चारण साहित्य का इतिहास – पांचवाँ अध्याय – मध्यकाल (द्वितीय उत्थान) – [Part-A]
मध्यकाल (द्वितीय उत्थान)
(सन् १६५०-१८०० ई.)
(१) – काल-विभाजन
मध्यकाल (प्रथम उत्थान) से आगे चलकर हम एक ऐसे युग में प्रवेश करते है जो इतिहास में मुगल-साम्राज्य का ‘पतन-काल’ कहा जाता है हिन्दी-साहित्य के लेखक जिसे रीति-काल (१६४३-१८४३ ई.) कहते हैं, डॅा. मेनारिया उसे राजस्थानी साहित्य के उत्तरकाल की संज्ञा देते हैं। यह काल सम्राट् औरंगजेब के सिंहासनारूढ़ होने के समय से (१६५८ ई.) सम्राट् शाहआलम तक (१८०३ ई.) अंग्रेजों के दिल्ली पर अधिकार करने तक प्रवाहमान होता है। चारण-काव्य की दृष्टि से यह युग पृथक महत्व रखता है क्योंकि परिवर्तित राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर उसमें अनेक नवीन प्रवृत्तियों का सन्निवेश हुआ। हिन्दी-कवियों के अनुकरण पर रीति-ग्रंथो की सृष्टि इस युग की प्रमुख विशेषता है। विलासप्रिय मुगलों के शासन ने स्फुट श्रृंगार रस-प्रधान रचनाओं की ओर रुचि प्रदर्शित की। चारण कवियों का ध्यान फुटकर गीतों के साथ-साथ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथों की ओर भी गया। इस प्रकार राजस्थानी भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से यह युग अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि प्रथम उत्थान स्वर्णकाल का नवप्रभात है तो द्वितीय उत्थान उसका प्रखर मध्यान्ह। अस्तु,
(२) – राजनैतिक अवस्था
(क) राजस्थान एवं केन्द्रीय सत्ता:- सन् १६५८ ई. में औरंगजेब शाहजहां को राजसिंहासन से हटाकर और अपने समस्त प्रतिद्वन्द्वियों को पराभूत कर भारत-सम्राट् बना। योग्य मुगल-सम्राटों का युग समाप्त हो गया जिससे सदियों का शासन पतन के गर्त में गिर गया। चारों ओर निष्क्रियता, अव्यवस्था एवं विशृंखलता का बोलबाला था। ऐसे वातावरण में राजस्थान के क्षत्रिय नरेशों में वह शक्ति एवं साहस कहाँ रह गया था? कहने के लिए तो सभी राज्य शाही सेवा में उपस्थित रहते थे किन्तु धर्म-द्वेष एवं कुटिल व्यवहार से वे क्षुब्ध हो उठे। अत: उनका मन मुगलों के मन से न मिल सका। विभिन्न राज्यों के पारस्परिक बैर-वैमनस्य एवं उत्तराधिकार सम्बन्धी गृह-युद्धों से लाभान्वित होकर मरहठों ने राजस्थान की राजनीति में प्रवेश किया। औरंगजेब के सदृश मरहठों को भी यहाँ विशेष सफलता नहीं मिली, किन्तु ६०-६५ वर्षों तक वे बराबर इस प्रान्त को पदाक्रान्त करते रहे। जब अत्याचार, अन्याय एव अनर्थ के द्वारा स्वार्थ सिद्ध करना ही उनका उद्देश्य रहा, तब समुद्र पार से आई हुई एक अन्य विदेशी जाति ने उनके दल-बल का विध्वंस कर राजस्थान पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर दिया। इन परिवर्तित राजनैतिक घटना-चक्रों से राजस्थान में भी सर्वत्र अराजकता की आंधियां चलने लगी, जिनसे शांति एवं समृद्धि के नूतन किसलय झुलस गये। इस अराजकतापूर्ण काल को हम चार भागों में विभाजित कर सकते हैं-
१. केन्द्रीय सत्ता से विरोध का प्रारंभ (१६५२-१६७८ ई.):- इस समय में राजस्थान के नरेशों ने मुगल साम्राज्य का डटकर विरोध किया। क्षत्रिय धर्म का विनाश होते देख महाराणा राजसिंह (मेवाड़) औरंगजेब से मित्रतापूर्ण सम्बंध स्थिर नहीं रख सके। उनकी कार्यवाहियों से अप्रसन्न होकर बादशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया (१६८० ई.) । सम्राट् का विशेष अनुग्रह होने पर भी महाराजा जसवंतसिंह (जोधपुर) उसकी कूटनीति से परिचित थे, अतः वे उससे दूर रहने का प्रयत्न करते रहते थे। उनकी मृत्यु होने पर (१६७८ ई.) औरंगजेब ने जोधपुर खालसा कर दिया। महाराजा जयसिंह (जयपुर) के साथ भी जोधपुर जैसा व्यवहार किया गया। जब औरंगजेब दक्षिण की ओर चला गया तब जोधपुर एवं जयपुर के नरेशों ने अपने-अपने राज्यों पर पुन: अधिकार प्राप्त कर लिया। राजस्थान के अनेक छोटे-बड़े राज्यों ने भी समय-समय पर विरोध का प्रदर्शन किया। नवोदित भरतपुर राज्य के जाट नेता गोकल ने औरंगजेब से युद्ध किया (१६६६ ई.) जिसमें उसकी निर्दयतापूर्वक हत्या की गई। उसके बलिदान ने जाट जाति के हृदय में अनुपम साहस एवं स्वार्थ-त्याग की भावना का नव संचार किया।
२. राजपूत जाति का विद्रोह (१६७९-१७१० ई.):- अपने जीवन-काल में तो महाराजा जसवंतसिंह (जोधपुर) औरंगजेब को कोई हानि नहीं पहुंचा पाया किन्तु उसके परलोकवासी होने पर स्थिति में परिवर्तन हुआ। अजीतसिंह के उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर विद्रोहाग्नि भभक उठी (१६७९ ई.) । उसके मुसलमान बनाने के कुचक्र ने राजपूत जाति के हृदय पर वस्तुत: कुठाराघात कर दिया। यह देखकर स्वामिभक्त राठौडों ने वीरप्रवर दुर्गादास के नेतृत्व में अपने शिशु स्वामी को औरंगजेब के पंजे से मुक्त कराने का दृढ़ संकल्प किया। फलत: पुष्कर के निकट मुगलों और राठौड़ों में घमासान युद्ध हुआ किन्तु दुर्भाग्य से राजपूत पराजित हुए। यह उल्लेखनीय है कि अनेक विपदाओं का आलिंगन करते हुए दुर्गादास अद्वितीय साहस के साथ आगे बढ़ता गया। एक अनन्य स्वामिभक्त योद्धा होने के साथ-साथ वह अनुकरणीय राजनीतिज्ञ भी था। अजीतसिंह दुर्गादास को मारवाड़ से निर्वासित कर उस यश का भागी नहीं बन सका जो राजस्थानी माताओं के कंठ-स्वर से फूट पड़ा ‘माई एड़ा पूत जण जेड़ा दुर्गादास।’ शनैः-शनैः यह विद्रोह प्रांतव्यापी रूप धारण कर बैठा। मुगल साम्राज्य के वे ही आधार-स्तम्भ राजपूत अब उसके कट्टर विरोधी बन गये।
३. मुगल साम्राज्य का पतन-काल (१७१०-१७५१ ई.):- औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् केन्द्रीय सत्ता शिथिल पड़ गई और उसके उत्तराधिकारी केवल नाम मात्र के सम्राट् रह गये। मुअज्जम अपने भाई आजम को युद्ध में मारकर बहादुरशाह के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर बैठा (१७०७ ई.) । इसके समय में जयपुर एवं जोधपुर से सन्धियां हुई, जिनसे केन्द्रीय सत्ता के पतन का द्वार खुल गया। उसके विलासी ज्येष्ठ पुत्र जहांदारशाह ने नौ महीने के शासन-काल में लालकंवर वेश्या के हाथ की कठपुतली बनकर सैकडों व्यक्तियों को यमुना में डुबो दिया। अन्त में वह अपने भतीजे फ़र्रुख़सियर के हाथ से मारा गया (१७१४ ई.) । आगे चलकर सय्यद बंधुओं ने अजीतसिंह (जोधपुर) का पक्ष लेकर फर्रुखसियर को फांसी दे दी (१७१९ ई.) तत्पश्चात् रफी उद्दरजात दिल्ली के सिंहासन पर बिठाया गया (१७१९ ई.) जो क्षय रोगी होने से उसी वर्ष चल बसा। उसके उत्तराधिकारी मुहम्मदशाह के समय में सरदारों के साथ अनबन होने से नादिरशाह (ईरान) का आक्रमण हुआ जिसमें हजारों व्यक्तियों के प्राण और करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हुई। मुहम्मदशाह के अनन्तर जितने भी बादशाह हुए वे मरहठों एवं अंग्रेजों के खिलौने थे। इन अन्तिम एक दर्जन मुगल-सम्राटों से राजस्थान रूठ गया। पंजाब में सिक्खों ने भी अत्याचारों से पीड़ित होकर सिर उठाया। जाटों ने भी इस परिस्थिति से लाभ उठाना चाहा। रोहिले पठान भी उठ खड़े हुए। मरहठा सरदार महादाजी सिन्धिया भी बिगड़ गया। अब बादशाह के हाथ में कुछ भी अधिकार नहीं था-‘बादशाह आलम-अज देहली ता पालम’ वाली कहावत के अनुसार उसकी आज्ञा केवल दस मील दूर के गांव पालम तक ही पहुंच कर रह जाती थी।
४. राजपूत-मरहठा संघर्ष-काल (१७५१-१७९२ ई.):- मरहठा जाति के प्रथम राजा छत्रपति शिवाजी ने हिन्दू जाति को एकता के सूत्र में पिरोकर पुन: राज्य स्थापित करने का भगीरथ प्रयत्न किया जिससे औरंगजेब सुख की नींद नहीं ले पाया। उसने तथाकथित पहाड़ी चूहे को पिंजड़े में बंद करने के लिए शायस्ताखां, शाहजादा मुअज्जम व जसवंतसिंह और जयसिंह व दिलरखां को समय-समय पर दक्षिण में भेजा किन्तु प्रत्येक बार मुंह की खानी पड़ी। शिवाजी का स्वर्गवास होने पर (१६८० ई.) लूट-खसोट का बाजार गर्म होने से मरहठे छापा मारते रहे। ऐसे समय मे उत्तर-पश्चिमी भाग के जैसलमेर, बीकानेर एवं जोधपुर की थोड़ी सीमा को छोड़कर राजस्थान के प्राय: समस्त राज्यों में मरहठों का प्रवेश हो चुका था। चौथ, टांके अथवा पुराने कर्जे के नाम से वे बहुत-कुछ रुपया मेवाड़, जयपुर, कोटा, बूंदी आदि राज्यों से प्रतिवर्ष वसूल कर ही लेते थे। इतना ही नहीं, मुगलों की सत्ता का अन्त हो जाने पर उन्होंने राजस्थान पर भी अपना आधिपत्य एवं शासकीय नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने यहां पर अपने राजदूत एवं अन्य अधिकारी भी नियुक्त किये। कालान्तर में क्षत्रिय नरेशों एवं प्रजा के साथ होने वाला उनका अशिष्ट व्यवहार एवं तिरस्कारपूर्ण दमन असहनीय हो गया। अत: मरहठों के साथ उनका संघर्ष ही नहीं हुआ, प्रत्युत एक जातीय एवं सांस्कृतिक विरोध भी उठ खड़ा हुआ। महादाजी के पाश्चात्य सेनानायकों ने राजपूतों के विरोध को कुचल दिया किन्तु इससे विद्वेष एवं घृणा की इति-श्री नहीं हुई। अन्त में दोनों के सम्बन्ध इतने कटु और उत्कट हो गये कि मरहठों से मुक्ति पाने के लिए राजस्थान के नरेशों ने अंग्रेजों की दासता सहर्ष स्वीकार कर ली।
(ख) प्रान्तीय शासक एवं शासन-व्यवस्था:- इस काल के प्रारम्भिक नरेशों में केन्द्रीय सिंहासन को डांवाडोल कर देने की क्षमता थी किन्तु संगठन के अभाव में वे कुछ नहीं कर पाये। मेवाड़ के महाराणा राजसिंह का नाम राजस्थान में ही नहीं प्रत्युत भारतीय इतिहास में भी प्रसिद्ध है। उनके अनुपम साहस एवं रणचातुर्य ने रूपवती चारुमति को औरंगजेब की बेगम न बना कर (१६६० ई.) समय-समय पर मुगलों को परास्त किया तथा मीना लोगों के उपद्रव का दमन किया (१६६२ ई.) । अपने शासन-काल में महाराणा ने शाहजहां के शाहजादों की पारस्परिक फूट देखकर राज्य-सीमा का विस्तार भी किया। धीरे-धीरे वे मेवाड़ की कीर्ति-कौमुदी के लिए चंद्र बनकर चमकने लगे। संग्रामसिंह (दूसरा) भी वीरता के गगन में एक उज्ज्वल नक्षत्र था। जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह बड़े शक्तिशाली नरेश थे किन्तु वे सदैव शाही सेवा में ही लगे रहे और उसी में उनका स्वर्गवास भी हुआ। अजीतसिंह, अभयसिंह, रामसिंह, बखतसिंह, विजयसिंह एवं भीमसिंह के शासन-काल में मुगलों की कोई दाल न गली। जयपुर के अपूर्व बाहुबली एवं अद्वितीय राजनीतिज्ञ महाराजा जयसिंह ने भी लुप्त गौरव को द्युतिमान करने का प्रयत्न किया। भरतपुर गोकुल की क्रूर एवं निर्दय हत्या भूला नहीं था। जैसलमेर के प्रथम दो महारावल सबलसिंह एवं अमरसिंह तथा गोपालसिंह (करौली) भी बड़े वीर एवं साहसी थे। कालांतर में राजस्थानी राज्यों में मरहठों के बढ़ते हुए अनावश्यक हस्तक्षेप को देख कर जयसिंह ने समस्त नरेशों का एक सम्मेलन हुरड़ा स्थान में आमंत्रित किया, जहां पर छोटे-बड़े सब राज्यों ने मिलकर एक संधि पर हस्ताक्षर किये। रामपुरा में तो ससैन्य एकत्रित होकर मरहठों पर आक्रमण करने का प्रस्ताव भी पारित हुआ किन्तु इन तेजस्वी नरेशों के परलोकवासी होते ही उनके उत्तराधिकारियों ने ‘अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग’ अलापना आरम्भ कर दिया जिससे राजस्थान अधःपतित होकर दासता की श्रृंखलाओं में पुन: आबद्ध हो गया।
