चारण साहित्य का इतिहास – दूसरा अध्याय – चारण साहित्य की पृष्ठभूमि
चारण साहित्य की पृष्ठभूमि
(सन् ६५०-११५० ई.)
किसी देश या जाति की संस्कृति उसके साहित्य में जिस सहज सौन्दर्य के साथ अभिव्यक्त होती है, उतनी और किसी क्षेत्र में नहीं। सृष्टि के इतिहास में शताब्दियों तक इस पुण्य भूमि भारत और हिन्दू जाति की सांस्कृतिक स्वर-लहरी विशाल समुद्रों तथा उत्तुंग पर्वत श्रेणियों को चीर कर, समस्त विश्व में प्रतिध्वनित होती रही। वैदिक, रामायण-महाभारत, जैन-बौद्ध, पुराण एवं गुप्त काल के साहित्य में भारतीय संस्कृति की इतनी मनोहर अभिव्यक्ति हुई है कि यहां की प्रत्येक प्रांतीय भाषा तथा साहित्य पर उसका अक्षुण्ण प्रभाव परिलक्षित होता है। राजस्थान का चारण-साहित्य भी इसका अपवाद नहीं।
(१) संस्कृत कवि एवं उनकी कृतियां:
१. यायावरोपनिषद्:- भारतीय साहित्य की पयस्विनी दर्शन और धर्म के दो रम्य कुलों के बीच से होकर अनन्तकाल से दग्ध वसुन्धरा का सिंचन करती आई है। आर्य जाति की दार्शनिक विचारधारा ने जैसे जन-मन को पवित्र किया है, वैसे ही साहित्य को भी पूर्ण रूप से अनुरंजित किया है। इस दृष्टि से संस्कृत भाषा के कवियों की अद्वितीय रचनायें चिरस्थायी थाती हैं। वैदिक युग में ब्राह्मण धर्म ने अपनी अद्भुत मंगल ज्योति से विश्वधर्म के प्रांगण को पवित्र एवं प्रशस्त किया है। भारत की शायद ही कोई ऐसी हिन्दू जाति होगी, जिस पर इसका प्रभाव न पड़ा हो। ऋग्वेद से लेकर जैन रचनाओं तक का साहित्य चाहे जातीय अथवा साम्प्रदायिक दृष्टि से ही क्यों न देखा जाय, गम्भीर तत्व की आलोचना तथा नीति और धर्म की शिक्षा देने के लिए, भारतीय साहित्य का अखूट खजाना है। चारण-साहित्य का पुण्य मंगलाचरण देववाणी संस्कृत से ही होता है। इस दृष्टि से ‘यायावरोपनिषद्’ उल्लेखनीय है? किन्तु इसके रचयिता अज्ञात हैं। डाँ. हजारी प्रसाद द्विवेदी से पत्र व्यवहार करने पर भी इस दिशा में कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया। जो हो, मार्मिक दृष्टि से यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना है। इसमें आश्रम धर्म की महत्ता प्रतिपादित की गई है। आश्रमोपनिषद् में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और परिव्राजक ये चार भेद किये गये हैं। गृहस्थ के चार भेद ये हैं- वार्ताक वृत्ति वाले वे गृहस्थ जो अगर्हित कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य करते हैं (वैश्य), शालीन वृत्ति वाले यज्ञ एवं अध्ययन करते हैं, परन्तु कराते नहीं (क्षत्रिय), यायावर लोग यज्ञ एवं अध्ययन करते हैं और कराते है (ब्राह्मण), घोर सन्यासिक लोग वे है जो अपने हाथ से लाये हुए शुद्ध जल से कार्य करते हैं और प्रतिदिन उंछ वृत्ति से निर्वाह करते हैं (ब्राह्मणों का एक भेद), यायावरों के प्रधान धर्म ब्राह्मणों से मिलते जुलते हैं। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति आदि धर्म-शास्त्रों में ब्राह्मण ही इस कर्म का ठेकेदार माना गया है। इस प्रकार ब्राह्मणों की ‘यायावरी’ संज्ञा शास्त्रानुमोदित है। श्री मद्भागवत में ब्राह्मणों की चार वृत्तियों में से एक यायावरी वृत्ति भी मानी गई है।
‘यायावर’ शब्द की व्याख्या करने से पता चलेगा कि चारण भी एक प्रकार के यायावरी (सन्यासी) हैं। श्रीमद्भागवत् की टीका में श्रीधर ने लिखा है- ”यायावर शब्द प्रतिदिन अन्न की याचना करने का सूचक है।” विजयध्वजतीर्थ का कथन है- ”यायावर एक प्रकार का भिक्षाचरण है, अर्थात् संचय न करना और एक दिन में व्रीहि आदि जो अन्न मिले, उसको उसी दिन काम में लाना सूचित करता है।” वीर राघवाचार्य का मत है- ”यायावर शब्द प्रवासी का सूचक है और उसके कर्म को ‘यायावर्यम्’ कहते हैं, जो प्रवास आदि से याचना-पूर्वक संग्रह करना बतलाता है। पीछे से उस वृत्ति को छोड्कर अन्य वृत्ति धारण करने पर भी अनेक कुटुम्बों की प्राचीन वृत्ति का सूचक ‘यायावर’ नाम रह गया।” यायावर शब्द का अर्थ ‘यज्ञ की अग्नि के रक्षक’ से भी लिया गया है। नारायण दीक्षित ने ‘विद्धशालभंजिका’ की टीका में देवल का वचन उद्धृत कर बताया है कि ‘यायावर’ का अर्थ ‘एक प्रकार का गृहस्थ’ है। गृहस्थ दो प्रकार के होते हैं- यायावर और शालीन, परन्तु यायावर एक कुटुम्ब का नाम है।
जैसा कि नाम से प्रकट होता है ‘या-या-वर’ शब्द का मूल अर्थ जा-जाकर याचना करने से है। उपर्युक्त विद्वानों ने इसका सम्बन्ध ब्राह्मण जाति से ही जोड़ कर भूल की है। यह उस समय की बात होगी जब चारण जाति का धर्म-कर्म निश्चित नहीं हो पाया था और इसकी गणना ब्राह्मण वर्ण में ही की जाती थी। ऐसा मानना कदाचित निराधार न होगा, क्योंकि चारणों ने समय २ पर जाति एवं धर्म परिवर्तन किया है, जिनमें ब्राह्मण, जैन तथा क्षत्रिय मुख्य हैं। चारण जाति को पृथक मान्यता मिलने पर यायावरी वृत्ति के मूल रूप में परिवर्तन अवश्य हुआ होगा, क्योंकि चारण एक मात्र क्षत्रिय जाति का याचक रह गया था। वस्तुत: चारण से तात्पर्य एक ऐसे कुटुम्ब अथवा गृहस्थ से है जो क्षत्रिय बच्चे से ही याचना करता है, ब्राह्मणों के सदृश अन्य जातियों से नहीं। इस दृष्टि से ब्राह्मण एवं चारण दोनों ही यायावरी हैं। हां, ब्राह्मणों की यह वृत्ति जितनी विस्तृत है, चारणों की उतनी ही सीमित। एक के द्वारा लोक धर्म और दूसरी के द्वारा राज धर्म की सृष्टि हुई है। संदेह नहीं कि ब्राह्मणों की यह वृत्ति चारणों से प्राचीन है। धर्म की दृष्टि से चारणों को ‘यायावरी’ कहना अधिक युक्तिसंगत है, क्योंकि भाट, रावल, मोतीसर आदि याचक जातियां जब उनके द्वार पर आकर कीर्ति-गान करती हैं, तब उन्हें यवरी का केड़ (वंश) कह कर पुकारती हैं, जिसका अर्थ है- यवरी की संतान। यवरी उनकी प्राचीन कुलदेवी है। कोई आश्चर्य नहीं, चारण यायावर कुल में इसीलिए माने गए हों। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि ब्राह्मण ही नहीं चारण भी यायावरी हैं।
२. पिंगलाचार्य:- स्मृति-काल में ऐसे अनेक ग्रंथों की रचना हुई, जिनसे वेद के अर्थ तथा विषय को समझने में पर्याप्त सहायता मिलती है। एतदर्थ, इन्हें वेद का अंग (वेदांग) कहा गया है जिनकी संख्या छ: है- शिक्षा, काव्य, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष। इनमें व्याकरण वेद का मुख, ज्योतिष नेत्र, निरुक्त श्रोत्र, कल्प हाथ, शिक्षा नासिका एवं छंद दोनो पाद हैं। वस्तुत: छंद का ज्ञान प्राप्त किये बिना वेद-मंत्रों का ठीक-ठीक उच्चारण नहीं हो सकता। मंत्र छंदोबद्ध है अत: छंद का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। शौनक विरचित ऋक् प्रातिशाख्य के अंत में छंदों का पर्याप्त विवेचन है, किन्तु पिंगल वेदांग का एक ऐसा स्वतंत्र ग्रंथ है जिसमें वैदिक तथा लौकिक दोनों प्रकार के छंदों का वर्णन किया गया है। नवीन लौकिक छंदों के नाम अपूर्व ढंग से दिये गये हैं। अधिकांश छंदों के नाम सुंदरियों के नाम पर हैं। कुछ नाम छंदों की स्वत: प्रवृत्ति, गति एवं लय पर दिये गये हैं। इनके अतिरिक्त पुष्प तथा पौधों और पशु-पक्षियों के शब्द तथा उनके आचरण पर भी नाम देकर छंदों की उपयुक्तता प्रमाणित की गई है। गुजराती के यशस्वी लेखक श्रद्धेय श्री जवेरचन्द मेघाणी ने इस ‘पिंगल’ छंद-शास्त्र के प्रवर्तक पिंगलाचार्य को चारण बताया है। चारण जाति में भी यही जनश्रुति चली आ रही है, किन्तु खेद है कि इस संबंध में हमें कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। डॉ. याकोवी की सम्मति में छंदों का निर्माण ई. सन् से पूर्व ही हो चुका था। अत: पिंगलाचार्य का चारण होना परम संदिग्ध है, क्योंकि उस समय भारत में कोई जातिभेद नहीं था।
३. पुष्यदन्त:- संस्कृत का ‘स्तोत्र-साहित्य’ बड़ा ही विशद, सरस एवं हृदयस्पर्शी है। अपने हृदय की सुकुमार भावनाओं को व्यक्त करने तथा ईश्वर से माहात्म्य का वर्णन करने में संस्कृत कवियों ने कमाल कर दिया है। पुष्यदंत विरचित ‘शिवमहिम्न’ स्तोत्र-साहित्य में विशिष्ट स्थान रखता है। इसमें महादेव भगवान की स्तुति में ४० श्लोक लिखे गये हैं। यह स्तोत्र सुंदर शिखरिणी वृत्तों में लिखा गया है और निःसंदेह बड़ा ही भावपूर्ण है। इसके अनेक पद्य दार्शनिक भावों से ओतप्रोत हैं। साहित्यिक दृष्टि से इसका अध्ययन अत्यन्त मनोरंजक है किन्तु दुर्भाग्य से कवि की जीवनी अभी तक अंधकारमय है। चारणों का कथन है कि पुष्यदंत उनकी जाति का था और इसकी पुष्टि श्री मेघाणी ने भी की है। प्रमाणाभाव से इसका निर्णय करना एक नितांत दुरूह कार्य है। कवि ने एक स्थान पर अपना आत्मपरिचय अवश्य दिया है किन्तु उसका चारण होना सिद्ध नहीं होता। मेरी तुच्छ सम्मति में ये चारण नहीं, काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण है। कुछ लोग तो इन्हें तथा अपभ्रंश के एक अन्य कवि पुष्पदंत को अभिन्न भी मानते हैं।
