चारण साहित्य का इतिहास – तीसरा अध्याय – प्राचीन काल
प्राचीन काल
(सन् ११५०-१५०० ई.)
(१) – काल विभाजन
भारतीय साहित्य में यह समय चारण-काल के नाम से प्रख्यात है। राजस्थान अपने प्राचीन साहित्य में समृद्ध है। यहां अन्य प्रान्तों की अपेक्षा अधिक रचनायें लिखी गई जिनसे साहित्य-संसार अपरिचित है। यद्यपि मां सरस्वती के द्वार प्रत्येक व्यक्ति एवं जाति के लिए समान रूप से खुले पड़े हैं तथापि यहां साहित्य का विकास अधिकांशत: धार्मिक भावनाओं के कारण हुआ। ब्राह्मण एवं जैन काव्य-धाराओं की गंगा-यमुना पहले से ही चली आ रही थी। चारण कवियों की सरस्वती ने मिल कर उसमें एक नवीन राग उत्पन्न कर दी। कहना न होगा कि इन कवियों की कठोर साधना से काव्य ने एक नवीन दिशा ग्रहण की और उसमें पृथक रूप, रंग एवं रस की स्थापना हुई। भाषा की दृष्टि से भी यह काल पृथक महत्व रखता है। इस काल की रचनाओं से जान पड़ता है कि राजस्थानी अपभ्रंश से पृथक होकर अपना स्वतंत्र मार्ग संधान करने लग गई थी और उसमें काव्य-रचना का कौशल भी प्रकट होने लग गया था। इन समस्त विशेषताओं को दृष्टि-पथ पर रखते हुए इस परिवर्तन काल को प्राचीन काल की संज्ञा दी गई है।
(२) – राजनैतिक अवस्था
(क) राजस्थान एवं केन्द्रीय सत्ता:- महमूद गजनवी के निर्दय अभियानों ने मुसलमानों के लिए भारत का द्वार खोल दिया था। उन्होंने लूट-खसोट, मार-काट एवं राज्य छीनने की लालसा से राजस्थान पर भी आक्रमण किये किन्तु क्षत्रिय शूरवीरों ने इस वीर-भूमि पर उनके पांव स्थायी रूप से नहीं जमने दिये। राजाओं एवं उनके योद्धाओं ने प्राणों की बलि देकर भी अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा की। इस काल में मुसलमानों के पांच खानदान गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद एवं लोदी (पठान-अफगान) दिल्ली पर राज्य करते रहे किन्तु राजस्थान पर उनका सिक्का नहीं जम पाया। कालांतर में घरेलू झगड़ों एवं पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष के कारण विदेशी सभ्यता एवं संस्कृति की धूमिल रेखायें राजनीति के क्षितिज-पट पर दिखाई देने लग गई।
मुहम्मद गौरी के राजनैतिक क्षेत्र में अवतीर्ण होते ही राजस्थान की चिर-प्रतिष्ठित कीर्ति का शनै: शनै: हास होने लगा। महाराजा पृथ्वीराज चौहान के साथ ही स्वाधीनता का सूर्य सदैव के लिए अस्त हो गया। गौरी के तुर्क गुलाम व सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक के समय में दिल्ली मुसलमान राज्य की राजधानी हुई (११९३ ई०) ऐबक ने हरिराज को परास्त कर अजमेर पर अपना अधिकार कर लिया (११९५ ई०) और वहां अपना हाकिम नियुक्त किया। इस प्रकार राजस्थान के ठीक मध्य में मुसलमानों का अधिकार हो गया। फिर तो वे राजस्थान और उसके समीपवर्ती प्रदेशों पर अपना प्रभुत्व बढ़ाते ही गये। सन् ११९५ ई० में तहनगढ़ (करौली) भी उनके अधिकार में चला गया। गोरी के मरने पर कुतुबुद्दीन ऐबक भारत का सर्व प्रथम मुसलमान बादशाह हुआ (१२०६ ई०) जब उसका गुलाम शमशुद्दीन अल्तमश दिल्ली का सुलतान बना (१२१० ई०) तब उसने जालोर, रणथम्भोर, मंडोर, सवालक एवं सांभर पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की और वहां के राजाओं को अपने अधीन किया। उसने मेवाड़ पर भी आक्रमण किया, किन्तु जैत्रसिंह से हार कर भागना पड़ा। इसके पश्चात् मुसलमान राजस्थान में कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं कर पाये।
दिल्ली के खिलजी खानदान के समय अलाउद्दीन खिलजी ने हमीर चौहान से रणथम्भोर का किला ले लिया (१३०० ई०) और इस प्रकार वहां के चौहान राज्य का अंत हो गया। उसने चित्तौड़ राज्य पर भी विजय प्राप्त कर (१३०३ ई०) अपने बेटे खिज़रखाँ को वहां का किला सौंप दिया। इस युद्ध में रावल रत्नसिंह और उसके कई सरदार काम आये तथा रत्नसिंह की रानी पद्मिनी ने सैकड़ों राजपूत रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में प्रवेश कर अपने सतीत्व की रक्षा की। सन् १३०८ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने सिवाने का किला (जोधपुर) वहां के चौहान सातल को मार कर ले लिया और सन् १३११ ई० में उसने जालोर पर आक्रमण किया, जहां के चौहान राजा कान्हडदेव एवं उसका पुत्र वीरमदेव दोनों ही वीरतापूर्वक लड़ कर काम आये। इस प्रकार जालोर के चौहान राज्य का भी अंत हो गया।
तुगलकों के शासन-काल में दिल्ली के मुसलमानी राज्य को जर्जर होते देख कर राजस्थान के क्षत्रिय नरेशों ने खोये हुए राज्यों को पुन: अपने आधिपत्य में कर लिया। फीरोजशाह के बेटे मुहम्मदशाह के समय में मालवा का हाकिम अमीशाह स्वतंत्र सुलतान बन गया और उसने मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह पर आक्रमण कर दिया, किन्तु उसे मुंह की खानी पड़ी और राज-पाट छोड़ कर भाग जाना पड़ा। फिर तो महाराणा कुंभा, रायमल एवं सांगा को न जाने कितने युद्ध मांडू (मालवा) के सुलतानों से लड़ने पड़े। तुगलक बादशाह की निर्बलता को देख कर गुजरात का हाकिम ज़फरखाँ ने नागौर (जोधपुर) पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर दिया। मेवाड़ के महाराणा मोकल, कुंभा, सांगा, विक्रमादित्य आदि ने गुजरात एवं नागौर के सुलतानों से अनेक बार लोहा लिया था।
तुगलक वंश के राज्य-काल में अमीर तैमूर का तूफान दिल्ली आया (१३९८ ई०) जिससे केन्द्रीय शक्ति अत्यंत क्षीण हो गई। तैमूर ने आक्रमण कर भटनेर (बीकानेर) का किला ले लिया और दिल्ली को लूट कर उसे तबाह कर दिया। इससे तुगलक शिथिल पड़ गये और सैयदों ने उनसे राज्य छीन लिया। वे भी थोड़े ही वर्ष राज्य कर पाये थे कि लोदी पठानों ने उनसे तख्त हड़प लिया। इस खानदान के बहलोल तथा सिकन्दर लोदी ने राजस्थान पर आक्रमण किये किन्तु यहां उनका कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा।
(ख) प्रांतीय शासक एवं शासन-व्यवस्था:- राजस्थान में यवन आक्रमणकारियों की काली घटाओं को वीर क्षत्रिय नरेशों के प्रचण्ड पवन ने बिखेर दिया, जिससे कुछ काल के लिए यहां परतंत्रता का अंधकार नहीं हो पाया। इस काल में मेवाड़, मारवाड़ एवं आम्बेर राज्यों ने राजनैतिक स्वतंत्रता को जी-जान से सुरक्षित बनाये रखा। इन सब में मेवाड़ की वीरता अद्वितीय थी। रावल जैत्रसिंह (१२१३-५२ ई०) उत्तर एवं दक्षिण के समस्त राजाओं का मान-मर्दन करने वाला महाराजाधिराज माना गया है। समरसिंह (१२७३-१३०१ ई०) ने गुजरात को मुसलमानों के पंजे से मुक्त किया। जब रतनसिंह (प्रथम) के समय चित्तौड़ छलकपट से अलाउद्दीन खिलजी के हाथ में चला गया (१३०३ ई०) तब साहसी हमीर ने उसे पुन: अपने अधिकार में लिया। (१३२६ ई०) और ‘विषम घाटी पंचानन’ की उपाधि प्राप्त की। इसी प्रकार महाराणा क्षेत्रसिंह (१३६४-८२ ई०) , लक्षसिंह (१३८२-१४२१ ई०) एवं मोकल (१४२१-३३ ई०) की वीरता ने बाह्य आक्रमणकारियों को स्पष्ट कर दिया कि क्षत्रिय जाति से युद्ध करना प्राणों को संकट में डालना है। महाराणा कुंभा (१४३३-६८ ई०) अपने समय का एक माना हुआ योद्धा था जो गुजरात, मालवा एवं नागौर के सुलतानों को कई बार परास्त कर उनके मस्तिष्क में कील की तरह गड़ गया था।
मेवाड़ के सदृश मारवाड़, आम्बेर एव जैसलमेर राज्यों को भी अपने शौर्य-पराक्रम पर कम गर्व नहीं था। जोधपुर के संस्थापक राव जोधा तक प्राय: सभी नरेश जिनमें टीडा, सलखा, मल्लिनाथ, चूंडा एवं रणमल के नाम उल्लेखनीय हैं, शक्तिशाली थे। जैसलमेर के महारावल विजयराज (दूसरा) को मुसलमानों की कमर तोड़ने के उपलक्ष में ‘उत्तर भड़ किवाड़ भाटी’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। महारावल कर्णसिंह (१२५०-७० ई०) भी बड़ा वीर था, जिसने नागौर पर आक्रमण कर वहां के मुसलमान सूबेदार को मार डाला।
हिन्दू-मुसलमानों के इस भीषण युद्ध-काल में राजस्थान के अगणित योद्धाओं ने वीरगति प्राप्त कर क्षात्र-धर्म का पालन किया। मेवाड़ के रावल रतनसिंह (प्रथम) ऐसे ही शासक थे जिनके पीछे पद्मिनी ने अनेक रमणियों के साथ चिता-रोहण किया। यह शौर्य-भरा आदर्श सराहनीय है किन्तु घरेलू लड़ाई-झगड़ों, पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष एवं राज्य-विस्तार के लिए पड़ोसी राज्यों पर छापा मारना निन्दनीय है। अपनी राज्य-सीमाओं को विस्तीर्ण करने की प्रतिस्पर्द्धा में वे निःसंकोच एक दूसरे पर आक्रमण करते रहते थे। राव जोधा का अधिकांश समय तो युद्ध करते ही बीता था। इससे धन-जन की जो क्षति हुई उसका वर्णन करना कठिन है। राज्य-गद्दी एवं कुचक्रों के परिणामस्वरूप अनेक निर्मम हत्यायें भी हुई। और तो और मेवाड़ के महाराणा उदयकर्ण ने अपने परम तेजस्वी पिता कुम्भा तक की हत्या कर दी थी।
बाह्य एवं आंतरिक संघर्षो की इस वीहड़ बेला में यदि क्षत्रिय नरेशों का ध्यान शासन-व्यवस्था की ओर आकर्षित न हो सका तो यह स्वाभाविक ही था। प्राय: सभी नरेश निरंकुश थे। वे स्वयं ही अपने मंत्रियों की नियुक्ति करते थे। कोई जन-सभा अथवा क्रमागत मंत्री-परिषद नहीं थी, अत: शासन-व्यवस्था में प्रजा का प्रतिनिधित्व दूर की बात थी। राजा एवं जागीरदार शनै:-शनै: स्वतंत्र और उच्छृंखल बनते जा रहे थे। शासन सैन्य-शक्ति पर अवलम्बित था। जिसके पास जितनी अधिक सेना होती, वह उतना ही बड़ा शासक समझा जाता था। सेना पर राज्य की अतुल धन-राशि व्यय की जाती थी। इसके लिए प्रजा पर भी कर लगाये जाते थे। राज्याधीन जागीरदारों के यहां भी सैन्य-बल रहता था और आवश्यकतानुसार उनसे भी सहायता ली जाती थी। इस समय में मेवाड़ ही एक मात्र व्यवस्थित राज्य कहा जा सकता है, जहां सुख और शांती थी। महाराणा लक्षसिंह, मोकल एवं कुम्भकरण (मेवाड़) के शासन में व्यवस्था सुधर गई थी। आर्थिक दृष्टि से जावर में चांदी की खान निकल आने से राज्य की आय में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। स्वर्ण-चांदी के तुलादान करने में लक्षसिंह एवं मोकल के नाम उल्लेखनीय हैं। मारवाड में राव जोधा ने सर्वप्रथम लोक-कल्याणकारी कार्यो की ओर ध्यान दिया। उसने अनेक कर उठा दिये। जैसलमेर के महारावल जैसलदेव एवं लाखणसेन के शासन-काल में शांति रही।
(३) – सामाजिक अवस्था
