चारण साहित्य का इतिहास – चौथा अध्याय – मध्यकाल (प्रथम उत्थान) – [Part-B]
(ख) आलोचना खण्ड : पद्य साहित्य
१. प्रशंसात्मक काव्य: इस युग का प्रशंसात्मक काव्य दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम, जिसमें आश्रयदाता की वीरता, दानशीलता, कृतज्ञता, तेजस्विता एवं कला-प्रियता का प्रकाशन किया गया है और द्वितीय, जिसे किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिखा गया है। प्रथम प्रकार के कवियों ने संसार में जितने भी विरुद हैं, उनसे अपने चरितनायकों को अलंकृत करने का प्रयत्न किया है। यहां जीवन के उत्तम गुण एकत्रित हो गये हैं। कहीं-कहीं तो ये गुण ऐसे घुल-मिल गये हैं कि जिन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। इन कवियों में अत्युक्ति भी दृष्टिगत होती है, किन्तु वह निर्मूल एवं निराधार न होकर न्यूनाधिक वास्तविकता लिए हुए है। द्वितीय प्रकार के कवियों ने काव्य को साधन बनाकर अपने मनोवांछित फल को प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त की है और उसमें इन्हे सफलता भी मिली है। इसे हम तात्कालिक कविता कह सकते हैं।
चारण सदैव से ही वीरता का गायक रहा है। अपने नायक में अदम्य साहस देखकर उसका अंग-प्रत्यंग फूला नहीं समाता। एक इसी गुण का पक्ष लेकर वह अनेक ग्राम एवं गढ़पतियों का यशोगान करना अपने जोवन का ध्येय बना लेता है। जिन राजाओं को नहीं देखता उनका भी सुयश गाता है और जिनसे कभी कुछ भी नहीं पाता उनका भी काव्य बनाता है। ऐसा करते समय उसकी दृष्टि वीरता पर बराबर बनी रहती है। कहना न होगा कि यह उदार व्यापक-दृष्टि सबके लिए समान रूप से अनुकरणीय है। अक्खा, इसरदास, दुरसा, पीथा, सूरायची, रंगरेला, शंकर, भल्ला, गोविन्द, बिहारीदास, नरबद, माला सांदू प्रभृति कवियों में यही भावना पाई जाती है। रायसिंह (बीकानेर) की वीरता से प्रभावित होकर अक्खा ने लिखा है-
धणी एक नव सहस एक दसां सहसां घणी, थिर विहुं सुजस संसार थियौ।
सींध जगमाल नूं मेल क्यूं संचरै, जगौ किम सींघ नूं मेल जियौ।।
षरा सिरदार भुज भार आयो षरौ विसे वे बैन ही वैग षांगौ।
पूठ रायसिंह री गांगौ परै, सगह जगमाल री पूठ सांगौ।।
काज पतसाह कुळ लाज भारथ करण, थोभिया देवडां मांड थांणौ।
रांड नू मेल किम नीसरे र व रिण, राव नूं मेल किम जापै राणौ।।
काज सुरतांण सुरतांण सूं जुध करै, पाड़ भड़ अपड़ रणषेत पड़ियां।
बड़ा सिरदारा दळ वेर वारगना, चंद उत ऊद उत सुरंग चडिया।।
ईसरदास का नायक राठौड़ रघुनाथसिंह मेड़तिया भी ऐसा ही है-
वडा खेळा विचे अभिनमो वीर गुर, ऊजळा सावळां चोट उथाल।
सांकड़े घातियां दोयण सांमल सुतण, खत्री गुर खेले अखेलां ख्याल।।
दोयणियाल डाण घड़ डोहिया, असपत केव तें किया अण भंग।
पतसाहां तणा ख्याल बांदा पलब, जिप उभो रुघो कमध रण जंग।।
दुरसा ने राणा प्रताप की विरुदावली गाई है किन्तु नये रंग-ढंग से, परम्परानुसार नहीं। अब तक के प्रशस्ति काव्य में यह एक अभिनव आयोजन है। इसमें जहां अतीत का स्वर है वहाँ समाज में नवचेतना उत्पन्न करने की क्षमता भी। वह प्रताप के प्रण, पराक्रम एवं पुरुषार्थ पर मुग्ध है। घोर अन्धकार से परिपूर्ण अकबर के शासन में सब राजा ऊंघने लग गये किन्तु जगत का दाता प्रताप पहरे पर जगता रहा–
अकबर घोर अंधार, ऊंघाणा हींदू अवर।
जागै जगदातार, पोहरै राण प्रतापसी।।
इसी प्रकार सुरताण की प्रशंसा में-
सवर महाभड़ मेरवड़, तो ऊभा वरियाम।
सीरोही सुरतांण सूं, कुण चाहै संग्राम।।
आगरा के शाही दरबार में मदमस्त हाथी को कटार से मारने वाले वीर युवराज राठौड़ रतनसिंह (जोधा) की यह प्रशंसा दुरसा की उदार व्यापक दृष्टि सूचित करती है–
हूकळ पोळि उरड़ियो हाथी, निछटी भीड़ि निराळी।
रतन पहाड़ तणे सिर रोपी, धूहड़िया धाराळी।।
पाचूं सह बहंता पोखे, सांई दरगाह सोधे।
सिधुर तणो भृसुंडे सुजड़ी, जड़ी अभनमे जोधे।।
देस महेस अंजसिया दोन्यौ, रोद खत्री ध्रम रीधो।
बोहिज गयंद वखाणे आंणे, डांणे लागे दीधो।।
पीथा का कथन है कि कुम्भा की कला को धारण करने वाला प्रताप अपने कुल की रीति को रख कर ‘हिंदूपति’ एवं ‘यवनों का रिपु’ कहलाता है अत: राणा तो अकबर के हृदय में निवास करता है और दूसरे राजा उसके पैरों मे पड़े रहते हैं-
षटकै षत्रवेध सदा षेहड़तो, दिनप्रत दाषंतो षत्रदाव।
अकबर साह तणौं ऊदावत, राण हिये चरणां अन राव।।
नह पलटे षरड़कै अहोनिस, धड़ दुरवेस घड़ै घण घाव।
सांगा हरो तणे आलमसह, पांतर दै महपत अन पाव।।
धर बाहरू प्रताप षड़गधर, सुज वीसरै न पाषर सेर।
अकबर उर में साल अहाड़ो, ओयणे सेवग भूप अनेर।।
राव हींदवो तणो रोदां रिप, राणो आपाणी कुळ रीत।
पड़िया रहै अवर नृप पावां, चढियो कुंभ कळोधर चीत।।
सूरायची ने प्रताप को चम्पा एवं अकबर को भ्रमर की संज्ञा देकर एक सुन्दर रूपक की सृष्टि की है-
चंपो चीतोड़ाह, पोरस तणो प्रतापसी।
सौरम अकबर साह, अळियळ आभड़ियो नहीं।।
रंगरेला ने रायसिंह की वीरता इन शब्दों में व्यक्त की है-
जळ ऊंडा थळ धूंधळा, पातां मैंगळ पेस।
बळिहारी उण देस री जु रायसिंह नरेस।।
रायसिंघ न जच्चियो, पाधर रो पतसाह।
जिण घर अजा न बंधती, सो गज बंध कियाह।।
शंकर के गीत का विषय भी रायसिंह की प्रशंसा है–
यह सिंघ किया किव आप सरीषा, लास ग्रास देन भेद लधै।
सुपह प्रमांण वधै तामै सेवग, वेलौ रूंष प्रमांण वधै।।
किया जतै समजतौ कलावत, दुरषां ज्यां सेवीया सुपग।
मोटां ए पारष राव मारू, लता वघे तर सीस लग।।
तो दस नमिया जिके हेक वन, नर त्यां दूजौ जगत नमौ।
ऊंगे वैलौ पगां आसरे, सूव्रष करै ताप आप समौ।।
कोड़ां ने हसती बंध कीधा, लेषो तोई न हेक लष।
आप जिसा करन कूं अंजसीयौ, वेल अये तू कलप व्रष।।
जब अमरसिंह ने बादशाही सेना से मालवा छीना तब कर्णसिंह ने बड़ी वीरता प्रदर्शित की थी। भल्ला का यह गीत इस बात का द्योतक है-
प्रकट कोट गढ पाड़ साही धरा पलटजै, सुणे सेषू तणो उवर सीधो।
जानकर परणवा जावतां जैतहत, करण तैं माळवो फतै कीधो।।
धर नयर बधू से तेण रिव धूंधळो अमरवत आद सेवरै अणभंग।।
सिषर असपत तणो उबर छीनो नहीं, सुणे सुरताण तो अभनमा संग।।
सषंड षुरषाण लाहौर पड़ संक सह, महा मेछां तणो माण मळियो।
आपरी धरा उगराह कूंमर अभंग, बाय नीसाण दिस धरां बळियो।।
गोविन्द ने महाराणा जगतसिंह (मेवाड़) के रजवट की प्रशंसा इस गीत में की है–
राण रजपूत वट तणो छळ राषियो, साह सूं नांषियौ तोड़ सांधो।
कमरबंध छोड़कर जोड़ डंडवत करम, करनरै नामियौ नहीं कांधो।।
जगतसी अमरसी उदैसी जेहवो, छातपत केम कुळ राह छाडै।
राण सीसोदियो टेक झाले रहे, अेक पतसाह सूं कंध आड़ै।।
बिहारीदास ने राठौड़ विट्ठलदास (मानौत) के शौर्य की जो प्रशंसा की है वह बड़ी ही हृदयग्राही है। जब शाही सेना रूपी रथ ‘अटक’ जाते समय दलदल (युद्ध) में अटक गया तब इस वीर ने ही उसमें जुतकर बलिष्ठ वृषभ एवं रथवाहक दोनों का काम किया था-
हाकणहार सरीषो होवे, उतरीतां चढतां अटक।
बलिभरियो राजै यक बाजू, कळि रहियो सारो कटक।।
हिन्दूराय निबाहि हिन्दुवां, पाहि गाहि उजबकां परे।
ताणि खंधार ले गयो ताई, आणि पाणि मेलियां उरे।।
नरबद का राठौड़ रामसिंह (मारवाड़) भी विरुदधारी श्रेष्ठ वीर है। वह दुर्ग एवं मरु-प्रदेश का गर्व है और है छली शत्रु को नष्ट करने वाला छत्रधारी–
बड़ा विरदेत करमेत रा वीरवर, अजस दुरग जोधाण धर ऐत।
फरे फिरत अणी सावळ फळां, छळण हारां गिलै तुहिज छत्रेत।।
‘झूलणा महाराज रायसिंघजी रा’ नामक रचना में माला सांदू ने राव बीका से लेकर रायसिंह के पिता राव कल्याणमल तक की वीरता का सांगोपांग वर्णन किया है। यथा-
दूजौइ भारथ मंडियो, गुजरात कटक्के।
नाद नफेरी गहगहै, त्रंबाळ त्रहक्के।
अणियां ऊभां ऊपरे, ……..ा रहा उलक्के।
असफर खाफर अखत उर, मुख वायक वक्के।
आसा मीर बहादरां, ले चढिया चक्के।
पैठा रीठ नित्रीठ अंग, खळ कंध कड़क्के।
जिम भैंसासुर भंजिया, सिर धरण लटक्के।
दुहुं दुज भारथ झेलिया, दळ आगळ जिक्के।।
इसी प्रकार ‘झूलणा अकबर पातसाहजी रा’ नामक रचना में अकबर की गुजरात विजय का वर्णन किया गया है। बाबर और हुमायूँ के प्रसंग से काव्यारम्भ कर अकबर के जन्म का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
सेर हमाऊ जनमिया, घर वाबर हंदे।
अकबर गाजौ ऊयना, धिन वखत विलंदे।
जेण करामत आठ सिध, नव निद्ध दियंदे।
दस दगपाल डरप्पिया, पंयाल कुलंदे।।
चारण कवियों का प्रशंसात्मक काव्य एक ऐसा सागर है जिसमें गुणों की अनेक सरितायें आकर लीन हो जाती है। नरहरिदास कृत नाहरखान एवं भगवानदास राठौड़ विषयक गीतों से इस कथन की पुष्टि होती है। नाहरखान की इस प्रशंसा में कीर्ति, पवित्रता, मस्ती, मर्यादा, वीरता, शासन-प्रबंध, पुरुषार्थ, धर्म-रक्षा, राज्य-रक्षा आदि अनेक गुणों की व्यंजना की गई है-
क्रित अणरेह ऊजळा कमषज, ब्रै विधि बीयां न हालै वाद।
भार मुरधरा तणा सोहै भुजि, मछर अरेहण महण म्रजाद।।
पौरिस वडिम सामिध्रम अणपल, पाट सु छळि कोटां रखपाळ।
अड़पां काजि राजि अरघीजै, खत्र ताहरौ बिया खेमाळ।।
वीरता के सदृश दानशीलता की प्रशंसा भी कम आकर्षक नहीं। किसी राजा से पुरस्कार मिलने पर उसकी प्रशंसा करना चारण कवियों का परम्परागत स्वभाव है। इस दृष्टि से हरीदास, ईसरदास, महकरण, सूरायची आदि कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं। जो राजा भूमि के लिए भीषण संग्राम करे और विजयी होने पर उसका दान देकर रंक को राणा बना दे, उसकी दानशीलता का क्या कहना? राणा सांगा एक ऐसा ही अद्वितीय दानवीर है जिसने चित्तौड़ जैसा विशाल एवं सुदृढ़ राज्य भी हरीदास को दान कर दिया। अतः यदि कवि उसकी प्रशंसा के पुल बांधने लगे तो यह स्वाभाविक ही है-
मोज समंद मालवत महाबळ, अचड़ बियां न हुवै अे आज।
मांडव गढ़ गुज्जर अह मूके, रेणवां दीध चत्रगढ राज।।
मोकळहरा अधाप मामलां, पोरस धिनो षत्रीवट पाण।
षितपुर तषत साहरा षोसे, दीधा तैं पातां दीवाण।।
सांगा ग्रह मोषण सुरताणां, कूंभाहरा जोड़ करतार।
किय हरिदास राण केहरियो, व्रविया छत्र चमर वडवार।।
तूं हंमीर सारीसो त्यागी, वर उमिया दीधो सुबर।
जुग चहुंवे वातां जग जोड़ी, आहाड़ा रहसी अमर।।
ईसरदास ने पुरस्कृत किये जाने पर अपने आश्रयदाता रावळ जाम की प्रशंसा में कहा है-
क्रोड़ पसाव ईसर कियो, दियो संचणो गाम।
दाता सिरोमन देखियो, जग सर रावळ जाम।।
महकरण को यह देखकर आश्चर्य होता है कि नवाब खानखाना का विशाल मन साढ़े तीन हाथ की देह में कैसे समा गया? –
खाना खान नबाब रो दीठो ऐहो देण।
ज्यों ज्यों कर ऊंचा करे, त्यों त्यों नीचा नेण।।
खाना खान नवाब रो मोह अचंभो एह।
केम समाणो मेर मन साढ तिहत्थी देह।।
खाना खान नवाब रै, खांडे आग खिवंत।
पाणी वाळा प्राजळै, भण वाला उबरन्त।।
गजखान बिहारी द्वारा नरपड़ा गांव मिलने पर सूरायची का कथन है-
सुणिया तद साह एक कब थानक आयो।
नीपंण सूरो नाम ताम हजूर तेड़ायो।
कह्यो श्रीमुष कथन एक मो वचन उपायो।
यह तूटां परवांण गजखान छुड़ायो।
अकबर सूं रीझ दोनूं अमर, थिर कर इम थप्पियो।
नरपड़ा गांम गजखान नृप, सूरा कब ने समप्पियो।।
उपर्युक्त कवियों के अतिरिक्त ऐसे कवियों का भी अभाव नहीं जिन्होंने राजाओं से पुरस्कार न मिलने पर भी उनके गीत बनाये हैं। इससे उनकी गुणग्राहकता का परिचय मिलता है। इनमें हरीदास, सुरताणिया साहिबो, हरीनाथ, विदुर आदि कवियों के नाम आदरपूर्वक लिये जा सकते हैं। हरीदास ने टोडरमल (शेखावाटी) एवं जगतसिंह (मेवाड़) की दानशीलता के लिए यह दोहा कहा है –
दोय उदयपुर ऊजळा, दुइ दातार अटल्ल।
इक तो राणो जगत सी, दूजो टोडरमल्ल।।
सुरताणिया साहिबो ठा. वीरमदेव राठौड़ (घाणेराव) से क्या मिला मानो भक्त को भगवान मिल गया हो-
ग्रीषमंत हुओ सुराराज रो भाळबो गोम, पणखी सुणेबो वेण बाज रो इलाप।
ऊखड़ेवो महा काळे दरीबां अनाज रोक, मेडतीया गरीबां नवाज़ रो मिलाप।।
हरिनाथ ने महाराजा मानसिंह (जयपुर) की प्रशंसा में कहा है –
बलि बोई कीरति लता, करण करी द्वै पात।
सींची मान महीप ने, जब देखी कुम्हलात।।
विदुर का महाराणा जगतसिंह जो कुछ भी संचय करता है वह दान देने के निमित्त-
दोलत बरते दस गुणी, खाणे पर दाणे।
माल मोहरा मेलिया, भोंजाई भाणे।।
वीरता एवं दानशीलता का घनिष्ट सम्बंध है। चारण कवियों ने कहीं-कहीं इन दोनों का सामंजस्य भी उपस्थित किया है। ईसरदास की दृष्टि में वीर की पहिचान ही उसकी दानशीलता है। जसा की दानवीरता के विषय में कवि की उक्ति है-
आपै ही जाणावसी, भलौ ज होसी वग्गि।
कै माँगिण दरसावियाँ, कै उछजियाँ खग्गि।।
दुरसा का प्रताप तलवार ही नहीं चलाता, दान देने में भी दक्ष है। कवि ने रायपुर मिलने पर अपने दातार अमरसिंह की जो प्रशंसा की है, उसकी कल्पना अनूठी है। इससे महाराणा का पराक्रम एवं दाक्षिण्य एक साथ प्रकट होता है-
राव रावत रावळ के राजा, राणा हरै राखियो ऋण।
तूं हिंदवाण धणी पातलतण, तो गोढ़ां मांगजे तिण।।
ॠिण रखियो घणो राजा ने, मिळसां न करै मूझ मन।
कर ऊरण कूंभेण कळोधर, राण अढारह रायहर।।
सोह सीलणो कियो सीसोदे, सूर सोमते साखि सुर।
छत्रियां कुळ लहणो छोड़वियो, राण दियंते रायपुर।।
नरहरिदास के राठौड़ श्यामसिंह में भी ये दोनों गुण पाये जाते हैं-
करि हेकणि स्याम ऊभै मोटा क्रित, धूहड़ राउ धारिया धुरि।
खग क्यावर खटके खेड़ेचा, असहां नै सचंगां उरि।।
दळा वषे वहंजै दीजै, कमधज ध्रू धारणा कियै।
असिमर मौड़ दुयण क्रपणाये, हाथाळां खरड़कै हियै।।