४. राजशेखर:- संस्कृत चारण साहित्य का सूत्रपात सुप्रसिद्ध कवि राजशेखर की ‘काव्य-मीमांसा’ से होता है। कवि की जाति को लेकर विद्वानों ने अनेक प्रकार की कल्पनाएँ कीं। माधवाचार्य ने ‘शंकर विजय’ में और फिर सदाशिव ब्रह्मेन्द्र ने ‘जगद्गुरु रत्नमाला स्तव’ में कवि राजशेखर को इस नाम का एक राजा बताया। त्रावणकोर के पण्डित वी. श्रीनिवास शास्त्री ने इन्हें चारणेतर माना है। डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा से पूर्व पंडित दुर्गाप्रसाद (सम्पादक-‘काव्यमाला’, १८८७ ई.), नार्वे के प्रसिद्ध पुरात्तत्ववेत्ता स्टीनकानो (सम्पादक-‘हार्वर्ड ओरिएण्टल सिरीज’, १९०१ ई.) एवं श्री सी. डी. दलाल, एम. ए. (सम्पादक-‘गायकवाड़ ओरिएण्टल सिरीज’, १९१६ ई.) ने अपने-अपने सम्पादित ग्रंथों की भूमिकाओं में इस समस्या पर प्रकाश डाला। पं. दुर्गाप्रसाद सतर्कता से आगे बढ़ते हुए भी अंत तक किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाये। उनका कहना है कि कवि अपने ग्रंथों में ‘उपाध्याय’ ‘गुरु’ आदि शब्दों से परिचय देता है, जिससे उसका ब्राह्मणत्व स्पष्ट झलकता है। साथ ही राजशेखर की गेहिनी (स्त्री) चाहमान (चौहान) कुल की थी। यह कुल एक प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश है जिसमें हमीर, पृथ्वीराज आदि राजा हुए हैं। उस कुल की कन्या इस युग में ब्राह्मण की स्त्री कैसे हो सकती है? अतएव ‘राजशेखर क्षत्रिय था’, ऐसा मानना भी विशेष अनुचित प्रतीत नहीं होता। मि. स्टीनकानो ने ‘बालरामायण’ और ‘विद्धशालभंजिका’ के आधार पर उसे यायावर कुल का होना लिखा है, क्योंकि वह भवभूति का अवतार था, क्षत्रिय का उपाध्याय या गुरु होना उचित नहीं। इन दोनों विद्वानों की अपेक्षा श्री दलाल के तर्क में वजन है। वे जोर देकर लिखते हैं- ”हमें यह ज्ञात हुआ है कि राजशेखर यायावर कुल का था, परंतु यह निश्चित नहीं है कि वह ब्राह्मण था या क्षत्रिय। यदि राजा महेन्द्रपाल का उपाध्याय होना उसके ब्राह्मण होने का समर्थन करता है तो उसका राजशेखर नाम तथा उसकी स्त्री का चौहान वंश में उत्पन्न होना, ये उसको क्षत्रिय मानने की ओर प्रवृत्त कराते हैं।” इन विद्वानों के संकेतों पर आगे बढ़ते हुए ओझा ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कवि राजशेखर कहीं का राजा नहीं, किन्तु महोदय (कन्नौज) के प्रतिहार सम्राट् महेन्द्रपाल का गुरु (उपाध्याय) और यायावर कुल का ब्राह्मण ही था।
किसी कवि के जीवन-चरित को जानने के लिए उसके काव्य में आया हुआ संकेत ही प्रामाणिक है। ‘बालरामायण’ (१.६.१३) एवं ‘विद्धशालभंजिका’ (१.५) में राजशेखर अपने को यायावर कुल में उत्पन्न मानता है तथा सम्राट महेन्द्रपाल का उपाध्याय (गुरु) होने का परिचय देता है। ‘बालरामायण’ में वह लिखता है- ”जिस यायावर कुल में अकाल,जलद, सुरानन्द, तरल और कविराज आदि विद्वान हुए उसी कुल में यह महाभाग (राजसेखर) उत्पन्न हुआ है।” यदि गंभीरता से विचार किया जाय तो पता लगेगा कि राजशेखर न तो ब्राह्मण था और न क्षत्रिय ही। वह यायावरी था, यह निश्चित है। शायद यह देखकर भगवतीप्रसाद सिंह बीसेन एवं श्री जवेरचंद मेघाणी ने इन्हें चारण माना है। संस्कृत साहित्य के इतिहासज्ञों का यह कहना कि राजशेखर महाराष्ट्र की ‘यायावर’ नामक क्षत्रिय जाति में उत्पन्न हुआ था, भ्रांतिपूर्ण है, क्योंकि प्राचीन काल में क्षत्रियों को शिक्षा देने की अनुमति नहीं थी। चारण जाति मूल रूप में ब्राह्मण वर्ण के भीतर जान पड़ती है। राजशेखर ने अपने को कविराज कहा है। राजशेखर के समय कन्नौज (महोदय) के रघुवंशी प्रतिहार (पड़िहार) सम्राट् भोजदेव (आदि वराह) के पुत्र महेन्द्रपाल (निर्भय नरेन्द्र) आर्यावर्त का एक प्रबल पराक्रमी महाराजाधिराज था, जिसके अधीन राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़, मध्यभारत एवं सतलज से लेकर बिहार तक राज्य था। राजशेखर ने मारवाड़ से जाकर कन्नौज में इस महेन्द्रपाल का राज्याश्रय ग्रहण किया, ऐसा महारथी डॉ. ओझा ने भी स्वीकार किया है। ‘कर्पूरमंजरी’ (१.११) की प्रस्तावना में राजशेखर की गेहिनी को चाहमान कुल की मौलिमाला कहा गया है, एतदर्थ उसका क्षत्रिय वंश की होना स्वत: सिद्ध है। राजशेखर और अवंतिसुन्दरी का यह पर-जाति विवाह कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है। आलोच्य काल के आरम्भ और पूर्व में इस प्रकार के विवाह-सम्बंध पर कोई सामाजिक नियंत्रण नहीं था। जोधपुर से मिले हुए शिलालेखों से (८३७ व ८६१ ई.) प्रकट है कि ब्राह्मण हरिश्चन्द्र की दो पत्नियों में से एक ब्राह्मण और दूसरी क्षत्रिय जाति की थी। डॉ. ओझा ने १० वीं शताब्दी तक के शिलालेखों का अध्ययन कर इस प्रकार के अनेक दृष्टांत दिये हैं। आगे चल कर जैसे-जैसे जाति-बंधन कठोर होते गये, वैसे-वैसे इस प्रकार का सम्बंध-विच्छेद होता गया।
राजशेखर का काल-निर्धारण भिन्न-भिन्न विद्वानों ने ७ वीं से १४ वीं शताब्दी तक स्थिर किया है। प्रो. मेक्समूलर ने १४ वीं शाताब्दी, हेमन हारेसे विल्सन ने ११ वीं शताब्दी का अंत या १२ वीं शताब्दी का प्रारम्भ, डॉ. रामकृष्ण गोपाल भांडारकर ने १० वीं शताब्दी, प्रो० स्टीनकानो ने ९०० ई. के आसपास, श्री सी. डी. दलाल ने ८८०-९२० ई. के मध्य, डॉ० कीलहार्न ने १० वीं शताब्दी का आरम्भ, श्री वमन शिवराम आपटे ने ८ वीं शताब्दी का अंत, डॉ. पलीट व प्रो. पीटर्सन व पं. दुर्गाप्रसाद ने ७६१ ई. तथा ए. बोरुहा ने ७ वीं शताब्दी में कवि का अस्तित्व स्वीकार किया है। इतिहास इस कथन की पुष्टि करता है कि महेन्द्रपाल (निर्भयनरेन्द्र) ८९३-९०७ ई. और उसका पुत्र महिपाल (९१४ ई.) दोनों कन्नौज के प्रतिहार वंशी सार्वभौम राजा थे, जिनके दरबार में राजशेखर विद्यमान था। महेन्द्रपाल राजा भोजदेव (आदि वराहमिहिर) का पुत्र (उत्तराधिकारी) था, जिसका समय दानपत्रों तथा शिलालेखों के अनुसार ८४३-८८९ ई. ठहरता है। इन तीनों राजाओं, शिलालेखों एवं दानपत्रों के आधार पर यशस्वी शोधक डॉ. ओझा ने राजशेखर का समय ८९३-९१३ ई० तक माना है जिसके स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अस्तु,
राजशेखर ने ‘बालरामायण’ में अपनी छ: कृतियों का उल्लेख किया है, जिनमें चार नाटक हैं- कर्पूरमंजरी, विद्धशालभंजिका, बालरामायण और बालमहाभारत। पाँचवाँ, ‘काव्यमीमांसा’ नामक अलंकार-ग्रंथ है। छठा, हेमचंद्र भूरि के अनुसार ‘हरविलास’ नामक महाकाव्य है। ‘काव्यमीमांसा’ में कवि ने अपने को ‘भुवनकोश’ नामक भौगोलिक ग्रंथ का रचयिता भी कहा है। सूक्तिसंग्रहों में भी राजशेखर के नाम से कई पद्य मिलते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से इनका विवेचन पृथक अध्ययन की वस्तु है।
५. सोमदेव:- श्री जवेरचन्द मेघाणी के मतानुसार सोमदेव चारण है जिन्होंने गुणाढ्य की ‘वृहत्कथा’ का अनुवाद ‘कथासरित्सागर’ के नाम से किया है। इनका समय ११ वीं शताब्दी ठहरता है। इस समय तक चारण-विद्वान साहित्य क्षेत्र में प्रतिष्ठित हो चुके थे, अतः कोई आश्चर्य नहीं सोमदेव जाति का चारण ही हो, किन्तु जीवन-वृत्त अथवा अन्य सम्बंध-सूत्र के अभाव में कुछ निश्चित कहना कठिन है। साहित्य क्षेत्र में सोमदेव ने जिस सफलता के साथ २४००० श्लोकों का अनुवाद किया है, यह उसकी विद्वता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
(२) प्राकृत कवि एवं उनकी कृतियाँ
६. गुणाढ़य:- उपदेशात्मक कथाओं के अतिरिक्त मनोरंजक कथाओं में ‘वृहत्कथा’ एक प्राचीनतम संग्रह है। कहते हैं कि इसका लेखक गुणाढ़य चारण जाति का था किन्तु यह केवल अनुमान मात्र ही है। कोई इसे प्रतिष्ठानपुर के राजा सातवाहन और कोई महाराजा हाल का सभा कवि मानते है। ‘वृहत्कथा’ के रचना काल को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। अधिकांश लेखक इसकी रचना प्रथम शताब्दी में मानते हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि इससे बढ़ कर प्राचीन कथाओं का संग्रह दूसरा कोई नहीं है। कथानक की विचित्रता के साथ रस-परिपाक दृष्टव्य है। नायक महाराज उदयन के पुत्र नरवाहनदत्त है। मूल कथा पैशाची भाषा में लिखी गई है, जो प्राकृत भाषाओं में मुख्य है। खेद है कि आजकल इस कथा के नष्ट हो जाने से हमें उसके संस्कृत अनुवादों से ही सन्तोष करना पड़ता है और इसके लेखक का चारण होना अधिक संदेहास्पद होता जा रहा है।
(३) अपभ्रंश कवि एवं उनकी कृतियां
७. पुष्पदंत:- चारण जाति की यह धारणा है कि हिन्दी साहित्य का सर्व प्रथम कवि पुष्पदंत चारण था। यह निराधार है। ‘शिवसिंह सरोज’ के लेखक शिवसिंह ने अपने ग्रंथ में उज्जैन निवासी पूषी (पुण्ड, ७१३ ई.) नामक एक बंदीजन का उल्लेख किया है और लिखा है कि उसने काव्य-शास्त्र-मर्मज्ञ अवन्तीपुरी के राजा मान से अलंकार विद्या पढ़ी और फिर संस्कृत अलंकारों का भाषा-दोहरों में वर्णन किया। कहते है कि भाषा-काव्य की नींव उसी के समय में पड़ी। ठाकुर साहब ने उसकी कविता का कोई नमूना नहीं दिया है, किन्तु उसे जाति का भाट कहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं मिश्रबन्धु इस विषय में कुछ अधिक नहीं कहते। इसके लिखे हुए तीन काव्य हैं- महापुराण, जसहर चरित एवं णायकुमार चरिउ। इन ग्रंथों में भी कोई संकेत नहीं मिलता। डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. परशुराम लक्ष्मण वैद्य एव हीरालाल जैन ने इन्हेँ ब्राह्मण माना है। इस विषय में अधिक ज्ञात नहीं। अतः निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।
८. आणंद करमाणंद:- ये मिश्रण शाखा में उत्पन्न हुए थे और बोगनीयाई (जैसलमेर राज्य) ग्राम के निवासी थे। ये गुजरात से राजस्थान में आये थे। ये गायें खूब रखते थे और घोड़ों का व्यापार करते थे। पाबूजी के पिता धांधलजी राठौड़ ने इन्हें पचपदरा तहसील के गांव इकडाणी से पुरस्कृत किया था जो आज भी इनके वंशजों के पास है। इनके समय में काव्य-प्रेमी सिद्धराज जयसिंह (सन् १०९३-११४२ ई.) सिंहासनारूढ़ थे और इन्हें उनका राज्याश्रय प्राप्त था। जयसिंह ने इन्हें एक गांव से पुरस्कृत भी किया था। इनकी लिखी हुई वीररसपूर्ण फुटकर कवितायें उपलब्ध होती हैं।
९. आल्हा:- ये झूला शाखा में उत्पन्न हुए थे और गुजरात के निवासी थे। इन्हें भी सिद्धराज जयसिंह का राज्याश्रय प्राप्त था। उन्होंने इनकी कवित्व शक्ति पर प्रसन्न होकर लीलछा गांव प्रदान किया था।
१०. आम:- इनकी शाखा अज्ञात है किन्तु निवास स्थान गुजरात है। इन्हें भी सिद्धराज जयसिंह का राज्याश्रय प्राप्त था। इनका वीररसपूर्ण कवित्त सुन कर महाराजा ने सभी सभासदों के समक्ष अपने स्वर्ण के कड़े प्रदान किए थे।
११. हट्टोपविष्ट:- इनकी शाखा का पता नहीं लगता किन्तु निवास स्थान गुजरात है। ये महाराजा कुमारपाल (सन् ११४२-७३ ई.) के समकालीन थे। इनके भक्ति विषयक स्फुट छंद उपलब्ध होते हैं।