तत्कालीन शासकों की अनियमित शासन-नीति के कारण प्रान्त में शांति एवं समृद्धि नहीं आ सकी थी। मुसलमानों के अनवरत अभियानों से हिन्दुओं की शक्ति क्षीण हो गई और उनका सामाजिक अधःपतन प्रारम्भ हुआ। राजवंश को स्वधर्म तथा संस्कृति की बलिवेदी पर प्राणों का विसर्जन करना पड़ता था। मुसलमानों के शासन का यह आदि काल था अत: इसमें प्रौढ़ता एवं स्थिरता की आशा करना ही व्यर्थ था। जनता में विलासिता की वृद्धि हुई और मुसलमान तथा हिन्दू दोनों ही नैतिक दृष्टि से अधःपतित होने लगे। मदिरा का प्रचार व्यापक रूप से हो रहा था। इस्लाम के सम्पर्क से पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह एवं दास-प्रथा को प्रोत्साहन मिल रहा था। सामाजिक संगठन में नारी की स्थिति तथा उसके कार्य स्पष्टत: पराधीनता के द्योतक थे। मुसलमानों के अत्याचार के कारण बाल-विवाह की प्रथा चल पड़ी और कहीं-कहीं तो अपनी लज्जा बचाने के लिए बालिका-वध की प्रथा भी प्रचलित हो गई थी। मीरां के जन्म के कुछ ही दिनों पूर्व सन् १४९१ ई० में गणगौर के मेले से १४० कुमारी राठौड़-कन्याओं का हरण हुआ, जिनकी रक्षा के लिए जोधपुर के राव सातल तथा मीरां के पितामह राव दूदा ने मुसलमानों से घोर युद्ध किया। सती-प्रथा का प्रचार राजपूतों में विशेष था। लोग जादू-टोनों में विश्वास रखते थे और यौगिक क्रियायें देखा करते थे। समाज में अनेक प्रकार के अंधविश्वास प्रवेश कर गये। हिन्दू तो पराधीन होकर पहले ही गौरवहीन हो गये थे, अब विलास में फंस कर उन्हें पूरी-पूरी आत्म-विस्मृति हो गई। जिस युग में रूप स्वर्ण-तुला पर तुलने लग गया हो, उसकी विलासिता का क्या कहना है? इत्र से सुवासित वस्त्रों पर कस्तूरी एवं केशर का रंग चढ़ने लगा। शास्त्रज्ञ पंडित मुसलमानों के संसर्ग में कम आये और उन्हें ‘म्लेच्छ’ कह कर बराबर अपनी उच्चता की घोषणा करते रहे। विजेता यवन हिन्दुओं को नीची निगाह से देखते और उनका तिरस्कार करते थे। हिन्दू कर ही क्या सकते थे? जीवन में उन्हें सहारा ही किसका था? समाज को कोई आशा थी तो वह केवल लोकपालक, असुरविनाशक, भक्त-भयहारी ईश्वर की अमोघ शक्ति की थी। अस्तु,
(४) – धार्मिक अवस्था
तुर्क-अफगान सल्तनत की स्थापना के साथ इस्लाम धर्म का प्रवेश हुआ। इससे जैन-धर्म शिथिल पड गया किन्तु राजस्थान एवं गुजरात में उसने अपने पूर्व रूप को अक्षुण्ण बनाये रखा। पौराणिक धर्मों वाम मार्ग, शाक्त मत आदि के कारण हिन्दू धर्मों में गुह्य साधनाओं का वेग बहने लगा। वैष्णव धर्म के मन्तव्यों में अनेक परिवर्तन हुए। भागवत धर्म की सरल एवं सीधी भक्ति आडम्बरयुक्त होने लगी। इस काल के लक्षसिंह, कुम्भा (मेवाड़) , गोपीनाथ (डूंगरपुर) , चंद्रपाल (करौली) , पीपा (झालावाड़) प्रभृति नरेशों ने अपनी धर्म-परायणता का पूरा-पूरा परिचय दिया।
जब शंकराचार्य के नीरस ज्ञान-सिद्धांतों को आत्मसात करना सामान्य जनता के लिए कठिन हो गया, तब ब्रह्म-प्राप्ति के हेतु एक सरल मार्ग का संधान हुआ। फलत: एक नवीन धार्मिक आदोलन उठ खड़ा हुआ, जिसे ‘भक्ति-आदोलन’ की संज्ञा दी जाती है। सभी संतात्माओं ने याज्ञिक कर्मकाण्ड, अंध-विश्वास, तीर्थ-यात्रा, पूजा-पाठ, उपवास आदि कार्यो को हटा कर धर्म को शुद्ध बनाने का प्रयत्न किया। उन्होंने चरित्र तथा आचरण की पवित्रता पर अधिक बल दिया तथा सच्चे हृदय से ईश्वर-भक्ति करना ही कैवल्य-साधन बताया। इसके पक्ष-समर्थकों ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया। लिंग, धर्म, वर्ण तथा जातिभेद वर्जित माने गये। हिन्दू-मुसलिम एकता पर बल दिया गया। सभी संत एकेश्वरवादी थे और विश्वबंधुत्व की भावना के पोषक एवं प्रचारक थे। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों को भी दूर करने का प्रयत्न किया। इस समय में सूफी सम्प्रदाय ने एक विशिष्ट विचार-धारा को जन्म दिया। सूफी मत एक अनन्य उपासना का धर्म है प्रेम इसका अनन्य तत्व है, काव्य, संगीत एवं नृत्य आराधना के साधन हैं और ईश्वर में विलीन होना इसका चरम लक्ष्य है। मीरा की चुनरी पर इसी सम्प्रदाय के बेल बूटे चढ़े दिखाई देते हैं।
(५) – चारण साहित्य
तुर्क-अफगान युग के झंझावात में जब क्षत्रिय नरेशों एवं उनके राज्याश्रित कवियों का जीवन संकट में पड़ा हुआ था, तब राजस्थानी साहित्य की सेवा करना दूर की बात थी। इतना होते हुए भी स्वातन्त्र्य संग्राम में तिल-तिल कर जलने वाले योद्धाओं की प्रशंसा में चारण जाति के कवियों ने अनेक छंदों की सृष्टि की है, जिनमें वीर-धर्म अथच आदर्श गुणों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यह लक्ष्य करने की बात है कि निर्दयी एवं अत्याचारी आक्रमणकारियों के प्रकोप से ज्ञान-भण्डारों का जलाया जाना अथवा लूटा जाना इस काल की एक सामान्य घटना थी। एतदर्थ, आलोच्य काल में चारण साहित्य विषयक सामग्री का अधिक पता नहीं लगता किन्तु जितना लगता है, उसके आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि चारण कवियों ने अपने अपने आश्रयदाताओं की दानवीरता, धर्मवीरता, सत्यवीरता, दया-वीरता एवं युद्धवीरता की प्रशंसा कर काव्य के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण उप-स्थित किया है। सिवदास कृत ‘अचलदास खीची री वचनिका’ में तो पद्य के साथ गद्य के उदाहरण भी मिलते है।
(६) – कवि एवं उनकी कृतियों का आलोचनात्मक अध्ययन
(क) जीवनी-खण्ड
१. मावल:- राजस्थानी के चारण साहित्य का श्रीगणेश मावल से होता है। राजस्थान एवं गुजरात के वयोवृद्ध विद्वानों के कथनानुसार ये बरसड़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम सायबाजी था जो भुज (कच्छ) के शासक रावल लखधीर के समकालीन थे और रामोदड़ी ग्राम में रहते थे। मावल की विलक्षण प्रतिभा अथच कवित्व शक्ति से प्रभावित होकर लखधीर ने बारह गांवों का पट्टा दिया था। इनका रहन-सहन रईसों जैसा था। क्यों न हो, उर्वरा जागीर के स्वामी जो ठहरे! ये लाखा-फूलाणी के पोल-पात्र कहे जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं, लाखा-फूलाणी के नाम से वाद-विवाद के रूप में जो दोहे प्रवहमान हैं उनके रचयिता ये ही हों। इनके तीन पुत्र एवं एक पुत्री थी। पुत्रों के नाम क्रमश: मेघानंद, आलणसी एवं ऊदो था तथा पुत्री का नाम झीमा था। झीमा आगे चल कर कवयित्री हुई।
२. आसा:- डॉ० कन्हैयालाल सहल ने इस काल के एक अपरिचित कवि आसा के स्फुट काव्य की ओर संकेत किया है। यद्यपि कवि का जीवन-वृत्त अन्धकारमय है, तथापि वह अपने समय का एक होनहार कवि हुआ है। सम्भव है, वह कान्हड़देव का राज्याश्रित कवि हो, क्योंकि उसके काव्य ने अपने आश्रयदाता एवं तत्कालीन राजकुमारों को सत्पथ पर लगाने एवं उदात्त भावना जागृत करने में योगदान दिया था।
३. हूंपकरण (हूंपाजी):- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत गांव हूँपाखेडी के निवासी थे। इनके वंशज आज भी वहाँ रहते है। इन्हें जैसलमेर के महारावल दुर्जनशाल का आश्रय प्राप्त था। जान पड़ता है, इससे पूर्व ये उदयपुर के राजघरानों की सेवा में लगे हुए थे। दुर्जनशाल की रानी उदयपुर की थी, अत: उसने विवाह के समय इन्हें अपने पिता से सदैव के लिए साथ रखने को मांग लिया था। रानी इन्हें अपने भाई के तुल्य एवं प्राणों से भी बढ़ कर मानती थी। इन्होंने भी राज्य-भक्ति का पूरा-पूरा परिचय दिया। इनके लिखे हुए फुटकर गीत उपलब्ध होते है।
४. हरसूर:- ये चंद वंश परम्परा में उत्पन्न हुए थे और बारहठ शाखा के कवि थे। इनका निवास-स्थान मारवाड़ राज्यान्तर्गत बाड़मेर जिले का भीमाड़ (वर्तमान में भींयाड़) लिखी हुई फुटकर कविताएं उपलब्ध होती है।
५. आल्हा:- ये आज से करीब पौने छ: सौ वर्ष पूर्व बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर राज्यान्तर्गत हङुवा ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम भांणोजी था। ये कवि तो थे किन्तु इनकी प्रसिद्धि का कारण काव्य न होकर राव चूंडा को १४ वर्ष तक अपनी शरण में रखना था। प्राचीन काल में चारणों का मुख्य व्यवसाय पश्चिम की ओर गायों का पालन करना था इसलिए ये ‘गावड चारण’ कहलाते थे। बड़े होने पर आल्हा ने भी इस उत्तम व्यवसाय को अंगीकृत किया। उस समय इनके पास ५०० गायें थी। इनके नौकर-चाकरों के दस घर थे, जो साथ में ही रहते और मवेशी की देख-रेख किया करते थे। युवावस्था में पदार्पण करते ही इन्होंने अपनी जन्म-भूमि हङुवा को त्याग दिया और पोकरण से करीब बीस मील दक्षिण में ‘काळाऊ’ नामक ग्राम में आकर निवास किया।
राव चूंडा वीरमदेवजी के ज्येष्ठ पुत्र थे। वीरमदेवजी जोइयों के साथ युद्ध में मारे गये। उस समय चूंडा की अवस्था लगभग एक वर्ष की थी। चूंडा की माता मांगलियाणी के लिए यह भारी संकट का समय था। इधर तो उसके पति का देहान्त हो गया था और उधर उसके शिशु का पालन-पोषण तक करने वाला कोई नहीं था। जोइये वीरमदेवजी का वंश ही नष्ट कर देना चाहते थे। जोइयों के अत्याचार के कारण परिस्थिति इतनी विषम एवं चिंताजनक हो गई थी कि चूंडा और मांगलियाणी के प्राणों तक के भी लाले पड रहे थे। मांगलियाणी वीर एवं साहसी क्षत्राणी थी। ईश्वर ने उसको सुबुद्धि दी, जिसके द्वारा उसका ध्यान क्षत्रिय जाति की आपत्तिकाल की चिर सहयोगी चारण जाति की ओर गया और उसने सोचा कि ऐसे दुखद समय में किसी चारण परिवार की शरण लेनी चाहिए ताकि प्राण-रक्षा हो सके।
तदनुसार मांगलियाणी अपने पुत्र चूंडा को लेकर काळाऊ ग्राम में आल्हा के घर पर चली गई, जो अपने समय के एक प्रतिष्ठित, सम्पन्न एवं प्रसिद्ध व्यक्ति थे और सुकवि होने के अतिरिक्त प्राचीन समुज्ज्वल चारण-क्षत्रिय सम्बंध के सच्चे मर्मज्ञ एवं निर्वाहक थे। इन्होंने मांगलियाणी को बहिन के समान रखा और चूंडा का वात्सल्य भाव से लालन-पालन किया। मांगलियाणी और चूंडा इनके घर पर लगभग २० वर्ष तक गुप्त रीति से रहे। चूंडा बचपन में आल्हा को ‘मामाजी’ कह कर सम्बोधित करते थे। बड़े होने पर आल्हा ने उनको क्षत्रियोचित युद्ध कला की शिक्षा दी और शस्त्र विद्या सिखाई। जब चूंडा युद्ध-विद्या में पारंगत हो गए तब आल्हा ने उन्हें शस्त्र एवं घोड़े दिए।
धीरे धीरे चूंडा के पास घोड़ों और शस्त्रों का पर्याप्त जमाव हो गया। इधर इंदों ने मंडोवर को तुर्कों से छीन लिया था। आल्हा ने इंदा रायधवल एवं उसके बंधुओं से कहा कि तुम्हारे पास पर्याप्त सैन्य बल नहीं है। अत: मंडोवर के गढ़ की रक्षा ठीक तरह से नहीं हो सकेगी। ऐसी परिस्थिति में यही श्रेयस्कर होगा कि रायधवल चूंडा का विवाह अपनी पुत्री के साथ कर दे और मंडोवर का किला उनको दहेज में दे, ताकि चूंडा मंडोवर के किले की समुचित रूप से रक्षा कर सके। तदनुसार रायधवल ने अपनी कन्या का विवाह चूंडा के साथ कर दिया और मंडोवर का गढ उनको दहेज में दे दिया। आल्हा की सहायता से मंडोवर का राज्य प्राप्त करने के बाद चूंडा का प्रभाव दिन दूना और रात चौगुना बढ़ने लगा। चूंडा ने खानजादा को पराजित कर नागौर पर अधिकार कर लिया। तदनन्तर सांभर और डीडवाना पर भी चूंडा का अधिकार हो गया। अपने शत्रुओं को पराजित कर चूंडा आनन्द से मंडोवर में रहने लगे और आल्हा को भूल गये, जिन्होंने बाल्यावस्था में चूंडा का बीस वर्ष तक पालन-पोषण कर वीरमदेवजी के वंश की रक्षा की थी। जब आल्हा को ज्ञात हुआ कि चूंडा ने राजमद के कारण मेरी सेवाओं को भुला दिया है तब एक दिन ये मंडोवर पहुँचे और उनसे भेंट की। चूंडा को अपने बाल्यावस्था के सारे दिन ध्यान में आ गये, जो उन्होंने आल्हा के घर पर बिताये थे। शीघ्र ही उनका यथोचित सम्मान किया गया। चूंडा ने आल्हा को अपना आधा राज्य देना चाहा, किन्तु इन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। बहुत आग्रह करने पर इन्होंने केवल बारह कोस लम्बी व बारह कोस चौड़ी जमीन अपनी गायों एवं घोड़ों के चारागाह के लिए लेना स्वीकार किया। उसी जमीन में आज भोंडू, सियांधा और चक-डैर नामक तीन ग्राम बसे हुए हैं और आल्हा के वंशज आज तक इनका उपभोग करते आ रहे हैं। आल्हा के दो पुत्र हुए-बड़े पुत्र का नाम दूल्हा एवं छोटे का जेठा था। चूंडा ने इनको कई दूसरे गांव भी जागीर में दिए। दूल्हा के एक पुत्री माल्हण देवी हुई, जो शक्ति का अवतार मानी जाती है। इस प्रकार आल्हा का महान त्याग, निःस्वार्थ भाव, प्राचीन क्षत्रिय-चारण संबंध-निर्वाह, स्पष्टवादिता और चूंडा का इनके प्रति आभार प्रदर्शन सर्वथा स्तुत्य है।