कर ताहरां संपखि कलाउत वंदै जग जेही जगबेस।
मनि नित पड़े रिमां मदतारा, नवां साल नवसहस नरेस।।
और महेशदान कृत राठौड़ कुबेरसिंह पर लिखे गीत में भी यही भावना पाई जाती है-
सुद्रव झलूसां साज गजगाह जर दुसाळां, चत मठां दाह उर दयण चांका।
सुदाता वाह कुबेर ऊंचा सरा, (धारा) बहे दत राह धज राज वांका।।
जीवन में सहायता पहुँचाने वाले व्यक्तियों के प्रति आभार प्रदर्शित करना मनुष्य का कर्त्तव्य है। इस सिद्धान्त के अनुसार चारण कवियों ने विभिन्न राजाओं, सरदारों एवं अन्य व्यक्तियों पर फुटकर रचनायें लिखकर उन्हें अमरत्व प्रदान कर दिया है। ऐसे कवियों में आशानन्द, देवा, बख्तावर, ईसरदास, दुरसा आदि के नाम लिए जा सकते हैं। आशानन्द ने जक्खरा के लिए कहा है-
पांतरिया सह कोय, जाय जोहरथो अक्खरो।
नर पूजा नर लोय, आंख तळे आवे नहीं।।
और रावळ जाम की प्रशंसा में–
सेवग ताहरा लषा समोभ्रम, अधपत बीजा थया अनूप।
रै किम करै अवर नै रावल ! रेवा नदी तण जग रूप।।
कवि ने रोत्ता धमळ कळोधर, भावठि भंजण झील भुआळ।
लहुआ सरै वसंता लाजै, मांण सरोवर तणा मराळ।।
देवा ने शत्रुशाल (बूंदी) के लिए पद-त्राण सामने रखने पर कहा-
पाणा ग्रह पैजार, सुकब आगे धरतां सता।
हिक हिक बार हजार, यह सुमां ऊपर पड़ी।।
बख्तावर ने आंखों की ज्योति मिलने पर कल्याणसिंह राठौड़ का स्तुति-गान इन शब्दों में किया है
अवगुण कीध अजांण, प्राण बचाया प्रीत सूं।
किम भूलूं कलियाण, राजतणा गुण राठवड़।
मारू इम महाराज, कठे जाय करुणा करूं।
कला तो बिन काज, आज सरै नह और सूं।
तोड़ हला अकबर तणां, तेग झलातो ठौड़।
भलां करण दळ भांजणां, रंग कला राठौड़।।
ईसरदास अपने गुरु के प्रति आभार प्रकट करते हुए कहता है-
लागूं हूँ पहली लुळै, पीताम्बर गुर पाय।
भेद महारस भागवत, प्रभू जास पसाय।।
भला कारावास से मुक्ति दिलाने वाले हलवद नरेश रायसिंह का उपकार वह कैसे विस्मरण कर सकता था ? —
काराग्रह सूं काढ़ियो, वेळा दूजी बार।
अईओ रायसिंघ रा, गुण हन्दा उपगार।।
इतना ही नहीं, ईसरदास ने अपने चाकर किसनिया पर भी कतिपय दोहे लिखे हैं जो सांवला (सांवलिया) के नाम से उपलब्ध होते हैं। यथा-
खमकारा देती खलक, हमस हूकळता,
(अेवा) सूबा साथ बिना, सरगे हाल्या सामळा।
के’ छे त्यां काको नहि, मा न मळे माधा,
सगपण ना सांधा, सरगापरमां सामळा।
उनुं खीचडुं आपशे, भाणा विण भगवान,
ध्रकध्रक तुं इ धान, शेमां खाशुं सामळा।।
ठा० प्रतापसिंह का ऋण स्वीकार करते हुए दुरसा नत मस्तक हो जाता है-
माथे मावीतांह, जनम तणो क्यावर जितौ।
सोहड़ सुषपातांह, पाळणहार प्रतापसी।।
इसी प्रकार अक्खा बारहठ के लिए-
दिल्ली दरगह अंब तरू, ऊंचौ फळद अपार।
चारण लक्खौ चारणां, डाळ नमावणहार।।
किसी राजा की तेजस्विता का वर्णन देखना हो तो करमसी ( मेवाड़) एवं माला आसिया के स्फुट कवित्त देखिये। करमसी ने सूजा बालेछा की प्रशंसा की है। उसके कपोलों पर जैसे ही अरुणिमा छाने लगी वैसे ही वह राजाओं में ऐसा देदीप्यमान होने लगा मानो सहस्र किरण धारण कर सूर्य उदय हुआ हो–
जा दिन चोळ कपोळ, त दिन दीपे राजं तरि।
जग्गा जोति उदोत, किरिहिं ऊगे सहस्स करि।।
जनम जाणि जोतिक्क, वार वेळा विच्चारे।
जै जैवंत सकत्ति, कहे पड़ कारि निहारे।।
पालणे किरण प्रगटो प्रथी, पड़े द्रमंको दूजणा।
रै कुंवर राउ सामंत रो, सूर सहां सौ सज्जणा।।
और माला ने सिरोही के पाटवियों की तेजस्विता का वर्णन किया है–
कोड प्रवाड़ा करे सरग आखई (अखेराज) संप्रतो,
राजसिंघ तिण पाट अरक वेदे उगंतो।
किरण जाल इल हले अंब अंबर ओहासे,
सपत दाप सारीख वदन उदोत विकासे।
नवमेक छत्रछाया निजरन, अठारह विलकुले,
यह सिंघ प्रतये शिवपुरी जोत बिंब जिम झलहले।।
चारण कवि अपने आश्रयदाताओं की भवन-निर्माण कला से भी प्रभावित हुए हैं। राव अखेराज ने सिरोही में नया महल बनवाया और ‘फूल गोरख’ की रचना कराई जिसके विषय में खीमराज कहता है–
अखेराज करायो मेहल एक, इंद्र घटा जेम सोभंत देख।
जड़ाया जाळियां काच जोख, गजरीत करायो सुभग गोख।
सतरा सु समंत सातो बरस, लख कैम दाम लागत सरस।
हर गोख जोख कवलास होये, जगमगत जोत फूल गोख जोये।
धधवाड़ खेम कीरत कहाये, नीज अडग रहो खचंद तांये।।
अपने उद्देश्य तक पहुंचने के लिए चारण कवियों ने जिस प्रशंसात्मक काव्य का सृजन किया है उससे उनका अपना लाभ हुआ है। इस दृष्टि से किसना, दुरसा, महकरण, दला, रंगरेला आदि के स्फुट छंद पृथक आकर्षण रखते हैं। किसना के निम्न गीत से प्रसन्न होकर राजा मानसिंह ने चारणों की जब्त जागीरें ही नहीं लौटाई प्रत्युत निर्वासित जागो कवि को भी आदरपूर्वक अपने पास बुला लिया-
अतुळी-बळ मान तूझ धन आसत, गाहै गिरवर अगम गम।
पड़पै किसूं पीछोलै पायां, ज्यां समदां पाया जंगम।।
जान्हड़-हरा भरत खंड जीतण, तो धिन देस विदेस तप।
चहुं सागरां डोहिया चंचळ; पीछोले केहे पिंडप।।
सेतबंध गंगा सिंध सागर, पेखो बळे द्वारका परै।
घाटां इतां धपाया घोड़ा, किसूं तलावा अंजस करै।।
चहुं खंड तणां सागरां चहुवां, खेत पाया छहूँ रुत।
कूरम मान तुहाळा कटकां, ताळावां न हुवै तृपत।।
चारण कवि की सच्ची प्रतीति उसकी कविता से ही होती है। दत्ताणी के युद्ध में चौहान समरसिंह के इस तात्कालिक कीर्ति-गान ने ही दुरसा को जीवन-दान प्रदान किया था-
धर रावां जस डूंगरां, व्रद पोतां शत्रहाण।
समरै मरण सुधारियो, चहुं थोकां चहुआण।।
जब अकबर के अभिभावक बहरामखां ( अजमेर) ने पुष्कर स्नान के समय भेंट का अवसर नहीं दिया तब दुरसा मार्ग रोककर जोर-जोर से पुकारने लगा-
आफताब अंधेर पर, अगनी पर ज्यूं नीर।
दुरसा कवि का दुक्ख पर, है बहराम वजीर।।
यह सुनकर बहरामखां ने एक लाखपसाव दिया। इसी प्रकार मोटा होने के कारण शाही दरबार में महकरण खड़ा-खड़ा नहीं बोल सकता था अत: उसने अपने में वाणी-बल बताते हुए बैठे-बैठे ही गुणगान करने की इच्छा प्रकट की-
पगां न बळ पतशाह, जीभां जस बोलां तणौ।
अब जस अकबर काह, बैठा-बैठा बोलसां।।
अपने पिता की आज्ञा से दला ने महाराणा मेवाड़ के दरबार में पहुँच कर वजेसिंह को निकलवाने के लिए यह गीत सुनाया था-
वजपाल सरव संसार बखाणे, काला केहर भडां कमाड़।
मारे साथ मोहर मेवाड़ा, महालीयो बीच वले मेवाड़।।
हे हरराज तणा रढ रावण, रूक वखाणे राजा राण।
तें भागे दस सेहस तणा दल, दस सेहसां मांने दीवाण।।
जद थें वजा कालंद्री जूडतां, ध्यावा प्रसण उतारे घांण।
तव व देस आहडा तोने, सभर बंबाळ बडा चहुआण।।
गोडवाड चढतां गाहटीयो, गोडवीया अन राण गणे।
मेवाडे वजपाल मानीयो, मार सार संसार मने।।
रंगरेला वस्तुत: रंग का रेला था। एक बार वह राव सुरताण से मिलने सिरोही गया किन्तु दुरसा को करोड़पसाव देने के कारण राव धनहीन हो गया था, अत: कहला दिया- तबीयत खराब है। इस पर रंगरेला ने यह दोहा कहा-
कोडे अंतर काढ़िया, पड़ थाको तज प्राण।
दुरसो जांबू डंकियो, बैठ रह्यो सुरताण।।
इसे सुनकर सुरताण उठ खड़ा हुआ, रंगरेला से मिला और खूब आवभगत की।
जमणा एवं पद्मा के गीत उद्देश्य-प्रधान होते हुए भी उपर्युक्त कवियों से भिन्न हैं क्योंकि इनसे दूसरों का लाभ हुआ है, अपना नहीं। प्रशंसा का वह स्वर कितना सुखदायी है जिसे सुनकर गिरा हुआ उठ खड़ा होता है और अपने कर्त्तव्य-मार्ग पर लग जाता है। कहना न होगा कि जमणा के इस गीत ने मूर्च्छित सांगा के लिए राम-बाण-औषधि का कार्य किया था-
सतवार जरासंध आगळ श्रीरंग, विमहा टीकम दीध वग।
मेळि घात मारे मधु-सूदन, असुर घात नांषे अळग।।
पारथ हेकर सां हथणापुर, हटियो त्रिया पडंतां हाथ।
देष जका दुरजोधण कीधी, पछैं तका कीधी कांइ पाथ।।
इकरां रामतणी तिय रावण, मंद हरेगो दहकमळ।
टीकम सोहिज पथर तारिया, जग नायक ऊपरा जळ।।
एक राड़ भवमाह अवत्थी, ओरस आणै केम उर।
मालतणा केवा कज मांगा, सांगा तू सालै असुर।।
और पद्मा के इस उद्बोधन गीत ने अफीम की पिनक में पड़े अमरसिंह को जगाकर सतर्क किया था-
सहर लूटतो सदा तूं देस करतो सरद, कहर नर पड़ी थारी कमाई।
उजागर झाल खग जैतहर आभरण, अमर अकबर तणी फौज आई।।
वीकहर सीहधर मार करतौ वसु, अभंग अरवृंद तो सीस आया।
लाग गयणाग भुज तोल खग लंकाळा, जाग हो जाग कलियाण जाया।।
गोल भर सबळ नर प्रकट अरि गाहणा, अरबखां आवियो लाग असमाण।
निवारौ नींद कमधज अबै निडर नर, प्रबळ हुय जैतहर दाख चौपाण।।
जुडै अमराण घमसाण मातौ जठे, साझ सुरताण धड़ बीच समरो।
आपरी जका थह नह दी भड़ अवर नै, आप वी जका थह रह्यो अमरो।।
२. निन्दात्मक काव्य : चारण क्षत्रिय का समालोचक है। इस नाते वह गुणों के साथ अवगुणों की समीक्षा करता आया है। उसकी लोकप्रियता के मूल में यही रहस्य अन्तर्निहित है। इस काल में दुरसा, जागो, दूदा, महकरण, नरहरिदास, हरीदास सिंढायच प्रभृति कवियों ने कतिपय नरेशों को क्षात्र-धर्म से विमुख होते देखकर उपालम्भ दिये हैं। दुरसा ने प्रताप की प्रशंसा के साथ अकबर की निन्दा भी की है, जिसका सारांश यही है कि अकबर ने उचित अथवा अनुचित ढंग से राणा को बहुत दुख दिया किन्तु इससे पृथ्वी पर प्रताप रूपी चन्दन से सुगंध ही प्रकट हुई-
घट सूं ओघट घाट, घसियो अकबरिये घणो।
इळ चंनण उप्रवाट, परमळ उठी प्रताप सी।।
जागो ने अपने आश्रयदाता राजा मानसिंह तक को, जो महाराणा प्रताप का अपमान करने लग गया था, यह उपालम्भ-सूचक दोहा सुनाया जिसके फलस्वरूप उसे निर्वासित होना पड़ा एवं चारणों की सारी जागीरें भी जब्त हो गई-
माना मन अंजसो मती, अकबर बल आयाह।
जोधे जंगम आपणा, पाणां बळ पायाह।।
दत्ताणी के युद्ध से भागे हुए देवड़ा वजेसिंह की धज्जियां उड़ाते हुए दूदा ने लिखा है —
ध्रुह डगे अंबर ध्रवे, मेले हद महेरांण,
वजमल देखे वेरीयां, तूं भागे तड़तांण।
मेलीयो मरे मरे, परीय पण अण भंग पणौ,
धनीया ढलोघरे हाले क्युं हर राजोयत।।
महकरण ने शाह की सेवा करने वालों के प्रति राणाप्रताप की घ्रणा इस गीत में प्रदर्शित की है-
हाथी बंध घणां घणां हैमर बंध, कसूं हजारी गरब करो।
पातल राण हंसे त्यां पुरसां, भाड़े महलां पेट भरो।।
सिंधुर किसा किसा तो सा हण, सोना कसा कसा सर सूत।
सहा सवळ ले अवळ समापे, राणो कहै कसा रजपूत।।
बाजा कसा कसा त्यां बाजंद, मदझर कसा कसा त्यां मान।
पग गहलोतन (गिणे) सूपहां, नरते असुर किया नरमान।।
सांगाहरा साह अकबर सूं, सींग खड़ा कसुं रद खगसाय।
पत सिसोद न माने सुपहां, धी त्रिय ले पग लागे धाय।।
नरहरिदास ने राठौड़ रतनसिंह के मुख से उन क्षत्रियों की निन्दा कराई है जो अपना धर्म नहीं पहिचानते –
ताह केहा खत्री पयंपे रतनौ, चाह चढिया त्रांबियै चढै।
मन झांपियां समापै मौजां, वीरा रसि चांपियां विढै।।
सुयण सगाह राज धर संभ्रम, तां पुरिषां न मने तुड़ि तांण।
उरि बिहिया हवै आचारी, औट दिया सूत्रै आरांण।।
दळ आगळ खेमाळ दूसरो, बंदे नतां खत्रवट धरियांम।
मन लाजियां थका दन मंडै, सिर वाजियां करै संग्राम।।
कमंध कहै देयतो कळहंतो, इळंतां भड़ां किसी आकाहि।
गिणयां जाइ रीझे आपै ग्रंथ, त्रिणियां जां मांटीपण मांहि।।
और हरीदास सिंढायच ने शत्रुशाल (बूंदी) पर यह व्यंग्य किया है-
जाति माया सांसवें, राव कबड्डी रेस।
शत्रशल माया ऊषमें, छाया फळ जगतेस।।
उपर्युक्त कवियों के अतिरिक्त केशवदास, वीरदास (रंगरेला) एवं अैजन ने वैयक्तिक कारणों से राजाओं की भर्त्सना की है जो अनुचित प्रतीत होती है। जब महाराव रतन (बूंदी) केशवदास से पहले नहीं मिल पाये तब वह क्रोधित हो गया और बोल उठा-
गाहा दोहा गीतणा, भूल न राचे मन्न।
कपडो नूर षुंदाय रो, रीझे राव रतन्न।।
हीज की जांणे तीय रस, वाणक मांस बडांह।
रतन की जाणे रूपगां, गौगी मारी डाह।।
कवतां सर गुण ले मिले, ताते चमके तन्न।
अन्त बेर नहिं बीसरे, हाडो राव रतन्न।।
जब वीरदास ( रंगरेला) को जैसलमेर के महल में क्रैद कर लिया गया तब उसने ‘जयसलमेर चरित्र’ के नाम से छंद बनाये जो दूषित माने जाते हैं। यथा-
घोड़ा होय जु काठरा, पिंड कीजै पाषांण।
लोह तणां लूगड़ा, जोइजे जैसांण।।
और भी-
हेके गढ ऊपर तीन हजार, कोड़ी धन सक्कज साहूकार।
दिना ही तेथ मरे दस दस, विणजै खांपण ले सरबस्स।।
जैसलमेर के राजकवि की निन्दा इन शब्दों में देखिये-
टबूरो बारठ ढीली लांग, टहक्के दोनां खोड़ी टांग।
गल्योड़ी जाजम मांह बगार, जुड़े जहां रावळ रो दरबार।।
इसी प्रकार मेवाड़ के लिए-
अइयो असतरियाँह, मत हीणीं मेवाड़ री।
ऊंधी ओझरियांह, निकमा मांणस नीपजै।।
विवाहोत्सव पर मोहकमसिंह (मेवाड़) की आतिथ्य-सेवा में कमी देखकर अैजन से नहीं रहा गया अत: इस रूप में बरस पड़े-
जिण दिन छोड़ी पोळ जदी दुष दाळद टलियो।
जिण दिन छोड़ी पोळ जदी अन कपडो मिलियो।।
जिण दिन छोड़ी पोळ जदी मोटो सुष लादो।
जिण दिन छोड़ी पोळ जदी दाम गांठे बांधो।।
इण पोळ तणी घर वर इसी, दीठी कणी न देस है।
मौकमा कमंध मोटा मिनष, अलगा सूं आदेश है।।
३. वीर काव्य – आलोच्य काल मेँ युद्ध अधिक हुए। अत: वीर काव्य का अभूतपूर्व विकास हुआ। इसे पूर्ण रूप से आत्मसात करने के लिए दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम, जिसमें कथा-क्रम का आभास पाया जाता है और द्वितीय, जिसे फुटकर श्रेणी में रखा जा सकता है। कथा-क्रम का ध्यान रखने वाले कवियों में करमसी (मेवाड़), मेह, सूजा, ईसरदास, दुरसा, दूदा, महकरण, कल्याणदास, विदुर, माला सांदू आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
