चारण साहित्य का इतिहास – छटा अध्याय – आधुनिक काल (प्रथम उत्थान) – [Part-B]

(ख) आलोचना खण्ड : पद्य साहित्य

१. प्रशंसात्मक काव्य (सर):- आलोच्य काल में प्रशंसात्मक काव्य को (सर) कहा जाने लगा। ‘सर’ आदर-सूचक अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है- ‘श्रीमान’। इसका प्रचलन पाश्चात्य शिक्षा के कारण हुआ। इसके रचयिताओं ने विशिष्ट राजाओं, जागीरदारों एवं महापुरुषों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। राजाओं एवं जागीरदारों के विषय में जहां एक ओर वीरता, दानशीलता, कृतज्ञता, तेजस्विता एवं प्रभुता के दृष्टान्त मिलते हैं वहां दूसरी ओर व्यक्तिगत स्वार्थ-भावना के वशीभूत होकर भी छंद-रचना की गई है। इसके अतिरिक्त कुछ कवि ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने अपने गुरुजनों के श्रीचरणों में नत मस्तक होकर काव्य का उपहार समर्पित किया है।

वीरता का गान करने वाले कवियों में वांकीदास, महादान, आवड़दान, मानजी, चंडीदान, रायसिंह, बुधसिंह एवं चिमनदान का प्रमुख स्थान है। वांकीदास कृत ‘सुपह छत्तीसी’, ‘भुरजाल भूषण’, ‘जेहल जस जड़ाव’, ‘सिद्धराव छत्तीसी’, ‘मान जसो मंडन’ एवं ‘श्री दरबार रा कवित्त’ नामक रचनायें प्रशंसात्मक हैं किन्तु इनमें कवि का ध्यान व्यष्टि की ओर कम तथा समष्टि की ओर अधिक है। इतना होते हुए भी कहीं-कहीं वह परोक्ष रूप से व्यक्तिगत प्रशंसा करने लग जाता है। मारवाड़ के महाराजा जसवन्तसिंह (प्रथम) की प्रशंसा में कवि ने कहा है-

जितै जसो पह जीवियो, थिर रहिया सुरथांण।
आंगल ही अवरंग सूं, पड़ियो नह पाखांण।।

इसी प्रकार राव राठौड़ अमरसिंह (नागोर) के लिए-

हणियौ तै जम दाढ हथ, रोद सलाबत रेस।
साहजहां रो सोंकियो, अंबखास अमरेस।।

महादान ने सुल्तानसिंह (नीमाज) , मानसिंह (जोधपुर) एवं भीमसिंह (उदयपुर) की वीरता पर अनेक छंद लिखे हैं। लालसिंह (बड़ली) के लिए-

वांका आखर बोलतो, चलतो वांकी चाल।
झड़िया वांकी षाग झटा लड़ियो बांको लाल।।
यो कहतो लालो अषर, दूलावत डाढाल।
जीवत गढ़ सूंपे जिका, गढपतियां ने गाल।।
मिले बिळाला भिजलसां, गढपत झालां गोड।
दूलावत अमलां नणा, रंग लाला राठौड़।।

आवड़ ने जोगीदास (मारवाड़) की वीरता का वर्णन इस गीत में किया है—

फौजा घेरियो गढ आंण फलोदी बीरत षाग बजावे।
छत्तपत्तां रिणमाळां छोगो, जोजो भाग न जावे।।
रावळ साथ कटक रा जोरां, टूका दळ रजधांणी।
पाखरियां नाहर गढ पैठां, मार हथो मुक नाणी।।
झाटक कोट हुवा जूंझावो, रथ भाराथ रूचाळो।
पडियां सीस पछै पालट सी, अनड़ फलांदी वाळो।।

मानजी ने कुंवारी कन्याओं के द्वारा भवानी की स्तुति के रूप में महाराजा मानसिंह की वीरता का प्रभाव इस गीत में व्यक्त किया है-

पूजन कर गवर तणां पग पूजै, जग अरियां सह धिया जपै।
जां सिर बैर मन ऊछजियो, ओ गिरजा मत पिया अपै।।
सगती बचन सचा सुण लीजै, अरज मनीजै गवर इती।
खल ज्यां शीश विजाहर षीजै, बर मां दीजै बीस हथी।।
झाट षगां जिण सूं कुण झालै, दुयण उघालै गवण दहै।
सुत गुमनेस जिकां उर सालै, किम हालै घर वास कहै।।
चौकस आस किसी चुड़ला री, कहो री अबै सुहाग किसो।
देबी इसो भरतार न दै री, जिण सिर बैरी मान जिसो।।

महाराणा भीमसिंह (उदयपुर) की वीरता के लिए मानजी का कथन है-

रसियो तल लाडो रहै, है आडो हिंदवांण।
जाडो थट जोधाहरो, जुध गाडो जमरांण।।
जुथ गाडो जमरांण, छवीलो छत्रपति।
जलहळ भूखण जोख, भाग भळहळ रती।।
चन्दा बदन निहार दसू दिसियां चहै।
रसियो राणे राव, हिये वसियौ रहै।।

चंडीदान ने महाराजा बलवन्तसिंह, गोठड़ा (बूंदी) की वीरता के लिए ये सोरठे लिखे हैं-

पढियौ तुरकां पीर, देव कळा जिम हिन्दवां।
बळवंत जेहा वीर, हुवा न कोई होवसी।।
लोहां बळ हट लाग, पग २ दोयण पाड़िया।
अंगरेजां उर आग, बाळी भली बळूंत सी।।

रायसिंह ने सलूंबर (मेवाड़) ठिकाने के रावत केसरीसिंह की वीरता का वर्णन इस दोहे में किया है-

जे केहर नह जनमतो सुरियंद पदम सुजाव।
पकड़े हाथ पराणियां, हळ हाकत उमराव।।

बुधसिंह ने गीत ‘नरसिंहगढ़ महाराजा हणवन्तसिंहजी रो’ में अपने आश्रयदाता की प्रशंसा करते हुए लिखा है-

नर नाहर सोभाग नृप, तवा अचळ वड तोल।
राजै जिण गादी रिधू हणवंत गुणां-हरोळ।।

इसी प्रकार-

डंड अडंडा नित दियण, खंडण खळां खतंग।
मंडण कुळ हणवंतसी, सुभटां लियां सुचंग।।

चिमनदान कृत ‘जसवंत-पिंगल ‘, ‘ प्रागराव रूपक ‘, ‘लिछमण-विलास’ एवं ‘श्री रामदे-चरित’ नामक काव्य-ग्रंथ प्रशंसात्मक है। यद्यपि पहला ग्रंथ छंद-शास्त्र का है तथापि इसमें जोधपुर-नरेश जसवंतसिंह (द्वितीय) की प्रशंसा के पुट दिये गये हैं। महाराजा की वीरता के लिए कवि का कथन है-

जसवंत बळवंत, गुणवंत महाराज।
वर वीर मन धीर कंठीर सिरताज।
कुळ लाज भुज आज कवराज दुखकाप।
इळ सज्ज वडलज्ज कमधज्ज धिन आप।।

भोपालदान, किसना, तेजराम, चिमनदान एवं लक्ष्मीदान ने दानशीलता का वर्णन किया है। सीसोदा गांव से पुरस्कृत किये जाने पर किसना ने महाराणा भीमसिंह (उदयपुर) की प्रशंसा में जो गीत लिखा, वह इस प्रकार है-

कीजै कुण-मीढ न पूजै कोई, धरपत झूठी ठसक धरै।
तो जिम ‘भीम’ दिये तांबा पत्र, कवां अजाची भल करै।।
षटके अदत खजांना पेट, देतां बेटां पटा दिये।
सीसोदौ सांसण सीसोदा, थारा हाथां मौज थिये।।
मन महारांण धनौ मेवाड़ा, दाखै धाड़ा दसूं दसा।
राजा अन बाँधे रजवाड़ा, तूं गढवाड़ा दिये तसा।।
अधपत तनै दिया रौ अंजस, लोभी अंजस लियारौ।
भांणै साच जणायौ ‘भीमा’, हाथां हेत हिया रौ।।

भोपालदान के इस दोहे में महाराजा मानसिंह (मारवाड़) की दानवीरता है-

करी हमाली कौल, कासीदी, बावन करी।
तें मांना नभ तोल, ब्रवी जिका धर वीदगो।।

तेजराम ने महाराणा जवानसिंह (उदयपुर) की दानवीरता के लिए यह गीत लिखा है–

चोड़ा उराटां नराटां जे भुरज्जा तोड़ा धकै चाढ, नाळी जंत्र जोड़ दो-क-तसाळां नवांन।
राखवा भुमत्थां कत्थां गुणां जोड़ा हूंत रीजे, जोड़ा भांण रत्था घोड़ा समापै जवांन।।
अयाळां सलंबी काच हुलबी को माच अंगा, लंबी धावा धार अंबी ऊपरा लेबाह।
प्रलंबी तराजां झंबी झांप लेता दीधा पातां, बाजा हेम साजा कीधा झलंबी वेबाह।।

बिलाड़ा के उदार, गुणग्राही एवं साहित्य-प्रेमी अधिपति लक्ष्मणसिंह दीवान (मारवाड़) से एक सुन्दर घोड़ी एवं स्वर्ण के कडे मिलने पर चिमनदान ने चुटकी लेते हुए लिखा है-

उर चौड़ी दौड़ी उड़ै, डीघोड़ी मृगडांण।
गज मोड़ी तोड़ी गढ़ां, दी घोड़ी दीवांण।।
मासे में हाथी मढ़ै, ज्यैरी पड़ै न जांण।
कारीगर उणरा किया, दिया कडा दीवांण।।

लक्ष्मीदान ने मारवाड़ राज्यान्तर्गत शेरगढ़ परगने के लोड़ते ग्रामवासी भाटी गुलसिंह के लिए कहा है-

तन मन हेतू ताकवों, गायक सुजस गुलाह।
तोने रंग भीमै तणा, खटरित गेह खुलाह।।

वीर दाता के रूप में चिर प्रख्यात है। अत: कहीं-कहीं वीरता एवं दानशीलता की प्रशंसा एक साथ देखने को मिलती है, जैसे वाँकीदास, रायसिंह, तेजराम एवं चिमनदान के फुटकर छन्दों में। बाल्यकाल में रायपुर ठाकुर राठौड़ अर्जुनसिंह (मारवाड़) ने वांकीदास के लिए शिक्षा एवं निवास स्थान का समुचित प्रबन्ध किया था। इन उपकारों से प्रभावित होकर कविराजा ने यह दोहा कहा है-

रवि रथ चक्र गणेश रद, नाक अलंकृत नार।
यूं हिज हक इळ पर अजो, दीपै सूर दतार।।

रायसिंह ने मूंडेटी (ईडर) के ठाकुर सूरजमल चौहान के लिए कहा है-

अरक कहै सांभळ उरण, हाकल खड़े व्रहास।
समपे देसी सूजड़ो, छोड़े रथ सपतास।।

तेजराम का महाराणा जवानसिंह (उदयपुर) वीर है और दानी भी-

राती चखां अमेळो जंगाळी चडां छाती रोप, साथं जियां सुमेळो बधावै हेकै साथ।
सूना बैर जगातो बेरियाँ हूँ न करै जाती, ना करै बंदगी जाती भूरो प्रथीनाथ।
जाङै भाग भीमाणी प्रत्प्पो दळां-जाड़ी-जोड़, लखां बीजा अणी पांणी सौ भाग लैसोत।
प्रथीनाथ थारा बेहूँ ऊधरां सभावां परां, दुजाला वार रा वांरू आजरा देसोत।।

इसी प्रकार चिमनदान कृत ‘जसवंत-पिंगल’ नामक ग्रंथ में जोधपुर-नरेश जसवंतसिंह (द्वितीय) के लिए कहा गया है-

तखतेस नंद क्रोधार तेम, जुधवार भद्र वीरांण जेम।
जसवंत सींह प्रथमाद जीप, दुनियंद वंस दातार दीप।।

कृतज्ञता के उदाहरण वांकीदास एवं रामनाथ नामक कवियों में देखने को मिलते हैं। जब बड़े होने पर वाँकीदास को यथेष्ट कीर्ति प्राप्त हुई तब एक दिन वे महाराजा मानसिंह के साथ हाथी पर चढ़े हुए कहीं जा रहे थे। इतने में अर्जुनसिंह मिल गये। उन्होंने कविराजा से पूछा कि आपको पुराने प्रसंग की याद है या नहीं। इस पर कवि ने कहा-

