चारण साहित्य का इतिहास – चौथा अध्याय – मध्यकाल (प्रथम उत्थान) – [Part-A]

मध्यकाल (प्रथम उत्थान)

(सन् १५००-१६५० ई.)

(१) – काल विभाजन

हिन्दी एवं राजस्थानी साहित्य के मर्मज्ञों ने आलोच्यकाल का विभाजन अपने-अपने ढंग से किया है। अत: चारण साहित्य की तत्कालीन प्रवृत्तियों को हृदयंगम करने में कोई सहायता नहीं मिलती। इस काल में भक्ति विषयक रचनाओं की एक अविच्छिन्न धारा फूट पड़ी, जो अपनी मन्थर गति से इस काल के द्वितीय उत्थान तक कल्लोल करती रही। भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से यह आदान-प्रदान का समय था। राजस्थानी के कवि ब्रजभाषा में भी काव्य-रचना करने लगे। डॉ. मेनारिया के ‘राजस्थान का पिंगल साहित्य’ ग्रंथ से इस कथन की पुष्टि होती है। मुगल साम्राज्य की स्थापना से राजघरानों पर विलासिता मँडराने लगी। फलत: श्रृंगारिक काव्य का अंकुर भी प्रकट हुआ। विदेशी जातियों के आगमन से राष्ट्रीयता की भावना भी जागृत हुई, जो उत्तरोत्तर बलवती होती गई। इसका उद्‌गार राणा प्रताप के नेतृत्व में प्रकट हुआ। सन्देह नहीं कि विपरीत परिस्थितियों में यह भावना प्राय: प्रसुप्तावस्था में बनी रही, किन्तु अनुकूल परिस्थितियों में उसके जगने में विलम्ब न हुआ। इन समस्त गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए हमने प्रस्तुत काल का अध्ययन पृथक अध्याय के अन्तर्गत किया है। कला, संस्कृति एवं साहित्य के क्षेत्र में यह समय अभिनव है। इसे स्वर्ण-युग का नव-प्रभात कहा जा सकता है।

(२) – राजनैतिक अवस्था

(क) राजस्थान एवं केन्द्रीय सत्ता:- लोदी वंश के पतनोन्मुख हो जाने पर राजस्थान के क्षत्रिय नरेश चाहते तो अपनी लुप्त प्राय: राजनैतिक स्वतंत्रता को पुन: प्राप्त कर सकते थे, किन्तु राणा सांगा (मेवाड़) के बाबर से पराजित होते ही इसकी आशा जाती रही। बाबर के शासन-काल के साथ (१५२७ ई०) भारत में मुगल वंश की नींव पड़ी जो कालांतर में अनेक बादशाहों द्वारा सुदृढ होती गई। बाबर के वंशज १८५७ ई. की राज्य क्रांति तक बराबर शासन करते रहे। निदान, राजस्थान के राजाओं को केन्द्रीय सत्ता से किसी न किसी रूप में अपना गठ-बंधन रखना ही पड़ा। राजपूत राजाओं एवं मुगल बादशाहों के सम्बन्ध को चार भागों में विभाजित किया जाता है-

१. संक्रांति काल (१५००-१५५८ ई०) इस समय में मेवाड़ एवं मारवाड़ ने मुगल आक्रमणकारियों का डट कर सामना किया। राणा सांगा की युद्ध-वीरता प्रसिद्ध ही है। सांगा के उत्तराधिकारियों में रतनसिंह द्वितीय, विक्रमादित्य एवं वणवीर हुए जिनमें आक्रमणकारियों से लोहा लेने की क्षमता नहीं थी, अत: मेवाड़ की शक्ति शनैः-शनै: क्षीण होती गई। मारवाड का मालदेव अवश्य ही एक शक्तिशाली राजा था जिसके विषय में शेरशाह ने कहा था ‘खैर हुई वर्ना मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैंने हिन्दुस्तान की बादशाहत ही खोई थी।’ शेरशाह की मृत्यु के उपरान्त (१५५६ ई०) सूरी सल्तनत का सूर्य सदैव के लिए अस्त हो गया। हुमायू भी अधिक वर्षों तक राज्य नहीं कर पाया। उसके पश्चात् अकबर भारतीय मुगल साम्राज्य का बादशाह हुआ, जिसने धीरे-धीरे लगभग सारे राजस्थान पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। अत: सन् १५५८ ई० से राजस्थान के इतिहास में एक सर्वथा नए युग ‘मुगल-विजय-काल’ का सूत्रपात हुआ।

२. मुगल-विजय-काल (१५५८-१५७७ ई०) राजस्थान के राजा-महाराजाओं को आपस में ही मर मिटते देखकर मुगलों ने अपनी स्थिति सुदृढ बना ली। इस दृष्टि से अकबर की अजमेर यात्रा उल्लेखनीय है। उसने राजा भारमल कछवाहा (आम्बेर) एवं उसके परिवार की मान-मर्यादा को बढ़ाना आरम्भ किया। भारमल ने अपनी राजकुमारी का विवाह अकबर के साथ कर दिया (१५६२ ई०) राजस्थान के राजघराने के साथ एक मुसलमान बादशाह के पाणिग्रहण का यह सर्व प्रथम उदाहरण है। चतुर राव सुर्जन ने, रणथम्भोर का दुर्ग देते समय अकबर से यह प्रतिज्ञा करवाई थी कि वह राजपूत राजघरानों से राजकुमारियों की फरमायश नहीं करेगा। यदि इस प्रकार के राजाओं ने संयुक्त मोर्चा लिया होता तो अकबर का स्वप्न क्षण भर में ही भंग हो सकता था।

राव मालदेव का निधन होते ही (११६२ ई०) जब उसके पुत्र आपस में लड़ने लगे तब जोधपुर पर मुगलों का आधिपत्य हो गया। राजस्थान में राणा उदयसिंह (मेवाड़) के अतिरिक्त अब और कोई राजा स्वतन्त्र नहीं रह गया था। अकबर जानता था कि राजपूत राजाओं के सिरताज मेवाड़ के महाराणा हैं, अत: उन्हें अधीन किए बिना मनोरथ सिद्ध होने का नहीं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने चित्तौड़ हस्तगत किया (१५६७ ई०) और फिर रणथम्भोर भी ले लिया (१५६९ ई०)। स्वाधीनता-संग्राम के अमर सैनिक वीर केसरी महाराणा प्रताप ने विदेशी सत्ता के आगे नतमस्तक होना क्षत्रिय जाति के लिए अपमान समझा। फलत: मेवाड़ के साथ अनवरत युद्ध होते रहे। अकबर की मेवाड़-यात्रा के साथ मुगल-विजय-काल का भी अन्त हो जाता हे।

३. मुगल-मेवाड़ संघर्ष तथा राजनैतिक एकता (१५७७-१६१५ ई०) राजस्थान विजय की महत्वाकांक्षा से अकबर ने एक विशाल सेना मेवाड़ भेजी जिसने कुम्भलगढ़ पर अधिकार कर लिया (१५७७ ई०)। जब अकबर काबुल की समस्या को हल करने में संलग्न था तब प्रताप ने अपने खोए हुए अधिकांश भाग पर पुन: आधिपत्य स्थापित कर लिया। यह देख कर अकबर ने कछवाहा जगन्नाथ के साथ मेवाड़ की ओर सेना भेजी (१५८४ ई०) किन्तु उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा। दाने-दाने को मोहताज होने पर भी मेवाड़ की, स्वाधीनता को अक्षुण्ण बनाए रखना प्रताप के जीवन का चरम लक्ष्य था। उनका स्वर्गवास हो जाने पर अकबर के ज्येष्ठ पुत्र शाहजादे सलीम ने राजा मानसिंह (जयपुर) के साथ राणा अमरसिंह के समय में मेवाड़ पर पुन: आक्रमण किया (१६०० ई०) किन्तु विलासप्रिय सलीम घबरा कर उल्टे पांव लौट पड़ा। अकबर का देहान्त हो जाने पर (१६०५ ई०) जहाँगीर ने मेवाड़ पर दो आक्रमण किए। परिस्थिति की कठोरता से दब कर राणा को मुगलों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार राजस्थान में मुगलों ने राजनैतिक एकता स्थापित कर दी।

४. शान्ति-समृद्धि काल (१६१५-१६५२ ई०) मेवाड़ की अधीनता के साथ राजस्थान में सर्वत्र शान्ति छा गई। थोड़े बहुत उपद्रव अवश्य हुए किन्तु उनका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। ऐसे समय मुगल शासकों से व्यापारिक सन्धि करने के लिए जेम्स का राजदूत सर टामसरो अजमेर पहुँचा और वहाँ अंग्रेज व्यापारियों ने एक कोठी बनवाई (१६१६ ई०) वास्कोडिगामा की खोज के पश्चात् भारत में अनेक यूरोपीय जातियों का आगमन हुआ जिससे आधुनिक व्यवसाय का सूत्रपात हुआ। अजमेर को राजस्थान प्रान्त की राजधानी बनाए जाने के बाद उसका राजनतिक महत्व उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। शाहजहाँ के समय में राजनैतिक एवं आंतरिक शान्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्राय: सभी नरेश शाही सेवा में उपस्थित थे।

(ख) प्रांतीय शासक एवं शासन-व्यवस्था:- मुगलों को परास्त करने के लिए क्षत्रिय नरेशों ने अनेक भागीरथ प्रयत्न किए किन्तु सब निष्फल सिद्ध हुए। इस दृष्टि से सांगा का चरित्र उल्लेखनीय है। उसका आदर्श राजस्थान में ही नहीं प्रत्युत भारतीय राजनीति में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसी समय राजस्थान के योद्धाओं को प्रथम बार तोपों का सामना करना पड़ा। बाबर की व्यूह-रचना और पार्श्वों पर आक्रमण करने की युद्ध-प्रणाली भी राजपूतों के लिए सर्वथा नई थी। वीर भाव की दृष्टि से राजपूतों की युद्ध-विद्या के विकास में एक नवीन अध्याय का श्रीगणेश यहीं से होता है।

राणा सांगा के साथ स्वातंत्र्य-दीप के बुझते ही कुछ काल के लिए वीर सैनिक अंधकार में भटकते रहे, किन्तु उनमें स्नेह का अभाव नहीं था। उचित नेतृत्व में मार्ग-दर्शन पाकर उन्होंने समय-समय पर पराधीनता के विरुद्ध शस्त्र उठाया, किन्तु प्रांतीय शक्ति विश्रृंखल हो जाने से उन्हें सफलता नहीं मिली। यही कारण है कि रत्नसिंह द्वितीय से लेकर अमरसिंह प्रथम तक अनेक युद्ध हुए, किन्तु उनका परिणाम कुछ भी नहीं निकला। मेवाड़ के सदृश जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, प्रतापगढ़ एवं डूंगरपुर राज्यों में भी मर-मिटने वाले वीर पतंगों का अभाव नहीं था, किन्तु एक बार पराधीनता के गर्त में गिर कर बाहर निकलने की सामर्थ्य किसी में न रह गई थी। राव मालदेव के पश्चात् जोधपुर के शासक ऐसे ही थे। बीकानेर के राव जैतसिंह, करणसिंह एवं रायसिंह भी चुप बैठे रहे। कुछ शासक ऐसे भी थे, जिन्होंने स्वेच्छा से मुगलों के आगे सिर झुकाया। भगवानदास (जयपुर) और अकबर की गाढ़ी मित्रता इतिहास प्रसिद्ध है।

बाह्य संघर्षों के साथ राजस्थान में आंतरिक उपद्रव भी कम नहीं हुए। अत: राजस्थान के शासकों का ध्यान शासन-व्यवस्था की ओर आकर्षित नहीं हो पाया मुगल-विजय काल तक राजस्थान के विभिन्न राज्यों की शासन व्यवस्था अत्यन्त शोचनीय थी। मुगल विजेताओं के भयंकर अभियान, राज्यगद्दी को लेकर घरेलू फूट एवं आंतरिक विरोध सम्बन्धी कठिनाइयों से स्थिति बड़ी ही डांवाडोल हो गई। मेवाड़ के घाव अभी भरे नहीं थे, अत: वहाँ का शासन पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो चुका था। मारवाड़ एवं बूंदी भी अस्त-व्यस्त थे। प्राय: सभी राज्यों में लोकतंत्रात्मक व्यवस्था का अभाव था। सतत विरोध, विश्रृंखल एवं विनाश के पश्चात् लोगों का ध्यान शासन-प्रबन्ध की ओर गया। अकबर के समय में राजस्थान सूबे का निर्माण हुआ, जो आगे चल कर अजमेर के सूबे के रूप में पूर्णतया सुसंगठित हो गया। सन् १५८० ई० के आरम्भ में करोड़ी व्यवस्था को बदल कर नया माली बन्दोबस्त कर दिया गया और लगान की नई दरें निर्धारित की गई। अकबर ने इसी वर्ष विस्तृत साम्राज्य को १२ सूबों में विभक्त कर शासन को नए ढंग से संगठित किया। यह ‘अजमेर सूबा’ कहलाया। शांति समृद्धि काल में मेवाड़ पर पुन: मुगलों का प्रभाव हटने से वहां की शासन-व्यवस्था में अनेक सुधार आवश्यक हो गए। फलस्वरूप कृषि एवं व्यापार की बहुत उन्नति होने लगी। अकबर के आगे नतमस्तक होने वाले प्राय: सभी राज्यों को शासन-प्रबन्ध की छूट थी। यह उल्लेखनीय है कि ऐसे नरेशों या शासकों के प्रांतीय शासन से सम्बद्ध होते हुए भी उनके अधिकार वाले प्रदेशों के आन्तरिक शासन-प्रबंध या वहां के अन्य घरेलु विषयों में प्रान्तीय मुगलाधिकारियों की ओर से किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होता था। इसी समय मे घोड़ों को दाग़ने की प्रथा प्रचलित हुई। ये घोड़े शाही सेना के लिए विभिन्न मनसबदारों द्वारा रखे जाते थे। इस नियम का कड़ाई के साथ पालन नहीं किया गया फिर भी यह प्रथा बराबर बनी रही। राजस्थानी नरेशों के विरोध करने पर भी उन्हें पराधीनता का यह दाग़ सहना पड़ा, जिसे देखकर राजस्थान की जनता भी कम क्षुब्ध नहीं थी। राणा प्रताप की प्रशंसा में बनाए हुए सारे मुगलकालीन राजस्थानी काव्य में उसके ‘अणदाग़ळ असवार‘ होने की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की गई है।

(३) – सामाजिक अवस्था

राजस्थान की राजनीति का उसके सामाजिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ा। संक्रांति काल में जनता को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। बाह्य एवं आंतरिक घात-प्रतिघातों से यहां की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ गई। मुगलों के द्वारा जीते जाने पर भी गुजरात प्रांत एवं वहां जाने वाले व्यापार मार्गों की स्थिति डांवाडोल हो रही थी, जिससे राजस्थान के व्यापार को बड़ा धक्का लगा। आरम्भ में हिन्दू तथा मुसलमानों में कोई विशेष सम्पर्क नहीं हुआ, किन्तु जैसे-जैसे विभिन्न राज्य केन्द्रीय दासता स्वीकार कर अपने सम्बन्ध बढ़ाने लगे, वैसे-वैसे पारस्परिक आदान-प्रदान बढ़ता गया। एक बार शान्ति स्थापित हो जाने पर यह प्रांत शनैः शनैः समृद्ध होने लगा और यहाँ की आमदनी में भी तेजी से वृद्धि हुई। कालान्तर में राजपूत शासक मुसलमानी सभ्यता एवं संस्कृति में इतने अधिक तन्मय हो गये कि दोनों में एक विचित्र समानता की भावना उत्पन्न हो गई, जिसका प्रभाव राजस्थान-वासियों के आचार-विचार, रहन-सहन, वेश-भूषा एवं खान-पान पर भी पड़ा। नारियों की वेष-भूषा पूर्ववत् ही बनी रही। डॉ० रघुवीरसिंह ने ठीक ही लिखा है- ‘उस काल का दैनिक जीवन राज्य-दरबार के शिष्टाचार, नैतिक संयम के ऊपरी दिखावे तथा व्यावहारिक मर्यादा के बाह्य आवरण के भार से इतना दब गया था कि उसमें उन्मुक्त लास्य-लीला का प्रस्फुटन असंभव सा हो गया। इस बंधनपूर्ण बोझिल वातावरण का आभास तत्कालीन चित्रों में भी आये बिना नहीं रहा, जिससे उनमें अत्यावश्यक सजीवता नहीं आ सकी।