करमसी (मेवाड़) कृत ‘सूजा बालेछा’ शीर्षक रचना ६१ कवित्तों में बीजापुर (मारवाड़) के रणदक्ष सामन्त सूजा (सूर्यमल) बालेसरा की युद्ध-विजय का क्रमबद्ध वर्णन है। उसे राज्य-सीमा को लेकर बेड़ा (मारवाड़) के ठा० दुर्जनशाल से दो बार युद्ध करना पड़ा। भीषण रक्तपात के पश्चात अन्तत: सूजा की विजय हुई। जब मालदेव ने सूजा को मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह का विरोध करने एवं जैसलमेर के भू-भाग पर थाने बनाने के लिए कहा तब उसने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और यह कहकर कुम्भलगढ चला गया कि रण-वाद्य बजने पर वह कभी दाव नहीं चूकेगा। इस गर्वोक्ति से उसका मालदेव से भी युद्ध ठन गया। मालदेव अपने प्रमुख योद्धाओं के साथ आकर भिड़ा फिर भी युद्ध-प्रवर सूजा ने विजयी होकर ख्याति प्राप्त की। यह देख कर उसकी युवा पत्नी ने हार्दिक अभिनन्दन किया।
करमसी ने इन तीनों युद्धों का वर्णन किया है जिनमें वीर रस का सुन्दर चित्रण हुआ हैं। दुर्जनशाल के साथ उसकी प्रचण्ड युद्ध-वीरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है-
किया थट्ट दहवट्ट, झट्ट अवझट्ट निहट्टे।
खवां पाणि आपरां, भवां सारै जस खट्टे।।
खल खंडे खैगरे, जैत चाढी भुअडंडे।
प्रिथी लोक प्रग्गडौ, कियौ साकौ नव खंडे।।
सूजड़ा सांड आगळि सत्रे, नेसे वास निवारिया।
भागिया चूक हारे भिड़ण, वळे सींग वाधारिया।।
मालदेव की वाहिनी के प्रयाण करने पर आकाश और पृथ्वी का रंग पलट गया –
है खूरख ऊपडे, चड़े अंबर रज डंबर।
झर झंगर तर विमर, हुवै पैमाल गिरोवर।।
धर थरहर पुर नयर, करे डर देखि लसक्कर।
भिड़े कंध अनीमंध, भार आधियो फणीधर।।
है थाट हूक हा हंस हंमस, हेम हलीळा हल्लिया।
नाडूल नयर वीटै नगे, काळै औतारा किया।।
‘क्रोध’ की व्यंजना का यह स्वरूप दृष्टव्य है-
माहा रोस ऊससे, सीस आकास विलग्गे।
भिड़े चक्ख रत्तड़ा, मूंछ भ्रौंहारे लग्गे।।
पूग खग्ग ब्रहमंडि, इसे भुअडंड अफारे।
अत्तारे राउते, महाखारे उणहारे।।
जीवतो संभ जडियै जरद, फर बगतर कर फांबियौ।
देखियो काल विज़पाल दलि, इसौ अछाहौ आवियौ।।
वीभत्स का यह चित्रण वीर रस का सहायक है–
खिले रिक्ख नारद्द, भरे खप्पर चंडाळी।
रस लद्ध वर लद्ध, बद्ध माला कम्माळी।।
मिले वीर वेताळ, चंचराळा नहराळां।
प्रेत कत्थि जा अत्थि, मिले गाळा गुद्राळां।।
साकणी लबद्दणि संमळी, सिकोतरी खप्पर भरे।
थिर कंध सूर प्रव्वाड मल, इम आसीस उवच्चरे।।
मेह कृत ‘कर्मसी एवं सांवलदास चहुवान’ नामक रचना के ३१ कवित्तों में बागड़ धरा के रक्षक कर्मसिंह एवं सांवलदास की युद्धवीरता प्रदर्शित की गई है। जब महाराणा उदयसिंह ने अपना प्रधान भेजकर रावल आसकर्ण (डूंगरपुर) से दण्ड के अतिरिक्त घोड़े मांगे तब ये दोनों वीर क्रोधित हुए और युद्ध के लिए तत्पर हो गये। यह देखकर उदयसिंह ने बागड़ प्रदेश पर सेना भेजी। रावपदधारी वीरों से रावत पदधारी भिड़ गये। रक्त की नदियां बहीं। सांवलदास के काम आने पर करमसिंह ने अन्न-जल न लेने की प्रतिज्ञा कर तलवार उठाई और अपने योद्धाओं सहित शत्रुदल पर टूट पड़ा। अन्त में वह वीरगति को प्राप्त हुआ।
मेह ने इस युद्ध का बड़ा ही ओजस्वी वर्णन किया है। ललकार सुनने पर सांवलदास उछलकर शत्रुदल के सामने आ उपस्थित हुआ-
पोकाख संभळे, पूर पोरिस्स पहने।
मोड़ि मूंछ ऊपच्छ, नयण किय चोल वरने।।
भुजाडंड नीमजे, खग्ग धूणियै करग्गिहिं।
वधियो जाणि विसंन, कमल बलि दीधे पग्गिहिं।।
ऊटियो इसीपरि ऊससे, सीस उरस हिल्लाहयौ।
साथी स झूझले सांमलौ, अरिदल सांम्हौ आवियौ।।
कवि ने युद्धप्रवर कर्मसिंह के शस्त्राघातों से शत्रु-सेना के संहार का भी वर्णन किया है–
पटे घटे ऊपटे, नीक धजवट्ट निहट्टै।
अरघ धार वेहार, जाड़ फट्टै नीवट्टैं।।
रुळै रुण्ड बेरुंड, मूंड सूंडाहळ डंडह।
भांजि हड्ड भूडण्ड, खंड वेहंड प्रचंडह।।
धड़चडे घड़े घड़ वेहड़े, सुर जैकार समंचरै।
साचवां सेन सहि संघरै, करमसीह भारथ करै।।
सूजा कृत ‘छंद राव जैतसी रउ’ डिंगल साहित्य का एक खण्ड काव्य है क्योंकि इसमें नायक के जीवन से सम्बंधित एक पूर्ण घटना-राव जैतसी द्वारा मुगल सम्राट् बाबर के द्वितीय पुत्र कामरां की पराजय का क्रमबद्ध वर्णन किया गया है। खण्डकाव्यत्व को सिद्ध करने वाले अन्य तत्वों का भी अभाव नहीं। आरम्भ में जैतसी के पूर्वजों की प्रशंसा कर कवि अपने विषय पर आ जाता है, जिसका उद्घाटन नाटकीय ढंग से किया गया है। जब कामरां बीकानेर पर आक्रमण करता है तब राव जैतसी का आश्रित राठौड़ खेतसी वीरगति प्राप्त करता है। इसके पश्चात् कामरां के दूतों द्वारा सन्देश मिलने पर जैतसी जो उत्तर देता है, वह राजपूत के आत्म-सम्मान एवं वीरोचित स्वभाव का प्रतीक है। निदान जैतसी को संगठित होकर प्रत्याक्रमण करना पड़ता है और वह अपने शत्रु के पैर उखाड़ देता है। इस युद्ध का वर्णन पढ़कर लगता है, जैसे सूजा रणभूमि में खड़े जैतसी को शत्रु पर आक्रमण करने के लिए उत्साहित कर रहा हो। कामरां की सेना का वर्णन स्वाभाविक है। वातावरण की सृष्टि करने में कवि सफल हुआ है। युद्ध का वर्णन बड़ा ही सजीव एवं ओजस्वी है। यथा-
रउद्र दळ रहच्चइ जइत राउ, होहू कि मेह बाजइ हलाउ।
ताइयां उरे घइ कूत तेह, मारु अउ राउ मातउ कि मेह।।
धड़हड़इ ढ़ोल धूजइ धरत्ति, पड़ि याळगि वरसइ खेड़पत्ति।
बीका हर राजा ईद वग्गि, खाफरां सिरे खिविया खड़ग्गि।।
पतिसाह फउज फूटन्ति पाळि, व्रहमंड जइत गाजइ विचाळि।
अम्बहर जइत बरसइ अवार, धुङुकिया मोर मुहि खग्गधार।
कवि ने जैतसी को राम एवं कामरां को रावण की संज्ञा देकर युद्ध की भीषणता बढ़ा दी है। पृथ्वी का हिलना, शेषनाग का कांपना आदि तो साधारण बातें है-
रामण मुगुल्ल राउ जइत राम। संख रइ दइत हुयसी संग्राम।।
चढ़िया कटक्क त्रांबक्क चाल। वेढिसी जइत न करइ विमाळ।।
असराळां ताजी ऊमगेही। पन्नगां नेस धूजई पगेहि।।
नीसांण बाजि नरगा नफेरी। रउद्र गति ढऊंडि भरिहरि भेरि।।
मरु उमड़ि सेन हालियामसत्त। साइयर जाणि फाटा सपत्त।।
नळ वाजिय तुरियां वाजि नास। वाजिय पयाळ पाऐ ब्रहास।।
जइतसी राउ जंगमां जोळ। कांपियउ सेस कूरम कोळ।।
जड़ लग्गा फरी खड़ खड़ई जौड़। पट होडों वाजिय पूरि पौड़।।
इतिहास में जैसे हालां-झालां का युद्ध अद्वितीय है, वैसे ही चारण साहित्य में ईसरदास कृत ‘हालां-झालां रा कुंडळिया’ अपने ढंग की एक ही रचना है। इन अल्पसंख्यक कुंडळियों में वीर रस की जो पूर्ण प्रतिष्ठा हुई है, वह अन्यत्र दुष्प्राप्य है। यह रचना जितनी छोटी है, उतनी ही अपने आप में पूर्ण भी। इस ओजस्विनी वीर काव्य को पढ़कर हमारे सामने युद्ध का दृश्य उपस्थित हो जाता है और भुजायें फड़क उठती हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे टीले पर खड़े होकर कवि शब्दों के द्वारा युद्ध का ‘फोटो’ उतार रहा हो। कवि को युद्ध सम्बन्धी प्रौढ़ परिज्ञान है, अत: वह अपनी कवित्व-शक्ति के द्वारा एक ही बात को घुमा फिराकर चमत्कार पूर्ण ढंग से कहना जानता है। इससे नवीन एवं मौलिक भावों की व्यंजना हुई है। कहीं-कहीं भावाधिक्य के कारण उक्तियों ने सूक्तियों का रूप धारण कर लिया है। वर्णन सजीव, स्वाभाविक एवं प्रभावोत्पादक हैं। कथा में क्रमबद्धता का अभाव है फिर भी इसमें प्रबंधकार की भांति रस-स्थापन का पूर्ण संघटन दिखाई देता है। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह सर्वत्र विद्यमान है। गर्व, धृति, हर्ष, मति, असूया, आवेग एवं औत्सुक्य जैसे संचारियों का तो जमघट लगा हुआ है। आलम्बन की दृष्टि से शत्रु की उपस्थिति परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से सभी जगह है। उद्दीपन बिभावों का क्या कहना? कहीं वीरों का कोलाहल सुनाई दे रहा है तो कहीं सिन्धु राग हो रहा है, कहीं सिर पर ढोल बज रहे हैं तो कहीं अस्त्र-शस्त्रों के घात-प्रतिघात चल रहे हैं, कहीं प्रबल शत्रु की हुंकार ललकार रही है तो कहीं कायरों की भगदड मची हुई है। अनुभावों में अंगों का फड़कना, लाल-लाल आंखों से तरेरना एवं मूंछों का भौहों से बातें करना सहज ही में ध्यान आकर्षित करा लेते है। कहने का अभिप्राय यह कि युद्ध के परिपार्श्व से वातावरण का संयोग करा कर कवि ने रस-संयोजकों का पूरा-पूरा ध्यान रखा है। इस प्रकार रस-निष्पत्ति की दृष्टि से एक प्रबंधाभास स्फुट काव्य होते हुए भी ‘हालां झालां रा कुंडळिया’ वीर काव्य की एक सर्वथा मौलिक एवं परमोत्कृष्ट निधि है। यही कारण है कि बांकीदास एवं सूर्यमल्ल जैसे उद्भट परवर्ती चारण कवि भी इसके भावों का लोभ संवरण नहीं कर पाये हैं।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘हालां झालां रा कुंडळिया’ दो रण-बांकुरों के शूरातन चढ़ने की एक अपूर्व गौरव-गाथा है। फारस देश के सोहराब एवं रुस्तम अनजान में पिता-पुत्र के वेष में लड़ पड़े थे और राजस्थान में ये मामा-भानेज जानबूझ कर एक दूसरे का रक्तपान करने के लिए कटिबद्ध हो उठे। इस हृदय- द्रावक कथा का आरम्भ साधारण ढंग से वर्णनात्मक शैली में हुआ है-
हालां झालां होवसी, सीहां लत्थौ बत्थ।
घर पैलां अपणावसी, कै अपणी पर हत्थ।।
और अन्त में कवि एक दीर्घ निश्वास लेकर इस सिद्धान्त पर पहुँचा है-
मरदां मरणो हक्क है, ऊबरसी गल्लांह।
सा पुरसां रा जीवणा, थोड़ा ही भल्लांह।।
चारण कवियों ने वीरों एवं वीरांगनाओं के हृदयस्थ विभिन्न उदात्त भावों का विश्लेषण एवं काव्यमय मार्मिक चित्रण कर शेष जातियों को पराभूत कर दिया। यह स्मरणीय है कि प्रबंध की अपेक्षा मुक्तक काव्य ही इसके लिए अधिक उपयुक्त सिद्ध हुए। अत: अधिकांश कवियों में यही प्रवृति परिलक्षित होती है। उन्होंने वीरांगनाओं को नाना परिस्थितियों में डालकर जिस शौर्यपूर्ण जीवन की घटनाओं का संश्लिष्ट चित्रण किया, वैसा और किसी ने नहीं। इस दृष्टि से ईसरदास के दोहे-कुंडळिया चारण-जाति की प्रतिभा का आदर्श नमूना है। एक वीर क्षत्रिय अपने शूरवीर सामन्तों को मान, सत्कार तथा धन इसलिए देता है कि अवसर पड़ने पर वे अपने ठाकुर के काम आवें। स्वामिभक्ति का इससे सुन्दर उदाहरण और कहां मिलेगा? अपने ठाकुर का अन्न-जल ग्रहण कर वे उसके लिए अपने प्राणों को हथेली पर लिए हुए घूमते रहते हैं-
ले ठाकुर वित आपणो, देती रजपूतांह।
धड़ धरती पग पागड़े, अंत्रावळि ग्रीझांह।।
ग्रहे अंत्रावळि उड़ि चली ग्रीझणी।
त्रिहूं भुयण रही बात सोहड़ा तणी।।
वह तो उतावली गिद्धनी को धैर्य देते हुए यही कहता है-
ग्रीझणि कांइ उतावळी, हय पलाणतां धीर।
काय बेसाणूं सत्र सिर, काय आपणै सरीर।।
‘हालां झालां रा कुंडळिया’ की सर्वाधिक महत्ता वीर चरित्र के सूक्ष्म आंतरिक रहस्यों का उद्घाटन है। वीर राजपूतों के नाम के साथ ‘सिंह’ को जुड़ा देखकर कवि इन दोनों के कार्य-व्यापारों की तुलना करने लग जाता है। वह मन ही मन मुग्ध होकर वीर-भावनाओं का उस पर आरोपण करता है। यथार्थ में सिंह उसे कहना चाहिए जो अकेला लाखों की बराबरी करता हो, अपने सामने किसी दूसरे को न गिनता हो और चाहे छोटा ही क्यों न हो, पंजे के एक ही प्रहार से विशालकाय हाथी का हनन करता हो-
एकौ लाखां आंग मैं सीह कहीजै सोय।
सुरां जैथी रोड़ियै कळहळ तेथी होय।।
सादूळौ आपा समो बियौ न कोय गिणंत।
हाक विडाणी किम सहै घण गाजियै मरंत।।
केहरि मरूं कळाइयां रुहिरज रत्तड़ियांह।
हेकणि हाथळ गै हणै दंत दुहत्था ज्यांह।।
केहरि छोटो बहुत गुण मोडै गयंदां माण।
लोहड़ वडाई की करै नरां नखत परमाण।।
पर ऐसे सिंह के केस हाथ लगे भी तो कैसे? सर्प की मणि, बहादुरों के शरणागत, सती के स्तन और कृपण के धन के समान वे भी मरने पर ही हाथ लगते हैं-
केहरि केस भमंग-मणि सरणाई सुहड़ांह।
सती पयोहर कृपण धन पड़सी हाथ मुवांह।।
ऐसे सिंह को जन्म देने वाली सिंहनी का कर्तव्य तो और भी ऊंचा है। एक ऐसे समय में जब भारत को वीर संतान की आवश्यकता थी, राजस्थानी माता की सदैव यही अभिलाषा रही है कि उसकी कुक्षि से वीर-पुत्र ही नहीं, पुत्रियां भी उत्पन्न हों। वह सब कुछ सहने को तैयार है किन्तु कायर पुत्रों से स्तैन्य को लज्जित होते नहीं देख सकती। कवि की भी मंगलकामना है कि-
हे सिंहनी! एक सिंह को जन्म दे जो खुले मैदान में विहार करता है। दूध को भ्रष्ट करने वाले कायर तो सियारी बहुत पैदा करती है-
सीहणि हेकौ सीह जणि छापरि मंडै आळि।
दूध विटाळण कापुरस बौहळा जणै सियाळि।।
जसा की पत्नी के वचनों को सुनकर राजस्थान की क्षत्रिय कुलांगना के लोकोत्तर दिव्य प्रेम एवं उज्ज्वल पातिव्रत धर्म पर आश्चर्यचकित होकर रह जाना पड़ता है। अधिकांश छंद उसके मुंह से उच्छवसित होने के कारण इस रचना में नाटकीयता आ गई है। उसका जीवन-मरण पति के साथ-साथ लगा हुआ है। उसकी सिंदूर-रेखा तब मिटती है, जब वीरगति को प्राप्त न होकर उसका कंत युद्ध से भाग आता है। विजयी होकर आने में वह स्वागत करती है तो पराजित होने पर घर के द्वार बंद कर देती है। सखी-सहेलियों के आगे वह सारे हृदय का भेद खोल कर रख देती है। उसका सारा गार्हस्थ-जीवन वीर कर्म से ओतप्रोत है। कुछ उत्कृष्ट उदाहरण इस प्रकार हैं-
घोड़ा हींस न भल्लिया पिय नींदडी निवारि।
बैरी आया पावणां दळ-थंभ तूझ दुवारि।।
माल्हंतौं घरि आंगणै सखी सहेलौ ग्रामि।
जो जाणूं प्रिय माल्हणो जै मल्है संग्रामि।।
सखी अमीणा कंथ रौ अंग ढीलौ आचंत।
कड़ी ठहक्कै बगतरां नड़ी-नड़ी नाचंत।।
सखी अमीणा कंत रौ औ इक बड़ो सुभाव।
गळियारा ढीलो फिरै हाकां वागां राव।।
फेरा लेतै फिर अफिर फेरी घड अणफेर।
सीह तणी हरधवळ सुत गहमाती गहड़ेर।।