१२. गागिल:- इनकी शाखा अज्ञात है किन्तु निवास स्थान काठियावाड़ है। एक बार इन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वी चारण से दोहा छन्द की होड़ लगाई कि हेमचन्द्राचार्य जिसकी प्रशंसा करे वही विजयी माना जाय और हारने वाला उसको होड़ या पेज का रुपया दे। यह शर्त करके उसके साथ अणहिलपुर पाटन पहुँचे। प्रतिद्वन्द्वी ने पहले अपना दोहा कहा फिर इन्होंने। उस समय विहार (मठ) में महाराजा कुमारपाल की पीठ पर हाथ फेर कर हेमचन्द्राचार्य खडे थे। इनकी नवीन उक्ति को देख कर महाराजा ने उसे बार २ पढ़ने की आज्ञा दी। इस पर झुंझला कर गागिल ने यह उपालम्भ दिया कि बार २ पढ़ा कर महाराज क्या एक लाख रुपया देंगे? इस पर तीन बार पढ़ने के कारण कुमारपाल ने इन्हें अनूठी उक्ति पर प्रसन्न होकर तीन लाख रुपया दिया।
प्रतिद्वन्द्वी का दोहा:
लच्छिवाणि मुहकाणि ए पइं भागी मुहमरउ।
हेमसूरि उत्धणि जे ईसर ते पडिया।।
गागिल का दोहा:
हेम तुहारा करमरउं, जेहं अच्चसमुऊ रिद्धि।
जे चांपइ हेठा मुआ, ताहं ऊपरही सिद्धि।।
१३. रामचन्द्र:- इनकी शाखा अज्ञात है। सम्भवत: ये गुजरात-काठियावाड़ के निवासी थे। सोमतिलक सूरि कृत ‘कुमारपाल प्रतिबोध’ के अनुसार ये नीति विषयक छंद लिखने में प्रवीण थे।
१४. ढूमण (धमणक):- इनकी शाखा का पता नहीं लगता किन्तु ये जूनागढ़ के निवासी थे। राजा खंगार इनके समकालीन थे। एक बार वे शिकार ले लौट रहे थे और उनके घोड़े की पूंछ में अनेक जानवर बंधे हुए थे। उनके साथी बिछुड़ गये और वे मार्ग भूल गये। उन्होंने जंगल में बबूल की डाल पर बैठे हुए सूमण से नगर का मार्ग पूछा। सूमण ने इसका उत्तर इस दोहे के रूप में दिया-
जीव वधन्तां नरय गइ, अवधन्तां गइ सग्गि।
हुं जाणुं दुइ वट्टडी, जिणि भावे तिणि लग्गि।।
इसे सुनकर राजा में विवेक उत्पन्न हुआ और उसने हिंसा न करने की दृढ़ प्रतिज्ञा की। राजा ने इनसे संतुष्ट एवं प्रसन्न होकर सब के समक्ष ‘कवि कटारमल्ल’ का विरुद प्रदान किया, घोड़े-गांव देकर पूजा की तथा अपना गुरु बनाया।
(४) राजस्थानी कवि एवं उनकी कृतियों का आलोचनात्मक अध्ययन
१५. चरपटनाथ:- राजस्थानी के चारण साहित्य में महात्मा चरपटनाथ का नाम सदैव आदर-सम्मान के साथ लिया जायेगा, किन्तु खेद है कि योग-धारा के अन्य संतों के सदृश इनका जीवन-वृत्त भी अंधकार में है। इनके चारण होने के सुदूर-स्पर्श हमें ठाकुर किशोरसिंह वार्हस्पत्य के ‘चारण जाति का अतीत इतिहास’ एवं डॉ० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के ‘हिन्दी कविता में योगप्रवाह’ नामक फुटकर निबंधों के अतिरिक्त डॉ. श्यामसुन्दरदास के ‘हिन्दी-साहित्य’, डॉ० बड़थ्वाल के ‘योग-प्रवाह’ एवं डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के ‘नाथ-सम्प्रदाय’ नामक ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं। जनश्रुतियों के अनुसार ये जाति के चारण थे। कहा जाता है कि चरपट गोरखनाथ के आशीर्वाद से प्रादुर्भूत हुए थे। रज्जबदास ने भी अपने ‘सरबंगी’ ग्रंथ में इनका चारणी के गर्भ से उत्पन्न होना लिखा है।
इससे यह भी ध्वनित होता है कि इनका जन्म राजस्थान में हुआ था और इस कथन का समर्थन डॉ० बड़थ्वाल ने भी किया है। इधर राजस्थान के चारण बंधु अपनी जाति में नाथ-सम्प्रदाय के बारह योगी मानते है, जिनमें महात्मा चरपटनाथ का नाम वे बड़े गौरव के साथ लिया करते हैं। उनका यह विश्वास निर्मूल एवं निराधार नहीं कहा जा सकता। यदि सच पूछा जाय तो राजस्थान में नाथ-सम्प्रदाय के प्रभाव को देखते हुए इनका चारण होना सम्भव है। अस्तु, चरपटनाथ के आसपास राजस्थान गोरखपंथी साधुओं का एक महान पीठ रहा होगा, इस बात की कल्पना इनके नाम से सम्बद्ध ‘रावल’ शब्द से की जा सकती है। डॉ० ओझा एवं डॉ० द्विवेदी के मतानुसार रावल सम्प्रदाय कायावरोहण स्थान (बड़ौदा राज्य) में उत्पन्न लकुलीश ऋषि (नकुलीश) द्वारा प्रवर्तित योगियों की एक बड़ी भारी शाखा है। इतिहास साक्षी है कि उदयपुर राजघराने के इष्टदेव एकलिंगेश्वर महादेव के समस्त पुजारी (मठाधिपति) लकुलीश की शिष्य परम्परा में से है। बाप्पारावल (चित्तौड़) के गुरु हारीत ऋषि (हारीत राशि) इसी लकुलीश पाशुपत सम्प्रदाय के एक सिद्ध पुरुष माने जाते हैं। राजस्थान, गुजरात एवं मालवा की लकुलीश (लकुटधारी) शिव-मूर्तियों से प्रकट है कि प्राचीन काल में इन प्रांतों में इसका प्रचार था। अनेक विद्वानों ने चरपटनाथ का बाप्पारावल और गोरखनाथ से मिलने का उल्लेख किया है। यदि यह सच है तो कोई आश्चर्य नहीं, चरपटनाथ का संबंध राजस्थान के राजघरानों से रहा हो विष्णुपुराण, लिंगपुराण व शिलालेखों से पता चलता है कि ७वीं शताब्दी से भी पूर्व यह सम्प्रदाय जनता का ध्यान आकर्षित करने लग गया था, ८वीं शताब्दी में इसे विशेष सम्मान प्राप्त होने लगा और आगे चलकर भक्ति आंदोलन से पूर्व, १३वीं शताब्दी तक यह उन्नति की चरमावस्था पर पहुंच गया। डॉ० द्विवेदी का तो यहां तक कहना है कि रावल नाम से प्रसिद्ध योगियों की समूची शाखा लकुलीश पाशुपत सम्प्रदाय की उत्तराधिकारी है। इस शाखा के साधु कनफटे नाम गृहस्थ न होकर निहंग होते थे और मूंडकर चेला बनाते थे। उनमें जाति-पांति का कोई भेदभाव नहीं था। ये लोग शरीर पर भस्म लगाते, वल्कल वस्त्र और जटाजूट धारण करते और पाशुपत योग की साधना करते थे। एक जगह बैठे रहने की अपेक्षा ये लोग सब जगह मस्त फक्कड़ की तरह घूमते रहते थे। चरपट के ही शब्दों में-
बैठे राजा बैठे परजा, बैठे जंगल की हिरणी।
हम क्यों बैठें रावल बावल, सारी नगरी फिरणी।।
यह लक्ष्य करने की बात है कि चरपट ने अपने को एक नहीं अनेक स्थानों पर ‘रावल’ कहा है। उनकी ‘सबदी’ में ‘सत् भाषत् श्री चरपट रावल’ का बारम्बार उल्लेख मिलता है। अत: हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि चरपटनाथ गोरखपंथी शाखा के एक विकसित एवं सुरभित पुष्प थे।
चरपट के जन्मस्थान एवं माता-पिता का पता लगाना कठिन है, किन्तु यह निश्चित है कि गोरखनाथ के प्रभाव में आने से पूर्व ये एक साधारण मनुष्य थे। प्राय: साधारण मनुष्यों को असाधारण बनाने में नारी एक स्फूर्तिदायक प्रेरक का कार्य करती है और ये भी इसके अपवाद नहीं। जनश्रुति के अनुसार ये पहले अपनी जाति के अन्य लोगों की तरह घोड़ों का व्यापार करते थे। एक दिन जब ये काफिले के साथ जा रहे थे तब बीच में इनकी दृष्टि नगर की सेठानी पर पड़ी। ये उसके रूप-लावण्य को देख कर मोहित हो गये और पीछे रह गये। सेठानी के अपूर्व शारीरिक सौन्दर्य ने इनके तन-मन में एक ऐसी हलचल उत्पन्न कर दी कि व्यापार छोड़कर उसके प्रेम के भिखारी हो गये। अपने प्रेम का परिचय देने तथा सेठानी के हृदय को जीतने के लिए इन्होंने प्रचलित यौगिक क्रियाओं का आश्रय लिया। ये पानी पर चलने और आग से खेलने की नित्य नई सिद्धियों का अन्वेषण करने लगे। इतना होने पर भी सेठानी ने इनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ दिनों के पश्चात् यह जान कर कि ये एक साधु-सन्यासी हैं, सेठानी ने अपनी दासी को भेज कर इन्हें अपने यहां भोजन के लिए आमंत्रित किया। सेठानी सती-साध्वी स्त्री थी। इनको यह देख कर बड़ा दुःख हुआ कि जिसके लिए सन्यास धारण किया, वह प्रेम का कोई महत्व नहीं समझती। इससे इनके हृदय को गहरी ठेस लगी और ये निराश हो गये। जब सेठानी को पता चला कि ये कोई साधारण सन्यासी नहीं वरन् उसके प्रेम के भिखारी हैं, तब उसने अपने घर पुन: आमन्त्रित किया और अपने पास बैठा कर भोजन कराया। भोजन के समय सेठानी ने इनके सामने अलग-अलग रंग के चार नीबू लाकर रखे और उन्हें बारी-बारी से काट कर चखने के लिए निवेदन किया। जब सेठानी ने उसका स्वाद पूछा तब इन्होंने सबको खट्टा बताया। इस पर सेठानी ने शिक्षा देते हुए कहा कि रंग पृथक होने पर भी जैसे इनका स्वाद एकसा है, वैसे ही नारी का रूप-रंग भले ही भिन्न-भिन्न क्यों न हो, उसमें तत्व प्राय: समान है। अत: तुम्हारी पत्नी और मेरे रूप में कोई अन्तर नहीं। यह वचन सुन कर इन्हें लज्जित होना पड़ा और उस दिन से यथार्थ में चरपट हो गये। इस घटना ने इनके मस्तिष्क में एक ऐसी क्रांति उपस्थित कर दी कि अपना शेष जीवन परम सिद्धि की खोज में लगा दिया। योगी होने के साथ ये त्यागी बन गये।
संसार से विरक्त होकर चरपटनाथ गोरख बाबा के शिष्य हो गये। ये एक मस्तमौजी फक्कड़ थे। कनफटा सम्प्रदाय के योग-जल में रहते हुए भी ये कमल के सदृश बाह्य प्रक्रियाओं से सदैव ऊपर उठे रहे। एक राजा ने जब इनसे नगर के बाहर पड़े रहने का कारण पूछा तब इन्होंने यही उत्तर दिया-
ना घरि तिय ना पर-तिय रता, ना घरि धन न जोवन मता।
ना घरि पूत न धीय कुंआरी, ताते चरपट नींद पियारी।।
चरपट के नाम पर हमें तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं- १ चरपटशतक (पद्य) २. चरपटसबदी (पद्य) एवं ३ चरपटरसायन (गद्य)। प्रथम दो रचनायें आत्मा, रूप एवं शैली की दृष्टि से परस्पर मिलती-जुलती हैं, अन्तर केवल आकार-प्रकार का ही है। ‘चरपटसबदी’ अपेक्षाकृत एक वृहद ग्रंथ है और ‘चरपटशतक’ में चुनी हुई सौ सबदी दी हुई हैं, जो उपलब्ध नहीं होती। सम्भव है, यह परवर्ती गोरखपंथी साधुओं की करामात हो। ‘चरपटरसायन’ रसायन-विद्या का ग्रंथ है, जिसमें कहीं-कहीं गद्य-पद्य का सम्मिश्रण है।