चारण-परम्परानुसार आल्हा ने ‘वीरमायण’ ग्रंथ की रचना की है, जिसकी एक खण्डित प्रति श्री शुभकरण बद्रीदान कविया (जोधपुर) के यहां देखने को मिली। इसमें ९० से १६० तक छंद हैं। यह राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा प्रकाशित एवं रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत द्वारा सम्पादित ‘वीरवाण’ (१९६० ई०) से भिन्न है। जान पड़ता है, इस विषय को लेकर चारणेतर कवियों ने भी रचनायें लिखी हैं जिनमें ढाढी जाति के बादर कवि का नाम लिया जाता है। श्री उदयराज उज्वल (जोधपुर) के मतानुसार आल्हा ने इसे ढाढी बादर से सुन कर लिखा था। उनका यह भी कहना है कि इस ग्रंथ की तीन मूल प्रतियां आल्हा के वंशजों के पास सुरक्षित हैं। यह ग्रंथ भोंडू और सियांधां में उपलव्ध हुआ था। कालान्तर में बांकीदास के भाई बुधजी आसिया (भांडियावास) ने इसमें क्षेपक जोड़ा था।
६. झीमा:-
झीमा के बारे में पुस्तक में लिखित वृतांत गलत है। हो सकता है पुस्तक को लिखते समय लेखक के पास तथ्यात्मक सामग्री का अभाव हो जो अब प्राप्त हुई है। इस कारण से इस जानकारी को यहाँ से हटाया गया है।
७. लूणपाल (लूणकरण):- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवी गांव (गुजरात) के निवासी थे। इन पर झाला राजपूतों की विशेष कृपा थी। यह गांव झालाओं से इनको मिला था, जो हलबद के पास है। ये मेवाड़ के महाराणा मोकल (१४२१-३३ ई०) के समकालीन कहे जाते हैं। राजस्थान के ब्राह्मणों ने मोकल को समझा रखा था कि चारण जाति देवी आवड़ को भैंसे की बलि चढ़ाने एवं उसका रक्त चखने के कारण अछूत है अत: चारणों से मिलने के बाद उन्हें स्नान करना चाहिए। महाराणा ऐसा ही करने लगे। जब यह बात लूणकरण के कानों में पहुंची, तब वे मोकल से मिलने के लिए चित्तौड़ आये। इनसे मिल कर मोकल ने नियमानुसार स्नान किया। यह देख कर लूणकरण ने भी एक बार नहीं, वरन् सात बार स्नान किया। मोकल को जब यह बात ज्ञात हुई, तब उसने इनको बुला कर इसका कारण पूछा। कवि ने उत्तर दिया- “आप नित्य गौ-हत्या कराते हैं अत: आपसे मिलना अपराध है।” महाराणा ने पूछा कैसे? इन्होंने उत्तर दिया- “आप स्वर्ण गाय का दान करते हैं और ब्राह्मण उसके टुकड़े कर बांटते हैं।” संतोष के लिए महाराणा ने ब्राह्मणों को बुलाया जिन्होंने कहा कि हम नित्य ही बांट लेते हैं। लूणकरण के उत्तर को सुनकर महाराणा संतुष्ट हुए और उसे दान दिया। महाराणा ब्राह्मणों से अप्रसन्न हुए और चारणों से भेदभाव रखना त्याग दिया। कवि को बाडी (मेवाड़) तथा राजोला (सोजत) गांव दिये गये। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें उपलब्ध होती हैं।
८. चानण:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत सांचोर परगने के बोर ग्राम के निवासी थे। ये मंडोवर के राव रणमल के समकालीन थे। इनकी जन्म-तिथि अनुमानत: सन् १३९३-९८ ई० के मध्य प्रतीत होती है, क्योंकि रणमल उदयपुर में राणा कुम्भा के द्वारा सन् १४३८ ई० में मारा गया था और उस समय इन्होंने ही उसका दाह-संस्कार किया था। आरम्भ में ये सांचोर छोड़कर उदयपुर के महाराणा मोकल के पास रहते थे और वहाँ इन्हें अच्छी जागीर मिली थी। ये महाराणा के प्रतिष्ठित दरबारी थे। जब रणमल उदयपुर हड़पने का षड़यंत्र रचने लगा, तब इस बात का भंडाफोड़ हो गया और राव चूंडा ने रणमल का वध करा दिया। दरबारी कवि होने के नाते रणमल के साथ इनका प्रेम होना स्वाभाविक ही था। रणमल के अंतिम संस्कार से इनकी स्वामी-भक्ति प्रकट होती है। राव रणमल को मारकर चित्तौड़ के दुर्ग पर मेवाड़ के सरदारों ने उसकी देह का अपमान करना चाहा तब कवि ने कटार निकाल कर कहा- “चारण के जीते जी क्षत्रिय की मृत देह का अपमान नहीं हो सकता।” जब सरदार हट गये और चानण ने साज-सज्जा सहित उनके कमरे में ही दाह-संस्कार कर दिया। फलत: मेवाड़ के राज-घराने ने इनकी जागीर जब्त कर दी। जीविका बन्द हो गई। अन्त में ये टोडे के सोलंकियों के पास चले गये और वहाँ काव्य-रचना करने लगे। लगभग ५-६ वर्ष तक इनका जीवन बड़ा दुखी रहा। सिसोदियों से मंडोर हस्तगत कर जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने, जो इनकी विपत्तियों से परिचित थे, शहर की नींव डालते समय अपने पुरोहित दामोदर को भेजकर टोडे से इन्हें अपने पास बुला लिया तथा अपना पच्चीसवां पुत्र कहकर कृतज्ञता प्रकट की। इतना ही नहीं, स्वयं जा कर जैतारण परगने के कवलिया एवं खराड़ी सरसब्ज गांव प्रदान किये, जिनमें कवि के वंशज आज भी रहते हैं।
चानण के बनाये हुए अनेक दोहे एवं गीत चारण जाति में प्रचलित हैं, किंतु प्राचीन होने के कारण आज उनका पता लगाना कठिन हो गया है।
९. सिवदास:- चारण जाति की साहित्यिक सेवाओं के शोध-पथ पर सिवदास चारण का नाम नहीं भुलाया जा सकता। ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे और गागरोन गढ़ (कोटा) के रहने वाले थे। इनके जीवन-चरित के विषय में अधिक ज्ञात नहीं होता, केवल इतना ही कि इन्हें तत्कालीन राजा अचलदास खीची का राज्याश्रय प्राप्त था।
सिवदास का लिखा हुआ ‘अचलदास खीची री वचनिका’ नामक ग्रंथ उपलब्ध होता है, जिसकी कई प्रतियां राजस्थान में उपलब्ध होती है। इसमें मांडू (मालवा) के पातशाह (होशंगशाह) के साथ अचलदास खीची के युद्ध का वर्णन है जो १४२९ ई० के आसपास हुआ बताया जाता है। इस युद्ध में अचलदास ने डटकर सामना किया और वीरगति प्राप्त की। कहते हैं, सिवदास भी युद्ध-भूमि में अपने स्वामी के साथ उपस्थित था, किन्तु देवयोग से बच गया। अत: शेष जीवन में अपने आश्रयदाता का कीर्तिगान करना ही उसका उद्देश्य रहा। इस ग्रंथ की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें पद्य के साथ-साथ गद्य भी है। डॉ० मेनारिया ने इसका रचना-काल सन् १४१३ ई० बताया है जो सही नहीं दिखाई देता क्योंकि युद्ध से पूर्व इसकी रचना सम्भव नहीं जान पड़ती। अत: इसका समय १४३० ई० के आसपास होना चाहिए।
१०. पसाइत:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य की तत्कालीन राजधानी मंडोवर के रहने वाले थे। सर्व श्री डॉ. एल. पी. टैसीटोरी ने राजस्थानी के हस्तलिखित ग्रंथों का संग्रह करते समय इनका परिचय दिया था। उनके पद-चिन्हों का अनुकरण करते हुए डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने उक्त ग्रंथ से कवि के प्रारम्भिक दो दोहों का उदाहरण देते हुए इनका रचना-काल सन् १४३३ ई० माना है। इनकी जीवन-गाथा के विषय में हमारा ज्ञान अत्यन्त सीमित है। इनके समय में मंडोवर की राज्य-गद्दी पर राव रणमल विराजमान थे। सम्भवत: ये उनके राज्याश्रित कवि रहे हों। रणमल को लक्ष्य करके इन्होंने विविध छंदों की सृष्टि की है, जिनका काव्य के साथ ऐतिहासिक महत्व भी है।
११. पीठवा:- चारण विद्वानों के अनुसार ये मिश्रण शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर राज्यान्तर्गत बोगनियाई गांव के निवासी थे। इन्हें बाटी गोत्र का चारण भी कहा गया है किन्तु उन्हें यह मान्य नहीं। इनके पिता का नाम समरसी था। इनके जन्म के विषय में कहा जाता है कि समरसी को गौ-पालन व्यवसाय के सम्बन्ध में गुजरात की ओर जाना पड़ा जहां वे झूला गोत्र के चारण समदरा के गांव में ठहरे। उनकी रूपवती कन्या को देख कर समदरा मोहित हो गया और उसने विवाह करने का प्रस्ताव रखा जो ठुकरा दिया गया। फलत: दोनों में युद्ध हुआ, जिसमें समरसी अपने साथियों सहित कीर्ति-शेष हुआ। उसकी पत्नी ने सती होते समय कहा- ‘मैं तो पतिदेव का अनुगमन करती हूं किन्तु बेटी! तू समदरा से विवाह कर लेना। इसी में तेरा कल्याण है।’ बेटी ने उत्तर दिया- ‘माता! तुम गर्भवती हो, शायद भगवद् कृपा से मुझे भाई मिले जिससे पिता की वंश-ज्योति अखंड बनी रहेगी। अत: तू इस समय सती मत हो।’ इस पर माता ने कहा- मेरा ‘सत’ रोके रुकता नहीं। नौ महीने पूरे होने ही वाले हैं। यदि तू चाहे तो मेरी पीठ फाड़ कर बच्चा निकाल ले। पीठ चीर कर निकालने के कारण इनका नाम पीठवा पड़ा।
वात्सल्य के अभाव में पीठवा अपनी बहिन को माता एवं बहनोई को पिता समझने लगा। ऐसी अवस्था में बहिन ने इन्हें पाल-पोष कर बड़ा किया। इनका शरीर पुष्ट एवं सुडोल था, अत: यह वीर एवं साहसी युवक थे। कालांतर में एक बार दशहरे के पर्व पर चामुण्डा को बलि देते समय समदरा ने इन्हें समरसी की तलवार उठा लाने के लिए कहा। घर आकर माता से वह तलवार मांगी तो उसकी आंखें भर आई। आग्रह करने पर उसने रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि वह माता न होकर बहिन है तथा उसके अधम बहनोई ने उसके माता-पिता का अंत किया है। यह हृदयद्रावक कथा सुनकर पीठवा समदरा के प्राण लेने को कटिबद्ध हो गया और उस तलवार से भैंसा काटने के बाद समदरा एवं उसके साथियों का काम तमाम कर दिया। फिर वहां से तेज घोड़े पर सवार होकर भाग गया। उस समय समदरा के पुत्र छोटे ही थे।
पीठवा कवि होने के साथ-साथ संगीतज्ञ भी था। कहते हैं सिरोही, मेवाड़ एवं अजमेर के नरेशों ने इन्हें पुरस्कृत किया था। एक बार मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने इन्हें करोड़पसाव देना निश्चित किया, किन्तु अभिमान के स्वर में कहा- ‘पीठवाजी! यहां तो एकलिंगनाथ का अखूट खजाना है इसलिए करोड़-पसाव मिला है। यदि कोई दूसरा स्थान होता तो शायद ही इतना दिया जाता।’ इन्होंने उत्तर दिया- ‘आपको कोई दूसरा चारण करोड़पसाव छोड़ने वाला भी नहीं मिलेगा। यह अपने पास ही रखें, मुझे नहीं चाहिए।’ महाराणा ने व्यंग में कहा कि यदि आप मेरे दिये हुए करोड़पसाव को ठुकराते हो तो कहीं अरब-पसाव लेकर ही रहना। इस पर इन्होंने प्रण किया कि दान लूंगा तो अरबपसाव ही लूंगा, कहीं गया तो एक रात से अधिक नहीं रुकूंगा और कविता लिखनी हुई तो एक दोहे से अधिक नहीं बनाऊंगा। आगे इन्हें अरबपसाव मिला भी बताया जाता है। पीठवा के जीवन का अंतिम भाग बड़ा कष्टपूर्ण था। कहते हैं, समदरा के पुत्रों के अभिशाप से प्रौढ़ावस्था में पीठवा को कुष्ट रोग हो गया। इससे ये बहुत दुखी रहे फिर प्रायश्चित स्वरूप तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। निदान, सिवाना (मारवाड़) के राव जैतमाल राठौड़ की उदारता सुनकर उनके पास पहुँचे। इनके शरीर के गिदबिदे पीब युक्त कोढ़ को देखकर समस्त सभासद् छि: छि: करने लगे किन्तु धर्मवीर जैतमाल ने जो चारणों से बांह फैलाकर मिलते थे, उठकर शुद्ध हृदय से इन्हें गले लगा लिया। ईश्वरीय अनुकम्पा एवं जैतमाल के ‘सत’ से इनका कोढ़ झड़ गया और स्वर्ण की भाँति देह कांतिवान हो गई। सर्वत्र धन्य-धन्य के शब्द सुनाई दिये। जैतमाल के गले में सोने की कंठी थी, उस स्थान पर कोढ़ का चिन्ह रह गया अन्यत्र सब शरीर निरोग हो गया। इन्होने उन्हें दसवें शालिग्राम की उपाधि प्रदान की। जैतमाल के वंशज आज भी सोने की कंठी नहीं पहनते हैं।