माळी ग्रीखम मांय, पोख सुजळ द्रुम पाळियो।
जिण-रो जस किम जाय, अत घण ____ ही अजा।।

बंदीगृह से मुक्ति दिलाकर पुन: अपना गाँव दिलाने वाली शाहपुराधीश की बहिन एवं अलवरेन्द्र की माताश्री रूपकुँवरजी के प्रति आभार प्रदर्शित करते हुए रामनाथ का यह सोरठा-दोहा उल्लेखनीय है-

तैं आया नभ तोल, कवी जँजीरां काढियो।
मोनै लीधो मोल, शाहपुरै शीशोदियै।।
रूपकँवरि निज रीझ रो, अचरज कासूं आण।
शाहपुरौ पीहर सरस, नान्हाणा वीकाण।।

भोमा ने बीकानेर-नरेश रतनसिंह की तेजस्विता का वर्णन इन शब्दों मे किया है-

सधर रतन इळ सोहियो, कमंधा पत बीकाण।
तै पाट प्रतपै रतन सा, भूपतियां वंस भाण।।
ऐवासां नरपत अरस, रहत सलूणै रंग।
त्रेता सतजुग ने कहै, विध किण आ वीरंग।।

राजा-महाराजाओं की प्रभुता का वर्णन करने वाले कवियों में रामदान, नाहर एवं चिमनदान के नाम उल्लेखनीय हैं। रामदान ने गणगौर के शुभ दिवस पर महाराणा भीमसिंह (उदयपुर) के राजसी ठाट-बाट का वर्णन इन शब्दों में किया है-

असंक सेन आरम्भ बोल नकीब बळौबळ।
गहर थाट गैमरां चपळ हैमरां चळो बळ।।
भाळ तेज भळहळै ढळै बिहुँवै पख चम्मर।
दिन दूलह दीवाण ए चढ़ियौ छक ऊपर।।
तिण वार आप दरियाव तट विडग छंडि जगपति बियौ।
दीवाण भीम गणगौर दिन एम रांण आरम्भियौ।।

बुधसिंह कृत जसवन्तसिंह (जोधपुर) के विवाहोत्सव के उपलक्ष में लिखा यह गीत देखिये-

इसो करतां विवाह आब घराणे चढ़ाय ऊभो,
दांन लखां देर ऊभो कविदां दीवाँण।
भांमी-करां अगंजीत कीरती कहाड़ ऊभो,
माठों मांण गाळ ऊभो बिजाई खूंमाण।
आंटीला देसोत छोलां इन्द्र वाळी देर ऊभो,
लाखां मुखां प्रभा लेर ऊभो गुणाँ लोड।
आकारीठ सोभाग सुजाब माठी वेर ऊभो,
वाढ खेर ऊभो पातां दळद्रो वितोड़।
उजाळा वंसरी रीझां ताकवां समाप ऊभो,
गाल ऊभो अदत्तारों सान गाढ़ेंराव।
अनमी ऊमटो-नाथ नीर पखां चाढ ऊभो,
महावीर लाखों दांन दे ऊभो अमाव।
आचार जीतरा खत्री ढोलड़ा वजाय ऊभो,
करै ऊभो अखी वसू ढोलड़ा कंठीर।
अचळेस-हरा रोर रूप मनो तोड़ ऊभो,
हणुतेस झोका-झोका झोका हेळांरा हमीर।।

नाहर ने दूणी राव लक्ष्मणसिंह (जयपुर) के घोड़े के विषय में निम्न गीत लिखा है-

महाबाह कछवाह तप अधिक आपै मरद, अश्व अणथाह वपु बळ अरोड़ो।
सम बड़ाँ भाल रो तिलक जीवे सरो, घणै छक बालरो तिलक घोड़ो।।
राव क्रामत अघट प्रकट लीधां रती, सोह उळट पळट सुघर साजाँ।
पुहिमि सबळाँ मुकट पाट दूणीं पती, बणैं असि मुकट घट सिरे बाजा।।
सपूताचार लखि लहै आणंद सयण, करै बहु छन्द मग गहै कुरगाँ।
हजारां भडां तुर रो फबै चंदहर, तुरंग तुररा फबै भुयण तुरगां।।
ढाल ढूंढाड़ पिसणाँ घड़ा ढाहणो, साहणो झंप गज धजाँ साजी।
राम सिय कृपा जुग कोड़ कायम रहो, तरण कुळ लछो दल रूप ताजी।।

चिमनदान कृत ‘प्राग राव रूपक’ में भुज नरेश राम देशलजी के पुत्र प्रागराव का यह वर्णन आकर्षक है-

गाढ़ा गढ़ काठ बुरज गज गीरिय, कांठळ सोव्रन महल कळा।
झगमग नग हीर झरोखाँ झंखत, पखालं थंमा प्रथळा।।
अधकर असमांन कंगोरां ओपम, जांण श्रृंग गिरमेर जिसो।
रूपग चित भाव चाव राजेसुर, आज प्राग महाराव इसो।।
जाजम पचरंग रंगबहु जाझिय, सेत चांनणी जेथ सदा।
राजत जिण सीस दलीचा रेसम, मिसरू तकिया है उमदा।।
सुरियंद पौसाख सुहै इम सोभा, जांणक आफू खेत जिसो।
रूपग चित भाव चाव राजेसुर, आज प्राग महाराव इसो।।
केसरं छिड़काव अंतर हुय कादव, जांणक भादव मास जळं।
जातां जुग क्रीत कबू नह जावै, पावै मत पातां प्रघळ प्रघळ।।
हूकळ रंग राग रंभ नाटक हुय, जांण तखत है इन्द्र जिसो।
रूपग चित भाव चाव राजेसुर, आज प्राग महाराव इसो।।

चिमनदान कृत ‘लिछमण-विलास’ में राजा लक्ष्मणसिंह दीवान (मारवाड़) का यह प्रभाव अतिरंजनापूर्ण होते हुए भी आकर्षक है-

पूजत जोधांण उदैपुर पूजत, पूजत धर जेसाँण परा।
पूजत जयनगर अजैपुर पूजत, नरपत पूजत सोय नरा।।
पूजत बीकांण जांण वावलपुर, पांण कळा सगती प्रगटै।
लिछमण दीवांण राण बीलाड़ै, रंग सुजस दुनियाँण रटै।।

सायबदान, इन्दा एवं रिवदान का सर-काव्य दूसरे ढंग का है। इन कवियों ने कविता के माध्यम से अपने लक्ष्य तक पहुंचने का प्रयत्न किया है। यथा गंभीरसिंह (ईडर) से कोई पुरस्कार न मिलने पर सायबदान की यह उक्ति देखिये–

मैं जग दातार जांण कवत तीन सै बणाया।
सुण रूपग हेत सूं फेर महाराज फरमाया।।
मैं तूठा तो शीश झूठ इण में मत जाणै।
माजां झड़मांडसां कड़ा मोती केकांणै।।
आपसा एक सासण अवल, दूनी सरब कहसी दियो।
नर अवर कूप जांचूं नहीं, भूप मोहा देधि भेटियो।।

और भी-

दिल धरियो विसवास करि सेवा त्रण वरसां।
पारस ने परहरे अवर पाखांण न परसा।।
माळी घड़ा हजार सदा सींचे जिम जाणै।
रूत आया फळ होय सुबा अगलो ऊषाणै ।।
ज्यू जाण करि सेवा अठे, मम उणत अजहू न मरी।
तुम दोष नहीं अण देस तणा, नहचै वात नसीब री।

अपने पूर्वजों के हाथ से बासनी गांव निकल जाने पर इन्दा ने महाराजा मानसिंह को जो कविताबद्ध प्रार्थना-पत्र दिया, उसका नमूना इस प्रकार है–

बतन आद ईहगां बड़ी मरजाद बतावे।
साख एक सांवणू एक सौ रूपिया आवे।।
खून अमे खालसै किणी कारण कर दीवी।
समय आप मुस्सद्दियां दाय आयां लिख दीवी।।
थेट री हुती सांसण थकां, अवर के पटे उदासणी।
महाराज मान दीजै मने, बिजमल बीजा बासणी।।

अपने भाइयों के द्वारा सताये जाने पर रिवदान गीत के रूप में एक प्रार्थना-पत्र लेकर मानसिंह की शरण में पहुंचे और उनसे न्याय की याचना की–

अस अप्रबळ भवस कळपतर आयरा, जीवन गयो समेत जड़।
उडिया अनड़ पंख ज्यूं ईहग, विन कज सेवन किया वड़।।
गढ़पत हूँ संपात तणीगत, पावां आयो जगत पत।
हर माहेस तणा कब हंसा, मानसरोवर ढेल मत।।
पारस राकां गयो पला सूं, केहर हर जस वास कर।
जगपत अमां न टावै तूं जद, धर पर दूजी किसी धर।।
चीलां गुण न तजे द्रुम चंदण, माछां गुण ना तजे महण।
मोटा धणी अबे तो मांना, पर पाळे बड़ा पण।।
आषां काट गयो पत पीरां, आंषा मन लो ईसवर।
तू ले ठीक न लेही तारग, षेड़ेचा म्हारी षबर।।

ब्रह्मानन्द ने अपने गुरु के प्रति आभार प्रदर्शित किया है। स्वामी सहजानन्द से प्रथम बार भेंट होने पर ब्रह्मानन्द का यह आंतरिक आनन्द, उत्साह एवं उमंग दृष्टव्य है-

आज नी घड़ी रे, धन्य आज नी घड़ी, मैं निरख्या सहजानन्द, धन्य आज नी घड़ी।।टेक।।
काम क्रोध ने लोभ विषे, रस न सके नड़ी, भाव जीती मूर्तीपाटा, हृदय मां खड़ी रे।
जीवन बुद्धि जाणी न सके मोटी अड़ी सदगुरु नी दृष्टि जोता वस्तु जड़े रे।
चोर्यासी चहु खाण मां हुंतो, थाल्यो आपड़ी अन्तर हरि सूं एक तालारे, दुगधा दूर पड़ी रे।
ज्ञान कुंची गुरू गम थी, गयां ताळां उधड़ी, लाडू सहजानंद-नोहाळतां हरी आखंडी रे।।

२. निन्दात्मक काव्य (विसहर):- ‘सर’ विहीन कविता को ‘वीसर’ कहते हैं। आजकल इसके लिए ‘विषहर’ शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। इस काव्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक वर्गगत, जिसके अन्तर्गत समाज को सम्बोधित करते हुए उसकी बुराइयों का भण्डा-फोड़ किया गया है और दूसरा व्यक्तिगत, जिसके अन्तर्गत किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य करके उसकी धज्जियाँ उड़ाई गई हैं। इससे वर्ग एवं व्यक्ति दोनों को सुधरने का अवसर मिला है किन्तु जहां व्यक्ति-विशेष की निन्दा में स्वार्थभावना आ गई है वहां कविता अपना मूल्य खो बैठी है।

वांकीदास वर्गगत निन्दात्मक काव्य के प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी लिखी हुई लगभग एक दर्जन रचनाएं इसी कोटि की हैं जिनमें ‘वैसक वार्ता’, ‘मावडिया मिजाज’, ‘कृपण दर्पण, ‘ ‘चुगल मुख चपेटिका’ एवं ‘कृपण-पचीसी’ मुख्य हैं। इनमें तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों को दूर करने की चेष्टा की गई है। ये रचनाएं कवि के ज्ञान एवं अनुभव की द्योतक हैं। उपदेश प्रधान होते हुए भी इनमें ध्वंसात्मक के स्थान पर सृजनात्मक प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। कवि ने दुर्जनों, कायरों, पूँजियों, कुकवियों, चुगलखोरों आदि के स्वभाव-लक्षण स्पष्ट करते हुए उनकी कड़ी भर्त्सना की है किन्तु भावावेश में कहीं-कहीं वह इतना आगे बढ़ गया है कि साहित्यिक शिष्टाचार का उसे ध्यान नहीं रहता। ऐसे स्थल न्यून होने से उसकी रचना में ऊँची रुचि और ऊँचे आदर्श पाठकों का ध्यान बरबस खींच लेते हैं। ‘मावडिया मिजाज’ में स्त्रैण एवं जनानखाने में घुसे रहने वालों के लिए कहा गया है-

