चारण साहित्य का इतिहास – आठवाँ अध्याय – चारण काव्य का नव चरण (उपसंहार) – [Part-A]
चारण साहित्य का इतिहास – भाग २
चारण-काव्य का नवचरण (उपसंहार)
[सन १९५० – १९७५ई.]
(१) सिंहावलोकन
पिछले अध्यायों में राजस्थानी के चारण साहित्य का क्रमबद्ध विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इस अनुशीलन से स्पष्ट है कि यह साहित्य अत्यंत विशद, गहन. एवं समृद्ध है। प्राचीन काल में इसका बीजारोपण हुआ। मध्य काल के प्रतिभा-सम्पन्न कवियों एवं लेखकों ने इसे सींचकर पल्लवित एवं पुष्पित बनाया। आधुनिक काल में यह एक विशाल वृक्ष के रूप में परिणित होकर दूर-दूर तक अपना सौरभ बिखेरने लगा। इस प्रकार प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक चारण काव्य परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है। यह इस जाति की साहित्यिकता का ज्वलंत निदर्शन है।
संदेह नहीं कि राजस्थानी साहित्य के निर्माण में जितना योगदान चारणों का रहा है, उतना और किसी का नहीं। चारण जाति राजस्थान की एक प्रतिष्ठित साहित्यिक जाति है जिसके पास लाखों की जागीर है और है करोड़ों का साहित्य ! फलत: डिंगल काव्य में जो धारा प्रवाहित हुई, उसका निनाद अपने ढंग का एक ही है। चारण काव्य का प्रत्यक्ष सम्बन्ध क्षत्रिय राजवंशों से है। काव्य एवं इतिहास के माध्यम से इन कवियों ने क्षत्रियत्व की जो मनोहर अभिव्यंजना की है, वह निश्चय ही भारतीय साहित्य की अमूल्य सम्पदा है। इस काव्य में वीरता का अद्वितीय कीर्ति-गान है। युद्धवीर सर्वाधिक रूप में चित्रित हुआ है। साथ ही दानवीर, धर्मवीर, सत्यवीर एवं दयावीर की भी उपेक्षा नहीं। यह युद्ध, योद्धा एवं युद्धभूमि की रक्त-बिन्दुओं के अक्षरों में लिखी हुई एक अनोखी कहानी है। उल्लेखनीय है कि इन कवियों ने अपने कर्तव्य का ध्यान रखते हुए आवश्यकतानुसार क्षत्रिय नरेशों एवं सरदारों को चेतावनी दी है और उनके कुकृत्यों की खुलकर भर्त्सना भी की है। इस दृष्टि से इन्हें शासनारूढ़ राजवंशों के आलोचक कहा जा सकता है। अनेक प्रतापी नरेशों के स्वर्गवास पर इन कवियों ने आठ-आठ आँसू बहाये हैं और सतियों का माहात्म्य भी गाया है। इसे पढ़कर कोई यह न कहे कि यह साहित्य एकांगी है। चारण काव्य में वीर रस की मौलिकता के साथ अन्य रसों की छटा भी बड़ी ही मुग्धकारी है। चारण जाति में अनेक उत्कृष्ट कोटि के भक्त कवि भी हुए हैं जो एक स्वतंत्र शोध का विषय है। यह लक्ष्य करने की बात है कि देश-सेवा की पुण्य भावना से अनुप्राणित होकर कतिपय स्वातंत्र्य-प्रेमी कवियों ने राष्ट्रीय एवं कांतिकारी रचनाओं की भी श्रष्टि की है। संकट की घड़ियों में यह साहित्य हमारा पथ-प्रदर्शक है। शस्त्र और शास्त्र इन दोनों विद्याओं में पारंगत कवि और कहाँ मिलेंगे? चारण इतिहास का रक्षक है। पद्य के सदृश गद्य के क्षेत्र में भी इनकी सेवायें स्तुत्य हैं। निःसंदेह महाकवि ईसरदास बारहठ, दुरसा आढ़ा, सायां झूला, वीरभांण रतनू, करणीदान कविया, ब्रह्मानंद आसिया, वाँकीदास आसिया, ओपा आढ़ा, सूर्यमल्ल मिश्रण, मुरारिदान आसिया, ऊमरदान बारहठ, श्यामलदास दधवाडिया, केसरीसिंह सौदा (शाहपुरा), उदयराज उज्वल प्रभृति कवियों को पाकर कोई भी साहित्य धन्य हो सकता है। अपने-अपने काल में ये कवि साहित्य में एक अक्षय छाप छोड़ गये हैं। चारण काव्य की समस्त प्रवृत्तियाँ इनकी रचनाओ में कलात्मक रूप से प्रतिबिम्बित हुई हैं। व्यक्तित्व एवं कृतित्व की गरिमा को देखते हुए राजस्थानी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन इनके नाम पर सम्भव है। यह परम प्रसन्नता एवं संतोष का विषय है कि स्वतंत्र भारत में महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण का शताब्दी समारोह देश के अनेक भागों में मनाया गया है और उनकी साधना-स्थली बूंदी में एक संगमरमर की मूर्ति की स्थापना हुई है। इसी प्रकार केसरीसिंह सौदा (शाहपुरा) का निवास-स्थान राष्ट्रीय स्मारक के रूप में एक दर्शनीय स्थल बन गया है। कहना पड़ेगा कि अन्य प्रतिभा-सम्पन्न कवियों में सर्वश्री हूंपकरण सांदू, आल्हा बारहठ, सिवदास गाडण, पीठवा मिश्रण, हरीदास महियारिया, अक्खा बारहठ, आशानंद बारहठ, माला सांदू, केशवदास गाडण, लक्खा बारहठ, माधोदास दधवाडिया, पदमा सांदू, मेहा वीठू, सूजा वीठू, नरहरिदास बारहठ, जग्गा खिडिया, करणीदान बारहठ, हुक्मीचंद खिडिया, महादान महह, ब्रह्मदास वीठू, रायसिंह सांदू, सालूदान कविया, किसना आढ़ा, रामनाथ कविया, स्वरूपदास देथा, बुधसिंह सिंढायच, आवडदान लाळस, चिमनदान कविया, गणेशपुरी पातावत, शंकरदान सामौर, समान बाई कविया, शिवबख्श पाल्हावत, कृष्णसिंह सौदा, बालाबख्श पाल्हावत, फतहकरण उज्वल, अलसीदान रतनू, केसरीसिंह सौदा (सोन्याणा), किशोरसिंह सौदा, नाथूसिंह महियारिया, अमरसिंह देपावत आदि चारण साहित्य-गगन के अत्यन्त उज्ज्वल नक्षत्र हैं।
(२) परिवर्तन-काल
राजस्थानी के चारण साहित्य का यह स्वर्णिम अतीत उसके उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत करे तो यह उसकी परम्परा के अनुकूल ही है किन्तु वर्तमान राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, शैक्षणिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के फलस्वरूप चारण कवि किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रहा है। १५ अगस्त, सन् १९४७ ई० की राजनैतिक स्वतंत्रता ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक अभूतपूर्व परिवर्तन उपस्थित कर दिया। अत: राजस्थान, डिंगल, चारण एवं राजपूत का रंग-रूप-रस ही बदल गया है। स्वर्गीय कवि उदयराज उज्वल के शब्दों में-
गी डिंगळ, साहित गयो राजस्थान-रो रूप।
पथ चूका, नीचे पड्या अपणै गुण अनुरूप।।
परिवर्तन को लक्ष्य करके एक अन्य कवि ने तो यहाँ तक कह दिया-
कविराजा खेती करो, हळ सूं राखो हेत।
गीत जमी में गाड दो, राळो ऊपर रेत।।
अत: इस परिवर्तन को हृदयंगम करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि इसी से मूल प्रेरणा ग्रहण कर स्वातंत्र्योत्तर चारण साहित्य नवीन दिशा की ओर अग्रसर होकर व्यापकत्व को प्राप्त हुआ। अस्तु,
(३) लोकतंत्र का उदय
इतिहास इस कथन की पुष्टि करता है कि स्वतंत्रता से पूर्व राजस्थान के विभिन्न राज्यों में राजपूत राजा-महाराजा सिंहासनारूढ़ थे और शासन-प्रबन्ध उनके हाथ में था। सामन्ती प्रथा होने से गाँवों में जागीरदारों का प्रभुत्व था। महाराजा पृथ्वीराज चौहान के बाद केन्द्रीय सत्ता मुसलमानों और फिर अँग्रेजों के हाथ में आ गई। अत: यहाँ का शासक वर्ग इन दो विदेशी जातियों से आठ-सौ वर्षों तक गठ-बंधन करता रहा फिर भी उनके अधीन ही रहा। राजा-महाराजाओं एवं जागीरदारों ने सीमित स्वतंत्रता में अपनें-अपने राज्यों में वंश-परम्परानुसार शासन किया। अंग्रेज अपनी नींव दृढ करने की महत्वाकांक्षा से राज्यों में हस्तक्षेप करते रहते थे। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों में साम्प्रदायिकता का रोग फैलाकर एक ऐसी घृणित राजनीति को जन्म दिया जिसका निदान पाकिस्तान बन जाने पर भी नहीं हुआ। राज्यों की अपनी-अपनी सीमायें, पताकायें एवं मुद्रायें थीं। प्रत्येक राज्य का अपना-अपना मंत्रिमंडल था। उच्च पदों पर अँग्रेजों के प्रतिनिधि नियुक्त थे। अँग्रेज शरीर, मस्तिष्क एवं चरित्र में उन्नत था। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उसकी देन स्वीकार करनी होगी। समय-विवेक, शासन-प्रबन्ध एवं राष्ट्रीय चरित्र की दृष्टि से वह अनुकरणीय है। यह लक्ष्य करने की बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही राजस्थान में विदेशी सत्ता से मुक्त होने की भावना उत्पन्न हो गई थी। मुगल-सम्राट् अकबर के समकालीन कवि दुरसा आढ़ा की स्फुट रचनाओं में इसका सर्वप्रथम आभास देखने को मिलता है। निश्चय ही महाराजा मानसिंह (जोधपुर) के राज्याश्रित कवि वाँकीदास आसिया ने सर्वप्रथम राजाओं को अँग्रेजों से स्वतंत्र होने के लिए ललकारा। फिर तो अनेक कवि राष्ट्रीय धारा में कूद पड़े। स्वतंत्रता-संग्राम में चारण कवियों का योगदान पृथक् अध्ययन का विषय है। संदेह नहीं कि इन कवियों से प्रभावित होकर स्वतंत्रता-प्रेमी नरेशों ने परोक्ष रूप से विदेशी सत्ता का विरोध किया। यदि समस्त नरेश प्राण-प्रण से इस ओर जुट जाते तो देश कभी का स्वाधीन हो गया होता। किन्तु स्वयं राजपूत जाति में प्रेम, एकता एवं संगठन का अभाव था। दुर्भाग्य से जर-जोरू-जमीन के चक्कर में राजपूत-राजपूत में भी टक्कर होती रही अत: रजवट शनै: शनै: रज-रज होता गया।