खेद है कि पीठवा का काव्य उपलब्ध नहीं होता। केवल नाम ही नाम शेष रह गया है। आज अवशिष्ट दोहों ने कहावतों का रूप धारण कर लिया है, अत: भाषा के स्वरूप को देखकर संदेह उत्पन्न करना हृदयहीनता का परिचय देना है। कवि कोई एक-दो दोहे अथवा गीत की पूंजी से ही अपना जीवन-यापन नहीं करता, उसके हृदय में शत-शत भावों का विलोडन होता है। अत: इनका काव्य इस तक ही सीमित रहने वाला नहीं। जन्म के समय तो हतभाग्या जननी ने अपनी पीठ चिरवा कर भी अपने अनमोल लाल के अस्तित्व को बनाये रखा और बड़े होने पर भगिनी ने रूप-लोभी समदरा के गले पड़कर भी सस्नेह इनका पालन-पोषण किया, किन्तु राजस्थान के किसी विद्वान की दिव्य दृष्टि इनकी ओर नहीं जा सकी। पाठकों ने भी पीठवा की ओर पीठ ही दिखाई है। अत: पीठवा की चीर-फाड़ होना अवशेष है।
१२. खेगार:- ये महड़ू शाखा में उत्पन्न हुए थे और तत्कालीन ग्राम राजोला (सोजत) के, जो मेवाड़ में था, निवासी थे। ये लूंणपाल के वंशज थे। इनके समय में महाराणा कुम्भा सिंहासनारूढ़ थे, अत: ये उनके समकालीन प्रतीत होते हैं। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।
१३. बारू:- सौदा बारहठ परिवार के मूल पुरुष के रूप में इनका नाम चिरकाल से विख्यात है। डॉ मेनारिया के अनुसार ये बोगसा खांप के चारण थे, जो सही नहीं है। वस्तुत: घोड़ों का व्यापार करने के कारण ये सौदा कहलाये। इसी प्रकार मेवाड़ के महाराणा कुम्भा का आश्रित होना भी संदिग्ध है। इनके पिता का नाम कर्मसेन था तथा माता बरबड़ी शक्ति का अवतार मानी जाती है। बरबड़ी के लिए प्रसिद्ध है कि उसने गिरनार के राजा नवघण यादव की फौज को कुल्लड़ी द्वारा तृप्त किया था और अन्नपूर्णा नाम प्राप्त किया था। इनके कुल में कवियों की एक समृद्धशाली परम्परा देखने को मिलती है, जो आधुनिक काल तक चलती रहती है। कहते हैं, एक बार इनको अपनी माता बरबड़ी की आज्ञानुसार महाराणा हमीरसिंह के समय में पांच सौ घोड़े लेकर गुजरात से मेवाड़ लाया गया। उस समय महाराणा को घोड़ों की पूर्ण आवश्यकता थी, किन्तु समय की गति से तत्क्षण उनका मूल्य नहीं चुकाया जा सकता था। उस परिस्थिति में इन्होंने अपने कुल घोड़े इस शर्त पर नजर कर दिये कि गया हुआ राज्य वापिस मिल जाय तो उचित कीमत चुका दें, अन्यथा कुछ नहीं। संयोगवश इन्हीं घोड़ों के बल पर महाराणा हमीरसिंह ने अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त किया। तब घोड़ों की उचित कीमत के अतिरिक्त इस सेवा के उपलक्ष में महाराणा ने इनको अपना आदरणीय पोलपात बनाकर यथेष्ट जीविका एवं सम्मानादि प्रदान किये। इन्हें बारह गांव पुरस्कार में मिले जिनमें आँतरी गाँव प्रमुख केन्द्र था। इनके लिखे हुए स्फुट छंद उपलब्ध होते है।
१४. टोडरमल:- ये छांछड़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मेवाड़ के निवासी थे। इनके समय में महाराणा रायमल सिंहासनारूढ़ थे, अत: ये उनके समकालीन प्रतीत होते हैं। इनके लिये हुए फुटकर गीत मिलते हैं।
१५. चन्द:- ये झीमा चारणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, किन्तु इनके पिता मघ भाटी राजपूत थे। मघ रोहड़ी कस्बे का राजा था। ये वहां से आये इसलिए रोहड़िया कहलाये। इनके समय में आलापुर-पाटण पर जयदेव सोलंकी का राज्य था। मारवाड़ नरेश राव धूहड़ का पुत्र रायपाल इनका भाणेज होता था जो बड़ा ही पराक्रमी था। वह राज्य-विस्तार की महत्वाकांक्षा से शत्रुओं को पराजित करता हुआ अपने मामा के घर पहुँचा और प्रणाम किया, जिसके उत्तर में मामा ने उसे ‘अणदेव भाणेझ’ कह दिया। इससे वह बिगड़ गया और पाटण नगरी को विध्वंस कर देने के लिए उद्यत हो गया। यह देखकर जयदेव ने उसे समझाया था कि जिन क्षत्रियों के पास चारण-देव नहीं होते, ये अणदेव ही कहलाते हैं। शिव शक्ति तो सबके देव है ही, किन्तु राजपूत राजा के पास चारण का रहना देवता का बास करना है। इस पर रायपाल ने कहा कि में चारण कहां से लाऊं? तब जयदेव ने उत्तर दिया कि रोड़ीशखर (सिंध) पर चन्द है। उसका जन्म चारण-स्त्री से हुआ है, उसे पकड़कर ले आओ और प्रलोभन अथवा भय से उसे चारण बना डालो। रायपाल ने ऐसा ही किया। वह अकस्मात धावा बोलकर चंद को पकड़ लाया, करीब एक महीने तक उसे पाटण में ही बंदी बनाये रखा और फिर मृत्यु तक की उसे धमकी दी। निदान इन्हें इच्छा के विरुद्ध रोहड़कर (बलपूर्वक) चारण बना लिया गया, इसलिए ये रोहड़िया कहलाने लगे। कहते हैं कि पाटण में जयदेव सोलंकी के राज्याश्रित कवि श्री आणन्द मीसण की कन्या के साथ इनका विवाह हुआ था। रायपाल इन्हें अपने साथ मारवाड़ ले आया तथा बारहठ उपटंक प्रदान किया। इतना ही नहीं, इन्हें बारह गांवो की बड़ी जागीर देकर राठौडों का पोलपात्र नियुक्त किया गया। तभी से रोहड़िया बारहठ राठौडों के पोलपात्र बने हुए हैं और राजस्थान के चारणों में अत्यंत आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं। जिस दिन चंद को १२ वर्ष की अवस्था में बलात चारण बनाया गया, उस समय का एक प्राचीन छप्पय देखिये।
बारै सै बासठे माह वद दस्सम सुक्कर।
चारण कीधो चंद, आथ सम्मपै इलावर।
नेग च्यार नवनिद्ध, रिद्ध दे भायप राखी।
राठोवड़ रोहड़ां, सदा चंद सूरज साखी।
पलटे न कोय पूरां पखां, वड़ै वंस अजवाळ वट।
रायपाळ साख तेरै तिलक, बारे साखां बारहट।।
चंद के बारह पुत्र उत्पन्न हुए, जिनसे बारहठ चारणों की बारह शाखायें प्रसिद्ध हुई। आज भी ये शाखायें विद्यमान हें। चंद की कविता उपलब्ध नहीं होती, किन्तु इनके कुल में एक-एक से बढकर कवि हुए हैं।
१६-१८ अमरा, गीधा एवं सूजा:- चंद की वंश-परम्परा में अमरा, गीधा एवं सूजा नामक कवि हुए, जो मारवाड़ राज्यान्तर्गत बाड़मेर परगने के भादरेस गांव के निवासी थे। अमरा के पुत्र गीधा तथा गीधा के पुत्र सूजा हुए। इनमें से किसी की कविता उपलब्ध नहीं होती।
१९. सहजपाल:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मारवाड़ राज्यान्तर्गत जालोर के निवासी थे। इनके समय में जालोर की राज्य-गद्दी पर राजा कानड़देव सोनगरा विराजमान थे। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने सन् १३११ ई० में जालोर पर आक्रमण किया। उस समय सहजपाल ने रण में शौर्य प्रदर्शित कर स्वामी के साथ वीरगति प्राप्त की थी। ये कानड़देव के सेनापति थे। इनकी फुटकर कविता कही जाती है।
२०. मांडण:- ये देवल शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर के महारावल दुर्जनशाल के समकालीन थे। इनके गांव का नाम दधवाड़ा था जो इन्हें सांखलों द्वारा प्राप्त हुआ था। इसी गांव के नाम के कारण इनके वंशज दधवाडिया कहलाये। जब सांखलों का राज्य चला गया तब उनके हाथ से भी यह गांव जाता रहा। ये अपने समय के एक प्रसिद्ध कवि एवं उच्च कोटि के भक्त थे।
२१. बीसलदेव:- आलोच्यकाल के मौलिक विचारकों में वीर बीसलदेव का नाम अग्रगण्य है। ठाकुर किशोरसिंह बार्हस्पत्य का कथन है कि सन् १४०८ ई० में परजिया शाखा का यह चारण सायला (काठियावाड) के पास आंबरड़ी ग्राम का निवासी था। इसे आंबरड़ी के साथ सात अन्य गांवों का स्वामित्व प्राप्त था। यह सरल, शांत एवं शुद्ध प्रकृति का व्यक्ति था। रात-दिन कड़ा परिश्रम करता रहता। हाथ से हल चलाकर खेती करने में इसे आनन्द मिलता। यह प्रत्येक व्यक्ति को यही उपदेश दिया करता था कि चोर और डाकुओं के अतिरिक्त सबको अपने पसीने की गाढ़ी कमाई खाने का अधिकार है। तत्कालीन हलवद नरेश का यह दायां हाथ था। इसके परिवार के दस अन्य चारण भी आंबरड़ी में ही रहते थे, जिनके नाम इस प्रकार है- नागार्जुन, भीमख, तेजख, लक्ष्मण, वंरिशल्य, पल्लव, आळग, रविया, साजण और धानख। वीसलदेव सूझ-बूझ में किसी से सानी नहीं रखता था। यह अपने ग्यारह मित्रों की मण्डली बनाकर विचार करने लगा कि इस संसार में जीवित अवस्था में तो सभी लोग अपनी मित्रता निभाते हैं परन्तु मृत्यु के उपरान्त किसी की मित्रता नहीं निभती क्योंकि यह ठिकाना नहीं कि कौन कब मरे? यह सुनकर सब मित्रों ने भगवती की शपथ लेकर रक्त-बिन्दुओं के अक्षरों में एक लेख लिखा जिसका सारांश यह था कि सब साथ-साथ जीयेंगे और मरेंगे। इसके पश्चात् सब अपने-अपने घर लौट गये।
कालान्तर में वीसलदेव के एक शत्रु कूकडिया चारण ने अहमदाबाद जाकर बादशाह के कान भरे, जिसके परिणाम-स्वरूप इस पर आक्रमण हुआ। उस समय यह जगदम्बा के अर्चन-पूजन में लीन था किन्तु पूजा समाप्त होने पर जब इसे इसका रहस्य सिपाही से ज्ञात हुआ तब इसने बादशाह को ऐसी खरी-खोटी सुनाई कि उसे अपने किये-कराये पर पश्चाताप होने लगा।
२२. दूलाजी:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और चित्तौड के निवासी थे। सन् १४४४ ई० में रिड़मलजी के चित्तौड में मारे जाने पर मंडोवर सीसोदियों के अधिकार में आ गया। राव जोधाजी मरुस्थल में दिन बिता रहे थे। उनकी बहन रानी हंसबाई ने चित्तौड से दूलाजी के हाथों अपने भतीजे को मंडोवर पर पुन: आक्रमण करने का गुप्त संदेश भेजा। इन्होंने निडर होकर जोधाजी को मरुस्थल में ढूंढा और यह गुप्त संदेश दिया जबकि वे महामाया श्री करणीजी का आदेश मांग रहे थे। इनके स्फुट छंद बताये जाते हैं।
२३. पूंजो:- श्री सुखसम्पतिराय भण्डारी कृत ‘भारत के देशी राज्य’ के अनुसार ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ के निवासी थे। ये नागों के पोळपात थे, फिर राठौडों का राज्य होने पर उनके भी पोळपात रहे। इन्होंने राजा-महाराजाओं की विरुदावली गाई है। राव जोधा (मारवाड़) ने इन्हें खाटावास गांव सांसण में दिया था।
२४. राजसिंह:- से सौदा बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के ग्राम सोन्याणा के निवासी थे। इन पर महाराणा उदयसिंह की विशेष कृपा थी, जिन्होंने इन्हें प्रसन्न होकर एक साथ तीन गांव प्रदान किये थे- ओडां, पनोतिया और सोन्याणा। इनकी लिखी हुई फुटकर कवितायें कही जाती हैं।