मुगल वंश का सूर्यास्त होने पर राजस्थान के क्षत्रिय नरेश पथ-भ्रष्ट हो गये। अराजकता की आंधी ने सबको अन्धा कर दिया। पश्चिम में उगे हुए ज्ञान-विज्ञान के नये सितारे को वे नहीं देख पाये। ऐश्वर्य, विलास एवं वासना के पुजारी बनकर उन्होंने शारीरिक तथा भौतिक सुखों के उपकरण सँजोने में ही अपने कर्तव्य की इति-श्री समझी। अतएव उनका ध्यान राज्य की ओर न जा सका। मुगलों, मरहठों एवं पिंडारियों से सम्बंध बनाये रखकर अपना स्वार्थ साधना ही उनकी राजनीति बन गई। सिंहासन के लिए पिता ने पुत्र व पुत्र ने पिता का गला घोंट दिया, प्रवंचित कुलांगनाओं ने निःसंकोच अपने स्वजनों को विष दे डाला तथा सामंतों ने अपने ही स्वामी का संहार कर दिया। गृहकलह, ईर्ष्या-द्वेष, घृणित षडयंत्र एवं मरहठों के सतत अभियानों ने एक ऐसा विषैला वातावरण उपस्थित कर दिया कि स्थान-स्थान पर विद्रोहाग्नि भभक उठी। राजसिंह (मेवाड़) के उत्तराधिकारी जयसिंह के विलास एवं गृह-कलह ने उसे औरंगजेब से सन्धि करने पर विवश किया। अमरसिंह ने समोपवर्ती राज्यों पर आक्रमण कर राजस्थानी नरेशों को एक दूसरे का प्रतिस्पर्द्धी बना दिया। जगतसिंह के राग-रंग एवं पारस्परिक बैर-वैमनस्य को देखकर ही मरहठों ने अपना उत्कर्ष बढ़ाया था। आगे चलकर प्रतापसिंह, राजसिंह (द्वितीय), अरिसिंह, हम्मीरसिंह एवं भीमसिंह तो इतने निर्बल सिद्ध हुए कि मेवाड़ वाह्य एवं आंतरिक उपद्रवों का क्रीड़ास्थल बन गया। जयपुर के महाराजा पृथ्वीसिंह एवं प्रतापसिंह मरहठों द्वारा ऐसे कुचल दिये गये कि उनका सिर उठाना कठिन हो गया। कोटा और बूंदी के हाड़ा घरानों का पारस्परिक विरोध प्रसिद्ध ही है। इसी प्रकार बख्तसिंह (नागोर) और जोरावरसिंह (बीकानेर) में कई वर्षों तक पारस्परिक संघर्ष चलता ही रहा। जैसलमेर में अमरसिंह के समस्त उत्तराधिकारी स्थानीय राजनीति के दलदल में धँसे रहे। डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ एवं शाहपुरा की नीति मेवाड़ पर आधारित थी, अत: इन राज्यों ने मेवाड़ का ही अनुगमन किया।
इन परिवर्तित परिस्थितियों में पड़कर राजस्थान का शासन-प्रबन्ध शिथिल पड़ गया। प्रांतीय शासकों की राजनैतिक एकता के विश्रृंखल होते ही यहाँ का सैनिक महत्व भी जाता रहा। सामंत वर्ग उच्छृंखल बन बैठा। चारों ओर डकैती, लूट-खसोट एव मारकाट का बोलबाला था। विलास और व्यसन में पड़कर अधिकांश शासक महलों में मलार गाने लग गये। शासन-प्रबन्ध की दृष्टि से मेवाड़ एवं उसके अधीनस्थ राज्यों को छोड्कर शेष सभी राज्यों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) ने अपने सरदारों की जागीर, दर्जे, बैठक एवं कुरब के नियम बनाकर परगनों का जो प्रबन्ध किया था, वह जगतसिंह के शासन-काल में अस्त-व्यस्त हो गया। राज्य-कोष खाली हो गया और प्रजा से धन लिया गया। शनैः-शनै: प्रान्त की आर्थिक दशा बिगड़ गई। डॅा. रघुवीरसिंह ने ठीक ही लिखा है–‘मुगल साम्राज्य की विजय-पताकाओं को सुदूर भारतीय सीमाओं तक सफलतापूर्वक ले जाने वाले वीरों के वंशज अपनी जन्मभूमि तथा अपने प्रांतवासियों तक की रक्षा न कर सके और सुदूर देशवासी आक्रमणकारी युगों तक राजस्थान को निरंतर रौंदते रहे। डटकर मुगलों का विरोध करने वाले मेवाड़ तथा अनेकानेक वीर योद्धाओं और कुशल सेनानायकों की जन्मभूमि राजस्थान के शासकों ने प्रत्येक बार मुंहमांगा द्रव्य देकर ही मरहठों से अपना पिंड छुड़ाया, जिससे राजस्थान पूर्णातया दरिद्र भी हो गया।’
(३) – सामाजिक अवस्था
औरंगजेब के शासन-काल में ही राजस्थान की सामाजिक अवस्था छिन्न-भिन्न होने लग गई थी। सर्वत्र अराजकता अशान्ति, आर्थिक दुर्दशा, अज्ञान एव अयोग्यता फैली हुई थी, अत: समाज को कोई चेतना नहीं मिल पाई। एक व्यक्ति का समाज की इकाई बनकर रह जाने से उसके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाया। ऐसे समय में प्रजा निरन्तर पतन के गर्त में डूबती गई। राज्य की ओर से उसकी उन्नति लेश मात्र भी नहीं हो रही थी। सामन्त वर्ग का आचरण भ्रष्ट हो गया था। कंचन, कादम्ब और कामिनी के मद से नैतिक अधःपतन आरम्भ हुआ। सवाई जयसिंह (जयपुर) ने अपने राज्य में कतिपय सुधार अवश्य किये। उन्होंने राजपूत जाति के लिए कई उपयोगी नियम बनाये किन्तु उनका अनुकरण अन्य नरेशों ने नहीं किया। इस अराजकतापूर्ण राजस्थान में भी चितायें जलती थीं-वीरधर्म की प्रतिष्ठा के हेतु नहीं, परम्परा के निर्वाह के लिए। राज दरबार कतिपय विलासप्रिय, प्रपंची एवं चाटुकार व्यक्तियों के अड्डे बन गये। उनमें पूर्वकालीन वीरता, विद्वत्ता, सदाचारिता एवं सत्यवादिता नहीँ रह गई थी। भोग-विलास, शान-शौकत एवं अधिकार-लिप्सा के लिए पैसा पानी के समान बहाया जा रहा था। मानसिक हीनता एवं नैतिक पतन के आधिक्य से कर्मचारी वर्ग उत्कोच का लोभी हो गया था। विलासी दरबारियों की अपेक्षा जन-साधारण का चरित्र संतोषजनक था। विभिन्न धार्मिक आन्दोलनों एवं साधु-महात्माओं के सदुपदेशों ने उसके नैतिक स्तर को कलुषित होने से बचाया। तुलसी की रामायण ने उसका सच्चा पथ-प्रदर्शन किया। जैनाचार्यों ने भी उसे शुद्ध विचारों से परिपूर्ण बनाये रखा।
(४) – धार्मिक अवस्था
औरंगजेब के शासन-काल में मुगलों की प्रारम्भिक धार्मिक नीति एकदम परिवर्तित हो गई जिससे हिन्दू जनता में इस्लाम के प्रति तीव्र असंतोष उत्पन्न हो गया। पवित्र देवालयों तथा पाठशालाओं के गिराने, पुण्य पर्वों तथा मेलों पर रोक लगाने, राजपूतों के अतिरिक्त और किसी को पालकी, शस्त्र तथा घुड़सवारी की सुविधा न देने एवं जजिया कर लगाने से हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध अत्यधिक कटु हो गये, यहां तक कि मुगलों के सच्चे सहायक राजपूतों ने भी उन्हें विपत्ति में साथ देने से मना कर दिया। हिन्दुओं ने प्रतिबन्धों का घोर विरोध किया और कई भयंकर विद्रोह भी हुए जिससे उनका विशाल साम्राज्य चकनाचूर हो गया। औरंगजेब ने धर्म-परिवर्तन के लिए एक पृथक विभाग की स्थापना की जिसे देखकर राजस्थान के अनेक क्षत्रिय-नरेश तिलमिला उठे। जब वल्लभ सम्प्रदाय के गोसाईं पुजारी मथुरा से भागकर मेवाड़ में आये तब महाराणा राजसिंह (प्रथम) ने उन्हें कांकरोली में आश्रय प्रदान किया (१६६९ ई.) । उन्होने जजिया को लक्ष्य करके बादशाह को एक कड़ा विरोध-पत्र लिख भेजा-‘ईश्वर व खुदा एक हैं, मन्दिर और मस्जिद जुदा नहीं हैं, इसलिए बादशाह को सब प्रजा के साथ समान बर्ताव करते हुए जजिया बन्द करना चाहिये।’ महाराजा जसवंतसिंह (जोधपुर) शाही सेवा में रहते हुए भी अपने धर्म को हृदय से चाहते थे।
औरंगजेब के पश्चात् अन्य धर्मान्ध सम्राटों ने भी समग्र हिन्दू जाति से शत्रुता मोल ले ली। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह हिन्दू धर्म के बड़े अभिमानी एवं हितैषी थे। सम्राट मुहम्मदशाह के समय में अनुकूल अवसर देखकर हिन्दुओं ने जजिया कर के विरुद्ध आवाज उठाई और अपनी दुकानें बन्द कर दीं। इस कार्य में महाराजा ने स्वयं उनकी पूरी-पूरी सहायता की। सम्राट ने महाराजा की बात स्वीकार कर जजिया उठा दिया। इन उदार एवं धार्मिक नरेशों के स्वर्गवासी होने पर तत्कालीन संत-कवियों एवं विभिन्न पंथानुयायियों ने लोगों का मन भक्ति की ओर लगाये रखा। मध्यकालीन धार्मिक आन्दोलनों के परिणामस्वरूप इस युग में चरणदास द्वारा प्रवर्तित चरणदासी पंथ का उदय हुआ किन्तु उनका ध्यान बाह्याचारों की ओर अधिक होने से निराशाजन्य वातावरण में आशा का स्फुरण न हो सका। संत सुन्दरदास ने धार्मिक साहित्य-परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा। इन विविध पंथों का महत्व अपने-अपने केन्द्रीय स्थानों एवं आसपास के प्रदेश तक ही सीमित रह गया था। यही कारण है कि राजस्थान में इन धार्मिक आंदोलनों को प्रांतव्यापी स्वरूप नहीं मिल पाया।
(५) – चारण साहित्य
इस युग में आकर चारण जाति एवं उसके साहित्य का रूप बदला और उसमें देशकाल के अनुरूप अनेक नवीनताओं का सन्निवेश हुआ। एक विचित्र धर्म-संकट में पड़कर वीरता के ऊर्ध्व गीत गाना क्या शोभा देता? जब .कोई आदर्श वीर हृदय ही नहीं दिखाई दिया तब वीर-काव्य का समुचित विकास अवरुद्ध हो गया। इतना होते हुए भी परम्परानुसार वीर-पूजा एवं अपने जातीय आदर्श के पीछे मर-मिटने की आकांक्षा ज्यों की त्यों बनी रही। विविध धार्मिक आंदोलनों एवं नवीन पंथों के अभ्युदय का प्रभाव चारण-काव्य पर भी पड़ा। फलत: पुरस्कार अथवा यश से पृथक भक्ति-शाखा एक विशाल वृक्ष में परिणत होकर श्रांत-क्लांत मनों को प्रफुल्ल करने लगी। राज-दरबारों में विलासिता छाई देखकर चारण कवि क्षत्रिय नरेशों के कुकृत्यों की भर्त्सना खुलकर तथा डटकर करने लगे। हिन्दी-काव्य की रीति-प्रवृत्ति से भी राजस्थानी चारण-साहित्य अछूता नहीं रह सका। अत: यहां के कवियों ने भी श्रृंगार, नायिका-भेद एवं अलंकारों को लक्ष्य करके महत्वपूर्ण ग्रंथों की सृष्टि करना आरम्भ किया। इस प्रकार चारण-काव्य विकासोन्मुखी हुआ। नाना नवीन रूपों ने उसके क्षेत्र को विस्तृत किया।
(६) – कवि एवं उनकी कृतियों का आलोचनात्मक अध्ययन
(क) जीवनी खण्ड:
१. सूजा:- ये रोहडिया बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत बिलाड़ा परगने के ग्राम वडी के निवासी थे। इन्हें महाराजा जसवन्तसिंह का राज्याश्रय प्राप्त था। इनकी फुटकर रचनायें उपलब्ध होती हैं।