बीसवीं शताब्दी में सार्वजनिक समानाधिकार की भावना प्रबल होती गई। राजस्थान की जनता अंग्रेजों, राजाओं एवं जागीरदारों – इन तीनों के शोषण से मन ही मन क्षुब्ध थी और ‘जी हूजरी’ में अपने दिन काट रही थी। वह दुर्बलता, दारिद्रय एवं असहाय अवस्था में जीवन-यापन कर रही थी। भेदभाव बहुत बढ़ गया था अंत: समाज शासन से कटकर अलग पड़ा हुआ था। दलित वर्ग आर्थिक, सामाजिक एवं शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ा रहने के साथ प्राथमिक सुविधाओं से वंचित था। ऐसे समय में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना से (१८८५ ई०) जनता में चेतना आई। प्रत्येक राज्य में इसकी शाखायें खुलीं। केन्द्र, राज्य एवं ग्राम स्तर तक इसका विस्तार हुआ। प्रजा अपने मूल अधिकारों के प्रति सजग हुई। राजनीति के क्षैत्र में महात्मा गाँधी की अवतारणा भारत के लिए ही नहीं प्रत्युत् सारे संसार के लिए वरदान सिद्ध हुई। भारत जैसे गरीब देश के लिए युद्ध के द्वारा अँग्रेजों को मार भगाना सम्भव नहीं था। अत: उन्होंने मानव की महिमा एवं गरिमा के लिए ‘सत्याग्रह’ नामक पहला अहिंसक आदोलन चलाया और सिद्ध कर दिया कि यदि दृढ़ता के साथ इसका प्रयोग किया जाय तो हिंसा के बिना ही शांति से परिवर्तन लाया जा सकता है। यह इस शताब्दी की एक महान् घटना है। उन्होंने सत्य, अहिंसा, प्रेम, सेवा, त्याग, बलिदान एवं नैतिकता का संदेश देकर विश्व को एक सर्वथा नूतन मार्ग दिखाया और सबने माना कि जो दम गाँधी में है, वह अणु-बम की आँधी में भी नहीं। उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का संस्पर्श कर उसके स्वाभाविक सर्वांगीण विकास का रहस्योद्घाटन किया। अजेय आत्मा के उनके परीक्षण इस सृष्टि में सदैव अजर-अमर रहेंगे। ‘गाँधीवाद’ नामक नई विचार-धारा के ऋण से यह देश तो क्या संसार भी उऋण नहीं हो पायेगा। यह समय का तकाजा और परिस्थिति की विवशता थी कि अंग्रेज भारत से शासन की बागडोर राष्ट्रीय नेताओं को सौंपकर चल दिये, मुसलमानों की तरह यहाँ जमे नहीं। कहना न होगा कि गाँधी ने स्वतन्त्रता के स्वप्न को साकार कर दिया- १५ अगस्त, सन् १९४७ ई० के शुभ दिन भारत राजनैतिक दृष्टि से स्वतंत्र हुआ। दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा लहराया। फलतः एक नवीन शासन-पद्धति का उदय हुआ जिसे प्रजातंत्र कहते हैं। लोकतंत्र अथवा जनतंत्र इसी के पर्याय हैं। भारत जनसंख्या को दृष्टि से विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। आज इसकी जनसंख्या लगभग ६० करोड़ है। सिक्किम के विलय से (१६ मई, सन् १९७५ ई०) अब देश में कुल २२ राज्य हो गए हैं।
(४) ‘राजस्थान’ राज्य का नव-निर्माण
जहाँ तक राज्य का सम्बंध है, स्वाधीनता की स्वर्ण किरण ने बिखरी हुई भूतपूर्व देशी रियासतों का एकीकरण कर इसे एक विशाल रूप प्रदान कर दिया है। तत्कालीन प्रथम केन्द्रीय गृह एवं रियासत मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जर्मनी के बिस्मार्क की तरह जिस दृढ़ता और क्षिप्रता से इन रियासतों का एकीकरण किया, वह इतिहास का एक मौलिक अध्याय है। इस भूकम्प से सामन्तवाद की प्राचीर हिल उठी।
सबसे पहला कदम राजपूताने के पूर्वी भाग में स्थित अलवर, भरतपुर, करौली और धौलपुर रियासतों ने उठाया। १७ मार्च, सन् १९४८ ई० में ये चारों रियासतें परस्पर मिला दी गई और इस संघ को ‘मत्स्य’ की संज्ञा दी गई। अलवर नगर को इस नव-निर्मित संघ की राजधानी बनाया गया। २५ मार्च, सन् १९४८ ई० में कोटा, बूँदी, टोंक, झालावाड़, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, किशनगढ़, शाहपुरा और कुशलगढ़ (जागीर) के नरेशों ने संघ बनाने की अनुमति प्रदान की। इसका कार्य आरम्भ होने ही वाला था कि १८ अप्रैल, सन् १९४८ ई० में उदयपुर रियासत भी इसमें सम्मिलित हो गई। इस नवीन संघ को ‘सँयुक्त राजस्थान’ कहा गया और इसकी राजधानी उदयपुर रखी गई। १५ मई, सन् १९४८ ई० में मत्स्य संघ भी संयुक्त राजस्थान में मिला दिया गया। शेष बची जोधपुर, जयपुर, बीकानेर, जैसलमेर एवं सिरोही रियासतें इसमें सम्मिलित नहीं हुई। ३० मार्च, सन् १९४८ ई० में सिरोही को छोड़कर चारों रियासतें मिला दी गईं। इस बड़े राज्य का नाम ‘बृहत् राजस्थान’ रखा गया। सिरोही को कुछ समय के लिए बम्बई राज्य में रखा गया, परन्तु अंत में आबू तथा उसके निकट के कुछ भाग को छोड़कर सिरोही रियासत भी राजस्थान में विलीन कर दी गई। भौगोलिक दृष्टि से यद्यपि अजमेर राजस्थान का ही अंग था किन्तु कुछ वर्षों तक राजनैतिक दृष्टि से इसे ‘ग’ श्रेणी का पृथक् राज्य माना गया। १ नवम्बर, सन् १९५६ ई० में अजमेर के मिल जाने से इस राज्य को अपना पूर्ण रूप प्राप्त हो गया। राजस्थान के इतिहास में सन् १९५७ ई० का वर्ष महत्वपूर्ण है क्योंकि इस वर्ष राजस्थान ‘बी’ श्रेणी के राज्य से ‘ए’ श्रेणी का राज्य बना और राजप्रमुख पद का अंत हुआ। अजमेर, आबू तथा सुनेल टप्पा के विलय से राजस्थान की सीमायें विस्तृत हुईं। इस प्रकार यह नव-निर्मित विशाल ‘राजस्थान’, जिसकी राजधानी जयपुर है, देशी रियासतों को मिलाकर सात चरणों में पूर्ण स्वरूप ग्रहण कर सका।
क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान भारत का दूसरा बड़ा राज्य है। इसकी जनसंख्या ढाई करोड़ है। इसकी सीमा पाकिस्तान से लगे होने के कारण सामरिक दृष्टि से इसका महत्व बहुत अधिक है। आज राज्य भर में प्रशासन की एक समान पद्धति लागू है और संसदीय ढंग की सरकार है। वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित प्रतिनिधियों की यहाँ विधान-सभा हे। विधान-सभा के बहुसंख्यक दल का प्रतिनिधित्व करने वाला और उसके प्रति उत्तरदायी मंत्रिमण्डल प्रशासन का संचालन करता है। एकीकरण से राज्य में राजनैतिक चेतना तथा भौतिक प्रगति दृष्टिगोचर हो रही है। गहरी आँचलिक संकीर्णताओं के होते हुए भी यह राज्य सम्पन्न होता जा रहा है।
(५) नवीन राजनैतिक अवस्था
(क) केन्द्रीय सत्ता एवं विदेश नीति:- संदेह नहीं कि भारत में साम्राज्यवाद के साथ सामंतवाद का सूर्यास्त होते ही एक सर्वथा नई राजनीति का सूत्रपात हुआ। सत्ता व्यक्ति से हटकर वर्ग के पास आ गई। परम्परागत राज्य एवं जागीरी के दिन लद गये। अब प्रजा स्वयं अपने प्रतिनिधि का चुनाव करती है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के अनन्तर भारत ने अपना नया संविधान बनाया जिसके अनुसार एक स्वतंत्र प्रजातंत्रात्मक गणतंत्र की स्थापना हुई (२६ जनवरी, १९५० ई०)। सर्वप्रथम महामहिम डॉ० राजेन्द्रप्रसाद राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर निर्वाचित हुए। फिर क्रमशः डॉ० राधाकृष्णन, डॉ० जाकिर हुसैन, श्री वराह वेंकट गिरि एवं श्री फखरुद्दीन अली अहमद इस पद पर चुने गये। इसी प्रकार संविधान के अनुसार काँग्रेस के महान् नेता माननीय पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए और उन्होंने सर्वप्रथम केन्द्रीय मंत्रिपरिषद का गठन किया। फिर श्री लाल बहादुर शास्त्री इस पद पर प्रतिष्ठित हुए। वर्तमान में प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में देश तेजी से विकास की ओर बढ़ रहा है। कहना न होगा कि इन सबके शासन-काल में भारत लोकतंत्र, समाजवाद एवं धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में इस भूमण्डल में चमका। वैज्ञानिक युग में परस्पर जुड़े होने के कारण इन यशस्वी नेताओं का ध्यान राष्ट्रीय एकता के साथ अन्तर्राष्ट्रीय एकता की ओर गया।
विदेश नीति में स्वतंत्र भारत ने अनेक सफलतायें प्राप्त की। इन सफलताओं का मूल आधार यथार्थ में शांति के लिए हमारी सक्रिय दिलचस्पी है। गुट-निरपेक्ष देशों के कार्यों में हमने प्रशंसनीय हाथ बटाया है। हमने निर्णायक महत्त्व के विदेशी विषयों में प्रगतिशील शक्तियों का पक्ष लिया है जिससे हमारी प्रतिष्ठा एवं प्रभाव बढ़ा है। भारत सही रास्ते पर चलता है, किसी के दबाव में नहीं आता। इसे कोई दुर्बल नीति न समझे। समाजवादी देशों के साथ हमारा सम्बंध उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। विश्व-शांति एवं प्रगति के उद्देश्य से भारत सरकार ने प्रायः सभी देशों के साथ राजनयिक सम्बंध स्थापित किये। साथ ही संयुक्त राष्ट्र-संघ के सक्रिय सदस्य के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। भारत सब का मित्र है, किसी का शत्रु नहीं। यदि कोई जान-बूझ कर शत्रु बनना चाहे तो बात अलग है। हमारा देश शांति, मैत्री एवं सहअस्तित्व का संगम है। अपनी तटस्थ नीति के कारण अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारा गौरव बढ़ा है। भारत दूसरे देशों के आंतरिक विषयों में कभी हस्तक्षेप नहीं करता और न अपने में चाहता ही है। इस उदार नीति के आगे युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। फिर भी भारत के पड़ोसी देशों ने अपनी विस्तारवादी नीति के कारण समय-समय पर आक्रमण किये। इन बाह्य आक्रमणकारियों में चीन एवं पाकिस्तान के नाम सर्वविदित हैं। चीन के आक्रमण ने भारत की आँखें खोली (१९६२ ई०)। पाकिस्तान ने दो बार आक्रमण किये (१९६५ व १९७१ ई. किन्तु) मुँह की खाई। उसका अंग भंग हुआ और भारतीय सहायता से पूर्वी पाकिस्तान के स्थान पर एक नये बंग (बंगला) देश का अभ्युदय हुआ (१९७१ ई०)। इससे भारत का नाम बड़ी शक्तियों में गिना जाने लगा। हमारे प्रथम भूमिगत परमाणु विस्फोट (१८ मई, १९७४ ई०) की प्रमुख वैज्ञानिक घटना ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया। अब पाक एवं चीन की भारत विरोधी नीति को देखते हुए परमाणु बम बनाने की आवाज़ उठ रही है। यह अत्यंत गर्व एवं संतोष का विषय है कि भारत ने प्रथम उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ को अंतरिक्ष में छोड़कर विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में दूसरी बड़ी सफलता प्राप्त की है (१६ अप्रैल, १६७५ ई०)
