बिरहण धण रो ओळभौ
कंथा कंथा पेर ने, बण जातौ थूं संत।
तौ नी पंथ उडीकती, साची बात कहंत॥1
पण थूं चाल्यौ चाकरी, पकडी वाट विदेश।
इणसूं थने उडीकती, रहती राज हमेश॥2
दिन उगियां पूछुं पथिक, रोज उडाडूं काग।
तौ पण थूं आवै नहीं, फूटा मारा भाग॥3
नित नित भेजूं ओळभा, बादळ संग विदेश।
तौ पण थुं आवै नहीं, नहीं सुधि लवलेश॥4
दुर वसे दरसण नहीं, थारा दिलबर देव।
मारै मन री वेदना, किण ने कहणी केव?॥5
इण आशा सासां चलै, आवौला अलबेल।
जौ जाणत आवौ नहीं, (तौ)मरती (थां)जातां प्हैल॥6
जावौ तो आवौ अवस, आवौ तौ मत जाव।
रहौ नैण अर चित्तमें, अंतस रा उमराव॥7
~~नरपत आवडदान आसिया “वैतालिक”