२५. लूणपाल:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मारवाड़ राज्य के निवासी थे। चारण विद्वानों के मतानुसार इन्होंने राजस्थानी के सुप्रसिद्ध लोक-काव्य ‘ढोला-मारू रा दूहा’ की रचना की थी। श्री उदयराज उज्वल का कथन है कि सिवाना (मारवाड़) गांव में जबरचन्दजी नामक जैन यति हैं, जिनके पास इस ग्रंथ की एक प्रति सन् १७३९ ई० की है, जिसमें लूणपाल महडू का नाम लिखा हुआ है। अब तक इसके रचयिता के रूप में कल्लोल, हरराज एवं लूणकरण खिड़िया के नाम प्रकाश में आये हैं किन्तु पुष्ट प्रमाण के अभाव में ये नाम संदिग्ध ही हैं। मेरी सम्मति में इस ग्रंथ का प्रणेता मूलत: एक व्यक्ति अवश्य रहा होगा। आगे चल कर जैसे-जैसे इसके दोहों की लोकप्रियता बढ़ती गई, वैसे-वैसे रचना प्रक्षेपों से स्फीत होती गई। अत: जब तक चारण विद्वानों के द्वारा लूणपाल महड़ू की सुसम्बद्ध जीवनी सामने नहीं लाई जाती तथा इस ग्रंथ का सर्वाधिक मूल अंश पाठकों के सन्मुख उपस्थित नहीं किया जाता तब तक किसी निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन है।
२६. चौहथ:- डॉ. एल. पी. टैसोटोरी के अनुसार ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और चित्तौड़ (मेवाड़) के रहने वाले थे। इनका समय सन् १४३८-१५०४ ई० तक बताया जाता है। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें कही जाती हैं।
२७. माला:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ के निवासी थे। इनके पिता का नाम पूंजो था। ये उनके कनिष्ट पुत्र थे। इनके काव्य-चातुर्य पर प्रसन्न होकर सिवाणा के स्वामी राठौड़ देवीदास ने इन्हें भांडियावास गांव से पुरस्कृत किया था। इस परिवार ने राजस्थानी साहित्य की पर्याप्त सेवायें की है।
२८-२९. बाजूड़ एवं पालम:- ये दोनों ही सौदा बारहठ परिवार के उज्जवल नक्षत्र थे और अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थे। बाजूड़ के पिता का नाम बारूजी था। ये महाराणा मोकल के समकालीन थे। बाजूड़ का पुत्र पालम हुआ, जो महाराणा रायमल (१४७३-१५०९ ई०) का एक अत्यन्त प्रिय पात्र था। महाराणा ने इन्हें सेंणोंदा (सोन्याणा) गांव जागीर में प्रदान कर ताजीम बख्सी थी। ये चित्तौड़ के किले में ‘पाडळपोळ’ द्वार पर मुसलमानों के साथ लड़कर वीरतापूर्वक मारे गये थे। इन दोनों कवियों की लिखी हुई फुटकर रचनायें आज लुप्त प्राय: हो गई हैं।
(ख) आलोचना खण्ड – पद्य साहित्य
१. प्रशंसात्मक काव्य:- राजस्थान में चारण कवियों का प्रशंसात्मक काव्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। इसमें राजा-महाराजाओं एवं जागीरदारों की धर्मपरायणता, वीरता, उदारता, दानशीलता आदि का वर्णन किया गया है। गुणों से अलंकृत राजचरितों से प्रभावित होना मानव-मन की सहज प्रवृत्ति है। फिर चारण तो राजपूत के जीवन-मरण का साथी ठहरा! अत: इन प्रवृत्तियों का शनै: शनै: विकास होता गया। ऐतिहासिकता के अतिरिक्त इस काव्य का विशेषत्व प्राचीन सामाजिक संस्कार एवं लौकिक व्यवहार के लिए अवश्य ही अनुशीलनीय है। इसके अन्तर्गत हूंपकरण, हरसूर, आल्हा, झीमा, चानण, पसाइत, पीठवा, बारू प्रभृति कवियों की रचनाओं को लिया जा सकता है। इनमें आल्हा कृत ‘वीरमायण’ एक खण्ड काव्य है, शेष कवियों की रचनायें स्फुट।
आल्हा के जीवन-वृत्त से स्पष्ट है कि उसने राव वीरम (मारवाड़) के परिवार की अमूल्य सेवा की है। अत: ‘वीरमायण’ में स्थान-स्थान पर वीरम की प्रशंसा की गई है। इस ग्रंथ में कवि ने विभिन्न छंदों के द्वारा अपने आश्रय-दाता के कार्य-व्यापारों का बड़ा ही सूक्ष्म वर्णन किया है। जोइयों के साथ वीरम की पत्नी मांगलियाणी के पवित्र बंधन का धूमधाम का वर्णन करते हुए कवि कहता है-
मांगलियाणी जोइयां, ध्रम साख धराई।
सितर पोसाकां साथ में, मोहरां गुदराई।।
वेश किसा मोसूं वणे, भूख …….झे भाई।
आपे सरणे आपरे, औडी उतराई।।
दले कयो इण देस मां, बैठा म्हे बाई।
वीरम रा म्है आयगा, सह कोय सिपाही।।
एक स्थल पर वीरम को लखवेरा की उपजाऊ भूमि के बारह गांव देने का उल्लेख मिलता है-
बारे गांम बगसिया, भेळा व्है भाये।
दान वळो उछरो दियौ, आषो अपणाये।
धाड़े-धाड़े धन्न मां, मांझीयां….माहे।
वीरम ना देवां वळै, लखवेरे लाए।।
यह उल्लेखनीय है कि कवि घोड़ियों एवं उनके बछड़ों के नाम तक देना नहीं भूला है-
कियो ठांण अस काळवी, जिणरो नाम जवाद।
प्रगटी उणरै पेट री, साकुर नांम सवाद।।
तिका हुई त्रे वी तरे, वसुधा हुवा बखांण।
मूंडा आगळ पाल दें, किणियक कीधा आंण।।
अन्त में, वीरम को पीर की संज्ञा देकर कवि ने उसका अर्चन-पूजन इन शब्दों में किया है-
पूजन परट्ठे पीर री, वीरम री मुख बात।
वीरम रो देखे वदन, जीवे जोया जात।।
ऊंधी मत रा आदमी, ज्यांरी भाखा जेर।
ऊट्ठ महेवे आविया, लसकर वीरम लेर।।
कुबध मूळ परगह कने, रचे सला दिन रात।
जोयां सूं जुध जुटवां, वीरम आगे वात।।
सन् १३११ ई० के आसपास जब महारावल दुर्जनशाल (जैसलमेर) अलाउद्दीन खिलजी से युद्ध करते हुए बड़ी वीरता से काम आये तब उनकी रानी सती होने चली किन्तु रणक्षेत्र में सिर मिलने की बड़ी चिन्ता थी। वह इसके बिना सती होती भी तो कैसे? उसने अपनी मनोभिलाषा हूंपकरण से व्यक्त की जिसने अपने स्वामी को बिड़दाया। फलत: सहस्रों मस्तकों में से दुर्जनशाल का मस्तक हंस पड़ा-
सांदू हूंपे सेवियो, साहब दुरजनसल्ल।
विड़दां माथो बोलियो, गीतां दूहां गल्ल।।
इस प्रकार कवि ने रानी को उसके पति का मस्तक देकर अपने अद्वितीय चारणत्व का परिचय दिया। मस्तक बिना हाथ-पांव का था, अन्यथा वह उठकर सामने आता और गले मिलता। कवि के शब्दों में-
हूता जो पगहाथ, ऊठ’र सामों आवतो।
मिळता बांथों बाथ, हियो मिळायर हूंपड़ा।।
हरसूर ने महाराणा कुम्भा (मेवाड़) की वीरता का वर्णन इन शब्दों में किया है
कळह हेवा चूक हुवे कूंभक्रन, जगत तणा गुर दुरंग जळ।
काठी अचिरज किसौ कटारी काढिया जिणै प्रेतीस कुळ।।
सम अन विसम लगै सुरतांणौ, राई अहाडै चढै रण।
वांक पडै तिण किम वादाली, जग त्रोइ पाथोरियौ जिण।।
तजडी मोकल सही समोभ्रम, ग्रहे दुरंग गिर पड़ा ग्रह।
जिण विनडिया सुकेम विसारै, प्रथमी नवखंड तणा पह।।
करत नहीं राणा कूंभक्रन, जे तूं वळवंत कथ जम्म।
दांणव देव दहत न मांनत, कळह कटारी तणौ क्रम्म।।
झीमा कृत ऊमा विषयक ये दोहे उल्लेखनीय हैं-
ऊमां कागद मोकळे, झीमा वेगी आव।
दुख सुख भेळो काढ़स्यां, रूठो खीची राव।।
धिन ऊमादे सांखली, तैं पिव लियौ भुलाय।
सात बरस रो बीछड्यो, तो किम रैण बिहाय।।
किरती माथै ढळ गई, हिरणी लूंबा खाय।
हार सटे पिय आणियौ, हँसे न सामौ थाय।।
राव जोधा की सामयिक सहायता भला चानण कैसे भूल सकता था? गोधोला गांव मिलने पर कवि ने इस विषय पर जो उद्गार प्रकट किया, वह इस प्रकार है-
चूक हुयौ चित्तौड़ राव रिड़मल मा’राणा।
दीनों चांदण दाग राण कूंभ रीसाणा।
धर म्हारी दो छोड़ कोपि श्रीमुख यों कहियौ।
पटो नाख पाखती कवि टोडे आरहियो।
इम कहे राव रावळ लावो अठे, पुरोहित दामों मेळियो।
कर दीद मौहर नेग समी, गोधेलाव समप्पियो।।
पसाइत ने ‘गुण जोधायण’ नाम से राव जोधा (मारवाड़) की प्रशंसा में कई छंद लिखे हैं, यथा
नारायण न विरोध, राणो वच साधे रमण।
जुधतां सुत्रौ जोध, बेरां ऊभौ वाहरू।।
इसी प्रकार पसाइत ने राव रणमल (मारवाड़) की प्रशंसा में लिखा है-
वघ वाणी बह्माणी कामारी सरसत्ति।
कीरत रिणमल नूं करूं देवी देहि समत्ति।।
पौर दिखावे प्राण, गढ़ भेळै भेळै गिरै।
सांमहियौ सुरताण, गुहिलोतां चढ़ियो गळै।।
राठौड़ जैत्रसिंह सलखावत (सिवाणा) की प्रशंसा में पीठवा का लिखा हुआ यह गीत देखते ही बनता है-
पण धरियो कमंध मिलण रो पातां, अै अखियातां सकळ अछै।
अड़सठ तीरथ कर-कर आयौ, पीठवो गयो समियाण पछै।।
अंग रे रुधिर चुवंतां आचां, काचां देखत हिया कंपे।
सलख सुजाव दाखियो सांप्रत, आव जैत कह मिळां अंपे।।
देख कवि कहियो अनदाता, अम्हां कमळ नह भाग इसो।
सारे रसी बहे तन सड़ियौ, कहौं मिलण रो वैंत किसो।।
कहतां हंसे मलफियौ कमधज, जुग हैकंपियौ जुओ जुऔ।
वांह ग्रहे मिळतां सुख बूझत, हेम सरीख सरीर हुयो।।
धन धन प्रथी कहें धू धारां, कळंक काट नकळंक कियौ।
दसमों साळगराम सदेवत, दिन तिण पीठवें विरह दियौ।।
बारू ने महाराणा हमीर (मेवाड़) की वीरता के विषय में लिखा है-
ऐळा चीतौड़ सहे घर आसी, हूं थारा दोखियां हरूँ।
जणणी इसो कहूं नह जायौ, कहवै देवी धीज करूँ।।
रावळ बापा जसो रायगुर, रीझ खीझ सुरंपतरी रूंस।
दस सहंसा जेहो नह दूजो, सकती करै गळा रा सूंस।।
मन साचै भाखै महंमाया, रसणा सहती वात रसाळ।
सरज्यो व्है अड़सी सुत सरखो, पकडे लाऊं नाग पयाळ।।
आलम कलम नवैखंड एळा, कैलापुरा री मींढ किसौ।
देवी कहै सुण्यो नह दूजो, अवर ठिकाणे भूप इसो।।
इसी प्रकार हमीर की दानवीरता के लिए बारू का कथन है-.
बैठक ताजीम गाम गज बगसे, किवरो मोटो तोल कियो।
बड़ दातार हेम बारू नैं, दे इतरो बारठो दियो।।
पोळ प्रवाह करे पग पूजन, बड़ा अवास छोळ द्रव वेग।
सिंधुर सात दोय दस सांसण, नाग द्रहे वीधा इम नेग।।
सहंस दोय महिषी अन सुरभी, कंचन करहां भरी कतार।
रीझे दिया पांचसे रेवतं दस सहंसा झोका दातार।।
कोडपसाव पेष जग कहियौ, अथपत यौं दाखे इण ओद।
श्रीमुख सपथ करे अडसी सुत, सोदां नह बिरचै सीसोद।।
बारू कृत महाराणा कुम्भा (मेवाड़) की यह प्रशस्ति भी दृष्टव्य है-
जद धर पर जोवती दीठ नागोर धरती।
गायत्री संग्रहण देख मन मांहि डरंती।।
सुर कोटी तेतीस आण नीरन्ता चारो।
नहिं चरंत पीवत मनह करती हंकारो।।
कुंभेण राण हणिया कलम आजस उर डर उतरिय।
तिण दीह द्वार संकर तणें कामधेनु तडव करिय।।
२. निन्दात्मक काव्य:- चारण जैसे गुणों के प्रशंसक हैं, वैसे ही अवगुणों के निन्दक भी। यद्यपि आलोच्य काल में प्रशंसा का स्वर ही अधिक सुनाई देता है तथापि इससे यह न समझना चाहिए कि चारण जिसका खाते उसी का यश गाते थे। हिन्दी-विद्वानों की यह धारणा कि चारण कवियों का लक्ष्य अपने अपने दाताओं का झूठा कीर्ति-गान करना था, सर्वांश में सत्य नहीं माना जा सकता। राजस्थान में समय समय पर ऐसे चारण भी हुए हैं जिन्होंने ‘राणाजी कहें वहीं उदयपुर’ वाली कहावत को न मानकर पथ-भ्रष्ट राजपूतों की खबर ली है। वीर माता का कायर पुत्र तो चारण के लिए बिल्कुल असह्य है। एक राजपूत में जैसे कायरता, कृपणता एवं कृतघ्नता का वह एकदम बहिष्कार कर देना चाहता है। किसी व्यक्ति से विरोध मोल लेना कोई हंसी-खेल नहीं है, फिर राज-सत्ता से टकराना तो प्राणों को संकट में डालना है। इतना होते हुए भी निर्दोष, निर्भीक एव सत्यप्रिय कवियों ने राजा-महाराजाओं एवं जागीरदारों के कुकृत्यों की जो भर्त्सना की है वह सर्वथा स्तुत्य है। इस दृष्टि से आल्हा, लूणकरण आदि कवियों के स्फुट छंद अवलोकनीय हैं।
जब चूंडा (मारवाड़) आल्हा को भूल बैठा तब कवि ने अतीत की स्मृति को सजग करते हुए एक सोरठा कहा कि हे चूंडाजी! इस समय तो आपको कालाऊ के काचरों की याद भी नहीं आती है क्योंकि अब आप मंडोर के इस ऊंचे महल में राजा होकर पत्थर की दीवार से बने बैठे हैं, अर्थात् किसी की ओर देखते तक नहीं-