(४) – धार्मिक अवस्था

इस काल में सूफी संतात्माओं एवं भक्तिमार्गी महापुरुषों के सदुपदेशों से हिन्दु तथा मुसलमान एक दूसरे को सहिष्णुता की दृष्टि से देखने लगे। अत: मुगलकाल में उस प्रकार का धार्मिक अत्याचार नहीं हुआ, जिस प्रकार दिल्ली के सुलतानों के समय में हुआ था। राजस्थान के राजा-महाराजाओं ने भी धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाकर अपनी विशाल-हृदयता का परिचय दिया। सारग्राही अकबर ने ‘दीन-ए-इलाही’ की स्थापना कर धार्मिक क्षेत्र में एक महान परिवर्तन आरम्भ किया, किन्तु हिन्दू-मुसलमानों में एकता स्थापित नहीं हो पाई। देशव्यापी भक्ति-आंदोलन के प्रभाव से राजस्थान में भी निर्गुण एवं सगुण धारायें कल्लोल करती हुई वैष्णव धर्म का माहात्म्य गाने लगीं। निर्गुणधारा से ज्ञानाश्रयी तथा प्रेम मार्गी शाखायें और सगुण धारा से राम तथा कृष्ण-भक्ति शाखायें पल्लवित एवं पुष्पित होने लगीं। सूर तथा तुलसी की सगुणोपासना का प्रभाव इस प्रान्त पर भी पड़ा, जिससे लोगों में धार्मिक विचार पुष्ट होते गये और मूर्ति-पूजा तथा पाठ-पूजा को अधिकाधिक महत्व प्राप्त होता गया। मीरा कृष्ण की उपासना में सदैव रत रहती थी। नाभादास एवं अग्रदास ने वैष्णव शाखा के आचार्य रामानुज द्वारा प्रतिपादित रामभक्ति का आश्रय ग्रहण किया। संत कबीर के पद-चिन्हों का अनुकरण कर दादू-पंथ उठ खड़ा हुआ, जिसने अपने सिद्धान्तों का प्रान्त भर में प्रचार किया। दादू के ज्येष्ठ पुत्र गरीबदास एवं अन्य पंथानुयायियों ने, जिनमें रज्जब एवं सुन्दरदास के नाम उल्लेखनीय हैं, निरंजन निराकार परब्रह्म की सत्ता को मानते हुए धर्म के बाह्याचारों का खंडन किया। वैष्णव धर्म के साथ-साथ जैन धर्म भी विकसित होता रहा।

(५) – चारण साहित्य

इस काल में चारण साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ। विभिन्न राजा-महाराजाओं के राज्याश्रित कवियों ने एक ओर जहाँ परम्परागत वीर-काव्य के द्वारा क्षत्रियत्व का स्तुति-गान किया, वहां दूसरी ओर नवीन परिस्थितियों के अनुरूप वीर योद्धाओं को राष्ट्रीय रचनाओं के द्वारा स्वातन्त्र्य-वेदी पर हँस-हँस कर प्राणों की बाजी लगा देने के लिए प्रेरित किया। राजस्थान के अमर राष्ट्रीय चारण कवियों की ओजपूर्ण वाणी एवं भावपूर्ण मर्मभेदी कृतियां शताब्दियों तक इस वीर वसुन्धरा को प्रतिध्वनित करती रहीं। संत-वाणियों का प्रभाव चारणों पर भी पड़ा, जिससे भक्ति की धारा फूट पड़ी। मुसलमानों की विलासिता के परिणामस्वरूप लौकिक प्रेम-लीलाओं को भी प्रोत्साहन मिलने लगा। इस प्रकार चारण-साहित्य का क्षेत्र विस्तृत होने लगा और उसमें नाना प्रकार की रचनाओं का सूत्रपात हुआ।

(६) – कवि एवं उनकी कृतियों का आलोचनात्मक अध्ययन

(क) जीवनी खण्ड:
१. हरीदास:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे पर इनके गीतों में ‘केहरिया’ कई स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है। मारवाड़ में ‘स’ को ‘ह, बोलते हैं, इसलिये कोई-कोई इन्हें केसरिया चारण भी मानते है। ये मेवाड़ के रहने वाले थे और इनके पिता का नाम मांडण था। इनके समय में मेवाड़ की राज्य-गद्दी पर महाराणा सांगा विराजमान थे, अत: ये उनके समकालीन ठहरते हैं। ये माने हुए कवि एवं योद्धा थे। इनके विषय में दो दंतकथायें प्रचलित है। कहते हैं कि जब सांगा मांडू के बादशाह महमूद खिलजी को पकड़ कर लाये तब इस खुशी में उन्होंने एक दरबार का भव्य आयोजन किया जिसमें हरीदास ने कुछ गीत सुनाये। काव्य-प्रेमी राणा ने प्रसन्न होकर चित्तौड़ ही पुरस्कार में दे दिया किंतु इन्होंने एक पहर बाद यह कहकर लौटा दिया कि हम चारण राजाओं के राजा नहीं बनते प्रत्युत कवि बनकर उनकी सेवा करते हैं।

दूसरी किंवदंती यह है कि एक बार राणा सांगा अपने साथियों सहित शिकार खेलने गये तो उनका एक हाथी जो पास में ही बंधा हुआ था, बिगड़ गया। राजा ने उसे चिढ़ाया जिससे वह श्रृंखला तुड़ाकर उनके पीछे पड़ गया। अन्य लोग तो भाग गये किन्तु हरीदास ने अपने स्वामी का साथ नहीं छोड़ा। जब बचने का कोई उपाय नहीं दिखाई दिया तब राणा ने इनको कहा कि तुम लोग अपनी कुलदेवियों की स्तुति गाते रहते हो, आज उन्हें रक्षार्थ क्यों नहीं बुला लेते? इस पर इन्होंने अपनी आराध्यशक्ति श्री सुन्दरबाई के प्रति यह एक दोहा कहा-

आण दबाया गज अठे, और न हेक उपाय।
‘सुन्दर’ मां सज आवजे, सांगा तणी सहाय।।

और तुरन्त साँगा को दिखाई दिया कि एक स्त्री का हाथ अंकुश धारण किए उस उद्दण्ड हाथी को रोक रहा है। हाथी रुक गया और इस प्रकार सांगा के प्राण बच गए। इसी उपलक्ष में उन्होंने इन्हें चित्तौड़ का राज्य दिया था किन्तु इन्होंने बारह गांव रख कर राज्य पुन: लौटा दिया।

कहा जाता है कि जब राणा सांगा बाबर के साथ युद्ध कर रहा था तब हरीदास भी उनके साथ थे और लड़ते-लड़ते ही वीरगति को प्राप्त हुए। इनका कोई ग्रंथ तो उपलब्ध नहीं होता लेकिन फुटकर गीत अवश्य मिलते हैं।

२. पाता:- ये रोहडिया बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम खारी के निवासी थे। जब राव जोधा का पुत्र दूदा (मेड़ता पृथक राज्य का संस्थापक) मेड़ता गया तब इन्हें साथ ले गया और अपना पोलपात नियुक्त किया। उसका छोटा बेटा राठौड़ रतनसिंह दूदावत, जो प्रसिद्ध कवयित्री मीरांबाई का पिता था, इनका समकालीन था। इन्होंने फुटकर काव्य रचना की है।

३. जमणा:- ये सौदा बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१५०० ई० के आसपास) और मेवाड़ राज्यान्तर्गत हुरड़ा जिले के सेंणौंदा गांव के रहने वाले थे। इनके पिता-पितामह का नाम क्रमश: पालम एवं बाजूड़ था जो अपने समय में वीरता के लिए प्रसिद्ध थे। इन पर महाराणा सांगा की विशेष कृपा थी। ये बयाना के युद्ध में (१५२७ ई०) अपने स्वामी के साथ थे। सांगा के मस्तक में तीर लग जाने से ये मूर्च्छित हो गए और उन्हें बसवा लाया गया। मूर्च्छा के खुलने पर जब सरदारों ने उपालम्भ दिया तब उन्होंने यह कह कर सांत्वना दी कि युद्ध से लौटने के कारण ही कोई वीर अपयश का भागी नहीं होता। भगवान कृष्ण तो जरासंध के सन्मुख सात बार युद्ध-भूमि से भागे थे पर इससे क्या उनका मान कम हुआ? आठवीं बार उन्होंने क्या किया? आज हम लोग मूर्च्छितावस्था में आपको युद्ध-भूमि से उठा लाए हैं पर कल जब आप बाबर पर विजय प्राप्त कर लेंगे तब आपका युद्ध-भूमि से लौट आना ही मेवाड़ के गौरव का कारण होगा।

बाबर से युद्ध में पराजित होने के पश्चात् सांगा बहुत निराश रहता था। यहां तक कि वह न तो किसी से मिलता-जुलता ही था और न महल के बाहर ही आता था। यह देख कर जमणा ने एक दिन भीतर जाकर अपने उद्‌बोधन गीत द्वारा उनकी निराशा दूर की। महाराणा ने प्रसन्न होकर इन्हें बंकाण नामक गांव दिया, जिसे इनके वंशज भोगते आ रहे हैं। ये पीली खाल में मांडू के बादशाह से वीरतापूर्वक लड़ते हुए काम आए थे (१५८४ ई०)। इनके पुत्र का नाम राजवीर था।

जमणा के लिखे हुए फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं।

४. माल्हड़:- ये बरसडा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के निवासी थे। स्वयं वीर थे, अत: सदैव वीरों का मान-सम्मान करते थे। इनके लिखे हुए गीत मिलते हैं।

५. खरत:- ये देवल शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मेवाड़ के निवासी थे। इनके लिखे हुए गीत मिलते हैं।

६. रामा:- ये साँदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम रामासणी (मारवाड़) के निवासी थे। इन्होंने फुटकर काव्य-रचना की है।

७. आशानन्द:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१५०६ ई० के आस-पास) और बाड़मेर परगने के गांव भादरेस के निवासी थे। इनके पिता का नाम गीधाजी था। ये पांच भाई थे जिनमें सूजो भी इनके समान काव्य-प्रेमी थे। वीर भक्त कवि ईसरदास इनके भतीजे थे। इन्होंने संस्कृत, प्राकृत एवं डिंगल का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। इनका आजीवन ब्रह्मचारी होना सत्य नहीं दिखाई देता क्योंकि मारवाड़ में अब भी कई घर ऐसे चारण हैं जो अपने को आशावत कहते हैं और इनका वंशज बताते हैं। हाँ, इनकी वीरता एवं विद्वत्ता की धाक दूर-दूर तक फैली हुई थी। राव मालदेव (जोधपुर) ने इनके गुणों से प्रभावित होकर राज्याश्रय प्रदान किया था। आशानन्द ने भी मालदेव के साथ रहकर अपनी स्वामी-भक्ति का पूरा-पूरा परिचय दिया।

जब मालदेव का विवाह जैसलमेर के राव लूणकरण की कन्या अनिंद्य सुन्दरी उमादे भटियाणी के साथ हुआ (१५३६ ई०) तब आशानन्द भी उनके साथ थे। उमादे की माता सोढ़ी रानी के पास एक लावण्यवती भारमली नाम की दासी थी, जो कन्या को दहेज में दी गई थी। भारमली के साथ मालदेव का अनुचित सम्बन्ध हो गया, जिससे उमादे उससे सदैव के लिए रूठ गई, इसलिए इतिहास में वह ‘रूठी रानी’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह देख कर उमादे ने भारमली को जैसलमेर भेज दिया (१५३८ ई०)। मालदेव ने उमादे को उसे बुलाने के लिए कहा किन्तु उसने एक न सुनी। पति-पत्नी में यह तनाव चलता ही रहा। एक बार जब उमादे कोसाना गांव गई हुई थी तब वहाँ से वह सीधी जैसलमेर चली गई। उस मानिनी को मनाने के लिए मालदेव ने आशानंद को भेजा, जो उसे कोसाना ले भी आये (१५३९ ई०) किन्तु रानी ने पूछा–‘मालदेव मुझे बुला कर अपमानित तो नहीं करना चाहते हैं और क्या भारमली का प्रेम अब तक उनके हृदय में है?’ आशानन्द ने विचार कर यह दोहा कहा-

माण रखे तो पीव तज, पीव रखे तज माण।
दोय गयंद न बंधही, हेकण षंभू ठांण।।

यह सुन कर उमादे की आंखें खुली और वह जैसलमेर चली गई। इस बीच रूप-लोभी लूणकरण का भारमली के साथ अनुचित व्यवहार होने से कोटड़ियानी रानियों ने अपने भतीज बाघा को कोटड़ा (मारवाड़) से बुलाकर भारमली को उसके साथ भेज दिया।

इन पारिवारिक उलझनों के रहते हुए मालदेव को बीकानेर पर आक्रमण करना पड़ा (१५४१-४२ ई०) और आशानन्द भी उनके साथ रहा। इसके बाद जब शेरशाह सूरी के साथ युद्ध हुआ तब भी ये अपने स्वामी के साथ थे किन्तु दैवयोग से युद्ध-भूमि में आहत होकर गिर पड़े (१५४३ ई०)। ऐसे समय में उमादे ने सावधानी से इनका उपचार किया, जिससे ये बच गए।

कालान्तर में जब मालदेव ने आशानन्द से उमादे के नहीं लौटने का कारण पूछा तब इन्होंने सही बात बता दी, जिससे राव इन पर अप्रसन्न हो गए। त्रिया के पीछे आश्रयदाता का रूखा व्यवहार देख कर ये वहां से चल दिए और सबसे पहले घूमते-घूमते जैसलमेर पहुँचे। राव लूणकरण इन्हें अपने यहां आया देख कर बहुत प्रसन्न हुए और बाघा से भारमली को लाने के लिए कहा। पहले तो ये राजी नहीं हुए किन्तु विशेष आग्रह करने पर कोटड़ा चले गये। वहां पर इनकी खूब आवभगत हुई। जब बाघा को इस बात का पता चला कि ये भारमली को माँगने आए हैं, तब बड़े ही सोच में पड़ गए। श्रद्धावश वह इनकी कही हुई बात को अस्वीकार नहीं कर सकता था। एक दिन बाघा भारमली को लेकर आशानन्द के साथ शिकार खेलने गये हुए थे। वहां जंगल में तालाब पर बैठ कर उसने इनका आभार स्वीकार किया। इन्होंने उसका उत्तर इस दोहे में दिया-

जहँ डूंगर तहँ मोरिया, जहँ शायर तहँ हंस।
जहँ बाघा तहँ भारमली, जहँ दारू तहँ मंस।।

यह सुनकर बाघा उछल पड़ा और उसने भारमली को अपने पास ही रखने की प्रार्थना की। आशानन्द कुछ नहीं कह सके। कुछ वर्षों तक इसी ठिकाने में रहे और जैसलमेर जाने की भी इच्छा प्रकट नहीं की।