२. खंगार:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत सोजत परगने के ग्राम राजोला के निवासी थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।
३. नाथ:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत नागोर परगने के ग्राम इन्दोकली के निवासी थे। इनके समय में महाराजा जसवन्तसिंह सिंहासनारूढ़ थे। इनके स्फुट गीत मिलते हैं।
४. जोगीदास:- इनकी शाखा का पता नहीं लगता किन्तु ये प्रतापगढ राज्य के निवासी थे। तत्कालीन महारावत हरिसिंह (१६३३-१६७५ ई.) इनके समकालीन थे। ये एक परिश्रमी व्यक्ति थे और संस्कृत, हिन्दी तथा डिंगल के अच्छे ज्ञाता थे। महारावत ने इनका काव्यानुराग देखकर राज्याश्रय प्रदान किया था। इन्होंने उनके संरक्षण में रहकर ‘हरिपिंगल-प्रबन्ध’ नामक एक उच्चकोटि का ग्रंथ लिखा (१६६४ ई.) जिसमें तीन अध्याय हैं।
५. जग्गा:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे। डॉ० मेनारिया इनके जन्म-स्थान के विषय में चुप हैं और डॉ० टेसीटोरी ने इन्हें सीतामऊ (मालवा) राज्यान्तर्गत सेंभलखेड़ा का निवासी बताया है। इसके विपरीत मारवाड़ राज्य के चारण इन्हें जैतारन परगने के गांव कँवलिया का निवासी मानते हैं। इनके पिता एवं पितामह का नाम क्रमश: रतना एवं नेतसी था, जो चांनण खिड़िया के वंशज कहे जाते हैं। इनकी जन्म-तिथि अज्ञात है किन्तु ये महाराजा जसवंतसिंह के समकालीन थे। बाल्यकाल से ही इनकी रुचि विद्याध्ययन की ओर थी और इसके लिए इन्हें अनुकूल वातावरण भी मिला। अपनी मातृभाषा में पर्याप्त ज्ञानोपार्जन कर इन्होंने स्फुट रचनायें लिखना आरम्भ किया और इससे इनको महाराजा की सेवा करने का अवसर मिल गया। इस समय ये अपने पूर्वजों को सांसण में दिये हुए सांकरो गांव का उपभोग कर रहे थे। जब शाहजहां ने जसवंतसिंह की अध्यक्षता में औरंगजेब और मुराद का दमन करने के लिए मालवा में सेना भेजी तब ये भी उनकें साथ थे। कुछ दिनों के पश्चात जसवंतसिंह मारवाड़ लौट आये और ये वहीं रहे। फिर रतलाम (मालवा) के राठौड नरेश रतनसिंह ने बादशाही सेना में अग्रणी होकर उज्जैन के रणांगण में शाहजादा औरंगजेब का सामना किया जिसमें बहुत से मुसलमान वीर मीरों का संहार कर ‘रणबंका राठौड़’ की कहावत चरितार्थ करते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए (१६५८ ई.) । जब राजपूत केसरिया बाना धारण कर युद्ध के लिए तैयार हुए तब इन्हें युद्ध करने की आज्ञा नहीं मिली। कहते हैं, रतनसिंह ने इन्हें अपने ज्येष्ठ पुत्र रामसिंह को सौंप दिया ताकि ये जीवित रहकर युद्ध की वीरता के गीत बना सकें। जान पड़ता है, इस नाम और इसी शाखा का एक अन्य व्यक्ति उज्जैन के युद्ध में काम आने से यह भ्रम फैला हो कि ये सेंभलखेड़ा के निवासी थे। मारवाड़ के राठौडों का मालवा से सम्बन्ध होने के कारण ये बाद में वहीं रह गये।
उपर्युक्त युद्ध के दूसरे ही वर्ष जग्गा ने रतलाम में रहकर ‘वचनिका राठौड़ रतनसिंह री महेसदासोत री’ नामक ग्रंथ की रचना की (१६५९ ई.) । यह गद्य-पद्य का एक अमूल्य ग्रंथ हे, जो डॉ० टेसीटोरी के सम्पादन में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी को ओर से प्रकाशित भी हो चुका है। इसमें वीर रस के साथ श्रृंगार रस का पुट भी देखने को मिलता है। इसके अतिरिक्त ठा. भगवतीप्रसाद सिंह बीसेन ने इनके भक्तिविषयक छन्दों को एकत्रित किया है, जिनसे स्पष्ट विदित होता है कि ये ईश्वर के परम भक्त थे। इनके अन्तःकरण में परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धा थी और राम-नाम पर इतने मुग्ध थे कि प्रतिक्षण उसी का स्मरण करते रहते। इस प्रकार इनका काव्य वीर, श्रृंगार एव भक्ति का एक अद्भुत संगम कहा जा सकता है।
जग्गा के एक भाई था-देवो और दो पुत्र थे-दस्सो एव कल्याणदास। रतनसिंह के उत्तराधिकारी रामसिंह ने इन्हें राजघरानों की सेवा तथा काव्य-साधना के उपलक्ष में आलोगिया, डेरी, एकलगढ एवं दलावड़ो नामक गांवों से पुरस्कृत किया। कालान्तर में दलावड़ो के स्थान पर सेंभलखेड़ा गांव दिया गया, जहां इनके वंशज आज भी रहते है। इनका देहान्त रतलाम में हुआ और दाह-संस्कार वहां के नरेशों की स्मारक छतरियों के पास शिवबाग में किया गया, जो इनकी राज-भक्ति का सुनहरा प्रतीक है।
६. प्रयागदास:- ये आढ़़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यान्तर्गत जांखर गांव के रहने वाले थे। महाराव अखेराज (द्वितीय) इनके समकालीन थे। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें उपलब्ध होती हैं।
७. सांईदान:- ये सीलगा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के झाड़ोली ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम मेहाजळ था। इनका आविर्भाव-काल १६५२ ई. है। मिश्र बंधुओं ने इनका रचना-काल ११३४ ई. दिया है, जो अशुद्ध है। इन्होंने ‘वृष्टि-विज्ञान’ नामक एक ग्रंथ की रचना की, जो ‘संवत्सार’ के नाम से भी प्रचलित है। यह ग्रंथ अपूर्ण है और इसमें केवल २७७ पद ही उपलब्ध होते हैं।
८. पता:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत मंदार ग्राम के निवासी थे। इनके समय में महाराणा राजसिंह (प्रथम) मेवाड़ की राजगद्दी पर विराजमान थे। इन्होने अपने राज्य के बड़े-बड़े सरदारों पर मुक्तक रचनायें लिखी हैं।
९. दुर्गादास:- इनकी शाखा का पता नहीं लगता। सम्भवत: ये मारवाड़ राज्य के निवासी थे क्योंकि इन्होंने महाराजा जसवन्तसिंह एवं हाड़ी रानी को लक्ष्य करके स्फुट छन्द लिखे हैं।
१०. सांवलदास:- इनकी शाखा का पता नहीं चलता किन्तु ये मारवाड़ राज्य के निवासी थे। महाराजा अभयसिंह इनके समकालीन थे और सम्भवत: ये उनके आश्रित कवियों में से थे। इन्होंने फुटकर गीत लिखे हैं।
११. परमानन्द:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: बीकानेर राज्य के निवासी थे। इनकी कविता भी फुटकर है।
१२. सांईदास:- ये फूला शाखा में उत्पन्न हुए थे और बागड़ प्रान्तान्तर्गत नराणा ग्राम के निवासी थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।
१३. गुलजी:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनके निवास-स्थान का पता नहीं लगता। इन्होंने फुटकर रचनायें लिखी हैं।
१४. गिरधर:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के मेंघटिया गांव के रहने वाले थे। इनका जीवन-वृत्त अन्धकारमय है। रचना-काल १६६३ ई. के आसपास माना गया है। इन्होंने ‘सगतसिंह रासो’ नामक ग्रंथ लिखा है जिसमें महाराणा प्रताप के अनुज शक्तिसिंह का जीवन-चरित्र वर्णित है। इसमें कुल मिलाकर ५०० छन्द हें।
१५. गोपालदास:- इनकी शाखा एवं जन्म-स्थान के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं होता किन्तु ये अपने समय के एक अच्छे कवि माने गये हैं।
१६. चन्दूलाल:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सरदारगढ़ से आगे साकरड़ा ग्राम के निवासी थे। इन्होंने फुटकर गीत लिखे हैं।
१७. पृथ्वीराज:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम भदोरे के रहनेवाले थे। इनके समय में राज-गद्दी पर महाराजा अभयसिंह विराजमान थे। इन्होंने ‘अभयविलास’ नामक एक ग्रंथ की रचना की जिसमें अभयसिंह का जीवन-चरित्र वर्णित है।
१८. हरिदान:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत बाली परगने के मिरगेसर गांव के रहने वाले थे। इनके लिखे हूए फुटकर छन्द उपलब्ध होते हैं।
१९. कुम्भकरण:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम भदोरा के रहने वाले थे। इन्होंने ‘रतनरासो’ नामक एक ऐतिहासिक ग्रंथ बनाया (१६७५ ई.) जिसमें राठौड़ रतनसिंह एवं औरंगजेब के युद्ध का वर्णन है।
२०. बिहारीदान:- ये मेहडू शाखा मे उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत सरसिया ग्राम के निवासी थे। इन्होंने पद्य के साथ गद्य में भी रचनायें लिखी हैं।
२१. सुजाणसिंह:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६५० ई.) और जयपुर राज्य के निवासी थे। इनकी कविता पर मुग्ध होकर महाराजा श्री बिशनसिंह ने सन् १६८८ ई. में पचीस हजार की जायदाद प्रदान की थी। इनकी लिखी हुई फुटकर कविता उपलब्ध होती है।
२२. केसरीसिंह:- ये बारहठ अखावत शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६५१ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पाली परगने के गांव रूपावास के निवासी थे। इनके पिता का नाम शम्भुदान था जो एक साधारण श्रेणी के कवि थे। ये अपनी विद्वता एवं गुणग्राहकता के कारण महाराजा जसवन्तसिंह (प्रथम) के कृपा-पात्र बन गये। इन्हें साहित्य-सेवा के उपलक्ष में गुरड़ाई गांव दिया गया था किन्तु जसवन्तसिंह का स्वर्गवास होने पर मुसलमानी प्रभाव से यह गांव जब्त हो गया। ये वीरवर दुर्गादास के साथ महाराजा अजीतसिंह के पास भी रहे थे और उनके भी कृपा-पात्र थे। इनके दो पुत्र हुए-बड़े का नाम गोरखदान एवं छोटे का करणीदान था। इनका निधन सन् १७०३ ई. के आसपास हुआ था।
केसरीसिंह के लिखे हए कतिपय स्फुट दोहे एवं गीत उपलब्ध होते हैं।
२३. नाहरसिंह:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत आमेट ग्राम के निवासी थे। इन्होंने फुटकर गीत लिखे हैं।
२४. पीरजी:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत लाकडथूम ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम दल्ला था। ये औरंगजेब के समकालीन एवं उसके कृपापात्र थे, अत: उसके पास रहते थे। कहते हैं, सांचोर परगने के कालेटी गांव में कलहट बारहठों के हाथों से इनकी मृत्यु हुई थी। इनके लिखे हुए कुछ स्फुट गीत उपलब्ध होते हैं।
२५. माना:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के निवासी थे। इन्हें मदार वालों का पूर्वज कहा जाता है। इनके समय में महाराणा जयसिंह सिंहासनारूढ़ थे। इनके लिखे हुए स्फुट गीत मिलते हैं।
२६. सहजो:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६६४ ई. के आसपास) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के गांव सुअेरी के निवासी थे। इनके पिता का नाम माकरसी था जो एक कवि थे। अत: इनकी प्रारम्भिक शिक्षा उनकी देखरेख में हुई। जब इनकी आयु अनुमानत: १६ वर्ष की थी तब ये बीकानेर नरेश अनोपसिंह के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए उदयपुर गये। कालांतर में महाराजा अजीतसिंह (जोधपुर) की सेवा में रहे जहां इन्हें नौकरी मिली। नौकरी में जब इनको महाराजा ने एक लम्बे समय तक छुट्टी नहीं दी तब इन्होने प्रार्थना-पत्र गीत के रूप में प्रेषित किया था। ये एक होनहार कवि थे। इनकी स्फुट रचनायें उपलब्ध होती है।
