बिन बेटी सब सून

यह संसार सामाजिक संबंधों का जाल है, जिसमें हर व्यक्ति एक-दूसरे से किसी न किसी रिश्ते से जुड़ा हुआ है। अरस्तु ने तो यहां तक लिखा है कि बिना समाज के रहने वाला व्यक्ति या तो पागल है या फिर पशु है यानी कि व्यक्ति के लिए समाज का होना अत्यावशक है। समाज की एक सशक्त कड़ी है – परिवार। परिवार ही वह आधारशिला है, जहां रिश्तों का ताना-बाना बुना जाता है, रिश्तों की फसलों को सींचने तथा सहेजने-संवारने का काम यहीं से होता है। परिवार रूपी बगिया में खिलने वाला हर पुष्प रिश्तों के मिठास का जल पाकर सुरभित होता है। माता-पिता, भाई-बहिन, दादा-दादी, नाना-नानी, पति-पत्नी और इनसे फिर संतान के परस्पर रिश्तों की झीनी बुनगट वाली परिवार रूपी चद्दर को निर्मल रखने के लिए कितने संतों, भक्तों एवं महापुरुषों ने अपने अनुभूत ज्ञान को हमारे समक्ष रखा है। पारिवारिक रिश्तों में से ही एक सबसे पवित्रतम रिश्ता है बेटी का रिश्ता। पुत्री पवित्रता की प्रतिमूर्ति हुआ करती है। पुत्री परिवार की रौनक, घर की रोशनी, पिता के लाज की पगड़ी, माता के हृदय का हार, भाई के लिए मर्यादा का पाठ होती है। वह अपनी मधुर मुस्कान से पिता की दिनभर की थकान को, मां की अनन्त चिंताओं को तथा दादी-दादी के बुढ़ापे की शिथिलता को एक पल में दूर भगा देती है।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, बेटी सयानी होती है। यद्यपि उम्र के साथ सभी सयाने होते हैं लेकिन लड़कों के बनिस्पत लड़किया शीघ्र एवं अधिक सयानी होती है। पारंपरिक रिवाज के मुताबिक वह अपना जीवनसाथी चुनती है या फिर परिवारजन उसके लिए योग्य जीवनसाथी का चुनाव करते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में बेटी को अपने माता-पिता के उस आंगन को, जिसमें वह बीस साल तक खेली-कूदी, छोड़कर नवीन परिवेश में जाना पड़ता है। नवीन परिवेश में फिर से रिश्तों की फुलवारी सींचने का काम उसे प्राथमिकता से करना होता है। सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि उसे अब अपने ससुराल को प्रथम तथा पीहर को दूसरे स्थान पर रखना होता है। नवीन रिश्तों को प्राथमिक तथा प्रारंभिक जीवन के बीस वर्षों के रिश्तों को सैकण्डरी स्तर पर रखना होता है। सामान्यतः सोचें तो कितनी दुविधाजनक स्थिति है लेकिन हमारी बेटियां युगों से इसे सहजता से संपादित करती आई हैं। अपने त्याग, बलिदान, प्रेम एवं समर्पण के बल पर रिश्तों की सरस सलिला को प्रवाहित करने का चुनौतीपूर्ण कार्य हमारी बेटियों ने बखूबी पूर्ण किया है।
अब हमारे लिए विचारणीय विषय यह है कि समय प्रतिपल परिवर्तनशील है। समय बदलता रहता है। समय के बदलने के साथ सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ बदलता जाता है। ऐसे में सामाजिकों को समय-समय पर अपने कार्यों की, अपनी व्यवस्थाओं की, अपनी मान्यताओं एवं विश्वासों की, अपने उसूलों की, अपनी परंपराओं की तथा अपने संकल्पों की पुनर्व्याख्या कर लेनी चाहिए। आज हम सब सामाजिकों का दायित्व बनता है कि हम अपने परिवार की बेटियों के विषय में जरा संभलकर सोचें। समय कितना ही प्रगतिशीलता का दावा करे, हम कितनी ही विकास और उन्नति की डींग हांकें, मंचों और माइकों से कितनी ही विकासवादी घोषणाएं की जाए लेकिन स्थिति आज भी यही है कि हमारी चाहत पुत्र-रत्न की ही होती है। हां इतना जरूर बदला है कि पुत्रियों के जन्म को अशुभ और कलंक मानने की प्रथा काफी कुछ कमजोर पड़ी है। इसके आगे आज भी बेटे-बेटी में फर्क रखना सामान्य आदत सी बन गई है। हां कुछ परिवारों में माता-पिता लगातार ऐसा दिखाने की कोशिश करते हैं कि हम बेटियों को ज्यादा तवज्जो देते हैं लेकिन वहां भी सच्चाई कमजोर दिखती है। आज तक जब किसी ने यह बताने का प्रयास नहीं किया कि मैं अपने बेटे को ज्यादा तवज्जो देता हूं तो फिर यह बताने की क्या जरूरत है कि बेटियों को ज्यादा तवज्जो देते हैं। सच्चाई यह है कि मानसिकता न तो एक दिन मे बनती है और ना ही एक दिन में बदलती या मिटती है। उसे बनने में भी लंबा समय लगता है तो बदलने में भी।
