीर खड़िया
203रणजित विरह वेदनामावलजी जीवाभाई मेहडू
204रसिक प्रिया की टीकाकनक कुशल
205श्री रवेची रो छन्दहम्मीरजी रतनु
206रसाल मंजरीगोपाल जगदेव भाट
207राओ देशलजीरा छन्दपंचाण रावल
208राओं लखपतिनी निशाणीकनक कुशल
209राओ देसल-राओ लखपतिअजाजी भीमजी वरसड़ा
210राग मालाकुँवर कुशल
211राग सागरमहाराव लखपति
212राघवलीलादानजी ब्रह्मभट्ट
213राजनीति पच्चीसीशंकरदान जेठीभाई देथा
214राज रत्नाकरहरदान बेचरदान देथा
215राजसूचन छत्रीसीहरदान बेचरदान देथा
216राजरत्न मालिक।प्रतापहरि जुणाजी
217राव लखपतिना मरसिया अमरसिंह बारोट
218राव देशलना मरशिया हलु बारोट
219राव देशल रा गीतपंचाणजी रावल
राव देशल रा झुलणारणवीर सुरताणिया
220राष्ट्रध्वज वन्दन, कच्छ दर्शन, श्री हरि सुयश बावनीशंभुदान अयाची
221रिद्धनाथ रहस्य याने बालापंथ बत्रीसी गोपाल धनराज खड़िया
222रस विलासमहाराव लखपति
223लखपति गुण पिंगल हम्मीरजी रतनु
224लखपति जससिंधुकुँवर कुशल
225लखपति भक्ति विलास महाराव लखपति
226लखपति मंजरी नाम माला कनक कुशल
227लखपति मान मंजरी महाराव लखपति
228लखपति पिंगलहम्मीरजी रतनु
229लखपति पिंगलकुँवर कुशल
230लखपति श्रृंगार महाराव लखपति
231लखति स्वर्ग प्राप्ति समय कुँवर कुशल
232लक्ष्मणना छन्दहम्मीरजी खड़िया
233लीलावा लग्न महोत्सवआईदान पथाभाई शामल
234व्यसन निषथ कनराज वेराभाई झीबा
235वखत विलासरामदान केसरभाई टापरिया
236वर्तमान विवेकलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
237वराह अष्टकगोपाल जगदेव भाट
238वर्तमान विनोदहरदान बेचरदान देथा
239वंश प्रभाहम्मीरजी जाडेजा
240वसन्त बावनीवसन्तराम कृष्णराम शुभज्ञाते
241वानुसतीना छन्दगोपाल धनराज खड़िया
242वेद झरूखोप्रतापहरि जुणाजी
243विवेक बिन्दुप्रतापहरि जुणाजी
244विवाह वर्णनउदयराम राजवीर रोहड़िया
245वार्ता विनोदजीवराम अजरामर गोर
246विग्यानी यन्यजाडेजा कवि हम्मीरजी
247विजय प्रकाश कोष वजमाल मेहडू
248विजैराज मंजरी नाममाला लक्ष्मी कुशल
249विजयादसमीभलुभाई बापजी
250विदुर नीतिजीवराम अजरामर गोर
251विभा विलासवजमाल पर्वतजी मेहडू
252विवेक चिन्तामणीलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
253वीर बत्रीसीजीवराम अजरामर गोर
254वीर भद्र विरह षडऋतु मूलूभाई मेहडू
255वीर विनोद की टीका मावलजी जीवाभाई मेहडू
256वेदान्त विचारलाधाजी खड़िया
257वैराग्योपदेश बावनीखेतदान दोलाजी
258वैराग्य शतकश्यामजी जयसिंह ब्रह्मभट
259विजय प्रकाश कोष की टीका जबरदान मेहडू
260श्रृंगार सरोजनथुराम सुन्दरजी शुक्ल
261श्रीमन्त धर्ममेघराज हम्मीरजी वीठू
262श्रवणाख्यानदलपतराम डाह्याभाई
263शंकर महात्म बावनीकलाभाई दाजीभाई
264शंकर यश मालिकाजीवराम अजरामर गोर
265शंकर माला स्तोत्रशंकरदान जेठीदान देथा
266शब्द विभूषणकेशव हरशूर अयाची
267शालिहोत्र शास्त्र किंवा अश्व परीक्षा नारायणदान बालिया
268शारदा लहरीनवलदान आशिया
269शिव पच्चीसीभीम - खोड़ाभाई सिंहढायेच (पुत्र-पिता)
270शिव विवाहमहाराव लखपति
271शिव स्तवनदेवीदान नारायणदान शामल
272शिव स्तवनकानदास मेहडू
273शिव नाम स्मरण स्तोत्रशंकरदान जेठीदान देथा