जनश्रुतियों एवं इन ग्रंथों की भाषा को दृष्टि में रखते हुए कुछ विद्वानों ने चरपटनाथ के आविर्भाव-काल की समस्या को हल करने का प्रयत्न किया है। डॉ० श्यामसुन्दरदास का कथन है कि मराठी परम्पराओं में ये गोरखनाथ के शिष्य (?) गहनीनाथ (१२२३-७३ ई०) के समकालीन तथा गुरुभाई माने गये हैं। गोरख-शतक में ये मछंदरनाथ के शिष्य (९९३ ई०) बताये गये हैं और भोटिया परम्पराओं में मछंदरनाथ के पिता माननाथ के गुरु और पालराजा देवपाल (८०९-८४९ ई०) से पूर्व के माने गये हैं। मछंदरनाथ के शिष्यत्व को अस्वीकार करते हुए डॉ० बड़थ्वाल ने लिखा है–“ये गहनीनाथ के गुरुभाई प्रसिद्ध हैं। गहनीनाथ का समय १२२३-७३ ई० निश्चित है, अतएव ये भी इसी समय में हुए होंगे।” डॉ० द्विवेदी ने इनका विवेचन ‘गोरखनाथ के समसामयिक सिद्ध’ नामक अध्याय के अन्तर्गत किया है, लेकिन ‘वर्णरत्नाकर’ में इनका नाम आने से वे लिखते हैं-”इतना तो स्पष्ट है कि १४ वीं शताब्दी के पहले वे अवश्य प्रादुर्भूत हो चुके थे।” भाषा की दृष्टि से डॉ. श्यामसुन्दरदास ने चरपट को गहनीनाथ का समकालीन माना है। उन्होंने एक अन्य संत चुणकरनाथ को भी इनके समकालीन बताया है किन्तु डॉ० बड़थ्वाल ने चुणकर के पदों की भाषा को देख कर उन्हें इनका पूर्ववर्ती समझा है।
किसी प्राचीन संत-महात्मा का रचना-काल न तो जन-परम्पराओं के आधार पर ही सिद्ध किया जा सकता है और न उसके पदों की भाषा ही आविर्भाव-काल की कसौटी मानी जा सकती है। इस दृष्टि से उपर्युक्त मतों में कल्पना अधिक और सत्यता कम है। भारतीय संत-महापुरुषों के उपदेशों को प्रान्तीय भाषाओं में ढालने की एक परम्परा देखने को मिलती है। बाजार में जैसे खोटे सिक्के चलते रहते हैं, वेसे ही गुरुओं की वाणियां अज्ञानी एवं लोभी शिष्यों की जिह्वा पर नाच-नाच कर घिसती रहती हैं, इसलिए उनके टकसाली रूप का पता लगाना अत्यधिक कठिन हो जाता है। चरपट के नाम पर चलने-फिरने वाला साहित्य इस दोष से वंचित नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसा न होता तो बेचारा चरपटनाथ ‘मीनचेतन’ में कर्पटीनाथ क्यों बनता? ‘योगसंप्रदा-याविष्कृति’ में ‘पिप्यलायन नारायण’ का अवतार क्यों धारण करता? क्यों ‘प्राणसंगली’ में बैठ कर गुरु नानक से विविध रसायनों पर वार्ता करता?और क्यों ‘वर्णरत्नाकर’ के ३१वें सिद्ध, हठयोग के १६वें सिद्ध तथा तिब्बती परम्परा के ५९वें सिद्ध का नाम चर्पटी या चर्पटीनाथ रखा जाता? भाषा की दृष्टि से राजस्थान में उपलब्ध होने वाला चरपटी साहित्य निश्चय ही परवर्ती है और संदेहास्पद भी। राजस्थानी साहित्यप्रेमी श्री अगरचन्द नाहटा (बीकानेर) के अभय जैन ग्रंथालय में मुझे चरपटी-साहित्य देखने को मिला। नाथ-सम्प्रदाय के प्रमुख मठ महामन्दिर (जोधपुर) में भी इसका अभाव नहीं है। इनकी भाषा चाहे लोक-भाषा की दृष्टि से ही क्यों न देखी जाये, मध्यकाल से पूर्व की राजस्थानी कदापि नहीं कही जा सकती।
यद्यपि श्रुतिनिष्ठ होने के कारण चरपटी-साहित्य बहुत-कुछ परिवर्तित, परिवर्द्धित एवं विकृत हो गया है तथापि उसमें अपने युग का स्वर अवश्य रह गया है। मेरे विचार से अन्य वैज्ञानिक साधनों के अभाव में इस महान योगी के उदय-काल का निर्धारण तत्कालीन साम्प्रदायिक विचारधाराओं की पृष्ठभूमि में होना चाहिए। इस दृष्टि से चरपट की रचनाओं में वह रूप, रस और गंध मिल ही जाती है, जो उनके समकालीन रसायनवादी बौद्ध सिद्धों एवं नाथ-पंथ के अन्य योगियों में देखने को मिलती है। कोई आश्चर्य नहीं, चरपट का उदय गोरखनाथ के आसपास ही हुआ हो। यद्यपि गोरखनाथ का समय अभी तक प्रामाणिक रूप से प्रकाश में नहीं आया है, तथापि अधिकांश विद्वानों की सम्मति में यह १०वीं शताब्दी से परवर्ती नहीं है। चरपटनाथ के रसायन एवं योग-विषयक विचारों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि सम्भवत: इनका मूलोद्भव ११वीं शताब्दी में हुआ था।
भारतीय धर्म-साधना में नाथ-पंथ के अनेक समानार्थी नाम सुनने को मिलते हैं, जिनमें सिद्धमत, योगमार्ग, योग-सम्प्रदाय, अवधूत-सम्प्रदाय एवं अवभूतमत प्रसिद्ध हैं। नाथ-सम्प्रदाय के आदि आचार्य श्री आदिनाथ (भगवान शंकर) माने जाते हैं, लेकिन इसके पुनरुत्थान करने का श्रेय बाबा गोरखनाथ को है। कहना अनावश्यक न होगा, सिद्धों की वीभत्स तामसिक साधना-पद्धति की प्रतिक्रिया स्वरूप ही नाथ-पंथ का अभ्युदय हुआ था; एतदर्थ-डॉ. द्विवेदी, डॉ० वर्मा एवं राहुल की सम्मति में यह सहजयान एव वज्रयान का परिष्कृत रूप है। नाथ-सम्प्रदाय में सदाचरण को उच्च स्थान प्राप्त है और सिद्ध-साधना के प्रमुख उपादान मद्य, मांस, मैथुनादि को अत्यन्त हेय और घृणा की दृष्टि से देखा गया है। यद्यपि नाथ-पंथ के दार्शनिक सिद्धांतों एवं साधना-पद्धति का साधर्म्य शैवमत, पातंजल के हठयोग, औपनिषदिक, बौद्धधर्म, शाक्तमत, कौलमार्ग और कापालिक मत से भी स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है, तथापि यह निर्विवाद सत्य है कि नाथ-पंथियों का मुख्य सम्प्रदाय गोरखनाथ योगियों का ही है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि राजस्थान में चारण महात्मा चरपट गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित योगमार्ग के एक दृढ़ स्तम्भ थे। ‘चरपटसबदी’ के अध्ययन से पता चलता है कि इस रचना पर नाथ-पंथ का अक्षुण्ण प्रभाव पड़ा है, किन्तु यह अधिकांश में क्रियात्मक न होकर प्रतिक्रियात्मक है। जहाँ तक धार्मिक क्रियाओं का प्रश्न है, उनका भव्य एवं दिव्य निरूपण गोरखनाथ द्वारा हो चुका था। यह सच है कि उनके धार्मिक सिद्धान्तों ने समग्र देश में एक अभूतपूर्व क्रांति उपस्थित कर दी थी, किन्तु समाज में एक ओर जहाँ योगियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी वहाँ दूसरी ओर नाना प्रकार की बाह्य वेश विषयक प्रक्रियाओं ने मिथ्या धारणाओं एवं मत-मतान्तरों को जन्म दे दिया था। ऐसी स्थिति में एक ऐसे योगीराज की आवश्यकता थी, जो नाथ पंथ के आदर्श को सुरक्षित बनाये रख कर उसे पथभ्रष्ट होने से बचाता। इस अभाव की पूर्ति महात्मा चरपटनाथ के द्वारा हुई। उन्होंने भावी आशंका से संत्रस्त होकर इस प्रतिक्रियात्मक मार्ग का अनुसरण किया, जो नाथ-सम्प्रदाय के विकारों को दूर करने में बड़ा ही कल्याणकारी सिद्ध हुआ।
चरपटनाथ ने योग को एक पूर्ण सन्यास व्रत माना है, जो मायावी संसार से दूर रहकर ही धारण किया जा सकता है। अवधू (अवधूत) को परिभाषा देते हुए वे स्पष्ट कहते है-
रूषं वृष गिर कंदलि बास, दोई जन अंगन मैले पास।
पलटे काया षंडे रोग, चर्पट बोले ते धनी जोग।।
कर परि भिछया वृष तलि वास, कामनि अंग न मैले पास।
बन षंड रहे मसाणां भूत, चर्पट बोले ते अवधूत।।
चरपट ने योगी के माहात्म्य का जो वर्णन किया है, वह निःसंदेह स्तुत्य है। यथार्थ में वह योगी धन्य है जो काया को पलटता है, रोग का नाश करता है। उनकी दृष्टि में राजा से भी ऊंचा पद योगी का है। पहला तांबे और दूसरा तूंबे के समान है। जिस प्रकार तांबा पानी में डूब जाता है और तूंबा उसके ऊपर तैरने लगता है उसी प्रकार राजा मर जाता है पर योगी जीवित रहता है-
तांबा तूम्बा रा द्वे सूचा, राजा ही तैं जोगी ऊंचा।
तांबा बुड़ा तुम्बा तिरै, जोगी जीवै राजा मरै।।
पर यदि योगी ‘नाथ’ कहाकर भी सांसारिक बंधनों से मुक्त होने की साधना न करे, भिक्षा मांगकर पेट भरे और पांच शिष्यों को साथ चलाए तो उसे मरना होगा-
नाथ कहावे सकहिं न नाथि, चेला पंच चलावें साथि।
मांगे भिच्छा भरि २ खाहिं, नाथ कहावें मरि २ जाहिं।।
योग को विकृत करने वाले पाखंडी साधु नहीं तो और कौन हैं? ये लोग अपने आदर्श का विसर्जन कर खाने, पीने और मौज उड़ाने में ही अपने कर्त्तव्य की इति-श्री समझते है- ‘खाजे पीजे कीजे भोग, चरपट कहे बिगाड़ो जोग’ ऐसे कपटी साधु साजबाज के साथ बाहर निकलते हैं और दुनिया को ठगते है। इनके हाथ में बाजा और साथ में तरुणी होती है। ये लोग दिन में भिक्षा मांगते फिरते हैं और रात में भोग करते हैं-
वाकर कूकर कींगुर हाथी, बाली भोली तरुणी साथि।
दिन करि भिछया रात्यूं भोग, चरपट कहे बिगोवे जोग।।
ऐसा पाखंड-प्रिय शिष्य यदि ‘भरीया’ आय और ‘रीता’ जाय तो इसमें गुरुदेव का क्या दोष?–
झोली पाई पत्रा पाया, पाया पन्थ का भेव।
रीता जाऊ भरिया आऊं, कहा करे गुरुदेव।।
इन्हीं विचित्र वेशधारी योगियों के जमघट को देखकर चरपट ने ‘लोई’ (सिद्धाचार्य) को सम्बोधित करते हुए सच्चे योगी के दुर्लभ दर्शन की ओर संकेत किया है-
काना मुद्रा गलि रुद्राक्ष्य, फिरि २ मांगे निपजी साष।
चरपट कहे सुना रे लोई, करसण है पण जोगी न होई।।
चरपट ने स्थान-स्थान पर नाथ-पंथी योगी की वेश-भूषा का जो सांगोपांग चित्र अंकित किया है, उससे ज्ञात होता है कि ये लोग कर्ण-कुंडल (मुद्रा या दर्शन), किंगरी (बाजा), मेखला (रस्सी), सींगी (हरिण के सींग का बाजा), जनेव (सैली), घंघारी (चक्र), रुद्राक्ष (माला), अधारी (काठ का भीढ़ा), गूदरी (गेरुए रंग का वस्त्र), खप्पर (नारियल या मिट्टी का पात्र) और झोला (थैला) को धारण करना अपना धर्म समझते हैं। इनके अतिरिक्त योगियों के शरीर पर भस्म लगाने, ललाट पर बाहुमूल (त्रिपुंड) धारण करने तथा सिर पर जटा-जूट रखने का वर्णन भी मिलता है। कान फाड़कर कुंडल धारण करने की प्रथा के कारण योगियों को ‘कनफटा साधु’ की संज्ञा दी गई है। इस प्रथा का प्रवर्तन मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरखनाथ ने किया था। कहने के लिए तो चरपट भी कनफटा सम्प्रदाय के साधु थे, लेकिन उन्होंने ‘जोग जुगत षबरी न जांणी, कान फड़ाय बिगता’ कहकर इसकी कठोर भर्त्सना की है। हमारा अनुमान है, नाथ-सम्प्रदाय में इस बाह्य प्रक्रिया का विरोध सबसे पहले इसी महात्मा ने किया था। इसका आधार आचार्य डॉ० द्विवेदी की वह अद्भुत कथा है, जिसमें बताया गया है कि जब हिंगलाज में दो सिद्ध एक शिष्य का कान चीरने लगे तब हर बार छेद बंद हो जाता था। तभी से औघड़ लोग कान चिरवाते ही नहीं। यह निर्विवाद सत्य है कि हिंगलाज चारण जाति की आदि कुलदेवी थी। संभव है, उसी की योग-माया से ऐसा हुआ हो। जो हो, चरपट ने इस प्रकार के बाह्य लक्षणों की निरर्थकता स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की है और आत्मा का योगी बनने का उपदेश दिया है-
सुधु फटकि मनु गिआनि रता, चरपट प्रणिवै सिध मता।
वाहिरि उलटि भवन नहिं जाउ, काहे कारनि कांननि का चीरा खाउ।।
विभूति न लगाओ जि उतरि २ जाइ, खर जिउ धूड़ि लेटे मेरी बलाइ।