आज समय आ गया है जब हमें बेटियों के प्रति हमारी मानसिकता को बदलना होगा। इस बदलाव के आधार भी बहुमुखी होंगे तो प्रयास भी बहुमुखी चाहिए लेकिन इन सबसे सशक्त और प्राथमिक आधार है बेटियों की शिक्षा। शिक्षा ही वह सशक्त औजार है, जिससे हमारी बेटियां अपनी तकदीर को अपनी चाहत, अपनी योग्यता एवं अपने हुनर के बल पर गढ़ सकतीं हैं। आज कन्याभ्रूण हत्या के खिलाफ सख्त कानून होने के साथ ही अनेक समाजसेवी संस्थाएं भी इस काम मे लगी हैं, जिनके प्रयास रंग ला रहे हैं। लोगों की मानसिकता ने संकीर्णता का परित्याग करना शुरु किया है। लेकिन यहां भी मेरा साफ मानना है कि इस मानसिकता के बदलाव में भी कानून तथा समाजसेवी संस्थाओं के प्रयास से अधिक यदि कोई कारण रहा है तो वह है हमारी बेटियों की शिक्षा एवं शिक्षा के आधार पर प्राप्त की हुई सफलता। प्रशासन, पुलिस, खेल, व्यापार, राजनीति, समाज, अर्थ, प्रबंधन, शिक्षा, चिकित्सा, पुलिस और अब सेना तथा नौसेना तक में काबिलियतधारी बेटियों की विशिष्ट कामयाबियों ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया कि आखिर बेटियां अशुभ कैसे हो सकती हैं?
आज देश-समाज के हर तबके में शिक्षित महिलाओं को प्राथमिकता मिलने लगी है। आज हर व्यक्ति अपनी बेटियों को पढ़ाना चाहता है लेकिन बात वहीं आकर अटक जाती है कि आर्थिक संसाधनों के चलते या सुरक्षा के कारणों से या अन्यान्य किन्हीं कारणों से जब बेटे या बेटी में से एक का चयन करना हो तो बेटा ही प्रथम रहता है, बेटियों को पराए घर का धन मानकर बीच राह रोक दिया जाता है। यहां सामाजिक संस्थाएं अपना दायित्व निभा सकती है। बीच राह में रुकने को मजबूर बेटी का सहारा ये संस्थाएं हो सकती हैं। परन्तु इसके लिए बहुत बड़े समर्पण एवं दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। संस्थाएं उन बेटियों की शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति या अन्य सुविधाओं की व्यवस्था करे तो अभिभावक अवश्य ही बेटियों को पढ़ाएंगे। इसका अनुमान हम यहां से लगा सकते हैं कि जब सभी अभिभावक अपनी बेटियों को प्राथमिक तथा सैकण्डरी तक पढाई कराने में तत्पर रहते हैं वे सीनियर सैकण्डरी तथा उच्चशिक्षा में पीछे क्यों हटेंगे। कारण साफ है कि आर्थिक संसाधन उन्हें रुकने को मजबूर करते हैं।
जागरुक नागरिकों तथा सक्षम सामाजिकों का दायित्व है कि ईमानदारी से वास्तविक जरूरतमंद लोगों की पहचान करें। उन परिवारों की बेटियों को पढ़ने हेतु प्रेरित करें। परिवारजनों को बेटियों की पढ़ाई, उनकी सुरक्षा एवं संसाधन उपलब्ध करवाने हेतु आश्वस्त करें। सक्षम लोगों को आगे आकर समाज की इन बेटियों की पढ़ाई का काम हाथ में लेना चाहिए। “एके साधे सब सधे” की तर्ज पर एक बालिका-शिक्षा को यदि समाजसेवी संस्थाएं अपना लक्ष्य बना ले तो समाज का विकास तीव्र गति से होना निश्चित है। बालिका पीहर तथा ससुराल दो कुलों को एक साथ तारने वाली होती है। उसकी शिक्षा दो परिवारों और फिर उन परिवारों से जुड़ने वाले असंख्य परिवारों को प्रेरित करने की ताकत रखती है। आइए! बेटियों की पढ़ाई का पुख्ता प्रबंध करें। उनकी सुरक्षा को सूनिश्चित करें। अभिभावकों के मन में बैठे डर को दूर भगाते हुए उन्हें अपनी बेटियों पर नाज करना सिखाएं। अन्त में मेरी एक कविता की चंद पंक्तियों के माध्यम से शेष रही बात को पूर्ण करते हुए इस आलेख को सम्पन्न करते हैं-
बेटी सूं बढ़कर इण जग में, कोई हित सोचणियो कोनी।
मायड़ सिवा कुमारग जातां, कान पकड़ रोकणियो कोनी।
पत्नी बिना पतो कद थारो, इज्जत करणी सीखो आंरी।
टकै-टकै मत बेच बावळा, आ जिंदगाणी लाख टकां री।।
~~डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”