274शिहोर का इतिहासनवलदान आशिया
275शिक्षा पत्रीलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
276शोभा सागरकानदास मेहडू
277शौर्य बावनीहम्मीरजी खड़िया
278स्तुति हुलासनवलदान शक्तिदान आशिया
279स्वदेश हुन्नर कला उत्तेजन प्रबोध बावनी जयसिंह ब्रह्मभट
280स्वधर्म निष्ठादर्श बावनीदेवीदान नारायणदान शामल
281सृष्टि सौन्दर्य वाटिकाजीवाभाई विसाभाई शामल 'मस्त कवि'
282स्वरोदय सिद्धान्तनवलदान आशिया
283सती गीतालाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
284समझण बावनीजीवणलाल डोसाभाई झीबा
285सरदार सुयश सिन्धुभगवान रणमल्ल सुरताणिया
286सरस्वत लहरीजयसिंह दयाराम ब्रह्मभट
287सामुद्रिक शास्त्रकवि वीसाजी
288सीता स्वयंवररणछोड़दास रतनु
289सुकाव्य संजीवनीशंकरदान जेठाभाई देथा
290सुजश श्रृंगारलाधाजी खड़िया
291सुदामा चरित्रपंचाणजी रावल
292सुन्दर श्रृंगार की टीका महाराव लखपति
293सुन्दर श्रृंगार की टीका कनक कुशल
294सुबोध चन्द्रिका अनेकार्थी नाममाला फकीरचन्द
295सुबोध बावनीदेवीदान कायांभाई देथा
296सुमति प्रकाशलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
297सुर तरंगिणीमहाराव लखपति
298सूर सुधाकरगौरीशंकर गोविन्दजी मेहता
299सौन्दर्य लहरीवजमाल मेहडू
300सत स्मरणलांगीदास मेहडू
301सम्प्रदाय प्रदीपलाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
302सत प्रशंसामेघराज हम्मीरजी वीठू
303सिद्ध चरित्रमेघराज हम्मीरजी वीठू
304सरदारा छब्बीसीहरदान बेचरदान देथा
305सरस्वती श्रृंगार (पत्रिका)जीवराम अजरामर गोर
306सन्त सुभाषित कुण्डलिया प्रतापहरि जुणाजी
307संगीत तख्त विनोदनथुराम सुन्दरजी शुक्ल
308हरदान प्रबोध प्रकाशहरदान बेचरदान देथा
309हमीर सर बावनीगोपाल जगदेव भाट
310हरिजस नाममालाहम्मीरजी रतनु
311हरिजस पिंगलहम्मीरजी रतनु
312हरिहरनी स्तुतिगजाभाई सामन्तभाई
313हरीजस (सम्पादित)मेघराज हम्मीरजी वीठू
314हरि शंभु स्मरण मालारामदान टापरिया
315हरि लीलामृत का भाषान्तर दलपतराम डाह्याभाई
316हरी भक्ति विलासमहाराव लखपति
317हनुमानना छन्दकानदास मेहडू
318हनुमान स्तुतिशंकरदान जेठीदान देथा
319क्षत्रणीनुं क्षात्रत्व अथवा दाम्पत्य प्रेम सम्पादक: रामदान टापरिया
320क्षत्रीय शौर्य बावनीहम्मीरजी खड़िया
321त्रिभुवन विरह शतकनथुराम सुन्दरजी
322श्री त्रिकमराय जश बावनी तख़्तदान मिशण
323श्रीजी विरह बारहमासा लाडूदान आसिया "ब्रह्मानन्द"
324ज्ञान चातुरीदलपतराम डाह्याभाई
325ज्ञान चन्द्रिकाजीवणलाल डोसाभाई झीबा

NOTE: भुज की पाठशाला के कवियों एवं उनके रचित उपरोक्त ग्रंथों को एक जगह सहेजने, संरक्षित करने एवं उनका सम्पादन करने का गुरुतर कार्य गुजरात के चारण कवि प्रवीण भाई मधुडा (मो.-9723938056) कर रहे हैं। समस्त जानकारी के लिए आप इस लिंक पर क्लिक करें: https://www.charans.org/kachchh-bhuj-pathshala-granth/ यदि आपके पास इस दिशा में कोई भी जानकारी अथवा सामग्री हो तो कृपया इस भागीरथ प्रयास में मदद करें।

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