एक बार बाघा से छुट्टी लेकर आशानन्द अपने भतीज ईसरदास के साथ द्वारिका की यात्रा के लिए निकल पड़े (१५५८ ई० के आसपास)। मार्ग में जामनगर में पड़ाव डाला। तत्कालीन विद्या-प्रेमी रावल जाम (जामनगर) ने इन कवियों का शुभागमन सुनकर अपने यहाँ आमंत्रित किया, गीत सुने और यथेष्ट मान-सम्मान किया। कुछ दिनों तक ये रावल के अतिथि बने रहे, फिर द्वारिका चले गये। वहां से लौटने पर इन्होंने ईसरदास को स्थायी रूप से जाम साहब के पास रख दिया और आप कोटड़ा लौट आए। रावल ने इन्हें करोड़पसाव देना चाहा किन्तु इन्होंने अस्वीकार कर दिया। ये कोटड़ा से विशेष प्रेम करने लग गए थे और बाघा इनके जीवन का अभिन्न अंग बन चुका था। कालान्तर में बाघा सबको शोक-मग्न कर इस संसार से चल बसा (१५७३ ई० के आस पास) उसके निधन से इनके हृदय को ठेस लगी। उसका वियोग इनके लिए असह्य हो गया, अत: पागल हो गये। विक्षिप्त व्यक्ति की नाईं इधर से उधर घूमते रहे और बाघा-बाघा पुकारते हुए दोहा कहते रहे। इस प्रकार उसके विरह में अनेक दोहे बनते गये। कवि का यह दैन्य जीवन मालदेव को विशेष रूप से अखरा। उसने इन्हें बुलाकर कहा कि बाघा की रट छोड़ दो तो तुम्हें चार लाखपसाव दिए जायेंगे, किन्तु इन्होंने यह बात नहीं मानी। फिर मालदेव ने इनके पुत्रों को चारों लाखपसाव दिए।

बाघा के निधन के पश्चात् उसके विरह में छटपटाकर आशानन्द तीन वर्ष से अधिक जीवित नहीं रह सका। इनके लिखे हुए ये ग्रंथ उपलब्ध होते है-‘लक्ष्मणायण’, ‘निरंजनप्राण’, ‘गोगाजी री पेडी’, ‘बाघा रा दूहा, ‘उमादे भटियाणी रा कवित्त’। इनके अतिरिक्त फुटकर गीत भी बहुत मिलते हैं।

८. करमसी (मेवाड़):- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के रहने वाले थे। ये इस शाखा के पूर्वज माने जाते हैं। जब महाराणा उदयसिंह (मेवाड़) ने जालोर के सोनगरा राजा के यहां विवाह किया तब वहां के नरेश ने इन्हें अपना विश्वासपात्र समझ कर उनके साथ मेवाड़ भेज दिया था। इन्होंने मेवाड़ेश्वर के पक्ष में बनवीर के साथ युद्ध में साथ दिया था। महाराणा ने प्रसन्न होकर इन्हें पसूंद ग्राम प्रदान किया था। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।

९. गांगा:- ये सिंढायच शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम मोगड़ा (मारवाड़) राज्य के निवासी थे। इन्होंने फुटकर गीत लिखे है।

१०. अक्खा:- ये रोहडिया बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और भांडू (शेरगढ़) गांव के निवासी थे। इनके माता-पिता का नाम भाणा था, जो जोधपुर नरेश राव मालदेव के कृपा-पात्र थे। जब इनकी अवस्था पांच महीने की थी, तब माता-पिता चल बसे। मालदेव ने इन्हें अपनी रानी झाली को सौंप दिया, जिसने इनको पाल पोष कर बड़ा किया। इनका विद्याध्ययन भी मालदेव की देख-रेख में हुआ। आगे चलकर चारण जाति की परम्परा के अनुसार ये काव्य-रचना करने लगे। मालदेव इन्हें बहुत प्यार करते थे।

रानी झाली ने अक्खा को अपने ही स्तन का दूध पिला कर पाला। उस समय उनका लड़का उदयसिंह भी इनका हमजोली था। एक दिन रानी कहने लगी कि मेरे स्तन का दूध पीने वाला एक तो राज्यगद्दी पर बैठेगा और दूसरा दान लेगा। अक्खा ने प्रण कर लिया कि में जीवन भर दान नहीं लूंगा और यदि लेना भी हुआ तो पद्म (काव्य) लूंगा। कालांतर में मालदेव ने अपने पुत्र उदयसिंह को अप्रसन्न होकर निकाल दिया (१५५८ ई०)। अपने बचपन के साथी को छोड़ कर ये अकेले रहते भी तो कैसे? दोनों ही अकबर के यहां जाकर रहने लगे।

मालदेव का स्वर्गवास होने पर उसका पुत्र चन्द्रसेन सिंहासनारूढ़ हुआ (१५६२ ई०)। अकबर ने उदयसिंह का पक्ष लेकर उसे गद्दी से उतारना चाहा, अत: वह सन् १५८० ई० तक बराबर उससे लड़ता रहा। एक बार चंद्रसेन जोधपुर छोड़कर स्योयाणा जा रहा था, उस समय लूनी नदी के किनारे गोविन्दवाड़ा (चारणवाड़ा) नामक स्थान पर उसके रथ का एक बैल थक गया और रेत में अड़ गया। समीप ही उस गांव के गोविन्ददास बोगसा के बैल चर रहे थे, जहाँ से चंद्रसेन ने एक बैल मंगाकर अपने रथ में जुतवा दिया। यह बात चरवाहा ने आ कर बोगसा से कही किन्तु वह यह नहीं जानता था कि रथ उसके धणी का ही है। उसने जाकर बैल खोल दिया और रथ को धक्का दिया, जिससे झाली रानी नीचे गिर पड़ी और उसका एक हाथ टूट गया। जैसे-तैसे ये लोग स्योयाणा पहुँचे।

जब अकबर ने चंद्रसेन को मार कर (१५८० ई०) जोधपुर का राज्य उदयसिंह को सौंप दिया (१५८३ ई०) तब एक दिन उदयसिंह ने गोविंददास बोगसा को बुलाया और मालदेव का कृपा-पात्र होने से उसकी बड़ी आवभगत की। जब झाली रानी ने अपने गिरने एवं अपमानित होने का वृत्तान्त सुनाया, तब उदयसिंह ने तत्काल उसका गांव जब्त कर लिया। इतना ही नहीं, जो भी चारण उसका पक्ष लेते, उनका भी गांव जब्त कर लिया जाता। अन्त में, बोगसा अत्यन्त दुखी होकर अपने कपड़ों को तेल में डुबो कर भय से जल गया। जल जाने के कारण दरबार ने बोगसा का गाँव गोविंदवाड़ा (चारणवाड़ा) जब्त कर लिया, जिससे चारण बिगड़ गये। दुरसा इनका भाणेज होता था। उसने मामा का पक्ष लिया, सब लोगों को संगठित किया और आउवा में काजेश्वर महादेव के मन्दिर में धरणा दिया, धरणा उठने पर सब सासण बंद कर दिये गये। पाली ठाकुर गोपालदास चांपावत भी चारणों के साथ हो गये। दरबार की आज्ञा से इन्होंने कटार की नोंक पर बैठकर प्राणान्त कर दिया। सब धरणे वालों ने देह त्याग दी। दरबार को सब सांसण पुन: देने पड़े। इसके लिए चारण गोपालदास के ऋणी रहे। अक्खा के बनाये हुए अनेक फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं।

आउवा धरने से सम्बंधित उपरोक्त वृत्तांत में कई बातें गलत हैं। इस धरने के सम्पूर्ण विवरण को एक आलेख के रूप में अलग से प्रस्तुत किया जाएगा, तब तक के लिए उपरोक्त विवरण को सिर्फ अक्खा जी के परिचय के रूप में ही पढ़ें। बाकी वृत्तांत में कई भ्रांतियां/गलतियां हैं जिनका निवारण अलग से किया जाएगा।

११. मेह:- इनकी शाखा का पता नहीं लगता। सम्भवत: ये मेवाड़ के निवासी थे। फुटकर छंद रचियताओं में इनका स्थान महत्वपूर्ण है।

१२. सूजा:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम मूंजासर (बीकानेर) के रहने वाले थे। डॉ. टैसीटोरी के अनुसार इन्होंने राव जइतसी (बीकानेर) की आज्ञा से ‘छंद राव जइतसी रउ’ नामक रचना का निर्माण सन् १५३४ ई० से सन् १५४१ ई० के मध्य किसी समय में किया था। इस ग्रंथ के छन्दों की संख्या ४०१ हे जिनमें पाघड़ी ३८५, गाहा ११, दोहे ४ और कवित्त १ है। इसकी एक प्रति अनूप संस्कृत पुस्तकालय बीकानेर में सुरक्षित है।

१३. जयमल:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है, किन्तु रचना काल सन् १५४५ ई० के आसपास बताया जाता है। ये ईश्वर के परम भक्त थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।

१४. वखता:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम कवळिया मारवाड़ के निवासी थे। इनके लिखे हुए स्फुट गीत मिलते है।

१५. दल्ला:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और जोधपुर राज्यान्तर्गत खाटावास गांव के रहने वाले थे। ये रायसिंह (बीकानेर) के समकालीन थे। कोई आश्चर्य नहीं, इन्होंने रायसिंह का राज्याश्रय भी ग्रहण किया हो, क्योंकि उनकी प्रशंसा में इनके अनेक गीत मिलते हैं। बाल्यावस्था में ही इनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था। जनश्रुति के अनुसार जंगल में गायें चराते-चराते एक साधु से इनका साक्षात्कार हुआ जिसने योग-विद्या के बल पर इन्हें विद्वान बना दिया। कालान्तर में रायसिंह ने इन्हें लाखड़थूम नामक गाँव प्रदान किया। उस समय वह साधु इनसे फिर मिलने आया किन्तु दल्ला अभिमान में आकर नहीं मिला। साधु यह कह कर चला गया कि मुझे दल्ला को कुछ देना था किन्तु उसके भाग्य में वह बदा ही नहीं। उसकी जितनी उन्नति होनी थी, हो चुकी, अब आगे नहीं होगी। पता चलने पर दल्ला बहुत पछताया। साधु से मिलने का प्रयत्न भी किया किन्तु सफलता नहीं मिली। इनके लिखे हुए स्फुट दोहे एवं गीत उपलब्ध होते हैं।

१६. करमसी (सिरोही):- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्य के रहने वाले थे। महाराव रायसिंह इनके समकालीन थे। इन्होंने कई गीत लिखे है।

१७. देवा:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और बूंदी राज्य के निवासी थे। जन्म से ही अंधे थे फिर भी अपने गुणों के कारण तत्कालीन नरेश शत्रुशाल के कृपा-पात्र बन गये। इनका स्वभाव बड़ा ही उद्दण्ड था। शत्रुशाल ने इनको तीन करोड़पसाव दिये पर इन्होंने उसकी कोई प्रशंसा नहीं की। एक बार अक्षय तृतिया को शत्रुशाल ने इनको अपने हाथ से अफीम घोल कर पिलाई। शत्रुशाल के दिए हुए लाखपसाव इन्होंने अपने याचक मोतीसर को दे दिये। तब से ही महियारिया के याचक मोतीसर ‘हाथी बरीत’ कहकर इनकी विरुदावली गाते है।

१८. किसना:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे (१५३३ ई०) और श्रीनगर (अजमेर से १३ मील दूर) के रहने वाले थे। उन दिनों अजमेर जिला पंवार राजपूतों के अधीन था, जिसकी राजधानी श्रीनगर थी। यहां का शासक पंचायण पँवार था। आमेर के राजा मानसिंह इसी पंचायण के प्रधान मंत्री थे और श्रीनगर का शासन चलाते थे। अब्दुलल रहीम खानखाना के कृपापात्र होने से इनकी दिल्ली के राजाओं की पंचायत में भी खूब चलती थी।

किसना परोपकारी व्यक्ति थे। जाति एवं मानव-सेवा के लिए अपने स्वार्थ का बलिदान करने वालों में इनका नाम चिरस्मरणीय रहेगा। जागावत बारहठ को निकालने तथा चारणों की जागीरें जब्त होने का पता लगने पर इनके हृदय को गहरी ठेस पहुँची। इन दिनों मानसिंह के नाना पंचायण पँवार के पुत्र जगमाल श्रीनगर राज्य के शासक थे और अकबर के दरबार में पांच सौ सवारों के मनसबदार थे। इन्होंने उनसे कह कर मानसिंह को एक सिफारिशी पत्र भी लिखाया किंतु उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तब ये स्वयं उनका खलीता लेकर किसी बहाने मानसिंह से मिलने के लिए आमेर पहुँचे। इस बार मानसिंह को इनसे मिलना ही पड़ा।

किसना राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कुशल कवि भी थे। इन्होंने मानसिंह को गीत सुनाये, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए और कहने लगे—“मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।” इन्होंने उत्तर दिया- “चारणों की जब्त जागीरें लौटाई जांय और निन्दक जागावत बारहठ को आदरपूर्वक बुलाया जाय। यही महत्वपूर्ण सेवा है।” इस पर मानसिंह ने एक शर्त रखी कि आप यहीं रहें तो यह कर दूं। सब चारणों का भला देख कर इन्होंने श्रीनगर की दी हुई सारी जागीर जगमाल को पुन: लौटा दी और स्वयं बिना किसी जागीर के मानसिंह की सेवा में रहने लगे। मानसिंह ने इन्हें लसाड़िया नामक ग्राम एवं करोड़पसाव दिया। इनका स्वर्गवास सन् १५९३ ई० के आस-पास हुआ था।

१९. वख्तावर:- इनकी शाखा का पता नहीं चलता किन्तु ये मेवाड़ के रहने वाले थे और जन्म से ही अन्धे थे। कहते हैं कि जब अकबर की गोली से प्रसिद्ध वीर जयमल का पांव बेकार हो गया तब उसके सैनिक वीरवर कल्याणसिंह ने उसे अपनी पीठ पर चढ़ाकर युद्ध कराया था। अन्त में जयमल मारा गया और उसका सिर भी कट गया पर कल्याणसिंह का धड़ अपनी दोनों भुजाओं से तलवार चलाते-चलाते वहां से ३४ कोस चलकर अपने गांव खंडेला में आया। वहां उनकी आरती उतारी गई तब वह धड़ गिरा। इसके बाद से उनकी पूजा सारे राजस्थान में होने लगी। वख्तावर ने भी उस वीर की पूजा की जिससे इनकी आखें ठीक हो गई। इनके लिखे हुए फुटकर गीत एवं दोहे उपलब्ध होते हैं।

२०. ईसरदास:- ये जोधपुर राज्यान्तर्गत बाड़मेर परगने के भादरेस नामक गांव में एक सम्पन्न रोहड़िया बारहठ कवि-कुल में उत्पन्न हुए थे (१५३८ ई०)। इनके पिता का नाम सूरा एवं माता का नाम अमरबाई था। इनके परिवार में हरसूर (बड़े काका) तथा आशानन्द (छोटे काका) काव्य-क्षेत्र में पहले ही पर्याप्त कीर्ति अर्जित कर चुके थे। तत्कालीन सामाजिक पद्धति के अनुसार इनका विवाह १४ वर्ष की अवस्था में ही कर दिया गया। अभी ये अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाये थे कि इनके माता-पिता इस संसार से विदा हो गये। अत: आशानन्द के संरक्षण में रह कर इन्होंने शिक्षा ग्रहण करना आरंभ किया।