२७. चतुर्भुज:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और किशनगढ़ राज्यान्तर्गत उदयपुर गांव के निवासी थे। ये भक्त थे और सदैव भगवद्भक्ति में लीन रहते थे। दुर्भाग्य से इनके कोई सन्तान नहीं थी। एक बार इनकी स्त्री को किसी ने कह दिया कि बांझ होने के कारण तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहिए। जब यह बात उसने इनसे कही तब इन्होंने भगवान की स्तुति की और सन्तान के लिए वरदान मांगा। जनश्रुति के अनुसार भगवान ने प्रसन्न होकर इन्हें एक कन्या दी। उस कन्या का विवाह इन्होंने ढोकलिया (मेवाड़) के ठाकुर कमजी दधवाड़िया के साथ किया जिसकी कुक्ष से कालांतर में कविराजा श्यामलदास उत्पन्न हुए। इनका स्फुट काव्य मिलता है।
२८. मानसिंह:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पाली परगने के ग्राम बसी के निवासी थें। आरम्म में मेवाड़ रहे, फिर मारवाड़ आकर बस गये थे। इनकी कवित्व-शक्ति से प्रभावित होकर महाराजा सूरसिंह ने इनको चार गांवों से पुरस्कृत किया था-बसी (पाली), नेसडो (पाली), चाली (जोधपुर) और रुन्द्रमाल (जालोर) । इन्होंने फुटकर गीत लिखे हैं।
२९. बीरभांण:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६८८ ई.) और मारवाड़ राज्य के घड़ोई गांव के निवासी थे। आरम्भ में इन्होंने डिंगल का ज्ञान प्राप्त किया, तत्पश्चात पिंगल की बढ़ती हुई महत्ता देखकर उसका भी अध्ययन किया। इनको प्रारम्भिक शिक्षा सूरतराम रतनू ने दी थी, फिर ये कच्छ-भुज पाठशाला में काव्य-शास्त्र का अध्ययन करने के लिए चले गये। इन दोनों भाषाओं के छन्द-शास्त्र का विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर इन्होंने रूढ़िबद्ध शैली का अनुसरण किया। ये शान्त प्रकृति के एक तेजस्वी पुरुष थे। भगवद्भक्ति में इनका अटूट विश्वास था। ये कवि होने के साथ-साथ योग्य सामन्त भी थे। इस मणि-कांचन योग से इन्होंने महाराजा अभयसिंह (जोधपुर) का राज्याश्रय प्राप्त किया। यह उल्लेखनीय है कि करणीदान के रहते हुऐ भी इनमें कभी प्रतिस्पर्धा का भाव उत्पन्न नहीं हुआ। सौभाग्य से इन दोनों वीर कवियों ने अपने-अपने कर्त्तव्य का पूर्ण पालन किया और पाप-पंक में धँसे हुए राज-समाज को ऊपर उठाने के हेतु कविता एवं इतिहास का आश्रय लिया। करणीदान के सदृश ये कटु न होकर विनम्र थे। शेष बातों में दोनों कवि प्राय: मिलते-जुलते हैं।
जब अहमदाबाद में महाराजा अभयसिंह और सूबेदार सरबुलंदखां में युद्ध हुआ तब चारण जाति के अनेक वीरों ने अपने स्वामी का साथ दिया था। इनमें से कुछ कविता भी करते थे। वीर कवि करणीदान के साथ वीरभांण भी घटना-स्थल पर उपस्थित थे। वहां से लौटकर इन्होंने ‘राजरूपक’ नामक ग्रंथ लिखना आरम्भ किया। बाह्य एवं आंतरिक समस्याओं में उलझे रहने से महाराजा के पास इतना समय नहीं था जो इसे आद्योपान्त सुनते। चतुर एवं दूरदर्शी करणीदान ने तो उसका लघु संस्करण भी तैयार कर दिया किन्तु इन्हें यह कार्य कठिन दिखाई दिया। किस प्रसंग को निकाला जाय और किसे सुनाया जाय, यह इनकी व्यावहारिकता न जान सकी। ये अपने ही हाथों से काव्य की आत्मा को कैसे चोट पहुचाते? निदान, इन्होंने विनम्र शब्दों में महाराजा से निवेदन किया-‘अन्नदाता! मुझे क्षमा किया जाय, यह काम मुझसे नहीं होगा। मैंने अपने ग्रन्थ में फालतू की बात एक भी नहीं लिखी। अब उसमें काट-छांट कैसे करूं ?’ इस प्रकार अभयसिंह ‘राजरूपक’ नहीं सुन सके और इसीलिए इन्हें कोई पुरस्कार नहीं मिल पाया। स्पष्ट है, क्षत्रियत्व के इस सच्चे पुजारी ने काव्य के सहज सौन्दर्य को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अपने देवता तक के वरदान को ठुकरा दिया। पंडित रामकर्ण आसोपा का यह कहना कि महाराजा ने इन्हें दो गांव दिये थे, असत्य है। अपने ४७ वर्ष के जीवन-काल में इन्होंने राज-समाज एवं साहित्य की खूब सेवा की और सन् १७३५ ई. में शरीर त्याग दिया।
वीरभांण कृत ‘राजरूपक’ ना० प्र० स० काशी द्वारा प्रकाशित हो चुका है। यह ग्रंथ ४६ प्रकाशों में विभक्त है। काव्य के साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका पृथक महत्व है। कालान्तर में महाराजा मानसिंह ने इस ग्रंथ का अध्ययन कर इनके पुत्र को ‘घड़ोई’ गांव की जागीर प्रदान की थी तथा इनके पोते मायाराम को कायरड़ो गांव दिया था। इनके लिखे हुए एक अन्य ग्रंथ ‘भागवत दर्पण’ का भी उल्लेख किया जाता है किन्तु उपलब्ध न होने से इसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता।
३०. द्वारिकादास दधवाड़िया:- ये दधवाड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६७८ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत बलुंदा ग्राम के निवासी थे। एक बार महाराजा अभयसिंह (जोधपुर), जयसिंह (जयपुर) एवं जगतसिंह (उदयपुर) तीनों एक स्थान पर मिले। वहां सब अपने-अपने कुल-गौरव की प्रशंसा करने लग गये। जब इस बात का निर्णय नहीं हो पाया कि कौन किससे बड़ा है तब तीनों राज्यों के तीन चारणों को बुलाया गया। इन्होंने जोधपुर राज्य का प्रतिनिधित्व किया था। ये अभयसिंह के पूर्ण कृपा-पात्र थे। महाराजा ने इनको वासनी नामक गांव पुरस्कार में दिया था। इनकी दवावैत ‘महाराज अजीतसिंह जी री’ (१७१५ ई.) नामक रचना मिलती है जिसके आरम्भ, मध्य और अन्त में १२ दोहे, ३ कवित्त और २ गाथायें हैं; शेष भाग गद्य में है। इसके अतिरिक्त फुटकर गीत भी मिलते हैं।
३१. दलपत:- ये अखावत बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६८८ ई.) और मारवाड़ राज्य के इन्दोकली गांव के निवासी थे। ये महाइष्टबली, निर्भीक, सत्यवक्ता, उदार, वीर एवं उच्चकोटि के विद्वान थे। जब महाराजा बखतसिंह ने शाही आज्ञा से अजीतसिंहजी को मार दिया तब चारण लोग उन्हें ‘धराज’ कहने लगे और उनका असली नाम लेना बन्द कर दिया। इतना ही नहीं, चारणों ने उन्हें अपमानित भी बहुत किया। यह देखकर महाराजा ने इनके सारे सांसण जब्त कर दिये किन्तु फिर भी काव्य-धारा न रुक सकी।
ऐसे समय में दलपत ने ‘पितामारप्रकाश’ नामक एक छोटा ग्रंथ लिखा जिससे क्रुद्ध होकर महाराजा ने देशनिकाला दे दिया। यह देखकर बीकानेर नरेश ने इन्हें सादर आश्रय प्रदान किया। कहते हैं, वे इनकी तस्वीर देखकर भोजन करते थे। दलपत की लिखी हुई अन्य रचनायें भी उपलब्ध होती है जिनमें ‘वर्णरक्षा विकार’ एवं ‘चूक पचीसी’ का नाम लिया जाता है। ये सन् १७५५ ई. में विजाजी के साथ मेड़ता के युद्ध में काम आये थे।
३२. हमीरदान:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और जोधपुर राज्यान्तर्गत घड़ोई ग्राम के निवासी थे। इनके समय में अजीतसिंह सिंहासनारूढ़ थे। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा कच्छ-भुज में ग्रहण की जहां उन दिनों चारण विद्यार्थी अध्ययन के हेतु जाया करते थे। कालान्तर में इन्होंने कच्छ-भुज के राणा महाराव श्री देशलजी प्रथम (१७१७-‘५१ ई.) के महाराजकुमार लखपतजी का आश्रय ग्रहण किया।
हमीर के लिखे हुए २२ ग्रंथ कहे जाते हें जिनमें ‘लखपत-पिंगल’, ‘गुण-पिंगल-प्रकास’, ‘हमीर नाम माला’, ‘जोतिषजड़ाव’, ‘ब्रह्माण्डपुराण’ एवं ‘भागवत दर्पण’ महत्वपूर्ण है।’लखपत-पिंगल’ छन्द-शास्त्र का एक अमूल्य ग्रंथ है (१७३९ ई.) जिससे इनका नाम अमर हो गया है। इसकी छन्द-संख्या ४६९ है।
३३. करणीदान बारहट:- ये रोहड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६८३ ई. के आसपास) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत रूपावास ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम केसरीसिंह था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा पिता की देख-रेख में ही हुई थी। इनके भाई का नाम गोरखदान था जिनसे इनके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। उधर जोधपुर-नरेश अभयसिंह एव उनके भ्राता बखतसिंह में भी अनबन रहती थी। जब गोरखदान अभयसिंह का कृपापात्र बन गया तब ये बखतसिंह के पास जाकर रहने लगे। कालान्तर मे अभयसिंह एवं बखतसिंह की सेनाओं ने मिलकर अहमदाबाद मे गुजरात के सूबेदार सरबुलंदखां से युद्ध किया (१७३०ई.) उस समय ये अपने आश्रयदाता बखतसिंह के साथ युद्ध में सम्मिलित हुए थे। वहां से लौटकर बखतसिंह ने इन्हें रामसिया गांव पुरस्कार में दिया था। आगे चल कर अभयसिंह का स्वर्गवास हो जाने पर बखतसिंह राज-गद्दी पर विराजमान हुए (१७५१ ई.) और उन्होंने इन्हें एक लाख का मुंदियाड़ नामक ठिकाना प्रदान किया जो सबसे बड़ा माना जाता है।
एक बार बखतसिंह ने करणीदान को महाराणा जगतसिंह (उदयपुर) के पास भेजा (१७३८ ई.) । कहते है, स्वयं महाराणा जगतसिंह देबारी तक स्वागत करने आये। महाराणा ने बड़े धूमधाम से इनका स्वागत किया और विदा होते समय एक उत्तम घोड़ा प्रदान किया। इसी प्रकार लाडखानी (शेखावाटी) के ठाकुर खेंगारसिंह ने इनकी आवभगत की थी। इनका देहान्त सन् १७६५ ई. के आसपास हुआ था। ये अपने समय के एक प्रसिद्ध कवि थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।
३४. बखता:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मेड़ता परगने के कंवलिया गांव के निवासी थे। ये महाराजा अभयसिंह के कृपा-पात्र थे। जब महाराजा ने गुजरात के सूबेदार सरबुलंदखां से अहमदाबाद में युद्ध किया (१७३० ई.) तब ये उनके साथ थे। इन्होंने उस युद्ध का वर्णन १६६ कवित्तों में किया है। इनके लिखे हुए अन्य फुटकर कवित्त भी यत्र-तत्र बिखरे मिलते हैं। इनकी कवित्त्व-शक्ति का सम्मान करते हुए महाराजा ने इन्हें ‘राणांको’ गांव प्रदान किया था। इन्हें भी महाराजा अभयसिंह ने युद्ध-वर्णन का संक्षिप्त रूप करने को कहा था किन्तु ये कर नहीं पाये।
३५. अजबा:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यान्तर्गत जांखर गांव के रहने वाले थे। इन्होंने अपनी स्त्री के देहावसान पर अनेक छन्द लिखे थे। इनकी लिखी हुई फुटकर कवितायें भी उपलब्ध होती है।