सैली न बाँधो लेणों ना म्रिगानी, ओडउं ना खिंथाजो होई पुरानी।।
पत्र न पूजो उड़ा न उठाओ, कुते की निआई माँगने न जाओ।
वासि करिके भुगति न खाओ, सिधिआ देखि सिंगी न बजाओ।।
दुआरि २ धूआ न पाओ, भेषिका जोगी न कहावो।
आतिमा का जोगी चरपट नाउ।।
आचार्य डॉ. द्विवेदी ने नाथ-सम्प्रदाय के जिन नैतिक उपदेशों का विस्तृत परिचय दिया है, वे चरपट की सबदी में पूर्ण रूप से प्रतिबिम्बित हुए हैं। चरपट की विशेषता यह है कि उन्होंने सकारात्मक पद्धति को छोड़कर नकारात्मक पद्धति के द्वारा इन्हें विशेष हदयग्राही बना दिया है। जो जोगी हठ करके सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें बड़ा ही भावपूर्ण एक् मार्मिक उपदेश दिया गया है।
इह संसार कंटिओं की बाड़ी, निरख निरख पगु धरना।
चरपटु कहे सुनहु रे सिधी, हटि करि तपु नहिं करना।।
योगियों को गम्भीर होकर ब्रह्मज्ञान में तल्लीन रहना चाहिए। दांत निकाल कर ‘ही-ही’ करने वाले (हंसने वाले) साधुओं का उन्होंने ‘काला मूंडा लीला पग’ किया है। ऐसे ढोंगी सिद्धों को उन्होंने रिगणी करने वाला सांड, लजीले कवि, रहस्योद्घाटन करने वाली वेश्या, धार-विहीन खड़ग एवं निर्लज्ज स्त्री की पंक्ति में बैठा कर टक्कर मारने की सलाह दी हैं-
हंसना जोगी रिगणी सांड, कवि लजलु वेस्या भांड।
खड़ग अबेणा नालज नार, चरपट कहै टक्कर मार।।
चरपट ने वेद, स्मृति, पंडित, मूर्तिपूजा आदि मिथ्याडम्बरों का तिरस्कार तो किया ही है, साथ ही उन्होंने वाद-विवाद से भी दूर रहने का उपदेश दिया है। चरपट को फोकट की बकवास पसंद न थी। उन्हें फोकट का आना, जाना, बोलना, खाना और बैठना बिल्कुल नहीं सुहाता था। वे इसे कलियुग का बाद-विवाद कह कर उड़ा देते-
फोकट आवे फोकट खावे, फोकट बोले फोकट षाई।
फोकट बैठा करे उपाधि, चरपट करते कलियुग का वादी।।
चरपटनाथ एक सारग्राही महात्मा थे। उनके मतानुसार किसी धर्म के अवगुणों का भंडाफोड करने से उसके गुणों का संचय आप ही आप हो जाया करता है। यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपने धर्म का ही नहीं प्रत्युत अन्य धर्मो के बाह्याचारों का बहिष्कार भी समान रूप से किया है। उनका कथन है, जब काल रूपी घटा सिर पर मंडराने लगेगी तब श्वेत-नील पट, लम्बी जटा, तिलक, जनेऊ, कुंडल आदि सबका सब धरा रह जायगा-
इक सेति पटा इक नीलि पटा, इक तिलक जनेऊ लम्बि जटा।
इक कीए इक मौनी इक कानी फटा, जब आवेगी कालि घटा।।
इसी प्रकार दूसरे स्थान पर वे कहते हैं-
दंड कमंडल भगवां वेष, पाथर पूजा बहु उपदेश।
जीव हते अरु पूजा करे, जन्त्र मन्त्र ले मन में धरे।।
तीरथ यात्रा करे स्नान, बोले चरपट षंडे ज्ञान।
न्हावे धोवे पषाले अंग, भीतर मेला बाहिर चंग।।
होम जाप अज्ञारी करे, पार ब्रह्म की सुध न धरे।
चरपट को यह बात समझ में नहीं आई कि एक पत्थर ही क्यों रह जाता है और दूसरा देवता के नाम से क्यों पूजा जाता है? पत्थर की पूजा करते-करते सारा संसार नष्ट हो गया, किन्तु परमतत्व को नहीं समझ सका। ज्योति-स्वरूपी भगवान पास में ही खड़ा है, लेकिन उसके रहस्य को कोई नहीं जान पाता। जब केश-राशि फिर निकल आती है, तब सिर मुंडाने से क्या लाभ? इसलिए अहंकार से भरे हुए मन को ही सबसे पहले मूंडना चाहिये-
चरपट कहे दुनिया का भेद, ये क्यूं पाथर ये क्युं देव।
पूजि प भाठा सब जग नाठा, निज तत रेगा न्यारा।।
जोति सरूपी संग ही ठाडा, ताका मरम न वीरा।
मन नहीं मुंडा मुंडे केस, केस मुंडा थां केसा उपदे।।
मूंडे नहीं मन मरद अभमान, बोले चरपट तत्त ज्ञान।
चरपट के विचारानुसार समस्त वेश तब तक स्वांग मात्र हैं जब तक उनसे मृत्यु पर विजय प्राप्त करने में सहायता नहीं मिलती। यदि मृत्यु को वश में कर योगी अजरामर नहीं हुआ तो उसकी यह विचित्रता निष्प्रयोजन है। वे अवधू (अवधूत) को ललकारते हुए कहते हैं-
चरपट चीर चक्र मन कन्था, मिस चमाऊँ करना।
ऐसी करणी करो रे अवधू, जो बहुरी न होवे मरणा।।
इस अनश्वरता के लिए चरपट ने मस्तिष्क का आश्रय लिया और समस्त बाह्य चिन्हों को अपने मन में धारण करने का उचित आदेश दिया, क्योंकि मुंदरी व किंकणी पहने नकटी बूची जोगण के साथ होने से क्या यह सम्भव है कि योगी के मन में रात-दिन विकारों की आंधी न चले ?-
पेरे मूंदरी कंकण हाथ, नकटी बूची जोगिण साथ।
उठत वैठत का झणकार, रेन दिवस मन बहे बिकार।।
इसीलिए उन्हें अपनी विचार-वीथि में मन की स्थिरता और सिद्धमत एक ही दृष्टिगोचर हुए-
द्रढ़ करि मनवा थिर करि चित, काया पवन पवाले नित।
मन मानि विवर जित जता, सिध के मन ज्ञान रता।।
चरपट कहे ये सिद्ध मता।
नाथपंथ के दार्शनिक सिद्धांतों की ओर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि गोरखनाथ ने माया के दो रूप माने हैं – विद्या और अविद्या। विद्या मोक्षदायिनी है और अविद्या बंधनकारक। अपने स्वभाव के अनुसार चरपट ने कामिनी को अविद्या का प्रतीक मानकर उसकी खूब धज्जियां उड़ाई हैं। उन्होंने अवधू (अवधूत) को सावधान करते हुए दिन २ नाड़ी के सोखने और काया के क्षीण होने का कारण नारी का संग बताया है-
चरपट कहे सुणो रे अवधू. कामणी संग न कीजे।
दिन-दिन नाड़ी सोषे, दिन-दिन काया छीजे।।
यही नहीं, उन्होंने बेटा-बहू आदि को स्वार्थ का साथी कहकर इस संसार को जंजाल का रूप दिया है-
किसका बेटा किसकी बहू, आप सवारथ मिलिया सहू।
जेता पूला तेती आल, चरपट कहे सब माल जंजाल।।
वस्तुत: जिन्दगी में आगे-पीछे सर्वत्र जंजाल ही जंजाल है। इनसे मुक्त होने के लिए योग का आश्रय लिया पर वहां भी जंजाल आगे खड़ा था। योगी को इसे पराभूत करना चाहिए-
जंजाल आगे जंजाल पाछे, जंजाल कुम्हार के भांडे।
जो जंजाल तजी जोगी हुआ, सो जंजाल मुष आगे।।
चरपट पर नाथपंथी योगियों की साधना-पद्धति का भी यत्र-तत्र प्रभाव पड़ा है, किंतु यह उनकी प्रतिक्रियावादी प्रवृत्ति की प्रखरता में अत्यंत क्षीण रह गया है। नाथपंथी योगी की अटल धारणा है कि सहस्रार में गगनमंडल में औंधे मुंह का एक अमृत-कुंड है, जो चन्द्र तत्व कहलाता है। यहां से निरंतर अमृत रस झरता रहता है, जिसका पान किसी श्रेष्ठ गुरु के आश्रय से मुक्त योगी ही कर सकता है और इस प्रकार वह अजरामर हो जाता है। तभी तो वे कहते है-
वाषि समाषि विषम कर बांधे।
उपरि करि रवि नीचे करी चन्द।।
रेण दिवस रस चरपट पीवे।
इसी प्रकार चरपट नाथपंथियों की भाषा एवं अभिव्यक्ति से भी प्रभावित हुए हैं। एक उदाहरण पर्याप्त होगा-
जल की भीत पवन का थम्भा, देवल देष भया अचम्भा।
बाहिर भीतरि गन्धवि गन्ध, काहे भूल्यो रे पसुवा अन्ध।।
संक्षेप में, चरपटनाथ ने बाह्यवेश प्रणाली का कट्टर विरोध कर कनफटा सम्प्रदाय में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। वे मानो इसका बहिष्कार करने के लिए ही अवतरित हुए थे। कहा जा सकता हैं कि उनकी नकारात्मक सहजानुभूति ने योग-धारा के कीचड़ को अलग कर उसे स्वच्छ एवं निर्मल बना दिया। भारतीय संतों में बाह्याचार-मूलक धर्म की इस विडम्बना का परवर्ती संत-समाज पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। अस्तु,
चरपटनाथ रचित ‘चरपट रसायन’ में पद्य के साथ-साथ गद्य के भी उदाहरण मिलते है। यह चिकित्सा शास्त्र का एक अमूल्य ग्रंथ है। इसकी भाषा का मूल रूप क्या था, इसका पता लगाना कठिन है। गद्य का स्वरूप देखने से यह मध्यकालीन प्रतीत होता है। चारण-साहित्य में विषय की दृष्टि से यह एक मौलिक रचना है।
भारतीय चिकित्साशास्त्र में रस का महत्वपूर्ण स्थान है। रसायन-विद्या आयुर्वेद की विशेषता है। प्रमुख चिकित्सक श्री गणनाथ सेन का कथन है – ‘आयुर्वेद के रसायन तंत्र के आविष्कारक हैं-रस वैद्य या सिद्ध सम्प्रदाय। इन लोगों ने कई सौ वर्ष पहले पारदादि धातु-घटित चिकित्सा का विशेष प्रवर्तन किया था। आर्षकाल में लोहा और शिलाजीत प्रभृति धातुओं का थोड़ा बहुत व्यवहार था जरूर, परंतु पारदादि का आभ्यंतर प्रयोग प्राय: नहीं था। रस वैद्य-सम्प्रदाय ने पहले पहल पारद के सर्व रोगनिवारक गुण का आविष्कार किया। इस सम्प्रदाय का गौरव एक दिन इतना ऊंचा था कि एक मात्र पारद से चतुर्वर्ग फल लाभ होता है। इस प्रकार का एक दार्शनिक मत उद्भूत हुआ था जो ‘रसेश्वर दर्शन’ नाम से प्रसिद्ध है। ‘
नाथ-सम्प्रदाय में रसायन विद्या अपना पृथक अस्तित्व रखती है। संदेह नहीं कि चरपट रसायन विद्या की एक समृद्ध परम्परा को लेकर अवतीर्ण हुए थे। उनकी जीवनी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे रसायन सिद्धि की खोज में थे और मृत्यु को वश में करने का सतत प्रयत्न कर रहे थे। गुरु नानक के ‘प्राण संगली’ नामक योग एवं रसायन विषयक ग्रंथ में चरपटनाथ और गुरु नानक की बातचीत के रूप में विविध रसायनों का उल्लेख है और संतों पर इस बातचीत का प्रभाव आचार्य डॉ० द्विवेदी ने परवर्ती साहित्य पर सत्यता के साथ स्वीकार किया है। श्री माधवाचार्य ने चरपटनाथ को रस-सिद्धि से जीवन मुक्त सिद्ध होना बताया है। अत: रस-वैद्य चरपट की प्रामाणिकता में कोई संदेह नहीं रह जाता।
नाथ-सम्प्रदाय के अन्य सिद्धों के सदृश चरपटनाथ का भी शिव के वीर्य-रस (पारा) में प्रबल विश्वास है। ‘चरपट रसायन’ में इस सिद्धान्त का बारम्बार प्रतिपादन हुआ है। इस ग्रंथ की एक खंडित हस्तलिखित प्रति मुझे श्री सीताराम लालस (जोधपुर) के पास देखने को मिली, जिसकी भाषा किसी भी अवस्था में प्राचीन नहीं कही जा सकती, किन्तु विषय एवं विचारों की दृष्टि से इस ग्रंथ की स्थापना सिद्ध रसायन-ग्रंथों में अवश्य की जा सकती है। इस ग्रंथ में वर्णित अलौकाक सिद्धियों को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं – १. मन की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली सिद्धियां, २. शारीरिक पीड़ाओं और रोगों को हरने वाली सिद्धियां एवं ३. विविध धातुओं को गलाकर सोना-चांदी बनाने वाली सिद्धियां। प्रथम प्रकार की सिद्धियों में बताया गया है कि किस प्रकार मनुष्य मनोवांछित फल की प्राप्ति कर सकता है तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर तत्काल पहुँच सकता है। यथा-