व्यवहारकुशल बनाने की महत्त्वाकांक्षा से आशानन्द सदैव इन्हें अपने साथ रखते। अत: ईसरदास को भी राजघरानों के सम्पर्क में आने का सुअवसर मिलता गया। कहते हैं राव मालदेव की आज्ञा से उमादे को अजमेर से जोधपुर पहुँचाते समय ये भी साथ थे। दुर्भाग्य से २१ वर्ष की अवस्था में इनकी पत्नी चल बसी। काल के इन निर्दय प्रहारों से इनका हृदय विदीर्ण हो गया, जिससे ये संसार के प्रति उदासीन हो गये और इनके अन्तस्तल से विरक्ति के भाव अंकुरित होने लगे।

उपर्युक्त घटना के दूसरे ही वर्ष ईसरदास अपने छोटे काका के साथ द्वारिका की यात्रा के लिए निकल पडे (१५६० ई०)। मार्ग में जब जामनगर में जाकर विश्राम किया तब वहां के काव्य-प्रेमी रावल जाम ने अपने यहां इन प्रतिष्ठित चारण कवियों का शुभागमन सुनकर इन्हें राज-दरबार में आमंत्रित कर उचित आदर-सत्कार किया। द्वारिका से लौटने पर जाम साहब ने इन्हें स्थायी रूप से अपने पास रख लिया तथा पोलपात बनाकर करोड़पसाव एवं सचाणा गांव देकर पुरस्कृत किया, जिससे इनकी मान-प्रतिष्ठा उत्तरोत्तर बढ़ती गई। उदार जाम साहब ने दूसरा विवाह करा कर इनके जीवन को एक नवीन दिशा की ओर उन्मुख किया। इस समय में चाकर किसना ने इनकी प्रशंसनीय सेवा की। ये सद्‌गुणों के भण्डार थे। हलवद नरेश रायसिंह ने अनेक बार इनकी सहायता की थी। कहा जाता है कि तत्कालीन मुसलमान शासकों के अत्याचारों का इन्होंने सामना किया था। इससे इनका वीरत्व प्रकट होता है। गुजरात का नवाब इन्हें एक बार गिरफ्तार भी कर चुका था। ऐसे समय में रायसिंह ने आवश्यक धनराशि देकर इन्हें मुक्त कराया था।

ईसरदास को जामनगर में रह कर अपार यश, धन एवं सम्मान ही नहीं मिला, प्रत्युत इनका काव्य-ज्ञान भी परिमार्जित एवं परिष्कृत होता गया। जाम साहब के दरबार में पीताम्बर भट्ट नामक एक राज-पंडित रहते थे जो संस्कृत के ज्ञाता, दर्शन के जिज्ञासु एवं धर्मशास्त्र के धुरन्धर विद्वान थे। पता चलता है कि आरम्भ में ईसरदास और पीताम्बर भट्ट में पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता का भाव था। यह सुनकर कि ऐसा होनहार कवि किसी राजा का गुणगान न कर हरि-सुमिरन करे तो उसकी प्रतिभा का सच्चा सदुपयोग हो सकता है, ईसरदास का हृदय परिवर्तित हुआ और इन्होंने उनको अपना गुरु बना लिया। फिर उनसे संस्कृत का ज्ञानोपार्जन कर आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया। वेद-शास्त्रों के गंभीर ज्ञान ने इन्हें आध्यात्मिक क्षेत्र में गतिशील किया। इनके हृदय में इसके संस्कार पहले से ही विद्यमान थे, अत: अवसर पाकर ये पल्लवित होते गये कहते हैं कि इन्होंने अपने गुरु से ब्रह्म-ज्ञान-गुटिका प्राप्त कर भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन किये थे। अजपा गायत्री का जप करने से ये भगवान् की ध्वनि का श्रवण किया करते थे। यह लक्ष्य करने की बात है कि राज दरबार में रहने पर भी इन्हें वहां की विलासिता पथ-भ्रष्ट नहीं कर पाई और दूसरा विवाह करने पर भी गृहस्थ-जीवन आकर्षित नहीं कर पाया। सतत अध्ययन, मनन एवं चिन्तन ने इन्हें भक्ति की ओर लगाये रखा जिससे ये विश्व-नियंता की आराधना करते गये।

ईसरदास अपने समय के एक उच्चकोटि के विद्वान, कवि एवं भक्त ही नहीं थे प्रत्युत एक चमत्कारवादी सिद्ध भी थे। राजस्थान, गुजरात एवं काठियावाड़ में इस विषय की अनेक दंतकथायें प्रचलित हैं। कहते हैं कि जब गुजरात के बादशाह ने सिंध के चारण-व्यापारियों से एक लाख रुपये वसूल करने की आज्ञा दी तब इन्होंने उससे एक महीने का समय मांगा। बादशाह ने कहा- ‘अमानत स्वरूप अपने लड़के को रख जाओ। यदि तुम्हारे वचनानुसार रुपये जमा न होंगे तो द्वितीया के चंद्रमा के दर्शन होने के बाद तृतीया को उसे मुसलमान बना देंगे। ‘ इन्होंने यह बात स्वीकार कर ली किन्तु रुपया एकत्र न हो सका और अवधि पूरी होने आ गई। इसरदास ने प्रभु से विनती की कि द्वितीया का चंद्र बादशाह को न दिखलाई पड़े। हुआ भी यही – जब बादशाह को चंद्र-दर्शन नहीं हुआ तब इन्हें बुलाया गया। इन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया- ‘जब तक मेरे पास एक लाख रुपये नहीं आ आते, तब तक चंद्र-दर्शन न होंगे। ‘ यह सुनकर बादशाह प्रसन्न हुए और एक मास का समय और दिया गया। इस विकट काल में हलवद नरेश ने इन्हें यह रकम राजकीय कोष से दी, जिससे ये अपने लड़के को वहां से छुड़ाकर ले आये। इसी प्रकार सांगा राजपूत के यहां विश्राम लेते समय जब उसने इन्हें अपना एक मात्र कम्बल भेंट-स्वरूप ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की, तब ये यह कह कर चले गये कि लौटते समय अवश्य ही इस भेंट को लेकर जाऊंगा। इस बीच वेणु नदी को पार करते समय बाढ़ आ जाने से सांगा पशुओं सहित बह गया। बहते-बहते उसने जोर से चिल्ला कर तट पर खड़े ग्रामवासियों से कहा कि भाई, मेरी मां से कह देना कि ईसरदास के लिए जो कम्बल रखा हुआ है, वह उन्हें लौटने पर अवश्य दे दिया जाय। अब ईसरदास लौट कर सांगा के यहां आये तब वृद्ध माता का करुण क्रन्दन सुनकर इनका हृदय द्रवीभूत हो गया। ये तत्काल सांगा की जल-समाधि के पास जाकर कहने लगे-तुम्हारी प्रतिज्ञानुसार मैं कम्बल लेने आया हू, अत: आकर उसे पूर्ण करो। इतने में ही सामने से आवाज आई-आ रहा हूं! थोड़ी देर में सांगा पशुओं सहित आता हुआ दिखाई दिया। उसने इनके पैर पकड़ लिए और फिर घर जाकर साथ-साथ भोजन किया। इन अलौकिक घटनाओं को ध्यान में रख कर जन-साधारण ने ‘ईसरा सो परमेसरा’ अर्थात् ईसरदास परमेश्वरावतार है कहकर इनका माहात्म्य गाया है।

ईसरदास के पांच लड़के हुए- जगा, चूंडा, कान्ह, जैसा और गोपाल। कवि भावदान भीमभाई रतनू (गुजरात-काठियावाड़) कृत ‘श्री यदुवंश प्रकाश अने जामनगर नो इतिहास’ में धूना नामक एक और पुत्र होने का उल्लेख है, किन्तु इस कथन की पुष्टि अन्य ग्रंथों से नहीं होती। लगभग ४० वर्ष तक जाम साहब के पास रह कर वृद्धावस्था में ये अपनी जन्मभूमि भादरेस लौट आये और अपने जीवन के अंतिम दिनों में गुड़ा ग्राम के पास लूनी नदी के तट पर एक कुटीर बना कर रहने लगे। यहीं पर ८० वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपना शरीर त्याग दिया (१६१८ ई०)। भादरेस की जीर्ण कुटीर में आज भी चारण बंधु इन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए वहां के पवित्र रज-कण को मस्तक पर धारण करते हैं। वहां प्रातःकाल सदैव ‘हरि-रस’ का पाठ होता रहता है। लोगों का विश्वास है कि ईसरा उन्हें आज भी उपदेश दे रहा है। दिवाली व होली पर्व पर जंगल में गांव के बाहर जहाँ इनके खेत थे, जाल वृक्ष में स्वतः दीपक जलते हैं। यह देखकर ही लोग होली मंगलाते हैं।

कहा जाता है कि ईसरदास ने कुल मिला कर एक दर्जन रचनायें लिखी जिनमें से ‘हरि-रस’ एवं ‘हाला-झाला रा कुण्डळिया’ विशेष प्रसिद्ध हैं। शेष रचनाओं में ‘छोटा हरि-रस’, ‘बाल-लीला’, ‘गुण भागवत-हंस’, ‘गरुड़-पुराण’, ‘गुण-आगम’, ‘निन्दा-स्तुति’, ‘वैराट’, ‘रास-कैलास’, ‘सभा-पर्व’ एवं ‘देवियाण’ के नाम लिये जाते हैं। इनके अतिरिक्त कवि ने अपने गुरु एवं आश्रयदाताओं को लक्ष्य करके फुटकर कवितायें भी लिखीं हैं।

यह उल्लेखनीय है कि कवि ने अपने ग्रंथ किसी के कहने से नहीं बनाये हैं। अधिक से अधिक ‘हाला-झाला रा कुण्डळिया’ को राजकीय आग्रह का फल माना जा सकता है। इसमें हलवद (ध्रांगध्रा) नरेश झालावंशीय रायसिंह और धोल (काठियावाड) राज्य के हालावंशीय जसाजी के युद्ध का वर्णन है। इतिहास इस कथन की पुष्टि करता है कि इस युद्ध में रायसिंह आहत होकर कीर्ति-शेष हुए थे। एक दिन जब रायसिंह अपने मामा जसाजी के यहां उनके साथ चौपड़ खेल रहा था तब युद्ध जैसे नगाड़ों को सुनकर सहसा जसा चौंक पड़ा और उसने क्रुद्ध होकर तत्काल पूछताछ कराई। पता चला कि दिल्ली के एक मठाधीश मुकुंद भारती अपने दल-बल सहित हिंगलाज देवी की यात्रा पर जा रहा है और उसी का यह नगाड़ा बज रहा है। यह सुनकर जसा बोला- ‘तब कोई बात नहीं, नगाड़ा बजने दो।’ यह देखकर भानजे का क्षत्रियत्व उछल पड़ा- ‘यह तो गांव का रास्ता है। सैकडों आदमी आते-जाते रहते हैं। नगाड़े भी बजते ही हैं। इसमें नाराज होने की कौनसी बात है?’ जसा ने उत्तेजित होकर कहा- ‘मैं उन नगाड़ों को तहस-नहस कर देता। मेरे राज्य में किसी दूसरे का नगाड़ा नहीं बज सकता।’ यह गर्वोक्ति रायसिंह के हृदय में शूल की तरह चुभ गई। वह ललकार उठा- ‘अच्छी बात है, युद्ध के लिए तैयार रहिये। इसी गांव में झाला रायसिंह का नगाड़ा बजेगा।’ इस चुनौती को सुनते ही रंग-भंग हो गया और रायसिंह उठकर हलवद चला गया। अपनी प्रतिज्ञानुसार वह ससैन्य नगाड़ा बजाता हुआ अपने मामा के यहां चढ़ आया। अपने भानजे पर शस्त्र उठाना अनुचित जानकर जसा ने रायसिंह को बहुत समझाया-बुझाया और लौट जाने की प्रार्थना की परंतु वह क्यों सुनने लगा? निदान जसा को भी युद्ध के लिए कमर कसनी पड़ी। कहते है कि इन वीरों की वीरांगनाओं ने भादरेस जाकर ईसरदास से युद्ध का आखों देखा हाल काव्यबद्ध करने के लिए प्रार्थना की थी और विशेष अनुग्रह के कारण ही ईसरदास इसके लिए तैयार हुए थे। भादरेस में ही ये वीरांगनायें अपने वीर पतियों को काव्य के रूप में अमरत्व दिलाकर सती हुई।

२१. माला:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यान्तर्गत गांव खाण के निवासी थे। महाराव रायसिंह इनके समकालीन थे। इनका रचना-काल सन् १५६०-६५ के लगभग ठहरता है। इनके लिखे हुए फुटकर दोहे, गीत एवं कवित्त उपलब्ध होते हैं।

२२. अलूनाथ:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मेड़ता परगने के गांव सिणला के निवासी थे। ये बड़े स्वाभिमानी एवं सिद्धान्तवादी व्यक्ति थे। एक बार जब ये ईडर गये हुए थे तब वहां के राव वीरमदेव (१५७८-९६ ई०) ने पूर्णिमा के दिन इन्हे लाखपसाव लेने के लिए बुलाया किन्तु इन्होंने कहा कि मैं संध्या के समय लाखपसाव नहीं लेता। इस समय तो कोई गणिका या वैरागी ही ऐसा कर सकता है। ईडर-नरेश नियमानुसार प्रत्येक पूर्णिमा के दिन कवियों को दान दिया करते थे। अत: उन्होंने आग्रह किया, किन्तु इन्होंने अपनी बात पर दृढ़ रहते हुए कहा-एक क्या दो लाखपसाव भी दो तो में नहीं लूंगा। इस पर वीरमदेव ने कहा कि तुम दरिद्र हो जाओगे और बहुत दुख पाओगे। हुआ भी ऐसा ही। कुछ वर्षों के बाद जब गुजरात के सुल्तान और वीरमदेव में झगड़ा हुआ तब सुल्तान ने ६ मास तक ईडर को घेर लिया। इस घेरे में वीरमदेव का सारा सामान जाता रहा। ऐसे समय में अलूनाथ ने आकर राव से याचना की। यह देखकर सरदारों ने इनकी भर्त्सना की।

अलूनाथ ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा पर फुटकर कवित्त बहुत लिखे जो काव्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इन कवित्तों ने ही इन्हें बहुत बड़ा कवि बना दिया और ये राजस्थान में प्रसिद्ध हो गये। इनका नाम ‘कवित्त’ के साथ परम्परा से जुड़ा आ रहा है-

कविते अलू दूहे करमाणंद, पात ईसर विद्या चौ पूर।
छंदे मेहो झूलणे माले, सूर पदे गीत हरसूर।।

२३. दुरसा:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे (१५३५ ई०) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत आढ़ा ग्राम (जसोल-मालाणी के पास) के निवासी थे। इनके पिता-पितामह का नाम क्रमशः मेहा और अमरा था। जब ये ६ वर्ष के थे तब इनके पिता ने संन्यास ले लिया, अत: ये पितृ-प्रेम से वंचित रहे। यही कारण है कि इन्हें बाध्य होकर धूंधल के एक सीरवी (किसान) के यहां नौकरी करनी पड़ी। बाल्यावस्था में इनका जीवन बड़ा कष्टपूर्ण था। पेट भरने के लिए खेत में रात-दिन कड़ा परिश्रम करना पड़ता। एक दिन मालिक ने इन्हें गेहूँ का खेत सींचने के लिए कहा। बीच में वेल (कच्ची नाली) टूट जाने से पानी खेत में नही पहुँचा और वह दोनों ओर फैल गया। यह देखकर किसान क्रोधित हुआ और उसने पानी रोकने के लिए इन्हें लेटाकर ऊपर से मिट्टी डलवाई जिससे पानी फैलने से रुक गया। ऐसे समय में आखेटप्रिय ठाकुर प्रतापसिंह सूंडा (बगड़ी) दैवयोग से उस स्थान पर आ पहुँचे। घोड़े को पानी पिलाने के लिए कुए पर गये तो क्या देखते हैं कि एक बालक पानी की नाली को रोके हुए लेटा पड़ा है और उसका शरीर धूल से ढका हुआ है। उन्होंने उसे तत्काल बाहर निकलवाया और अपने साथ सोजत ले गये, जहां उसकी शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबन्ध किया। यहीं से इसका जीवन-स्रोत एक नवीन दिशा की ओर उन्मुख हुआ। कौन जानता था, यही बालक एक दिन अपनी योग्यता, वीरता एवं कवित्व-शक्ति के द्वारा राजस्थान के एक परम तेजस्वी कवि के रूप में प्रख्यात होगा?