(ख) राजस्थान एवं केन्द्रीय सत्ता: कोई पौधा बीज से निकलते ही फलदायक वृक्ष नहीं बन जाता। राजनैतिक दृष्टि से भारत को स्वतंत्र हुए २८ वर्ष ही हुए हैं। यह अवधि किसी राष्ट्र की उन्नति के लिए पर्याप्त नहीं, फिर भी यह निर्विवाद सत्य है कि देश लोकतंत्रीय समाजवादी व्यवस्था की ओर शनैः शनैः गतिशील हो रहा है। यह व्यवस्था अपने प्रारम्भिक काल में भले ही पुष्ट न हुई हो किन्तु स्पष्ट अवश्य हुई है। जन-सामान्य का जीवन-स्तर ऊपर उठ रहा है और उच्च वर्ग नीचे आ रहा है। नवीन शासन व्यवस्था की रीति-नीति के अनुसार ऐसा होना स्वाभाविक ही है। इन वर्षों में केन्द्र के साथ राजस्थान का एक सर्वथा नवीन सम्बन्ध स्थापित हुआ। स्वतंत्र भारत में केन्द्रीय सत्ता काँग्रेस के ही हाथ रही और राजस्थान में इसी राजनैतिक दल का क्रमबद्ध शासन रहा, अतः दोनों के सम्बन्ध घनिष्ट बने रहे। प्रशासनिक, वित्तीय एवं न्यायिक विषयों में दोनों के सम्बंध अन्योन्याश्रित हैं। यह लक्ष्य करने की बात है कि जिस दल ने स्वतंत्रता के लिए सतत संघर्ष किया, वह अंततः विजयी हुया और आज शासन-प्रबंध उसी के हाथ में है। जब-जब भी चुनाव हुए जनता ने उसे अपना मत देकर विजयी बनाया।
प्रारम्भ में काँग्रेस को मुख्यत: राजपूतों ने ही चुनौती दी जो इस राज्य को अपना समझते थे। नये राजनैतिक ढाँचे में उन्हें पहले जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी और न वह शक्ति ही रह गई थी जिसका वे सदा से उपयोग करते आये थे। सन् १९५२ ई० में आम चुनावों के लिए खड़े होने वाले राजामहाराजा स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में निर्वाचित होकर विधान-सभा में आये किन्तु पाँच वर्षों के अनुभवों ने उन्हें बाध्य किया कि ठोस परिणाम की प्राप्ति के लिए किसी दल में सम्मिलित होना श्रेयस्कर है। अतः सन् १९५७ ई० में होने वाले दूसरे आम चुनावों में किसी दल का टिकट प्राप्त करने का महत्त्व उन्होंने समझा और सक्रिय दलगत राजनीति में वे अधिकाधिक भाग लेने लगे। आम चुनावों ने जनजन में राजनीति के प्रति दिलचस्पी उत्पन्न की। साथ ही उनमें शक्ति और सत्ता का भाव भी जगा दिया। यह इसी का परिणाम है कि अब नेतृत्व शहर की अपेक्षा ग्राम-वासियों के हाथों में जा रहा है। अनेक राजा-महाराजाओं एवं जागीरदारों ने स्वतंत्र दल बनाकर नवोदित राजनीति में प्रवेश किया, किन्त काँग्रेस के बहुमत के आगे उनकी एक न चली। सशक्त लोकमत के आगे उन्हें नत-मस्तक होना पड़ा। फिर भी राजस्थान के अनेक दूरदर्शी कुशल नरेशों तथा ठाकुरों ने समय की गति पहिचान कर पंचायत, नगर-परिषद्, जिला-परिषद्, विधान-सभा, लोक-सभा आदि के चुनावों में भाग लिया और विजयी हुए। कालान्तर में राजाओं के ‘प्रिवीपर्स’ एवं विशेषाधिकार समाप्त हुए। वे काँग्रेस के सदृश जनता में घुल-मिल कर लोकप्रिय नहीं हो पाये। यह उनके स्वभाव-संस्कार में भी नहीं था। नई पीढ़ी का तो प्रश्न ही नहीं, पुरानी पीढ़ी भी उन्हें भूलने लगी। लोकतंत्र ने प्राचीन शासन-पद्धति को ऐसा झकझोर दिया कि जिससे उच्च वर्ग अस्त-व्यस्त गया। वह चाहने पर भी कुछ न कर सका। काँग्रेस के शासन में उन्हें अपनी पैतृक चल-अचल सम्पदा की रक्षा करना कठिन हो रहा है। धरती के वे धणी अपने-अपने महलों एवं ठिकानों में कितने ही बड़े क्यों न हों, बाहर सामान्य नागरिक बनकर रह गये हैं। कुछ अवसरवादी लोगों ने अंग्रेजी वेश-भूषा तथा सामंती चोला उतारकर खादी पहन ली और काँग्रेस में जा मिले। इन पर कोई आंच न आई। यह सब समय की बलिहारी है ! अस्तु,
(ग) नवीन व्यवस्था:- राजस्थान सामंतवादी प्रथा का एक सुदृढ़ गढ़ था। गत २८ वर्षों में देश के अन्य किसी भाग की अपेक्षा यहाँ कहीं अधिक मौलिक परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों का सार है- सामंतवाद के स्थान पर लोकतंत्र की स्थापना। यह जनता का कितना बड़ा अधिकार है कि वह मत देकर अपने मन-पसन्द व्यक्ति को शासन के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा देती है। चुनाव के द्वारा बहुमत पाने वाला राजनैतिक दल सत्तारूढ़ होता है। इसका नेता मुख्यमंत्री बनता है और अपनी रुचि से मंत्रिपरिषद् का गठन करता है। मंत्रिपरिषद् विधान-सभा की सर्वोच्च शासकीय संस्था है जिसमें विधान-सभा के बहुमत वाले राजनैतिक दल के सदस्य होते हैं। यह राज्यपाल और विधान-सभा के बीच की कड़ी है। सिद्धान्ततः राज्य की सम्पूर्ण कार्यपालिका-शक्ति राज्यपाल में निहित है परन्तु व्यवहारतः इन शक्तियों का उपयोग मंत्रिपरिषद् ही करती है। मंत्री अपने-अपने विभाग की नीति निश्चित करते हैं और योजनायें बनाते हैं। न्यायपालिका की दृष्टि से राजस्थान में भी एक उच्च न्यायालय की स्थापना की गई जिसका स्थान जोधपुर में रखा गया। सर्वप्रथम माननीय श्री कमलाकांत वर्मा मुख्य न्यायाधिपति के पद पर नियुक्त हुए। तत्पश्चात् श्री नवलकिशोर, श्री कैलाशनाथ वांचू, श्री कँवरलाल बाफना, श्री सरजूप्रसाद, श्री जवानसिंह राणावत, श्री दुर्गाशंकर दवे, श्री दौलतमल भंडारी, श्री जगतनारायण एवं श्री भगवतीप्रसाद बेरी प्रतिष्ठित हुए। आजकल श्री प्रकाशनारायण सिंघल इस पद को सुशोभित कर रहे हैं।
राज्य का सचिवालय जयपुर में ही रहा जहाँ से नीति को कार्यान्वित किया जाता है। परगने टूटे और जिले बने। जिले में उपमंडल और उपमंडल में तहसीलें बनीं। प्रत्येक जिले में जिलाधीश की नियुक्ति हुई। जिले में कई विभाग खुले, जैसे- पुलिस, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, कृषि, बन, सिंचाई, उद्योग, सहकारी, जन-सम्पर्क आदि-आदि। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की स्थापना के फलस्वरूप प्रत्येक जिले में एक ‘जिला-परिषद्’ एवं तहसील स्तर पर ‘पंचायत समिति’ की स्थापना की गई। जन-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अगणित लोकतांत्रिक सभा-समितियों एवं संस्थानों का जाल बिछ गया। ग्राम-ग्राम में पंचायतों की स्थापना हुई। नगर पालिकाओं का महत्त्व बढ़ा। पत्र-पत्रिकाओं की धूम मची। कहना निरर्थक न होगा कि राजस्थान देश का प्रथम राज्य है जिसने अपने समस्त जिलों में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरणी की योजना को लागू किया (१९५६ ई०)।
केन्द्र ने राजस्थान की समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योग दिया। आरम्भ में राज्य-सरकार के सामने अनेक कठिनाइयाँ आई, किन्तु धीरे-धीरे वे हल होती गईं। इन वर्षों में कई भूमि-सुधार हुए और पंचवर्षीय योजनायें बनीं। अन्य राज्यों के सदृश यहाँ भी नये-नये उद्योग-धंधों की नींव पड़ी, कल-कारखाने खुले और कृषि के साधन बढ़े। सिंचाई के लिए बाँध बने। साथ ही नहरों, तालाबों, एवं कुओं का निर्माण हुआ। अनेक नई सड़कें बनी और बड़ी-बड़ी इमारतें बनकर तैयार हुईं। स्थान-स्थान पर स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। यही नहीं जहाँ अस्पताल नहीं थे, वहाँ ये खोले गये। बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ जिससे जनता को लाभ पहुँचा। इस प्रकार स्थान-स्थान पर विकास के चिन्ह स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे। स्वतंत्रता-काल में राज्य का शासन-प्रबन्ध राज्यपाल द्वारा होता है। महामहिम सरदार गुरुमुख निहालसिंह राजस्थान के प्रथम राज्यपाल नियुक्त हुए। उनके पश्चात् डॉ० सम्पूर्णानन्द, सरदार हुकमसिंह एवं सरदार जोगिन्दरसिंह ने इस पद को सुशोभित किया। राज्य में सबसे पहले माननीय पंडित हीरालाल शास्त्री मुख्यमंत्री बने और तत्पश्चात् श्री टीकाराम पालीवाल, श्री जयनारायण व्यास, श्री मोहनलाल सुखाड़िया, श्री बरकतउल्लाखाँ एवं श्री हरिदेव जोशी ने शासन-प्रबन्ध सँभाला। कहना न होगा कि इन सबके शासन-काल में प्रजातंत्र स्थिर तथा दृढ़ होता गया और अनेक लोक-कल्याणकारी योजनाओं का श्रीगणेश हुआ।
(घ) राजनैतिक दल:- लोकतंत्र में एक से अधिक दलों का होना आवश्यक है। राजस्थान में कई राजनैतिक दल सक्रिय हैं। कुछ नये दल भी बने, बिगड़े और मिटे। ये दल अखिल भारतीय भी हैं एवं प्रांतीय भी। भारत में इन विभिन्न दलों की संख्या लगभग पचास होगी और राजस्थान में लगभग बीस। इनमें सत्तारूढ़ काँग्रेस, संगठन काँग्रेस, जनसंघ, साम्यवादी, मार्क्सवादी साम्यवादी, समाजवादी, प्रजा समाजवादी, क्रांतिकारी समाजवादी, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समाजवादी, स्वतंत्र, भारतीय लोकदल (क्रांतिदल), मुस्लिम लीग, राम राज्य परिषद्, हिंदू महासभा, आर्यसभा, किसान दल, लोकसेवक संघ आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। देश का सबसे बड़ा और पुराना दल ‘भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस’ विभक्त हो गया (१९६९ ई०) और उसने साम्यवादियों से गठजोड़ किया। भारतीय साम्यवादी दल काँग्रेस के समानान्तर चल रहा है। इसका अपना सिद्धान्त, कार्यक्रम एवं लक्ष्य हैं। सामयिक तालमेल के अतिरिक्त इन दोनों में कहीं समानता नहीं है। शेष दल अपनी-अपनी विचार-धारा के अनुसार पृथक्-पृथक् कार्यक्रम की घोषणा करते हैं। काँग्रेस तथा साम्यवादी दल सत्ता के पक्ष में हैं और शेष सभी दल विपक्ष में। विपक्ष के सबसे बड़े दल जनता मोर्चे को ‘विरोधी दल’ की मान्यता प्राप्त है। मार्च, १९७५ ई. तक राजस्थान विधानसभा की कुल सदस्य-सँख्या १८४ थी जिसमें काँग्रेस के १५१ सदस्य थे, जनता मोर्चे के १६, साम्यवादी दल के ५, समाजवादी दल के २, जनसंघ का १ तथा मार्क्सवादी दल का १। निर्दलीय सदस्य-सँख्या ७ थी। अब आगामी चुनावों के लिये कुल सदस्य-संख्या बढ़ाकर २०० कर दी गई है। दलीय राजनीति में अनास्था के कारण निर्दलीय सदस्यों का अपना अलग अस्तित्व है। इनके दल-बदल ने राजनीति को एक दल-दल बना दिया है। भारतीय राजनीति में दलीय जोड़-तोड़-फोड़ अधिक है अत: नये मूल्य स्थापित नहीं हो सके बल्कि जो थे, वे भी जाते रहे। फिर एक विकासशील देश में इतने विरोधी दलों का औचित्य समझ में नहीं आता। राष्ट्रीय समस्यायें दल-विशेष को लाभ पहुँचाने के लिए नहीं वरन् सभी को एक होकर समाधान ढूंढने के लिए होती हैं। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए कुछ लोग दलीय राजनीति से क्षुब्ध हैं अतः दल-विहीन जनतंत्र की कल्पना करने लगे हैं। उनका कथन है कि आधे सदस्य निर्वाचित हों और प्राधे मनोनीत। जो हो, इसके लिए शीर्षस्थ राजनीतिज्ञों को आगे आकर मार्ग-दर्शन करना चाहिए।