मैं परणंती परखियो सुरति पाक सनाह।
धड़ि लड़िसी गुड़िसी गयंद नीठि पड़ेसी नाह।।
सेल घमोड़ा किम सह्या किम सहिया गजदंत।
कठिण पयोहर लागतां कसमसतौ तू कंत।।
मतिवाळा घूमे नहीं नहं घायल बरड़ाय।
बाळि सखी ऊद्रंगडौ भड़ बापड़ा कहाय।।
मूंछां बाय फुरूकिया रसण झबूके दंत।
सूतौ सैलां धौ करै हूं बळिहारी कंत।
ग्रीझणि दीयै दुड़बड़ी समळी चंपे सीस।
पंख झपेटां पिउ सुवै हूं बळिहारि थईस।।
एक राज्याश्रित चारण कवि का युद्ध सम्बंधी प्रत्येक कार्य-व्यापार से रागात्मक स्नेह होता है। इस नाते वह अपने वीर रसावतार की रग-रग को जानता है। कहना अनावश्यक न होगा, ईसरदास वीरोचित कार्यों पर मुग्ध होकर उनसे शत प्रतिशत प्रभावित हुए हैं। यही कारण है कि वीररस की इन जीती-जागती दिव्य मूर्तियों की प्रत्येक भाव-भंगिमा पर वह मोहित हुआ है। काव्य के रूप में ये भाव-भंगिमायें सिंह-वाहिनी रणचण्डी के पावन देवालय में कवि का उपहार है। समय आने पर सहकारी मित्र रौद्र, वीभत्स और भयानक भी क्रमश: आ उपस्थित होते हैं-
काळो मंजीठी कियां नइणै नींदालुद्ध।
अंबर लागौ ऊठियौ विडवा बंस विसुद्ध।।
ग्रीझणियां रतनाळियां सिर बैठी सुहडांह।
चोंच न बावै डरपती करडी निजर भड़ांह।।
घुड़ला रुधिर झिकोळिया ढीला हुआ सनाह।
रावतियां मुख झांखणां सहीक मिळियो नाह।।
दुरसा कृत ‘विरुद छहत्तरी’ ७६ सोरठों की एक उत्कृष्ट मुक्तक रचना है जिसके नायक हैं-युद्धवीर महाराणा प्रताप! जब एक ओर अधिकांश नरेश अपनी गौरवशाली परम्परा का विसर्जन कर शाही खानदानों से गठबन्धन कर रहे थे, तब दूसरी ओर स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले राणा प्रताप दाने-दाने को मोहताज होने पर भी उनसे बारम्बार लोहा ले रहे थे। इन दोनों ही प्रवृत्तियों का कवि ने जो सच्चा, सजीव, हृदयस्पर्शी एवं उत्तेजना-पूर्ण वर्णन किया है, वह इस रचना में प्रतिबिम्बित हुआ है। यथा-
अकबर हिये उचाट, रात दिवस लागी रहै।
रजवट बट समराट, पाटप राण प्रताप सी।।
अकबरिये इक वार, दागऴ की सारी दुनी।
अणदागळ असवार, रहियो राण प्रताप सी।।
थिर नृप हिन्दुसथान, लातरगा मग लोभ लग।
माता भूमी मान, पूजै राण प्रताप सी।।
सेलां अणी सनान, धारा तीरथ में धसे।
देण धरम रणदान, पुरट सरीर प्रताप सी।।
चीत मरण रण चाय, अकबर आधीनी बिना।
पराधीन दुख पाय, पुनि जीवें न प्रताप सी।।
मन री मन रै मांहि, अकबर रै रहगी इकस।
नरवर करिये नांहि, पूरी राण प्रताप सी।।
अकबरियो हत आस, अंब षास झांषे अधम।
नाषै हिये निसास, पासन राण प्रताप सी।।
योद्धा के आत्म-सम्मान की उदात्त भावना इन सोरठों में व्यंजित हुई है-
रोकै अकबर राह, ले हिन्दू कूकर लखां।
वींभरतो वाराह, पाड़े घणा प्रताप सी।।
लंघण कर लंकाल, सादूळो भूखो सुवै।
कुळवट छोड़ कंकाल, पैंढ न देत प्रताप सी।।
घडी विपद सह वीर, वडी क्रीत खाटी वसु।
धरम धुरन्धर धीर, पोरस धिनो प्रताप सी।।
हल्दीघाटी के सदृश दताणी का य्रुद्ध (बाविसी कटी) भी बीते गौरव की याद दिलाता है। दुरसा ने इसकी भीषणता के लिए ‘राम-रावण युद्ध’ की संज्ञा दी है और इसका आखों देखा हाल झूलना छंद में चित्रित किया है, जो ‘राव सुरताण के झूलने’ के नाम से प्रसिद्ध है। इनमें प्रबन्ध का सा आभास मिलता है। कवि ने ‘कुल नारी धर कारणे सब दी जुद्ध च चबां, हुवा तुरकां हिन्दुवां किन्नर गंध्रवां’ कहकर युद्ध के कारणों का अच्छा परिचय दिया है। एक ओर शाही सेवक जगमाल है तो दूसरी ओर राव सुरताण ! दोनों के दल आमने-सामने खड़े हैं। सवारों के सामने सवार, पैदल के सामने पैदल एवं सरदारों के सामने सरदार। सभी के विपक्षी बराबरी के हैं। स्वर्ण-आभूषणों को त्याग कर जिरह-बख्तर, टोप, जमैया, कटारी, तलवार, धनुष, भाले, ढाल आदि अस्त्र- शस्त्रों से अलंकृत होकर दोनों ओर के वीर योद्धा समरांगण में कूद पड़े। सुरताण ने गरुड़ सी वेगवान घोड़ी पर पाखर डलवाया और सवारी की जिससे वह तारा-मण्डल में चन्द्र बनकर चमकने लगा। समरांगण की ओर प्रयाण करते ही उसके छत्र, चमर, ध्वजा, पताका आदि ने सेना में जगमगाहट उत्पन्न कर दी। रण-वाद्यों से अर्बुद गिरि गूंज उठा। पैदल सैनिकों की पद-रज एवं घोड़ों के खुर की धूलि से सूर्य ढक गया। कवि ने युद्ध के सर्वथा अनुकूल वातावरण खींचा है-
सोर धुआं रवि ढंकियो अरबद रिसाणुं, त्रई त्रई त्रबंक वाजिया त्रिपुर सणाणुं।
राणे मन विचार कर कममज केवाणुं, जो घर जावां जीवता ध्रग जीवन जाणुं।
हिंदु मुसलमान मिळ गिरवर घेराणुं, दस गुना दो लाख ने हुकम फरमाणुं।
दधि सातुं सत छोड़ियो गरमेर संकाणुं, गढ गिरवर घेरीयो इक राब तरकाणुं।।
ग्रुंज्यै सिंह अभंग भड ते जल सरताणुं, चढिया तेज खुमाण से क्रपाण झलाणुं।
कर पोरस एम बोलियो तेजल सरताणुं, आज न मेलुं जिवता कर बांण रंगाणुं।।
बोल्यो राणो माहाबल, सुंण तेजल सूरताण।
गढ गर वर धर करू, तोड़ुं तोरौ मान।।
इस चुनौती को स्वीकार कर सुरताण ससैन्य सिंह-विक्रम सा टूट पड़ा। दुरसा ने वीर रस के उपकरण संजोने में अपूर्व चातुर्य से काम लिया है। उसकी सूक्ष्म अन्तर्द्रष्टि प्रत्येक कार्य-व्यापार पर पड़ी है। जगमाल एवं सुरताण दोनों ही युद्धवीर हैं। स्थायी भाव के रूप में उत्साह सर्वत्र दिखाई देता है। गर्व, उग्रता एवं उद्वेग सबके मन में क्षण-क्षण संचरण कर रहे हैं। आलम्बन के रूप में प्रबल शत्रु ललकार रहा है। सीमान्तर्गत प्रवेश, पराक्रम एवं प्रौढ सैन्य-संचालन सुरताण को उद्दीप्त कर रहे हैं। चुनौती, शौर्य एवं आक्षेप अनुभाव बन कर रसोत्पत्ति में सहायता पहुंचाते हैं। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यह कवायद प्रशंसनीय है। दोनों सेनाओं की भिडन्त होते ही कवि ने युद्ध का जो ‘फोटो’ लिया है, वह कितना स्पष्ट है–
आडे घाये आवीया दोहू घट सूभटां, सुरग गया सुरमा कायर दह बटां।
पूर सोढ दळ पूरवर रणमाल सूभटां, भागी मील बहादरां हुवा खळ खटां।
झीक छड़ां फळ ऊजळां पटां खग झटां, जम डढा कर जीमणे वांमे कर चटां।
सोढ गहे खांडो हथां ऊभो गज थटां, जाण नदी जळ आवटे मध सायर तटां।
बेई समोवड वाजगड अण ख्याल मछे झड, तीर तड-तड कुंत जडकर माल अवझड।
ढीग कर कड उकरड पडसीस दड-दड, सोक सडवड बाज नड वहे रथ दडी अड।
ग्रीष झड़ पड पंख झड हुव पीर हड़वड़, भीच अण पड बाज धड होय रुंड रडवड।
रत गड-गड सोख मड प्रज डांण खडखड, पोहच त्रवड राठवड तो तेज समोधड।
होये वीजा डर ताक धर, घर बेध टलोहर, होय पंचाहर रायहर रख होये अवासर।
द्रवड पळछर हार हर वर होये अपछर, खेचर भूचर मसळे मील रात नीसीचर।
जोगण चलू अल ऊकले ओघाणे पलछर, जालग अंबर सातसर त्यां राज नरेसर।
सोढ नभे नरवीर वर गज फोज भयंकर, तुज असमरतो समर जस भेट नरेसर।।
दूदा कृत ‘कुंडळिया राठौड़ रायमल कल्ला रा’ वीर काव्य की अनूठी रचना है। इसमें महाराजा रायमल (मारवाड़) के पुत्र कल्याणदास की युद्धवीरता का वर्णन है। जब मुगल सम्राट ने रुष्ट होकर जोधपुर के महाराजा उदयसिंह को उसे मारने का आदेश दिया तब सिवाणे के दुर्ग पर काली घटायें छा गई। एक ओर राठौड़ आसकरण, देवीदास, किशोरदास, नरहरिदास मानसिंहोत, वैरीसाल पृथ्वीराजोत आदि थे तथा दूसरी ओर कल्याणदास। घमासान युद्ध हुआ, जिसमें राठौड़-सेना के कितने ही योद्धा मारे गये। स्वयं उदयसिंह के आने पर भी कल्ला ने उसका सामना किया और लड़ता रहा किन्तु अन्त में वह मारा गया। इस घटना से प्रभावित होकर दूदा ने ये कुंडलियां लिखी हैं जो आत्मा, रूप एवं शैली की दृष्टि से ईसरदास से मिलती-जुलती है। इसमें भी वीर रस का अच्छा परिपाक तैयार किया गया है। द्वार पर आई हुई सेना को देखकर कवि गहरी निद्रा में सोये हुए कल्याण को जगाता हुआ कहता है-
केहर सूतो नींद भर, ये वंकी सवियांण।
पाराधिये जागावियो, करसी जुध कल्यांण।।
जाग कर जंग कल्यांण जोधपुरा।
वापरी वीर हक चढे गढवां नरा।
आवही अपछरी ग्रीधणी ओघरी।
कळहळया सेहर भड़ जाग रे केहरी।।
कवि ने कल्ला की तुलना सिंह से इसलिये की है कि वह अकेला ही लाखों की बराबरी करता है तथा स्वयं अपने ही हाथों से शिकार करता है-
सीह न चीतो पोढियां पौहरो न कूं पडंत।
एकल्लो लाखां हणे जे लखणें जागंत।।
सीहां वडी आखड़ी पर मारचै न खाय।
श्री जी डांण न आंपण्डे भागो लार न जाय।।
ऐसा सिंह मरने पर ही दूसरे को दुर्ग में पैर रखने देता है, जीते जी नहीं और ऐसा करके वह अपने पूर्वजों की मर्यादा को उज्ज्वल बनाये रखता है–
राठवड़ भड़ वंकड़ो, रण पढवो कलियांण।
कमध कमळ कथ राखवा, सर साटे सवियांण।।
सर साटे सवियांण समय सलाखा हरा।
ऊजळां पूरवज तैं किया आपारा।
आजे रण मालदे राण राखी अचड़।
रण पौढिया कलियाणों राठवड़।।
महकरण कृत ‘शार्दूल परमार’ एक संक्षिप्त रचना है जिसमें ११२ छंद हैं। इसमें भी प्रबन्ध का सा आभास पाया जाता है किन्तु कवि की वृत्ति जितनी युद्ध-वर्णन में लीन हुई है, उतनी और किसी बात में नहीं। इसमें तीन युद्धवीरों की कथा है- पंचायण, मालदेव एवं शार्दूल। शार्दूल मालदेव का पुत्र था और मालदेव पंचायण का। ये तीनों ही मेवाड़ के पराक्रमी सरदार थे, जिन्होंने युद्ध में अपार शौर्य का प्रदर्शन किया था। पंचायण बहादुरशाह से चित्तौड़ के युद्ध में लड़ा था और मालदेव ने अकबर से टक्कर ली थी। शार्दूल ने मुसलमानों से नहीं, मसूदे (बदनौर) के राठौडों से युद्ध किया था। इसका कारण यह बताया गया है कि महाराणा से सम्बंध विच्छेद कर जब शार्दूल अकबर से जा मिला तब उसने इस बाहुबली को बदनौर का पट्टा दिया था किन्तु वहां हथियारों से लैस होकर जाने से राठौड़ों के हृदय में शंका उत्पन्न हो गई अत: उन्होंने मांडा नामक एक वीर के साथ संदेश भेजकर इसका निवारण करना चाहा। अकड़ कर बोलने से शार्दूल ने मांडा को मार दिया जिससे परमारों एवं राठौड़ों में संघर्ष छिड़ गया। इन तीनों ही युद्धों का कवि ने ओजस्वी वर्णन किया है, जो वीर रस की दृष्टि से सफल बन पड़ा है। पंचायण के समय युद्धभूमि की दशा कुछ और ही हो गई-
लेथां बेहड़ तेहड़ लोथी, बत्थालूथ हुआ गळबत्थी।
मुहंडे खांडि थियो जुध मल्लां, ढ़हि ढैचाळ पड़े ढिग ढल्लां।।
मालदेव का रणस्थल तो रक्तरंजित हो गया, गिरि-शिखर चित्तौड़ पर खून का कीचड़ मच गया। क्षत्रिय कुल ने खड़्ग द्वारा ऐसा खेल किया मानो होलिकोत्सव पर डंडों से खेल रहे हों-
रिण भूइँ रुधिर मै रच्चे, माथे भाखर कीच समच्चे।
भविस खत्र बंस हुआ भेळा, खेले जाणि डडेहड़ि खेळा।।
शार्दूल एवं राठौड़ वीरों के युद्ध में कवि ने रस-संयोजकों का विशेष ध्यान रखा है। चढ़ाई की सूचना पाकर वीर शार्दूल में ‘उत्साह’ का संचार हुआ जिससे मूंछें ऊपर उठ गई और नेत्रों में लाली छा गई-
सादूळो ऊसस्सियौ, सांभळिये वयणेह।
मूंछ ऊरधे वळ चढ़ी, रंग चढ़िया नयणेह।।
युद्ध आरम्भ होने पर सारा वातावरण ही बदल गया-
नीसाण नद्दं भेरि भद्दं पंच सद्दं पूरए,
धर धू बहक्के ढ़ोल ढ़क्के साद सबके मूरए।
हूका हवाई तुपक ताई वेध घाई वज्जए।
कमधां पमारां खग्ग धारां भड़ उधारां भज्जए।।
और अन्त में सदैव की भांति अप्सरायें, महादेव आदि भी आ उपस्थित हुए-
पळ चार पळ डळगिळे प्रध्धळ जुड़ि वियाळा जुत्थए,
अच्छग वर वरि सूर समहरि मंन्न रळियां जुत्थए।
वीरं वैताऴं रुद्र जाळं रुंड माळं रज्जए,
कमधां पमारां खग्ग धारां भड़ उधारां भज्जए।।
कल्याणदास कृत ‘राव रतन री वेलि’ की गणना खण्डकाव्य में की जायगी, क्योंकि इसमें उसके प्राय: सभी लक्षण विद्यमान हैं। वैसे तो ‘वेलि’ का अर्थ समुद्र-तट, साथी, हेतु, समय, प्रवाह, वल्लरी, जोड़ी एवं संतति से भी लिया जाता है किन्तु इसका वांछनीय प्रयोग वंश-कीर्त्ति अथवा मंगलदायी विवाह रूपी वल्लरी ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है। प्रस्तुत वेलि में ३ षटपदियां एवं १२१ छंद हैं। अत: लघु होते हुए भी यह वीर काव्य की उत्कृष्ट निधि है-चारण काव्य में यह इस ढंग की प्रथम रचना है। इसमें रावराजा रतनसिंह (बूंदी) के दो युद्धों का वर्णन है। एक, राजकुमार की अवस्था में-जब उन्होंने काशी के निकट चरनाद्रि स्थान पर शाही सूबेदार शरीफखां को परास्त किया था और दूसरा, जहांगीर की ओर से खीची धरा का युद्ध। सम्भव है, यह बुरहानपुर में विद्रोही खुर्रम को पकड़ने एवं विद्रोह को शान्त करने के लिए लड़ा गया हो। कल्याणदास ने नवीन प्रतीकों एवं उद्भावनाओं की सृष्टि कर युद्ध का बड़ा ही फड़कता हुआ वर्णन किया है। दुर्गा को पनिहारी एवं शिव को माली बना कर अनेक फबती हुई उपमायें खड़ी की हैं। बूंदी नगरी का वर्णन चित्ताकर्षक है। जैसे इसके वनों के क्रोधीले बब्बरसिंह इतिहास-प्रसिद्ध हैं, वैसे ही नर शार्दूल भी ! रतनसिंह की वीरता के लिए कवि का कथन है-
चरण ढषेति बूठौ रण चाचरि, इंद्र रतन सी सारी अछेह।
मीर सरीफ तणा दळ माथे, तां जग वात न जाअे तेह।।
कालेहणि हसति फौज बांदल करि, सर गोली छंट्टा जल श्रोण।
दूभर वार अभिनमौ दूदौ, द्रवियौ सार पार विणि द्रोण।।
वीजल मै वीज गरज मै वाजित्र मधा तेज नाखित्र मिळियो।
फरि फरि अफरि पछटतै फौजां, गोरी सेन घाइ गळियो।।
त्रुटे सिर कंध असंधा ताई, खिलै कबंध गडूथळ खांई।
अरि धड़ बंध ऊपरै ओवडि, रिणि जळ सारी बोलिया राई।।
धारूजळ धार बलकि सिरि धड़-धड़, वळ-वळ किरि वादळ में वीज।
ऊजळ छंट रयण ओवडियौ, भूतल खळ रहिया रत भीज।।
