श्री चाळकनेची रे रास रमण रा छप्पय – कवि कृपाराम जी खिडीया

कवि कृपाराम जी खिडीया गांव लिछमण पुरा जिला सीकर रा कहियोडा श्रीचाळकनेची/चाळराय रे रास रमण रे भाव रा छप्पय।

।।छंद आर्या।।
मद मदिरा रस मत्ती, अत्ती आपाण अंक अहरती।
करत विलास सकत्ती, चाळराय मंढ चाळकना।।1।।

।।छप्पय।।
बन समाज अति विपुल, सदा रितुराज छ रित सुख।
लता गुल्म तरु तरल, माल मिलि मुखर सिलीमुख।
सुरभि धनष गव शशक, सूर चीता पंचाणण।
एण विविध मृग रवण, भवण भावण भिल्ली गण।
निश्वास निकुर निर्दलणियत, तै आधौ फर बेत तळ।
चाळ्ळकराय अदभूत रमै, थटि नाटक मनरंगथळ।।1।।

कमळ अमल अलि कनिल, अगर कुंकभ सु श्रवंते।
गंध सार मृगसार, अगर घणसार अनंतै।
केतकी केवडा कुंद, कंज कमनीय कुसुमाकर।
तत्र तापहर तिमिर, छत्र महि ताप छिपाकर।
आवत सुगंध मकरंद यळ, फटिक बंध उज्जवळ फरस।
जरदोज आस भण खाये जहि, रमण रास अंबा सरस।।2।।

चक्रधरण धर चाप, आप धाता फरसाधर।
संक्रंदन वर मिहिर, सोम कुल नव काकोदर।
विधाधर गंधर्व सिध्ध, चारण किन्नर सह।
जखि अच्छर रिखिराज, वीर खेळा बावन्नह।
नव नाथ अंस धारी निखिल, भैरवादि कोटिक भमर।
तैतीस कोटि प्रमदा सहित, आनंदित आये अमर।।3।।

सुरज विपंचिक उगरु, तुरज भेरी दर तूरण।
सुर दुंदुभी शहनाई, पणव गो मुख पर पूरण।
श्रीमंडळ सहतार, शंख झालर झणणाटा।
घणणाटा घुघरा, ठणिक तालिन ठणणाटा।
संभूत धरत त्वजदार सह, आसिह सत पद जुजवा।
षट तीस भेद वाजित करषि, हरषि देव हाजर हुवा।।4।।

मंजनादि षोडश मनोज्ञ, शृंगार सु सज्जिय।
काय पलट परमा प्रकाश, अदभूत उपज्जिय।
रूक तार सुकुमार, हार माणिक मोताहळ।
रचि दूकूल नवरंग, परम गैतूल परम्मळ।
कर चरण लंक भूषण करण, धूनल ध्राण समध्धरै।
कौतिक सुतंत्र क्रीडा करण, आदि शकत्ती उतरै।।5।।

लांगा बावन लार, झुळ चौसठ उर झल्लिय।
हड हड हड हंसि होड, खखड खेतल खिल खिल्लिय।
भणणणणण रव भेरि, तंत्रीनद तणणणणणण।
घुघर घुरि घणणणणण, झांझ स्वर झणणणणणण।
मन मगन त्रदस अतिमिष मुदित, आणंद उदधि उलट्टियो।
अदभूत खेल नाटक अमल, थळ मनरंग सिर थट्टियो।।6।।

धम धम धम धम धरणि, धरणिधर धाम धमक्किय।
भमेक्किय त्रिहु भुवण, विधू नभ गवण विभक्किय।
वळि अंगद त्राटंक, हार मंजीर मनोहर।
भळळळळळळळ भळकि, अंग आभुषण अंबर।
बंधाण राग पैं गति विविध, मधि मृदंग धुनि माधुरि।
अदभूत विलास आदौफरै, रचत रास नाटेश्वरी।।7।।

धुधुकट धुधुकट ध्रकिट, ध्रकिट धुनि ध्रकिट ध्रकिट धप।
थागड गडदा थागड गडदा थेई थेई थेई थप।
लगत दाट चल बलथ, बक्र उरुप तिरप अति।
स्वर पयार ठेका सुचंग, ग्यारह संगीत गति।
मूरछना ताल स्वर ग्राम मिळ, धाम तान बंधू धरत।
सुरगण विलोकि नाटिक सुसम, कुसुम थाट बरषा करत।।8।।

उलट पलट फरगट अछेह, प्यंड लपट झपट पट।
उरज उचक कटि लचक, अंध्रि तल मचक अवनि तट।
ग्रीव हलत चख संग, अंग रस रंग उपट्टत।
छड छड छड ध्रुव छछड, थ्रंग थ्रंग ध्वनि थट्टत।
आह्लाद मगन हुय गण अमर, बप अप संज्ञा बिसरी।
चतुरासि हरषि हरि हर हॅसत, रचत रास लखि ईश्वरी।।9।।

भंजणि शुंभ निशुंभ, चंड मुंड खंडणि चंडिह।
रक्तबीज निरदलणि, महिख भख करणि उपंडिय।
बडां बडी वदि वाक, डाक आडंबर डोलत।
जय जय जय जय जयति, वृंद वृंदारक बोलत।
अंबिका आदि भूता अखिल, कादि कीक लग कारणी।
नंह पडै सूझ आगम निगम, तुझ चरित भव तारणी।।10।।

विधि स्वरूप जग विविध, रचत तुंही ज सुरराया।
विष्णु रुप तुं बणै, मंड पाळत मंहमाया।
तुं कर धरै त्रशूळ, रुद्र रुपां संहारत।
तुं उत्पति तुं सथित, तुंही ज लह अवरन कोतत।
सच्चिदानंद रुपां शकति, तुं अनेक गति विस्तरी।
जगदंबि एक तुंही जननि, संतति बाळा सुंदरी।।11

तरणि जळज रचि रुचिर, भजत अज सरचि अरज भव।
सरब काळ इच्छित सहस्र, मस्तक धर माधव।
गंग धरण कृत संग, परम भसमंग विलेपन।
खं जळ महि हरि सिखि, ततै बरतत त्रिगुणा तन।
अव्यय अनंत अनवध इक, अग जग व्यापक सरव मय।
कह कृपाराम कारण करण, जय जय जय जगदंबि जय।।12।।

~~कवि कृपाराम जी खिडीया (लक्ष्मणपुरा जिला सीकर)

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