३६. कानो:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत विणलियो ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम करमसी था। महाराजा अजीतसिंह (१६७८-१७२४ ई.) इनके समकालीन थे। अपने भाइयों के साथ खेत विषयक पारस्परिक झगड़ा हो जाने से एक बार इन्होंने अजीतसिंह को निसाणी छन्द में प्रार्थना-पत्र प्रेषित किया, जो तीन पृष्ठों का था। इससे जब इनकी कोई सुनवाई नहीं हुई तब इन्होंने अपने विरोधी गणपत को गोली लगाकर मार दिया। इस अपराध में इनका गांव जब्त कर दिया गया। खेजड़ले के ठाकुर भाटी नाहरसिंह ने इनका पक्ष लेकर यह गांव पुन: दिलाया था।
कानो के लिखे हुए फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं। इनकी एक रचना विणालिया वाला ‘चांपावत सींधल रा कवित्त’ विशेष रूप से प्रसिद्ध है (१७५७ ई.)।
३७. खेतसी:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के रहने वाले थे। इन्हें महाराजा अभयसिंह (१६२४-१७४८ ई.) का राज्याश्रय प्राप्त था। इन्होंने महाभारत के १८ पर्वों का सारांश डिंगल भाषा में लिखा जो ‘भाषा भारथ’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह लगभग १३००० छन्दों का एक भारी ग्रंथ है। इसकी गणना डिंगल के प्रथम श्रेणी के ग्रंथों में की जाती है। रचनाकाल १७३३ ई. है।
३८. पीरदान:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६९३ ई. के आसपास) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के गांव जुड़िया के निवासी थे। ये शान्त प्रकृति के व्यक्ति थे और सदैव हरिभजन में लीन रहते थे। इनकी सन् १७३४ ई. की लिखी हुई ७ रचनायें उपलब्ध होती हैं-‘अलख आराधना’, ‘ज्ञान चरित्र’, ‘गुण नारायण’, ‘नारायण नेह’, ‘गुण अजपाजाप’, ‘दूहा आराधना रा’ एवं ‘परमेसर पुराण’। ये समस्त रचनायें राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी, जोधपुर में विद्यमान है।
३९. अनूपराम:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: शाहपुरा के निवासी थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।
४०. हरदान:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे और शाहपुरा के निवासी थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।
४१. सोमा:- ये छोटाला शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मेवाड़ के निवासी थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।
४२. चावण्डदान:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मेवाड़ के निवासी थे। इनके फुटकर गीत मिलते हैं।
४३. पहाड़खाँ:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के रायपुरिया गांव के निवासी थे। महाराजा बखतसिंह इनके समकालीन थे। इन्हें सोजत परगने का हिंगोळाखुड़द गांव मिला हुआ था। कहते हैं, जब महाराजा अभयसिंह का देहान्त हुआ (१७४८ ई.) तब निंदात्मक छंद को सुनकर आउवा-ठाकुर ने बखतसिंह को लिखकर यह गांव जब्त करा दिया था। इनका लिखा हुआ ‘गोगादे रूपक’ नामक एक ग्रन्थ उपलब्ध होता है जिसमें जोइयों के मारे जाने का वर्णन है। इस ग्रंथ के अतिरिक्त इन्होंने फुटकर गीत भी लिखे हैं।
४४. गोपीनाथ:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे और बीकानेर राज्यान्तर्गत ग्राम सडू के निवासी थे। इनके पूर्वज केशवदास डिंगल साहित्य के एक उत्कृष्ट कवि हो चुके हैं। इनके सम्बन्ध में केवल इतना ही ज्ञात होता है कि थे बीकानेर-नरेश गजसिंह (१७४६-८७ ई.) के राज्याश्रित कवि थे। गजसिंह एक आदर्श राठौड़ वीर थे। उनके वीरोचित गुणों से प्रभावित होकर इन्होंने ‘ग्रंथराज’ नामक एक ग्रंथ की रचना की (१७४३ ई. के आसपास) जो ‘गजसिंह-रूपक’ के नाम से भी प्रचलित है। इस ग्रंथ पर प्रसन्न होकर महाराजा ने इन्हें लाखपसाव एवं गेरसर नामक गांव की जागीर प्रदान की।
४५. हररूप:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के निवासी थे। इनके समय में महाराजा बखतसिंह सिंहासनारूढ़ थे। इन्होंने फुटकर काव्य-रचना की है
४६. गोरखदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और किशनगढ राज्यान्तर्गत ग्राम गोदियाणा के निवासी थे। इनके समय में महाराजा राजसिंह सिंहासनारूढ़ थे। इन्होंने फुटकर गीत लिखे हैं।
४७. करणीदान कविया:- ये कविया शाखा में जन्मजात प्रतिभा लेकर अवतीर्ण हुए थे (१६८५ ई. के आसपास) और आमेर राज्यान्तर्गत ग्राम डोगरी के निवासी थे। इनके माता-पिता का नाम क्रमश: इतियाबाई एवं विजयराम था। कहते है, डोगरी के निकट ही कन्दरा में एक महात्मा रहते थे जिनके चाकर मोतिया की प्राणों से प्यारी घोड़ी चल बसी। महात्मा मोतिया को लेकर इनके काका डोगरी-ठाकुर के पास आये और घोड़ी मांगी किन्तु उन्होंने ऊँचे दाम बताकर देने में आनाकानी की। महात्मा की भ्रकुटी तन गई और उसने श्राप देते हुए कहा-तेरी सारी घोड़ियां मर जायें। करणीदान पास में खड़े-खड़े यह सुन रहे थे। चट से महात्मा के पीछे हो लिए और कहने लगे-महात्माजी! मेरे पास एक घोड़ी है जो भेंट करता हूं। महात्मा ने आशीर्वाद देते हुए कहा-जा बच्चा! आज से तू खूब फूलेगा-फलेगा। इसी समय डोगरी छोड़कर चला जा। तुझे आज ही तेरी घोड़ी के रंग जैसा घोड़ा प्राप्त होगा। यह सुनकर ये अपने गांव से भैंसे पर सवार होकर चल पड़े। इस भैरव रूप को देखकर सरदारों ने इन्हें टोका और एक घोड़ा दिया जो उस घोड़ी के रंग जैसा ही निकला। चलते-चलते ये खंगारतों के ठिकाने में आये जहां तत्कालीन ठा. सुलतानसिंह ने इनकी काव्य-प्रतिभा से प्रभावित होकर भावभीनी आवभगत की एवं रथ, घोड़े तथा नौकर-चाकर प्रदान किये। यही से इनके जीवन ने एक नवीन दिशा ग्रहण की।
करणीदान की जीवन-धारा राजस्थान के अनेक राज्यों में कलकल निनाद करती हुई उत्तरोत्तर गतिशील होती रहती है। जहाँ-जहाँ उसका संचरण हुआ, वहां-वहां यश के कुल और उपहार के मोती मिलते गये। आमेर (जयपुर) में आकर इन्होंने संस्कृत, प्राकृत, डिंगल-पिंगल आदि भाषाओं का अध्ययन किया (१७०० ई. के आसपास) । यहां के शांत वातावरण ने इन्हें छंद, ज्योतिष, संगीत, वेदान्त एवं योग सीखने के लिए प्रेरित किया और थोड़े समय में ही इन्होंने साहित्य तथा इतिहास का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया। इनके सदृश बहुज्ञता कम कवियों में देखने को मिलती है। इसी समय के आसपास इन्होंने स्फुट रचना आरम्भ कर दी। कहते हैं, जब ये आमेर से शाहपुरा आये तब राज्य-सीमा पर एक किसान से पूछा-क्या यह शाहपुरा के उम्मेदसिंह की सरहद है? इस पर किसान बिगड़कर बोला-क्या मरना चाहते हो? ऐसे ही दरबार के सामने बोलो तो मैं अपनी समस्त चल-अचल सम्पत्ति तुम्हारे नाम कर दूं। उम्मेदसिंह के शासन में ‘तुम’ (रैकारा) से बोलने वाला मार दिया जाता था। होड़ करते-करते दोनों उम्मेदसिंह के दरबार में गये तब करणीदान ने रैकारे सहित पाँच दोहे कहे जिन्हें सुनकर शाहपुरा-नरेश अत्यन्त प्रसन्न हुए, गले मिले, लाखपसाव से अलंकृत कर सेवाना एवं सरदारपुरा नामक गांवों से पुरस्कृत किया। किसान ठगा सा देखता ही रह गया। उसने अपनी कविता सुनाते हुए कहा-आपने क्या अपनी प्रतिज्ञा मेरा सर्वस्व हरण करने के लिए ही की थी। यह सुन कर इन्होंने उसकी पत्नी को अपनी धर्मबहिन बना कर धैर्य प्रदान किया। उम्मेदसिंह इनकी प्रतिभा पर मुग्ध थे। एक बार राज्य-गद्दी पर बैठते समय घोड़ा-सिरोपाव मिलने पर कवि ने उसे गीत लिखकर लौटा दिया। इस पर इन्हें हाथी-सिरोपाव ही नहीं अन्य पुरस्कार भी मिले। सन्देह नहीं कि शाहपुरा में कवि का यथेष्ट मान-सम्मान हुआ। कालान्तर में जब उम्मेदसिंह मरहठों से उज्जैन (क्षिप्रा) के युद्ध में मेवाड़ी सेना का नेतृत्व करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए तब कवि ने गीत की सृष्टि कर श्रद्धांजलि अर्पित की।
करणीदान शाहपुरा से डूंगरपुर नरेश रावल शिवसिंह के यहां आ गये, जहां इनकी कीर्ति-कौमुदी का अभूतपूर्व विकास हुआ। शिवसिंह ने इनकी काव्य-रचना पर मोहित होकर लाखपसाव दिया। यहां इनका सम्पर्क मेवाड़ के राजघराने से हुआ। तत्कालीन गतिविधियों से प्रकट है कि उदयपुर के महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) एवं जगतसिंह की इन पर पूर्ण कृपा थी। उन्होंने इनका मान-सम्मान भी खूब किया और ये भी काफी समय तक वहां रहे। यह देखकर डॅा मेनारिया ने इन्हें सूलवाड़ा का निवासी बताया है, जो अशुद्ध है। सम्भव है, यह गाँव इन्हें पुरस्कार में मिला हो! कहते हैं, एक बार ये महाराणा संग्रामसिंह के पास पांच गीत बनाकर लै गये जिन्हें सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहने लगे कि तुम्हारा काव्य अमूल्य है, उसका मूल्य कोई क्या देगा? यह कहकर महाराणा ने करोड़पसाव अथवा उन गीतों को धूप देने का प्रस्ताव रखा किन्तु इन्होंने अपने काव्य को धूपित कराना ही उत्तम समझा। इसके पश्चात् तो ये अपने काव्य के द्वारा एक ऐसे धूपदान बन गये कि जिसकी सुगन्ध से चारण एवं क्षत्रिय धर्म उजागर होने लगा। शनैः-शनै: इनकी धवल कीर्ति राजस्थान के कोने-कोने में पहुँचने लगी। तत्कालीन विलासिता इन्हें पथ-भ्रष्ट नहीं कर पाई तथा राजकीय प्रलोभन इन्हें अपने वश में नहीं कर सके। यह लक्ष्य करने की बात है कि इन्होंने आवश्यकतानुसार विभिन्न राज्यों की आंतरिक समस्याओं को सुलझाने में भी अपनी सेवायें अर्पित की। करणीदान चारण जाति के सच्चे प्रतीक थे।
करणीदान महाराजा अभयसिंह (१६२४-१७४८ ई.) कें अनुग्रह पर जोधपुर आ गये, जहां इनके जीवन का अधिकांश समय राज्य-सेवा में व्यतीत हुआ। उल्लेखनीय है कि यहां रहकर इन्होंने अपनी काव्य-प्रतिभा, राजनीतिज्ञता एवं शूरवीरता का अपूर्व परिचय दिया जिससे सरस्वती एवं लक्ष्मी की कृपा के साथ शक्ति का भी इन पर वरदहस्त बना रहा। करणीदान कलम के तेज, जबान के खरे एवं तलवार के धनी थे। एक चारण कवि का सामन्त होना तथा अपने स्वामी के साथ युद्धभूमि में पहुँचना उसके कुल-गौरव का परिचायक है। राजस्थान के चारण कवियों ने विपत्ति की काली घटाओं को विदीर्ण करने में अपने धणियों का जो साथ दिया है, वह मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने योग्य है। इस दृष्टि से इनका जीवन-वृत्त चारण जाति के लिए एक आदर्श है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि सम्राट् मुहम्मदशाह के विरुद्ध गुजरात के सूबेदार सरबुलंदखां ने विद्रोह किया था (१७३० ई.) और महाराजा अभयसिंह उसका दमन करने के लिए भेजे गये थे। उस समय ये भी उनके साथ थे। दोनों ओर की सेनाओं के बीच अहमदाबाद में संग्राम हआ। सरबूलंदखां के किले से बाहर न आने पर इन्होंने एक ऐसी विरुदावली सुनाई कि वह बाहर निकल पड़ा और अन्त में हार स्वीकार कर भाग गया। कहना अनावश्यक न होगा, इन्होंने अपने अद्भुत शौर्य-पराक्रम से विपक्षियों को मार भगाने में सहायता की जिससे स्वामी का कार्य सरल हो गया और सर्वत्र उनकी जय-जयकार होने लगी। यदि सच पूछा जाय तो इस युद्ध के फड़कते हुए वर्णन सुनकर ही अभयसिंह ने सोल्लास कवि को गले लगाया, कविराजा का उपटंक दिया, लाखपसाव एवं आलावास गांव से पुरस्कृत किया।