संदेह नहीं कि भारत में अभी ऐसा कोई राजनैतिक दल नहीं जो काँग्रेस को पदच्युत कर सके। यदि सब दल मिल जायें तो भी ऐसा होना सम्भव नहीं। सत्ता में होने से काँग्रेस लाभजनक स्थिति में है। फिर भी विपक्षी दलों की सेवायें कम महत्त्वपूर्ण नहीं। यदि देश में प्रबुद्ध, प्रखर एवं पुष्ट विपक्ष न होता तो जनता अनेक विषयों को लेकर अंधकार में ही रह जाती। एक सुदृढ़ लोकतंत्र के लिये वैकल्पिक विपक्ष का होना आवश्यक है जिससे सत्तारूढ़ दल अपने प्रचण्ड बहुमत के मद में मनमानी न कर बैठे। स्वयं काँग्रेस नहीं चाहती कि विरोधी दल प्रबल हों। विरोधी दलों की फूट से काँग्रेस को कुछ भी करने की छूट मिल जाती है। यदि कोई मदोन्मत्त गयंद हरे-भरे राष्ट्रीय उद्यान को रौंदता चले तो उस पर अंकुश लगाना आवश्यक हो जाता है। विरोधी दल महावत बनकर यह कार्य कर सकता है। वस्तुतः विरोधी दल काँग्रेस का विकल्प तैयार नहीं कर पाये। अब नेताओं का ध्यान इस ओर गया है। हाँ, सत्तापक्ष पर दबाव डालने वाली शक्ति के रूप में ये अवश्य उभरे हैं। भारतीय प्रतिपक्ष विभक्त है अतः सारे मत बँट जाते हैं और उसका लाभ काँग्रेस को होता है। वह अल्प प्रतिशत में भी विजयी की विजयी रह जाती है। यदि सत्तारूढ़ दल अपना कार्यक्रम पूरा न करे तो आगे प्रतिपक्ष के सत्तारूढ़ होने की सम्भावना रहती है और ऐसा उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मद्रास, केरल, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा मध्यप्रदेश में हुआ भी। किन्तु ये ‘संविद’ सरकारें अधिक दिनों तक नहीं चल पाईं।
प्रतिपक्षी दल ऐसा क्रांतिकारी परिवर्तन भी नहीं ला पाये जो सत्तापक्ष से सर्वथा भिन्न होता। अतः ये दल काँग्रेस के विकल्प की कल्पना से मतदाता को प्रेरित नहीं कर सके। साथ ही ये नीतियाँ एवं कार्यक्रम की विशिष्टता में भी पोछे रह गये। इसके लिए इन्हें जन-जीवन के सभी क्षेत्रों में विकल्प बनना होगा अन्यथा प्रचारात्मक लाभ के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। एक दृढ़, सशक्त एवं रचनात्मक प्रतिपक्ष के अभाव में लोकतंत्र का रस जनता नहीं ले पाती। हाल ही में संगठन काँग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल, समाजवादी दल आदि ने एक होकर गुजरात में जनता मोर्चा बनाया और विजय प्राप्त की (१२ जून, १९७५ ई०)। अतः सत्ता उनके हाथ में आ गई और काँग्रेस विपक्ष में जा बैठी। इससे विरोधी दलों का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अन्य प्रांतों में भी जनता मोर्चे बनने लगे हैं। भारत में विरोधी दलों को एक होकर सरकार का स्वस्थ विकल्प प्रस्तुत करने का समय आ गया है। अब तक की गतिविधियों का निष्कर्ष यह है कि यदि राजनैतिक नेतृत्व दावपेचों और अपने विरोधियों को नीचा दिखाने में ही सारी शक्तियां क्षय करता रहा तथा विरोध विरोध के लिए ही होता रहा तो फिर हो चुका देश-कल्याण। दोष किसी एक दल का नहीं, सबका है। सभी ने स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया है और राजनैतिक क्षेत्र में होने वाले अनैतिक गठ-बन्धन राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं।
(ङ) प्रजातंत्र शासन-पद्धति:- प्रजातंत्र शासन-पद्धति में जनता द्वारा जनता के हित के लिए जनता-सरकार की स्थापना होती है। इसका लक्ष्य व्यक्तित्व का विकास है। राज्य साधन है और व्यक्ति साध्य। यह पद्धति परस्पर ‘बातचीत’ के द्वारा किसी समस्या को हल करना सिखाती है जिससे सद्भावना, सहयोग तथा सहानुभूति की भावना बढ़ती है। अतः आज बातचीत का जोर बहुत बढ़ गया है। इसमें लोगों को बोलने, लिखने तथा आलोचना की स्वतंत्रता होती है। यही नहीं, अपने अधिकारों को प्राप्त करने हेतु प्रदर्शन की भी छूट होती है।
कोई भी शासन-प्रणाली गुण-दोष रहित नहीं। देश, काल एवं स्थिति के अनुसार प्रजातंत्र प्रणाली संसार में सर्वोत्तम है किन्तु इसके मूल में विरोध-भावना है जो राग-द्वेष, छल-कपट एवं बैर-वैमनस्य उत्पन्न करती है। इससे कटुता, तनाव, घृणा तथा हिंसा का वातावरण बनता है। कई लोग अनजान में शत्रु बन जाते हैं और संघर्ष होने पर प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। राजनीति में दलीय छुआछूत इतनी बढ़ गई है कि मनुष्यता के नाते यदि एक दल का व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से बात भी कर ले तो वह संदिग्ध दृष्टि से देखा जाता है। स्वराज्य से पूर्व विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने हेतु जो नेता हथेली पर जान लिए एक साथ घूमते थे, आज वे और उनके अनुयायी आपस में ही मर-मिट रहे हैं। पहले जितनी जन-धन की क्षति नहीं हुई थी, उससे भी कई गुना अधिक अब हो रही है। यह आज़ादी नहीं, बरबादी है। जब सब दलों का समान उद्देश्य जन-सेवा है तो फिर ये नित्य-नये संघर्ष प्रजातंत्र को शोभा नहीं देते। यह विरोध अब खुलकर सामने आया है। छोटी-बड़ी प्रायः सभी संस्थायें इसी रोग से पीड़ित हैं। लोक-सभा एवं विधान-सभायें क्रमशः देश एवं राज्य की सर्वोच्च संस्थायें हैं। यहाँ कई विधेयक प्रस्तुत किये जाते हैं जो कानून का रूप धारण करते हैं। | यहाँ वर्षा, शीत एवं ग्रीष्मकालीन अधिवेशन होते हैं। इनमें एक ओर पक्ष है तो दूसरी ओर विपक्ष। सामने उच्च आसन पर अध्यक्ष विराजमान हैं। यहाँ धन्यवाद, निन्दा, शोक, मर्यादा, स्थगन, काम रोको, कटौती, ध्यानाकर्षण, विशेषाधिकार आदि नाना प्रकार के प्रस्ताव प्रस्तुत किये जाते हैं जिन पर जमकर विचार किया जाता हैं। प्रश्नोत्तर काल में प्रश्न पूछे जाते हैं और सम्बद्ध मंत्री उत्तर देते हैं। कोई समर्थन करता है तो कोई विरोध। बातों ही बातों में उत्तेजना, टोका-टोकी, हंगामा, झड़प तथा नोक-झोंक होती है। यहाँ तक कि हाथा-पाँई की नौबत आ जाती है। इधर कुछ वर्षों की घटनाओं ने इन सभाओं की उपयोगिता तथा महत्त्व पर अनेक आशंकायें उपस्थित कर दी हैं। यदि सच पूछा जाय तो संसदीय व्यवस्था को आशानुकूल सफलता नहीं मिल पाई। यहाँ जो है वह कोरी बहस है जिसकी प्रक्रिया दीर्घ, जटिल एवं व्यय-साध्य है। इसकी गति धीमी होती है अतः कार्य शीघ्र नहीं हो पाते। सदस्यों की सुख-सुविधा तथा वेतन-भत्तों पर भी अपार धन-राशि खर्च होती है। इन सभाओं में व्यर्थ ही अमूल्य समय नष्ट होने के साथ प्रति मिनट राष्ट्र के हजारों लाखों रुपये बातों ही बातों में बह जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से स्वतंत्र भारत की ये संस्थायें ‘बातों की वाड़ियां’ बनकर रह गई हैं। प्रायः प्रत्येक अधिवेशन में सरकार के प्रति अविश्वास का प्रस्ताव लाया जाता है। कई दिनों तक बहस होती है और यह सब जानते हुए होती है कि अविश्वास का प्रस्ताव पारित नहीं होगा। मत-विभाजन होने पर विपक्ष को मुँह की खानी पड़ती है।
देश का भला इसी में है कि अब आगे के लिए प्रस्तावों में इतना अधिक न उलझा जाय और तत्काल कारगर उपाय किये जायें। जनता प्रतीक्षा करते-करते इस व्यवस्था से ऊबकर बेबस होती जा रही है। हमें जो करना है वह तुरन्त और तेज गति से करना होगा।