चूंडा आवै न चीत, काचर काळाऊ तणा।
भूप भयौ भैभीत, मंडोवर रै माळिये।।
ब्राह्मणों के कहने में आकर जब मेवाड़ के महाराणा मोकल ने चारणों को हेय दृष्टि से देखना आरम्भ किया तब लूणकरण ने इसका उत्तर इस गीत द्वारा दिया था-
चोसठ मोहरां तवां कर चोणंग, बछड़ा सहित बदारन बांन।
दिन-दिन धणी चक्र गढ दरगे, दिएं नित्त विप्रां नें दांन।
ले दुज जात घरां मन हुलसे बांट करे गहरागण वंट।
मांसो रत्ति वंट परमाणे, छिन-छिन ले जावंत घंट।
लावी सुणे ब्रन री लूणो, चढ़ आयो मेहड़ चित्तौड़।
कर दरबार मिले प्रीति कम, मड़े स्नान हिंदवो मोड़।
मेहडू सात सिनान मांडिया, दान सात लीन्हा दुज होड।।
इतिहास इस कथन की पुष्टि करता है कि उदयसिंह अपने पूज्य पिता महाराणा कुम्भा की हत्या कर मेवाड़ की गद्दी पर बैठा था (१४६८ ई०) किन्तु इस पितृघाती से सब लोग घृणा करते थे, यहां तक कि वे उसका मुंह देखना भी पाप समझते थे। राजस्थान के चारण बंधुओं ने उसका नाम तक वंशावली में नहीं लिखा। इस घृणित एवं तिरस्कार-पूर्ण कार्य का प्रकाशन वे ‘ऊदो तू हत्यारो’ कहकर किया करते थे। राज्य के सरदारों में से किसी ने उसका साथ नहीं दिया जिससे उसे पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अन्त में रायमल ने उससे राज्य छीनकर मेवाड़ की गद्दी पर अपना अधिकार कर लिया (१४७३ ई०) । जब वह सहायता पाने की आशा से तत्कालीन दिल्ली सम्राट बहलोल लोदी से मिलने के लिए जा रहा था तब बीच ही में बिजली गिरने से उसे प्रायश्चित-स्वरूप प्रकृति की ओर से प्राणदण्ड मिल गया। चारण कवि ने उसे संबोधित करते हुए कहा- हे उदयसिंह! तुझे बाप को नहीं मारना चाहिए था। राज्य तो भाग्य में लिखा हो तभी मिलता है। देश का स्वामी तो रायमल हुआ और तेरा एक भी काम सिद्ध न हुआ-
ऊदा बाप न मारजै, लिखियो लाभै राज।
देस बसायो रायमल, सर्यो न एको काज।।
सत्य सदैव कटु होता है और इस कटुता को लेकर ही चारण कवियों ने क्षत्रिय धर्म के विकारों का शुद्धिकरण करने का प्रयत्न किया था, चाहे इसके लिए उन्हें शरीर ही क्यों न अर्पित करना पड़ा हो।
३. वीर काव्य:- चारण कवि की अक्षय कीर्ति का स्मारक उसका वीर काव्य है। युद्ध इसका अथ है, विजय अथवा वीरगति इसकी इति। इस अथ से लेकर इति तक एक योद्धा को न जाने कितनी दुर्दमनीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इनसे प्रभावित होकर कवियों ने जिस वीर काव्य का सृजन किया है, वह बड़ा ही ओजस्वी है। इसमें एक ओर जहां योद्धा की तेजस्विता, निडरता, प्रचण्डता, धीरता, भीषणता आदि का वर्णन है, वहां दूसरी ओर युद्ध-कौशल, मारकाट, विनाश, संहार, हस्त-लाघव आदि का। कहना न होगा कि इस क्षेत्र में चारण कवियों को जितनी सफलता मिली है उतनी अन्य किसी को नहीं। इस दृष्टि से आसा, हूंपकरण, हरसूर, आल्हा, सिवदास, पसाइत, खेंगार, टोडरमल आदि कवि उल्लेखनीय हे। इनमें आल्हा एवं सिवदास ग्रंथकार हैं। शेष सभी कवि स्फुट रचनाकार।
आल्हा कृत ‘वीरमायण’ वीर रस का एक उत्कृष्ट खण्ड-काव्य है। इसमें आलंबन, उद्दीपन, स्थायी एवं संचारी भावों का अच्छा परिपाक तैयार किया गया है। इसके अनुशीलन से पता चलता है कि प्राचीन काल में स्त्री-हरण, लूट-खसोट, पशुओं को घेरने तथा धर्म के नाम पर संघर्ष छिड़ जाया करते थे और क्षत्रिय वीर इनमें प्राणों की आहुति तक दे डालते थे। कवि में ओज सर्वत्र दिखाई देता है। कहीं-कहीं कल्पना का आश्रय भी लिया गया है। कथा-वस्तु सुसंगठित है। वीरम के सैन्य-संचालन एवं रण-चातुर्य का यह वर्णन कवि की सहृदयता एवं सजीवता का परिचायक है-
लाडणूं सूं धाड़ा लिया, वीरम वीरत्थे।
आण पोहत्था डावरे सब मोयल सत्थे।
वीरम कोमंड पकड़ियो, जम घालण वत्थे।
चाढ़ चपट्टी भेजवे, अस मारू मत्थे।
क्या नीसाणी तीर दी, पीरजादा कत्थे।
जाण कबूतर लोटिया, बाजीगर हत्थे।
जब सेनायें आमने-सामने आकर युद्ध करने लगीं, तब कवि ने उस दृश्य का बड़ा ही चित्रोपम वर्णन किया है-
साह तणा दळ सांमठा, जांगेरू आया।
जूझारू पतसाह का, नीसांण वजाया।
पीछा वळिया पातसा, मिळ लूटी माया।
वीरम कारण सांखला, सिर कीध पराया।।
और भी-
काढे ओटी कोट सू, भीम जेहा भाई।
सलाज दीधी सांखलां, जोयां घर जाई।
ध्रीहा ध्रीहा ढोलकी, सहवांण वजाई।
दस हजार चढ़िया दुझल, मिळिया थट आई।
चढ़ घोड़ा भड़ चालिया, रज गैण ढकाई।।
सिवदास कृत ‘अचलदास खींची री वचनिका’ भी वीर रस का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें मालवा के होशंगशाह एवं अचलदास खीची के युद्ध का ओजस्वी वर्णन है। निम्न कवित्त में कवि ने अचलदास की अद्भुत वीरता प्रदर्शित की है-
सातल सोम हमीर कन्ह जिम जउहर जाळिय।
चढिय खेति चहवाणि आदि कुळवट्ट उजाळिय।
मुगुत चिहुर सिरि मंडि वप्पि कठ तुळसी वासी।
भोजाउत भुज-बळहि करहि करिमर काळासी।
गढ खंडि पड़ंती गागुरण, दिढ़ दाखे सुरताण दळ।
संसारि नांव आतम सरगि, अचळ बेवि कीधा अचळ।।
भाव एवं कला की दृष्टि से सिवदास का स्थान ऊंचा है। कहीं-कहीं तो वर्णन बड़े ही रसमय एवं चमत्कारपूर्ण हैं। रूढ़ि का पालन करते हुए भी कवि की अभिव्यक्ति में मौलिकता है। वह विचार करता है- सिंह और हाथी एक ही वन के निवासी हैं, फिर इतना अंतर क्यों? सिंह का तो एक कौड़ी भी मोल नहीं होता और हाथी लाखों में बिकता है। हाथी के गले में बंधन पड़ा रहता है, इसलिए वह जिधर खींचा जाय, उधर ही चला जाता है। यदि सिंह ऐसे गले के बंधन को सह सके तो वह दस लाख में बिके-
एकइ वन्नि वसंतड़ा, एवड़ अंतर काइ?
सींह कवड्डी नह लहइ, गइवर लक्खि विकाइ।।
गइवर-गळइ गळत्थियउ, जहं खंचइ तहं जाइ।
सींह गळत्थण जइ सहइ, तउ दह लक्खि विकाइ।।
तउ दह लक्खि विकाइ, मोल जाणवि मुहगेरा।
कड़वा कारणि कथिन कोपि खउंदाळिम केरा।।
वेढ कीध पड़ियार, निहसि कट्टारउ दुहुं करि।
राइ न ग्रहउ नरसिंघ गळइ गळहथ जउं गइवरि।।
चारण कवियों का काव्य वीरों को कितना प्रोत्साहन देता था, आसा की कविता इसका ज्वलंत निदर्शन है। बनवीर के पुत्र राणकदेव (जालोर) को जब तघलखां एवं मघलखां नामक अलाउद्दीन खिलजी के सिपाहियों ने दिल्ली में बेड़ी पहना दी तब आसा के इस सोरठे ने उसे उत्तेजित किया-
रणका सूण जुगेह, राय आंगण रमो नहीं।
पहिरिस केम पगेह, वउ नैवरी वणवीर उत।।
यह सुनकर राणकदेव अपने झींथड नामक घोड़े पर सवार होकर आगे बढ़ने लगा। मुसलमानों ने उसके लिए तुच्छता-सूचक ‘रैकारे’ का प्रयोग किया, जिसे सुनकर आसा ने कहा-
तगा तगाई मत करै, बोलै मुंह संभाळ।
नाहर नै रजपूत नै, रैकारे री गाळ।।
इतना सुनते ही राणकदेव ने कटार निकाली और दोनों सरदारों को मारकर घोड़े पर चढ़कर आगे रवाना हो गया-
मगा तगा नै मार, रंगी कटारी राणुवा।
जब रुधिर से भरी कटारी और खून से भरी आखों से राणकदेव बाजार बीच होकर निकला तब बड़ा भारी कोलाहल मच उठा, जिस पर बादशाह कहने लगा-
कहो क्यूं कौलाहल कटक, सुध पूछै सुलताण।
मयंगळ थंभ मरोडियौ, के रीसाणौ राण।।
वीर काव्य के रचयिताओं में हूंपकरण का विशिष्ट स्थान है। उसके भावों मे नवीनता है। युद्धभूमि में वीररस के देवता की अवतारणा कराकर कवि ने उन्हें प्रसन्न करने के हेतु अपने चरित-नायक के कट-मरने का अनोखा वर्णन किया है। भटनेर के राजा जसा सोनगरा ने युद्ध में हार होते देख अपनी स्त्री का मस्तक काटकर गले में डाल दिया और युद्ध के बीच झूंझकर मर गया। उसने एक नहीं दो मस्तक एक साथ समर्पित कर दिये जिसे देख कर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए-
जुग च्यार लगेगा मुझ जोवतां, राज कने रेहतां दिन रात।
आज संवार बिचे उपावूं, जूना देव नवी आजात।।
आहव-आहव जितु आंणियां, सद जाणूं में दीठ सहे।
कमळा तणों कमळ तो कंथा, किम जुडियो इम वात कहे।।
मध्य रामायण सीस लिया में, आंकू ईस सगत तो एम।
जाय आंणियां सतीतूं जांणे, कोई न जाणे आणे केम।।
उतबंग आगे घणां आंणतो, नाथ कहे साभळ ने नार।
देणहार न मिळियो दूजो, सिंघ समोभ्रम जसो संसार।
आप तणोर त्रिया तण आपे, भड़ भटनेर पड़ंतां भार।
सिर बेहूंवे जसिये सोनगर, दीधा मुझ बडे दातार।।
एक ऐसा ही गीत हूंपकरण ने अलाउद्दीन खिलजी से युद्ध करते समय महारावल दुर्जनसाल के विषय में लिखा है। उस रण-बांकुरे का सिर प्राप्त करने की इच्छा से महादेव उसके पीछे-पीछे फिरने लगे। तलवारों की धार से जब उसका सिर खिर-खिर कर गिरने लगा तब महादेव ने कहा-तुम्हारा सिर बहुत ही क्षत-विक्षत हो गया है, अब तो उसे दे दो। अब तेरा यह सिर जगन्नाथ के अटके के समान फट पड़ेगा, तब तू ही बता वे टुकड़े किस काम में आवेंगे? में तेरे घोड़े के साथ दौडते-दौड़ते थक गया हूं, मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। सैकड़ों बार शंभू ने याचना की किन्तु उसके शरीर के ही समान मस्तक भी तिल-तिल हो गया और वह वैकुण्ठवासी हो गया। इस अद्भुत वीर-चमत्कार को देखकर निराश त्रिपुरारि भी ताली बजाकर अट्टहास करते हुए कैलाश की ओर प्रस्थान कर गये-
भाळौ जुध जूट कराळौ भाटी, तरमाळौ घुरियौ तिण बार।
लार फिरै पाळौ सिर लेवा, भगवती वाळौ भरतार।।
हात चलाय दिखण दळ हणिया, ऊफणियां खत्रवट अणपार।
भणिया दे माथौ भूतेसर, दुरजणिया मोटा दातार।।
काचे मते गया उड कायर, आरण बाचे पाठ अजेव।
सुत खूमाण लड़ै दिल साचै, सिर जाचे नाचे सिवदेव।।
तेगां दळ बादळ तड़िता सी, बरखा सी सर सोक वज।
एकण पगवाणू अविनासी, कासी वासी कमळ कज।।
खर खर पड़े वाढ रा खागां, वढे महेस चाढ रा बात।
अब तो कोट गाढ रा आपौ, छक धू गयौ माढ रा छात।।
झेले कवण जोध अर झटका, संकर लटका करे सत।
हर अटका जोड़े हुय जासी, आसी किण बटका अरथ।।
फिर फिर भगत कहै हर फोड़ा, कहिया थोड़ा भूझ कर।
दे थाकौ घोड़ा संग दौड़ा, खोड़ा ले म्हारी खबर।।
संभू नाथ कहयौ सौ बेरा, भला होय तेरा अण भंग।
मळियो माळ सुमेरा माफक, ओ जेसलमेरा उतबंग।।
बसियो जाय हंस बैकुंठां, पूगो दस दसियो अणपार।
रज रज सीस हुवो रणरसियो, ताळी दे हसियो त्रिपुरार।।
राव चूंडा के छोटे भाई रावत राघवदेव लखावत के युद्ध-कौशल से प्रभावित होकर हरसूर ने जो गीत लिखा, वह बड़ा ही ओजपूर्ण है। इसमें राव रणमल पर कटारी चलाने का वर्णन है-
पूचे बाथ पड़ंतो पहलो, सोहडस जूझा बाहे सार।
राघव ज बळी न दीठो रावत, कमळ कटारी काढणहार।।
हाथां अवसी हुए वसि हाथां, वाहे अणी खत्रीले वाढ़।
राघव काढ़ी तणै राय गुर, दांत विसेख किए जम दाढ।।
सीसोदा राण लखपति संभ्रम, पौरिस घणौ दाखवै पाण।
कर सत्र ग्रहे डसण खळ कळिहरण, काढी अणियाळी-कुळ-भाण।।
खत्र घणा किया आगे ही खत्रिये, कहिये पृथ्वी अनाथ किम।
कर गे प्रहिये कणी नहं काढी, जम दढ राघव देम जिम।।
राव रणमल ने अपने पिता के बैर का बदला चुकाने के लिए भाटियों से युद्ध किया। उसकी भीषणता का वर्णन करते हुए पसाइत कहता है-
लहै ग्रास बरहास, वेम भीचै बिलहीजै।
जरद काट काढिये, सार ससमारू कीजै।।
खैरवै मारीयै कटक अनि वाहर चड़ीया।
हिन्दू अनै हमीर आप सांम्हा आपड़ीया।।