विदुर कृत ‘महाराणा जगतसिंह(प्रथम) की डूंगरपुर पर चढ़ाई’ केवल २५ छंदों की एक संक्षिप्त रचना है। इसमें महाराणा जगतसिंह (मेवाड़) एवं रावल पूंजा (डूंगरपुर) के युद्ध का वर्णन है। आरम्भ में युद्ध का कारण दिया है। महाराणा कर्णसिंह का स्वर्गवास होने पर जब जगतसिंह सिंहासनारूढ़ हुए तब उनके अधीनस्थ सब राजाओं एवं सामंतों ने आकर कुछ न कुछ भेंट दी, नहीं दी तो केवल एक रावल पूंजा ने। आते समय नगर के पास नक्कारे अलग बजवाये और सभा में बिना बोले ही सामने आकर बैठ गया फिर शीघ्र उठ कर चले जाने से वह द्वार पर रोक दिया गया। उसे बिना दंड दिये डूंगरपुर जाने की आज्ञा नहीं मिली। स्वाभिमानी पूंजा ने अपने स्वतंत्र प्रांत की घोषणा करते हुए कहला दिया- ‘यदि दंड लेने के लिए आतुर हों तो आप स्वयं डूंगरपुर पधारें।’ फिर क्या था? दोनों के बीच य्रुद्ध की तैयारियां होने लगीं, भीषण संघर्ष हुआ और अन्त में जगतसिंह की विजय हुई। विदुर कवि ने इस युद्ध का अच्छा वर्णन किया है। जगतसिंह की सेना के प्रयाण करते ही-
जळहळिया सातू समंद, धरती हलहल्ली।
ओद्रक्के मन आगरे, धड़की गढ दिल्ली।।
पाखर कंधां ऊपरे, घोड़ां परि घल्ली।
मुख तूली फूंदावर्यां, बिहूं दीठ बगल्ली।।
तोप चढाया सीस परि, जाणे ईस अवल्ली।
चुड़ि दीसे थांना चमर, कस राग रंगीली।।
पूंजा के वीर रक्षक सूर्यमल के युद्ध करने पर-
घोड़ा जोड़ा छडिया, नीसाण घुरायो।
पगे एकिके जिगन फल, मोटा प्रब पायो।।
सो वां माहे सात सूं, अेकेक सवायो।
करि जळहळता कूंत सूं, जाणे कुंता जायो।।
जाणक जख चख बद्दळे, धणि दरस दखायो।
सुजड़ो कटकां सांमहो, ओवै जूं आयो।।
वीर रस की दृष्टि से माला सांदू एक सफल कवि हैं। रायसिंह, राणाप्रताप एवं अकबर को लक्ष्य करके उन्होंने जो झूलणे लिखे हैं, वे बडे ही ओजस्वी हैं। यद्यपि तीनों रचनायें पृथक-पृथक रूप से लगभग २० पृष्ठों से अधिक की नहीं है तथापि कवि ने वीर रस का निर्वाह जिस प्रवाह के साथ किया है वह श्लाघनीय है। ‘झूलणा दीवांण प्रतापसिंघजी रा’ नामक रचना का प्रमुख विषय हल्दीघाटी का युद्ध है। साथ ही बप्पा रावल से लेकर राणा प्रताप तक के शौर्य-कृत्यों का संक्षिप्त वर्णन भी मिलता है। हल्दीघाटी का यह दृश्य देखिये-
हळदीघाटी ऊपरै, दळ वाजत्र वाई।
सूंडाहळ डंडाहळां, दम्मांम घुराई।
गजपट्टा सावण घटा, दांमण दरसाई।
काळी मेंवट कूंजरां, ऊपड़ी अछाई।
राण बखर अस पक्ख रै, हैजफ हलाई।
चांमंड डक्क संबाहिया, हक नारद वाई।
जोगण खफ्फर मंडिया, पळ रत्त अघाई।
नाळां गोळा पूरिया, की सोर सझाई।
सोर पलीता गड़ड़िया, हथनाळ हवाई।
धर पड़सादे परबतां, किर गैण गजाई।।
‘रुकमणी-हरण’ वेलि-परम्परा का एक महत्वपूर्ण खण्डकाव्य है जिसमें भक्ति एवं वीर रस का मणि-कांचन योग देखते ही बनता है। जहां अन्य कवियों का ध्यान शृंगार की ओर है, वहाँ सायां का वीर रस की ओर। प्राय: सभी वेलिकारों ने कृष्ण और रुकमणी के विवाह को लेकर शृंगार की नाना अंतर्दशाओं का वर्णन किया है। महाराज पृथ्वीराज का तो यहां तक कहना है-‘त्रीवरणण पहिलौ कीजै तिणि, गूंथियै जेणि सिंगार ग्रन्थ’, किन्तु सायां ने शृंगार-वर्णन में कोई रुचि नहीं दिखाई। यदि कवि चाहता तो वयःसंधि, नख-शिख वर्णन अथवा षट् ऋतु-वर्णन के बहाने उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा की झड़ी लगा देता किन्तु ऐसा करना उसे अभीष्ट न था। यही कारण है कि आलोच्य रचना शृंगार की सौरभ से शुष्क है। सायां का मुख्य उद्देश्य श्रीकृष्ण का कीर्ति-गान करते हुए उनकी युद्धवीरता का विराट्-प्रकाशन है। युद्ध के गायक एक चारण कवि से हम ऐसी अपेक्षा करें तो यह उसके गौरव के अनुकूल ही है। सायां स्वयं एक कुशल योद्धा थे, न जाने कितने युद्धों से उनका परिचय था, इस नाते उनकी वृत्ति युद्ध-वर्णन में जितनी लीन हुई उतनी अन्य किसी वेलिकार की नहीं। वस्तुत: ‘रुकमणी- हरण’ का सर्वाधिक आकर्षण सायां का युद्ध-वर्णन है। कृष्ण-शिशुपाल के युद्ध का प्रसंग हाथ लगते ही वह ओजस्विनी शैली में उसका सजीव वर्णन करने लग जाता है। युद्ध की अपनी एक पृथक रीति-नीति है, जिसे चारण से बढ़कर और कौन जान सकता है? कहना न होगा कि सायां में वीर काव्य के प्राय: समस्त लक्षण पाये जाते हैं। सायां के शब्द युद्धकालीन वातावरण उपस्थित करने में पूर्ण समर्थ हैं। यह वर्णन परम्परागत होते हुए भी अभिव्यक्ति में नवीन प्रतीत होता है। सेना ने प्रयाण किया, आकाश धूल से ऐसा भर गया कि रात्रि का बोध होने लगा–
चक्कवे चक्कवी पूर रयणी चिया।
गेहणी छोड भरथार दूरें गिया।।
मेंण पुड ऊपड़ी षेह षेहां मली।
आपरा बछांने नां उलषे अनली।।
मैगले चंचले मेंण वेह तेमथी।
सूर सूझे नकुं सूरनें सारथी।।
लावीओ सूरमे सेड सूधी लुळी।
कुंदीया टार छोटार वाली कळी।।
सेना के प्रयाण का ही नहीं, युद्ध के वाद्यों का, अस्त्र-शस्त्र का, योद्धाओं के सिंहनाद का, हाथी-घोड़ों का, कायरों की भगदड़ का, घायलों की कराह आदि का भी मर्मान्तक चित्रण कवि ने किया है। युद्ध की दुंदुभी के बजते ही–
वीर वेताल षेंगाल री षोहणी।
आवीया आंहचे चाड आप आपणी।
अंबका उलका काळका जष्षणी।
जंबुका मीनका काळका जोगणी।।
साकणी डाकणी डायणी समली।
कार भेंरू तणी हडमंत री कळकळी।।
दहू दळ दडवडे वंकडे दागीओ।
जाजरे गयण पाताळ पुड जागीओ।।
श्रीकृष्ण की प्रचण्ड भिड़न्त एवं शस्त्राघात से शत्रुओं के मस्तक गिरने लगे और योगनियों की बन आई-
मोषीया बांण संधाण मधुसूदने।
विसनर धड़हड्यौ जांण षडे वने।।
झाझा नांमी चकर सीस लागा झडण।
पतर भर जोगणी रगत लागी पियण।।
डहडहे डाक होय हाक होकारषण।
घाय घूमें घुले भडे भाजण घडण।।
विसन रा चक्र पडे सर वेरीयां।
दडदडे झाल पष कोरणे कोरीयां।।
उपर्युक्त कथात्मक वीरकाव्यों के साथ फुटकर रचनाओं की अवज्ञा नहीं की जा सकती। इनमें कहीं युद्ध की विभीषिका का चित्रण हैं तो कहीं वीर-हृदय का विश्लेषण। चारण कवि ने योद्धा की रग-रग को पहचाना है। युद्धकालीन सजधज, उत्साह, आतंक, हुंकार, ललकार, शस्त्राघात, विजय एवं वीरगति पर वह जितना मुग्ध हुआ है उतना अन्य भाव पर नहीं। कहीं-कहीं प्रतिपक्षी की भावनाओं का अंकन भी देखने को मिलता है।
युद्ध की विभीषिका को लक्ष्य करके लिखी गयी फुटकर रचनाओं के कुछ उदाहरण यहाँ दिए जा रहे हैं:-
१. वखता ने धीरतसिंह राठौड़ (मारवाड़) पर
दुहां दीजिये बड़ाळे राग रावतां तयारी दीसे,
तुरंगां पाखरां पड़े लीजिये त्रगल्ल।
मोटी पणो ऊघड़े भभक्के आग चखां माही,
क्यांही कां अभागी आज भीड़ियो कगल्ल।।
२. केशवदास ने अमरसिंह राठौड़ (नागौर) पर
भीम भयंकर नाद भेर नीसाण गरज्जै।
गुहिर सद्द गडगड़े गयण बारह घण गज्जै।।
खिवै कूंत अदभूत भड़ां वांका भुअठडै।
मुठाणी वादळि वळक वीज लता ब्रिह मंडै।।
३. देपां ने वजेसिंह देवड़ा (सिरोही) पर
गाजीया बाण निसाण सर गरगडे चाव बेबे कटक आवीया चापडे।
धूणियां सेलजी फेंकिया धड धडे देवडो ऊपरे ओरियो देवडे।
सार झडमंडियो उगता सूर रो, खरा खोटां तणो निसरे तत खरो।
हाक तो थाट अलियाट रो दाहरो, पवंग परताळ गो मांझिया पाधरां।
खींग भाजां पछे मांझियां खडखड़े, बजड धड उकरउ छाडीया बेहडे।
पसण सांगा जसा पगां आगल पडे, चालियो बजो बैकुंठ अणियां चढै।।
४. पूना ने राव सुरताण (सिरोही) पर
सोह वीजळी चलाव हाली हीमाळा हुंती, तड आणिया तळाव तारू ज्युं सूरो तवां।
जाणे बगला जाये दंतु सळ ऊळळ दीपे, महांरे फौजां माए सिंधुर दौसै सांमठा।
कर कांठ काळळी वच फौजां हाथी वे है, वा पलवट वाळी गीमर सुरे गुडाविया।।
५. महेशदास ने अमरसिंह देवड़ा (सिरोही) पर
अर तरुवर लंघ राह, धसते उण भण हणिया दाणे भमर।
नमता गया बकारे नासे, आया मद वहतो अमर।
उपाडीये चांचरे उरडे, मेवाडां सामां मकत।
देख पटे छलतो चांदावत, गा डागा खाये गसत।
सबळो गज सुणियो सिरोही, पीथय हरो गेजु पहाड़।
जुडे दसण खागां नह जुडिया, मुलिया अणलडिया मेवाड़।।
६. नरहरिदास ने उदयभानु (वांदरवाडा) पर
धूबके निहाव गोळां वाजित्रां अयास ध्रिबे,
धरा धूजि खुरां खां तगै नाग धाम।
नेत बांधै बेहड़ां घड़ां करावे मोर नाच,
स्याम रे अभंग नाथ डोहतै संग्राम।।
योद्धाओं के शस्त्राघात का वर्णन करना भी चारण कवियों का प्रिय विषय रहा है। इस दृष्टि से लिखी कुछ फुटकर रचनाओं के उदाहरण यहाँ दिए जा रहे हैं:
१. माल्हड़ ने राठौड़ शेखा (मारवाड़) पर
रिम घड् रिणि सांकडै रूधै, मातै जुधि तातै मछारि।
सेखा तणी कटारी समहरि, अफरिस ऊगी तणै अरि।।
सत्र साम्हा क्रम सिखर सीचतै, घड़ा थड़ा वध भेदे घाइ।
सलखा हरै तणी सोनहरी, नीलाणी पळब प्रघळ निमाइ।।
२. गांगा ने राठौड़ जेता (मारवाड़) पर
डाळा अनि सुहड़ घणू डोलांणा, सार लहरि वाजती साह।
जड़ वह लाज महा ध्रू जैता, निभेस थुड़ थरहरियो नाह।।
झांबे अवर नर कपे झांगळी, बाढ़ाळा खमि सके न घाउ।
धुवला सारिखो अचळ रहियो धुरि, रूंख वड़ौ रिणमल हरराउ।।
३. माला ने राव रायसिंह (मारवाड़) पर
धन-धन सुत चंद वाहतां धजवड़, हूवता अरि मौरे उर हूंत।
ऊकसता धसता ओल्हसता, कसता वणे विकसता कूंत।।
राउ वणाउ वदै घन रासा, मारि-मारि कहि करता मार।
छोह दुसर वड़ वड़ता छड़ता, पड़चड़ करत सेलड़ा पार।।
४. गोरधन ने राणा प्रताप (मेवाड़) पर
गयंद भान रे मुहर ऊभौ हुतौ दुरद गत, सिलह पोसां तणां जूथ साथै।
तद बही रूक अणचूक पातल तणी, मुगल बहलोलखां तणै माथै।।
तणै भ्रम ऊद असवार चेटक तणै, घणै मगरूर बहरार घटकी।
आचरै जोर मिरजा तणैं आछटी, भाचरै चाचरै दीज भटकी।।
सूरतन रीझतां भीजतां सैलगुर, पहां अन दीजतां कदम पाछै।
दांत चढ़तां जवन सीस पछटी दुजड़, तांत सावण ज्युहीं गई जाछै।।
वीर अवसाण केवाण उजवक वहे, राण हथवाह दुयराह रटियो।
कट झळम सीस वगतर बरंग अंग कटे, कटे पाषर सुरंग तुरंग कटियो।।
५. सूरायची ने राणा प्रताप (मेवाड़) पर
माथै मैंगळ षाग, तैं वाही परतापसी।
बांट किया वे भाग, गोटी साबू तांत गत।।
सांग ज सोवरणाह, तैं वाही परतापसी।
जो वादण करणांह, परैं प्रगट्टी कुंजरां।।
६.लूणकरण ने अमरसिंह राठौड़ (मारवाड़) पर
देखे तो अमर करामत अंत दिन, साह धड़क असुर मन सोह।
दुजड़ी एक वहंती दीसे, पड़ता दीसे घणा पोह।।
सुत गजबंध आदि तो सुजड़ी, मोहियो वसू सवे मुरमेक।
असपत इण अजमति इचरजियो, एक वेहे अरि पाड़े अनेक।।
७. जोगीदास ने अमरसिंह राठौड़ (मारवाड़) पर
मुगलां राव तणे जवाब मरोड़े, घर घातियां निबाबां घाव।
चालियो काळ जड़ाळ चुअंती, रूपा तणे कटहड़े राव।।
अड़िया सुजि पड़िया मुंह ऊँधे, सहज कोय देखे असुर सुर।
आखतो वेह कोय नह आयो, अमरा जमराव तणे उर।।
८. नाथा ने अमरसिंह राठौड़ (मारवाड़) पर
अणी धार बाबार करती धड़ा ओपवी, जाय लागी छरां तणी जमरा।
तांहरी दूसरी खमे नहं तताई, आकरी कटारी छाक अमरा।।
अरीयण भटी माली कळह ऊकळी, इसी ताती करग हूंत ऊठी।
पिये ऐराक सुजि वाक फाड़े पड़े, झाळ ऐराक प्रतमाळ जूठी।।
९. मुकुन्ददास ने अमरसिंह राठौड़ (मारवाड़) पर
पड़े खांन ऊंधाण मुंह ताण छूटां पटां, गाहवा दिली दरगाह-गुमरो।
आछटी कटारी साह मुंह आगळे, अरड़ियो राव जमराव अमरो।।
वरण प्रतमाळ चूगल पाड़े बघे, लेअते खान भुज आभ लागे।
डांखियो डाण जमराण वाळा देयै, अमर जमराण सुरताण आगे।।
इसी प्रकार युद्धों एवं योद्धाओं की सजधज, आतंक एवं हुंकार का सुन्दर चित्रण करती हुई फुटकर रचनाओं के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं:
१. पाता ने राठौड़ रतनसिंह (मेड़ता) पर
करि करम सजे साबळ काळासे, मंत्र खत्र दाख ते सू मन।
सायर अखैराज समभीयो, अगसति रतनै आचमन।।
जप जाप जुध चाळ जागवै, धरे तूळ साबळ हुल धार।
द्विज उत नमों तोहि दूदा तण, पेटि समाणौ समंद्र पमार।।
२. खरत ने राठौड़ दूदा (मेड़ता) पर
हाक मुगलां हुए भांजते हिन्दुवै, परड़े घड़ करड़े चड़े पूठी।
राणा रै आगळी वाहेता असमरां, झोकियो दूदड़े वार झूठी।।
धंकळा मंगळा करण मुरधर धणी, पमंग पुळियां दळां फेर पिछावणी।
तेवड़ा चौवड़ा माहि धड़ तुरकिया, उथला दूदड़े दीध आराणी।।
३. प्यारा ने राठौड़ कल्ला (मारवाड़) पर
अल्ला यूं मसल्लां मुखां पुक रे आराण ऊभा,
तेग झल्ला भल्ला-भल्ला धकाळे ता ठोड़।
वीरभद्र रूपी रूठो खळां पे कमंध बापो,
रूकां हल्ला होतां उठे खणंका राठोड़।।
कलंमां पछाड़े भारी उछाह राण रे कीधो,
ठणंका बजाड़े खागां गयंटां ठेलाण।
मलेछां ही कीटे जंगां धगारां आण रे मूछां,
ऊभो जंगां जीते कलो भाण रे अेनाण।।
रामा ने राठौड़ वीर चांदा (मेड़तिया) के यवन शत्रुओं की पत्नियों का मनोभाव चित्रित करते हुए लिखा है-
चौरंग चूरिया वर विढे चांद, भीड़े नवली भांति।
गोरणी काढै गात्र गोखै, रड़ै गळती राति।।
भांजियां वीरमदेव संभव, मछर चढि रिणि मीर।
कर मोड़ि बीबी त्रोड़ि कंकण, नयण नांखै नीर।।
भरतार चांदै लिया भिड़तै, धड़छि अरि खग धार।
सांमहै सामण तणी सेखां, हुरम त्रोडै हार।।
मारिया चांदै मीर मांझी, खेव चढि रण खंति।
सारग नयणी कंठ सारंग, सूवर संभा रंति।।
दल्ला ने राव रायसिंह (मारवाड़) एवं जेता ने शक्तावत मानसिंह (मेवाड़) की वीरगति का वर्णन किया है। दोनों कवियों का क्रमश: एक-एक उदाहरण यहाँ दिया जाता है-
-१-
रहियो साथ भड़ां रिण सूता, दाणव जेम वरां जमदूतां।
सलखहरौ साहण रिण सूतां, राव न मेल गयो रजपूतां।।
मुड़े नहीं जिण पीठ मंडोवर, कूंते चढियो माल कळोधर।
सिंघ संपेखे वांको समहर, परगै मेल न गो पाटोधर।।
-२-
खूरम खान दराव खीसिया, त्रहासिया त्रांबाट।
अवियाट दूजा बलू अचळा, थोभियो गज थाट।।
फिरै मुहड़ै गजां फौजां, धजां नेजां ढाहि।
भाण रौ गो गयण भेदे, मान हरीपुर माहि।।