(च) निर्वाचन पद्धति:- निर्वाचन लोकतंत्र के रथ की धुरी है। इसका अपना पृथक् शास्त्र है। हमारे यहाँ निर्वाचन के अतिरिक्त ऐसी कोई पद्धति नहीं जिसके आधार पर यह जाना जा सके कि महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों पर जनता का मत क्या है ? एतदर्थ निर्वाचन लोकतंत्र का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है। चुनाव न हों तो राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता है। भारत में लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना के साथ राष्ट्रव्यापी निर्वाचन की नींव पड़ी। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, संसद के सदन, विधान-मंडल आदि चुनाव के द्वारा बनने लगे। जनता द्वारा निर्वाचित दल शासन करने लगा। आज देश में सभी कार्यो के लिए निर्वाचन-पद्धति का आश्रय लिया जाता है। जिस उम्मीदवार के पक्ष में अधिक मत आते हैं, वह विजयी घोषित होता है। छोटी बड़ी प्रायः सभी संस्थाओं में चुनाव के समय लोगों में भारी उत्साह दिखाई देता है। जिधर देखो उधर चुनाव की चहल-पहल है। प्रत्याशी तथा उसके दलीय समर्थक रात-दिन भाग-दौड़ कर प्रचार करते हैं। प्रत्याशी सभा, भाषण, विज्ञापन, चित्रपट, आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं आदि साधनों के द्वारा जनता को अपने अनुकूल बनाते हैं। जिस उत्साह, उमंग एवं उल्लास के साथ चुनावों में काम-काज किया जाता है, यदि बाद में भी वैसे ही किया जाय तो देश का भला हो। मतदाताओं की संख्या २२ करोड़ है। स्वतंत्र भारत में भेद-भाव के बिना प्रत्येक नागरिक को, जो २१ वर्ष की अवस्था से कम नहीं है, मत देने का अधिकार प्राप्त है। प्रायः मतदाता प्रचार-कार्य और अपने लाभ को देखकर ही मत देते हैं। निर्वाचन की समस्त व्यवस्था सरकार करती है। इसके लिए पृथक् विभाग है। संदेह तथा विवादास्पद चुनावों का निर्णय न्यायाधिकरण द्वारा होता है। कहना न होगा कि चुनाव के कारण सरकारी काम-काज बहुत बढ़ गया है।
प्रजातंत्र सिद्धान्ततः एक आदर्श है किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं दिखाई देता। शब्द ठीक हैं किन्तु उनके पीछे कर्म-शक्ति का अभाव है। यही कारण है कि चुनाव जनता के नाम पर एक उपहास बनकर रह गया है। नेताओं ने या तो सत्ता का पद संभाला या विरोधी दल बनाकर विपक्ष में जा बैठे। एक ऐसी राजनीति चल पड़ी जिसमें पद, पैसे तथा प्रतिष्ठा को अनावश्यक महत्त्व मिला। जनता दूर जा पड़ी और नेता कुर्सी से चिपक गये। हमारा राष्ट्रीय चिन्तन राजनैतिक प्रतिद्वन्द्विता और प्रतिस्पर्धा की संकीर्ण सीमाओं में सिमट गया। कहते हैं, युद्ध तथा प्यार में सब क्षम्य है और इस प्रकार अज्ञानवश चुनाव भी युद्ध मान लिये गये। बैलट को बुलट और नेता को तोप की संज्ञा दी गई। निकटतम प्रतिद्वन्द्वी शत्रु हो गया। चुनाव-क्षेत्र रणभूमि का रूप ले बैठे। जो हो, प्रस्तुत इतिहास इस बात का साक्षी है कि युद्ध का भी एक धर्म होता है और चुनाव के भी नियम हैं जिनके पालन में ही देश का हित है। चुनाव यदि स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना से हों तो उनका स्वागत है किन्तु दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में चुनाव तन, मन, धन और जन की अपार हानि कर रहे हैं। संघर्ष का कोई कारण न होने पर भी यहाँ संघर्ष होते हैं। एक विकासशील देश का करोड़ों रुपया इसमें खर्च हो जाता है। चुनाव ने मनुष्य को भ्रष्टाचार की ओर ढकेल दिया जिससे नैतिक पतन हुआ और सार्वजनिक जीवन दूषित बन गया। सर्वत्र पैसे की होड़ लगी हुई है। धन का जोर बहुत बढ़ गया है। जो पैसा लगाता है, लाभ चाहता है और जो पैसा देता है, वह भी। इस लेन-देन में राजनीति ने एक व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है। ऐसी चालें चली गईं और ऐसे हथकण्डे अपनाये गये जो नियम की सीमा में नहीं आते। इससे मुकदमेबाजी बढ़ी है। सब की दृष्टि मात्र मत-पेटी को भरने में ही लगी रही। काँग्रेस ने चुनावों में विजयी होने की सिद्धि प्राप्त कर ली है और इन्हें इतना व्यय-साध्य बना दिया है कि कोई अन्य दल इतना धन-सँग्रह नहीं कर पाता। कांग्रेस की तुलना में अन्य दल निर्धन ही हैं। चुनावों में साधनों की प्रचुरता ही प्रमुख एवं निर्णायक है। यदि कोई प्रत्याशी चुनाव-क्षेत्र के बाहर अपने समर्थकों की एक ऐसी अखूट लम्बी कतार खड़ी कर दे जो सुबह से शाम तक मत देती रहे तो उसकी जीत निश्चित है। जब तक शासन-यंत्र, धन, सत्ता एवं बल का वर्चस्व समाप्त नहीं होता तब तक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव की कल्पना करना व्यर्थ है। केवल वैधानिक सुरुचिपूर्ण साधनों का ही प्रयोग होना चाहिए। यदि सच्चाई, तथा ईमानदारी से देश-भक्त निर्वाचित हों तो राष्ट्र की बहुत सी कठिनाइयां दूर हो सकती हैं।
निर्वाचन-पद्धति दोषी नहीं है किन्तु क्रियात्मक रूप में अनेक त्रुटियां हो जाती हैं। जनता के सुशिक्षित होने पर ही इसका पूर्ण लाभ मिलता है। भारतीय मतदाता में अभी परिपक्वता नहीं आ पाई है। चुनाव-पद्धति की सफलता मत का सही उपयोग करने पर ही निर्भर है। चाहे कोई जीते चाहे हारे, भुगतना जनता को ही पड़ता है।
(छ) राजनैतिक नेता:- नेता देश का कर्णधार है। वह भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं विचार-धारा का प्रतीक है। जो देश की रक्षा तथा उन्नति के लिए अपना तन, मन, धन न्यौछावर कर दे, वह सच्चा नेता है। यदि नेता अपने उच्च आदर्शों एवं पवित्र कार्यों के द्वारा राष्ट्र का सही तथा समयानुकूल नेतृत्व करे तो वह जनता के गले का हार हो जाता है। एक कुशल राजनीतिज्ञ होने के साथ वह जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी पथ-प्रदर्शन करता है। नेता को चाहिए कि वह निःस्वार्थ भाव से जनता-जनार्दन की सेवा करे, उसके दुख-सुख को अपना दुख-सुख समझे और राष्ट्र-हित को सर्वोपरि माने। स्वाधीनता-संग्राम में हमारे नेताओं ने अपनी कथनी-करनी के द्वारा जो आदर्श उपस्थित किया, उसके पीछे जनता आँख मूंदकर चली। यह उसी का शुभ फल है कि आज हम स्वतंत्रता का सुख-भोग कर रहे हैं। इस दृष्टि से सर्वश्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, पं० मदनमोहन मालवीय, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, पंजाब केसरी लाला लाजपतराय, महात्मा गाँधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, मौलाना अबुलकलाम आजाद, राजगोपालाचार्य, सरोजनी नायडू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री आदि के नाम राष्ट्रीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित हैं। राजस्थान में सर्वश्री विजयसिंह पथिक, अर्जुनलाल सेठी, लोकनायक जयनारायण व्यास, पं० हीरालाल शास्त्री, माणिकलाल वर्मा, हरिभाऊ उपाध्याय आदि के नाम अग्रगण्य हैं। अस्तु,
स्वतन्त्र भारत में इने-गिने चोटी के नेता ही रह गये हैं, जिन पर हमें गर्व है। खेद है कि अधिकांश छोटे नवोदित नेता पथ-भ्रष्ट हो गये हैं। पहले का गौरव अब रौरव बनता जा रहा है और कहीं-कहीं इसने कौरव का रूप-धारण कर लिया है। इन फुटकर नेताओं के लिए सेवा तो एक बहाना है, उद्देश्य सत्ता में आकर स्वार्थ साधना है। ऐसे नेताओं से राजनीति कलंकित हुई है और जनता इन्हें अपने ढंग से परिभाषित करती है। ढोंगी भक्तों के सदृश ये ‘जनता-जनता’ का जप करते हैं पर उसकी ओर ध्यान नहीं देते। चुनाव के समय ये नेता अभिनेता बनकर नये-नये रूप तथा स्वाँग रचकर जनता के पास आते हैं और मीठी-मीठी बातें बनाकर उसे ठग लेते हैं। सत्ता में आकर इनसे मिलना दुर्लभ हो जाता है। सदैव उद्घाटन, भाषण और चाटण में लीन रहते हैं। बैठक, समारोह, सम्मेलन, अधिवेशन, अभियान, आंदोलन आदि इनकी दैनिक चर्या है। नेता उसी की सुनता है जिसके पीछे आवाज़ हो और अधिक संख्या में मतदाता हों। यदि लोकतंत्र को सफलतापूर्वक चरितार्थ होने देना है तो इन्हें सत्ता हथियाने के लिए लालायित ही नहीं होना चाहिए। जनता के पास जाकर उसके कष्टों का निवारण करना इनका कर्त्तव्य है। अधिक काल तक सत्ता-मोह के कारण ही आज काँग्रेस का पहले जैसा आदर-सम्मान नहीं है। दलीय नेताओं में स्वार्थ-पूर्ति की होड़ लगी हुई है अतः जनता की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती। यह कैसी विडम्बना है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों के सामने असंख्य लोग अनावृष्टि तथा अतिवृष्टि की विभीषिका से संत्रस्त होकर त्राहि-त्राहि करते हैं पर इनकी समुचित सहायता नहीं की जाती। अकाल राहत कार्यो की आवंटित राशि का सदुपयोग नहीं होता। प्रकृति की इस विकृति को वे देवी-देवता पर थोपते हैं जैसे देवता जनता को भूखों मारना चाहते हैं। पर स्वर्ग से उतरकर भूतल पर कोई देवता तो वोट माँगने नहीं आता ! अल्पज्ञ अंगूठा-छाप नये नेताओं के लिए एक पृथक् लोक प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना होनी चाहिए जहाँ एक निश्चित पाठ्य-क्रम के द्वारा इन्हें लोकतंत्र का मूल मंत्र समझाया जाय। आवश्यक शिक्षा-दीक्षा अर्जित करने पर ही इन्हें चुनाव-टिकट और फिर महत्त्वपूर्ण पद दिया जाना चाहिये। नेता सोचते हैं कि एक बार चुनाव जीत लेने पर विपरीत जनमत भी उन्हें नहीं उखाड़ सकता। अत: यदि वे अपने अधिकारों का दुरुपयोग करें तो उन्हें वापिस बुलाने की व्यवस्था होनी चाहिए। कम से कम भ्रष्टाचारी नेता की तो गाँधीवादी उपायों से खैर-खबर लेनी ही चाहिए। उनकी चल-अचल सम्पत्ति की समय-समय पर घोषणा होना आवश्यक है। हम देखते हैं कि योग्यतम सरकारी नौकर एक निश्चित आयु पाकर पद-निवृत्त हो जाता है, लेकिन नेता के लिए कोई अधिकतम आयु नहीं है। वह जीवन भर अवकाश ग्रहण नहीं करता। उसे एक बार से अधिक पद पर नहीं रहना चाहिए। नई पीढ़ी भ्रष्ट नेताओं के दूषित मार्ग पर चलने लगी है। हम जिस गंदे राजनैतिक वातावरण में साँस ले रहे हैं, उससे अब दम घुटने लग गया है। अच्छा हो कि जनता स्वयं से पूछे कि वह अपने और अपने देश के लिए क्या कर रही है और नेता आगे आकर बतायें कि उन्होंने जनता की क्या भलाई की है ?