मावड़िया अंग मोलियां, नाजुक अंग निराट।
गुपत रहे ऊमर गमै, खाय न निजबल खाट।।
नैणा रा सोगन करै, भै माने सुण भूत।
रामत ढूलांरी रमै, रांडोली रा पूत।।
प्रगटे वाम प्रवीण रो, नर निदाढियो नाम।
नर मावड़िया नाम त्यूँ, बिना पयोधर वाम।।
कर मुख दे लचकाय कर, झमक चलैसुर झीण।
मावड़ियो महिला तणी, मारे रोज मलीण।।

इसी प्रकार ‘कृपण दर्पण’ में कृपण को आड़े हाथ लिया गया है-

कृपण संतोष करै नहीं, लालच आड़े अंक।
सुपण बभीषण सूं मिलै, लिये अजारे लंक।।
कृपण सन्तोष करै नहीं, सोमण जाणौ सेर।
कर टांकी ले काट हीं, सुपना मांहि सुमेर।।
कृपण हुवै मर कुंडली, संपत बांटे नांहि।
कहियो चोड़ै कुंडली, मरता भारथ मांहि।।
करतब नह राजी कृपण, राजी रूपैयांह।
कडबो दास कुटंबियां, प्रामणड़ाँ पइयाँह।।

वांकीदास के सदृश लच्छीराम, कृपाराम एवं किसना भी वर्गगत निन्दा के पक्षपाती है। लच्छीराम ने नाथ-पंथियों को आड़े हाथ लिया है। नाथों के यह कहने पर कि हम तो जीविका प्रदान करते हैं अत: बुराई करना बंद कर दो, कवि ने यह दोहा सुनाया था-

जाचे लच्छो जोधपुर, जयपुर जाच न जाय।
चारण और न जंचही, सिंघ घास न खाय।।

जो लोग शरीर में थोड़ा सा भी दर्द होने पर अपनी दुर्बलता जताकर तरोताजा पकवान खाने की इच्छा करते हैं, उनके विषय में कृपाराम का कहना है-

घोंचो लागां घाव, घी गेहूं भावे घणा।
अहड़ा तो अमराव, रोट्‌यां मूंघा राजिया।।

किसना ने इन लोगों से दूर रहने की सलाह दी है-

चाकर चोर कुचीत कुचळ अस राव क्रमंतो।
व्रछ पान फळ बिन्न दान विणन्न पत अदत्तो।।
पूत कपूत पिटाक ठोठ कविराज ठगा रो।
खोटी दाम कुमंत्र नाद विण अमठ नगारो।।
क्रतघणी सचिव खोड़ो दरक सत्र नेह खग संधिए।
कदेई भूल कसना सुकव ऐता वार न बंधिए।।

व्यक्तिगत निन्दा करने वाले कवियों में मायाराम, सायबदान, खोड़ीदान एवं रामनाथ के नाम लिये जा सकते हैं। मायाराम ने भाद्रार्जुन के ठाकुर सोमसिंह ऊदावत के विषय में लिखा है-

शूं माँडू रो भोमियो, हूँ कटार गढनाथ।
थारे म्हारे सो भड़ा, व़ण जासी भाराथ।।

जब महाराजा मानसिंह (जोधपुर) ने षडयंत्र रचकर मीरखां नवाब द्वारा पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह को धोखे से मरवा डाला तब सायबदान ने निम्न गीत द्वारा महाराजा की भर्त्सना की थी। इसके फलस्वरूप कवि को निर्वासित कर दिया गया था-

बजे नौबताँ त्रधाई चढि आवतो सतारा वाळो, धुबे तोपाँ कोप गोळाँ लागतो धै धींग।
जुजरबाँ जम्बूरा फौजाँ हवाई हवद्दाँ जट्‌ठै, सवाई नूं साजणाँ तो उठे मानसिंह।।
दबायो धरा रे बेध हरोली जिकाँ रो दादो, जेनाँ गाढो गाहेड़ को सझुंडा जिहांन।
आडा बोलो भेजबो तो सतारा वा दलां आडो, मारबो न हूतो जाड़ो गुमांन रा मांन।।
आपरे घरांणे नेम हारबो न कोई आगे तेण दीह धारबो तो हुतो टूक-टूक।
सवळेस वाळा सु नूं वकारबो तो दलां सामी, सवळेस वाळा में न धारबो तो चूक।।
तमासो देखालबो तो आपवा न हुतो तंबू, खान नूं निकालबा तो झले चौड़े खाग।
हरा देवी नूं यू मारबो राण हुंता, बोलवो न हूतो राना पींजरा में बाघ।।
दाषियो मेवाड़े राणे सेना नूं बधारो देत ढूढाड रे राजा की न कीनी बात धून।
जोधां छान धकई किता न फिरा राज जीती, खंभ मारवाड़ रो मरायो किसे खून।।
लेखियो न साम ध्रमो दगा सु चलायो लोह, उस रे ही रेखियो न चौड़े दगां आन।
सवाई रो हत मारो खांवदे खीचियां सारो, प्रथा सारी पेषियो ज तबू रो प्रमान।।

इसी प्रकार खोड़ीदान ने महाराव उदयभाण (सिरोही) को जोधपुर के महाराजा मानसिंह द्वारा धोखे से पकड़ लेने के विषय में उनके सामने कहा था-

कीनो आपरो जांणीयो कना हरामखोर रे कीहे, जाणीयो जो कियो तो न कीनी वात जोग।
रायां राव उदेभांण झलांणीयो मान राजा, असी रीत बेसांणीयो करीं ते अजोग।।
आगे ही सीरोही राव न भागो दलेस आगे, जो आप बोलात आगो पीठ देई न जात।
दगो करे सोढ हरो रोकीयो अजीत दुजा, वदे सगो आपरो अजोग कीधी बात।।
रमां घडा ऊथालणो कहीजे आबुओ राजा, केणार ने पालणो थो न देणो थो कान।
बोलाएर झालणो थो बेरीसाल तणो बेटो, गीनाएत न रोकणो थो सवाइ गुमान।।
खून गनो जाणवो नां सीरोही आपरे खोले, रावरे नवेई कोट खोले असी रीत।
दली नाथ जोधांण सु कीध दगो घेर दोले, उमेद राव रे ओले राखीयो अजीत।।

रामनाथ ने अलवर के धरने से भयभीत होकर भागने वाले पोलपात जैतसिंह जागावत (अलवर) पर ये दोहे लिखे हैं-

जागावत जेता जिसा, असती भगा अनेक।
कळियो गाडो काढबा, आयो थळियो एक।।
मरस्यां तो मोटे मतै सह जग कहै सपूत।
जीस्यां तो देस्यां जरू, जेता रै सिर जूत।।

बुधजी एवं रिवदान के निन्दात्मक काव्य में राग-द्वेष पाया जाता है अत: उसमें असाहित्यिकता की मात्रा अधिक है। बुधजी ने नाथ-पंथियों को आगे बढ़ते देखकर गीत रचे हैं। किसी राजा अथवा ठाकुर के यहाँ मान-सम्मान तथा पुरस्कार न मिलने का अर्थ यह नहीं है कि चारण कवि उसकी निन्दा करना आरम्भ कर दे। रिवदान ने जयपुर के महाराजा से कुछ न मिलने पर यह दोहा कहा है-

षावंद कर कर षातरी, पूगा जयपुर पास।
न तो धन दियो न ना दियो, वृथा दियो विस्वास।

३. वीर काव्य:- जैसे-जैसे युद्ध कम होते गये, वैसे-वैसे वीर काव्य-धारा शिथिल पड़ती गई। यही कारण है कि आलोच्य काल में वीर काव्य की सृष्टि अधिक नहीं हो पाई। ऐसे समय में चारण कवियों का ध्येय बीते गौरव का स्मरण कराकर क्षत्रिय जाति में, शूरवीरत्व एवं साहस का संचार करना ही रहा। इस दृष्टि से कृपाराम, वांकीदास, चंडीदान, सालूदान, गिरवरदान, तेजराम, स्वरूपदास, रामलाल, रामलाल आढ़ा एवं चिमनदान की रचनायें उल्लेखनीय हैं। वांकीदास, स्वरूपदास एवं चिमनदान ग्रंथकार हैं, शेष सभी कवि फुटकर।

वांकीदास वीर-काव्य के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने ‘भुरजाल भूषण’, ‘सूर-छतीसी’ एवं ‘सीह-छतीसी’ में वीर रस का अच्छा परिपाक तैयार किया है। ‘भुरजाल भूषण’ स्फुट रचना होते हुए भी प्रबंध का सा आभास देती है। इसमें चितौड़गढ़ का वर्णन अत्यन्त सजीव, मार्मिक एवं प्रेरणादायक है। यथा-

अई चीतगढ़ ओर सूं, तूं गांजियो न जाय।
भीतर ज्यां मन भावणो, बाहर जिकां बलाय।।
अई चीतगढ़ ऊधरा, सकला गढ़ां सिरताज।
तूं जूनो परणे नवी, असुरां री अफवाज।।

जैसे यह गढ़ बाँका है वैसे ही इसके वीर रण-बांकुरे हैं। राणा उदयसिंह एवं अकबर का युद्ध होने पर जयमल और पत्ता ने सिर पर सेहरा बाँधकर जीते जी चित्तौड़ को न सौंपने की प्रतिज्ञा की। ‘उत्साह’ की यह व्यंजना कितनी अनूठी है ?-

के दरवाजा कांगरां, ऊभा भड़ अरडींग।
भला चीत भुरजाळ रा, आभ लगावा सींग।।
पण लीधौ जैमल पते, मरसां बांधे मोड़।
सिर साजे सूंपां नहीं, चकता नूं चीतोड़।।
पतो मालगढ़ पुरुष रा, वणिया भुज वरियाम।
दांतूसळ गढ़ दुरदरा, नेक उबारण नाम।।
असकंदर जो आवही, सुलेमान दळ साज।
तोपी नह सूंपां तुनै, अकबर काहू आज।।
खत्रियां रा खट तीस कुळ, त्रदस क्रौड़ तेतीस।
जिके खड़ा तौ जावते, अकबर किसूं करीस।।

युद्ध का वातावरण उपस्थित करने में कवि सफल है। यथा-

अमलां खोबा बाजियां, मचै भड़ां मनुवार।
जांगड़िया दूहा दिये, सिंधू राग मझार।।
उठै सोर झाळां अनळ, आभ धुआँ अँधियार।
ओळां जिम गोळा पडै, मेछां कटक मंझार।।
भुरजमाळ फण मंडळी, सोर झाळ विष झाळ।
जाण सेस बैठो जमी मिस चीतोड़ कराळ।।
के गोळां के गोळियां, के तरवारां धार।
मरै गड़ै कबरां महीं, बीबा मंसबदार।।
ढूके नह गढ़ ढूकड़ा, अकबर रा उमराव।
करै वीर गढ़ रा कवच, दोय टूक इक घाव।।
सूनी थाहर सिंघ री, जाय सके नहिं कोय।
सिंह खड़ां थह सिंह री, क्यों न भयंकर होय।।

प्रतिपक्षी की भावनाओं का चित्रण भी है-

बारा सुखनां खीजियो, अकबर साह जलाल।
उच्चरियो हूं जीवतां, सिंहां पाडूं खाल।।
पग मांडो जैमल पता, गढ़ मोसूं नहि दूर।
लीधा इसा हजारगढ़, मो दादे तहमूर।।

संवादों की सुसम्बद्ध योजना ने इस रचना में नाटकीय चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। यथा-

आसिफखाँ अकबर कहै, भीतां भुरजां जोय।
बांको गढ़ भड़ बांकडा, हलो कियां की होय।।
भीतरला फूटां भड़ां, कै खूटां सामान।
इण गढ़ में होसी अमल, खम तूं आसिफखान।।

‘सूर-छतीसी’ एवं ‘सीह-छतीसी’ में स्वतंत्र रूप से एक आदर्श युद्धवीर का चित्रण किया गया है। कवि ने इन दोहों में शूरवीर के लक्षण बताये हैं–