४. भक्ति काव्य : भक्ति-आंदोलन के फलस्वरूप इस काल में अनेक चारण भक्त कवि हुए जिन्होंने सगुण धारा के द्वारा राम एवं कृष्ण भक्ति शाखाओं का सिंचन किया। इनमें ग्रंथ के रचयिता भी है और फुटकर भी। ग्रंथ-रचयिताओं में सर्व श्री ईसरदास, माधोदास एवं सायां के नाम श्रद्धापूर्वक लिये जा सकते हैं।
ईसरदास कृत ‘हरि-रस’ एक सर्वाधिक प्रौढ़ रचना है, जिसमें संतात्मा का व्यक्तित्व पूर्ण रूप से प्रतिबिम्बित हुआ है। केशवदास गाडण के शब्दों में- ‘संसार को पाप की दावाग्नि में झुलसता हुआ देखकर रोहड़िया चारण ईसरदास ने ‘हरि-रस’ रूपी समुद्र की रचना की।’ ठा० किशोरसिंह बार्हस्पत्य ने तुलनात्मक जांच करते हुए ठीक ही कहा है- ‘इस समय के निःसृत कवि के उद्गार बहुत अंश में प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले स्वामी रामतीर्थ के उद्गारों से मिलते-जुलते हैं। कहना न होगा कि कवि में आर्ष ग्रंथों के सिद्धान्तों का सुन्दर समन्वय हुआ है। उसके विचार से परमात्मा ने जीवात्मा को जन्म देकर पाप-पुण्य रक्षक के रूप में भेजे है। अत: भाग्य अथवा कर्मबंधन नाम की कोई वस्तु नहीं है। उपासना के क्षेत्र में वह ईश्वरीय पूजन को आवश्यक मानकर नाम-माहात्म्य पर विशेष बल देता है क्योंकि यही मुक्ति का साधन है। इसके लिए वेदों का अनुशीलन नितांत उपयोगी है। इस प्रकार कवि ने आत्मा-परमात्मा-विषयक अनेक रहस्यपूर्ण समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा की है।
‘हरिरस’ के अध्ययन से पता चलता है कि परब्रह्म की एकोपासना में ईसरदास का विशिष्ट स्थान है। ईश्वर जो चाहे सो रूप धारण करे, नाम परमेश्वर का तो रहेगा ही। उसका वर्णन करना अकथनीय है। उसका कुछ स्वरूप ऐसा है-
भ्रमाय विचारत रुद्र ब्रहम्म, न पावत तोराय पार निगम्म,
प्रमेसर तोराय पार पळोय, कुराण पुराण न जाणिय कोय।
अलाह, अथाह, अग्राह, अजीत, अमात अतात अजात अतीत,
अरत्त अपीत, असेत अनेस, आदेस आदेस, आदेस, आदेश।
नहि तोय क्रम नहि तोय काम, नहि तोय ध्रम नहि तोय धाम,
नहि तुज मूळ नहि तुज डाळ, नहि तुज पत्र नहि तुज पाळ।
नहि तुज मात नहि तुझ बाप, आपेज आपेज उपन्नोय आप,
मनेच्छाय बीज चडावण मूळ, कवेचर वेचर सूक्षम स्थूळ।।
इतना होते हुए भी भक्त के हृदय में भगवान और भगवान के हृदय में भक्त जिस प्रकार निवास करता है, उसके लिए कवि का यह कथन ध्यान देने योग्य है-
तिलां तेल पोहप फुलेल, उज्झेलत सायर।
अगनि काठ जोवन्न घट्ट, भगवट्ट सु कायर।।
ईख रस्स अहि फेण, अरथ आगम-उरठाहे।
पानां चंग मजीठ रंग, उछरंग विमाहे।।
खग नीर धीर अन्तर खरा, मद कुंजर वपु जिम मयण।
मन वसे तेम तूं मांहरे, मो मन वसियो महमहण।।
भक्ति की दृष्टि से ‘हरि-रस’ अपने आप में एक पूर्ण रचना है। शास्त्रीय दृष्टि से इसमें दया, करुणा, सहानुभूति, सहिष्णुता एवं सदाचार का अच्छा पंचामृत तैयार किया गया है। ईश्वर और उसके विभिन्न अवतार सर्वत्र विराजमान हैं। स्थायी भाव के रूप में प्रेम का प्रदर्शन बड़ा ही भव्य बन पड़ा है। बीच-बीच में औत्सुक्य, हर्ष, गर्व, निर्वेद, मति आदि संचारीगण उसे उद्दीप्त करते रहते हैं। उसके अलौकिक गुणों से रोमांचित अथवा गद्गद् हो जाना ही अनुभाव है। भगवान के आगे भक्त यदि सरल, सुबोध एवं स्पष्ट भाषा में बात न करे तो किसके सामने करेगा? यही कारण है कि वीर काव्य की अपेक्षा यहां आकर कवि सीधे-सादे शब्दों में उद्गार प्रकट करने लगता है। उसके भाव पाठकों के हृदय को सीधा स्पर्श करते हैं। आत्मा को सचेत करता हुआ कवि बिना किसी प्रयास के राम-नाम लेता रहता है–
राम जपंतो रे रुदा, आलम मकर अजाण।
जे तू गुण जाणे नहिं, पूछे वेद पुराण।।
ज्यां जागे त्यां राम जप, सूंता राम संभार।
ऊठत बैठत आतमा, चालंता चिचार।।
रहे जुंभ्यो राम रस, अनरस गणे अलप्प।
अेह महाध्रम आत्मा, अे तीरथ अे तत्प।।
नाम सु तीरथ नाम वृत, नाम सलंभो काम।
अेको अक्षर तत्व फळ, जीहां जपौ श्रीराम।।
नाम जपंता राजश्री, राम भणंता रिद्ध।
राम नाम संभारते, पामीजै नवनिद्ध।।
भाग्य बड़ा तो राम भज, बखत बड़ा कछु देह।
अकल बड़ी उपकार कर, देह धर्यां फळ अेह।।
राम भणो भण राम भण, अवरां राम भणाय।
जिण मुख राम न ऊचरै, जा मुख लोह जड़ाय।।
भक्ति का वर्गीकरण करके देखा जाय तो ईसरदास का काव्य दास्य भाव (सेवक-सेव्य) के अन्तर्गत आयेगा। इस प्रकार की भक्ति में विनय और शील की प्रधानता होती है-
विखमी वारलाज लिखमीवर, रखवण पण तूं थीज रह।
ईसर अरज सुणी झट ईस्वर, करण जिवायो जगत कह।।
ईसरदास ने ब्रह्म के कृष्ण रूप को भी अपना विषय बनाया है। इस विषय की रचनायें राम-काव्य से भी अधिक हैं। अत: कृष्ण-भक्त कवियों में कवि का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उसने बाल कृष्ण के लोकरंजनकारी रूप के साथ-साथ उनकें लोक-रक्षक रूप का भी संश्लिष्ट वर्णन किया है। इस सख्य भाव की भक्ति में कवि भगवान को अपना मित्र मानकर उनका अंतरंग बन जाता है। वह किसी प्रकार का कोई दुराव नहीं रखता। कवि ने भगवान को खरा उपालम्भपूर्ण वचन सुनाया है-
मुकंद मपेठ पड्डदाय मांय, ठावो मेय कीध सबे हव ठांय।
ठगाराय ठाकर हेकण धीम, पड़द्दोय नांख परोहव प्रीय।।
यदि रहस्यवाद का अर्थ भक्त कवि का ईश्वर के साथ साक्षात्कार है तो कहते ही बनता है, ईसरदास भी भारतीय पद्धति के अनुसार एक ऐसे अध्यात्म-क्षेत्र मैं विचरण करते हैं, जिसमें रहस्यमयी सत्ता को देखकर भी वे पहचान नहीं पाते-
सरिज्जय आप त्रिविध संसार। हुवो मझ आपज रम्मणहार।
नमो प्रति सूरज कोटि प्रकास। नमो बन मालिय लील विलास।।
नमो विगनान गनान विखंभ। थंभावण आभ धरा बिणथंभ।
दिठो मेय तूझ तणो दीदार। संसारय बाहर माहि संसार।।
जाण्यो हव ओझल छोड़ जिवन्न। पेखां तुव शाखायं डालायं पन्न।
लख्यो हवरूप पड़द्दी नलाह, मुरार परत्तख्र बाहर मांह।
गली गयो भ्रम घुटी गई गंठ, करो हरि बात लगाड़िय कंठ।।
चारणों ने इस बात की कल्पना बहुत पहले ही कर दी थी कि विश्व रूपी वृक्ष के दुख-सुख रूपी फल हैं। इस तथ्य का प्रत्यक्षीकरण ईसरदास ने एक मंदिर में मैना पालकर रावल जाम को कराया था। उस मैना की स्तुति में इनकी ‘सोलह साखी’ रचना उपलब्ध होती है। कवि कहता है-
विराट समान निपाविय ब्रख। दुहूं फळ जेण किया सुख दुख।
निपाविय रूप उभै नर नार। वधारिय जग्ग तणो विसतार।।
यह लक्ष्य करने की बात है कि चारण भक्त कवियों ने ईश्वर का अर्चन-पूजन मातेश्वरी के रूप में भी किया है। कवि जगदम्बा को आदि शक्ति (लोक माता) मानता है। चारण जाति में इस देवी के कई भक्त हुए हैं जिन्होंने परमात्मा पर मातृत्व की भावना का आरोपण करके उसके प्रति मार्मिक उद्गार प्रकट किये हैं-
देवी नाम रे रूप ब्रह्म उपाया, देवी ब्रह्म रे रूप मधु कीट जाया।
देवी मूल मंत्र रूप तूं बड्डबाला, देवी आपरी श्रब लीला विसाला।।
माधोदास कृत ‘राम रासो’ भक्ति का एक वृहद महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें १८०० छंद हैं। इसमें आदि से लेकर अन्त तक भगवान राम की कथा वर्णित हैं। अत: यह प्रबन्ध काव्य की कोटि में आता है। कवि ने इसमें मार्मिक स्थलों को भी पहचानने का प्रयत्न किया है। शरणागत-वत्सलता के भाव का इस पद में कितना सुन्दर रूप से निर्वाह हुआ है-
भरथ या सब रघुनाथ बड़ाई।
बधि कपि बालि सुग्रीय निवाजै कैकंधा ठकुराई।
मम बल हीण अलप साखा म्रिग निकुट सलितन कुदाई।।
राम-प्रताप स्यंत्र सौ जोजन उलंघत पलक न लाई।
बोह जळ ही पाथर तळ बूड़त तिल प्रमांण कण राई।।
लिखि श्रीराम-नाम गिर डारत दधि सिर जात तिराई।
इंद्र-जीत बहि कुंभ दसाणण सुरगह बंदि छिड़ाई।।
सकल संग्राम म्रितक कपि स्यन्या अभ्रित आणि जिवाई।
जाके चरण गहत सरणागति लंक बभीषणि पाई।।
माधौदास वदति जस महिमा हणूमान रघुराई।।
माधोदास का दूसरा ग्रंथ ‘गजमोष’ है जिसे कृष्ण भक्ति का उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है। इसमें कृष्ण के यौवनकाल का अच्छा वर्णन किया गया है। यशोदा के पुत्र-प्रेम, गोपियों के कृष्ण-प्रेम एवं कालिय-मर्दन नामक प्रसंगों का बड़ा ही हृदयग्राही चित्रण है। निम्न पंक्तियों में कवि श्री कृष्ण पर न्यौछावर होता हुआ भव-बंधन से मुक्त होने की प्रार्थना करता है-
ओणै समीप विमाण आणि सन्मुख बैसारे।
गा गजहरि गुण गावता बैकुंठ दुवारे।।
कुसुम वरसै सुर कुटंब जपता जैकारे।
प्रभु काटौ गज बंध परिक्रम बंध हमारे।।
दाखै माधवदास हरि मिहर निहारे।
तै वछता रमा विंद बंदा बळिहारे।।
महात्मा सायां कृत ‘नागदमण’ एवं ‘रुकमणी हरण’ दोनों ही कृष्ण-भक्ति-विषयक रचनायें हैं। ‘नागदमण’ एक वीर-वात्सल्य-रस-प्रधान लघु खण्डकाव्य है जिसमें कुल १२९ छंद हैं- १२४ भुजंगप्रयात, ४ दोहे एवं १ छप्पय। इसमें ‘गऊ-चारण’ एवं ‘कालियदमन’ नामक लोक-कल्याणकारी एवं लोक-रंजनकारी लीलाओं का सरस एवं मौलिक-वर्णन किया गया है। प्रातःकाल के समय ग्वाल-बाल को गायें और बछड़ों को एकत्रित करते देख यशोदा मैया मधुर गीत गाकर बालकृष्ण को जगाती है तथा कलेऊ कर वन जाने का अनुरोध करती है-
विहांणे नवे नाथ जागो वहेला, हुवा दौड़िवा धेन गोवाळ हेला।
जगाड़े जसोदा जदूनाथ जागो, महीमाट घूमे नवेनीत मांगो।।
माता के लिए पुत्र से बढ़कर और कोई रत्न नहीं। उसका सारा जीवन इसी की रक्षा में लगा रहता है। प्रतिपल वह इसका ध्यान रखती है। समय पर खिलाने, पिलाने एवं सुलाने में वह विशेष रुचि लेती है। सायां की यशोदा ऐसी ही है-
जिमाड़े जिके भावता भोग जाणी, परूसे जसोदा जमो चक्रपाणी।
दही-दुद्ध री वासना सुक्खदाई, मठो घोळिए घृत्त-खोहां मिलाई।
षळे हाथ सूं मात आये विरोळे, घृतं पीजिये जाण नौनीत घोळे।।
कृष्ण और उनके सखा अपनी-अपनी गायों को लेकर बन में चराने के लिए जाते हैं। रूप-राशि कृष्ण को देखने के लिए गोपियां हवेलियों पर चढ़ती है। एक ओर से नंद की तथा दूसरी ओर से गांव की गायों का जमघट बाहर लग जाता है। यमुना-तट जाती हुई गायें ऐसी प्रतीत’ होती हैं मानों भागीरथी में उसकी सहायक नदियां मिलकर समुद्र की ओर प्रवाहित होती हों। भगवान का गौ-चारण लीला का यह हृदयग्राही एवं संश्लिष्ट वर्णन सुखदायक है-
अही राणियां अव्वळा झूळ आवे, भगव्वान ने धेन गोपी भळावे।
इको बेवटे-चोवटे आप ऊभी, संभाळी लियो शाम मोरी सुरम्भी।।
हुई नन्द री धेन गोवाळ हेळा, मिळे वाळवा जांणि श्री गंग भेळा।
परनेर नीसार आये प्रहट्टे, त्रिवेणी उलट्टीय सांमद्र तट्टे।।
कृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं एवं विनोदशील नटखट प्रकृति का यह वर्णन दृष्टव्य है
वडू लार कान्हो चढ़े व्रच्छ डाळी, भरी झंप काळीद्रहे नाग भाळी।
काळी नाग सूं कान्ह संभाळ केवा, लधी जांण त्रट्यो दधी मच्छ लेवा।।
मंड्यो दूसरो खेल खेलंत माथे, हरी ऊतरी बात गोवाळ हाथे।
ज नाथ काळी समी वाथ जोड़े, धणी भोम चाली चढ़ी बात घोड़े।।
अही नाथियो पोयणी नाळ आणे, असव्वार आपें हुओ अप्पलांणे।
असव्वार काळी तणो कांन आयो, विवीधं विधी व्रज्ज नारी वधायो।।
बागे झालियो व्रज्जसेरी विचाळे, वळे फेरियो आंगणे नंद वाळे।
झरी द्रोह चिन्ता पडी कंस जपे, काळो कूटियो टार केकांण कंपे।।
भावुक कवि सायां ने कृष्ण और नागपुत्री के बीच में अत्यंत रोचक संवाद कराया है जो वात्सल्य रस से ओतप्रोत है। इसमें वीर रस का अनूठा समन्वय हुआ है। नागपुत्री कृष्ण को नाग से बिना लड़े जाने के लिए समझा रही है, उसके वचन मातृ-स्नेह से परिपूर्ण हैं-
जपै नागपुत्री खत्री रूप जोती, महाभद्र जाती तणौ कांन मोती।
इसी भामणी कोण जे कूख जायो, हिंडोरे घलायो घरे हुल्लरायो।
हुई देव में रूप देखी हिरन्ये, जपे जागसी नाग राखो जतन्ये।।
ओरो दाखवो वाळ होसी अबारो, पगल्ले-पगल्ले महल्ले पधारो।
चमंके-चमंके सबे चित्तचेती, लळे पाय लागी वळे लूंण लेती।।
सुण्यो रूप वेदे सु पेख्यो सबेही, बड़ा भागरी नागरी नारि वेही।
महामोद आणंद देखे मुरक्की, भुलाडी वळी नाथ नारंबी भुरक्की।।
कंठा हूंत आयो अठे काज केहा, ग्रहां भूलियो बापरा साप गेहा।
कहो कोर चम्पे रही आव कावे, असो बाळ देखी दया मोय आवे।।
पर कृष्ण क्यों मानने लगे? उनके मुंह-तोड़ उत्तर में वात्सल्य, वीर एवं अद्भुत तीनों रसों का समावेश हुआ है-
भणा नागपुत्री जिता मुज भीरे। तितां मांहि के को नहीं नाग तीरे।।
बुलाडो जगाडो जुओ जुध्ध बाथे। हार्या जीतीआ वात करतार हाथे।।
अमारे भगत्तां रदे एह ओरा। मंडया आभ घेरे धरा वास मोरा।।
मोरे नंदबावो जशोदा सु माइ। भलो नाम छे हेक बलभद्र भाइ।।
मोरे कंस मामो कहे मुझ मुळे। कियो वास नेडो जमुना झकुळे।।
मनासुं न मुंके घडी हेक मामो। सजे सुर उगा समो जुध्ध सामो।।
मामे मोकली मारवा काज मासी। इ ता दिहरो हुं हुतो अप्पवासी।।
चवे भ्रात माता वने धेन चारो। वहे आज ते मांगणी मुज वारो।।
सुरभ्भी तणी नागणी उंच सेवा। गणे अध ओधां खरी खेह ग्रेवा।।
बधा देश दिजे द्विजां वेद बोले। नहीं नागणी तेह गौदान तोले।।
इसके पश्चात कवि ने माता यशोदा के विलाप एवं कालिय-दमन से उत्पन्न ब्रजवासियों के ‘हर्ष’ का वर्णन किया है। कृष्ण का यह नख-शिख-वर्णन तो चित्त चुरा ही लेता है-
भरे मांग सिंदुर मारग्ग भाळे। वहे सामलो व्रज्ज शेरी विचाळे।।
बंधी चोळमा रंग रंगी बिरंगी। सुहे उपरां पाघ खांगी सुचंगी।।
तवे नागणी चंद्रीका मोर तेही। उपे चोप पाव्वस घट्टा अछेही।।
पणा सांभळो गात्र पीरा पिछोरा। कणां उपरां नंग ओपे कंदोरा।।
पगे घुघरी शेळ आणंद पुंजा। गले हार मोती रुले माल गुंजा।।
बिचे दुलडी हेक चोकी बिराजे। जिसो राजवी केहरी नख्ख राजे।।