(ज) शासन व्यवस्था:- शासन मानव-जगत् की सर्वोच्च शक्ति है जिसकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ता है। इसके लिए केन्द्र तथा राज्यों में कई विभाग हैं जिनमें छोटे-बड़े अनेक कर्मचारी तथा अधिकारी व्यवस्था करते हैं। अतः इसे राजनैतिक संस्थान भी कहा जाता है। शासन से राजनीति को पृथक् नहीं किया जा सकता। वह भौतिक बल से अनुप्रेरित व्यक्ति अथवा दल का समाज पर अधिकार है जिसमें कर्त्तव्य-भावना चाहे न हो, भय और दण्ड अवश्य है। इससे शासित व्यक्ति चुपचाप शांतिपूर्वक कानून का आदर करते हुए जीवन के सही मार्ग पर चलता है। इसमें मनुष्य को दुख-सुख दोनों ही झेलने पड़ते हैं। सुख में वह फूला नहीं समाता किन्तु दुख में विवश हो जाता है। उसे किसी वस्तु के अभाव में तड़पकर रह जाना पड़ता है और कभी-कभी यंत्रणा भी भोगनी पड़ती है। अपनी असह्य अवस्था में मनुष्य को क्रांति भी करनी पड़ी है जिसके फलस्वरूप शासन-व्यवस्था में पट-परिवर्तन हुआ है। मानव-जाति का इतिहास असँख्य क्रांतियों से भरा पड़ा है। मनुष्य एक व्यवस्था से असंतुष्ट होकर उसे नष्ट कर देता है और दूसरी व्यवस्था को अपनाता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। शासन में उत्थान-पतन होते आये हैं, व्यवस्था में उथल-पुथल होती रहती है। काल की शिला पर कई लेख बने और मिटे। फिर भी मनुष्य की इच्छानुसार शासन-व्यवस्था स्थापित नहीं होती। अपने प्रारम्भकाल में हमारे यहाँ परिवार के रूप में गण-शासन-प्रथा प्रचलित थी। कालांतर में इसका रूप बदला और सामंतवाद का सूर्य चमका जो अपनी सांध्य बेला में डूब गया। स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद पर आधारित शासन-व्यवस्था की स्थापना की गई जिसका परिचय दिया जा चुका है। शासन-प्रबन्ध में केन्द्र का सुदृढ़ होना नितांत आवश्यक है क्योंकि इसके अभाव में अधीनस्थ राज्य अनुशासन का पालन नहीं करते।
लोकतंत्रीय शासन मंथर गति से चलता है। इसमें जनता को भरपूर ढील तथा छूट मिली होती है। शासन की बागडोर एक आदमी के हाथ में न होकर अनेक व्यक्तियों के हाथ में होती है अतः यह स्वेच्छाचारी नहीं हो पाता। इसमें शोषण तथा अन्याय भी नहीं होता। वस्तुत: शासक और शासित दोनों ही अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें और अधिकार का ध्यान रखें तो बापू के ‘राम-राज्य’ की कल्पना साकार हो सकती है। प्रत्येक नागरिक का यह जन्म सिद्ध अधिकार है कि उसे जीवन की सामान्य सुख-सुविधायें उपलब्ध हों। गत २८ वर्षों तक लोकतंत्र का अर्चन-पूजन करने पर भी देश के कई भागों में जनता शुद्ध वायु, अन्न, जल, वस्त्र, आवास एवं जीविका के लिये तरस रही है। जो सरकार जनता से कर लेती है और संसार में सबसे अधिक लेती है उसे इन तात्कालिक कष्टों का निवारण करना ही होगा। साथ ही प्रत्येक नागरिक, चाहे वह किसी दल का हो, राज्य तथा राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करे जिससे हम एक राष्ट्र के रूप में प्रगति कर सकें। इतने वर्षों तक एक ही राजनैतिक दल का प्रचण्ड बहुमत होने पर भी प्रगति के अपेक्षित चिन्ह नहीं दिखाई देते। शासन की सफलता योग्य राजनीतिज्ञों तथा शासकों पर निर्भर है और एक ही दल में ये इतने नहीं मिल सकते जो समस्त देश का काम-काज सुचारु रूप से कर सकें। अतः शासन-व्यवस्था में सभी दलों की प्रतिभाओं का उपयोग राष्ट्रीय हित में करना होगा। अधिकांश प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति राजनीति के दल-दल में नहीं पड़ना चाहते। दलीय व्यक्ति में सत्ता और पद का लोभ होता है, वे अपना लाभ पहले देखते हैं, देश-हित बाद में। पंच, प्रधान, प्रमुख, पार्षद, विधायक, सांसद, मंत्री आदि निर्वाचित प्रतिनिधि किसी न किसी दल के सदस्य होते हैं। इनका दृष्टिकोण राज्याधिकारी से भिन्न होता है। अधिकारी संघीय अथवा लोक-सेवा आयोग की परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर आते हैं अतः वे योग्य, अनुभवी एवं कार्य-कुशल होते हैं। इन्हें निर्बाध रूप से शासन नहीं करने दिया जाता। दलीय राजनीति के हस्तक्षेप से इन अधिकारियों को अपना सामान्य काम-काज करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शासन में इस प्रकार का प्रभाव, दबाव एवं पक्षपात अनुचित है। वर्ग के भीतर व्यक्ति ऐसा विभक्त होता जा रहा है कि जिससे राष्ट्रीय एकता का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। बाहर हम गुट-निरपेक्ष हैं, भीतर गुट-सापेक्ष। यह सापेक्षता जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्रीयता, प्रांतीयता एवं भाषा के नाम पर भी फैली हुई है। हम जानते हैं कि सामान्य जीवन, सरकारी नौकरियों एवं विशेषतः चुनावों के समय ये तत्त्व प्रत्याशी की विजय में साधक बन जाते हैं। बाहर-भीतर का यह भेद स्पष्टत: एक विरोधाभास है। अतः आज हम घट-घट कर इतने घट गये कि विघटन के द्वार पर पहुँच गये हैं। विभेदक शक्तियां सीना ताने घूम रही हैं और विध्वंसक तत्त्व देश को उजाड़ने में लगे हुए हैं। युद्ध-काल में राष्ट्रीय एकता की जो भावना जन-जन में देखने को मिलती है, शांति-काल में भी वैसी ही बनी रहे तो निश्चय ही राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
शासन में समस्याओं के बढ़ने के साथ-साथ विभागों की संख्या भी बढ़ती गई। राजस्थान में प्रमुख विभागों की संख्या ३० के आस-पास है जिनकी राज्यव्यापी शाखायें हैं। स्वायत्त संस्थायें भी बहुत हैं जिन्हें अनुदान प्राप्त होता है। खेद है कि राज्य-कर्मचारियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होने पर भी काम-काज शीघ्रता से नहीं निपटाया जाता। व्यक्तिगत दायित्व का स्थान सामूहिक दायित्व ने ले लिया है, अतः अपने अधिकारों का प्रयोग न करके सीधे-सादे प्रश्नों के लिए भी समिति, उप-समिति अथवा तदर्थ समिति बनाकर अधिकारी मुक्त हो जाते हैं। शासन में इन समितियों की भरमार है जिनमें राजनीति ने घुस-पैठ कर ली है। पूछने पर उत्तर मिलता है-काम-काम के ढंग से होता है। लोगों के कष्ट बढ़ रहे हैं और नित्य नये संकट आकर उपस्थित हो जाते हैं। दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से जीवन अनिश्चित हो गया है। शासन में भ्रष्टचार का बोलबाला है। किसी न किसी रूप में घूस दिये बिना काम नहीं होता। रक्षक ही भक्षक बन गया है। भण्डाफोड़ होने पर आरोपों की जाँच होती है पर अधिकांश में न तो किसी को कोई आँच आती है और न साँच ही प्रकट होता है। जाँच की पुनः जाँच होती है और कई प्रकार की होती है। इनमें हजारों-लाखों रुपये खर्च होते हैं। नतीजा कुछ नहीं-वही ढाक के तीन पात। घूम-फिर कर जहाँ थे, वहीं आना पड़ता है। एक बार राज्य-सेवा में प्रवेश कर लेने पर फिर बहार ही बहार है। कोई किसी की परवाह नहीं करता। कर्मचारी पूरे समय काम नहीं करते। बीच का समय जल-पान में व्यर्थ नष्ट कर देते हैं। शासन शिथिल होता जा रहा है। अधिकारी किसी भी काम के लिए पहले ‘ना’ करते हैं, अटकलें लगाते हैं और मामले को लटकाये रखने में ही अपनी शान समझते हैं। प्रार्थी एक-एक कर्मचारी की शरण में जाकर आमद-खुशामद करते-करते थक जाता है और अंत में निराश होकर बैठ जाता है। इस दूषित वातावरण में योग्य, ईमानदार एवं निष्पक्ष अधिकारियों का कार्य करना कठिन हो जाता है। वे विवश होकर चुपचाप अपना सेवा-काल पूरा करने में ही अपने कर्तव्य की इति-श्री समझते हैं।
दासता के युग में शताब्दियों तक दलित वर्ग का शोषण होता रहा अत: स्वतंत्र भारत के संविधान ने अनुसूचित जातियों, जन-जातियों एवं पिछड़े वर्गों की ओर विशेष ध्यान दिया। लोक-सभा तथा विधान-सभाओं में इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे गये। सरकारी नौकरियों में भी इन जातियों का आरक्षण किया गया और पदोन्नति की सुविधायें दी गई। प्रांतीय एवं केन्द्रीय सेवाओं की प्रतियोगिताओं के लिए निर्धारित न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मान इनके लिए घटाया गया। छात्र-छात्राओं को शिक्षा तथा प्रशिक्षण के लिए पूरी सहायता एवं प्रोत्साहन दिया गया। इन वर्गों के लिए हम योग्यता को महत्त्व न देकर जाति को महत्त्व देते हैं। मनुष्य चाहे किसी जाति का क्यों न हो, प्रजातंत्र में सबको समान अवसर मिलना चाहिए। जाति के आधार पर संरक्षण देने की इस दीर्घकालीन व्यवस्था से कालान्तर में अन्य जातियां पिछड़ जायेंगी तथा योग्यता के स्थान पर अयोग्यता की मात्रा बढ़ेगी। अतः सुधार करते समय पहले इन वर्गों के जातिगत संस्कार, स्वभाव एवं प्रकृति में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।