‘पारो ऊलूका अंडा मांहि मेलजे। मुष में नल लगइजै। ऊलू पषवारे त्यों त्यों गोली बँधे तब गुटिका निकले। तब मृग रुधिर सु षरलजे। तदा मुखो भवति तब दूध मांह मेलजे। दुध पीवे तब सिध होय। तब मुष में मेलजे। इच्छा करै ज्यांहां जावे। ‘
इसी प्रकार – ‘चकारो का अंडा मांह पारो मेलजे। मुष में नल लगइजे। पषवाई दे तो जाय जु गोली बधे तब ले आइजे। नीमु का रस में षरलजे। मासि १ मांहि मुष होय तब दूध मांहि मेलजे। तब दूध पीवे तब सीध होय। मुष मांहि मेलजे। इच्छा करे त्यां चले जावे। ‘
द्वितीय प्रकार की सिद्धियों में खोई हुई नेत्र-ज्योति पुन: प्राप्त करने, सर्प से काटे हुए व्यक्ति का विष उतारने, दमे की बिमारी से मुक्त होने तथा सफेद बाल काले करने की विधियां बताई गई हैं। यथा-
‘नील आंवला सार सुहायौ। तीन पांन पिनी रस धायौ। अरध सीस में दियो जुवाय्यौ। कुंभ चढ़ तो बाब रोटा। पांच मास को जापर सूता। जाके पाव कले कर सूता। निर गुंडी सूं बाधो जूता। ग्यान दृष्टि करे। गौरष जती। बावन तोला पाव रती। जाका घर मृत्यु वारता। नाग मरे तो होसी साब्ता। ‘
तृतीय प्रकार की सिद्धियों में कथीर और तांबा जैसी धातुओं को गलाकर व उसमें विशेष पुट देकर सोना-चांदी बनाने की युक्ति सिखाई गई है। यथा-
‘कथीर तातो कीजे वार पांच ५ तव कंदका रो भाग रो दीजे वायु तत्वम् रुपौ होय। कथीर गलावजे, वार ३ मल दुरी कीजे। वज्र कंदका पुट बावा सुरम दीजे रुपौ होय। कथीर गलावजे। स्वेत अर्क के पुट सह देई के पुट रुपौ होय। तांबो गालजे स्वेत के सूलाके रस रग। तांबो तातो कीजे ताम मेकरी पुट दीजे। षीर कंद की काली केवाई मदन पषाको।।मणिशिला।।स्वागा दीजे स्वर्ण होय। तांबो तातो कर स्वाग को रस बन कुकर के रस काला धतुरा को रस सोहागी भी छाड़ घी। एता पट दीजे। स्वर्ण होय। ‘
१६. ऊजळी:-
यहाँ चूँकि जिज्ञासु जी के शोध-ग्रन्थ को मूल स्वरुप में प्रकाशित किया जा रहा है अतः ऊजळी पर भी उन्होंने जैसा लिखा वैसा ही निम्न आलेख में प्रकाशित किया गया है किन्तु पाठकों/शोधार्थियों से अनुरोध है कि शोधपरक वास्तविक जानकारी के लिए कैलासदानजी उज्ज्वल के आलेख को यहाँ क्लिक करके जरूर पढ़ें। इससे ऊजळी के बारे में बनी भ्रामक धारणाओं के निराकरण में सहायता होगी तथा इसके बारे में व्यापक एवं सही जानकारी मिल सकेगी।
इस महत्वपूर्ण आलेख को उपलब्ध करवाने के लिए आदरणीय गिरधरदान जी रतनू “दासोड़ी” का हार्दिक आभार।
चारण जाति में पुरुषों के सदृश स्त्रियों ने भी काव्य-रचना की है। इस दृष्टि से ऊजली उनके साहित्य की प्रथम कवयित्री है। राजस्थान एवं गुजरात में इसका काव्य ‘जेठवा की वात’ के नाम से प्रचलित है। ‘राजस्थान’ शोध-पत्रिका के सम्पादक ठा० किशोरसिंह बार्हस्पत्य ने ‘डिंगल भाषा के प्राचीन ऐतिह्य’ नामक निबंध में ऊजली के जीवन-वृत्त से सम्बन्ध रखने वाली रोचक घटनाओं का विवरण दिया है। श्री जवेरचंद मेघाणी ने ‘सोरठी गीत कथाओ’ नामक ग्रंथ में इसकी सुकुमार जीवनकथा को स्पर्श किया है। इसी प्रकार डॉ० कन्हैयालाल सहल एवं श्री सूर्यकरण पारीक ने इस विषय पर अपने २ विचार व्यक्त किये हैं। ‘परम्परा’ जोधपुर के सम्पादक डॉ. नारायणसिंह भाटी ने ‘जेठवा अंक’ (१९५८ ई०) निकाल कर बड़ा उपकार किया है। इतना होते हुए भी ऊजली के जीवन-चरित्र का वैज्ञानिक ढंग से अन्वेषण करना अभी शेष है।
श्री मेघाणी के कथनानुसार ऊजली पांचाल के पर्वतीय प्रदेश में रहने वाले अमाराकाज की कन्या थी, जिसका धूमली नगर के जेठवा जाति के मेह (मेहा) नामक राजकुमार से प्रेम हो गया था। ठा० बार्हस्पत्य ने इसे पोरबन्दर (सुदामापुरी) के अमरा चारण की एक मात्र कन्या होना लिखा है। इसकी जीवन-चरित्र विषयक वार्तायें आज भी प्रवहमान है। पोरबन्दर के इतिहास में भी इसका और वहां के शासक मेह का प्रसंग आया है। यह प्रसंग साहित्य के विद्यार्थी के लिए अध्ययन का एक अत्यन्त दिलचस्प विषय है।
कहा जाता है कि अनावृष्टि से तंग आकर एक दिन ऊजली अपने वृद्ध पिता के साथ हालार प्रान्त (द्वारिका प्रदेश) में चली आई। अमरा जंगल में जाकर पशुओं को चराता और यह झोपड़ी में रहकर रोटी बनाती। इसकी अवस्था १८-२० वर्ष की हो चुकी थी, किन्तु धनाभाव से पिता योग्य वर नहीं ढूंढ सका। इस समय पोरबन्दर पर जेठवा जाति के राजपूत राजा मेह का राज्य था। सामान्य जनता में यह बात फैली हुई थी कि एक जैन यति ने काले मृग के सींग पर एक कागज लिखकर उसे कहीं बांध दिया है, इसलिए जहां-जहां वह मृग घूमेगा वहां २ वृष्टि नहीं होगी। एक दिन वह मृग नगर के निकट चला आया। लोगों ने जाकर राजा को सूचना दी और उसने तत्काल पीछा किया। कठिन दौड़-धूप के पश्चात् सूर्यास्त होने पर राजा ने मृग का वध कर दिया और सींग पर बंधे हुए कागज को जला दिया। फलतः मूसलाधार वृष्टि होने लगी। राजा ने घोड़े को राजधानी की ओर दौड़ाया, किन्तु भयंकर रात्रि एवं अनवरत झड़ी के कारण वह मार्ग भूल गया और घोड़े की पीठ पर ही मूर्छित होकर पड़ा रहा। बिजली के प्रकाश में घोड़े को एक झोपड़ी दिखाई दी, जहां अमरा अपनी कन्या के साथ जीवन के दुर्दिन व्यतीत कर रहा था। अर्द्ध रात्रि का समय था। घोडा झोपड़ी के बाहर आकर रुक गया। किसी अतिथि की आहट सुनकर वृद्ध अमरा ने आगन्तुक को ‘टाटी’ (द्वार) उठाकर भीतर आने के लिए कहा पर मेह तो मूर्छित पड़ा था। जब कोई उत्तर न मिला तब उसने पुन: कहा ‘मैं बहुत वृद्ध हूँ। बाहर आकर सहायता करने में असमर्थ हूँ। तुम जो कोई भी हो, घोड़े को वृक्ष से बांधकर भीतर चले आओ।’ इस पर भी कोई उत्तर नहीं मिला तब वह लाचार हो कर स्वयं बाहर आया और बिजली के प्रकाश में अतिथि की मुखाकृति देखने लगा। उसने घोड़े को पास वाले वृक्ष से बांध दिया, मेह को अपनी पीठ पर लिया और झोपड़ी में लाकर खाट पर सुला दिया। शीत से मूर्छित जानकर थोड़ी देर के लिए उसके पास लेटकर अपने शरीर की उष्णता देने का प्रयत्न किया, किन्तु उस वृद्ध में अब उतना तापमान कहां था? निदान, उसने अतिथि को उठाकर भीतर ऊजली की खाट पर सुला दिया और अपनी कन्या को उसके साथ सोने का आदेश दिया। साथ ही उसने यह भी कहा कि यदि वह ऐसा न करेगी तो अतिथि के मर जाने पर जो कलंक लगेगा, उससे उसके भी प्राण छूट जायेंगे। अपने पिता के विशेष अनुग्रह, अनुनय एवं अनुरोध से ऊजली ने निश्चेष्ट अतिथि के वस्त्र उतार कर अपने शरीर की उष्णता प्रदान की, जिससे वह चेतनावस्था को प्राप्त हो गया। प्रातःकाल ऊजली एवं अमरा का परिचय प्राप्त कर तथा रात्रि की सारी घटना का वृत्तांत सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ऊजली केवल इतना ही कह सकी ‘आज से तुम मेरे पति हो और यहीं मेरे पिता के साथ रहकर मुझको अर्द्धांगिनी के रूप में ग्रहण करो।’ अतिथि को स्वस्थ हुआ देखकर वृद्ध अमरा फूला न समाया। उसने भी मानवधर्म की महत्ता बताते हुए ऊजली के साथ विवाह करने की प्रार्थना की। अतिथि ने कोई उत्तर नहीं दिया, घोड़े पर जीन कसी और जाते समय इतना अवश्य कहा ‘मैं पोरबन्दर का राजा हाळामण जेठवा हूँ। आपका जमाई बनकर यहां रहना मेरे लिए असम्भव है। अभी आप मुझे बिदा दीजिए, क्योंकि मेरे सैनिक मुझे ढूंढते होंगे। मैं आपकी लड़की को पोरबन्दर से रथ भेजकर बुला लूंगा।’ अमरा ने यह सुनकर राजा को शुभाशीष देते हुए कहा- ‘मैं आपकी प्रजा हूं। इस बात को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता कि मेरी पुत्री को भूल मत जाना।’ राजा ऊजली से विवाह करना नहीं चाहता था, इसलिए टालमटोल कर चला गया। उसके चले जाने के पश्चात् ऊजली प्रतिदिन रथ की प्रतीक्षा करने लगी। कितने ही दिन व्यतीत हो गये पर उसके आने के कोई चिन्ह नहीं दिखाई दिये। ऊजली विरहाग्नि में जलने लगी। उसकी व्याकुलता देखकर अमरा पोरबन्दर पहुँचा, किन्तु वहां राजा से मिलने की साध पूरी नहीं हुई। जब निराश होकर वह लौट आया तब ऊजली स्वयं अपने पिता के साथ पोरबन्दर पहुँची। राजद्वार पर जाकर पहरेदारों से मिलने की प्रार्थना कराई। जब कोई उत्तर नहीं मिला तब वहीं तीन दिन तक अनशन व्रत लेकर बैठ गई। राजा ने महल के बाहर पैर भी नहीं रखा। इस अवज्ञा से दुर्बल नारीहृदय विदीर्ण हो गया और करुण चीत्कार करने लगा। अंत में इसका अनन्य प्रेम देखकर राजा का हृदय द्रवित हुआ और उसने इसे अपने पास बुलाकर समझाने-बुझाने की भरपूर चेष्टा की, किन्तु उसके सारे प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुए। ऊजली जिस विवाह को स्त्री-धर्म कहकर पुकारती थी, मेह उसी को गौ-हत्या के तुल्य एक जघन्य अपराध कहता था। दोनों अपने-अपने स्थान पर दृढ़ थे। जब किसी प्रकार समस्या का समाधान नहीं हो पाया तब ऊजली ने अपने इस जीवन के देवता को उस जीवन में प्राप्त करने के लिए सती होने का निश्चय किया। एक दिन वह इसके लिए घर से निकल ही पड़ी। बिजली की तरह यह समाचार सारे नगर में फैल गया। असंख्य नर-नारियां उसके दर्शनार्थ एकत्रित हुए। कोई राजा को कोसता था तो कोई ऊजली को। ग्राम-वनितायें उसकी चरण-रज को मस्तक पर लगाकर अपने को धन्य मानती थीं। ठा० बार्हस्पत्य के अनुसार जब ऊजली ने समुद्र में प्रवेश किया, तब उसके पवित्र शरीर से अग्नि धधक उठी और वह उसकी ज्वालाओं में सदैव के लिए अन्तर्हित हो गई। जब राजा को इसकी सूचना मिली तब उसे विश्वास हो गया कि उसकी मृत्यु भी निश्चित है। उसने दो दिनों तक भगवान का स्मरण किया। उसे इस बात पर हर्ष था कि वह अपने धर्म की रक्षा के लिए प्राणों का विसर्जन करेगा, कामातुर व्यक्ति की भांति नहीं। तीसरे दिन प्रातःकाल उसके शरीर में ताप बढ़ा और ‘हाय जला, हाय जला’ कहते हुए उसकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। श्री मेघाणी के अनुसार ऊजली मेह को राजप्रासाद में ही श्राप देकर अपने स्थान पर लौट आई थी और उसके पश्चात् सती हो गई। किंवदंती है कि ऊजली के श्राप से मेह को कोढ़ निकल आया और इसी से उसकी मृत्यु हो गई। प्रस्तुत प्रणय-गाथा में ऊजली और मेह का शारीरिक संस्पर्श आकस्मिक, अस्वाभाविक एवं अश्लील कह कर हंसी उड़ाने की वस्तु नहीं है। वृद्ध अमरा के चरित्र की दिव्यतम विभूति उसकी शरणागत-वत्सलता है। मानव-सेवा उसकी स्वभावगत विशेषता है। कहानी इसी भाव पर टिकी हुई है। द्वार पर आया हुआ अतिथि यदि चेतनावस्था में इस प्रकार के प्रस्ताव रखने का दुःसाहस करता तो वह उसकी खाल खींच देता, शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देता। जब ऊजली नीचा मुंह किये हुए मूक भाव से उसका उपदेश सुन रही थी तब वह उसे समझाते हुए यही कहता है- ‘बेटी ! मैं तेरे हृदय का भाव समझता हूँ। तू किसी परपुरुष के साथ वस्त्रयुक्त होकर भी नहीं सो सकती। तेरा स्त्री-धर्म इस बात की आज्ञा नहीं देता पर में भी अपना कर्त्तव्य खूब समझता हूँ। तू भी इस समय कुँआरी है। परपुरुष या स्वपुरुष का तेरे सामने प्रश्न ही नहीं है। जिसको में तुझे दूंगा, वही तेरा पति होगा। यह समझ कर तू मेरी आज्ञा का पालन कर और अतिथि-सेवा में किंचित मात्र भी त्रुटि न आने दे। अपने और तेरे दोनों के कर्त्तव्यों को समझ कर में तुझे यही आदेश देता हूँ कि तू इसके साथ सोकर अपने शरीर की उष्णता प्रदान कर। ‘