सूर न पूछै टीपणौ, सुकन न देखै सूर।
मरणाँ नूँ मंगळ गिणै, समर चढ़ै मुख नूर।।
जाया रजपूतांणियाँ, बीरत दीधी वेह।
प्रांण दियै पांणी पुणग, जावा न दिये जेह।।
भड़ां जिकां हूँ भामणै, केहा करूँ बखांण।
पड़ियै सिर धड़ नह पड़ै, कर वाहै केवांण।।
सूर भरोसै आपरै, आप भरोसै सीह।
भिड़ दहुँ ऐ भाजै नहीं, नहीं मरण रौ बीह।।
छूटा जामण मरण सूँ, भवसागर तिरियाह।
मुँवा जूँझ जे रण मही, वे नर ऊबरियाह।।

कहीं-कहीं प्रतीक-पद्धति के द्वारा कवि ने उत्कृष्ट कल्पना की है। यथा–

सूतौ थाहर नींद सुख, सादूळौ बळवंत।
बन कांठै मारग वहै, पग-पग हौळ पडंत।।
केहर कुंभ विदारियौ, गज मोती खिरियाह।
जाँणे काळा जळद सूं, ओळा ओसरियाह।।

वीरांगना के मुख से प्रस्फुटित होने वाली गर्वोक्तियां तो और भी चित्ताकर्षक हैं। वह अपनी सहेली के सन्मुख सतर्कता से साहिबों का गुण खोलकर रख देती है–

सखी अमीणौ साहिबो, वाँकम सूँ भरियौह।
रण विकसै रितुराज मै, ज्यूँ तरवर हरियौह।।
सखी अमीणौ साहिबो निरभै काळो नाग।
सिर राखै मिण सामध्रम, रीझै सिंधू राग।।
सखी अमीणौ साहिबो, सूर धीर समरत्थ।
जुध में वामण डंड जिम, हेली बाधै हत्थ।।
सखी अमीणा कंथरी, पूरी एह प्रतीत।
कै जासी सुर ध्रंगड़ै, कै आसी रण जीत।।

मौलिक होते हुए भी कहीं-कहीं कवि की उक्तियों पर ईसरदास का प्रभाव है। वांकीदास को ईसरदास की कुंडळिया कंठस्थ थीं अत: ऐसा होना स्वाभाविक ही था। यथा-

अंबर री अग्राज सुं, केहर खीज करंत।
हाक धरा ऊपर हुई, केम सहै बळवंत।।
केहर कुंभ विदारियौ, तोड़ दुहत्था दंत।
रुहिर कळाई रत्तड़ी, मदतर तै महकंत।।
घर आंगण मांहै घणा, त्रासै पडियां ताव।
जुध आंगण सोहै जिकै, बालम ! बास बसाव।।

महात्मा स्वरूपदास कृत ‘पाण्डव यशेन्दु-चन्द्रिका’ एक प्रबन्ध काव्य है जिसके षोड़ष मयूखों में महाभारत का सार है। यद्यपि मार्मिक स्थलों को पहचानने में बाबाजी की नजर कुछ मोटी है तथापि इसमें भाव-सौन्दर्य स्थान-स्थान पर देखने को मिलता है। ओज एवं प्रसाद गुण तो कूट-कूट कर भरे हुए हैं। कवि की दृष्टि में क्लिष्टता काव्य का गुण है अत: यह काव्य सर्व साधारण की समझ से बाहर है। सुन्दर भाव, मनोहर कल्पना एवं गति की त्वरा पाठकों को मुग्ध कर देती है। अर्जुन का युद्ध वर्णन एवं शत्रु संहारक रूप एक प्रचण्ड युद्धवीर के अत्यन्त अनुरूप बन पड़ा है। भीम की गदा भी कम आकर्षक नहीं। इसी प्रकार द्रोणाचार्य की युद्धवीरता अपना पृथक महत्व रखती है। निम्न छंद में कवि ने जो रूपक बांधा है, उससे उसकी उत्कट कवित्व-शक्ति का परिचय मिलता है। इसमें युद्ध-क्षेत्र को एक यज्ञ-क्षेत्र बनाया गया है और द्रौपदी को अरिणी। युधिष्ठिर यजमान हैं और अर्जुन होम करने वाला है जिनकी प्रत्यंचा की टंकार ही स्वाहा-स्वाहा का शब्द है। भीम के क्रोध घर्षण से अग्नि उत्पन्न हुई है तथा वीर रस उस यज्ञ का घृत है। ऐसे महायज्ञ की पूर्णाहुति भीमसेन अपने गदाघात द्वारा दुर्योधन को मारकर करते हैं जो बलि पशु है। इस यज्ञ में कौरव वृन्द समिधि है-

अरुनि द्रुपद जाई, कोप भीम को सुआगि, जजत युधिष्ठिर समाज स्वांग लीने है।
होता है किरीटी श्रवा धनुष ज्या शब्द श्वाहा, साकुल्य है वीर आज वीर रस भीने है।
सुयोधन जग्य पशु करुखेत अग्नि कुण्ड, पूर्णाहुति भीम गदा ने अंग छीने है।।

चिमनदान कृत ‘सोढायण’ नामक ग्रंथ वीर रस से ओतप्रोत है। इसमें सोढ़ा जाति के क्षत्रियों एवं सूमरे मुसलमानों के बीच जो घमासान युद्ध हुआ था, उसका ओजपूर्ण वर्णन है। इसे पढ़कर करणीदान कविया के युद्ध-वर्णन का स्मरण हो आता है। एक स्थान पर युद्ध-स्थल का यह चित्र बड़ा सुन्दर बन पड़ा है–

सबल फौज सालळै, विडंग हूकळै वळोवळ।
प्रघळ मोरचा पूर, सोर धूंवा रव सालळ।।
होय कळह हूंकार, वडा जोधार विलग्गा।
उरड़ तोप ऊनाळ, लडण साबता जु लग्गा।।
सूमरां सोढ़ आसुर सुरां धुबै सेना लेयण धरा।
वळोवळ राग सिंधू वजै, बेहुंवै जोध बरोबरा।।

और भी–

सजै फौज सोढ़ा अरां थाट सांमा, इतै सूमरा जोध जंगी अमांमा।
बिहूं सेन जोरां बिहूं नाळ वाजै, लसै नांज फौजां बिहूं व्रद्द लाजै।।
दळां सूमरै अंम्र आयंस दीधो, कसे भार लज्जा अहंकार कीधो।
इते राण चाचग्ग सेना अकारी, भटां गड्ढ़ भेळो करो जंग भारी।।
बिहूं सेन हल्ला दुनी हाक-बाकं, धसै सूर सर्रां वजै डाक धाकं।
दगै तोप किल्लै लगै आग दूठै, वहै धार खग्गां सरां मेघ वूठे।।
लगै झाळ आभै कड़क्कै जजाळां, ढहै सूर सूरां कटै टोप ढालां।
ध्रमक्कै बरच्छी छछोहा दुधारां, बहै जम्मदड्‌ढां जरद्दां बघारा।।
पिये रत्त चंडी झलै पत्र पांणां, वरै सूर रभा ठहक्कै विवांणां।
मिळै वीर टोळा खिलै रास मंड़ै हुवै हाक हल्ला मुसल्ला विहंडै।।

कृपाराम ने अपने स्फुट गीत में राजा उम्मेदसिंह सिसोदिया (शाहपूरा) की युद्ध-वीरता का उल्लेख किया है जो महाराजा अभयसिंह (जोधपुर) के विरुद्ध महाराजा सवाई जयसिंह (जयपुर) की ओर से लड़े थे। यथा–

लियां भूप ऊमेद गज गाह लड़ लोहड़ां, लागियाँ डाण गज गाह लटकै।
बेख गजराज गत राणियाँ बखतसी, खांत तण हिये गज राज खटकै।।
तड़ कमंध गाँजिया लिया भारथ तणै, भांजिया कटक बनराव भूखै।
सम गयन्द नारियाँ चाल पेखे सुपह, दुआ रड़माल उर गयन्द दूखै।।
पामिया मोड़ सामंत कायल पुरे, मग वणै दंत बग पंथ माळा।
कामिणी गवण मैमंत उमंगां करै, कंथ चित चुभै मैमंत काळा।।
गजां गत बेख गजराज चूड़ा गरक, सोभ गज मोतियां भार सारा।
जीवड़ै आद गिरि गजां जाणिया, बखतसी राणियाँ न दे वारा।।

वीर काव्य रचना मेँ चंडीदान सिद्धहस्त हैं। महाराजा बलवन्तसिंह, गोठड़ा (बूँदी) पर लिखे हुए उनके कई गीत मिलते हैं जिनमें अंग्रेजों के विरुद्ध महाराजा की युद्ध-वीरता का वर्णन है। यह युद्ध सन् १८२४ ई० में हुआ था जिस में महाराजा वीरगति को प्राप्त हुए। कवि ने उनके युद्धानुराग, आतंक एवं शस्त्राघात का बड़ा ही ओजस्वी वर्णन किया है। युद्धारम्भ के पूर्व चरित-नायक का परिचय देते हुए कवि लिखता है-

बडा बोलतो बोल उदमाद करतौ बिढण तोल तो खाग भुज बढण ताया।
जुध खळा न देस्यूं पूठ कह तौ जिको, ऊठ चहुवाण मिजमान आया।।
बाज तासा घमक हींस घोड़ा बिखम, चमक तोड़ा अमक झाळ चोवै।
भाखतौ लडूं खग झाट मन भावणा, जके दळ पांवणा वाट जोवै।।
जाग चामल गिरद कीध घाटा जपत, लाग आँटा सपत गीध लूभा।
काढतो वचन मुख चाव जुध कारणै. आव भड़ बारणै कटक ऊभा।।

युद्धारम्भ होने पर रण-भूमि का चित्रोपम वर्णन इस गीत में है-

भभकै घाव ऊछटै भेजा, तूटै धड़ नेजा तड़क।
बेराहर पाडै दल बारा, धारा तीरथ तणी धक।।
पलटै जठी धकावै पैलाँ, गैलां खग वाहै गजर।
दल चौकस चहुँ बैबल दावै, आवै आवै कहैं अर।।
हलचल नरां हैमराँ हड़बड़, झड़ फड़ पंखण तोप झग।
बहादर सुतन हाक जुध बागाँ, लड़ियों खागां पहर लग।।
चामल नीर श्रोण रण चाढे, पड़ियौ दल पाड़े पचरंग।
खल रूढाँ बूढौ झड़ खागां, वल छूटौ तूटा उतबंग।।

यह देखकर रम्भा, शिव, काली और गिद्धादि पक्षी रुष्ट से होकर पूछते है कि अब यह और कितने वार करेगा तथा कितने धड़ भूमि पर लुढकायेगा-

रंभा भव काळी दुज रूठे, हाडा बळवंत रतन हरा।
अब कर किता तोड़सी आवध, धड़ केता लोटसी धरा।।
सिर वर रुधिर दिये पळ सूराँ, विधी पिंडकर पितर विधान।
धड़ भूरां उडियौ खग धाराँ, सजि च्यारां पूरौ सनमान।।

एक गीत में कवि ने चंबल और रत्नाकर का संलाप कराकर युद्ध की भयंकरता और भी बढ़ा दी है-

सभहर बळवंत बाहतां असमर, छूटा फिरंग दळां रत छोळ।
रातौ देख अचंभ रतनाकर, चामल किम कीधौ रँग चोळ।।
रूकां झड़ हाडा अंगरेजाँ, दल पंडव जूटा कुरु द्रोण।
संभ्रम थयौ पूछवै सागर, सरिता केम थयौ जळ श्रोण।।
हिन्दू गुरँड खगा हूँच किया, वहिया वाहण मूझ विचाळ।
दल सुध देवधुनी इम दाखै, रतनाकर वहिया रत खाळ।।
असमर झटां बहादर वाळै, थट हेंवर नर गरट थया।
वसे पछै बैकुण्ठ बिचाळै, काळै रंग जळ श्रोण किया।।

सालूदान पाबूजी के वीर चरित से प्रभावित हुए हैं और उन्होंने युद्ध-वर्णन का काल्पनिक चित्र खींचते हुए बड़ी ही मार्मिक अभिव्यंजना की है। यथा-