कालांतर में जब दुरसा पढ़-लिखकर योग्य हो गये तब स्फुट छंदों के साधन से क्षत्रियत्व का पथ प्रशस्त करने लगे। इन्होंने बगड़ी-ठाकुर प्रतापसिंह के यहां अपनी स्वामी-भक्ति का पूरा-पूरा परिचय दिया। जो भी कार्य सौंपा जाता, उसे पूर्ण उत्तरदायित्व के साथ सम्पन्न किया जाता था। यही कारण है कि उन्होंने इन्हें अपने प्रधान सलाहकार एवं सेनापति के पद पर नियुक्त किया। इतना ही नहीं, इन्हें धूंधला एवं नातलकुड़ी नामक दो गाँवों की जागीर प्रदान कर पुरस्कृत भी किया था।

दुरसा कलम तथा तलवार के धनी थे। इतिहास साक्षी है कि अकबर राजपूत नरेशों एवं उनके राज्याश्रित कवियों को अपनी राजनैतिक शतरंज के वजीर एवं घोड़े बनाकर विपक्षियों को शह और मात देने में बड़ा निपुण था। ऐसा करते समय अकबर राजस्थानी योद्धाओं की वीरता को अवश्य मान गया होगा! जिस समय सम्राट् ने अपनी वाहिनी सीसोदिया जगमाल (मेवाड़) की सहायतार्थ राव सुरतारणसिंह (सिरोही) के विरुद्ध भेजी, उस समय दुरसा भी बगड़ी-ठाकुर के कदम से कदम मिलाते हुए रण-स्थल में उपस्थित था। मारवाड़ राज्य से भी सुरताण के विरुद्ध सेना भेजी गई थी। आबू के समीप दत्ताणी नामक स्थान पर मुगल एवं सुरताण की सेना में घमासान युद्ध हुआ जिसमें युद्ध-कौशल प्रदर्शित करते हुए ये आहत हुए (१५८३ ई०)। संध्या समय जब सुरताण अपने सामन्तों सहित युद्ध का लेखा-जोखा कर रहे थे तब उन्होंने इन्हें वहां पड़ा देखा और एक साधारण सैनिक समझकर दूध पिलाना (मारना) चाहा। ज्योंही एक सैनिक तलवार निकाल कर इन्हें मारने के लिए आगे बढ़ा, त्योंही इन्होंने अपने को चारण बताया और इसके प्रमाण में वीरगति को प्राप्त समरा देवड़ा की प्रशंसा में एक दोहा बनाकर सुनाया, जिससे इन्हें जीवन-दान मिल गया। इससे प्रसन्न होकर सुरताण इन्हें अपने साथ डोली में सिरोही ले आये, जहां इनकी उचित चिकित्सा की गई। स्वस्थ होने पर सुरताण ने इन्हें अपना पोल-पात बनाया तथा पेशुआ, झांखर, ऊंड और साल नामक गांव एवं एक करोड़पसाव प्रदान किया (१६०७ ई०)। फिर ये सिरोही में रहे। जान पड़ता है, दुरसा ने तत्कालीन मुगल शासकों की राजनैतिक चालों को समझ लिया था। हिन्दू-राष्ट्र का भला होते न देखकर इन्होंने शाही तख्त को खरी-खोटी सुनाने में देर नहीं की। सम्भव है, राजस्थान में राष्ट्र-जननी का अभिनव संदेश घर-घर पहुँचाने के लिए इन्हें इधर-उधर भटकना भी पड़ा हो। वीर भूमि उदयपुर जाने पर तो इनका महाराणा अमरसिंह ने बड़ी पोल तक भव्य स्वागत किया था। संदेह नहीं कि राजस्थान का सामंत-वर्ग इनकी नैसर्गिक काव्य-प्रतिभा के साथ देवोपम वीरता पर भी समान रूप से मुग्ध था। इनकी बढ़ती हुई कीर्ति को देख कर अन्य राजा-महाराजा भी मान-सम्मान करते रहते थे।

राजस्थान में मुगल-सम्राट् अकबर और दुरसा आढ़ा का गाढ़ा सम्बन्ध विवादास्पद माना जाता है। कतिपय विद्वान इन्हें अकबर का विशेष कृपा-पात्र मानते हैं तो कुछ इसका खण्डन करते हैं। छान-बीन करने पर ज्ञात होता है कि अकबर का कृपा-पात्र होना परम संदिग्ध है। इस विषय को लेकर जो अधिकांश प्रसंग सुनने को मिलते हैं वे कपोल-कल्पित हैं, इतिहास की कसौटी पर खरे उतरने वाले नहीं। इस ऊहापोह में खींच-तान भी अधिक की गई है। इन पंक्तियों के लेखक की अपनी मान्यता है कि दुरसा का अकबर से कोई सम्बन्ध नहीं था, अत: शाही दरबार में प्रवेश पाने तथा अकबर द्वारा पुरस्कृत होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हां, कभी-कभी बगड़ी-ठाकुर प्रतापसिंह के साथ अब्दुल रहीम खानखाना के यहाँ इनका दिल्ली आना-जाना अवश्य रहता था। उन दिनों खानखाना के यहाँ माला सांदू तथा महकरण महडू का भी आना-जाना होता रहता था।

दुरसा अपने समय के एक अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति थे जिनमें स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ था। इनके स्फुट छन्दों में दृढ़ता, सत्यप्रियता एवं निर्भीकता का स्वर सुनाई देता है। राणा प्रताप के वैकुण्ठवासी होने पर (१५९७ ई०) इन्होंने साहित्य-सेवा के द्वारा क्षत्रिय जाति का पुनरुत्थान करने का संकल्प किया किन्तु समय की गति के आगे इन्हें मन मार कर रह जाना पड़ा।

दुरसा ने दो विवाह किए थे। ये अपनी छोटी स्त्री से विशेष प्रेम रखते थे। इनके चार पुत्र हुए- भारमल, जगमल, सादूल और किसना। वृद्धावस्था में एक दिन अपने ज्येष्ठ पुत्र के साथ सम्पत्ति को लेकर इनका झगड़ा हो गया। इन्होंने कहा कि एक ओर तो मैं हूं, दूसरी ओर मेरी कमाई है-जिसको जो अच्छा लगे, लेले। यह सुनकर पहली पत्नी के बड़े पुत्र भारमल ने इनकी सारी सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया। बची-खुची सम्पत्ति दूसरी पत्नी के छोटे पुत्र किसना को मिली। किसना को राणा प्रताप के दिये हुए पांचेटिया एवं रायपुरिया नामक गांव भी मिले। ये अपने सबसे छोटे पुत्र किसना के साथ पांचेटिया में अपने जीवन के अंतिम दिन व्यतीत करने लगे और यहीं सन् १६५५ ई० में इनका स्वर्गवास हो गया। इनकी एक पीतल की मूर्ति अचलगढ़ के देवालय में स्थापित है, जिस पर सन् १६२८ ई० का एक लेख भी उत्कीर्ण है। यह लक्ष्य करने की बात है कि किसी कवि की पीतल की मूर्ति का निर्माण इससे पूर्व कभी नहीं हुआ। डॉ० मेनारिया का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि ‘दुरसाजी बड़े भाग्यशाली कवि थे। कविता के नाम से जितना धन, जितना यश और जितना सम्मान इनको मिला, उतना राजस्थान के किसी भी दूसरे कवि को आज तक नहीं मिला। ‘ इस दृष्टि से इनका महत्व हिन्दी के महाकवि भूषण से भी बहुत बढ़कर है। बीकानेर के महाराजा रायसिंह, जयपुर के महाराजा मानसिंह और सिरोही के राव सुरताण ने इन्हें एक-एक करोड़पसाव दिया था और छोटे-मोटे गांव और लाखपसाव तो इन्हें कई राजाओं की ओर से मिले थे। यदि पुरस्कार को काव्य-कसौटी माना जाय तो कहते ही बनता है, ऐसा कवि अन्यत्र दुष्प्राप्य है।

दुरसा ने शस्त्र-बल से नहीं, काव्य-बल से गांव के गांव प्राप्त किये। काव्य भी ऐसा जो परिमाण में अधिक नहीं किन्तु स्वर्ण की भांति देदीप्यमान है। कवि-रचित तीन ग्रंथों का उल्लेख प्राय: किया जाता हैं- ‘विरुद छहत्तरी’, ‘किरतार बावनी’ एवं ‘श्री कुमार अज्जाजी नो भूचर मोरी नी गजगत।’ इनमें से अन्तिम दो ग्रंथ संदेहास्पद हैं। शेष ‘विरुद छहत्तरी’ नामक संक्षिप्त रचना प्रामाणिक है और प्रकाशित भी हो चुकी है। राजस्थान में यह रचना अत्यन्त लोकप्रिय है। इनके अतिरिक्त फुटकर रचनायें भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती हैं।

२४. प्यारा:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम संतु (मारवाड़) के निवासी थे। इनके लिखे हुए स्फुट गीत उपलब्ध होते हैं।

२५. गोरधन:- ये बोगसा शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम भीमखंड (मेवाड़) के रहने वाले थे। महाराणा प्रताप इनके समकालीन थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।

२६. पीथा:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के रहने वाले थे। महाराणा प्रताप इनके समकालीन थे। इन्होंने स्फुट गीत लिखे हैं।

२७. सूरायची:- ये टापरिया शाखा में उत्पन्न हुए थे औ२ ग्राम बढ़वाई (मेवाड़) के रहने वाले थे। महाराणा प्रताप इनके समकालीन थे। इनके लिखे हुए कई दोहे-सोरठे मिलते हैं।

२८. जागो:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्य के निवासी थे। इन्हें तत्कालीन नरेश मानसिंह का राज्याश्रय प्राप्त था और हल्दीघाटी के युद्ध में उनके साथ थे (१५७३ ई०)। मेवाड़ की सेना के पराजित होने पर मानसिंह का दिमाग सातवें आसमान में चढ़ गया। पीछोला तालाब में विजयोन्मादी अनर्गल प्रलापी मानसिंह घोड़े को पानी पिलाते हुए कहने लगा-‘बेटा नीला! तृप्त होकर पानी पीओ। या तो इस पीछोला में मंडोवर के राव जोधा राठौड़ ने ही राणा के बल को चूर्ण कर अपने घोड़े को पानी पिलाया था या आज मैं ही महाराणा प्रताप के गर्व को खर्व कर तुमको उसी पीछोला में पानी पिला रहा हूं। बेटा ! यह पीछोला आज से तेरे लिए है। पूर्ण तृप्त होकर अपनी प्यास को शान्त कर। ‘ इस समय जागो भी अपने घोड़े को साथ-साथ पानी पिला रहे थे। इनसे ये दंभपूर्ण शब्द नहीं सुने गये, अत: क्रोधित होकर आपे से बाहर हो गये। स्वतन्त्रता के अनन्य भक्त महाराणा प्रताप के लिए ऐसे अपमानसूचक शब्द सुनते भी तो कैसे? इसलिये ये अपने आश्रयदाता को भी उपालम्भ-सूचक दोहे सुनाने में नहीं चूके। फलतः इन्हें तत्काल निकाल दिया गया। इतना ही नहीं मानसिंह ने अपने पिता के नाम लिख भेजा कि आमेर राज्य में चारणों की जितनी जागीरें हैं, वे सब जब्त कर ली जाय और किसी चारण को दरबार में नहीं आने दिया जाय। कालांतर में किसना भादा ने ये जागीरें पुन: दिलवाई। जागो की फुटकर रचनायें उपलब्ध होती हैं।

२९. दूदा:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यांतर्गत बड़दड़े गांव के निवासी थे। राव सुरताण इनके समकालीन थे। काव्य-रचना में प्रवीण होने के कारण उनकी इन पर बड़ी कृपा थी। एक बार जब रायसिंह (बीकानेर) ने अकबर के कहने से सुरताण को बंदी बनाकर सिरोही पर अपना अधिकार कर लिया तब ये रायसिंह के पास गये और उन्हें छुड़ा लाये। इस विषय का यह दोहा प्रचलित है-

सीरोही सुरतांण से, लीधी तैं रायमल्ल।
दीनी महिना दोय सूं, गढ़ां उबारण गल्ल।।

कहते हैं, रायसिंह ने उदयपुर में विवाहोत्सव पर दूदा को हाथी-घोड़े दिये थे।

जब कल्याणसिंह (सियाणा) का सम्बंध भीम हाड़ा की कन्या से हो गया तब सम्राट् अकबर ने अप्रसन्न होकर सियाणा पर घेरा डाल दिया। यह देखकर सुरताण ने दूदा को सियाणा भेज कर कल्याणसिंह को अपने पास बुलाना चाहा क्योंकि वे सुरताण के भानजे होते थे। सुरताण बहुत से व्यक्तियों को पहले भी भेज चुका था किन्तु वे आये नहीं। अतः दूदा को योग्य समझकर इस कार्य के लिए भेजा गया। कल्याणसिंह पहले तो राजी होकर चलने लगा किन्तु फिर इनके एक गीत को सुनकर कहने लगा-आप मुझे कायर बनाते हो। दूदा ने उत्तर दिया ऐसी बात नहीं है। मैं तो केवल परीक्षा लेने आया था। जाओ, युद्ध करो। बहादुरों को अपना स्थान भय से छोड़ना लज्जा का विषय है। कल्ला ने कहा-तथास्तु, किन्तु अब आपसे बढ्‌कर योग्य कवि कहाँ मिलेगा? छंद बनाकर सुनाइये। आप जैसा युद्ध का वर्णन करेंगे, मैं वैसे ही लड़ूंगा। इसके लिए इन्होंने कुण्डलियां बनाईं। कहते हैं कि कल्ला ने ठीक उसी प्रकार लड़कर वीर-गति प्राप्त की। दूदा के लिखे हुए फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं।

३०. चांपसी:- ये सामौर शाखा में उत्पन्न हुए थे और बीकानेर राज्यान्तर्गत सुजानगढ़ तहसील के गांव बोबासर के निवासी थे। महाराजा रायसिंह इनके समकालीन थे। इन्हें ७ गांव जागीर में मिले थे। इनके पुत्र लालसी ने पुरोहितों के गांव जब्त किये जाने के विरोध-स्वरूप धरणे में आत्महत्या की थी, जिसका थड़ा सूरसागर के पास बीकानेर में अब भी मौजूद है। अत: इनको दिये हुए गांव जब्त कर दिये गये। केवल चांपासी एवं बोबासर जीवन-निर्वाह के लिए रखे गये। इनके लिखे हुए दोहे प्रसिद्ध हैं, जिनका उल्लेख मुंहणोत नैणसी ने अपनी ख्यात में भी किया है।

३१. जेतो:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इन्होंने फुटकर काव्य-रचना की है।

३२. नृसिंहदास:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान भी अज्ञात है। इनके लिखे हुए गीत मिलते हैं।