ऐसे आदर्श पिता की कन्या भी उत्तम गुणों से अलंकृत दिखाई देती है। यौवन काल में पहुँच कर ऊजली अन्य नायिकाओं के सदृश कामान्ध नहीं दिखाई देती। उसे सदैव अपने कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ध्यान बना रहता है। वह अपने वृद्ध पिता की सेवा में प्रतिक्षण तत्पर है। उसके चरित्र में पिता के वचनों का पूर्ण पालन दिखाई देता है। राजा दशरथ की जिस कठोर आज्ञा ने प्राणों से प्रिय राम को चौदह वर्ष के लिए बनवास भेज दिया, पिता की उसी निर्मम आज्ञा ने यहां एक अविवाहित भारतीय कन्या को अपना नारीत्व लुटा देने के लिए बाध्य किया। बाह्य दृष्टि से यह प्रसंग भारतीय मर्यादा के प्रतिकूल होने पर भी परिस्थिति के सर्वथा अनुकूल है। किसी को जीवन-दान देने से बढ़ कर और ऊंचा आदर्श क्या हो सकता है? पिता की अनुमति के साथ पति मान कर दिये गये इस जीवन-दान में नारी का कोई अपराध नहीं दिखाई देता। अपने पिता के बार-बार के आदेशों से जब ऊजली किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गई, तब अतिथि की खाट के चारों ओर सात प्रदक्षिणा लगा कर वह मन ही मन श्री जगदम्बा से
प्रार्थना करने लगी- ‘हे भगवती! मुझे कुँआरेपन की अवस्था में किसी के साथ सोने का अधिकार नहीं है, फिर भी पिता के आदेश से यह कार्य कर रही हूँ। यह पति चाहे किसी भी जाति का हो, मैंने अपने पिता की आज्ञानुसार इसको पति रूप में वरण किया। अब इसकी अर्द्धांगिनी बन कर इस मृत्युमुख में पड़े हुए अतिथि के साथ शयन करती हूँ, मेरे सौभाग्य की रक्षा कर और मेरे शरीर की उष्णता से इस निश्चेष्ट व्यक्ति के शरीर में उष्णता का संचार कर।’
अमरा एवं ऊजली के उज्ज्वल चरित्र के साथ मेह का चरित्र भी पीछे रहने वाला नहीं है। वह स्वेच्छा से ऊजली के द्वार पर प्रणय की भिक्षा मांगने नहीं आया था। मूर्छित अवस्था में उसके साथ जो कुछ हुआ, उससे वह स्वयं भी अनभिज्ञ था। प्रातःकाल रात्रि की उपकार-कथा का श्रवण कर वह आश्वासन देने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकता था? ऊजली यदि चारण कुल में जन्म न लेती तो शायद वह उसे वरण कर लेता, किन्तु एक राजपूत के लिए किसी चारण-कन्या को पत्नी के रूप में स्वीकार करना क्षत्रिय धर्म के प्रतिकूल है। एतदर्थ, ऊजली उसकी बहिन हो सकती है, पत्नी कदापि नहीं। यहां मेह अपने जातिगत धर्म का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता हुआ हमारे सामने आता है। राजप्रासाद में ऊजली को समझाते हुए वह कितना स्पष्ट बोलता है- ‘हे बहिन! जिन भिन्न-भिन्न जातियों में हम दोनों का जन्म हुआ, उनमें प्रेमी-प्रेमिकाओं का सम्बंध कभी हुआ ही नहीं और न आगे हो ही सकता है। उनमें तो जब कभी हुआ तब बहिन-भाई का ही सम्बन्ध हुआ। फिर तू मुझसे यह आशा कैसे कर सकती है? यदि तू चाहे तो मैं किसी सम्भ्रांत चारण के साथ तेरा विवाह कर तेरे उपकार के बदले में अपना आधा राज्य एवं आधा महल तुझे दे दूं, परन्तु यह आशा कभी न रख कि हमारा दाम्पत्य सम्बंध भी हो सकता है। तू मेरी बहिन है और मुझे अपना भाई समझ। किसी चारण के साथ अपना विवाह कर ले।’
‘जेठवा की बात’ और उसके प्रमुख पात्रों के चरित्र-चित्रण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रेम-पद्धति, एवं आदर्श की दृष्टि से यह आख्यान अद्वितीय है। इस इतिवृत्त से अमरा के आतिथ्य-सत्कार, ऊजली के पतिव्रत-धर्म एवं मेह की सदाचार-रक्षा पर आश्चर्यचकित होकर रह जाना पड़ता है। साहित्य के विद्यार्थी को यह बात विस्मय में डालने वाली होगी कि प्रेम का ऐसा अनूठा प्रसंग भारतीय साहित्य में तो क्या विश्व-साहित्य में भी दुर्लभ है।
ऊजली के आविर्भाव-काल को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। डॉ. मेनारिया इसका समय १०४३ ई० मानते है। ठा० बार्हस्पत्य ने इस चरित्र को १२वीं शताब्दी से पूर्व का नहीं माना है। पोरबन्दर के इतिहास जो जनश्रुतियों का आश्रय पाये हुए हैं, इसका समय ८वीं शताब्दी के आसपास बताते हैं। अधिकांश लोगों ने जेठवा जाति को हनुमानवंशीय मान कर इसे प्राचीन ही सिद्ध करने का प्रयास किया है। मेरे अनुमान से ऊजली का समय १२वीं शताब्दी (पूर्वार्द्ध) है क्योंकि इसी शताब्दी में मेह का उल्लेख आता है।
मेह और ऊजली की प्रेम-कहानी राजस्थानी दोहों में बिखरी हुई है, जो अधिकांश में श्रुतिनिष्ठ है। अत: इन दोहों की भाषा के प्रामाणिक रूप का पता लगाना कठिन है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये सबके सब दोहे ऊजली-विरचित नहीं माने जा सकते। हां, अपने प्रेम-पात्र मेह जेठवा को सम्बोधित कर जो दोहे कहे गये हैं, वे कवयित्री की अपनी मौलिक उद्भावनायें प्रतीत होती हैं। शेष उसके नाम से परवर्ती चारण कवियों द्वारा जोड़े गये हैं, क्योंकि उनमें राजस्थानी भाषा का मध्यकालीन रूप देखने को मिलता है। राजस्थान एवं गुजरात में ऊजली के नाम से उपलब्ध होने वाले नये-पुराने दोहे-सोरठों की संख्या १५०-२०० तक पहुंच जाती है।
ऊजली-काव्य का भाव-पक्ष सर्वथा निर्दोष है। ऊजली के चिर तृषित हृदय ने मेह को पुकार कर जो हृदयोद्गार प्रकट किये हैं, वे श्रंगार रस की अमूल्य मणियां है। वियोग की नाना अन्तर्दशाओं से यह काव्य भरा पड़ा है। इनमें छटपटाते हुए नारी हृदय की जो विकल रागिनी प्रतिध्वनित हुई है, वह काव्य-रसिकों के अन्तस्तल को झकझोरने में पूर्ण सक्षम है। अपने हृदय के मनोभावों का प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर ऊजली ने अपने काव्य में स्थानीय रूप, रस और गंध का भी सन्निवेश कर दिया है। बारहमासे की परम्परा का सूत्रपात यहीं से होता है। यदि सच पूछा जाय तो ऊजली का सुकुमार यौवन ही संयोग-वियोग की एक अनूठी उक्ति है। उसकी वाणी का प्रत्येक शब्द स्वयं कविता है। उसे पाकर कोई भी साहित्य धन्य हो सकता है। कथा के उतार-चढ़ाव के अनुसार यह सम्पूर्ण दोहा-साहित्य तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हे-
१ – ऊजली एवं मेह का प्रथम मिलन। २ – संभोग-श्रंगार। ३ – वियोग-पक्ष।
प्रथम मिलन और संभोग-श्रंगार के दोहे संख्या में बहुत थोड़े हैं और केवल गुजराती भाषा में ही उपलब्ध होते हैं। यह लक्ष्य करने की बात है कि इन दोहों में ऊजली के यहां मेह के आने-जाने का भी संकेत मिलता है। श्री मेघाणी के मतानुसार प्रथम मिलन के पश्चात् मेह ऊजली के सुरम्य पर्वतीय निवास स्थान पर आता-जाता रहता और विवाह के मनसूबे बनाता रहता था। इस कथन की सत्यता के लिए अनुसंधान की आवश्यकता है। ऐसे कतिपय दोहों पर विचार करना असंगत न होगा। ऊजली और मेह के प्रथम मिलन का यह दोहा प्रसिद्ध है-
अमरा काजनी ऊजळी, भाण जेठवा नो मेह।
जे दिनां सूतेल साथ रे, ते दिनां बांधेल नेह।।
प्रथम मिलन के पश्चात् ऊजली का प्रेम विशेषोन्मुखी हो जाता है। वह मेह को अपना सच्चा विश्वासपात्र समझ कर स्पष्ट शब्दों में कहती है कि उसने सारे संसार को ढूंढ लिया किन्तु उसके हृदय को विश्वास देने वाला भाण जेठवा का पुत्र मेह ही मिला-
जमीं ढमढ़ोळे, संसारे शोधी वळी।
मन नो पारख मे भेदु मळियो भाण नो।।
ऊजली को अपनी यौवन-वाटिका के विकसित पुष्पों पर गर्व है। वह जानती है कि कोई रसग्राही भ्रमर ही मधु-संचय कर सकता है, बेचारी मक्खियां उसका मूल्य क्या समझें ?
फरतां आवेल फूल, माळी कोई मळियो नहिं।
माख शुं जाणै मूल, भमर पाखे भाण ना।।
ऊजली को अपने प्रियतम का सहवास अत्यंत सुखदाई है। वह अपने माता-पिता और सगे-सम्बन्धियों के बिना जीवन-यापन कर सकती है लेकिन उसके बिना नहीं। शनै: शनै: एक अवस्था वह भी आ पहुँची जब ऊजली को मेह के आने में ही उमंग और जाने में जलन दिखाई देने लगी-
तुं आव्ये उमा घणो, तुं ग्ये गळे झलाण।
मे थाने मेमान, ब घड़ी बरड़ाना वणी।।
प्रस्तुत दोहा-काव्य का प्रमुख आकर्षण संयोगकालीन शीतलता नहीं वरन् वियोग की वह दाहकता है, जिसमें झुलस कर नारी-हृदय रात-दिन नयनों के मार्ग से फूट-फूट कर बहता रहता है। ऊजली को क्या पता था कि वरदान बन कर आया हुआ रात का अतिथि प्रातःकाल एक क्षत्रिय राजकुमार के रूप में उसके जीवन का अभिशाप बन जायगा? ऊजली का क्षण भर का संयोग जीवन भर का वियोग बन बैठा। चिराग जला ही था कि जातिवाद के क्रूर झोंके ने उसे बुझा दिया। इस प्रकार ऊजली का संयोग-श्रंगार यदि रात्रि भर का प्रकाश है तो उसका वियोग शेष जीवन की घोर अमावस्या। इस विरह-प्रसंग में कितनी करुणा है, कितने आंसू है, कितनी कातरता है और है कितनी विवशता!