जींदो असखड़त अपत पत जायल, पड़त ध्राह अवथाह पणं।
घेरत वित सगत रुड़त त्रंबक घण, तड़त सेल गत ज्यास तणं।।
वाहर वन वड़त जोध सतवीसों, किलम कड़त भूथांण कियं।
अरियण दळ झंडत चड़त जुध ऊमंग, लड़त पाल भुज खाग लियं।।
कटको दुय सबळ कळळ हुय हूकळ, तेग झळळ घण वाढ़ तणूं।
बळवळ हथनाळ अकळ कळ वाजत, भळळ सोर जळ आग भणूं।।
अळवळ असवार बौत मिळ जांभळ, थित वासं चळ विचल थियं।
अरियण दळ झड़त चढ़त जुध ऊमंग, लड़त पाल भुज खाग लियं।।

एक अन्य गीत में कवि ने राम-रावण का युद्ध वर्णन किया है-

गैणाऊ पलचर गणणिया, सुररंभ वाहण सणणिया।
विडकरण दमगळ राम अतबळ, विमळ सुरमल वीर।
केकांण घणथट कळहळै, चहुं फेर वादळ चळचळे।
चढ़ कोप चळ चळ होय हळवळ, जोध जांमळ फबत साबळ।
सूर भलहळ बाढ़ वीजळ, खाळ हळपुळ श्रोण खळहळ।
गहक मिळ-मिळ ग्रीध पळगळ, कळळ हूकळ धुबै धूकळ।
असुर सुरभिळ अचळ आयो, धांस खळ रणधीर।।

युद्ध, योद्धा और युद्ध-भूमि का वर्णन करने में बुधसिंह अपने समकालीन कवियों से पीछे नहीं है। उदाहरण के लिए यह गीत देखिये-

फौजों बोह डमर चकारा फाबै, पारंभ अंग अणभंग प्रबळ।
खड़सी केण दिसा अस खाता, खाग वजासी केण खळ।।
रुड़ै त्रमाट हका पड़रांगां, तकै ख्याल रथ रूक तरण।
हाले कठी जोध अचळा-हर, रिमां प्रहारण खेतरण।।
घेंसा हरां लड़डंग देखे घण, प्रसण मरै माथा पटक।
किण रुख चालै आज कराळो, कोमंखी वाळो कटक।।
भुजडंड अणी छड़ालो भळकै, ऊसस डारण क्रोध अंग।
वेढक आज अनम वीरतरत, जुड़सी सुत सोभाग जंग।।
पग-पग फतै करै खग पांणां, जुङै अथांणां खेत जद।
राजो क्रोड जुगां रंग-रसियां, हणवंत भूरा वाध हद।।

गिरवरदान को कोई समस्या क्यों न दी जाय, वे उसकी पूर्ती करते-करते ही युद्ध का सजीव दृश्य उपस्थित कर देते हैं। कविराजा भारतदान द्वारा दी हुई समस्या ‘दीठां फौज कन्नोज जैचंद वाळो दोर’ की पूर्ति उन्होंने इस प्रकार की-

षौज अरंद्रा उखेले नौज राषै ज्यांसू आडा खडे, तषो मौज सुर से मनोज वाले तोर।
वदे तोज चंद ज्यूं हनोज राजवाड़ा बीजा, दीठां फौज कनौज जैचंद वाळो दोर।।
नभां रजी दाटे अद्र पीठां उडे गजां नेजां, धरा खाटे नवि खाठा रीठां पड़े धाक।
मासे धेक अंगषिं अलहां लाटें जिसो भाग, विभौ दीठां अनेका अरंद्रा फाटे बाक।।
फौजां लूर लूटे दादा चंद ज्यूं दान रा फैल, धूजे दिल्ली सवारो षान रा खांगां धाव।
भूप तकवतेस नंद मांनरा आपरा भुजां, राजा हिन्दूथांन रा न चीता गाढ़े राव।।

तेजराम के इस गीत में महाराणा जवानसिंह (उदयपुर) के हाथियों की प्रचण्डता का वर्णन है-

मांडा घोरिया बिरूता जे हजारां डाक दारां मळे, बेढ़ीगारा फरे नको फेरिया अबोध।
जुडतां लोयणां खारा तूटा गैण तारा जेम, जूटा वे अगड्डां माथै राड़गारा जोध।।
चढ़े कोप रढाळां धखंता धोम झाळां चखां, आटपाटां मदां खाळा बूठता औनाड़।
वळा आड़ा अद्र सा जवांन प्रथीनाथ वाळा, बागा नाग काळा जंगां पटाळा बे छाड़।।
घले जोम हूँतां फील दंता आड़-सल्ला घाव, हल्लां फौजदारां धूबे पोग रां निहाब।
बाज सिंधू मंदा पूर छायौ गैण वृंदारकां, गजा राज हूँता चौडे जूटौ गाढै राव।।
बे बीरांण धूत चंडी पूत सा कुसत्ती बागा, आट पाटां मदां राह रूत सा अधाय।
सागे जज दूत सा अभूता चखां झाळां सोर, बिराता अखाडै काळा भूत सा बलाय।।

रामलाल ने इन दोहों में राजराणा अजयसिंह झाला (गोगुन्दा) के अनुभावों का क्या ही सुन्दर वर्णन किया है ?-

जुध देखण अपछर जुड़ी, खड़ी-खड़ी पेखंत।
अजा मूंछ भ्रूहां अड़ी, कड़ी जरद तड़कंत।।
आप कुसल चाहौ अधप, अरु धण रौ अहवात।
हेक अजा गजगाह रै, रहो लूंब दिन-रात।।

निम्न गीत में इसी कवि ने राजकुमारियों द्वारा अपने पतियों को अजयसिंह से युद्ध न करने की प्रार्थना कराई है-

जीवणो चहै धव तते मत झागड़े, चखासी खागड़े काळ चाळो।
माण तज भलां पत हलीजे मागड़े, पागड़े लाग अहिवात पाळो।।
पाण खग अजा रै साम्हने पसैला, तो नसैला पतंग पड़ दीप न्हाळो।
धणी मृग नैणियां छांह पग धसैला- (तो) वसैला बांह गज दांत वाळो।।
चुरस जग जीवणै रखो चित चाहरी, (तो) पड़तळां-नाह री आस कीजो।
त्रिया भड़ सवागण रखो तद ताहरी, (तो) लूंब गजगाह री शरण लीजो।।
कळह बिच सुणे धव तजे बळ कढोला, (तो) लडोला अमर सोभाग लाहे।
चीत चत भूल नै धकै जो चढोला, (तो) मढोला पीव पाखाण माहे।।

रामलाल आढ़ा ने निम्न गीत में राजा मानसिंह झाला (गोगुन्दा) के युद्ध-कौशल का परम्परागत वर्णन किया है-

जवर पाथ उनमान रा बीर सलहा जङै, सगत हर तान रा लियै साथै।
हुवे सामान रा दळां भारत हचण, मान रा खळां आथांण माथै।।
कळह फण फेरियां चढ़ै चाके कमण, झड़ै समसेरियां बाढ़ झंका।
काढ मन गेरियां तूँहिज सूधा करै, बैरियां लियण आसेर बंका।।
भार गज टलां फौजा भमंग भोयणां, जुध अड़ग ओपणां रूपै जाझा।
क्रोध भर अतर भखै अगन कोयणां, कँवर घर दोयणां लियण काजा।।
कलक भैंरू सगत पियण काल रा, दलेसां साल रा ताप देणा।
अँग उग्रभाल रा नजर आवै इसा, लाल रा सुतन गढ़ खळां लेणा।।

४. भक्ति काव्य:- आलोच्य काल में चारण भक्त-कवियों के द्वारा वैष्णव भक्ति शाखा का समुचित विकास हुआ। इसमें कृष्ण-भक्ति शाखा के कवि अधिक हैं, राम-भक्ति शाखा के अपेक्षाकृत कम। शेष कवियों ने स्फुट पदों में ईश्वर का माहात्म्य गाया है। शिव एंव शक्ति की उपासना करना भी कतिपय कवियों का ध्येय रहा है। नाथ-सम्प्रदाय से चारण समाज का हृदय न जुड़ सका एतदर्थ चारण-काव्य पर इसका कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। हाँ, एक-दो कवियों पर दादू पंथ की छाप अवश्य देखने को मिलती है। इसके अतिरिक्त नीति एवं उपदेशात्मक काव्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। संक्षेप में इस काल का भक्ति-काव्य समृद्धशाली है।

ब्रह्मानन्द, रामनाथ, वखतराम, सोम, हरा, रामप्रताप प्रभृति कवियों ने कृष्ण-भक्ति शाखा को पल्लवित किया है। ब्रह्मानन्द का भक्ति-काव्य धर्म ज्ञान एवं वैराग्य का संगम है। वे प्रेम लक्षणा भक्ति के उत्कृष्ट कवि हैं। उनमें प्रौढ़ा गोपियों के भावों की प्रधानता है। ये भाव इतने स्वाभाविक हैं कि पाठक प्रेम-विभोर होकर तादात्म्य भाव का अनुभव करने लग जाता है। ‘उपदेश चिंतामणि’ त्यागी होने के बाद की प्रथम रचना है, जो श्री रंगदास के नाम से लिखी गई है। इसमें वैराग्य, सारासार, विवेक, संत, फकीर, शूरवीर आदि विषयों पर अत्यन्त सरस विवेचन किया गया है। ‘उपदेश रत्न दीपक’ में पिंड ब्रह्माण्ड पर्यन्त छोटे-बड़े व्यक्तियों के वैभव का वर्णन कर इन सबकी नश्वरता प्रमाणित की गई है। ‘सम्प्रदाय प्रदीप’ में उद्धव सम्प्रदाय की गुरु-परम्परा का वर्णन है। ‘सुमति प्रकाश’ में भगवान सहजानंद स्वामी के संक्षिप्त जीवन के साथ वर्तमान युग का अनुभव दिखाया गया है। ‘वर्तमान विवेक’ में वर्तमान एवं भागवत धर्म का गूढ़ भाषा में वर्णन किया गया है। ‘नीति प्रकाश’ विदुर नीति का सरल अनुवाद मात्र है। ‘ब्रह्म विलास’ सुन्दर विलास की कथा का ग्रंथ है जिसमें गुरुदेव के अंग, गुरुभक्ति एवं साँख्य योग के अंग से आध्यात्मिक ज्ञान का परिचय मिलता है। ‘शिक्षा पत्री’ में सहजानंद स्वामी की शिक्षा का सरल अनुवाद है। ‘सत्संग पंचक’ में सत्संग की कमल, कल्पवृक्ष, सूर्य, चन्द्र एवं समुद्र से तुलना की गई है। ‘षट दर्शन’ में षट सम्प्रदायों का दिग्दर्शन कराया गया है। ‘माया पंचक’, ‘दसावतार स्तुति’, ‘राधा कृष्ण स्तुति’, ‘सिद्धेश्वर शिव स्तुति’, ‘हरिकृष्णाष्टक’, ‘रासाष्टक’, ‘हवलाष्टक’, ‘घनश्यामाष्टक’ एवं ‘हरिकृष्ण महिमाष्टक’ में स्तोत्र एवं अष्टक भरे पड़े हैं। अंतिम रचना ‘धर्मवंश प्रकाश’ में सहजानंद स्वामी के जीवन-चरित्र एवं सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन किया गया है। स्वामी सहजानंद की अवतार लीला का वर्णन करते हुए कवि कहता है-

प्रथम धर रूप अनूप पृथ्वी पर कायम मच्छ स्वछंद कला।
जब लोध करै महा जोधपात जग कारन सोधि लई कमला।।
सिर छेदि संखासुर वेद लिए सब, मेटन खेद विरंची मही।
अति आनंद कंद मुनिंद अराधत, सो सहजा नंद रूप सही।।

रामनाथ ने ‘द्रौपदी-विनय’ (करुण-बहत्तरी) में महाभारत के द्रौपदी-चीर-हरण प्रसंग को लेकर अपने ही हृदय की करुण चीत्कार को वाणी प्रदान की है। महाभारतकार ने इस विनय को केवल ५-६ पंक्तियों में रख दिया है। श्री मैथिलीशरण गुप्त ने इस विषय पर ‘द्रौपदी दुकूल’ नामक कविता लिखी है किन्तु रामनाथ ने इस करुण प्रसंग से प्रभावित होकर अनेक सोरठों की सृष्टि की है। ये सोरठे सती नारी के आक्रोश की अनूठी व्यंजना से भरे पड़े हैं जिनमें दास्य एवं माधुर्य भावों का अच्छा चित्रण हुआ है। यथा-