३३. महकरण:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और सरसिया ग्राम (मेवाड़) के रहने वाले थे। महाराजा उदयसिंह (जोधपुर) इनके समकालीन थे और बदन में इनके समान ही भारी थे, अत: अकबर उदयसिंह को ‘मोटा राजा’ और इनको ‘जड्डा चारण’ कहता था। अकबर के दरबार में जड्डा चारण की बड़ी प्रतिष्ठा थी। एक बार शाही दरबार में ये अपने भारी भरकम शरीर के कारण बहुत समय तक खड़े नहीं रह सके, इसलिए विवश होकर बैठ गये, ड्‌योढीदार के उठाने पर भी न माने और बैठे ही रहे। नवाब खानखाना ने इन्हें तीन लाख का पुरस्कार दिया था। उसने इनकी प्रशंसा में यह दोहा कहा-

घर जड्डी अंबर जडा, जड्डा चारण जोय।
जड्डा नाम अल्लाहदा, और न जड्डा कोय।।

महकरण का लिखा हुआ स्फुट काव्य उपलब्ध होता है।

३४. केशवदास:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे (१५५३ ई०) और मारवाड राज्यान्तर्गत सोजत परगने के सोभड़ावास गांव के निवासी थे। इनके पिता का नाम सदमाल था। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता की देख-रेख में ग्रहण की। जब ये युवक ही थे, तब एक फकीर के कहने मे आकर बाहर चले गये और वहाँ से लौटकर एक साधु-संन्यासी के सदृश जीवन-यापन करने लगे। इनकी वेश-भूषा को देखकर कोई इन्हें चारण नहीं कह सकता था। इन्होंने अपना विवाह भी गेरुएँ वस्त्र में किया था।

केशवदास एक भावुक भक्त कवि थे। मारवाड़ के तत्कालीन नरेश गजसिंह की इन पर बड़ी कृपा थी। मारवाड़ की ख्यात में लिखा है कि गजसिंह ने एक दिन में चौदह चारणों को चौदह लाखपसाव प्रदान किये थे, जिनमें एक ये भी थे। इनके काव्य की प्रशंसा सुनकर बीकानेर-नरेश ने इन्हें निमंत्रित किया और एक ऐतिहासिक काव्य बनाने के लिए अनुरोध किया। इन्होंने समय-समय पर अपने काव्य के द्वारा क्षत्रिय राजवंशों को सन्मार्ग पर लगाने का प्रयत्न किया। एतदर्थ इनकी कीर्ति राजस्थान में सर्वत्र फैलने लगी। जोधपुर एवं बीकानेर के सदृश बूंदी के हाडा महाराव रतन ने भी इनको अपने यहां बुलाकर एक गांव प्रदान किया था।

केशवदास के रचना-काल के समय महाराज पृथ्वीराज कृत ‘बेलि क्रिसन रुकमणी री’ का यश चारों ओर फैला हुआ था। विद्वान-मंडली में यह वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ कि यह ग्रंथ उनका लिखा हुआ नहीं है, किसी चारण ने लिखकर दिया है। इस बात की छान-बीन के लिए दुरसा आढ़ा, माधोदास दधवाड़िया, माला सांदू एवं केशवदास गाडण नामक चार चारण कवियों को नियुक्त किया गया। इन चारों कवियों ने अपना-अपना मंतव्य दिया। दुरसा एवं माला ने ग्रंथ को किसी चारण का लिखा बताया किन्तु केशवदास एवं माधोदास का मत था कि पृथ्वीराज उच्चकोटि के विद्वान हैं, अत: यह ग्रंथ उनका ही लिखा हुआ है। महाराजा पृथ्वीराज ने इन चारों कवियों को लक्ष्य करके चार दोहे कहे थे। केशवदास की गुणग्राहकता एवं विशाल-हृदयता के लिए यह दोहा कहा गया था-

केसो गोरषनाथ कवि, चेला कियो चकार।
सिध रूपी रहता सबद, गाडण गुण भंडार।।

स्पष्ट है, केशवदास गुणों के भण्डार थे। इनकी गोरखनाथजी के प्रति असीम श्रद्धा एवं भक्ति थी। कोई आश्चर्य नहीं, ये नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित हुए हों क्योंकि इनकी रचनाओं पर गोरखनाथ का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

केशवदास का स्वर्गवास सन् १६४० ई० में हुआ। अपने ८७ वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में इन्होंने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की सृष्टि की किंतु खेद है कि अधिकांश काल के गर्भ में विलीन हो चुके हैं। उपलब्ध ग्रंथों की पृष्ठभूमि में जीवन की चेतना स्पंदित होती दिखाई देती है। ‘गुणरूपक’ (१६२४ ई०), ‘गज-गुण-चरित्र’, ‘राव अमरसिंह रा दूहा’, ‘विवेक वार्ता’, ‘विवेकवार री नीसाणी’, ‘गोरखनाथ जी के छंद’ एवं ‘सत्ताईस नीसाणी’ ऐसी ही रचनायें है। इनके अतिरिक्त फुटकर गीत भी बहुत उपलब्ध होते हैं।

३५. देपां (कवयित्री):- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुई थीं और मारवाड़ राज्यांतर्गत बाड़मेर परगने के गांव भादरेस की रहने वाली थीं। ये प्रसिद्ध कवि आशानंद की बहिन थीं। इनका पाणिग्रहण संस्कार दला के साथ हुआ था। अपने पति के सदृश यह भी काव्य-रचना करती थीं। इनके लिखे हुए कवित्त मिलते हैं।

३६. लक्खा:- ये रोहडिया बारहठ वीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे (१५६३ ई० के आसपास) और मारवाड़ राज्यांतर्गत गांव नानणियाई के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम नानण था। कहते हैं, ये बद्रीनाथ की यात्रा के समय साधुओं के सहयोग से अकबर के कृपापात्र बन गये।

सन्देह नहीं कि लक्खा का केन्द्र के साथ घनिष्ट सम्बन्ध था। इनकी वाणी में जादू का सा प्रभाव था। एक ओर केन्द्र में जहाँ अकबर एवं उसके सभासद इनकी राजनैतिक सूझ-बूझ पर मोहित थे, वहां दूसरी ओर राजस्थान के विभिन्न राज्य इनसे मिलने के लिए तरसते रहते थे। चारण जाति में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। ये स्वयं भी बड़े उदार थे। जब कोई भी चारण बादशाह से मिलने आता तब ये भेंट करा दिया करते थे। ये स्वाभिमानी भी बहुत थे और सत्य का सदैव आग्रह करते रहते थे।

लक्खा अनुमानत: ८६-८७ वर्ष तक जीवित रहे। इनका जीवन रईसों के जैसा था। इनकी प्रशंसा में बड़े-बड़े व्यक्तियों ने काव्य-रचना की है। अकबर ने इन्हें मथुरा में एक बड़ी हवेली दी थी, जहाँ ये ठाट-बाट से रहते थे। अकबर इन्हे ‘वरण पतसाह’ कहता था-

अकबर मुख सूं अक्खियो, रूड़ो कह दू राह।
मै पतसाह दुनियान पत, लखौ वरण पतसाह।।

इन्हें उदयसिंह के पुत्र दलपतसिंह ने धाणिया गांव पुरस्कार में दिया था। इसी प्रकार महाराजा सूरसिंह (जोधपुर) ने इन्हे तीन गांवों की जागीर प्रदान की थी- रेंदणी (सोजत), सीधला नडी (जैतारण) और ऊंचा हाड़ा, टेला व भेरूंदा (मेड़ता)। इनके सन् १६०१ ई० के कुछ पट्टों की भी नकलें उपलब्ध हुई हैं। इन्होंने अपने पुत्र नरहरिदास के विवाह में खूब दौलत लुटाई और धूमधाम से विवाह किया जिसकी प्रशंसा मोतीसरों ने की है।

लक्खा का लिखा हुआ ‘पाबू रासा’ नामक एक ग्रंथ उपलब्ध होता है। कहते हैं, अकबर की आज्ञा से इन्होंने ‘बेलि-क्रिसन रुकमणी री’ की टीका मरुभाषा में लिखी थी। इनके अतिरिक्त फुटकर गीत एवं दोहे भी बहुत लिखे है।

३७. पूना:- ये संढायच उज्वल शाखा में उत्पन्न हुए थे और मूलतः ग्राम ऊजला (मारवाड़) के निवासी थे। फिर ये सिरोही चले गये। ये राव सुरताण के समकालीन थे। इन्होंने उनकी वीरता से प्रभावित होकर अनेक रचनायें लिखी हैं जिन्हें सुनकर काव्य-प्रेमी नरेश ने इन्हें पुनावा गांव पुरस्कार में दिया था जो आज भी इनके वंशजों के पास है। इनके नाम से ही यह गांव प्रसिद्ध हुआ है।

३८. शक्तिदान:- ये छाछड़ा(चांचड़ा) शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे गीत मिलते हैं।

३९. दला:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यांतर्गत बड़दड़े गांव के निवासी थे। इनके पिता का नाम दूदा था। जब राव सुरताण ने दूदा को देवड़ा वजेसिंह और उसके भाई धनसिंह को मारने के लिए भेजा तब ये दोनों भागकर मेवाड़ के महाराणा के पास चले गये। दूदा ने अपने पुत्र दला को योग्य समझकर इस काम के लिए मेवाड़ भेजा और वहां से भी निकलवा देने के लिए कहा। दला ने वहाँ पर पहुँच कर यह कार्य पूर्ण कर दिखाया, जिससे वे दोनों अकबर के पास चले गये। दला का स्फुट काव्य उपलब्ध होता है।

४०. वीरदास (रंगरेला):- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर राज्यांतर्गत साँगड़ गांव के रहने वाले थे। जालोर के नवाब कमालखां ने इनके काव्य-चमत्कार को देखकर ‘रंगरेला’ की संज्ञा दी थी, तब से ये रंगरेला के नाम से प्रसिद्ध हुए। कहते हैं, गर्भावस्था में इनके पिता चल बसे और दस दिन की अवस्था में इनकी माता का भी देहांत हो गया। ये स्वभाव के बड़े विनोदी थे। जैसा इनका नाम था, वैसा ही गुण भी। रंगरेला अपने आप में कविता के एक अविरल स्रोत थे। ये प्राय: घूम-घूम कर विभिन्न नगरों एवं प्रान्तों का वर्णन किया करते थे। इन्होंने अपने सम्बंधी को मार दिया, इसी अपराध में इन्हें कैद कर दिया गया। जब बीकानेर नरेश महाराजा रायसिंह जैसलमेर विवाह करने गये तब तोरण बांधते समय उनकी कृपा से इनका उद्धार हुआ। विवाहोपरांत महाराजा इन्हें अपने साथ बीकानेर ले गये। वहां पर ये कभी-कभी जैसलमेर का वर्णन सुनाया करते थे, जिससे महारानी भटियाणी बहुत कुढ़ा करती थी। यह देखकर भटियाणी ने एक बार अपने आदमियों से इन्हें चौतीणा नामक कुए में खाट समेत गिरवा दिया, जहां से ये बड़ी कठिनाई से अपने प्राणों की रक्षा करते निकल भागे।

बीकानेर के राजा ने इन्हें लाखपसाव दिया था। एक बार ये राव सुरताण से मिलने सिरोही गये। सुरताण को इस बात का अभिमान था कि वह कवियों का आश्रयदाता है और दुरसा आढ़ा को करोड़पसाव दे चुका है। यह समझ कर इन्होंने एक दोहा कहा-

कोड़ दई अंतस कढे, पिंड में रह्यो न पांण।
दुरसे बीजू डंकियो, बैस रह्यो सुरतांण।।

इसे सुनकर सुरताण उठ खड़ा हुआ, इनकी खूब आवभगत की तथा ६ दिन का राज्य दिया।

रंगरेला की कई स्फुट रचनायें उपलब्ध होती हैं, जो प्राय: हास्य रस से ओतप्रोत हैं। इन्होंने ‘जैसलमेर चरित्र’ ग्रंथ का निर्माण भी किया था, लेकिन कहते है कि यह ग्रंथ उस समय जला दिया गया। इसके कुछ पद्य इधर-उधर बिखरे हुए मिलते है। इनके विषय में एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है-

रंगरेले विस रेलिया, मांड धरा रे मांहि।

४१. माधोदास:- ये दधवाड़िया शाखा में सन् १५५३-५८ ई० के बीच उत्पन्न हुए थे। चारण विद्वानों का कथन है कि ये मेड़ता परगने के गांव बलूंदा के निवासी थे। इनके पिता चूंडाजी अपने समय के एक अच्छे कवि थे। अत: इन्होंने उनके संरक्षण में रहकर विद्योपार्जन किया। आरम्भ से ही इनकी रुचि भक्ति की ओर थी। ये शांत एवं भावुक प्रकृति के व्यक्ति थे। इनकी कवित्व-शक्ति की प्रशंसा सुनकर जोधपुर के तत्कालीन नरेश सूरसिंह ने इन्हें राज्याश्रय प्रदान किया तथा सोजत परगने का नापावास, मेड़ता परगने का जालोड़ा और बिलाड़ा परगने का कूंपड़ावास नामक गांव पुरस्कार में दिये। इनका प्रतिभासम्पन्न
कवियों से घनिष्ट सम्बन्ध था। केशवदास गाडण, पृथ्वीराज राठौड़ प्रभृति विद्वानों ने इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पृथ्वीराज कृत ‘बेलि क्रिसन रुकमणी री’ पर सम्मति देने वाले चार चारण विद्वानों में से एक ये भी थे। इन्होंने उस ग्रंथ की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। इनके लिए पृथ्वीराज ने यह प्रशंसात्मक दोहा कहा है–

चूंडे चत्रभुज सेवियौ, ततफळ लागो तास।
चारण जीवौ चार जुग, मरौ न माधोदास।।

यह लक्ष्य करने की बात है कि कवि होने के साथ-साथ माधोदास एक श्रेष्ठ वीर भी थे। एक बार जब ये अपने घर कहीं बाहर गये हुए थे तब मुसलमानों ने आकर इनकी गायों को चुरा लिया। पता लगने पर इन्होंने अपने पुत्र के साथ उनका पीछा किया। इस मुठभेड में इन्होंने बहादुरी के साथ लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की (१६३३ ई०)।

माधोदास ने राजस्थानी-साहित्य की पर्याप्त सेवा की है। इन्होंने दो ग्रंथ लिखे- ‘राम रासो’ एव ‘भाषा दसमस्कंध’। ‘भाषा दसमस्कंध’ का तो पता नहीं लगता, किन्तु ‘रामरासो’ की अनेक हस्तलिखित प्रतियां राजस्थान में उपलब्ध होती है। इनका एक ग्रंथ और है- ‘गजमोष’, जिसकी हस्तलिखित प्रति अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर में विद्यमान है। इनके अतिरिक्त फुटकर गीत भी बहुत मिलते हैं।

४२. माला:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यांतर्गत नागौर परगने के ग्राम भदोरा के निवासी थे। ये अपने समय के प्रतिष्ठित कवि थे। महाराज पृथ्वीराज कृत ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ के निर्णायकों में से ये भी एक थे। जब इनका सन्देह दूर नहीं हुआ तब पृथ्वीराज ने इनके तथा दुरसा आढ़ा के लिए यह दोहा कहा था-