संदेह नहीं कि हमारी नीति उदार है और योजना विशाल है, किन्तु अनुभव ने जिन नीतियों की निरर्थकता सिद्ध कर दी है, उन पर आगे चलने का दुराग्रह नहीं करना चाहिये। नीतियां कभी स्थायी नहीं होती और योजनायें भी धरी रह जाती हैं। राष्ट्र-हित के लिए इनमें समयानुकूल परिवर्तन करना वांछनीय है। हम जिस नीति से अपना घर चलाते हैं और परिवार की उन्नति के लिए योजना बनाते हैं ठीक उसी श्रम, लगन एवं निष्ठा से राष्ट्रीय नीति एवं योजना में जुट जायें तो फिर पैसे-पैसे का सदुपयोग हो और लाभ मिले। खेद है कि जनता को योजनाओं का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। प्रशासन ने जो चित्र खींचा, वह मृग-तृष्णा बनकर रह गया। इसमें विपुल धन-राशि का अपव्यय हुआ। सड़कें, कुए, वन, तालाब, भवन आदि कहीं बने, कहीं नहीं बने और कहीं-कहीं तो बनकर मिट भी गये। हिसाब-किताब बराबर। इन लघु योजनाओं के साथ दीर्घ योजनाओं के अन्तर्गत उन बड़े-बड़े बाँधों और कारखानों के निर्माण हेतु विदेशों से अरबों रुपयों का कर्ज लेना पड़ा जिसका लाभ कई वर्षों बाद मिलेगा। दोष नीति अथवा योजना का नहीं वरन् उसके कार्यान्वयन का है। सरकार विवश है, जनता सहयोग नहीं करती।
दुर्भाग्य से भारतीय जनता ने लोकतंत्र-पद्धति को अभी पूरी तरह आत्मसात नहीं किया है। अतः आलोच्यकाल को हम लोकतंत्रीय समाजवादी व्यवस्था का प्रयोग-काल कह सकते हैं। जनता ने स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता, उच्छृंखलता, उदण्डता एवं अनुशासनहीनता से ले लिया है, अत: वह अनर्थ करने लगी है। सड़क एवं यातायात के नियमों को ही देखिये। जनता उनका खुला उल्लंघन करने लगी है, अतः दुर्घटनायें होती हैं और असँख्य लोग अकाल काल के ग्रास हो जाते हैं। फिर भी जनता पल भर के लिए भी रुकना नहीं जानती और निर्भय होकर एक-दूसरे से टकराती रहती है। इन वर्षों में हा-हुल्लड, भीड़भाड़ एवं गुण्डागर्दी बढ़ी। समय ऐसा आ गया कि जो काम एक सच्चा, ईमानदार एवं चरित्रवान व्यक्ति नहीं करा पाते, वही काम पाँच-दस झूठे, बेईमान एवं दुष्चरित्र मिलकर आसानी से कराने लगे। अशांति उत्पन्न करने वालों की बन आई। तोड़-फोड़, छीना-झपटी तथा लूट-खसोट की अनेक घटनायें घटीं। आंदोलनों ने जोर पकड़ा और कभी-कभी तो भीषण रूप ले बैठे। सभा-संस्थाओं ने लम्बे-चौड़े माँग-पत्र पेश किये जो स्वीकृत होते गये। अत: लोगों का हौसला बढ़ता गया। अहिंसा के नाम पर हिंसा भी हुई। ऐसे समय में असामाजिक तत्त्वों की बन आई। आज जलसे, जलूस, प्रदर्शन, धरने, घेराव, सत्याग्रह, हड़ताल, भूख-हड़ताल, क्रमिक भूख-हड़ताल, अनशन, आमरण अनशन, बंद, तालाबंदी, आत्मदाह आदि ने नाक में दम कर रखा है। यह लक्ष्य करने की बात है कि जहाँ महात्मा गाँधी ने इनका प्रयोग किसी महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए अंतिम अमोघ शस्त्र के रूप में किया था, वहाँ हमारे देशवासी स्वार्थ-पूर्ति के लिए बात-बात में नव-नव रूपों और शैलियों के द्वारा इनका दुरुपयोग करने लगे। इससे एक नया कौतुक खड़ा हो गया। स्वयं काँग्रेस ने जनता को ये शस्त्र दिये और आज उसी पर इनका वार हो रहा है। गाँधी गया और उसके साथ गाँधीवाद भी। जो शेष बचा है, उसे पुजारियों ने काँच की कीमती अल्मारियों में सजाकर रख दिया है। ऐसे विषम समय में वयोवृद्ध समाज-सेवी बाबू जयप्रकाश नारायण ने गाँधीवाद के पुनरुत्थान का बीड़ा उठाया है। जो हो, पुलिस इन नवीन सामूहिक आंदोलनों को शांत करने में ही लगी रही अतः वह चोरी, डकैती, बलात्कार, अपहरण और हत्या जैसे व्यक्तिगत जघन्य अपराधों की ओर कम ध्यान दे पाई। सेना ने भी सहायता की किन्तु धीरे-धीरे परिस्थितियां सरकारी नियन्त्रण से बाहर होने लगीं। पुलिस तथा सेना भीड़ के आगे मूक दर्शक बनकर रह गई। जनता ने उनकी दशा दयनीय बना दी। कहीं-कहीं गोलियां भी चलानी पड़ीं जिनमें कई लोग प्राणों से हाथ धो बैठे और कई हताहत हुए। स्वतंत्र भारत में पुलिस के कर्त्तव्य तथा अधिकार पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
आज हम जिस लोकतन्त्र के लिए जी रहे हैं उसके लिए संकट की घड़ी उपस्थित हो गई है। अनुशासन ऐसा भंग हुआ है कि मनुष्य बिना खूंटे का आवारा पशु जैसा बन गया है। इन आवारा पशुओं के झुंड के झुंड नागरिक जीवन को अस्त-व्यस्त करने में लगे हुए हैं। इससे अराजकता फैलने लगी। इन्हें पकड़कर बाँधने में सरकार की निष्क्रियता देश के मनोबल को तोड़ रही है। स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने से अपराध भी बढ़ते गये। इतिहास इस कथन की पुष्टि करता है कि प्रत्येक काल एवं शासन में अपराध हुए हैं किन्तु जितने निर्भीक, व्यापक एवं सुनियोजित अपराध स्वतन्त्र भारत में हो रहे हैं, वे हमारी आंतरिक दुर्बलता की ओर इंगित करते हैं। अशिक्षित ही नहीं, सुशिक्षित व्यक्ति भी विभिन्न प्रकार के कुत्सित अपराधों के दोषी पाये गये हैं। सम्पन्न घरानों की युवक-युवतियाँ भी इसी मार्ग पर चल पड़ी हैं। भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री वराह वेंकट गिरि के शब्दों में-‘स्वतंत्र भारत में जेल जीवन नागरिक जीवन से बेहतर बन गया है। यही कारण है कि आज जेल जाना एक साधारण बात हो गई है। अब अपराधी को सुधारने की ओर ध्यान अधिक है।
स्थूल रूप से शासन की जो व्यवस्था केन्द्र में है वैसी ही राज्यों में। राजस्थान में भी शासन-प्रबन्ध का एक-समान रूप दृष्टिगोचर होता है। यहाँ भी व्यवस्थापिका का कार्य कानून बनाना, कार्यपालिका का उसे क्रियान्वित करना और न्यायपालिका का अपराधियों को दण्ड देना है। स्वतंत्र भारत में अनेक नये कानून बने किन्तु अपराधी उनसे बच निकलने के नये-नये मार्ग निकाल ही लेते हैं। अँग्रेजी ढंग का कानून पुराना पड़ गया है अत: उसमें समयानुकूल संशोधन अपेक्षित है। लोग न्यायालय में उपस्थित होकर ईश्वर की दुहाई देते हुए सच बोलने की शपथ लेते हैं पर बोलते हैं झूठ। नीर-क्षीर-विवेकी न्यायाधीश गवाह, जिरह तथा बहस के आधार पर निर्णय सुनाते हैं। कानून की प्रक्रिया अत्यंत जटिल, दीर्घ, मँहगी एवं कष्टप्रद होती जा रही है। कानून की दृष्टि में सभी समान हैं, कोई बड़ा और कोई छोटा नहीं है। और तो और, भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री गिरि तक को उच्चतम न्यायालय में उपस्थित होकर साक्षी देनी पड़ी। इसी प्रकार प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी से उच्च न्यायालय के कटहरे में दो दिनों तक जिरह हुई। भारतीय न्यायाधीश अपनी स्वतंत्रता, निर्भीकता एवं निष्पक्षता के लिए विश्व-प्रसिद्ध हैं। चुनाव याचिका को लेकर प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय से भारतीय संविधान, लोकतंत्र एवं न्यायपालिका की गौरव-गरिमा बढ़ी है (१२ जून, १९७५ ई०)। यह भारतीय राजनीति में एक अविस्मरणीय घटना है।
आज की इस वस्तुस्थिति के परिप्रेक्ष्य में संविधान निर्माता डॉ० भीमराव अम्बेडकर का यह कथन स्मरण करने योग्य है-‘यदि वस्तुऐं पतन की ओर जाती हैं तो उसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान निकृष्ट था वरन् हमें यह कहना पड़ेगा कि मनुष्य दुष्ट था। ‘ इसी दुष्टता के दलन के लिए राष्ट्रपति ने बाह्य संकटकालीन स्थिति की घोषणा के बाद (१९७१ ई०) देश में प्रथम बार आंतरिक संकटकालीन स्थिति की भी घोषणा कर दी है (२६ जून, १९७५ ई०)। इसी प्रकार प्रथम बार पत्र-पत्रिकाओं पर सेंसर लगाया गया। इतना ही नहीं, केन्द्रीय सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, आनन्द मार्ग, जमात-ए इस्लामी और कुछ नक्सलपंथी गुटों समेत २६ संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया है (४ जुलाई, १९७५ ई०)। प्रतिबंध इन संस्थाओं की गतिविधियों के आंतरिक सुरक्षा, सार्वजनिक सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने के विरुद्ध होने के कारण लगाया है क्योंकि शांति, सुरक्षा, व्यवस्था तथा न्याय प्रदान करना सरकार का दायित्व है। अतः राष्ट्रपति ने लोकसभा का अधिवेशन बुलाकर संकटकालीन स्थिति की संपुष्टि कर दी है। (२१ जुलाई, १९७५ ई०)। इससे लोकतंत्र में भारत की अटूट आस्था का परिचय प्राप्त होता है।