गज नै ग्रहियौ ग्राह, तैं सहाय हुय तारियौ।
बारी मो बैराह, बैठौ व्हे वसुदेव रा।।
लेतां तिरिया लाज, पति बोदौ आडौ पड़ै।
ऐ नर बैठा आज, सिंघ सिटाया स्याळ सा।।
दुसटां रचियौ दाव, द्रौपद नागी देखता।
अब तो बैगो आव, साय करण नै सांवरा।।
हार‍्‌यौ खैंचणहार, हर देतो हार‍्‌यौ नहीं।
वध्यो चीर विसतार, बाँवन हाथां वैंत ज्यूं।।
खींचो खींचणहार, मन धोको राखे मती।
समपै सरजणहार, सही बजाजी सांवरो।।
पण राखण आया प्रभू, भल अबळा री भीर।
दस हजार गज बळ घट्यौ, घट्यौ न दस गज चीर।।

अतिवृष्टि के कारण नदी में बहती हुई गाय को सुरक्षित बाहर निकलते देख वखतराम ने इस गीत में गोपाल की विरुदावली गाई है-

मदांलाग दरियाव छल मंगर ओटा मंही, लाग दोटा दबे जकण लारी।
धाय गोबिंद नज बिरद चित धारियौ, तारियौ दयंद जिम गाय तारी।।
डाण सर लाग अंब छौळ पड़ता डमर, उथल पग भमर मझ दबत आषी।
दीनबंध दौड़ सुणतां जगत दाषियौ, राखियौ मतंग जिम धेन राषी।।
बज विषम भरायां सोक नाळौ वहण, उछळ जळ करायां धोक अण पार।
हरी गज जेम जुग धेन बळ हारतां, बार नह तारतां लगी जिण बार।।
दषायौ दीन बंध पणौ नजरां दहूँ, संत जिण भरोसै जौष साजै।
तंबीरण जेम तारण गऊ ताळ रौ, बरद गोपाळ रौ भलां बाजै।।

सोम कवि निम्न गीत में कृष्ण की लीलाओं का भाव-भरा वर्णन करते हुए उनकी शरण में जाना चाहता है-

कोटि ब्रहमंड खण मांहि भाँजै करै, अगम है निगम ताइ नेति-नेति ऊवचरै।
ध्यान सुकदेव नारद्द जै मन धरै, धाइ गोवाळियां बाँह काँधै धरै।।
कर्या प्राक्रम ताइ सेस न सकै कली, वंछै जै चरणरज सीसि व्रहमावली।
भाव घण गोपियां कृसन प्रीत्यै भली, साद द्यै कदम चढि पीय पी-समली।।
जजै जाइ कोटि जिग वेद मंत्र व्रहम जण, घृत पुलत हविख द्रव ज्याग होमंत घण।
नाम जै दीनबंध तेणि कजि नारयण, जमेते जसोमति (मात) हत्थी जमण।।
गाह गुणा सारदा पार न लहे गणै भाव करि नांम मंत्रनि तोइ व्रहमा भणै।
कड़छि कन्ह पीतपट बाँधि पलवट कणै, आवि दूहै सुरभि नंद नै आगणै।।
देखि भ्रू भंग मन काळ आणंति डर अछै कुण मात्र जगि देव दाणव अवर।
भगत वच्छल बिरद तूझ हरि तेज भर, सरण दै ‘सौम’ नू कहै राधा-सुवर।।

कृष्ण ने जैसे दूसरों की लाज रखी है वैसे ही हरा कवि अपनी लाज रखने के लिए प्रार्थना करता है-

पड़तां खारी वार पंचाळी, विनती सुण सांवरियो वीर।
आखे दूत अनोखी आतुर, चत्रभुज ते पूरी अत चीर।।
ध्रू प्रहलाद तणो घणि आपो, कीदो ज्यूं करतार करै।
सबळे नांम घणी सांमळियो, सबळ ई सबळा काम सरै।।
तू पगले-पगले तीकम, ऊभो भगतां भीर युंही।
आवे भीर करेवा आतुर, जरणी बाळक काज ज्युंही।।
हो ब्रजनाथ भगत रा हेतू, धरणीधर ऊजळाद धणी।
दीनदयाल ‘हरो’ यूं दाखे, तू लज राखे मूज तणी।।

इसी प्रकार रामप्रताप की विनती है-

आरत बानी सुनी गज की खगराय विहाय भग्यो दुख टारन।
त्योंही लखो प्रहलाद को आतुर पाहन में प्रगट्यो खल मारन।।
धार्यो है रूप दुकूल सही परमेश्वर पण्डु वधू प्रण पारन।
रामप्रताप की बार इती गिरधार अवार करी किहि कारन।।

रामभक्ति शाखा के कवियों में रायसिंह, शंकरदान, किसना एवं चिमनदान के नाम उल्लेखनीय हैं। रायसिंह के सोरठों में उसका भक्त-हृदय झलक देता रहता है। ‘मोतिया के सोरठों’ में जीवन की नश्वरता, माया का खंडन, राम की महिमा. वाह्याचारों की निन्दा आदि सब कुछ देखा जा सकता है। यथा-

लख बेटा लख भ्रात, हेमतणी लंका हुती।
सुणियो गयौ न सात मरतां रांमण मोतिया।।
माया रहे न मन्न, कर भेला वांटी करां।
कहियो भोज करन्त, मैं पड़ सारे मोतिया।।
रात दिवस हिक राम, पढियै जो आठू पौहर।
तारे कुटंब तमाम, मरै चौरासी मोतिया।।
भटकै कर-कर भेष, घर-घर अलख जगांवतां।
दुनिया रा ठग देख, मलसी पनि़या मोतिया।।
करै न चेलो कोय, कर पकड़े चेली करै।
हेत वना गुर होय, मोडा फिर-फिर मोतिया।।

शंकरदान की शवरी प्रसंग विषयक रचना बड़ी भावपूर्ण है। इसमें अछूतोद्धार की ओर ध्यान आकृष्ट करने के हेतु कवि ने इस प्रसंग का स्वानुभूत चित्रण दिया है। शवरी कहती है-

ध्यान मुंड भाली करे, सेव करे मुनि संत।
पूरण ब्रह्म पधारिया, आश्रम मूझ अचन्त।।

यह कहकर शवरी ने भगवान का चरण स्पर्श किया किन्तु अपनी स्थिति का ध्यान आते ही वह चीख उठी-

त्राहि-त्राहि हूँ अधम हूँ, अधम उबारण राम।
हूँ अतरी आतुर हुई, सुधि न रही शरीर।।

राम के बुरा न मानने पर तो बुढ़िया फूली न समाई, मानो उसे त्रिभुवन का राज्य मिल गया हो!

पावन कीधी झूपड़ी कौशल राजकुमार।
हूँ अतरी आतुर हुई, जतरी त्रिभुवन राज।।

भक्ति की दृष्टि से किसना कृत ‘रघुवर जस प्रकास’ एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें भक्ति-भावना प्रमुख है, छंद-लक्षण गौण। कवि का चरम लक्ष्य भगवान राम का गुणगान करना ही प्रतीत होता है। छंद-रचना के लक्षणों के साथ-साथ अपने आराध्य देव का वर्णन करके तो कवि ने सोने में सुगन्ध का काम किया है। इसमें कवि ने राम का माहात्म्य मुक्तक रूप से गाया है। उदाहरण के गीतों में राम कथा का ही आश्रय लिया गया है, किन्तु क्रम का अभाव है। शेष लक्षण प्रबन्ध काव्य से मिलते-जुलते हैं। आरम्भ में गणेश वन्दना इस प्रकार है-

श्री लंबोदर परम संत बुद्धवंत परम सिद्धिबर।
आच फरस ओपंत, विघन-बन हंत ऊबंबर।।
मद कपोल महकंत, मधुप भ्रामंत गंधमद।
नंद महेसुर जन निमंत, हित दयावंत हद।।
उचरंत ‘किसन’ कवि यम अरज, तन अनंत भगति जुगत।
जांनकी-कंत अक्खण सुजस, एक दंत दीजै उगत।।

ग्रंथ के तृतीय प्रकरण में कवि की भावना प्रबल हो उठी है और प्रबन्ध की सी श्रंखला भी आ गई है-

गोह सरीखा पांमर गाऊं, ब्याध कबंधा ग्रीध बताऊं।
नै सट पापी गौतम नारी, ते रज पावां भेटत तारी।।
देव सदा दीना दुख दाघौ, रे भज प्रांणी भूपत राघौ।।

बीच-बीच में कवि ने परब्रह्म पर भी विचार किया है-

न रूप रेख लेख भेख तेख तौ निरंजणं।
न रंग अंग लंग भंग संग ढंग संजणं।।
न मात तात भ्रात जात न्यात गात जासकं।
प्रचंड बाहु डंड रांम खंड नौ प्रकासकं।।

चिमनदान कृत ‘हरीजस मोक्षरथी’ भक्ति-काव्य का उत्कृष्ट ग्रंथ है। इसमें आत्मा के मोक्ष की विधि बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित की गई है। इसके २४ विश्रामों में क्रमशः दीर्घावतार, दताभी अवतार, काराज्यावतार, मनुइन्द्रअवतार, भक्ति अवतार, चराचर अवतार, वैराग कठणता, वर्णाश्रम धर्म विचार, अक्रिया भोग निरूपण, सुक्रिया भोग, प्रतिमादि पूजन, वैरागी मत, षटमत ज्ञान उदीप, जोगाभ्यास अष्टांग, इष्टोध्यान, प्रगट समाधि निरूपण, सिद्धि त्याग समाधि, निरभै समाधि, जोगाभ्यास, जगअत समाप्ति निरूपण, अदेष्टो खंड वरनन, सगुणनिर्गुण नमस्कार, नित्यादीसत नाम एवं सुणत फल प्राप्ति का वर्णन किया गया है। इनके अन्तर्गत आये हुए भाव मर्मस्पर्शी हैं। ‘चराचर अवतार’ का एक नमूना यहाँ दिया जाता है-

लगनीवत संत अनंत लखै, दुनियांन चराचर वृन्द दखै।
धर अम्बर ब्यापक एक धणी, तिह माय कळा सब रांम तणी।।
सखि सूर उडग्गन वृच्छ सबै अतुळी बळ भ्यासत एक अबै।
तर देवत डूंगर रूप तिता, जळवाय उतो परकत जिता।।
रिखजिक्ख सिन्यासिय देह नरं, करतार अपार पैदास करं।
पसु पंख असंख निसंक पणै, गुनवांन सबै व्रम हेक गिणै।।
जळचार थळाचर जीव जिदं, पद एक उभै र अनेक पदं।
अहि प्रेत अचेत सुचेत अभा, यह लोक अलोक सुलोक प्रभा।।

चाहे राम हो अथवा कृष्ण, हैं दोनों ही ईश्वरीय रूप। ऐसा मानकर कतिपय कवियों ने अपने स्फुट पदों में इन दोनों का सम्मिश्रण कर दिया है। इनमें जहां कहीं भी ये नाम आये हैं, वे परब्रह्म के द्योतक हैं, अवतारी महापुरुषों के नहीं। यही कारण है कि ओपा, रूपा, हमीर, कनीराम, सूर्यमल, जासा, भगवानदान, बुद्धा प्रभृति कवियों के गीतों में एक ही ईश्वर की व्यंजना होती रहती है। इनका काव्य अनुभूति की सच्चाई लिए हुए है। इसे किसी वाद के भीतर नहीं बाँधा जा सकता। अभिव्यक्ति स्पष्ट एवं प्रकृत है। उसमें किसी प्रकार का रहस्य नहीं दिखाई देता।

साहित्य में राम, कृष्ण, शिव आदि को लेकर तो अनेक भक्तिपरक रचनायें समय-समय पर लिखी गईं किन्तु देवी के चरित को लेकर किसी ने स्वतंत्र ग्रंथ की सृष्टि नहीं की। इस दृष्टि से बुधसिंह कृत ‘देवी चरित’ एक अद्वितीय कृति है और प्रथम महाकाव्य भी। इसका मूलाधार देवी भागवत पुराण है किन्तु कवि ने कथा-प्रवाह बनाये रखने हेतु यत्र-तत्र परिवर्तन कर मौलिकता का परिचय स्तुति से किया गया है। सृष्टि अनन्त रूपात्मक है। इसके मूल में एक ही प्रकृति है जिसे माया, देवी, जगदम्बा आदि की संज्ञा दी गई है। इसमें कवि ने साकार एवं निराकार दोनों साधनाओं का विवरण दिया है। इसमें देवी द्वारा महिषासुरादि शत्रुओं के विनाश का वर्णन किया है जिसमें उसे सफलता मिली है। साथ ही दार्शनिक पृष्ठभूमि को भी ध्यान में रखा गया है। भाषा ब्रज है।