करणीदान की स्वामी-भक्ति के विषय में कहा जाता है कि एक बार बखतसिंह ने नागोर में अपने ज्येष्ठ भ्राता अभयसिंह जी को प्रीतिभोज पर आमंत्रित किया किन्तु अभयसिंह जी को भय था कि बखतसिंह कहीं पिता के समान उनकी भी हत्या कर गद्दी न हथिया ले। एतदर्थ पोकरण ठाकुर एवं करणीदान को सुरक्षा का भार सौंपा गया। जब शराब के नशे में चूर महाराजा पलंग पर पड़े थे तब ये दोनों उनका पहरा देते रहे। बखतसिंह कोई न कोई बहाना बनाकर आता रहता किन्तु इन्होंने उसकी कोई दाल न गलने दी। हठात् जब प्रातःकाल होने को आया तब इन्होंने अपने स्वामी के पैर का अंगूठा दबाते हुए कहा-बखतसिंह नंगी तलवार लेकर खड़ा है। इनकी सतर्कता के कारण बखतसिंह को निराश होकर लौट जाना पड़ा। इससे बखतसिंह इनके शत्रु बन गये। इतना ही नहीं, महाराजा रामसिंह के शासन-काल में भी यह भक्ति ज्यों की त्यों बनी रही। जब बखतसिंह ने जोधपुर पर आक्रमण किया तब ये जगन्नाथ पुरोहित के साथ ग्वालियर जाकर मल्हार राव को सेना भेजने के लिए राजी किया। दुर्भाग्य से रामसिंह परास्त हुए। जब बखतसिंह गद्दी पर बैठे तब करणीदान का मन खट्टा पड़ गया। बखतसिंह ने भी आलावास (पाली) जब्त कर बदला लिया। इस पर इन्होंने विरक्त होकर एकान्तवास की ठानी। जब किशनगढ़-नरेश बहादुरसिंह को इसका पता चला तब उन्होंने इन्हें ऐसा करने से रोकते हुए कहा-आप राठौड़ों के कविराज हैं। हम भी उनके भाई हैं अत: आप मेरे यहां रहिये। कविराजा उनके आग्रह पर किशनगढ़ रुक गये। बहादुरसिंह ने इन्हें अनेक गांव देने चाहे किन्तु अपनी बड़ी-पत्नी के कहने पर इन्होंने केवल एक छोटा-सा गांव केवाणिया ग्रहण किया।
करणीदान के जीवन की प्रमुख घटनाओं के मंथन से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ये असाधारण व्यक्तित्व के एक अत्यन्त प्रभावशाली कवि थे। इनके चरित्र का सर्वाधिक गुण इनकी निर्भीक वाणी है। ये सत्याग्रही कहे जा सकते हैं। अपने से बड़े किसी व्यक्ति के सम्मुख यदि कटु बनना पड़ता तो ये हिचकिचाते नहीं थे। एक निर्दोष एवं सत्यप्रिय आत्मा में ही इनके समान अदम्य साहस देखने को मिलता है। इस शक्ति के बल पर ये बड़े से बड़े व्यक्ति को पराभूत करने की सामर्थ्य रखते थे। इनका व्यंग्य सीधा प्रहार होता था। ये वीरता के गायक और कायरता के निन्दक थे। हिन्दू हो अथवा मुसलमान, इससे इनका कोई प्रयोजन न था। योग्य नरेशों की प्रशंसा एवं अयोग्य शासकों की निन्दा करना ये अपना कर्तव्य समझते थे। सत्य के सतत आग्रह ने इन्हें चाटुकारिता एवं अत्युक्तिपूर्ण वर्णन से सदैव दूर ही रखा। इन्होंने देश-काल के अनुरूप कविता एवं इतिहास की मशाल लेकर अंधकार में भटकती हुई क्षत्रिय जाति का पथ-प्रदर्शन किया। कर्नल जेम्स टाड ने इनके वीरोचित कार्यों पर मुग्ध होकर यहां तक कह दिया कि इनकी बहादुरी का सा उदाहरण स्वयं राजपूतों के इतिहास में भी शायद ही कहीं मिलेगा। इस कथन में भले ही अतिरंजना हो किन्तु उनके इस कथन में कोई संदेह नहीं कि करणीदान कविया जिस प्रकार से पहली श्रेणी के कवि थे, उसी प्रकार राजनीति में भी चतुर, योद्धा एवं प्रकांड पंडित थे और प्रत्येक विषय में वह अपनी चतुरता का चूड़ान्त प्रमाण दिखाया करते। मारवाड़ के आत्म-विग्रह के समय प्रत्येक राजनीतिक घटना का उन्होंने प्रशंसनीय रूप में अभिनय किया है।
करणीदान के जीवन का अन्तिम समय किशनगढ़ में ही व्यतीत हुआ। कहते हैं, बहादुरसिंहजी के कहने पर बखतसिंह ने आलावास गांव इन्हे लौटा दिया किन्तु इन्होंने-फिर अपने गांव का मार्ग नहीं देखा। अन्त में, किशनगढ़ में ही इनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई (१७८० ई. के आसपास) जहां इनकी स्मृति में एक छतरी बनी हुई है। करणीदान ने दो विवाह किये थे। पहली पत्नी ‘बड़ी टहला वाली’ से रामदास एवं अनोपराम और दूसरी पत्नी ‘जुड़िया-वाली।’ से लच्छीराम नामक पुत्र उत्पन्न हुए।
करणीदान की अमूल्य सेवा उनकी काव्य-रचना है। इनके लिखे हुए चार ग्रंथ उपलब्ध होते हैं-‘सूरजप्रकाश’, ‘विरदसिंणगार’, ‘यतीरासा’ एवं ‘अभयभूषण’। युद्ध से लौटकर शांति के समय में लगभग १७३१ ई. के आसपास इन्होंने ‘सूरजप्रकाश’ नामक ७५०० छंदों का वृहद् ग्रंथ लिखा। इस अमूल्य ग्रंथ का कुछ अंश ‘बंगाल रायल एशियाटिक सोसाइटी’ ने छापा है। यह ग्रंथ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के द्वारा श्री सीताराम लालस के सम्पादन में चार भागों में प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रंथ की रचना अभयसिंह को सुनाने के उद्देश्य से की गई थी किन्तु महाराजा के पास इतना समय न होने से इनका स्वप्न अधूरा ही रह गया। अत: इन्होंने इसका संक्षिप्त रूप १२६ पद्धरी छंदों के रूप में प्रकट किया और उन्हें ‘विरदसिंणगार’ की संज्ञा दी। ये दोनों भिन्न-भिन्न रचनायें हैं। ’विरदसिणगार’ को महाराजा ने ध्यानपूर्वक सुना और प्रसन्न होकर इन्हें एक साथ पगड़ी, तुर्रा, कविराजा का उपटंक, लाखपसाव एवं आलावास ग्राम की जागीर देकर पुरस्कृत किया। इतना ही नहीं, इन्हें कवियों के आतिथ्य-सत्कार की परम्परा में एक कदम और आगे बढ़ा दिया। कविराजा को हाथी पर सवार कराकर महाराजा स्वयं एक अश्व पर आरूढ़ हुए और इस प्रकार इनकी सेवा में उपस्थित होकर हवेली तक पहुंचाया।
‘सूरजप्रकाश’ के निर्माण में कवि को जो परिश्रम एवं अध्यवसाय करना पड़ा, उसका सहज ही में अनुमान लगाया जा सकता है। कोई आश्चर्य नहीं, तत्कालीन चारण कवियों ने भी इसमें सहयोग दिया हो। इस दिशा में इनकी सहोदरा बरजूबाई की सेवायें सर्वथा स्तुत्य हैं। करणी विद्या का लंगर बांधे फिरते थे तो बरजू को अपनी तुकबंदी पर अलग गर्व था। पद-पूर्ति के लिए इनमें कभी-कभी काव्य-चर्चा हो जाया करती थी।
अप्रकाशित ग्रंथों में ‘यतीरासा’ एवं ‘अभयभूषण’ ग्रंथों के नाम आते हैं।’यतीरासा’ के विषय में कहा जाता है कि एक बार बिड़दसिंह (किशनगढ़) ने काठियावाड़ में विवाह करने का विचार किया। उस समय वहां यतियों का पाखंड चरम सीमा पर था। यह देखकर बिड़दसिंह की रानियों ने इनसे ‘यतीरासा’ लिखवाया, जिसमें जैन-श्रावकों का भंडाफोड़ किया गया है। जाति-प्रथा की कठोर भर्त्सना करते हुए इसमें कवि ने वाह्याचारों की धज्जियां उड़ाई तथा स्त्रियों का अपहरण होना भी दिखाया। इस रासा का श्रवण कर महाराजा ने विवाह करने का विचार छोड़ दिया। इस ग्रंथ का समाचार जब एक यति के पास पहुंचा तब वह स्वयं इनके पास आया और इस निन्दनीय ग्रंथ का प्रचार न करने के लिए अनुरोध किया। इस पर इन्होंने सांत्वना देते हुए प्रतिज्ञा की कि इस ग्रंथ को प्रकाश में नहीं लाया जायगा। यही इसके प्रकाश में न आने का कारण है। सम्भव है, कवि ने इसे अपने हाथों सें नष्ट कर दिया हो और कोई दूसरा ‘यतीरासा’ बनाया हो।’अभयभूषण’ में अभयसिंहजी का जीवन-चरित्र वर्णित है। इन ग्रंथों के साथ कवि के स्फुट गीत प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हुए हैं किन्तु सैकडों अन्धकारमय हैं। कवि की महानता इस बात में देखने को मिलती है कि उसने डिंगल के साथ-साथ पिंगल में भी काव्य-रचना की है। इनके रचे कतिपय संस्कृत के श्लोकों को पढ़कर देववाणी के प्रति भी अटूट श्रद्धा का परिचय मिलता है।
४८. ब्रह्मदास:- ये बीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पोकरण के समीप ग्राम माड़वा के निवासी थे। इनके पिता का नाम जग्गा था जो इन्हें विसलदान (विष्णुदान) के नाम से सम्बोधित करते थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। इन्होंने अपने परिवार के प्रौढ़ व्यक्तियों से राजस्थानी काव्य, इतिहास एवं पौराणिक गाथाओं को सुन-सुन कर ही अपना ज्ञान बढ़ा लिया। इनके गुरु का नाम हरनाथजी था जिनके विचारों से प्रभावित होकर ये दादू-पन्थी साधु हो गये और अपना नाम बदलकर ब्रह्मदास रख लिया। गृहस्थ की ओर रुचि न होने से इन्होंने कोई विवाह नहीं किया और अपना अधिकांश समय आर्ष-ग्रंथों के श्रवण, हरिभजन एड अध्ययन में व्यतीत किया। इनके वंशज आज भी माड़वा में रहते है। कहना न होगा कि भगवद्-कृपा, गुरु-उपदेश एवं सत्संग से एक दिन विष्णुदान वस्तुत: ब्रह्म के दास बन गये।
ब्रह्मदास के समय में महाराजा विजयसिंह जोधपुर के राज्य-सिंहासन पर विराजमान थे। उस समय पोकरण के ठाकुर देवीसिंह अपनी वीरता, बुद्धिमत्ता एवं अनुभव के कारण अत्यंत लोकप्रिय थे। पारस्परिक फूट होने से विजयसिंह ने देवीसिंह का तीन अन्य सरदारों के साथ धोखे से किले पर पकड़वा कर वध करवा दिया (१७५९ ई.) जिससे राज्य भर के सरदारों में खलबली मच गई। सरदारों ने इस निर्मम हत्या का वृत्तान्त वृद्ध ब्रह्मदास से कह सुनाया। ब्रह्मदास साधु-हृदय होने के साथ-साथ निर्भीक एवं स्पष्ट वक्ता थे। इन्होंने महाराजा के सामने उपस्थित होकर एक उपालम्भ गीत सुनाया जिससे महाराजा अत्यंत क्रुद्ध हो गये। साधु एवं चारण होने के नाते इन्हें दण्डित तो नहीं किया गया किन्तु महाराजा ने इतना अवश्य कहा-‘साधु हो गये तो भी जाति-स्वभाव नहीं गया।’
ब्रह्मदास का लिखा हुआ ‘भगतमाळ’ राजस्थान का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें कवि ने भगवान के चरणों में समर्पित करने के लिए ६ मालाओं की सुनियोजना की है। यह ग्रंथ चारण कवि श्री उदयराज उज्ज्वल के सम्पादन में राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मंदिर, जोधपुर के द्वारा प्रकाशित हो चुका है (१९५९ ई.)
