बोलत नाह ऊचारत फूं फूं – कविराजा बांकीदास आसिया

यह काव्य महलों में एक महारानी जी से सम्बन्धित है। एक राणी जी अपनै पति के दर्शन करके ही दंत मंजन करती थी। उन्होंने हमेशा की तरह अपने पति के जागने का इतजार करते हुए अपनी नज़रों को पति के मुख पर केन्द्रित करते हुए दासी से दंत मंजन का कटोरा मांगा। उस दिन दासी नयी थी सो उसने भूलवश चूने से भरा कटोरा आगे कर दिया। राणी जी ने चूना लेकर मुह में बिना देखे डाल दिया जिससे मुह में अत्यधिक जलन होने लगी जिस कारण वो बार-बार मुह में पानी डाल कर गरारे करने लगी। जब यह यह द्रश्य राजा साहब ने देखा तब उन्होंने एक काव्य की पंक्ति बोली। “बोलत नाह ऊचारत फूं फूं।” इस काव्य को कवि बांकीदास ने बनाया था। और राजा मानसिंह ने इसका उच्चारण किया था।
अली स्वैत कटोर धर्यो लै अटा पर, चैरी पठावत गाफल गोफू।
नवनीत भरोस ऊठाय लियो, अली भोर दियो दिलवा कर टोफू।
ले लचको मुख मांह लियो, फुनियां अधरांण कपोल कै कोफू।
बैर ही बैर महा मुख धोवत, बोलत नाह ऊचारत फूं फूं।
चुगल खोरों नै झूठ मूठ करके राजा द्वारा कवि को देश निकाला दिलवाया। लेकिन राजा गुणग्राही थे। उन्होने दुबारा परीक्षा लेनै के लिए यह पंक्ती कही, “गवर हँसी मुख यूँ कररै ।” कोइ भी सभा में इस काव्य को पूर्ण नही कर सका तो बांकीदास को वापिस बुलाया तब उन्होने यह काव्य पूर्ण किया।
भष्मीज चढावत शंकर कै, अही लोचण बूंद पड़ी झररै।
ताकी फूंकार शशी को लगी, तब अम्रत बूंद पड़ी धररै।
ताक तछा वनराव उठा, गणणाय दिया जब मन्दर रै।
तब ही शुरभी सुत भाग चलै, जब गवर हँसी मुख यूँ कररै।
एक दिन भगवान शिव अपने शरीर पर भस्मी चढा रहे थे तो भूल से भस्मी गले में जो नाग था उसकी आँखों में गिर गयी तो उसने अपने फन से फुफकार किया तो उसका झटका सिर पर बैठे चन्द्रमा के लगा तो चन्द्र में अमृत होता है जिसकी बूंद शिव की बाघम्बर खाल पर पड़ी तो शेर जीवित हो गया और दहाड़ से स्थान को गुंजा दिया। यह वारदात अचानक हुई तो शेर को देख कर नंदी भाग खड़ा हुवा। भगवान एकदम झिझक गये तो पास में विराजमान मां गौरी को हंसी आ गयी तो स्त्री को पति के सामने नही हँसना चाहिये इसलिए विपरीत मुह करके हँसनै लगी।
~~प्रेषित: कवि भंवरदान जी “मधुकर” माडवा