बाई बारे खाळियां, काई कही न जाय।
ऊदे मालो ऊपनों, मेहे दुरसा थाय।।

सम्भव है, आगे चलकर माला तथा दुरसा ने अपना मत बदल दिया हो। संदेह नहीं कि माला एक प्रभावशाली व्यक्ति थे तथा अपनी कवित्व-शक्ति के द्वारा सहज ही में दूसरे का ध्यान आकर्षित कर लेते थे। जान पड़ता है, अब्दुलरहीम खानखाना के सम्पर्क से इनकी पहुँच सम्राट् अकबर तक हो गई थी। बीकानेर के महाराजा रायसिंह ने इनके गीतों से प्रभावित होकर लाखपसाव एवं भदोरा गांव प्रदान किया। इतना ही नहीं, महाराणा प्रताप एवं सम्राट् अकबर ने भी इन्हे सम्मानित किया था। इनकी लिखी हुई तीन रचनायें उपलब्ध होती हैं-‘झूलणा महाराज रायसिंघजी रा’, ‘झूलणा दीवाण प्रतापसिंहजी रा’,
तथा ‘झूलणा अकबर पातसाहजी रा।’ इनके अतिरिक्त स्फुट गीत भी मिलते हैं।

४३. शंकर:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यांतर्गत लानेड़ा गांव के निवासी थे। कालांतर में ये बीकानेर चले गये जहाँ रायसिंह ने इनकी कवित्व-शक्ति पर प्रसन्न होकर अपने मंत्री कर्मचन्द को एक करोड़ रुपया नक़द देने की आज्ञा दी किन्तु मंत्री ने उसमें अड़चन डालनी चाही। उसने थैलों में रुपये भरवा दिये और आग्रह किया कि बारहठजी को यह अतुल सम्पत्ति दी जाय, इसके पूर्व महाराजा स्वयं अपनी आखों से देख लें। मंत्री का अनुमान था कि इतनी बड़ी धन-राशि को देखकर महाराजा का विचार बदल जायगा और वे दान कम कर देंगे। महाराजा मंत्री के भाव को ताड़ गये और बोले-क्या एक करोड़ इतना ही होता है? मेरा तो अनुमान था कि एक करोड़ इससे अधिक होता होगा! बारहटजी को एक करोड़ रुपये के बदले सवा करोड़ दिया जाय।

एक बार भामाशाह ने महाराणा प्रताप को उदयपुर में प्रीतिभोज पर आमंत्रित किया, जिसमें सब ओसवालों को न्यौता दिया गया। उसमें निमंत्रण पाकर शंकर भी सम्मिलित हुए। कहते है कि भामाशाह ने इन्हें इस अवसर पर एक अमूल्य नग भेंट किया था-

भामे जग जीमाड़ियौ, नेवतरिया नवखंड।
सिर तपिया वासक तणा, काजलियौ ब्रह्मंड।।

मोटे राजा उदयसिंह (मारवाड़) के शासन-काल में चारणों ने आउवा में जो धरणा दिया (१५८६ ई०) उनमें से एक ये भी थे किन्तु उसे छोड्‌कर चले जाने से इनके चरित्र पर धब्बा लग गया। इनके फुटकर दोहे एवं गीत मिलते हैं।

४४. पद्मा:- ये सांदू शाखा में अनुमानत: सन् १५६८-७३ के बीच उत्पन्न हुई थीं। इनके पिता का नाम माला सांदू था, जो भदोरे गांव (मारवाड़) के रहने वाले थे। एक बार शंकर अपने नौकर-चाकरों के साथ कहीं जाते हुए इनके गांव पहुँचे। घर में कोई नहीं था। इनका विवाह शंकर के साथ तय हो चुका था किंतु धरणा छोड़ने के कारण इन्होंने अपने पति को त्याग दिया और महाराजा रायसिंह (बीकानेर) के छोटे भाई अमरसिंह को अपना धर्म-भाई बनाकर उनके महल में रहने लगीं। अमरसिंह को अफीम का दुर्व्यसन था। सो जाने पर यदि उन्हें कोई जगा देता तो वे क्रुद्ध होकर उसे मार डालते थे। जब अकबर ने अपने प्रसिद्ध सेनापति अरबखां को उन्हें पकड़ने के लिए भेजा तब वे सो रहे थे (१५९७ ई०) तब उन्हे जगाता भी कौन? पद्‌मा ने ही अपने उद्‌बोधन गीत से उन्हें जगाया और युद्ध करने के लिए उत्साहित किया। अमरसिंह के वीरगति प्राप्त करने पर ये भी उनकी रानियों के साथ सती हो गईं। पद्‌मा की अत्यन्त कम रचनायें उपलब्ध होती हैं।

४५. कल्याणदास:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और बूंदी राज्य के रहने वाले थे। इनके समय में रावराजा रतनसिंह सिंहासनारूढ़ थे जिनका राज्याश्रय इन्हें प्राप्त था। इनकी बनाई हुई ‘राव रतन री वेलि’ साहित्य संस्थान उदयपुर में सुरक्षित है। इसके अतिरिक्त फुटकर काव्य भी मिलता है।

४६. भल्ला:- ये गांगणिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम धनायकां (मेवाड़) के रहने वाले थे। महाराणा अमरसिंह इनके समकालीन थे। इन्होंने कई गीत लिखे हैं।

४७. साहिबो:- से सुरतांणिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यांतर्गत जालोर परगने के गांव मेढ़ावा के निवासी थे। इन्होंने स्फुट गीत लिखे है।

४८. सायां:- ये झूला शाखा में उत्पन्न हुए थे (१५७५ ई०) और ईडर राज्यांतर्गत लीलछा गांव के निवासी थे। इनके पिता का नाम स्वामीदास था, जिन्हें महादेव का इष्ट था। अपने इष्टदेव की अनन्य भक्ति के वरदान-स्वरूप स्वामीदास के दो पुत्र हुए-भाया और सायां। कहते हैं, अपने पिता के समान सायां को भी महादेव ने दर्शन दिये थे। कृष्ण से साक्षात्कार होने की कथा भी जन-प्रचलित है। यद्यपि सायां ने निर्धन परिवार में जन्म लिया तथापि ये जन्मजात काव्य-प्रतिभा लेकर अवतीर्ण हुए थे। शनैः-शनैः इन्होंने अपनी वीरता, योग्यता, उदारता, दानशीलता, धर्मपरायणता आदि सद्‌गुणों के द्वारा समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त की। इनकी भगवद्‌भक्ति एवं कवित्व-शक्ति का तत्कालीन समाज पर विशेष प्रभाव पड़ा। इससे शासक और शासित दोनों ही इन्हें श्रद्धा एवं भक्ति की दृष्टि से देखने लगे, यहाँ तक कि ये अपने समय के एक प्रसिद्ध चमत्कारवादी सिद्ध महात्मा के रूप में प्रतिष्ठित होने लगे। जब महन्त गोविन्ददास ने इनमें असाधारण गुण देखे तब इनको प्रेमपूर्वक अपना शिष्य बना लिया। ये ईडर-नरेश राव वीरमदेव और फिर उनके छोटे भाई राव कल्याणमल के राज्याश्रित कवि थे जो विद्यानुरागी होने के कारण इन्हे बडे आदर-सम्मान की दृष्टि से देखते थे। उन्होंने इनकी काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत होकर एक-एक लाख-पसाव एवं कुवाबा नामक गांव पुरस्कार में दिया था (१६०४ ई०) कहते हैं, इनके गीत को सुनकर महाराजा गजसिंह (मारवाड़) ने भी लाखपसाव देना चाहा किन्तु इन्होंने भगवान के निमित्त एक सोने का थाल बनवाकर भिजवा दिया। ‘रास-माला’ के आधार पर दानी राव वीरमदेव ने दशहरे के दिन अपना प्रसिद्ध घोड़ा ‘जाल्हार’ इन्हें दान में दिया। इस प्रसंग को लेकर राव तथा उनकी बाघेली रानी में कहा-सुनी हो गई। राव को कहना पड़ा-तुम्हारे पिता ऐसा घोड़ा देंगे तभी तुम्हारे महल में आऊँगा। फलत: रानी अपने पीहर चली गई। जब बाघेला को इसका पता चला तो अपनी क्षमता का परिचय देने के लिए सायां से मुंह-मांगा दाम देकर ‘जाल्हार’ खरीद लिया, कुछ दिन अपने पास रखा और फिर सायां को दान में दे दिया। कहते हैं, राव कल्याणमल के शासन-काल में इन्होंने दुर्ग बनवाने का विचार किया जो बाद में छोड़ देना पड़ा। इन्होंने मन्दिर, कुए आदि की स्थापना कर लोक-कल्याणकारी कार्यो को भी प्रोत्साहन दिया था। इनका विवाह सुहागणबाई के साथ हुआ था जो इनके सदृश भगवद्‌भक्ति में लीन रहती थी।

प्रायः संत-महात्माओं के जीवन-चरित्र में हमें लौकिक-अलौकिक किंवदंतियां सुनने को मिलती हैं जो उनके स्वरूप को स्पष्ट करने में सहायक होती है। सायां के विषय में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं जिनमें हनुमान द्वारा आमों का प्रसाद प्राप्त करना, धूप में सर्प द्वारा छाया करना, बाघ को गधा बना देना, श्रापित मगर का उद्धार करना, कृष्ण से ऊंटनी पर स्वर्ण-मुद्रायें प्राप्त करना विशेष प्रचलित हैं।

सायां ने वृद्धावस्था में संन्यास ग्रहण कर लिया था और यह प्रण किया था कि किसी भी क्षत्रिय पुरुष की प्रशंसा नहीं करूँगा। ईडर-नरेश इनकी ईश्वरभक्ति से प्रभावित होकर इन पर अत्यन्त श्रद्धा रखते थे। वे इन्हें प्राय: अपने पास रहने का आग्रह करते। एक बार ये ईडर से तीर्थयात्रा करते हुए मथुरा पहुँचे और वहां विश्रामघाट पर श्रीकरनीजी के मंदिर के समीप चारणों के तीर्थगुरु के मकान पर ठहरे। संयोगवश वहां रहते हुए बिमार पड़ गये। सायां को ज्ञात हुआ कि यह शरीर इसी बीमारी से चला जायगा। इस स्थिति में इन्हें अपने परम प्रिय ईडर-नरेश की स्मृति होने लगी और मिलने की इच्छा बलवती हो चली किंतु कहां ईडर और कहां मथुरा ! रेल-तार नहीं थे। अत: इन्होंने मथुरा के गुरु को कागज, दवात और कलम लाने को कहा – कागज पर एक गीत और एक दोहा लिखा, फिर उसे हवा में उड़ा दिया। सूर्य भगवान की स्तुति के परिणामस्वरूप कागज अदृश्य हो गया और कहते हैं, उसी दिन जब ईडर-नरेश भोजन कर रहे थे, वह उनके निकट आ गिरा। पत्र पढ़कर ईडर-नरेश बहुत चिंतित हुए और मथुरा चल पड़े। जब वहाँ पहुंचे तब दोनों एक दूसरे को देखकर आनन्द-विभोर हो गए। कुछ दिन पश्चात् सायां का वहीं मथुरा में देहांत हो गया (१६४६ ई०)। ईडर-नरेश इनकी आवश्यक अंत्येष्टिक्रिया कर स्वस्थान लौट आये।

सायां योग्य पिता के सुयोग्य पुत्र थे। पिता महादेव भगवान के अनन्य भक्त थे तो पुत्र सायां श्रीकृष्ण के। यही कारण है कि इनका काव्य कृष्णभक्ति से ओतप्रोत है। इनके लिखे हुए दो ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं-‘रुकमणी हरण’ एवं ‘नागदमण’। जिस समय महाराजा पृथ्वीराज राठौड़ ‘वेलि क्रिसन रुक्मिणी री’ बनाकर अकबर के पास ले गये, उस समय ये भी ‘रुक्मिणी हरण’ बना कर ले गये थे। कहते हैं, पारखी अकबर ने इन दोनों ग्रंथों को सुना और व्यंग में पुथ्वीराज से कहा कि– ‘हे पृथ्वीराज! तुम्हारी ‘वेलि’ को तो सायां झूला की हिरनी चर गई।’ यह ग्रंथ अपूर्ण ही उपलब्ध होता है। इन दोनों ग्रंथों के अतिरिक्त कवि के लिखे हुए फुटकर गीत एवं दोहे भी मिलते है। डॉ० पुरुषोत्तम मेनारिया ने इनके विषय में सत्य ही लिखा हैं- ‘वे झोंपड़ी में जन्म लेकर भी अपने कार्य-कौशल से दुर्ग के निर्माता हुए, भक्ति में ऐसे महान हुए कि स्वयं भगवान भी उनके भक्त माने गये। वे ऐसे निडर और स्वाभिमानी थे कि शासकों से लाखों रुपयों की संपत्ति स्वीकार करते हुए भी उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का ही गुणगान किया। सायांजी ऐसे दानी हुए कि अपने जीवन में संचित सवा लाख रुपयों का त्याग करते हुए उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ और दान देने के लिए ही आजीवन दान ग्रहण करते रहे। ‘

४९. हरीनाथ:- इनका जीवन-वृत्त अंधकारमय है। इनकी लिखी हुई स्फुट कविता मिलती है।

५०. जैता:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मेवाड़ के निवासी थे। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है।

५१. हेमराज:- ये सामोर शाखा में उत्पन्न हुए थे और बीकानेर राज्य के जोगलिया गांव के रहने वाले थे। इनके पिता का देहावसान बाल्यकाल में ही हो गया था। इसी समय एक बार महाराजा गजसिंह (मारवाड़) बीकानेर गये। मार्ग में उन्होंने इनके गांव में डेरा डाला। चारण बंधु विरुदावली सुनाने आये किंतु किसी बात से महाराजा अप्रसन्न हो गये और उन्होंने अपने राज-दरबार में बीकानेर के चारणों का आना बंद कर दिया। यह बात हेम की मां को असह्य हुई। उसने अपने पुत्र को डिंगल-पिंगल पढ़ाना आरम्भ किया और एक सुयोग्य पण्डित से संस्कृत में भी शिक्षा दिलाई। ज्ञान से परिपक्व होकर ये गजसिंह के दरबार में गये और कविता सुनाई। महाराजा ने प्रसन्न होकर इन्हें बीजावाड़िया नामक गांव से पुरस्कृत किया। उल्लेखनीय है कि गजसिंह ने इन्हें चारण जाति में सर्वप्रथम ‘कविराजा’ का पद प्रदान किया तथा एक गांव पुरस्कार में दिया। ये प्रसिद्ध कवि नरहरिदास के साले थे।

हेम ने ‘भाषा चरित्र’ नामक ग्रंथ लिखकर महाराजा को भेंट किया। इसके अतिरिक्त इनकी फुटकर रचनायें भी मिलती है।

५२. लूणकरण:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और राव अमरसिंह (मारवाड़) के समकालीन थे। इन्होंने स्फुट गीत लिखे है।

५३. जोगीदास:- ये कुंवारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और राव अमरसिंह (मारवाड़) के समकालीन थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं।

५४. नाथा:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और टोकरडास ग्राम (मारवाड़) के निवासी थे। इन्होंने स्फुट गीत लिखें हैं।

५५. अैजन:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के रूपावास गांव के रहने वाले थे। ‘अवतार चरित’ के रचयिता नरहरिदास इनके समकालीन थे। इनके लिखे हुए फुटकर कवित्त उपलब्ध होते हैं।

५६. महेशदास:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्य के रहने वाले थे। ये अखेराज द्वितीय के समकालीन थे। सन् १६४२ ई० में महाराव अखेराज ने इन्हें ऊंड गांव से पुरस्कृत किया था। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।

५७. नरहरिहास:- ये रोहड़िया बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१५९१ ई०) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मेड़ता परगने के ग्राम टेला के निवासी थे। इनके पिता का नाम लक्खा था। इन्हें मथुरा में अपने पिता एवं अन्य विद्वानों के द्वारा शिक्षा दी गई। इन्होंने डिंगल एवं पिंगल दोनों भाषाओं का अध्ययन किया। इनकी कवित्व-शक्ति पर प्रसन्न होकर महाराजा गजसिंह (मारवाड़) ने इन्हें राज्याश्रय प्रदान किया और टेला गांव से पुरस्कृत किया था। इसके अतिरिक्त गजसिंह के पुत्र दलपतसिंह ने इन्हें पुष्कर के समीप कुछ भूमि भी प्रदान की थी। ये दो भाई थे-छोटे भाई का नाम गिरधरदास था।