मेह के बिदा हो जाने पर ऊजली सदैव उसकी मधुर प्रतीक्षा में पलकें बिछाये बैठी रहती। आज कितने दिन हो गये, वह निष्ठुर हृदय पुन: न लौटा। ऊजली जब ऊँचे टीले पर खड़ी होकर दूर से आने वाले अश्वारोहियों को देखती हैं तब उसके हृदय में आशा का नव संचार होने लगता है किन्तु पास आने पर जब उसका प्राणाधार नहीं दिखाई देता तब वह विलाप करती हुई कहती है-
वे दीसे असवार, घुडला री घूमर कियां।
अबला रो आधार, जको न दीसै जेठवा।।
श्रंगार के अंतर्गत प्रिय के न आने को सम्भावनाओं का वर्णन कवियों का एक विशेष कौशल रहा है। ऊजली विचार करती है, ‘कहीं उसका स्वामी परदेश तो नहीं चला गया, उसकी स्त्री (बिजली) ने तो उसे नहीं रोक दिया अथवा कहीं वह बीमार तो नहीं हो गया’-
नाणे दाणो नव मळे, नारी छांडे नेह।
(कां) बीजळीये वळुंभीऔ, (कां)मांदो पड्यो मेह।।
प्रतीक्षा करने की भी सीमा होती है। प्रिय के न आने की सम्भावना से ऊजली का हृदय भर आया। वह अपने कृष्ण-मिलन की मधुर आशा में घर से निकल ही पड़ी। स्थान की दूरी का क्या भय? मार्ग में बरसने वाले अंगार श्रंगार बन गये, दुर्गम घाटी सोहाग-शैय्या का रूप ले बैठी। राजभवन में उपस्थित होकर जैसे ही उसने जेठ रूपी सघन छांह देखी वैसे ही उसका श्रांत-क्लांत मन सरसित हो उठा-
तावड़ तड़तड़तांह, थळ साम्है चढ़तां थकां।
लाधो लड़थड़तांह, जाडी छाया जेठवो।।
जब मेह का पाषाण-हृदय किसी प्रकार से तरल-स्निग्ध नहीं हुआ तब ऊजली उपालंभ देने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकती थी?–
पाबासर पैसेह, हंसां भेळा ना हुवो।
बुगळां संग बैसेह, जूण गमाई जेठवा।।
विपदा अकेली नहीं आती, वह शत-शत पीड़ाओं को साथ लेकर आती है। मेह से चोट खाकर ऊजली वियोग की उस कठोर चट्टान पर जा गिरी, जहां उसे उठाने वाला कोई न मिला। दुर्भाग्य से वृद्ध अमरा भी उसे अकेली छोड़ कर चल बसा। जीवन का रहा-सहा सहारा भी छूट गया। अब उसे पूर्ण वियोग-दशा ने आ घेरा। यह दृश्य कितना मर्मान्तक, हृदय-विदारक एवं अनुभूतिमय हैं? काव्य के रूप में प्रस्फुटित होकर इसमें एक विशेष सौन्दर्य आ गया है। जैसे-जैसे ऊजली की दृष्टि अपने प्रियतम की खोज में दूर-दूर तक जाती है, वैसे-वैसे नये-नये उपमान आप ही आप खड़े होते जाते है। वर्णन-प्रणाली अत्यंत सरल, सुबोध एवं स्वाभाविक है। काव्य के आभूषण स्वत: ऊजली के चरणों में आ लिपटते हैं। बन में विचरण करने वाली स्वच्छन्द हिरणों की टोली को रमते हुए देख कर रमणी का हृदय भर आया। वह विलाप करती हुई कहती है-
टोळी सूं टळियांह, हिरणां मन माठा हुवै।
बालम बीछड़ियांह, जीवै किण विध जेठवा।।
ऊजली के हृदय को रह-रह कर यह बात कुरेदती रहती है कि मेह ने उसकी पीड़ा का अनुभव नहीं किया। यदि किया होता तो वह तीर चला कर उसे आहत न करता-
परदेशी नी पीड, जेठी राण! जाणी नहि।
ताणी ने मार्यां तीर, भाथे भरी ने भाणना।।
अवश्य ही वह अफीम की तरह कुछ कडुवे वचन कह आई है अन्यथा ज्वर में जैसे रोगी अन्न का त्याग कर देता है, वैसे मेह उसे न ठुकराता-
तावमां माणस जेम, आघां ठेले अन्न ने।
मेने लागी ऐम, अफीण रोखी उजळी।।
ऊजली को वियोग का वज्रपात सहना ही पड़ा। वह अपने शरीर के क्षण-क्षण क्षीण होने की तुलना रेतीली नदी की वेरी (रेत खोद कर बनाई हुई जल-कुंडी) से करती है। वेरी का जल जैसे शनैः शनैः कम होता जाता है वैसे ही उसका हृदय-सरोवर सूखता जा रहा है। इसका कोई उपचार नहीं, अत: वह जीवित रहे भी तो कैसे?–
हियोज डुल डुल जाय वेकर री वेरी ज्यों।
कारी न लागै कांय, जीवूं किण विध जेठवा।।
ऊजली प्रेम के पासे को ‘अंगूठे री आड़’ कहती है। इसके लगने से रात भर जक (चैन) नहीं पड़ती-
अंगूठे री आळ, लोभी लगवाड़ै गयो।
सूनी सारी रात, जक न पड़ी रै जेठवा।।
जिस जाति के कड़े नियम दो सरल युवकों को गले नहीं लगने देते, उस समाज में भला ऐसे प्रेम की प्रतिक्रिया क्यों नहीं होती? विशेषत: राजपूत और चारण जाति में ऊजली बहुत दिनों तक वाद-विवाद का विषय अवश्य रही होगी। कठोर हृदय वाला मेह तो महलों में जाकर बैठ गया, किन्तु ऊजली अपने भरे हुए यौवन को लेकर किसके पास जाय? सारे संसार में यह बात फैल चुकी है कि ऊजली जोगण हो गई है–
जोबन पूरै जोर, मांणीगर मिळियौ नहीं।
सारे जग में सोर, (हूं) जोगण होगी जेठवा।।
अत: ऊजली की दीन वाणी अपने स्वामी को आत्म-समर्पण करती हुई कहती है कि जब उसके बिना एक घड़ी भी व्यतीत नहीं हो सकती तब शेष जीवन कैसे कटेगा? उस बिलखती हुई अबला को जोगण बनाने वाला जेठवा नही तो और कौन है?–
तो बिन घड़ी न जाय, जमवारो किम जावसी।
मो बिलखतड़ी नार, जोगण करगो जेठवा।।
समय के साथ ऊजली प्रेमाग्नि में तप कर स्वर्ण की भांति उज्ज्वल होती गई। एक बार पति मान लेने पर वह तो मेह के साथ जन्म-जन्मान्तर के लिए बंध चुकी थी। समय का कोई क्षण, वायु का कोई झोंका उसे पृथक नहीं कर सकता था। यह कैसी विडम्बना है कि मेह को अपनी जीवनदायिनी का कोई ध्यान नहीं। यदि ऊजली के स्थान पर लंदन की सड़कों पर फिरने वाली कोई पाश्चात्य रमणी होती तो प्रतिशोध की ज्वाला से धधक उठती, न्यायालय की शरण लेकर मेह से किनारा करती अथवा कम से कम अपने भावी जीवन का कोई नया उपक्रम बनाती। भारतीय नायिकाओं के भाग्य में तिल-तिल जलने के अतिरिक्त और लिखा ही क्या है? वे अश्रु-जल से अपने प्रेम-पौधे को सींचती आई हैं। उनका सारा ध्यान केवल एक स्वामी की ओर ही केन्द्रित हो जाता है। स्वभावत: ऊजली के हृदय में भी मेह की ही चिन्ता है, मन उसी के ध्यान में मग्न है, अन्तःकरण उसी के लिए लालायित है, चित्त उसी की चाह में बेचैन है, सारे रोम-रोम में वही समाया हुआ है, सम्पूर्ण जीवन उसी का पक्षपाती है। लाख छटपटाने पर भी ऊजली का मन किसी अन्य व्यक्ति की ओर नहीं आकर्षित हो सकता। उसे तो जेठवा के अभाव में सारा संसार ही सूना दिखाई देता है–
आवै और अनेक, जाँ पर मन जावै नहीं।
दीसै तो बिन देख, जागा सुनी जेठवा।।
ऊजली के स्वर में चातक के सदृश प्रेम की अनन्यता है। जिस प्रकार चातक स्वाति नक्षत्र के जल को छोड़ कर अन्य किसी जल का सेवन नहीं करता उसी प्रकार ऊजली मेह के अतिरिक्त किसी अन्य के प्रेम को स्वीकार नहीं करती-
बापैयो बीजे, पालर वण पीवे नहीं।
समदर भरियो छेः, (तोय) जल नो बोटे जेठवा।।
सच है पाबासर (मानसरोवर) के शीतल जल से जिसने अपनी प्यास बुझाई हो, वह छोटे-छोटे नाडकिये (पोखर) के पास कैसे जा सकती है हैं—
जळ पीधो जाड़ेह, पाबासर रे पावटे।
नैनकिये नाड़ेह, जीव न ढूके जेठवा।।
ऊजली पुकार-पुकार कर कहती है कि मेह ने उसके हृदय-कपाट में ऐसा दृढ़ ताला लगा दिया है जो उसके आने पर ही खुल सकता है अन्यथा जुड़ा ही रहेगा-
ताळा सजड़ जड़ेह, कूंची ले कानै थयो।
आयां ही उघड़ेह, (नहिं) जड़िया रहसी जेठवा।।
ऊजली चकवा एवं सारस की अभिन्न जोड़ी देख कर सोचती है काश मेरी भी ऐसी होती-
जोड़ी जग में दोय, चकवे नै सारस तणी।
तीजी मिळी न कोय, जो जो हारी जेठवा।।
प्रेम के एकांत मंदिर में अर्चन-पूजन करने वाली यह तपस्विनी बाला न तो अपने देवता का रहस्य ही जान पाई, न उसके दर्शन ही हो सके, उसका सारा जीवन सूने मन्दिर में सेवा करते करते बीत गया-.
दरसण हुआ न देव, भेष विहूणा भटकिया।
सूनो मंदिर सेव, जनम गमायो जेठवा।।
ऊजली पर अपने स्वामी का ही अत्याचार नहीं है। आज प्रकृति-देवी भी उससे रूठी हुई है। सृष्टि का कण-कण उसे सताने में लगा हुआ है। उसने अपनी इस वियोग-दशा को ‘बारहमासे’ के रूप में दिखाया है। प्रत्येक ऋतु-परिवर्तन का उसके हृदय पर क्या प्रभाव पड़ा है, उसे चित्रित किया है। जो सुख के क्रीड़ास्थल थे, वे दुख के मरुस्थल बन गये है। वियोग पक्ष की मार्मिक अभिव्यंजना के लिए बारहमासे का यह प्रसंग राजस्थानी साहित्य की अक्षय सम्पदा है। इसमें नारी-हृदय की वेदना प्रकृति के प्रत्येक दृश्य को देख कर तीव्रतम हो उठी है। कार्तिक महीने से आरंभ होकर आसोज महीने तक ऋतु-वर्णन के साथ यह प्रसंग समाप्त हो जाता है। प्रत्येक-महीने के लिए एक-एक सोरठा उपलब्ध होता है किन्तु वर्षा-ऋतु से संबंध रखने वाले सौरठे कुछ अधिक है। क्यों न हो, मेह वर्षा का रूप जो ठहरा।
कार्तिक महीने में जब शरद-काल का आगमन होता है तब नायिका का कोमल शरीर कांपने लगता है। ऐसे समय में वह अपने प्रियतम से प्रेम रूपी ओढ़ण (वस्त्र) की याचना करती है-
कारतक महीना मांय, सौने शियाळो सांभरे।
टाढडीयुं तन मांय, ओढ़ण दे आभपरा-धणी।।
मिंगसर महीने में सब मनुष्यों के श्वास एक श्वास हो जाते हैं। ऐसे समय में प्रियजन दूर नहीं रहते। कौन समझाये, ऊजली को अब भी विश्वास बना हुआ है कि मेह उसके पास अवश्य आयेगा-
मागशर मां मानव तणा, सहुना एकज श्वास।
(ई) वातुं नो विशवास जाण्युं करशे जेठवो।।
माह महीने में विवाह की ऋतु होने से डोल-नगाड़े बजते हैं। ऊजली अधीर होकर कहती-हे वेणु पर्वत के स्वामी! तुम कुंकुम-पत्रिका भेजो, मैं तुम्हारा स्वागत करूंगी-
माह महिना माँय, ढोल त्रंबाळू धूशके।
लगन चोखां ले आव, वधावुं वेणुना धणी।।
फागुन महीने में केशू आदि अनेक प्रकार के खिले हुए फूलों को देख कर ऊजली कहती है-‘हे आभपरा के राजा! आप आकर इन फूलों को मूल्यवान बनाइये-
फागण महिने फूल, केसूड़ां कोळ्यां घणां।
(ऐनां) मोघा करजो मूल, आवी ने आभपरा धणी।।
जेठ महीना तो इतना विषम हो गया कि बैलों के कंधे भी सूख गये। ऊजली के अन्तःकरण की भी यही दशा है-
जेठ वसमो जाय, धर सूकी धोरी तणी।
पूछल पोरा खाय, जीवन बिनानां जेठवा।।
वर्षा-ऋतु में आवागमन प्राय: अवरुद्ध हो जाता है। मिलन की तीव्र उत्कण्ठा एवं प्रिय के न आने का संताप नायिका को बराबर बना हुआ है। ऐसे समय में मेह का रूपक बांध कर ऊजली ने अनेक मर्मस्पर्शी उद्गार प्रकट किये हैं। कभी वह प्यासी धरती पर गिरने वाली बड़ी-बड़ी बूंदों को देख कर अपने प्रिय से प्रेम की दो बूंदों के लिए प्रार्थना करती है-
मोटे पणगे मेह, आव्यो धरती धरवतो।
अम पांतीनो अेह, झाकळ न वरस्यो जेठवा।।
कभी वह सोचती है कि दावानल से दग्ध उसके जीवन-बन की एक-आध बूंद से रक्षा नहीं हो सकती, अत: वह सतत वर्षा का आव्हान करने लगती है-
दावळनां दाझेल, पणगे पालवीअें नहि।
एक वार अेली करे ! वन काळे वेणु-धणी।।
कभी वह आसमान के थोथे (खाली) बादल को गुजरता देख कर अपने प्रणय की प्रवंचना का परिचय देती हुई कहती है-
डहक्यो डंफर देख, बादळ थोथो नीर बिन।
आई हाथ न एक, जळ री बूंद न जेठवा।।
पता नहीं, पूर्व जन्म में ऊजली ने ऐसा कौनसा पाप किया था जिसके फलस्वरूप इस जन्म में उसे यह नरक-यंत्रणा सहने को मिली। उसके जीवन की अंतिम अभिलाषा यह है कि वह अपने शरीर को जला कर नवजीवन प्राप्त कर ले और इस लोक में नहीं तो उस लोक में अपने पति का वरण करे-
जाळू म्हारा जीव, भसमी नै भेळो करूं।
प्यारा लागो पीव, जूंण पलटलूं जेठवा।।
हिन्दू नारी की यह महत्वाकांक्षा भारतीय संस्कति की चिरस्थायी थाती है। मेह ऊजली की दुखांत प्रणय-गाथा का यही सुखान्त है।
*******दूसरा अध्याय समाप्त*******
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