४९. सबळदान:- ये लाळस शाखा में उत्पन्न हुए थे और जोधपुर राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के गांव खनोडा के निवासी थे। महाराजा बखतसिंह इनके समकालीन थे। इनके पिता का देहान्त बाल्यावस्था में ही हो गया था। ये जन्म से ही मूक थे अत: इनका जीवन एक गूंगे तथा पागल व्यक्ति के समान व्यतीत होने लगा। कहते हैं, जंगल में गायें चराते समय एक साधु के पानी पिलाने से इनका गला खुल गया और इन्हें ज्ञान हो आया। ज्ञानावस्था में सबळदान काव्य-क्षेत्र की ओर प्रवृत हुए। पोकरण के ठाकुर देवीसिंह की इन पर विशेष कृपा थी। इन्होंने ‘झमाल ठाकुरां देवीसिंह पोकरण रा’ नामक एक रचना लिखी। इसके अतिरिक्त कतिपय फुटकर गीत भी मिलते हैं।
५०. नंदलाल:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम साकरडा के निवासी थे। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है।
५१. पीरा:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम लाखडथूम के निवासी थे। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है।
५२. बरजू बाई:- ये करणीदान कविया की सहोदरा थी। कई लोग इन्हें करणीदान की पत्नी और कई लड़की भी बता दिया करते हैं जो निश्चय ही अशुद्ध है। ये १७७० ई. तक जीवित थीं। इन्होंने अपने सहोदर के ग्रंथ ‘सूरजप्रकाश’ के संक्षिप्त रूप ‘विरद सिणगार’ को बनाने में सहायता की थी। एक बार जब इनके सहोदर पद्धरी छन्द के एक पद की बार-बार आवृत्ति कर रहे थे और उन्हें यह नहीं सूझ रहा था कि आगे इसकी पूर्ति कैसे की जाय? ‘लोहरां लंगरां झाट लाग।’ जब अभयसिंहजी सरबुलंदखां को जीतने के लिए सेना-सहित प्रयाण करने लगे तब का वर्णन था। उनका आशय था कि लोहे के लंगरों के झटकारे लगते हैं। बरजूबाई ने अपने सहोदर से पूछा-क्या पाठ हो रहा है? उन्होंने उत्तर दिया-पद-पूर्ति के लिए दूसरा पद सोच रहा हूँ। इस पर बरजूबाई ने कहा-इसमें विचार की क्या आवश्यकता? इस तरह कर दो–‘लोहरां लंगरां झाट लाग, अधफरां गिरवरां झड़े आग’, अर्थात लोह के लंगरों के झटकारे लगने से पहाड़ों के अधफरों में अग्नि झड़ती है।
बरजूबाई को अपनी कविता पर अभिमान था। इनके बनाये हुए छप्पय का अर्थ खोलना सहज नहीं था। जब ये करणीदान से अर्थ पूछतीं और वे असमर्थ रहते तब ये उन्हें कहा करतीं-लंगर खोल दो। इस प्रकार भाई-बहिन के बीच हास-परिहास चलता रहता था। बरजू बाई ने फुटकर काव्य-रचना की है।
५३. श्रीमती करणीदान:- यह कवयित्री करणीदान कविया की बड़ी पत्नी थी जो ‘टहले वाली’ के नाम से पुकारी जाती है। इसे काव्य-शास्त्र का अच्छा ज्ञान प्राप्त था। एक समय कविराजा को ससुराल जाते हुए बड़ली ठिकाने (अजमेर) के राठौड़ सरदार ठाकुर लालसिंह ने अपने यहां आमंत्रित किया और खूब आदर-सत्कार किया। ठाकुर साहब की वीरता का उस समय तक कोई परिचय नहीं मिला था इसलिए कविराजा ने उनकी प्रशंसा में कोई कविता नहीं कही परन्तु मृत्यु-शैय्या पर अपनी पत्नी से कहा कि ठाकुर का मुझ पर ॠण है। में उस पर कुछ लिख नहीं पाया। तब इस विदुषी ने उत्तर दिया कि मेरा विचार आपके साथ सती होने का था परन्तु अब में आपकी इच्छा को पूर्ण करूंगी। जब मरहठों से वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए लालसिंह का स्वर्गवास हो गया तब इस पतिव्रता नारी ने लालसिंह की स्त्री की ओर से गीतों की रचना करके उनका यश अमर कर दिया और इस प्रकार अपने स्वर्गीय पति की अभिलाषा भी पूरी की। टहलेवाली के लिखे हुए फुटकर छंद उपलब्ध होते हैं।
५४. देवा:- ये रोहडिया बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम जालीवाड़ा के निवासी थे। इनके पिता का नाम पातोजी था। कालान्तर में ये मारवाड़ से किशनगढ़ गये जहां इन्हें रारी गांव प्रदान किया गया। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।
५५. पोखरराम:- ये दधवाड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते है।
५६. सागरदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्य के निवासी थे। इनके समय में महाराजा सवाई माधवसिंहजी (प्रथम) सिंहासनारूढ़ थे। ये कवि होने के साथ एक वीर पुरुष भी थे। महाराजा ने इनको बहुत ही प्रतिष्ठा-सहित सेवापुर नामक गांव प्रदान किया (१७६४ ई.) । इनकी लिखी हुई फुटकर कविता उपलब्ध होती है।
५७. बद्रीदास:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मेवाड़ राज्य के निवासी थे। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है।
५८. कान्हा:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।
५९. जीवा:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मेवाड़ राज्य के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।
६०. शंकरदान:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम भदोरा के निवासी थे। इनके पिता का नाम प्रतापदान था। इनके लिखे हुए फुटकर गीत मिलते हैं।
६१. उदयराम:- ये रोहडिया बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शिव परगने के गांव गूंगा के निवासी थे। यह गांव इन्हें महाराजा मानसिंह ने दिया था। इनकी जन्म-तिथि उपलब्ध नहीं होती किन्तु अन्य साधनों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि ये १८वीं शताब्दी (उत्तरार्द्ध) में जीवित थे। इन्होने कच्छ-भुज के राजा भारमल तथा उसके पुत्र देसल (द्वितीय) की प्रशंसा अपने ग्रंथों में स्थान-स्थान पर की है। इससे पता चलता है कि ये उनके कृपा-पात्र थे और अपने जीवन का अधिकांश भाग वहीं व्यतीत किया था। इनकी अपने समय के विद्वानों में अच्छी प्रतिष्ठा थी। इसके अतिरिक्त विभिन्न विद्याओं में निपुण होने के कारण इनका राज-दरबारों में भी मान-सम्मान होता रहता था। इनका लिखा हुआ ‘कविकुलबोध’ नामक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ उपलब्ध होता है। इसकी प्रति श्री सीताराम लालस (जोधपुर) के पास है। इसके अतिरिक्त फुटकर गीत भी बताये जाते हैं।
६२. हुकमीचंद:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे। डॉ० मेनारिया ने इन्हें बनेडिया ग्राम (जयपुर) का निवासी माना है किन्तु चारण विद्वानों के अनुसार ये जैतारण परगने (मारवाड़) के गांव खराड़ी के रहने वाले थे। खराड़ी खिड़िया शाखा के चारणों का एक प्रसिद्ध स्थान है। आरम्भ में इन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया जिसमें इनकी रुचि उत्तरोत्तर बढ़ती गई। डिंगल पर तो इनका वंश-परम्परागत अधिकार था ही, अतः इन दोनों भाषाओं के ज्ञान को लेकर इन्होंने काव्य-रचना करना आरम्भ किया (१७६३ ई. के आसपास) । उल्लेखनीय है कि इन्होंने सर्वप्रथम संस्कृत शब्दों का प्रयोग डिंगल में किया और इसमें सफलता भी मिली। कालान्तर में ये जयपुर चले गये, जहां इनकी कवित्व-शक्ति से प्रभावित होकर महाराजा प्रतापसिंह (१७७८-१८०३ ई.) ने इन्हें राज्याश्रय प्रदान किया। यहां पर इन्होंने वीर-रस-प्रधान रचनायें लिखी जिनसे प्रसन्न होकर महाराजा ने बनेडिया गांव पुरस्कार में दिया। फिर तो ये इसी स्थान पर रहने लग गये।
हुकमीचन्द वीर-रस के गीतों के आचार्य माने जाते हैं–‘हुकमीचंद हालाडिया गरुड बचौ जिम गीत’ किन्तु इनके बनाये हुए अधिकांश गीत आज उपलब्ध नहीं होते। जिस प्रकार हिन्दी साहित्य में दोहों के साथ बिहारी एवं कुण्डलियों के साथ गिरधर का नाम जुड़ा हुआ है, उसी प्रकार राजस्थानी साहित्य में इनका नाम गीतों के साथ सम्बद्ध है। इनके नाम से स्फुट छप्पय भी उपलब्ध होते हैं।
६३. फतहराम:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मेवाड़ के निवासी थे। इन्होंने फुटकर गीत लिखे हैं।
६४. तेजराम:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम भदेसर के निवासी थे। इन्होंने फुटकर गीत लिखे हैं।
६५. वखतराम:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सम्भवत: मेवाड़ के निवासी थे। महाराणा भीमसिंह इनके समकालीन थे। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है।
६६. उम्मेदराम:- ये पाल्हावत शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७४३ ई.) और जयपुर राज्यान्तर्गत हणूंतिया ग्राम के निवासी थे। इनके पिता सामन्तजी इन्हें अल्प आयु में ही छोड़कर चल बसे, अत: पालन-पोषण दादा घासीराम द्वारा हुआ। जब ये १३-१४ वर्ष के थे तब अमीरखां नामक लुटेरा, जिसके वंशज टोंक के अधिपति हैं, इनके गांव को लूटने आया और लोग गांव छोड़कर भागने लगे। उनके देखा-देखी एक चमार की सहायता से ये भी अपने दादा को लेकर चले गये और लुटेरों के जाने पर गांव वालों के साथ लौट आये।
कहते हैं, एक दिन त्यौहार के अवसर पर घर में बर्तन न होने से उम्मेदराम की माँ ने पडौस से इनका प्रबन्ध किया और प्रेम से भोजन बनाकर खिलाने लगी। इतने में किसी कारणवश बर्तन वाले ने आकर कहा-सुनी की, जिससे इन्हें ग्लानि हो आई और इन्होंने घर त्यागकर एक वैष्णव मन्दिर (जयपुर) में आकर आश्रय लिया। यहां इन्होंने महन्त के किसी अधूरे ग्रंथ को पूरा किया। इसके पश्चात ये सामोद ठिकाने में पहुँचे जहां इनकी विद्या-बुद्धि पर प्रसन्न होकर रावल ने आर्थिक सहायता दी। इससे इन्होंने बर्तन खरीदे और अपने गांव जाकर मां को सौंपे। तत्पश्चात ये भाभरू एवं जवानपुरा के ठिकानों में रहे। जवानसिंह (जवानपुरा) जैसे कृपण ने भी इनकी विद्वत्ता पर प्रसन्न होकर ११०० बीघा भूमि का पट्टा एवं एक हाथी प्रदान किया। इन्हें महाराजा बख्तावरसिंह (अलवर) ने भी अपने पास रखकर मजीठ एवं माहद नामक गांवों से पुरस्कृत किया। महाराजा के कठिन कार्यों में सहायता पहुँचाकर इन्होंने उनकी सेवा की।
उम्मेदराम ने दो विवाह किए थे। इनके लड़के का नाम चांवंडदान था। इनका देहान्त सन् १८२१ ई. में हुआ। इन्होंने डिंगल-पिंगल, दोनों में काव्य-रचना की है। इनके बनाए हुए ९ ग्रंथों का पता चलता है- ‘वाणीभूषण’, ‘राजनीति-चाणक्य’, ‘रामचन्द्रजी की राजनीति’, ‘अवधपच्चीसी’, ‘मिथिला पच्चीसी’, ‘जनकशतक’, ‘बिहारी सतसई की टीका’, ‘कवि-प्रिया की टीका’ एवं ‘मरसिया बख्तावरसिंह जी।’
६७. तीरथराम:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के निवासी थे। ये महाराणा भीमसिंह के राज्याश्रित कवि थे। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें मिलती हैं।
६८. भक्तराम:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्य के निवासी थे। इनके पिता का नाम सागरदान था। ये अपने पिता के सदृश एक प्रतिभा-सम्पन्न कवि थे। एक समय महाराजा प्रतापसिंह ने राज्य-कर्मचारियों के बहकावे में आकर सेवापुरा ग्राम के आसामियों को दण्ड देने की आज्ञा प्रदान की। इस पर दुणीराव शम्भुसिंह ने इनके साथ जयपुर राज्य छोड़ने का दृढ़ संकल्प कर लिया। अन्त में महाराजा पुराने घाट में से दोनों को मना कर वापिस ले आये। इनकी लिखी हुई फुटकर कविता उपलब्ध होती है।
६९. देवा दधवाड़िया:- ये दधवाड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें मिलती हैं।
७०. भैंरूदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे ओर जयपुर राज्य के निवासी थे। ये सुजाणसिंह के प्रपौत्र थे और महाराजा मानसिंह प्रथम एवं प्रतापसिंह के समकालीन थे। इनकी गणना उत्तम श्रेणी के कवियों में की जाती है। किसी ग्रंथ का तो पता नहीं चलता लेकिन फुटकर कविता बहुत मिलती है।
७१. उम्मेदराम सांदू:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।
७२. बनाजी:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत कोटडी गांव के निवासी थे। इनकी स्फुट कवितायें उपलब्ध होती है।
७३. सहँसमल:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्यान्तर्गत ग्राम नगरी के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।
७४. रामदान:- ये लाळस शाखा में उत्पन्न हुए थे (१७६१ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ परगने के गांव जुड़िया के निवासी थे। इनके पिता का नाम फतहदान था जो अपने समय के एक प्रतिष्ठित कवि थे अत: इनकी शिक्षा-दीक्षा उन्हीं के संरक्षण में हुई। कालान्तर में पर्याप्त ज्ञानोपार्जन कर ये महाराणा भीमसिंह (उदयपुर) के पास चले गए और बहुत दिनों तक वहीं रहे। जब महाराजा मानसिंह जोधपुर की राज-गद्दी पर बैठे और उन्हें इस बात का पता चला तब इन्हें पत्र लिखकर अपने पास बुला लिया। उन्होंने इनकी कवित्व-शक्ति से प्रभावित होकर तोलेसर गांव पुरस्कार में दिया (१८०८ ई.) । आसपास के राज्यों में भी इनकी कविता का आदर हुआ। तत्कालीन बीकानेर-नरेश ने इन्हें अपने यहां आमंत्रित कर ‘करनीजी का रूपक’ नामक ग्रंथ बनवाया था।
रामदान एक साधारण प्रकृति के मनुष्य थे और बड़े ही मिलनसार तथा सरल स्वभाव के थे। कोई संतान न होने के कारण इन्होंने नाथूराम लाळस को गोद ले लिया जो एक उत्कृष्ट कवि एवं संस्कृत का विद्वान था। मानसिंह इन्हें बाबूजी कहकर पुकारते थे और इनकी प्रशंसा में छंद भी बनाया करते थे। इनका देहांत सन् १८२५ ई. में तोलेसर गांव में हूआ।
रामदान ने महाराणा भीमसिंह के नाम से ‘भीमप्रकाश’ नामक एक छंदोबद्ध डिंगलकाव्य लिखा। इसके अतिरिक्त इनके रचे हुए बहुत से फुटकर गीत भी उपलब्ध होते हैं।
७५. बक्सीराम:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और जोधपुर राज्यान्तर्गत ग्राम मथानिया के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।
परिशिष्ट
७६. नरहरिदास:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यान्तर्गत ग्राम पेसुआ के निवासी थे। इनकी स्फुट काव्य-रचना बताई जाती
७७. नरू:- ये सौदा बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६१९ ई. के आसपास) और मेवाड़ राज्यान्तर्गत हुरड़ा जिले के सेंणोंदा गांव के निवासी थे। इनके पिता-पितामह का नाम क्रमश: अमरा एवं राजवीर था। पिता चित्तौड में हणूंत पोल पर मुसलमानों से वीरतापूर्वक लड़ते हुए काम आए थे। ये महाराणा जगतसिंह प्रथम एवं राजसिंह के प्रतिष्ठित दरबारियों में से थे। इनकी गणना दूसरी श्रेणी के उमरावों में की जाती थी। राज्य की ओर से इन्हें पालकी, छड़ी, ताजीम और बैठक जैसे महत्वपूर्ण चिन्ह मिले हुए थे। इतना ही नहीं, महाराणा ने इन्हें अपना पोलपात्र भी नियुक्त किया था।