राणा कुम्भा अपने समय का एक प्रसिद्ध योद्धा था। यवन सुलतानों से उसका कई बार संघर्ष हुआ किन्तु राणा ने कुम्भलमेर दुर्ग पर अधिकार नहीं होने दिया और यवन सेना को पराजित होकर लौट जाना पड़ा। खेंगार के शब्दों में-
धड़ भड़ नाचिया धारा छंद ढोइ ढोइ, परपंच सौह दाख विया प्राण।
कुम्भलमेर न दीन्हो कूम्भे, सेवा खेपे गयौ सुरताण।।
सरबस लेयण नरिंदां सिंगळां, सयल कळा जाणै सुरताण।
गढ कारणि गहिलोत राइ गुर, एक रीझवे न सकियो राण।।
खिळची विषम घात सहि खेली, वाजित्र सिगळे रहीआ वाह।
दुरंग न दीधो राउ दस-लहसै, पात्र गयो ठाळौ पतसाह।।
औप्रहि मागियौ कोट न आळियौ, इणि परि राण धयौ अवतार।
मेवाड़ै ठाळौ मोकलियौ, महमंद जेहुवौ मांगण हार।।
अरि सि ढीइ जेतला आया, गोरियां तेता भागा गात्र।।
खीजे गयो खजाना खाए, गजपति सारीखो गज-पात्र।।
टोडरमल ने महाराणा रायमल के कुंवर पृथ्वीराज (उड़ना) के शस्त्राघात से लल्ला पठान की मृत्यु का एक नवीन चित्र खींचा है। शरीर कट जाने पर उसकी ग्रीवा की नली श्वास से बजने लगी। इससे मोहित होकर हरिण एवं मणिधर सर्प उस नाद पर अपना हृदय समर्पित करने लगे-
तुड़ि चड़े प्रिथिमलि भांजे तोडौ, लला तणो वप विहडे लोहि।
वाए पाई नळी जिम वाजे, मृग मणिधर तिणि आवै मोहि।।
कूंभा-हरे डळेखळ कीधा, मंडळ वै जस तास मुणे।
पवनि झटाके नळी वंस परि, सारंग सरप सु नाद सुणे।।
माल संभ्रम रहचे मीर बच्चा, करये जुआल विखंड किया।
अनल भिरणी वाजता आवी, हरिण भुयंगम दिये हिया।।
किलवां चरण करग काचरिया, सीसोदे नर भर समर।
कुरंग उरंग राता तिणि कारणि, हाड बाजते नाद हर।।
मारवाड़ के राव रणमल का पुत्र चांपा एक अद्वितीय वीर हुआ है। उसके वंशज ‘चांपावत’ कहलाने में गौरव समझते है। सन् १४५९ ई० में गोडवाड़ प्रांत के सींधल, बालिया एवं सोनगरों ने मिलकर इसकी गायें पकड़ ली थीं, किन्तु इसने अपने अद्भुत पराक्रम से तीनों की सम्मिलित सेनाओं को परास्त कर उन्हें छुड़ा लिया। जब मांडू का सुलतान महमूद खिलजी पाली होते हुए दिल्ली जा रहा था (१४६५ ई०) तब गोडवाड़ के द्वेषियों ने बहकाकर उस पर आक्रमण करने की प्रार्थना की। चांपा को इस रहस्य का पता चल गया, अत: उसने घोड़े से सैनिकों के साथ सुलतान एवं सींधल के दांत खट्टे कर दिये। सींधल राजपूतों ने महाराणा रायमल (मेवाड़) की सहायता से चांपा पर आक्रमण कर दिया। घमासान युद्ध हुआ। शत्रुओं के बड़े-बड़े वीरों को तलवार के घाट उतारकर यह योद्धा वीरगति को प्राप्त हुआ। इस आदर्श योद्धा के रण-चातुर्य से प्रभावित होकर कवि ने विभिन्न छंदों में उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है-
।।दोहा।।
मांस पळच्चर सीस हर, हंस अपच्छर सत्त्थ।
चंपो चंपा फूल ज्यूं, होग्यो हत्त्थो हत्त्थ।।
।।गीत।।
कर पूजा गवर कहे राय कंवरी, घणैस हेत सनेह घणो।
उमिया सो भरतार म आवे, त्यां बैरी रिणमाल तणो।।
चोवा चंनण अरगचा चरचै, कुंकम टीको जोड़ कर।
चांपो ज्यां हूंतां जुध चाहे, बीसहथी मत देय वर।।
मोहवै अतर अनेधा परमळ, जगराणी संपिया जुगत।
चंडा हरौ जिकां न चढे जुध, पत इसड़ो दै देसपत।।
।।छप्पय।।
भड़ धड़ पाळ प्रबंध, अंग छंग किया तरोवर।
रोहर नीर सम भरे, मछ नाचत सरोवर।।
सीस कवळ फूलियौ, चंवर सेवाळ परट्ठे।
भंवर ग्रीध भणहणे, हंस राता कर दिट्ठे।।
सुण सूर चंप रिड़माल सुत, काळी की खप्पर भरै।
सत दूण स गण पंडीर जिम, रिण ताळा मंजण करै।।
मुंजसिंह (बालीसा चौहान) बड़ा वीर था। अपने पूर्वजों का बैर लेने के लिए इसने राणा लक्ष्मणसिंह के कुमार अजयसिंह को बहुत तंग किया। जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ ले लिया तब अजयसिंह केलवाड़ा में रहता था। मुंज ने अपनी सरहद में गुजरते समय पैर के झांझर रखा लिये थे। रानी ने अपने पति अजय से कहा कि मुंजा बालीसा को मार दो या स्वयं मर जाओ-
मेवाड़ा मुंजो मार के मुंजो थांनेज मारसी।
कंटिय ला सुकाढ के केलवाडा सु काढ़सी।।
सामर्थ्य न होने से अजयसिंह के भतीज हमीरसिंह ने, जो कम उम्र का था, मुंज को मारकर बैर लिया। मुंज ने यह सोचकर कि अजय ने अपने पुत्रों के लाभ के लिए हमीर को मरवाने भेजा है, घाव नहीं किया किन्तु उसकी अंतड़ियां निकल गई, पैर पागड़े में ही रहा और धड़ जमीन पर गिर पड़ा लेकिन मूंछों पर ताव देना न भूला-
धड़ धरती पग पागड़े, आंता तणे गरट्ट।
अजे न छोडे मुंजौयौ, मूंछां तणौ मरट्ट।।
४. भक्ति काव्य:- चारण-काव्य शान्त रस से शून्य नहीं। आलोच्य काल में अनेक प्रकार के युद्ध हुए अत: कवियों में भक्ति-भावना का उदय नहीं हो पाया। यही कारण है कि विशुद्ध भक्ति की दृष्टि से कोई रचना नहीं लिखी गई। हां, मावल एवं पीठवा के स्फुट छंदों में इसकी झंकार अवश्य सुनाई देती है। इनमें नीति एवं उपदेश के तत्व विद्यमान हैं जो जीवन के लिए लाभदायक हैं। राजस्थानी में लाखा-फूलाणी के नाम से वाद-विवाद के रूप में जो दोहे विकसित हुए हैं, उनके मूल रूप का पता लगाना कठिन है। संदेह नहीं कि मावल एक उच्चकोटि के विचारक थे। उनके विचारों को आत्मसात करने के लिए लाखा, फूलाणी, उसकी पुत्री एवं दासी के ये वचन ध्यान देने योग्य हैं-
(क) लाखा का कथन :
भरदां माया माणलो, लाखो कहै सुप।
षणा दिहाड़ा जावसी, के सत्ता के अट्ठ।।
(ख) फूलाणी का कथन:
फूलाणी फेरो घणो, सत्ता सूं अठ दूर।
राते देख्या मुळकता, वे नहिं उगते सूर।।
(ग) पुत्री का कथन:
लाखो भूल्यो लखपती, मा भी भूली जोय।
आंखां तणे फरूकडे, क्या जाणू क्या होय?
(घ) दासी का कथन:
लाखो अन्धो धी अंधी, अंध लाखारी जोय।
सांस बटाऊ पावणो, आवे न आवण होय।।
इसी प्रकार पीठवा का यह सोरठा उसकी धर्मपरायणता का द्योतक है-
आयो न कहे आव, बळता बोलावै नहीं।
तिण घर कदे न पाँव, परत न दीजे पेठवा।।
गुजरात में सदैव यह परम्परा रही है कि किसी अतिथि के जाने पर उसे ‘आवजौ’ कहा जाता है। इसी विचार साम्य का तुलसी का यह दोहा प्रसिद्ध ही है-
आव नहीं आदर नहीं, नैनन नहीं नेह।
तुलसी तहां न जाइये, कन्चन बरसे मेह।।
५. श्रृंगारिक काव्य:- भक्ति काव्य के सदृश इस काल में श्रृंगारिक काव्य भी अत्यन्त न्यून मात्रा में उपलब्ध होता है। वस्तुत: यह समय इस प्रकार की रचनाओं के लिए उपयुक्त नहीं था। अत: झीमा ही एक ऐसी कवयित्री है, जिसमें श्रृंगार की थोड़ी प्रवृत्ति दिखाई देती है। अमरकोट के राजा खीमरे सोढ़े के दरबार में उसने वरण हेतु यह दोहा सुनाया
इतरा भांयण हूं फिरी, सदूयत तो वैणेह।
वणे पति ना खीमरा, वीगे तो नैणेह।।
एक अज्ञात कवि ने प्रकृति के साथ हृदय की भावनाओं का सामंजस्य उपस्थित करते हुए वियोग का बड़ा ही सुन्दर चित्र अंकित किया है। हमीरसिंह का पुत्र तोगा बड़ा पराक्रमी था। इसने मेवाड़ के राणा के साथ कई युद्ध किये और उसे सफल नहीं होने दिया। इससे राणा की नवयौवना रानी चिन्ता करती हुई अपने पति की राह देखने लगी और अपनी सखी से बार-बार पूछती रही-
भुभली मद जोबन भीनी, बना सुहार चंदा वदिनी।
आवे नहीं सखे घर सुंधा, राण तणां दल तोगे रूधां।
वरषा रुत आई वसंती, कोयल कंठ अलाप करंती।
रंग महल चितारै राणी, नींद कवर रूघा ने ताणी।
आप तणो कंथ घरे ना आवे, वरसालो केम करी बोलावे।
कहो सखी हमे कांई करसां, तो बलवंत बल रूषां बालीसां।
माथे थावण जोबन माती, राजकुवार महेल रंग राती।
वरू घर ना वे वासण बोले, नागणियां छात्र विण डोले।।
६. ऐतिहासिक काव्य:- चारण काव्य की मुख्य विशेषता उसका ऐतिहासिक पक्ष है। मानव-जीवन में इतिहास की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। इतिहास ही भूत एवं भविष्य के बीच खड़ा होकर अपने ज्ञान-दान से वर्तमान को सुधारने की शिक्षा देता है। प्राचीन काल में हिन्दू जाति का इतिहास-प्रेम अनेक काव्य-ग्रंथों में प्रकट हुआ है जिनमें विभिन्न वंशों के राजाओं की घटनायें वर्णित हैं। कहना न होगा कि राजस्थानी का चारण साहित्य अधिकांश में ऐतिहासिक है। कहीं-कहीं तो वर्णन इतना शुष्क दिखाई देता है कि ऐतिहासिक महत्व ही उसका एक मात्र आकर्षण बन जाता है। चारण जाति के दूरदर्शी व्यक्तियों ने महत्वपूर्ण ब्यौरों को काव्य-माला में पिरोकर अमरत्व प्रदान कर दिया है। भले ही उनकी तिथियों में गड़बड़ दिखाई दे तथा घटनायें अतिरंजना से चित्रित हों पर कम से कम उनकी तथ्यता में संदेह नही किया जा सकता। इस दृष्टि से चारण इतिहास का निर्माता है जो अनादि काल से राजवंशों का जीवन-चरित्र लिखता आया है। इसके लिए उसे राजकीय पुरस्कार भी मिले हैं। प्राचीनकाल में चारणों को गांव, कुए, खेत आदि दान में दिये जाते थे जिसके प्रमाण मौजूद हैं।
आल्हा कृत ‘वीरमायण’ की घटनायें इतिहासज्ञों के लिए अत्यंत उपादेय हैं। इस दृष्टि से जैतसिंह द्वारा गुजरात के परमारों पर आक्रमण कर राजधरा पर अधिकार करना, अहमदाबाद के मुहम्मद बेगड़ा से युद्ध कर गींदोली का हरण करना आदि उल्लेखनीय हें। इसमें पांच युद्धों का वर्णन है। वीरमजी एवं जोइयों के युद्ध में इन दोनों के सम्बंध, युद्ध के कारण एवं उसके परिणाम का भी स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसी प्रसंग में दिल्ली बादशाह के अशर्फियों से लदे ऊंटों की राठौडों द्वारा हुई लूट और युद्ध का वर्णन भी दिया गया है। वीरमजी के पुत्र चूण्डा द्वारा मंडोवर पर अधिकार करने का भी पता चलता है। वीरमजी के एक पुत्र गोगादेव द्वारा जोइयों से युद्ध कर वीरमजी की मृत्यु का बदला लेने और वीरगति प्राप्त करने का वर्णन भी है। ये समस्त घटनायें इतिहास में भी आई है और डॉ० ओझा तथा पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊ ने भी इनका उल्लेख किया है। उदाहरण के लिए इंदा रायधवल ने अपनी पुत्री का विवाह चूंडा के साथ कर मंडोवर उसे दहेज में दिया था-
इन्दा रो उपगार, कमधज कदे न वीसरे।
चूंडा चंवरी चाड़, दियो मंडोवर दायजे।।
पसाइत का स्फुट काव्य भी ऐतिहासिक दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं। इतिहास में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि राव साला को पदच्युत करने के कुछ समय पश्चात् राव रणमल चित्तौड़ के राणा मोकलजी की सहायता द्वारा नागोर (मारवाड़) से मुसलमानों को भगाने में समर्थ हुआ था और उसने इस परगने को अपने राज्य में मिला दिया था। महाराणा कुम्भा के समय की कुम्भलगढ़-प्रशस्ति से भी इस कथन का समर्थन होता है। कवि ने अपने काव्य में नागोर के मुसलमान शासक का नाम पेरोज बताया है किन्तु इतिहास इस विषय में चुप है। एक ओर पेरोज और दूसरी ओर रणमल तथा मोकल जिस रणभूमि में आमने-सामने होकर भिड़े, उसका नाम कवि ने ‘जोतराई’ बताया है। इस घटना को लेकर कवि ने सप्त छप्पय-कवित्त की रचना की है। यथा–
अंब कोप पूरीयै, असि आंहूं उर चाड़े।
तरंग वेल विकसीयै, नींय थाट निघाड़े।।