बिहु बंध बाजु तणा नंग बांहे। मणी नंग हीरा तणी जयोत माथे।।
कहना न होगा कि सायां ने सूर-तुलसी के सदृश फबते हुए नवीन उपमानों का प्रयोग किया है। राजस्थानी कवि के हाथ में पड़कर कृष्ण भी यहाँ की वेशभूषा में ‘दड़ी दोटा’ का खेल खेलते हैं। इन लीलाओं के रहते हुए भी लोक-रक्षक एवं अलौकिक भाव का अभाव नहीं है-
अवनी भार उतारवा, जायो एण जुगत्त। नाथ विहांणे नित नवे, नवे विहांणे नत्त।
प्रभू घणां चा पाड़िया, दैत्य वडां चा दत। कै पालाणे पोढियां, कै पयपांन करंत।
कीणे न दीठो कानवो, सुण्यो न लीला संध। आप बंधाणो ऊखळे, वीजा छोडण बंध।
‘रुकमणी-हरण’ ‘नाग-दमण’ के सदृश पुष्ट एवं प्रांजल रचना नहीं, किन्तु इसमें भी श्रीकृष्ण की भक्ति का निर्मल रूप प्रकट हुआ है। श्रीकृष्ण पूर्णब्रह्म परमेश्वर हैं, विष्णु के अवतार हैं तथा दुष्टों का दलन कर पृथ्वी का भार उतारने वाले हैं, ऐसा मानकर कवि ने सागर-मंथन एवं लक्ष्मी-वरण की ओर संकेत करते हुए राम-कृष्ण की एकता भी स्थापित की है। इसी प्रकार कवि ने रुकमणी को लक्ष्मी एव सीता के रूप में देखकर अपनी भक्ति-भावना प्रदर्शित की है। साथ ही कवि ने उन अनेक लीलाओं के प्रति अनुराग प्रकट किया है जो कृष्ण-भक्तों का प्रिय विषय रहा है। इनमें पूतना-वध, चीर-हरण, दान-लीला, ओंखल-बन्धन, नाग-दमन एवं गोवर्द्धन-धारण को लिया जा सकता है। ग्रंथ का आदि-अंत एवं कृष्ण-चरित्र-निरूपण सायां की भक्ति-भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण आरम्भ का यह मंगलाचरण देखिये-
भल कव वहण भले गुण भरया, उकत विसेषें पार उतरया।
काल ई वाळा जैणें करया, त्राये आप आपरे तरया।।
सबद-जयाज वहण टंकसाळी, तर तर सकव गया तण ताळी।
महण संसार तरण वनमाळी, जोडिस हूं एक तुंबा-जाळी।।
दरीआ ऊपर पत्थर डारे, ऊपर पत्थर सेन उतारे।
समर क्रसन तणो मत सारे, तुंबे बेठां केम न तारे।।
ब्रज में मूसलाधार वृष्टि होने लगी तब इन्द्र का मान-भंजन करने वाले गोवर्धनधारी का यह रूप देखिये-
सुष थयो पुत्र अनकोट संभारीओ।
एवडो इंद्र यो मांण ऊतारीओ।।
एकण हाथ परबत उघारीओ।
बृज उवारीओ केम वीसारीओ।।
और अन्त में, कथा का सारांश देते हुए कवि एक बार पुन: परमेश्वर का स्मरण करता है।-
कसन परण रुषमणी मांण रुकमयिया माटै।
जुरासिंध सिसपाल पोहोव परहंस भर पाटै।।
कर उद्धार भीमक वार जादव वरणाई।
देष-देष वसदेव भलो कहै बलभद्र भाई।।
आरती करै जसोदा अनत, पग मंडे पधराविया।
कर जोड़ै बिनती करै, सायै आयै साइया।।
करण घोर आधार अरक दीपग उजियाळो।
नमो बड़ा वणवीर मयंक हू नषत्रा मीळो।।
अकवीस व्रहैम………….. ढाढ गर रषणा।
पधर अंबर आकास थतास थलावण थंभणा।।
पै कियो पेष परमेसवर, ऊपर सायैर अन्नड़ा।
सोइलो घणो साइड़ो भणै, तोनै मूझ तारत्तड़ा।।
फुटकर भक्त कवियों में कहीं राम का माहात्म्य है तो कहीं कृष्ण का। कहीं उनके नाम-स्मरण पर बल दिया गया है तो कहीं लोककल्याणकारी कार्यो पर। इनके अतिरिक्त शिव की उपासना भी देखने को मिलती है। इस दृष्टि से आशानंद, करमसी (मेवाड़), जयमल, अलूनाथ, जेतो, नृसिंहदास, शक्तिदान प्रभृति कवियों के स्फुट छंद उल्लेखनीय हैं।
आशानन्द के गीत प्रभावोत्पादक है। उनमें कृष्ण के प्रति तन्मयता दृष्टिगोचर होती है-
मोरो मन माधवे लागौ, मदसूदने मुरारे,
नारायणे रामे नरसिंघे, दामोदरे दातारे।
सतीभामा रामा हित संगे, सामी रुद्र वंभे,
वर सीतवे रुकमणी, विंदे लिखमी वालंभे।
धरणी-धरे धरा दढ धारे, हरे पदम चक्र हाथे,
संक रखणे साईये सेखे, जळ-साईये जगनाथे।
लंका लिय सा नवे ग्रह छोडण, नाथण अहि वह नामे,
रामण तणा दसै सिर छेदे, श्रीरंगे श्रीरामे।
केसवे कृसने कल्याणे, कंस मारणे क्रपाले,
वेय ऊधारण वामणे विसने, विठूले वनमाले।
सामल ब्रमे पीत सिणगारे, अहि नाथणे अपारे,
‘आसा’ सामि ब्रलाक्रम अदभुत, अंबर धर आधारे।।
करमसी (मेवाड़) शिव के भक्त थे। निम्न गीत में अपने आराध्य देव के चमत्कार का वर्णन है-
ईखे अंगि एह करामत ईसर, धर कोतक त्रहूंलोक थये।
मांडे आप रहण मेदाने, दाने तो गढ़ लंक दिये।
देखे रूप भुयण त्रिहुं दानी, प्रभ ये तोरो अगम प्रताप।
आपे गज हैमर ओळगुआं, ऊपर चडै ओढिये आप।
अहि मानव सुर ईख कहै इम, भामी ईस तुहारा भेख।
सोब्रन माळ देषे सेवगुयां, आप सजे गळमाळ अलेख।
मुर मण्डल हेरांनि हुआ महि, हर तूं केम करामत हाक।
अमरत खीर ब्रवे ओळगुयां, आप अहार धतूरो आक।
एकणि रहण अहो निस ऊगां, दाखव जीह सुजस ते देव।
पत्र ले आप कमळि, ले परठे, सिर छत्र धरं करतां सेव।।
जयमल रामाश्रयी शाखा के कवि हैं। इस गीत में मन्दोदरी रावण से कहती है-
लंका लीजसी जळ सागर लोपे, हरि लग करतो हांसा।
भाळे कूंभकरण रा भाई, तबूआं तणा तमासा।
लंका घेरि चहूं दिसि लाया, सारंगधर समियांणा।
ऊवारिस्ये कुणेनु ईसर, रांणि प्रभणे राणा।
कहे कलत्र सिव प्राणि काचड़ा, करतो केसव केरा।।
दुरमति छांडि असुरपति देखे, दसरथ सुत रा डेरा।
संक रखे म कहे त्रिय संके, लंकापति किणि लेखे।
आंवर सो अडियां अहंकारी, नव चोकियां न देखे।।
अलूनाथ के स्फुट छप्पय ज्ञान एवं उपदेश से भरे पड़े हैं। वे ईसरदास के सदृश सीधी-सादी भाषा में ही मन का तत्व पाठकों तक पहुंचाते हैं—
सोही वाण सुवाण, भजै हरि नाम निरन्तर।
सोही मांण सुमांण, भरै भलपण हुंत जाठर।
सोही लाज सुलाज, त्रिया पर मेळय तज्जै।
सोही सूर सामंत, भिड़ै आराण नहं भज्जै।
दिल धरम सोही पाळै दया, न्याव सोही पछि न करै।
हरिनाम जीह जपती रहै, अलू सपूत कुळ ऊधरै।।
जेतो कृष्ण को वंदना करता हुआ उनके नाम-स्मरण को जीवनाधार मानता है-
माधा मात विण बाल वरसाळ विणि मेदनी, जगा बंब-जोत विण भुइण जेहो।
कंठ विण गेव बैकुण्ठ विण सुर-कमल, ताहरे ध्यान विण ग्य न तेहो।
वास विण पहर अभियास विण वारता, भुजा काळस विणा करण भाराथ।
सास बिन देह वीसास विण संगाथी नांम विण जनम जगि जिसो जगनाथ।
त्रिय विना ग्रेह जोवन विना तरुण पण, जस विना वार विसतार जेहो।
निस विना चंद चंदन विना नाग रिख, तो विना किसन संसार तेहो।
नमो अवतार खालिक खलक नमीवण, मुलक भांजे (हेक) पलक मांही।
जेतियो नाम जगदीस थारो जपे, नाम विण राम गति हुअे नाही।।
नृसिंहदास ने कृष्ण की लोक-रक्षा पर यह गीत लिखा है-
करियो अत कौप संतरे कारण, मारण देंत बड़े मां-बाप।
अत आतुर प्रहलाद उबारण, अवनी-भार उतारण आप।
फाड़े खंब कीध चहुं फाड़ां, खिण में रुधिर चलावे खाळ।
हुय नरसिंघ हिरणकुश हणियो, वणियो रूप बडै विसराळ।
चखां चोळ रग रसण चाळवते, पाड़े असुर चीरियो पेट।
करतां अरज जेज नंह कीधी, हरि दीयो खळ हाथळ हेट।
जय-जय सबद हुवो जग जाहर, पुषव बरस धुंधव अणपार।
देव विमाण बैठ छिब देखे, आप धिनो नरहर अवतार।।
शक्तिदान ने इस गीत में संत प्रहलाद की रक्षा एवं हिरण्यकशिपु के संहार का वर्णन किया है-
रघू पाळतो संत खळ काज वैराट तो, उरड़ खंभ फाटतो धके अरडींग।
चख कियां चोळ मुख धजर नख चाटतो, नभे ब्रद थाटतो उभे नरसिंग।
सचंतो भगत पहळाद हरी साद सुण, अचंतो असुर अरि धड़ाक अग्राज।
डींगळा हरणकुस तणा करी डचंतो, उचंतो विड़द हद विहद म्रगराज।
नाग फुण कमठ पीठ पै धका नम वे, दिखावे सुरां असुरां कई दाव।
आच रा पंजा साचरा बहावे, रहावे बिने पण दूछरां राव।
सा लुळे पवजा गिळे गजां सुरंग, रुले वाखर तर असूर रीड़े।
खळे छछटा घटा ऊछट बारखित, हार अंत्रावलां गळे हीड़े।
ओझले लाछ ब्रहमाण हर अमर अत, पड दयत उतोले करे पीठो।
गाळतो सत्रहरां घालतो गल ग्रजे, दूठ लंकाळ विकराळ दीठो।
सुधा धर रमा अज ईसे सूर स थापे सुथापे सुजस त्रहंपुर सवायो।
मार गज बड़ो अवतार पेढीमणो, असंत उथाप संत थाप आयो।।
५. श्रंगारिक काव्य:- आलोच्य काल मे श्रंगार की कोई स्वतंत्र रचना उपलब्ध नहीं होती। हां, इसका अंकुर आशानन्द के उन कवित्तों में अवश्य प्रकट हुआ, जो उन्होंने उमादे के सती होने पर लिखे हैं। यद्यपि वर्णन प्रसंगानुकूल नहीं तथापि कवि की श्रंगार-भावना का द्योतक है-
भंवर ब्रूह पर जाळ, जाल जघा रंभातर।
कनक पयोधर कुम्भ, राख कीया चढ़ि जमहर।
चंपकळी निरमळी, भर वे झाला दावानळ।
बांहा नाळ मुणाळ, कंठ होमे सानू जळ।
बिधु बदन केस कोमळ तकौ, वहवे जेम सहस्स फण।
बाळिया सती उमां बिनै, अधर बिंब दाड़म दसण।।
और भी,
होम हंसगत चाल, होम सारंगह लोचण।
सुन्दर होम सरीर, होम सोब्रन्न महाव्रन।
कंठ होम कोयल्ल, गात होमे चल ग्रैंवर।
ब्रह होम बिहुं भंवर, चीर होमे पाटंबर।
बत्तीस लछण गुण रूप बहु, त्यारां अंतर दाख तण।
होमतां त्रिहु भेळा हुवा, सील माण लज्जा सघण।।
६. राष्ट्रीय काव्य:- दुरसा राष्ट्रीय कवि था अथवा नहीं, यह एक विवादास्पद प्रश्न है। संदेह नहीं कि उसके काव्य में राष्ट्र-प्रेम का अस्फुट स्वर सुनाई देता है। स्वतन्त्रता-संग्राम के जागरूक प्रहरी राणा प्रताप को लक्ष्य करके उनकी अडिगता की जो दुहाई दी गई है, उसका अभिप्राय यही दिखाई देता है कि अन्य नरेश इस दिशा में उनका साथ दें। कहना न होगा कि कवि की लोकप्रियता के मूल में राष्ट्र-प्रेम की यही भावना अन्तर्निहित है। इस प्रकार मुगल शासन-काल में प्रताप के बहाने अकबर की नीति का विरोध कर कवि ने उसे एक कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। यथा-
अकबर गरब न आण, हिन्दू सह चाकर हुआ।
दीठो कोई दीवाण, लटका करतो कटहड़े।।
अकबर समंद अथाह, तिहं डूबा हिन्दू तुरक।
मेवाडो तिण मांह, पोयण फूल प्रतापसी।।
इस संदर्भ में डॉ० मेनारिया का यह कथन ध्यान देने योग्य है-कहने को तो इनकी ‘विरुद छहत्तरी’ में महाराणा प्रताप के यश का वर्णन है, परन्तु ध्यानपूर्वक देखने से उसके अंतराल में हमें मुगल शासन के विरुद्ध होने वाली क्रान्ति की मूलभूत उस गुप्त और सूक्ष्म चिनगारी का आभास मिलता है जो शनैः शनैः बढ़ती हुई औरंगजेब के समय में अति विकराल अग्नि-ज्वाला का रूप धारण कर लेती है और अन्त में विशाल मुगल साम्राज्य को भस्मीभूत कर उसे धूल में मिला देती है।
दुरसा के सदृश खीमराज ने भी राव सुरताण की स्वाधीनता के विषय में लिखा है-
अवर नृप पतसाह अगे, होई भ्रत जोड़े हाथ।
नाथ उदेपुर ना नम्यो, नम्यो न अरबुद नाथ।।
७. शोक काव्य (मरसिया):- चारण कवियों ने राजा-महाराजाओं, जागीरदारों एवं अपने प्रिय बंधुओं के इस लोक से विदा होने पर शोक-गीत भी लिखे हैं जो करुण रस से प्लावित हैं। इस दृष्टि से आशानन्द, करमसी (सिरोही), दुरसा एवं लक्खा के लिखे हुए स्फुट छंद सफल बन पड़े हैं। अपने परम मिश्र बाघा कोटड़िया की मृत्यु पर लिखे हुए आशानन्द के शोकपूर्ण दोहे-सोरठे इतने मार्मिक हैं कि जिन्हें सुनकर हृदय द्रवित हो जाता है-
ठोड़-ठोड़ पग दौड़, करस्या पेट ज कारणै।
रात दिवस राठौड़, बीसरस्या नह बाघजी।।
की कह की कह की करों, केहा करों बखाण।
थारो म्हारो नह कियो, हे बाघा अहनाण।।
बाघा आव वळेह, घर कौटड़े तूं धणी।
जासी फूल झडेह, वास न जासी बाघजी।।
हाटा में हड़ताल, भटीयां मद सुधो भयौ।
कूके घणा कलाळ, विकरौ भागौ बाघजी।।
चाल मना रे कोटडै, पग दे पावडियांह।
बाघा सूं वातां करां, गळ दे बाहड़ियांह।।
बाघा के वियोग में आशानंद के लिए चार पहर तक का मौन धारण करना भी कष्ट-साध्य हो गया। मालदेव ने लाख-पसाव का प्रलोभन भी दिया किन्तु वह नहीं माना। इस विषय के ये चार दोहे विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं–
बाघा आव वळेह, घर कोटडै तूं धणी।
जासी फूल झडेह, वास न जासी बाघड़ा।।
क्यूं कुरळायो कूकड़ा, गळती मांझल जोग।
विहंग थनेई वींटियो, बाघा तणो विजोग।।
बाघाजी बिन कोटड़ौ, लागे मो अहड़ोह।
जानी घरै सिधावियां, जांणै मांडवड़ोह।।
चींघण चाल वियांह, खह मांही खंखेरियां।
रांणा! राख थयांह बीसरसां जद बाघ ने।।
करमसी (सिरोही) ने महाराव रायसिंह का स्वर्गवास होने पर यह गीत लिखा है-
जै ऊपर रोत भरोसु पर वैह वार लहंतो, जिण थूं आ उपरी फाड़ फड़ वक फाडंतो।
जिण समये सोब्रंन जेण बदरा बंध वै, जिण सोझावै हाट जेण लासा लूसावै।।
सू नीज रस संभार सदन घणां कृपणां तणा वीरांमियो,
कर सू पर कीति करमसी रायसिंघ विवनोम कही।।
कहते हैं, जिस समय अकबर के दरबार में राणा प्रताप की मृत्यु का समाचार पहुँचा उस समय दुरसा भी वहां उपस्थित था। उसने बादशाह के हृदय का भाव समझकर यह छप्पय कहा जो उसकी मनोवैज्ञानिकता का प्रतीक है-
अस लेगो अणदाग, पाघ लेगो अणनामी।
गौ आड़ा गवड़ाय, जिको बहतो धुरवामी।।
नव रोजे नह गयो, न गौ आत सां नवल्ली।
न गौ झरोखां हेठ, जेठ दुनियाण दहल्ली।।
गहलोत राण जीती गयो, दसण मूंद रसणा डसी।
नीसास मूक भरिया नयण, तो मृतशाह प्रताप सी।।
स्वर्ग में विष्णु ने देवताओं सहित राणा का स्वागत इसलिए किया कि उसने अकबर की दासता स्वीकार नहीं की थी–
सामो आवियो सुर साथ सहेतो, ऊंच बहा ऊदाणा।
अकबर साह सरस अण मिळियां, राम कहै मिळ राणा।।
प्रम गर कहै पधारो पातल, प्राझा करण प्रवाड़ा।
हेवै सरस अमळिया हींदू, मोसूं मिळ मेवाड़ा।।
अेक कारज रहियो अळगो, अकबर सरस अनैसो।
विसन भणै रुद्र ब्रहम बिचाळै, बीजा सांगण बैसो।।
दुरसा ने राव सुरताण पर भी गीत लिखे हैं। अग्नि-संस्कार के शोकाकुल वातावरण में जलती हुई चिता को देखकर वह कहता है-
आज पड़े असमान आज धर कंकण भागो, आज महा उतपात नीर धू तारे लागो।।
आज कळू ऊथल्ल आज कव आदर छूटा, आज टळे आसंग आज सनमंध बिछूटा।।
सुरताण मरण फूटो नहीं, हाय हाय फूटो हियो।
इतना ही नहीं, कवि ने वीर सरदारों के निधन पर भी शोक प्रकट किया है। मेवाड एवं जोधपुर राज्य के वीर सेवक जसवंतसिंह नामक सरदार के लिए लिखा गया है-