कवि ने जो भक्तिपरक स्फुट रचनायें लिखी हैं वे राजस्थानी में हैं। चौदह वर्ष की अवस्था में लिखा हुआ बुधसिंह के भक्ति-गीत का यह अंश दृष्टव्य है-

थूं मत जांण कुटंब औ थारौ, पाळ मती इतरौ चित-प्रेम।
चलतां साथे न को चालसी, जासी जीव वटाऊ जेम।।
पिता मात बंधव सुत प्रमुदा, लोभी गरज तणा सहलेक।
सांप्रत अंत-वगत रो साथी, अनंत विचार हिया में एक।।
जांमण-मरण पाप मिट जावै, तारै जीव हुंत इक तोल।
रटतां नाम मुखां राघव रो, मूरख दाम न लागे मोल।।
राजी हुआं थकां नारायण, देवे मुकत-दान दातार।
साचो कर जाँणे परमेसर, सपना ज्यूं जांणे संसार।।
सकव बुधो आखे कत साची, दिल में धारे दीनदयाळ।
प्रभू भजन कर रे नित प्रांणी, जाय विलाप पापरा जाळ।।

हरि-सुमिरन के लिए कवि का यह गीत कितना प्रेरणास्पद है ?-

पड़ी भीड़ जळ डूबतां धीर नह धरी पळ,
ररी करुणा ग्रहण ग्राह रीधी।
अहिअरी तजे आयो वडी आतुरी,
करी री स्याह ज़द हरी कीधी।।
हरणकस्यप दनुज कोपियो पुत्र हणण,
फाड़ पाहण असह पाड़ फीको।
राखीयो बाळ प्रहलाद तारण तरण,
नरहरी चरण रो सरण नीको।।
वीर पांचूं वचन हारतां सभा-विच,
हुई तकरीर पांणप हटायो।।
द्रोपदी चीर गह खांचतां दुसासण,
अरज सुणतां समो भीड़ आयो।।
भरोसो राख दिल तेण भगवंत रो,
जबर बळवंत खळ जेण जीता।।
विमळ जस गाव गुण ग्रंथ नस-दिन बुधा,
संत-जन सहायक कंथ सीता।।

फुटकर कवियों में ओपा ने सबसे अधिक लिखा है। उस की दृष्टि में सबकुछ ईश्वराधीन है। वह पूर्वजन्म के संस्कार एवं प्रारब्ध के अनुसार ही चलता है-

मन जाणै चढूं हाथियां माथै , सुर धासंतां जनम खुवै।
नर री चींती बात न होवे, हर री चींती बात हुवै।।
मन जाणै पदमण हूं माणूं, गो बंद बांधै पथरे गळै।
मांडणहारे लेख मांडिया, मेटण वाळौ कूंण मळै।।
यूं जाणै पकवान अरोगूं, धापर मिळै न लूकौ धान।
हचियौ खाय काय हीं चोळा, भोळा रे रचियौ भगवान।।
दिल में जाणै पांव दबाऊं, औरां रा पग दाबै आप।
कळपै कसूं-कसूं मन कोपै, प्राणी लेख तणो प्रताप।।
चित्त में जाणै हुकम चलाऊं, हुकम तणै वस नार न होय।
सांचा लेख लिख्या उण सांई, काचा करण न दीसै कोय।।
धापै मन बैठां धोळाहर, तापै सूनो ढूंढ तठै।
आदू रीत असी है ‘ओपा’, कुटी लिखी सो महल कठै।।

यही कारण है कि कवि ने सब प्रकार के मायावी प्रपंचों से दूर रहकर हरि सुमिरन करने का आदेश दिया है-

क्यूं पडपंच करै नर कूड़ा, बिलकुल दिल में धार विवेक।
दाता जो बाधी लिख दीनी, आधी लिखणहार नहिं एक।।
पर आसा तज रे तज प्राणी, परमेसर भजरे भरपूर।
सुख लिखियौ दुख नाँह सांपजै, दुख लिखियौ सुख होसी दूर।।
काला जीव लोभ रै कारण, खाली मती जमारौ खोय।
करता जो लिखिया कूंकूरा, काजळ तणा करै नहँ कोय।।
भजरे तरण तारण ने विषया ! दूजां री काजी मत देख।
क्रोड प्रकार टळै नहँ किण सूं, लिखिया जिके विधाता लेख।।

नेहरु रोग से मुक्त होने के लिए कवि रूपा की यह पुकार स्वाभाविक है

ग्रहियो गजराज तंत जळ गहरे, बे आंगुळ सुण्डाडँड वार।
करणा-करण नाम छळ केसव, पाळा सुण दोड़ियो पुकार।।
हर हुवे बाराह मार हरणायख, मैहै काढी पाताळ मँझार।
दूजोई हरणाकुस दळियो, पेहेलाद क सांवळे पुकार।।
करे वसबा अंतरे केसव, वघियो द्रोपद चीर वसेख।
मो मुख गण्या न जावे माहब, असा प्रवाड़ां कीध अनेक।।
दीनदयाल संता सुखदायक, कारण-करण सिध काज।
बाळा पंड हुँवा सीतावर, मेटीजे रुगपति महाराज।।

हमीर ने नाम स्मरण पर विशेष बल दिया है-

जिण नाम लियां दुख दाळिद्र जाये, घणो हुवे सुख लाभ घणो।
वाधे मांनवि रांम बीछड़े, तिसो नांम श्री रांम तणो।।
बुरो विधन वेद नहं विआपे, मिटी अध पावन हुअे मन।
जिहड़े भजन संसार जीपिजे, भगवत रो इहड़ो भजन।।
भूत प्रेत डाकणि डर भाजे, दुरदिन आवे नहीं दिसो।
अकरम टळे चड़े निति ऊजम, अम्रितपांन हरिनाम इसौ।।
सावती संपती सुमति सांपजे, दूर रहे दुरमती दुयण।
थिये हमीर भीर जिम थारी, गिरधारी रा गाइ गुण।।

कनीराम ने जीवन की नश्वरता के विषय में यह गीत लिखा है-

थारी नह देह प्रवार न थारो, वित्त थित्त घर थारो नह वेक।
सुत पित मात बड़ाणे सारे, हटवाड़ा रो मेळो हेक।।
काचो पिंड कुटुम धन काचो, सौह काचो संसार संपेष।
भाई बंध काचा रे माया, सपना री दौलत सविसेक।।
काया माया सुत कलत्र कारमो, खलक कारमो बाजीगर खेल।
दीसण तणो चळाचळ दीसे, ओ सारो पांणी ऊझेल।।
ओहला तिर-तिर वह आया, करमां बस बन-बन रो कार।
करम कमाई मुगत कानिया, बहणों उठ आया जिण बार।।

सादड़ी (मेवाड़) निवासी रायसिंह के पास एक नौकर था जिसने विश्वास-घात कर अपने स्वामी के पुत्र जवानसिंह को लालच में आकर मार दिया और जमीन में गाड़ दिया। भगवान ने भक्ति के वश में होकर उस गड़े हुए बच्चे को निकाला तथा जीवनदान देकर उसके माता-पिता के पास पहुंचा दिया। कवि सूर्यमल ने इस अलौकिक घटना से प्रभावित होकर भगवान का जो माहात्म्य गाया है, वह इस प्रकार है

गज तणी अरज सुण उबारे लियो गज, अधक उण हूँत यां बिना कीधां अरज।
त्रीपहर निसयी तिण सिसु देह तज, राम लछमण किया जीवता खोद रज।।
श्री सु कर परस सोहो अंग किया साबता, जळ त्रखा पूछ पावे किया जाबता।
वद कळप अनेका दीन वद छावता, फेर कीथा जगां भाइया फावता।।
बांह दिहुं ठाबियां गांम मझ बाळका, पधारे साथ जग करण प्रतपाळ का।
करधणी पणो खेरे रदन काळ का, मेल घर कुसळ सिसु धरण बनमाळ का।।
दुखट क्रत कियो जिण नूं सज्या दराई, काट नासा ऊभे कूंप चख कराई।
सत वरत देख सोहौड़ां गरज सराई, हेक छन माँझ चंता सरब हराई।।
आच ग्रह गरीबनवाज बिप अधारे, ब्रद तणी क्रीत भुवलौक विच वधारे।
सुरां कज जेम सुभ कज नरां सुधारे, पछे निज धांम त्रयलोक पत पधारे।।

कवि जासा ने भगवान के नाम स्मरण को लक्ष्य करके यह गीत लिखा है-

अखर तोल रै उभै मत डोल रै औरठै, पाप गंठ खोल रै समझ प्रांणी।
बाजतां ढोल रै कहूँ बीसूं बसा, बोल रै राम रामेत वाणी।।
रटी सव सेस प्रहलाद नारद रिखाँ, धू रटी मटी जम त्रास धाखाँ।
जीवड़ा चटपटी राख रसणा जिका, भाख झटपटी हर नाम भाखा।।
गज पढी-पढी गनका पढी गोपियाँ, भरतरी पढी गोरख सभाळी।
अभी रस छाक जीहाँ न क्यूँ उचारे, वाक हर-हरी हर-हरी वाली।।
सरण असरण उभै करण सेवागराँ, धरणधर सरीखा चरण धावै।
जोन संधट हरण बरण बिहुँवै ‘जसा’, गिरा तारण-तरण क्यूं न गावै।।

भगवानदान ने भी ईश्वर के नाम को संजीवनी बूटी कहकर उसका रसपान करने का आदेश दिया है जिससे जीवात्मा आवागमन रूपी रोग से मुक्त हो जाय-

माहा रोग जामण मरण सदा सेवे मिनख, हुवा करमा वसीभूत हाले।
बडो अवचंब जुड़ियो परब वीसरे, भूट तज हरी (हरि) क्यून झाले।।
वेद संतां समजपाय सोधी विगत, ग्यान गुर प्रमोधी जुगत गत सूं।
ओषधी प्रकासक जाणधारी ऊवर, चाह जाहर करी विमाल चित सूं। !
सेस व्रहमाद माहेस सनकादिकां ध्रूव प्रहलादिकां अगंम धिखणा।
कुसल नर नाग खग दनुज मुनिजन कितां, लही सा वत कही सहित लखणा।।
वेद सासत्र अवर पुराणा विचालां, भेद रामायणा समर भाखी।
वाण पद छंद संता सबद विचारो, सरस जग दीयै सोई परस साखी।।

इसी प्रकार बुद्धा कवि ने भगवान पर दृढ़ विश्वास रखने तथा उसका निर्मल यशोगान करने को सफल जीवन की कुंजी मानी है-

पड़ी भीड़ जल डुबतां धरी पळ, ररी करुणां ग्रहण ग्राह रीधी।
अही अरी तजे आयो वडी आतुरी, करी री स्याहि जद हरी कीधी।।
हरण कस्यप दनुज कोपियो पुत्र हरण, फाड़ पाहण असह पाड़ फीको।
राखियो बाल प्रहळाद तारण तरण, नरहरी चरण री सरण नीको।।
बीर पाचूं बचन हारतां सभा बिच, हुई तकरीर पांणप हटायो।
द्रोपदी चीर ग्रह खेंचता दुसासण, अरज सुणतां समो भीर आयौ।।
भरोसो राख दिल तेण भगवंत रो, जबर बळवंत खल जेण जीता।
बीमळ जस गाव गुण ग्रंथ निस दिन ‘बुधा’, संत जन सिहायक कंथ सीता।।

चारण कवियों ने शिव एवं शक्ति की वंदना भी बडे भक्ति भाव से की है। हरिसिंह कवि के इस गीत में शिव की वंदना है-