नरहरिदास के कोई संतान नहीं थी। इस बात को लक्ष्य करके एक बार गिरधरदास की स्त्री ने इनकी पत्नी से कहा-‘तुम्हारे तो कोई लड़का है नहीं, कितनी भी जमीन पैदा करो, उसे तो हमारे ही लड़के भोगेंगे।’ जब यह बात पत्नी ने इनसे कही और कहा कि सब भूमि दान कर दो तब इन्होंने सांत्वना देते हुए कहा-‘तू अधीर न हो, में एक ऐसा पुत्र पैदा करूँगा जो विद्वानों की गोद में खेला करेगा।’ इस कथन को चरितार्थ करने के लिए ये पुष्कर चले गये और वहाँ इन्होंने एक भक्ति रस का अपूर्व ग्रंथ ‘अवतार चरित्र’ बनाया। पुष्कर में रहकर इन्होंने अपनी सारी भूमि ब्राह्मणों को दान कर दी। यह देखकर गिरधरदास के लड़के अजबसिंह ने इनके पास जाकर प्रार्थना की जिससे अन्त समय में इन्होंने उसे गोद ले लिया। इसी अजबसिंह के वंशज आजकल टेला गांव में रहते हैं।

इनके पुष्कर चले जाने के विषय में ऐसा भी कहा जाता है कि दिल्ली में गिरधरदास तथा नरहरिदास ने अपनी हवेली के दो भाग कर रखे थे। एक में गिरधरदास रहते, दूसरे में नरहरिदास। नरहरिदास के मकान व चौक का वर्षाकालीन पानी गिरधरदास के चौक में से होकर जाता था क्योंकि खाळी एक थी। जब नरहरिदास जहांगीर से मिलने गये हुए थे तब पीछे वर्षा के कारण पानी भर गया। गिरधरदास की स्त्री ने खाळी रोक दी, जिससे नरहरिदास के चौक में पानी भर गया और उनके ग्रंथ भीग गये। यह देखकर नरहरिदास बिगड़ गये और जहांगीर से मिलकर अपनी जागीर जब्त करवा दी। जब मारवाड़ में बोरूंदा जब्त कराया तब गिरधरदास ने बड़े भाई से प्रार्थना की। इस पर टेला गाँव रख दिया और नरहरिदास पुष्कर चले गये।

आरम्भ से ही नरहरिदास की रुचि भक्ति की ओर थी। इसे परिपक्व अवस्था तक ले जाने का श्रेय इनकी भावज को है। प्रतिज्ञानुसार अपने अन्तिम ग्रंथ ‘अवतार चरित्र’ का निर्माण कर ये इस लोक से बिदा हो गये (१६७६ ई०)। इस ग्रंथ की गणना राजस्थानी के अत्यन्त लोकप्रिय सरस ग्रंथों में की जाती है। यह ज्ञानसागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित हो चुका है। इसमें २४ अवतारों की कथा ५२० पृष्ठों तथा १६००० छंदों में वर्णित है। कवि ने ३२० पृष्ठों में रामावतार तथा शेष पृष्ठों में कृष्णावतार, कपिलावतार, बुद्धावतार आदि का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत किया है। इस ग्रंथ के अतिरिक्त इनके १६-१७ अन्य ग्रंथों का उल्लेख किया जाता है, जिनमें से ६ ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं-‘दशमस्कन्ध भाषा’, ‘रामचरित्र कथा’, ‘अहिल्या-पूर्व-प्रसंग’, ‘वाणी’, ‘नरसिंहअवतार-कथा’ एवं ‘अमरसिंह रा दूहा’। इन समस्त ग्रंथों में डिंगल-पिंगल का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। ‘अमरसिंह रा दूहा’ एक ऐसी रचना है, जिसे पूर्णत: डिंगल के अन्तर्गत लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इनके फुटकर गीत भी उपलब्ध होते हैं।

५८. गोविन्द:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६२७ ई०) और मेवाड़ के रहने वाले थे। इनके समय में महाराणा जगतसिंह राजगद्दी पर विराजमान थे। इनका निधन सन् १६५२ ई० में हुआ था। इन्होंने अनेक गीत लिखे हैं।

५९. विदुर:- इनकी शाखा का पता नहीं लगता किन्तु ये मेवाड़ के निवासी थे। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है।

६०. मुकुन्ददास:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्य के जांखर गांव के रहने वाले थे। ये दुरसा आढ़ा के पोते थे। इन्हें यह गांव राव सुरताण ने पुरस्कार में दिया था। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।

६१. हरीदास संढायच:- ये संढायच शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यांतर्गत ग्राम नाथूसर मोररा के निवासी थे। इस गांव के ये जागीरदार थे जिसका बीस हजार का पट्टा था। महाराणा जगतसिंह इनके समकालीन थे। महाराणा की पुत्री का विवाह बूंदी के राव शत्रुशाल हाड़ा के साथ हुआ था जिसमें ये भी सम्मिलित हुए थे। ये मेवाड़ के मुसाहिबों में थे और दरबार के कृपा-पात्र थे। कहते हैं, राव शत्रुशाल ने घोड़े पर बैठकर तोरण बांधा, हाथी पर बैठ कर नहीं। यह देखकर इन्होंने एक गीत सुनाया जिससे बूंदी के लोग अप्रसन्न हो गये। उपालम्भ के कारण बाईजी को मेवाड़ नहीं भेजा गया। समाचार आया कि हरीदास को भेजो। तब महाराणा ने दल-बल सहित इन्हें बाईजी को लेने के लिए बूंदी भेजा। उस अवसर पर रात्रि में बूंदी-नरेश ने अपने महल में इनका सत्कार किया और विदा होते समय पद-त्राण उठाकर दिये थे। इनका लिखा हुआ फुटकर काव्य मिलता है।

६२. बिहारीदास:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे और लसाड़िया ग्राम (अजमेर) के निवासी थे। इन्होंने फुटकर गीत लिखे हैं।

६३. नरबद:- इनकी शाखा का पता नहीं लगता किन्तु ये मारवाड़ के निवासी थे। इनके स्फुट गीत मिलते हैं।

६४. महेशदान:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यांतर्गत ग्राम पांचेटिया के निवासी थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।

६५. खीमराज:- ये दधवाड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम खेमपुर मेवाड़ राज्य के निवासी थे। इनकी उत्कट कवित्व-शक्ति को देखकर महाराणा ने राज्याश्रय प्रदान किया था। तदनन्तर महाराव अखेराज द्वितीय (सिरोही) ने इन्हें सरसब्ज कासंद्रा गांव देकर पुरस्कृत किया था। इनके लिखे हुए स्फुट गीत मिलते हैं।

परिशिष्ट

६६. सांवळ:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनके स्थान का पता नहीं लगता। इनका रचनाकाल १५०३ ई० है। इन्होंने फुटकर काव्य रचना की है।

६७. कान्हा:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे (१५०३ ई०) और बीकानेर राज्यांतर्गत गांव वालेरी के निवासी थे। राव जेतसी इनके समकालीन थे। इनकी स्वामीभक्ति प्रसिद्ध है। कवि होने के साथ ये वीर योद्धा भी थे।

६८. मेहा:- ये देवल शाखा के चारण थे। मारवाड़ राज्यान्तर्गत दधवाड़ा गांव में रहने के कारण ये दधवाड़िया कहलाये। अब इस गांव का कोई नाम-निशान नहीं रह गया है। इनके पिता का नाम मांडण था जो एक प्रसिद्ध कवि हो चुके हैं। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।

६९. उदयभाण:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। इनके पिता का नाम हरीदास केसरिया था।

७०. भीमा:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के गांव भांडियावास के निवासी थे। इनके पिता का नाम वैरीशाल था। महाराणा उदयसिह इनके समकालीन थे। इनके लिखे फुटकर गीत बताए जाते हैं।

७१. अमरदास:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्यान्तर्गत गांव हणूंतिया के निवासी थे। इनके पिता का नाम भूधरदासजी था, जिन्हें मनोहरपुर के राव त्रिलोकचंद ने उक्त गांव प्रदान किया था (१५४३ ई०)। इनका विवाह गोरखदासजी की पुत्री नरबदा बाई से हुआ था जो इनके स्वर्गवास होने पर सती हो गई थी।

७२. भैरोजी:- ये गांगण्या शाखा में उत्पन्न हुए थे और धनायकां ग्राम (मेवाड़) के निवासी थे। महाराणा उदयसिंह इनके समकालीन थे।

७३. भाण:- ये खेतावत चारण थे और सम्भवत: मारवाड़ के निवासी थे। सन् १५४४ में शेरशाह ने जोधपुर के महाराजा मालदेव पर आक्रमण किया। इन्होंने अपने स्वामी के साथ शत्रु से युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त हुए।

७४. वेणीदास:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। इनके पिता का नाम हरीदास केसरिया था।

७५. सादूळ:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम पांचेटिया के निवासी थे। ये प्रसिद्ध कवि दुरसा के पुत्र थे। इनका रचनाकाल १५४३ ई० बताया जाता है।

७६. गैपो:- ये संढायच शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम मोगड़ा (मारवाड़) के निवासी थे। इनका रचना काल १५९९ ई० बताया जाता है।

७७. केशवदा:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। उदयभाण तथा बेणीदास इनके भाई थे।

७८. किसना:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और प्रसिद्ध कवि दुरसा के पाटवी पुत्र थे। इनके समय में जोधपुर की राज्य-गद्दी पर महाराजा सूरसिंह विराजमान थे। इन्हें पांचेटिया गांव जागीर में मिला था। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।

७९. हरिभगत:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। ये उदयभाण के सबसे छोटे भाई थे। इनके फुटकर गीत बताये जाते हैं।

८०. चूंडा:- ये दधवाड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यांतर्गत मेड़ता परगने के ग्राम बलूंदा के निवासी थे। इनके पूर्वज बीकानेर के थे। इनके पिता का नाम मेहा था। ये मीरांबाई के ताऊ बीरमदे (मेड़ता) के कृपापात्र एवं समकालीन थे। उन्होंने इन्हें ‘बलूंदा का वास’ नामक गांव प्रदान किया था। कहते हैं कि मेड़ता का प्रसिद्ध चारभुजा का मन्दिर इन्होंने ही बनवाया था। ये भक्त थे और साथ ही अच्छी कविता भी करते थे। इन्होंने दो ग्रंथ बनाए-‘रामलीला’ एवं ‘चाणक्य वेल’, किन्तु खेद है कि आज वे उपलब्ध नहीं होते। इनके दो पुत्र हुए-माधोदास और वेणीदास, जिनमैं माधोदास राजस्थानी के एक प्रसिद्ध कवि माने जाते हैं।

८१. सांवल देशनोकियो:- ये बीकानेर राज्यान्तर्गत देशनोक ग्राम के रहने वाले थे। इनके फुटकर गीत बताए जाते हैं।

८२. रामचन्द्र:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर के निवासी थे। इनके फुटकर गीत बताये जाते हैं।

८३-८४ जेसा व केसा:- ये दोनों सौदा बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के ग्राम सोन्याणा के निवासी थे। जब महाराणा प्रताप एवं मुगलों में हल्दीघाटी का युद्ध हुआ तब ये अपने स्वामी के पक्ष में लड़ते हुए काम आये थे।

८५. रघुनाथदान:- ये उज्जवल शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ के निवासी थे। इनके फुटकर गीत बताये जाते है।

८६. रामा:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। इन्होंने सन् १५७० ई० के हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप की ओर से युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की थी। इन्हें रामासणी गांव (मारवाड़) मिला था।

८७. खीमराज (द्वितीय):- ये दधवाड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत गांव बलूंदा के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।

८८. श्यामदास:- ये दधवाड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और बिलाड़ा परगने के ग्राम कूंपडास (मारवाड़) के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।

८९. श्याम:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ के निवासी थे। केशवदास गाडण इनके समकालीन थे। इन्होंने फुटकर काव्य-रचनायें लिखी हैं।

९०. पीरजी:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और लाखडतूंब गाँव के निवासी थे। इनका रचनाकाल १५८३ ई० बताया जाता है।

९१. लालादे:- इनकी शाखा एवं स्थान अज्ञात है। रचनाकाल १५८३ ई० बताया जाता है।

९२. ईश्वरदास:- ये मिश्रण शाखा में उत्पन्न हुए थे और सन् १५८३ ई० में बूंदी आकर हाडों के पोलपात बने। इनका बूंदी राज्य से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। बूंदी-नरेश सूर्यमल्ल ने इनकी कवित्व-शक्ति पर प्रसन्न होकर पुरस्कार दिया था।

९३. भाण:- ये बूंदी राज्य के कवि थे और सूर्यमल्ल के समकालीन थे। प्रसिद्ध है कि जब सूर्यमल्ल गद्दी पर बैठे तब राणा सांगा ने उनको ऐराकी नामक घोड़ा एव मेघनाद नामक अमूल्य हाथी भेंट किया था। सूर्यमल्ल ने प्रसन्न होकर ये उपहार इनको पुरस्कार में दे दिये।

९४. हरपाल:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम सिरवा (जैसलमेर) के निवासी थे। इनका रचना काल १६०३ ई० बताया जाता है।

९५. नरूजी:- ये सौदा बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और ग्राम सोन्याणा (मेवाड़) के निवासी थे। इनका रचना काल १६०३ ई० में बताया जाता है।

९६. किशनदास:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे और नागौर परगने के गाँव छींडिया (मारवाड़) के निवासी थे। इनका रचना काल १६०३ ई० बताया जाता है।

९७. नेतो:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनके स्थान का पता नहीं लगता। रचना काल १६०५ ई० बताया जाता है।

९८. हरषो:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। रचना काल १६०८ ई० है।

९९. देदो:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनके स्थान का पता नहीं लगता। रचना काल १६२३ ई० है।

१००-१०२. लिखमीदास, किसनदास एवं माधवदास:- ये तीनों कवि गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड राज्यान्तर्गत छींडिया गांव के निवासी थे। इनके पिता का नाम सदूजी था। महाकवि केशवदास इनके सगे भाई थे।

१०३. सुन्दरदास:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे और नागौर परगने के गांव कोटड़ा (मारवाड़) के निवासी थे। अमरसिंह राठौड़ (नागौर) इनके समकालीन थे और आश्रयदाता भी। इन्होंने एक बार दिल्ली जाते समय अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा की थी जिससे प्रसन्न होकर-इन्हें झोटड़ा गांव प्रदान किया गया। ये डिंगल-पिंगल दोनों में काव्य रचना करते थे।

१०४. दलपत:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यांतर्गत नागौर परगने के गांव भदोरा के निवासी थे। इनके पिता-पितामह का नाम क्रमश: ईश्वरदास एवं माला था जो प्रतिष्ठित कवि थे। महाराजा अमरसिंह इनके समकालीन थे। इन्होंने एक बार जैसलमेर में एक स्त्री को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। इनके लिखे हुए ‘अष्टरत्नाकर’, ‘रत्नरासो’, ‘षोडश संस्कार विधि’, ‘जयचंद रासो’ नामक ग्रंथ एवं फुटकर गीत कहे जाते हैं। बीकानेर-नरेश ने इन्हें एक गाँव से पुरस्कृत किया था।

१०५. देवो:- इनकी शाखा एवं स्थान अज्ञात है। इनके लिखे हुए फुटकर गीत बताये जाते हैं।

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