सोर सर पाथरां तणो वरसे सघण, पेल जे सेल खग चढे पिठाण।
हाथ ऊभा किया मुगले हिन्दवां, भाण रो त्यार वखाणीयो भाण।
जेम हुई जीविया तेम जाणे जगत, कहु मूह कसु करणाल कहियो।
जिवत संभ ताहरी रही बाजी जसा, रूख अरधे पछे भींच रहियो।।
लक्खा ने सकतावत गोकुलदास पर शोक-गीत लिखा है जिसकी अंतिम तुक ही मिलती है–
सकतावत सरग सिधांती, गीत हुआ रद गोकळदास।
८. सती माहात्म्य:- राजस्थान की समग्र वीर-भूमि सहस्रों युद्धों से कम्पित एवं उल्लसित हुई है किन्तु उसकी सच्ची महिमा तो उन सतियों में देखने को मिलती है, जो धांय-धांय करती हुई प्रज्वलित चिताओं में कूदकर अपने पति का पुन: वरण करती हैं। ये सतियां वे हैं जिनमें मृत्यु हंसी है और जिनके मरकर जीने में वह सार्थक हुई है। वीर रमणी सती होना अपने जीवन का सबसे बड़ा पुण्य पर्व मानती है। कहना न होगा कि चारण कवि इससे अत्यंत प्रभावित हुए हैं। अत: सती माहात्म्य चारण-काव्य की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है।
आशानन्द ने ‘उमादे भटियाणी रा कवित्त’ रचकर सती स्त्री के मनोभावों का अपूर्व विश्लेषण किया है। काव्य की दृष्टि से ये कवित्त बड़े ही मार्मिक हैं। उमादे सोचती है-मंदोदरी, कुंती, गोपियां एवं कौशल्या इतना बड़ा पर्व चूक गई किन्तु में इसे हाथ से कैसे जाने दूं ?-
मन्दोदर मेलियो राण हेकल्वो रावण।
कुंती पांडु नरिंद रही, बोलाय विचक्कण।
कान्ह मरण गोपियां, करग थम्भो नह दीधो।
कौसल्या दसरत्थ, काठ चढ़ साथ न कीधो।
पांतरी इती सह बढ़ परब, सनमुख झालां कुण सहै।
पांतरू केम मोटो परब, कथन एम ऊमा कहै।।
इस महान पर्व को देखने के लिए कवि ने इन देवी-देवताओं का आह्वान किया हैं-
गुरड़ चढौ गोबिन्द, सांड चढ़ आवो संकर।
इन्द्र चढ़ौ इण बार, पीठ एरावत सद्धर।
हंस चढ़ौ सुर जरठ चढ़ौ देवी सिंघाणै।
चढ़ौ सूर सपतास, चढ़ौ अपछरा बिमाणै।
सांपड़े सूर मुख सामही, धुव जेही सांचे धड़ै।
सर इता आज आवो सती, चढ़ आंजस काठां चढ़ै।।
चितारोहण के समय उमादे की सजधज के विषय में कवि कहता है-
सझ सौळै सिणगार, सत्तव्रत अंग सनाहै।
अरक बार मुख ऊग, नीर गंगाजळ नाहै।
वीर पहर अस चढ़ै, मुकट वेणी सिर खुल्ले।
देती पर दिखणांह, हंस गत राणी हल्ले।
सुर भुवण पैस लीधौ सरग, साम तणौ मन रंजियौ।
रूसणौ माल दे राव सूं, भटियाणी इम भंजियो।।
और अन्त में मान को धारण करने वाली वह सुन्दरि अग्नि में प्रवेश कर नख से शिखा तक जलकर राख हो गई-
पैस मज्झ पावक्क, हुई जमहर नख सख जळ।
क्रम चौरासी तणा, करै तंडल भूमंडळ।
झळ माळा बिच होम, देह बाळी दावानळ।
धुकै होम धड़हड़ण, बात मुख सहँस बळोबळ।
सामहा जोड़ ऊभा सती, देव भाण दिस हाथ दुव।
माल राव चौ सांभळ मरण, होय अंगारा राख हुव।।
इसी प्रकार अैजन ने ‘कवित्त सोलंषी जीवराजजी रा सती रा’ की सृष्टि कर सती के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है-
अजैपाळ अजमेर अलष धर ध्यान उमंगा।
उधो जन अकरूर किसन जातां पंथ लंगा।
बलष बुषारै सह जेम विसरे रजथांना।
गोपीचन्द भरथरी वास छंडिया सुष वाना।
सोलीक संग सिसोदणी, रांम नांम उचारियो।
पीव मिलण बांध आसा परम, वासा जेण विसारियो।।
और भी-
जण ज्वाळा झळ हूंत, भोळै म्रग पूठो भागै।
जण ज्वाळा झळ हूंत, सिंघ देषे दब ढालै।
जण ज्वाळा झळ हूंत, जाय हताटल जमरा।
जण ज्वाळा झळ हूंत, महल उडियो मोहकमरा।
अगन रो जोरै आषे इळा, चित सुर न मन चळचळै।
जिण अगन आज देषै जगत, जीवराज सतियां जळै।।
९. प्रकृति-प्रेम:- चिरकाल से मानव प्रकृति की आराधना करता चला आ रहा है। कवि का उससे विशेष नाता है। यद्यपि वीर-पूजा के कारण चारण कवियों का ध्यान इस ओर आकृष्ट नहीं हो पाया तथापि उनमें इसका अभाव नहीं माना जा सकता। इस दृष्टि से ईसरदास एवं वीरदास (रंगरेला) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ईसरदास कृत रावळ जाम का बारहमासा प्रकृति-वर्णन एवं मरसिये का उत्कृष्ट नमूना है किन्तु उपलब्ध न होने से उसके साथ न्याय नहीं किया जा सका। रंगरेला ने राजस्थान के विभिन्न राज्यों का जो प्राकृतिक वर्णन किया है, वह स्थानीय विशेषताओं को लिए हुए है और उसमें कवि ने कुशलता दिखाई है। ‘किसान’, ‘पणिहारी’, ‘गुण-परीक्षक’ आदि स्फुट रचनायें ऐसी ही हैं। गोड़वाड़ का यह वर्णन सजीव एवं स्वाभाविक है-
तर लम्बा अम्बा गहर, नदियां जळ अप्रमाण।
कोइल दिये टहूकड़ा, आयो धर गोढांण।।
इसी प्रकार पणिहारी के लिए कवि का कथन है–
पद्दम्मण पांणी जावत आत, रूलंत्ती आवत आधी रात।
बिलक्खा टाबर जोवे बाट, धिनो धर धाट धिनो धर धाट।।
१०. ऐतिहासिक काव्य:- चारण कवि इतिहास का आश्रय लेकर ही काव्य-लोक में विचरण करता है। चाहे प्रबन्ध हो अथवा मुक्तक, वह अपना यह स्वभाव नहीं छोड़ता। वीर काव्य भी ऐतिहासिक ही है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण काव्यों में सूजा कृत ‘राव जइतसी रउ छंद’, केशवदास कृत ‘गुण रूपक बंध’ एवं हेमराज कृत ‘गुण भाषा चरित्र’ नामक प्रबन्ध ग्रंथों के नाम सगर्व लिए जा सकते हैं। ‘राव जइतसी रउ छंद’ सबसे प्राचीन होते हुए भी एक अद्वितीय ग्रंथ है क्योंकि इसमें वर्णित घटनाओं का उल्लेख इतिहास में नहीं हुआ है। अनेक स्थानों पर अखिल भारतीय इतिहास के महत्व की घटनायें भी हैं। उदाहरण के लिए सूजा ने राव जैतसी का बाबर के बड़े लड़के कामरान के साथ युद्ध होने तथा पराजय का विस्तृत वर्णन किया है, जिससे रिक्त पृष्ठ की पूर्ति हुई है। डॉ० ओझा ने कवि की दी हुई संघर्ष-तिथि को स्वीकार किया है (२९ दिसम्बर, सन् १५३८ ई०)। सूजा ने इस युद्ध के कुछ समय पश्चात् ही ग्रंथ आरम्भ कर दिया था, अत: उसकी ऐतिहासिकता अधिक विश्वसनीय है। कवि द्वारा वर्णित परिस्थितियों से कामरान का राव जैतसी को अपने अधीन देखने की इच्छा करना असम्भव न था, क्योंकि वह विजय सुलभ समझ रहा होगा। इस घटना की ओर इतिहासज्ञों का ध्यान नहीं। यह सम्भावना सत्य प्रतीत होती है कि कामरान जैतसी को जब वह पंजाब में था, भटनेर से निकालने के लिए उत्सुक रहा होगा। यद्यपि वह बीकानेर में पराजित हुआ किन्तु अपने उद्देश्य में सर्वथा असफल नहीं रहा क्योंकि अनेक वर्षों तक भटनेर उसके अधिकार में था। काव्य से ज्ञात होता है कि कामरान ने स्वयं बीकानेर एवं भटनेर के अभियान का नेतृत्व किया था।
केशवदास एवं हेम का विषय एक ही है। जब जोधपुर के महाराजा गजसिंह ने शाहजादा परवेज के साथ मिलकर विद्रोही शाहजादा खुर्रम को पराजित किया (१६२३ ई.) तब उस विजय के उपलक्ष में दोनों कवियों ने क्रमश: ‘गुणरूपक बन्ध’ एवं ‘गुण भाषा चरित्र’ की रचना की। इनकी लेखन-शैली भी प्राय: समान है। अनेक स्थलों पर काव्यात्मक अतिशयोक्तियां देखने को मिलती हैं और राज्याश्रयी होने के कारण पक्षपात भी। ये दोनों ही ग्रंथ प्रौढ़ न होते हुए भी इतिहास की दृष्टि से उपयोगी हैं।
फुटकर कवियों में चांपसी, पूना एवं खीमराज की अवज्ञा नहीं की जा सकती। इन कवियों का ध्यान इतिहास की ओर अधिक है, काव्य की ओर कम। चांपसी के लिखे हुए मोहिलों के वंश-परिचयात्मक दोहे उपयोगी हैं, जिनका उल्लेख मूंता नैणसी ने अपनी ख्यात में किया है। पूना ने देवड़ा विजा (सिरोही) एवं राव कला मारवाड़) के युद्ध का वर्णन किया है, जिसमें देवड़ा रावत हामावत और चीबा खेमराज की वीरगति का उल्लेख है। इसका विवरण किसी भी ख्यात में देखने को नहीं मिलता। इसी प्रकार खीमराज ने सिरोही के महाराव अखेराज एवं सुरताण का जो विवरण दिया है, वह ऐतिहासिक दृष्टि से नितांत उपयोगी है। सुरताण ने ५१ वर्ष के अपने जीवन-काल में ५२ बार शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। उसने अकबर के सामने राणा प्रताप के सदृश अपना शीश नहीं झुकाया, यहां तक कि उसने विपत्ति के दिनों में प्रताप को एक बार अपने पास रखा था। इतिहास के विद्यार्थी के लिए यह जानकारी मूल्यवान है।
११. भाषा, छन्द एवं अलंकार:- भाषा के क्षेत्र में आलोच्य काल महत्वपूर्ण है। इसमें हमें एक नवीन चहल-पहल देखने को मिलती है। विशुद्ध डिंगल की दृष्टि से सूजा, ईसरदास, अलूनाथ, दुरसा, केशवदास, रंगरेला, माधोदास, सायां प्रभृति कवियों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन समस्त कवियों की भाषा कृत्रिमता से रहित है और स्वाभाविक गति में अधिक विश्वास रखती है। यदि हम इनके काव्य-ग्रन्थों के आधार पर डिंगल का प्रामाणिक शब्द-कोष बनाना चाहें तो बेखटके बना सकते हैं। इन्होंने डिंगल को उन्नत बनाने के हेतु नये-नये शब्द एवं रूप गढ़े हैं। सूजा की भाषा प्रौढ़ एवं परिमार्जित है। ईसरदास प्राचीन भाषा-शैली के सुनहरे प्रतीक हैं। कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। एक ‘वीर’ शब्द के न जाने कितने पर्यायवाची शब्दों का वह ज्ञाता है। अलूनाथ ने भाषा की सादगी पर ध्यान दिया है। दुरसा-काव्य तो अत्यन्त सरल एवं वीरदर्पपूर्ण है। बल, गति एवं प्रचण्डता उसकी शैली के आंतरिक गुण हैं। ‘विरुद छहत्तरी’ की भाषा अपेक्षाकृत सरल, सरस एवं सुबोध है किन्तु अन्यत्र कवि रूढ़ि की अवज्ञा नहीं कर पाया है। केशवदास, रंगरेला, माधोदास एवं सायां ने भाषा को शुद्ध बनाने का प्रयत्न किया है। फुटकर कवियों में करमसी (मेवाड़), माला, दूदा, महकरण, दला, कल्याणदास, मुकुन्ददास आदि ने वीररस के अनुकूल भाषा का प्रयोग किया है। इनमें करकश शब्दों की प्रचुरता है।
देश-काल के अनुरूप इस काल के कतिपय कवियों पर अन्य भाषाओं का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। बहुज्ञता एवं स्थानीय बोलियों के प्रभाव ने इसके लिए कवियों को विवश किया है। उदाहरण के लिए आशानन्द में प्राकृत शब्दों की बहुलता है। ईसरदास की रचनाओं में अरबी-फारसी के शब्दों का यत्र-तत्र प्रयोग हुआ है। सायां गुजराती शब्दों के मोह का परित्याग नहीं कर पाया। नरहरिदास की रचनायें पिंगल के शब्दों से ओतप्रोत है। पाता, जयमल, नृसिंहदास, महकरण, शक्तिदान आदि ऐसे कवि हुए हैं, जिन्होंने डिंगल को क्लिष्ट होने से बचाया है। इन कवियों से डिंगल का क्षेत्र विकासोन्मुखी हुआ और उसकी अभूतपूर्व उन्नति होने लगी।
छन्दों के विकास में चारण-कवियों का योगदान कदापि नहीं भुलाया जा सकता। कविता-पठन की मौलिकता के कारण यह कार्य सुगम होता गया। आलोच्य काल में विविध छन्द प्रयुक्त हुए हैं, जिनमें दोहा-सोरठा, छप्पय (कवित्त), गीत, झूलना, कुंडलिया, सवैया, पद, पाधरी (पद्धरि:), गाहा, भुजंगप्रयात, जंफताळ आदि के नाम लिए जा सकते हैं। यद्यपि प्रबन्ध ग्रंथों के रचयिताओं में छन्दों की विविधता के दर्शन होते हैं तथापि कुछ ने विशिष्ट छन्दों में अच्छी सफलता प्राप्त की है। सूजा ने अधिकांश में पाधरी छन्द का प्रयोग किया है। ईसरदास कुंडलियां बनाने में सिद्धहस्त हैं। अलूनाथ का नाम छप्पय (कवित्त) के साथ सम्बद्ध है। दुरसा ने दोहे-सोरठे को परिमार्जित किया है। सायां भुजंगप्रयात एवं जंफताळ की रचना में विशेष प्रवीण हैं। नरहरिदास कथा-प्रसंग के अनुकुल छंद-चयन में सफल हुए हैं। उनके सवैये पृथक छटा रखते हैं। राग-रागिनी के अनुकूल पदरचना करने में ईसरदास एवं माधोदास का नाम सदैव स्मरणीय रहेगा। शायद ही कोई ऐसा कवि मिलेगा जिसने गीत छन्द में रचना न की हो। फुटकर कवियों की अधिकांश रचना छोटे अथवा बड़े सांणोर गीत में लिखी गई है। इस क्षेत्र में जमणा, माल्हड़, खरल, गांगा, वखता, दला, माला, दूदा, सुरताणियो साहिबो, जैता, जोगीदास आदि ने नाम कमाया है।
बाह्य उपकरण होने से चारण कवियों ने विगत काल के सदृश इस काल में भी अलंकारों का प्रयोग न्यून मात्रा में किया हैं। ये अलंकार संस्कृत-हिन्दी के ही हैं। प्राय: सभी में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा जैसे सामान्य अलंकारों का प्रयोग अनायास ही हो गया है जिससे भाव-सौन्दर्य में अभिवृद्धि हुई है। शब्दालंकारों में सर्वाधिक प्रयोग वैणसगाई का है। सूजा ने इसके नियम का पालन कट्टरता से किया है। साथ ही सादृश्यमूलक उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक, अत्युक्ति, अनन्वय, यमक आदि का भी अभाव नहीं। ईसरदास को अलंकार अभीष्ट नहीं, फिर भी उनका काव्योचित ढंग से सुन्दर निर्वाह हुआ है। उपमा, व्याजस्तुति, रूपक, अन्योक्ति, विरोधाभास, स्मरण, अत्युक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा, स्वभावोक्ति एवं काव्यलिंग अलंकारों ने उनके काव्य पर सुनहरा रंग चढ़ाया है। दुरसा ने अपने काव्य में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह आदि अलंकारों का प्रयोग अधिक किया है। सायां में अलंकारों का औचित्य देखते ही बनता है। सूर एवं तुलसी के सदृश कृष्ण के अंगो के लिए नवीन एवं कमनीय उपमान सहज ही में पाठकों का ध्यान आकर्षित कर लेते हैं। नरहरिदास अपने उक्ति-चमत्कार के लिए प्रसिद्ध ही हैं। माल्हड़ एवं बिहारीदास में सांग रूपक का अच्छा निर्वाह हुआ है। गोरधन उपमाओं की झड़ी लगाने में विशेष पटु हैं। करमसी (मेवाड़), गांगा, दूदा, महकरण प्रभृति कवियों में उपमा का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है। संक्षेप में, भाव-पक्ष के सदृश चारण-काव्य का कला-पक्ष भी समुन्नत है।
*******चौथा अध्याय समाप्त*******
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