अज्ञात चारण कवियों के स्फुट छंदों में भी अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रसंग आये हैं। कहते है, आबू पर पहले राठौडों का राज्य था। बाद में गोहिल राजपूतों का राज्य हुआ। उनसे परमारों ने ले लिया और परमारों से चौहानों ने। जब देवड़ा चौहान लूंभकरण ने आबू पर अपना आधिपत्य स्थापित किया तब आढ़ा खांप के कवि ने इस प्रसंग को एक छप्पय में पिरोया था-
आद पाट अरबद प्रथम राठोर परट्ठै।
ता पिछे गोहल बनसे बरस वयट्ठे।।
ता जाड़ा उबाड़ लीयो प्रमार नभे तण।
विच धारा वेराट, जश बिसतरे जणो जण।।
परमार अवुठे रण वहे, लूणकरण लीधो लखे।
कव अढ्ढ सुकर जोडे कहे, कैलास तास होसी अखे।।
इसी प्रकार सांचोरा चौहान विजयसिंह ने सन् ११८४ ई० के आसपास सांचोर लिया जो दहिया राजपूत विजयराज के पास था। तय हुआ कि दहियों को मारकर आधा-आधा सांचोर का प्रदेश बांट ले। विजयसिंह ने दहिया राजपूतों को मारा और बाद में महीरावण वाघेला को भी मारकर आप सांचोर का मालिक बना-
धरा धुण क चाल कीध दहिया दह वटे,
सबदी सबळां साथ प्राण मेवा सप हठे।
आलण सुत विजयसी वंश आसराव प्रागवउ,
खाग त्याग सरण विजै पंजर सोह।
चौहान राव चौरंग अचल नरा नाह अण भंग कर।
धुमेर सेस जालंग अचळ तामराव सांचौर घर।।
राव जोधाजी के छोटे भाई का नाम कान्हल था। ये अपने भतीजे बीका पर बड़ा स्नेह रखते थे। एक दिन कान्हल बीका का हाथ पकड़े हुए और उन्हें स्नेह भरी दृष्टि से देखते हुए जोधाजी के पास आ रहे थे। उनकी इस स्नेह-मुद्रा को देखकर जोधाजी ने हास्य-विनोद में कान्हल से कहा कि आज तो भतीजे का ऐसा हाथ पकड़ा है, जैसे कहीं का राज्य दिलाकर रहोगे। यह सुनकर वीर कान्हल से नहीं रहा गया। उसने जोधपुर छोड़कर (१४७० ई०) जाटों के १४ भूमिचारों पर विजय प्राप्त कर एक नवीन राज्य स्थापित किया और अपने भतीजे बीका के नाम से बीकानेर नगर बसाकर (१४८८ ई०) उसे सचमुच बीका को सौंप दिया-
कमधज राज भतीज को, सज बांधे बळसार।
जिण कान्हल भांजेजबर, चौदह भूमीचार।।
कहीं-कहीं ऐतिहासिक प्रसंगों में सत्यता कम एवं अतिशयोक्ति अधिक है। यथा, महाराजा पृथ्वीराज के विषय में कहा जाता है कि एक बार युद्ध में जब वे मूर्छित हो गये तब गिद्ध ने आकर उनके नेत्रों का नाश करना चाहा। यह देखकर वीर शिरोमणि संयमराय ने जो स्वयं घायल होकर युद्ध में पड़े थे, अपना मांस काट-काट कर गिद्धों की ओर फेंका जिससे वे पृथ्वीराज के नेत्रों से हटकर उसके मांस की ओर लपक पड़े। इस प्रकार महाराजा के नेत्रों की रक्षा वीरवर संयमराय ने अपने प्राणों की आहुति देकर की-
गीधन को पळ भख दिये, नृप के नैन बचाय।
सैदेही बैकुण्ठ में, गये जु संयमराय।।
७. भाषा, छंद एवं अलंकार:- राजस्थानी को स्वतन्त्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का यह उदयकाल था। उसकी प्रथम रश्मि से जग कर अनेक कवि आगे आने लगे। इसके लिए उन्होंने तत्सम शब्दों की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जितना देशी शब्दों की ओर। यही कारण है कि उनमें तद्भव शब्दों की प्रचुरता देखने को मिलती है। इसके अतिरिक्त ध्वन्यात्मक एवं वर्णात्मक विशेषताओं ने चारण कवियों की भाषा में एक नवीन रंग भर दिया। आलोच्य काल की कोई भी रचना ‘उ’ ‘ण’ तथा ‘ड़’ वर्ण के प्रयोग से शून्य नहीं मिलेगी। ‘ब’ का ‘व’ तथा ‘ल’ का ‘ळ’ प्रयोग भी बहुत हुआ है। हूंपकरण, हरसूर, सिवदास, पीठवा एवं खेंगार की भाषा ऐसी ही है। इसके साथ ही मुसलमानों के आगमन से फारसी एवं अरबी का तत्व भी प्रवेश करने लग गया था।
आलोच्य काल के कवियों में अलंकारों का आग्रह नहीं दिखाई देता। भले ही एक-दो कवियों में उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा जैसे सादृश्य-मूलक अलंकारों का प्रयोग मिल जाय किन्तु शेष सभी कवि घटनाओं को सीधे-सादे शब्दों में ही प्रस्तुत करना जानते हैं। इनका ध्यान जितना भाव की ओर है उतना उसकी सजावट की ओर नहीं। अपने मन के तत्व को सीधे-सादे शब्दों में व्यक्त कर देना ही इस युग की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। चारण कवियों का लक्ष्य एक ही भावना को उठाकर शब्द-गुम्फन द्वारा शौर्य जागृत करना था। अत: उनमें नाद तथा प्रसंग की जमावट तो मिलती है लेकिन उक्ति में वक्रता का अभाव ही पाया जाता है।
छंद की दृष्टि से चारण साहित्य अध्ययन की वस्तु है। इस काल में प्रधानत: दोहा, सोरठा, गीत एवं छप्पय छंद प्रयुक्त हुए हैं। प्राय: सभी कवियों ने इनका प्रयोग किया है। दोहा राजस्थानी का एक अत्यन्त प्रिय छंद है। इसे दसवां वेद कहा गया है। कहना न होगा कि चारण कवियों के हाथ में पड़कर इसका पर्याप्त विकास हुआ। फुटकर रचनाओं में ‘गीत’ छंद अपनी पृथक विशेषता रखता है। चारण बंधु इसे अपनी सम्पत्ति मानते हैं। यह लक्ष्य करने की बात है कि ये गीत गाये नहीं जाते, एक विशेष लय के साथ पढ़े जाते थे। पढ़ने की शैली बड़ी ही भव्य एवं प्रभावोत्पादक होती है। चारणों के मुंह से इन गीतों को सुनकर वीर राजपूत हंसते-हंसते प्राणों का विसर्जन करते थे। गीत अपने आप में एक पूर्ण कविता है। जैसे एक कविता में अनेक पद्य होते हैं वैसे ही एक गीत में कई दोहे। इनका अपना पृथक विधान है। एक गीत के सभी दोहों में प्राय: एक ही भाव काव्य-चातुर्य के द्वारा भिन्न-भिन्न रूप से प्रदर्शित किया जाता है। इस विषय में इतिहास के महारथी डॉ. ओझा लिखते हैं-‘राजपूत राजाओं, सरदारों आदि के वीर कार्यों, युद्धों में लड़ने या मारे जाने, किसी बड़े दान के देने या उनके उत्तम गुणों अथवा राणियों तथा ठकुराणियों के सती होने आदि के सम्बंध में डिंगल भाषा में लिखे हुए हजारों गीत मिलते हैं। ये गीत चारणों, भाटों, मोतीसरों और भोजकों के बनाये हुए हैं। इन गीतों में से अधिकतर की रचना वास्तविक घटना के आधार पर की गई है परन्तु इनके वर्णनों में अतिशयोक्ति भी पाई जाती है। युद्धों मै मरने वाले जिन वीरों का इतिहास में संक्षिप्त विवरण मिलता है, उनकी वीरता का ये अच्छा परिचय कराते हैं। गीत भी इतिहास में सहायक अवश्य होते हैं। राजाओं, सरदारों, राज्याधिकारियों, चारणों, भाटों, मोतीसरों आदि के यहां इन गीतों के बड़े-बड़े संग्रह मिलते हैं। कहीं-कहीं तो एक स्थान ही में दो हजार तक गीत देखे गये। इनमें से अधिकतर वीर रस पूर्ण होने के कारण राजपूताने में ये बड़े उत्साह के साथ पढ़े और सुने जाते थे। इन गीतों में से कुछ अधिक प्राचीन भी हैं, परंतु कई एक के बनाने वालों के समय निश्चित न होने से उनमें से अधिकांश के रचना-काल का ठीक-ठीक निश्चय नहीं हो सकता। गीतों की तरह डिंगल भाषा के पुराने दोहे, छप्पय आदि बहुत मिलते हैं। वे भी बहुधा वीररस पूर्ण हैं और इतिहास के लिए गीतों के समान ही उपयोगी हैं। ‘ इन गीतों में हूंपकरण, हरसूर, लूणकरण, पीठवा, खेंगार, बारू एवं टोडरमल ने विशेष सफलता प्राप्त की है। इनके अतिरिक्त आल्हा ने नीसाणी एवं चानण ने षटपदी छंदों में रचना कर इस क्षेत्र का विस्तार किया है।
(ग) गद्य साहित्य:- गद्य वह काव्य है जो छंदों की निर्बन्धता में भी पद्य का आभास देता है। राजस्थानी रीतिग्रंथों के आधार पर वचनिका गद्य का एक प्रमुख भेद है। ‘वचनिका’ वचन से बना है जिसका सीधा-सादा अर्थ यही दिखाई देता है कि मनुष्य के मुह से निकलने वाले सार्थक शब्द समूह का नाम ही वचनिका है। यह लक्ष्य करने की बात है कि संस्कृत गद्य काव्य की अपेक्षा राजस्थानी गद्य काव्य में तुक मिलने का ध्यान रखा गया है। हिन्दी में कवि बनारसीदास की वचनिका-संगत रचनायें तो उपलब्ध होती है किन्तु तुक नहीं। हिन्दी में साधारण गद्य तथा विवेचनात्मक टीका का नाम ही वचनिका है। राजस्थानी में यह तुकांत-प्रधान हैं। इसके दो उप-भेद किए गए हैं–एक, पद्यबद्ध और दूसरा, गद्यबद्ध। पद्यबद्ध वचनिका में मात्राओं का नियम होता है जिसमें कहीं-कहीं ८-८ मात्राओं के तुकयुक्त गद्य खण्ड होते हैं तो कहीं २०-२० मात्राओं के। गद्यबद्ध वचनिका में मात्राओं का नियम नहीं होता। इसके अन्तर्गत कहीं-कहो तुकांत गद्य के लिए वात, वार्ता या वार्तिक नाम का प्रयोग देखा जाता है। ‘वात’ संस्कृत शब्द ‘वार्ता’ से बना है जिसका अर्थ हैं-कथा। अतुकांत बातें तो बहुतेरी मिलती हैं।
राजस्थानी के चारण साहित्य में सिवदास कृत ‘अचलदास खीची री वचनिका’ प्रथम गद्य-रचना है (१५ वीं शताब्दी पूर्वार्द्ध) इसकी एक प्रति अनूप संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर में भी विद्यमान है। इसमें पद्य है और गद्य भी। यह गद्य सरस एवं प्रांजल है। लेखक ने सर्वत्र तुक का निर्वाह नहीं किया फिर भी वचनिकासंज्ञक रचनाओं की विशेषताओं से यह विहीन नहीं है। प्रधानत: इसमें विड़द, वात एवं वचनिका के रूप में तत्कालीन गद्य के उत्कृष्ट उदाहरण प्राप्त होते हैं। प्रत्येक का क्रमश: एक-एक नमूना देखिये-
१, ‘पगि-पगि पउळि-पउळि हस्ती की गज-घटा। ती ऊपरि सात-सात तइ धनक-घर सांवठा। सात-सात ओळि पाइक-की बहठी, सात-सात ओळि पाइक-की उठी। खेड़ा उडण मुद फरफरी चुंह चकि ठांइ-ठांइ ठठरी। इसी अेक त्या पटउडि चत्र दिसि पड़ी, तिण वाजित-कइ निनादि धर-आकास चड़हड़ी। बाप बाप हो ! थारा आरभ-पारंभ लागि गढ लेयणहार, किना बाप बाप हो ! थारा सत तेज अहंकार, राइ दुग राखणहार।’
‘वचनिका अचलदास खीची री’ का प्रमुख आकर्षण इसके अन्तर्गत आई हुई बातें हें। राजस्थान में इनके कहने का ढंग अभिनव होता है। इसका कहने वाला प्रसंग हाथ में पड़ते ही विस्तार से उसके अनुकूल ऐसा वर्णन करता है कि श्रोता रसमग्न होकर समय की कोई चिन्ता नहीं करता। सिवदास की वातों में यह विशेषता पाई जाती है। यथा-
२. ‘ते राजा नरसिंघदास सारीखा। बतीस सहस साहण रिण-खेति मेल्हि चाल्यउ। मदोनमत्त हस्ती मेल्हि चाल्याउ। आपण जाइ समंदइ घाल्यउ। समंद जाइ खांडउ पखालियउ। अनेक राइ मदगलित करि मेल्ह्या। ते राजा नरसिंघदास सारीखा ते राजा नरसिंघदास-का कुंवर तउ चांदजी खेमजी सारीखा। मातंगपुरी का चक्रवती लखमराव सारीखा। .. ..देवसीह सारिखा। बून्दी-का चक्रवती अवर देवड़ा हींदू-राइ बंदि-छोड दूसरा मालदे समरसीह सारिखा। देस तउ कउण-कउण ? सतियासी नमियाड़ जुग मानधाता आसेरि दूगउर सिलार पुर लगइ-का कटक बंध। मझ देस तउ मांडव घार उजीण सीह.. खंड खंड का नगर-नगर का खान मीर, अमराव चतुरंग दळ चढि चाल्या, पातसाह आपुण पउ पलाण चाल्या। इसउ हींदू राजा उपकंठि कउण छइ जिकइ मनि पातिसाह-को रीस वसी, कउण-का माथा तइं किसी ? कउण-हइ दई रूठउ ? कउण-को माई विवाणी, जू सामउ रहइ अणी पाणी ? आज तउ सोम सातल कान्हड़दे नहीं, तिलक छपरि तउ गहिलउतु नहीं, सीहउरि रउळु नहीं, हठ-कउ राउ हमीर आथम्यउ।’
३. ‘जग जोत जाण, ऊगोक भाण। मुख-चेप्रमाण, महिराण मान। लाखा सुदिन, करताब करन। अहिकार राण, दूजेण माण, अरजन बाण। सूरां हसीम, भारथ भीम, नरपति नीम। सेनाधिपत, हमीर मत, सातलह चित। पातल है पाण, चोईस साख पति राव चहुवाण।’
*******तीसरा अध्याय समाप्त*******
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