बोधिसत्व री मैत्रीभावना

डाॅ हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पढ़तां वांरै अेक आलेख में “बोधिसत्व री मैत्रीभावना” रो अनूठो दाखलो देख उणरो मायड़भाषा में अनुवाद करण रो मन बण्यो। आप सब गुणवान सुधीमित्रां रै अवलोकन सारू प्रस्तुत करूं-
।।मूळपाठ।।
ये सत्त्वक्षुत्तर्षपिपासपीडिता लभन्तु ते भोजनपान-चित्रम्।
अन्धाश्च पश्यन्तु विचित्ररूपान् वधिराश्च शृण्वन्तु मनोज्ञघोषान्।
नग्नाश्च वस्त्राणि लभन्तु चित्रां दरिद्रसत्त्वाश्च निधिं लभन्तु।
प्रभूतधनधान्यविचित्ररत्नैः सर्वे च सत्वाः सुखिनो भवन्तु।
मा कस्यचिद् भवतु दुःखवेदना सौख्यान्विताः सत्त्व भवन्तु सर्वे।
विवर्जयन्तू खलु पापकर्म चरन्तु कुशलानि शुभक्रियाणि।।
।।मायड़भाषा राजस्थानी में उथळो।।
भूखा खाली पेट पकड़ियां,
है सोवण हित मजबूर जका।
तिस मरता पाणी बिन रोवैै,
तड़पैै है बिना कसूर जका।
धीरज छूटण सूं पैली ही,
कछु हाय! इसी जे बण पावै।
प्यासोड़ा ठंडो जळ पीवै,
भूखोड़ा भोजन पा जावै।
रूपाळी आभा निरख सकै,
बै आंख्यां आंधोड़ा पावै।
बोळां रै कानां बंसी री,
धुन सुण रीझण रो गुण आवै।
अै जका उघाड़ा डोल रैया,
लीरां में लाज बचाता सा।
डोलै दाळद में डूब्योड़ा,
(जो) हीण दुखी सरमाता सा।
वा लाज ओपतै गाभां में,
शुभ सुगन मना कर हरसावै।
दाळद रा दरड़ा बूरण हित,
इक खास खतौनी करवावै।
हो दूध दही रा थाटबाट,
खेतां में निपजै धान घणो।
खाणां रतनां री खुल जावै,
मिल पावै सबनैं मान घणो।
दुनियां में दुख री लाय झुलस,
कोई पण विकळ नहीं होवै।
संताप त्रस्त हो त्राहिमाम रो,
शोर जगत में नीं होवै।
कोई पण पाप करै नांहीं,
ऊंधै मग भूल न डग मेलै।
सुख शील धरम अर पुन्न बधै,
कोई दुख-सांसो नीं झेलै।
हिय हरख हिलोरां उमड़ पड़ै,
उर अडिग रहे आपाण परम।
सगळां रै आणंद व्है अणहद,
सगळां रो व्है कल्याण परम ।।
आपां सब नैं ओ जाणणो जरूरी है कै सुख री सीमावां खुदोखुद ताणी ई सिमटेड़ी नीं है। जद ताणी आसंग पासंग अर आखै संसार रा सब प्राणी सुखी नीं हो जावै, तद ताणी सुख कैड़ो! इण महान अर मंगळ संकळप री अबार री टेम मोटी जरूरत है। आओ विचार करां।
~~ डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”