आसण गजछाल वाघंबर ओडण, भूषण पिनँग अरोगण भंग।
भळहळ भाल सुधाकर भळके, गुमट जटा मझ खळके गंग।।
शेली नाद झूळका सींगी, सांडअरोह भूत गण साथ।
माळा मूंड फबे गळ मांहे, नमो विसंबर भोळानाथ।।
उमियां संग सूळ धर आवध, कर प्यालो नर लीध कपाळ।
बारमबार अरोगण बूंटी, मदन-अरी मातो मतवाळ।।
शंकर देव निवाजण सतां, भसमी अंग डिगम्बर भैष।
सुर तेतीस कोट कह सारा, आडम्बर थारा आदेस।।

चारण कवियों ने माँ भगवती के भिन्न-भिन्न स्वरूपों का शक्ति-पूजन काव्य मेँ बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। इस उपास्य देवी का रूप ब्रह्म के सर्वव्यापी स्वरूप से तादात्म्य प्राप्त करता है। आवड़दान, चंडीदान मिश्रण, भोपालदान, सालुजी, हरुदान, रामनाथ एवं स्योदान के स्फुट गीत इस कथन की पुष्टि करते हैं। आवडदान कृत शैणी देवी का यह गीत देखिये-

भांजण केवियां तिरसूळ लिया, भुज दुख मेटण सुख दैणी।
वीसहथी सिरताज विराजै, सांप्रत जुडिये सैणी।।
विदा-सधू सुपाता बाहर, पूज चढै विण पारां।
वाकर नवनेव श्रीफळ बर, परचा कीय विण पारां।।
धरम पाज जुढ़िया पत धिन, दिन-दिन रिजक हिरावो।
साँसण लाष पसाव जसारंग, कविता इधक करावो।।
वंस बधार सपूत पूत बड़ां, नयर नीर धन नांणो।
आवड़दान कदम रे ओळे, मात कृपा सुख मांणो।।

इसी प्रकार चंडीदान देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं-

पूजत चिरायु चटू चन्द्र गोल वासिन के, धर्म अभिलाषन के सिर पर कर है।
रूप रण रणक समान व्रष भाषापुरी, पत के प्रमाणदान धरि भूमिधर है।।
पातक दरद धुपे दरसन ही तें पद, परसत उच्च फळ बाहू बल वर है।
करम धुज वंस छत्रधारी जसवन्त चित्त, हरिपद कमल कुमारी की लहर है।।

जोधपुर नरेश तख्तसिंहजी के क्रोधित होने तथा घोर संकट से घिर जाने पर भोपालदान ने इन शब्दों में अपनी इष्टदेवी को याद किया था-

कळेमर समुद्र लोपे न ऊगे संस्कर धू च्रले प्रले हुय जाय धरनी।
सिमरिया जेज किम थाय छै सुन्दरी, जाय छै विरद कर साथ जननी।।
बचाया पांडवां महाभारत विषे, कठठा दळ चूरणी द्रोण कृपरा।
वेग पधार संकट हरण बीसहथ तार संत सरण साधार त्रपरा।।
जाकड़ा देत कुळ भसम कर जोगणी, छिळे जळ नाकड़ा साद छेलो।
हरामी ताकड़ा लगा मो पिण्ड हमें, हाकड़ा सोकणी सुण हेलो।।
भोपाळा तणों कर उग्रहण भवानी, सगत, इसर, दला, माल सेवि।
भदोरे राय महमाँय तो भरोसे, दाय आवे ज्यूंही करो देवि।।

सालूजी ने अपने गाँव की आराध्य देवी श्री मालण देवी की महिमा का वर्णन इस गीत में किया है-

गिरवर अधरा तरभोर गहक्कै, ह्वै हरियाळ हवाई।
ज्यां विच थांन जळाहळ जोपे, देवकळा दूलाई।।
विरछ अनूप वणै थळ वंका, सैंजळ कूंप सवाई।
आलण वंस दियै उजियागर मालण दे महमाई।।
व्रदपत छाजै तखत विराई, वसुधा पोखत वडाळी।
आथ व्रवीस प्रवाड़ा ऊमंग, वीसहथी विगताळी।।
इम्रत खाळ वहै मढ़ आगळ खाँण पळाकण खंडी।
अै नर अमर जात री आवै, चमर ढुळाडै चंडी।।

हरुदान ने इस गीत में करणी माता का आह्वान किया है-

किता वारिया सन्त उबारिया साँकडे, मारिया दैत संग्राम माडाँ।
अनाथा नाथरी रीति अँग अधारो, चारणी पधारो बेग चाडाँ।।
जेज न लावज्यो धरणीधर जंगळी संगळी लियाँ निज भाण साता।
ताखड़ा खडो मोटो बिरद ताहरो, माहरो करण उपकार माता।।
आपणी बार संसार थायो अरी रह्यो नहीं अवर आधार धरणी।
बिखम वेळा थई ताहरा बाळकाँ, कीजिये पाळ घंटाळ करणी।।
बार मत न लावो बरनरा बाहरू, पलाणो सिंह जलदी पधारो।
सकवि भुज बीस ‘हरदान’ रा सीस पर, थान रा धणी अबळम्ब थारो।।

माँ के प्रचण्ड स्वरूप का रामनाथ ने बड़ा भावपूर्ण चित्रण किया है। सिंह पर आरूढ़ माता जब कुपित होती है तो वराह की दाढे तिरक जाती हैं और कमठ की पीठ कड़कने लगती हे। यथा-

बड़कै डाढ़ वराह, कड़कै पठि कमट्‌ठ री।
धड़के नागधराह, वाघ चढ़ै जद बीश हत्थ।।
करनल किनियाणीह, धणियाणहि जंगलधरा।
आलश मत आणीह, बीश हथी लांजै विड़द।।
विषमी आई बार, नैं ऊपर करश्यो नहीं।
शरणाई शाधार, कुण जग कहशी करनळा।।
शुणियां साद शतेज, आई आगळ आवता।
जगदँब इब क्यूं जेज, करी इती तैं करनळा।।
देवी देशाणेंह, धर बीकाणैं तूं धणी।
जोगण जोधाणेंह, मानीजै मेहाशदू।।

और स्योदान के इस गीत में भी देवी के भव्य स्वरूप की सुन्दर व्यंजना हुई है-

चवा बिराजै भामती ज्योति चारणा सहाय चंडी, आशतीक साजै बाण बेदरी अखण्ड।
छाजै कीत उजळी यों प्रथमादि शीस छती, चकारा दिवाण राजै शकती चामुण्ड।।
साद सुणे पातां वाळो आसुरां प्रजाळी सदा, करि मुखां कराळी रटै छै भाखा सुभाय।
सोंधा धाणी वाळी पंगी भालवी जहान सोर, रेणवा बडाळी मां दिये सुराराय।।
बदिगारो भंजे रोर भादो घटा जेम बूठे, पावे किसू त्रिळोकी असंख्या गुणा पार।
बागां हाका वाहवाळा वसु तणो सीस बछा, धजा बंध मोटा धणी, ईहगा आधार।।
सोहें देव राजरी में सभा सुरा बीच सोभा, एला पाळ हाजरी में हुकम में अठेल।
बसु कलू सांजरी म करी जसु काजवाई, आई बार आजरी में सेवा री उबेल।।

इस काल में मंगलदास ही एक ऐसे कवि हुए हैं जिन्होंने ‘सुन्दरोदय’ रचना में दादू पंथ का अच्छा चित्रण किया है। उदाहरण के लिए नागा जमात का यह वर्णन इस प्रकार है-

जै जै जै जगतार, निरंजन निज निरकारा।
सदा झिलमिळे जोति, पुँजि कहुँ वार न पारा।।
नूर तेज भरपूर, सूर सावंत हजूरा।
गुण विकार करि छार, लह्यो निज आतम मूरा।।
सुद्धि सरूप अनूप पद, संद सभा निहचल मुदा।
मंगल जग निस्तार कूं, प्रगट रहै पलक न जुदा।।

भक्ति के अन्तर्गत शांत रस से सने हुए नीति एवं उपदेशात्मक वचन अपना पृथक सौन्दर्य रखते हैं। इस दृष्टि से वांकीदास, कृपाराम, रायसिंह, सालूजी एवं चिमनदान के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। वांकीदास सुधारवादी कवि थे अत: उन्होंने ‘नीतिमंजरी’, ‘मोह-मर्दन’ एवं ‘धवल पचीसी’ नामक रचनाओं में मानव-समाज को नाना प्रकार की शिक्षा दी है। ‘नीतिमंजरी’ के अध्ययन से पता चलता है कि मनष्य के संघर्षमय जीवन में बैरी का कितना महत्व है? ‘मोह-मर्दन’ में वह विकारों से दूर रहने का उपदेश देता है। ‘धवल पचीसी’ का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य को धवल के सदृश मन, वचन एवं कर्म से अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। जीभ को वश में रखने के लिए कवि का यह गीत कितना सुन्दर है?

बस राखो जीभ कहै इम बाँको, कड़वा बोल्यां प्रभत किसी।
लोह तणी तरवार न लागै, जीभ तणी तरवार जिसी।।
भारी अगै उगैरा भारत, हेकण जीभ प्रताप हुवा।
मन मिलियोड़ा तिकाँ माढ़वाँ, जीभ करै खिण माँह जुवा।।
मैला मिनख वचन रै माथै, बात बणाय करै विस्तार।
बैठ सभा बिच मूंडा बारै, वचन काढ़णो बहुत विचार।।
मन में फेर धणी री माळा, पकड़े नँह जमदूत पलो।
मिळै नहीं बकणाँ सूँ माया, भाया कम बोलणो भलो।।

कृपाराम का भक्त-हृदय न जाने कितनी अनूठी उक्तियों से भरा हुआ है? राजिया को सम्बोधित किये हुए ये उपदेशात्मक सोरठे महत्वपूर्ण हैं-

कारज सरै न कोय, बळ प्राक्रम हीमत बिना।
हल कारयाँ की होय, रंग्या स्याळाँ राजिया।।
काळी भोत कुरूप कसतूरी कांटै तुलै।
साकर बड़ी सरूप रोडाँ तूलै राजिया।।
गुण-औगुण जिण गाँव, सुणै न कोई साँभळै।
मच्छ-गळागळ माँय, रहणो मुसकल राजिया।।
पाटा पीड़ उपाव, तन लागाँ तरवारियां।
बहै जीभ रा घाव, रती न ओषद राजिया।।
मुख ऊपर मीठास, घट मांही खोटा घड़ै।
इसड़ा सूं इखळास, राखीजै नहं राजिया।।
लावा तीतर लार हर कोई हाका करै।
सिंघाँ तणौ सिकार रमणौ मुसकल राजिया।।

इसी प्रकार रायसिंह रचित मोतिया के सोरठों में मानव-जीवन के सिद्धान्तों का अच्छा निरूपण हुआ है-

सूबा रै घर सोय, हेम तणौ भाषर हुवै।
काज न आवै कोय मिनखां वीजा मोतिया।।
क्रपण करै धन कोय, कौड़ी-कौड़ी का पुरस।
जावै बाधौ जोय, माषीमद ज्यूं मोतिया।।
जिहां न बोले झूठ, श्रवणा झूठ न सांभले।
वाजै कुण वैकुठ माधष दरगै मोतिया।।
पावां चलै न पांण, रात दिवस पड़ियो रहै।
अजगर रै भष आंण, मेळै मुष में मोतिया।।

सालूजी की यह उपदेशात्मक नीसाणी देखिये, जिसमें उन्होंने अनेक जीवन-उपयोगी बातें बताई हैं। यथा-

आथ खनै धर एक लौ, मत वाट वहाए।
मन मैला चख मंजरा, जिण घर मत जाए।।
क्रतघुण हन्दी चाकरी, चटकै छिटकाए।
संप निवांणी सींचता, चित ख्यात लगाए।।
ओछी संगत आंण के, मत स्यांन गमाए।
बैठ सभा विच बोलणो, सब हूंत सुहाए।।
झूठा झगड़ा झालंके, दरबार न जाए।
आप थकां धन और को, मत भूल भलाए।।
पसू गरीबी पंछिया, दिल नांय दुखाए।
सबल हुवै कोई सांमठा, मत वैर वसाए।।

चिमनदान ने दयावृत्ति की ओर संकेत करते हुए कहा है-

करै धरम पोखै सकव, सांमी पिंडत साध।
अभ्यागत दत ऊधमै उनका मता अगाध।।

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