नरू स्वभाव के बड़े ही वीर एवं साहसी थे। एक बार महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब के नाम पत्र भेजकर जजिया कर का विरोध किया। इस पर बादशाह ने क्रुद्ध होकर शाहजादे आजम को गुजरात की ओर से आक्रमण करने की आज्ञा दी और स्वयं देवारी की पहाड़ी घाटी को रोक कर बैठ गया, इसीलिए कि महाराणा कहीं निकल न सके। यह देखकर नरू ने सब सुभटों को लड़ने भेज दिया और स्वयं राजप्रासाद के त्रिपोलिया पर हथिनी पर सवार हो तलवार लेकर बैठ गए। जब रुहिल्लाखां सरदार वहाँ पहुँचा तब वीरतापूर्वक लड़ते-लड़ते काम आये (१६८० ई.) । त्रिपोलिया और बड़ी पोल के बीच उनका बलिदान हुआ। जहाँ उनका सिर कटकर गिरा वहाँ आज भी एक छोटा-सा चबूतरा है, जिसे ‘बारहठजी का सिर वाला चबूतरा’ कहते हैं। सिर कटने के पश्चात् इनका कबंध वीरता से मुसलमानों पर तलवारें चलाता और उनको काटता हुआ लगभग तीन सौ कदम आगे बढ़ा और दाणेराय के मंदिर के उत्तरी द्वार पर आकर धराशायी हो गया। जहां कबंध गिरा वहां भी एक चबूतरे पर इनकी समाधि बनी हुई है। इस प्रकार लगभग ६० वर्ष तक जीवित रहकर इन्होंने अपने आश्रयदाता की सेवा की। इनके लिखे हुए स्फुट छंद बताए जाते हैं।
७८. ईश्वरदास:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर से १४ मील दूर ‘हरगुण का नांगल’ गांव के निवासी थे। इनके पिता का नाम हिंगोल था। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
७९. जयमल:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत जैतारन परगने के ग्राम देवरिया के निवासी थे। इनके फुटकर गीत बताए जाते हैं।
८०. परमानन्द:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए थे और बीकानेर राज्य के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत बताए जाते हैं।
८१. उदयभाण:- ये सौदा बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम सोन्याणा के निवासी थे। इन्हें महाराणा राजसिंह (प्रथम) की ओर से ताजीम मिली हुई थी। इनके लिखे हुए फुटकर छंद बताए जाते हैं।
८२. राजसिंह:- ये वीठू बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पीपाड़ के समीप जाळीवाड़ा ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम पताजी था। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
८३. भीखसी:- ये लाळस शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत जुडिया ग्राम के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हें।
८४. जगन्नाथ:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम भदोरा के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
८५. केशोदास:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मिर्जा राजा श्री जयसिंह के समय में आमेर आये थे। इनके पितामह का नाम गंगादास कुम्हारिया था। महाराजा ने इन्हें दरबार में कुर्सी प्रदान की थी। इनकी कविता अप्राप्य है।
८६. तेजा:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम कंवळिया (मेड़ता) के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
८७. द्वारिकादास:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम भांडियावास (पचपदरा) के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
८८. बलू:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
८९. अनोपसिंह:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
९०. रामदयाल:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे और’ जयपुर राज्यान्तर्गत हरमाड़ा गांव के निवासी थे। जयपुर-नरेश महाराजा रामसिंह के आप मुख्य सभासदों में से थे। महाराजा इनकी बड़ी प्रतिष्ठा करते थे इसलिए ये प्राय: उनके पास ही रहते थे। इनके लिखे फुटकर छंद बताए जाते हैं।
९१. बख्तावरदान:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत मेड़ता परगने के गांव कंवळिया के निवासी थे। महाराजा अभयसिंह इनके समकालीन थे। इनके लिखे हुए जगदम्बा के गीत बताए जाते हैं।
९२. भोजराज:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ के निवासी थे। इन पर वीर दुर्गादास की कृपा थी। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
९३. तेजसिंह:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे (१६७९ ई.) और मारवाड़ राज्यान्तर्गत टहला गांव के निवासी थे। इनके पिता का नाम अजबसिंह था। ये भक्त कवि नरहरिदास के पोते थे और उनके सदृश सदैव हरि-भक्ति में लीन रहते थे। संसार उनके लिए निस्सार था अत: भौतिक बंधन में न पड़कर ईश्वर के गुणगान में ही अपना अधिकांश समय व्यतीत करते थे। साथ ही ये बड़े हठी और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। वस्तुत: इनका स्वभाव सांसारिक व्यक्तियों से भिन्न था। इनका देहांत सन् १७४३ ई. में अपने गांव में हो हुआ था। इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि जब बषतसिंह ने अपने पिता अजीतसिंह को मार डाला तब उन्हें कोढ़ हो गया। प्रजा ने उन्हें सलाह दी कि किसी बारहठ से मिलने पर यह झड़ जायगा। जब यह बात इनको कही गई तब इन्होंने कहा कि हे भगवन् जिसने अपने पिता को मारा है, उसका मुंह मुझे क्यों बताते हो? कहते हैं, मिलने से पूर्व ही ये चल बसे।
तेजसिंह भक्ति-विषयक छंदों की सृष्टि किया करते थे। इनके लिखे हुए दो ग्रंथ बताए जाते हैं-‘मुक्तिप्रकास’ एवं ‘भगवद्गीता का भाषानुवाद।’
९४. ईश्वरदास भादा:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम सरवाणिया के निवासी थे। महाराणा जगतसिंह इनके समकालीन थे। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
९५. देवीदान:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे और जयपुर राज्य के निवासी थे। महाराणा जयसिंह इनके समकालीन थे। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
९६. सुखजी:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पांचेटिया गांव के निवासी थे। इनके लिखे फुटकर छंद बताए जाते हैं।
९७. शम्भुदान:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यान्तर्गत खाण गांव के निवासी थे। ये श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते तथा सच्चे साधु-सन्तों की सेवा किया करते थे। इन्होंने स्वामी नारायण सम्प्रदाय में श्री रामानन्द स्वामी से दीक्षा ग्रहण की। इनकी स्त्री लालवा देवी भी भगवान के गुणानुवाद में समान रूप से भाग लेती थी। ईश्वरीय अनुकम्पा से उसकी कुक्ष से एक श्रेष्ठ भक्तकवि ब्रह्मानन्द उत्पन्न हुआ जिसने अपनी परिपक्व अवस्था में अपार यश प्राप्त किया। शम्भुदान की कविता अप्राप्य है।
९८. पूरण:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत खाण गांव के निवासी थे। इनका रचना-काल १७४५ ई. माना गया है। इन्होंने ७३ पृष्ठ में ‘गुनचंपावती विलास’ नामक रचना लिखी है जो अपूर्ण है
९९. दयाराम:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत देसूरी परगने के गांव घाणेराव के निवासी थे। वहाँ के ठाकुर पद्मसिंह राठौड़ की इन पर बड़ी कृपा थी अत: ये उन्हीं के पास रहते थे। जब उदयपुर के महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) ने पद्मसिंह पर सेना भेजी और उदयपुर स्थित उनके निवास-स्थान को घेर लिया तब दयाराम भी अपने स्वामी के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इनके स्फुट गीत बताए जाते हैं।
१००. पीथा:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम भदोरा के निवासी थे। महाराजा बहादुरसिंह (किशनगढ़) इनके समकालीन थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
१०१. फतहसिंह:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और किशनगढ़ राज्यान्तर्गत गोदियाणा गांव के निवासी थे। महाराजा बहादुरसिंह इनके समकालीन थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
१०२. रोड़जी:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे और किशनगढ़ राज्यान्तर्गत गोदियाणा गांव के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती है।
१०३. सुंदरदास:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और किशनगढ़ राज्यान्तर्गत गोदियाणा गांव के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
१०४. देवीसिंह:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे और किशनगढ़ राज्यान्तर्गत गोदियाणा गांव के निवासी थे। इनकी भी फूटकर रचनायें बताई जाती है।
१०५. फतहसिंह आसिया:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत पचपदरा परगने के भाड़ियावास गांव के निवासी थे। इनकी फुटकर रचनायें बताई जाती हैं।
१०६. लभजी:- ये पातावत बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत परबतसर परगने के ग्राम बीठवासिया के निवासी थे। महाराजा बखतसिंह इनके समकालीन थे। एक बार ये युद्ध से भागकर जंगल में छिप गए अत: इनको जीवन भर लज्जित होना पड़ा। जब महाराजा भीम सिंह ने चारणों पर चार लाख का जुर्माना कर दिया और पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह को इस रकम की वसूली के लिए नियुक्त किया तब ठाकुर साहब ने सब चारणों को कहला दिया कि जब तक मैं उक्त रकम की वसूली न कर दूं तब तक कोई भी चारण मिलने का कष्ट न करे। ऐसी परिस्थिति में इन्होंने बड़ी कठिनाई से पानी की झारी पहुँचाने वाले का वेष बनाकर चंदावल ठाकुर को साथ लिया और सवाईसिंह के यहां पहुँचे। सवाईसिंह ने इनको पहिचान लिया। इन्होंने एक गीत सुनाया जिससे प्रसन्न होकर सवाईसिंह ने उक्त रकम अपने खजाने से भिजवा दी। इनके गीत अप्राप्य हैं।
१०७. फतौ:- ये महडू शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१०८. पूरजी:- ये भादा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्य के निवासी थे। इनके लिखे फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१०९. मेघराज:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
११०. अभयराम:- ये महियारिया शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१११. दयालदास:- आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत ग्राम पांचेटिया के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
११२. हीमतो:- ये आढ़ा शाखा में उत्पन्न हुए थे और सिरोही राज्यान्तर्गत ग्राम पेशवा के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
११३. देवीदान लाळस:- ये लाळस शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्य के जुडिया ग्राम के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
११४. महादान:- में मेहड़ू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मेवाड़ राज्यान्तर्गत सरसिया गांव के निवासी थे। इनके लिखे हुए तीन ग्रंथ कहे जाते हैं-‘छंद जलन्धरनाथजी’, ‘गीतारा’ एवं ‘गीत महाराजा मानसिंह’ (१७७८ ई.) ।
११५. सूरतदान:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत घड़ोई गांव के रहने वाले थे। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा चारण जाति के प्रमुख ज्ञान-केन्द्र कच्छभुज की पाठशाला में ग्रहण की। ये राजकोट नरेश के पूर्ण कृपापात्र थे। उनकी आज्ञा से इन्होंने ‘प्रवीण-सागर’ नामक ग्रंथ बनाया (१७८२ ई.) जो राजस्थानी साहित्य का एक उत्तम ग्रंथ माना जाता है। यह अप्राप्य है।
११६. वदनसिंह:- ये मिश्रण शाखा में उत्पन्न हुए थे और बूंदी राज्यान्तर्गत हरणा ग्राम के निवासी थे। इनके पिता-पितामह का नाम क्रमश: चतुर्भुज एवं कवलराय था। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता से ग्रहण की। ये डिंगल-पिंगल दोनों में काव्य-रचना करते थे। ये महाराव विष्णुसिंह के समकालीन थे, जिनकी इन पर विशेष कृपा थी। इनकी कवित्व-शक्ति से प्रसन्न होकर महाराव ने कविराजा का उपटंक, लाखपसाव एवं रोसूंदा नामक गांव प्रदान किया (१७९८ ई.) ।
वदनसिंह बड़े वीर एवं नीतिज्ञ थे। इनका चरित्र अनुकरणीय था। इनके दो पुत्र हुए, जिनमें से एक का देहावसान तो अल्प समय में ही हो गया और दूसरे चंडीदान आगे चलकर एक प्रसिद्ध कवि हुए। इनकी लिखी हुई चार रचनायें उपलब्ध होती है–‘हुलकरपच्चीसी’, ‘जसगुलजार, ‘ ‘तीजतरंग’, एवं ‘विरदप्रकाश’। इनके अतिरिक्त फुटकर गीत भी कहे जाते हैं।
११७. शिवदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के ग्राम बिराई के निवासी थे। इनके पिता का नाम सबलजी था। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
११८. रामचंद:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के ग्राम बिराई के निवासी थे। शिवदान-इनके समकालीन थे। इनके भी लिखे फुटकर गीत कहे जाते हैं।
११९. रतनसी:- ये देदावत शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१२०. नाथा:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए थे और मारवाड़ राज्यान्तर्गत देसूरी परगने के ग्राम टोकरडास के निवासी थे। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१२१. मोको:- ये दधवाड़िया शाखा में उत्पन्न हुए थे। ये मेवाड़ राज्य के निवासी थे किन्तु निश्चित स्थान का पता नहीं लगता। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१२२. धर्मदास:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे और जैसलमेर के निवासी थे। इन्हें जैसलमेर के कविराजा होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और काव्य-रचना के उपलक्ष में सिवाना परगने के अन्तर्गत धर्मसर गांव पुरस्कार में भी मिला था। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१२३. रतनो:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१२४. झांझन:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे हुए फुटकर गीत कहे जाते हैं।
१२५. तेजो:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान अज्ञात है। इनके लिखे फुटकर गीत कहे जाते हैं।
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