(६) सामाजिक अवस्था
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज के साथ उसका सम्बंध अन्योन्याश्रित है। समाज से तात्पर्य अखिल भारतीय समाज से है जिसमें विविध वर्ण तथा जातियों के लोग रहते हैं। जाति को भी समाज की संज्ञा दी जाती है किन्तु यह उसका संकुचित रूप है। आदिकाल में आर्य और अनार्य के नाम से केवल दो जातियां थीं जो अब बढ़कर चार हजार हो गई हैं। इन समस्त जातियों एवं उप-जातियों का आधार वर्ण, व्यवसाय तथा स्थान है। भारत में जातिमूलक संघर्ष वैदिक काल से चला आ रहा है। जातियों की अधिकता ने व्यवसाय को लेकर मानव-मानव में एक हीन प्रकार की घृणा उत्पन्न की और यह घृणा समाज में इतने विकराल रूप में घुसी तथा फैली कि मनुष्य ने मनुष्य से पृथक् होने में गौरव समझा। वर्ण-भेद की रचना ईश्वर ने नहीं, स्वयं मनुष्य ने की है। मनुष्य ने ही मनुष्य को अस्पृश्य बनाया है। महाभारत काल के उपरांत जातिवाद का विष अधिक फैला और अस्पृश्यता ने सँक्रामक रोग का रूप धारण कर लिया। कहना न होगा कि इस अस्पृश्यता ने समाज का विघटन किया, एकता नष्ट की, कला-व्यवसाय की उन्नति को अवरुद्ध किया और सामाजिक संगठन को अस्त-व्यस्त कर दिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र एक ही परम पिता के प्रिय पुत्र हैं। जैसे किसी घर में चार भाई भिन्न-भिन्न व्यवसाय करते हुए भी कोई छुआछूत नहीं करते, वैसे ही देश में इन चारों वर्गों के लोग आचरण क्यों नहीं करते ? दुनिया में न तो कहीं भारत जैसा जाति-वैविध्य है और न अछूतों जैसा भेद-भाव। मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य जाति से नहीं, कर्म से महान् बनता है। समाज में जानबूझकर दुर्गन्ध फैलाने वाला व्यक्ति आज का सबसे बड़ा शूद्र है, जाति में चाहे वह ऊँचा हो। जातिवाद एक ऐसा बरगद है जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। ऊँच-नीच की भावना ने मनुष्य को संकीर्ण बना दिया अत: अछूत-समस्या उत्पन्न हुई है। समाज का एक-चौथाई भाग अस्पृश्य होने से काँग्रेस सरकार ने अछूतोद्धार की ओर विशेष ध्यान दिया है। इसीलिए छुआछूत को अपराध घोषित कर दिया गया है (१५ मार्च, १९५४ ई०)। ऐसे शुभ समय में अछूतों को चाहिये कि वे अपनी हीन-भावना त्यागकर आगे आयें और ऐसे कर्म करें जिनसे ऊँच-नीच का भेद-भाव स्वतः ही मिट जाये। जाति-भेद समाप्त करने का सर्वोत्तम उपाय यह होगा कि लोग अपने नाम के पीछे जातिसूचक शब्द लिखना ही बंद कर दें, जातीय संस्थाओं को प्रोत्साहन न दिया जाय तथा तथाकथित ऊँची-नीची जातियों को परस्पर आदान-प्रदान से वंचित न रखा जाय। भविष्य में जाति-प्रथा का जीवित रहना सम्भव नहीं दिखाई देता। आज बेगार और दासता के दिन लद गये हैं।
समाज में नारी का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वह गृह-लक्ष्मी एवं पुरुषों की जीवन-संगिनी मानी गई है। उसने संस्कृति की रक्षा करने के साथ माँ बनकर समाज-सेवा की है। वह चिरकाल से घर-गृहस्थी तथा बाल-बच्चों का पालन-पोषण करती आई है। वह पुरुष की प्रेरक और पूरक है। नारी का यह दायित्व प्रकृति प्रदत्त है। प्राचीन भारत में नारी पुरुषों के सदृश स्वतंत्र थी। मध्यकाल में वह घर की सीमा में बंद कर दी गई। इस दशा में वह नाना प्रकार की कुप्रथाओं से ग्रस्त रही। आधुनिक काल में उसे अपनी दयनीय स्थिति का बोध हुआ, अत: वह अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ी हुई। शिक्षा की ओर उसका ध्यान गया। आर्थिक पराधीनता तथा पति की निष्ठुरता के प्रति भी उसने आवाज़ उठाई। स्वतंत्र भारत के संविधान ने नारी की दशा सुधारने के लिए कई सद्प्रयत्न किये हैं। आज बाल-विवाह, बाल-हत्या, बहु-विवाह, वृद्धविवाह, दहेज, पर्दा तथा सती-प्रथा वर्जित हैं। दुष्ट पति से वह सम्बन्ध-विच्छेद कर सकती है। विधवा-विवाह भी होने लगे हैं। परम्परागत वेश्यावृत्ति पर अर्गला लगा दी गई है। नारी को पृरुष के बराबर अधिकार दिये गये हैं। सम्पत्ति पर भी उसका अधिकार है। समान कार्य के लिए उसे समान वेतन मिलता है। वह अब वकील, मुंसिफ, जज, डाक्टर, कलक्टर, प्रोफेसर आदि महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य करने लगी है। केन्द्रीय एवं राज्य-सेवाओं में उसका प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है। अपना मत प्रकट करने का उसे अधिकार है। वह चुनाव में खड़ी हो सकती है और शासन में कोई भी पद प्राप्त कर सकती है। वर्तमान महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी नारी-जगत् के लिए एक अजस्र प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं। इस दिशा में अनेक संस्थायें भी कार्यरत हैं जिनमें ‘अखिल भारतीय महिला सम्मेलन’ (१९२६ ई०) की सेवाओं को नहीं भुलाया जा सकता। आशा है, वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय वनिता वर्ष में (१९७५ ई०) भारतीय नारी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उत्तरोत्तर आगे बढ़ती रहेगी।
सँयुक्त परिवार-पद्धति हिंदू समाज की एक ऐसी विशेषता है जो अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है। परिवार नागरिक शिक्षा की प्रथम पाठशाला है। इसे हम एक लाभदायक समिति कह सकते हैं। पाश्चात्य देशों की स्वच्छंदता तथा व्यक्तिवादी भावना के फलस्वरूप यह प्रथा भी विश्रृंखल होती जा रही है। नई पीढ़ी उन्मुक्त जीवन के पक्ष में है अत: वह पारिवारिक बन्धन में नहीं पड़ना चाहती। उसे अपने परिवार का अनुशासन प्रिय नहीं। विज्ञान ने उसे विलासी बना दिया है। शराब व अन्य नशीले पदार्थों के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ रही है। सामाजिक अवमूल्यन ने एक नई वेश्यावृत्ति को जन्म दिया है। ये आधुनिक वेश्यायें विवश होकर नहीं वरन् धन कमाने तथा शाही जीवन बिताने के लिए होटलों तथा आलीशान कोठियों में रहती हैं। ‘कॉल गर्ल’, ‘केबरे डांस’ आदि इसी के रूप हैं। उच्च वर्ग के लोग सामाजिक संस्थाओं, समाज-कल्याण समितियों, संगीत कला केन्द्रों आदि की आड़ में अपनी काम-पिपासा शांत करने लगे हैं। सन् १९७३ ई० में युवा-युवतियों का एक-चौथाई भाग विभिन्न यौन रोगों से पीड़ित पाया गया। चरित्र-हीनता तथा नैतिक अधःपतन में चलचित्रों का भी प्रमुख हाथ रहा है। इनमें हिंसा, नग्नता एवं कामुकता की प्रचुरता रहती है। नई पीढ़ी इसकी प्यासी है और पुरानी पीढ़ी तृप्त। नये-पुराने का संघर्ष जारी है, उसमें सामञ्जस्य नहीं हो पाया है। खेद है कि समाज के नाम पर संस्थायें तो बहुत हैं लेकिन सुधार नाम-मात्र के हो रहे हैं। सामाजिकता कहने, सुनने और पढ़ने के लिए रह गई है। हम अपने पड़ोस, परिवार, गली और गाँव को ही भूलते जा रहे हैं। मनुष्य अपने ही रंग में रँगता जा रहा है। वह अपने घर तक ही सीमित है। राजनैतिक स्वतंत्रता ने समाज की कई मान्यतायें बदल दी हैं। मनुष्यता का लोप होता जा रहा है। हमारा समाज आज एक ऐसी विषम भूमि पर खड़ा है जहाँ कुरीतियाँ अधिक हैं। वस्तुतः समाज अपनी संस्कारजन्य दुर्बलताओं, अंधविश्वासों तथा रूढ़िवादी विचारों के कारण उन्नति नहीं कर पाता। अत: इनके दूर हुए बिना नये समाज की संरचना सम्भव नहीं। इन समस्त कुरीतियों को दूर करने की महत्त्वाकांक्षा से आर्य समाज, ब्रह्म समाज, रामकृष्ण मिशन आदि अनेक संस्थाओं की स्थापना हुई। महावीर से लेकर संत विनोबा भावे के युग तक गौतम बुद्ध, रामानंद, कबीर, नानक, तुकाराम, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद, विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गाँधी प्रभृति महापुरुषों ने उल्लेखनीय कार्य किये, किन्तु अभी इस क्षेत्र में बहुत-कुछ करना शेष है।
(७) धार्मिक अवस्था
भारत एक धर्म-प्रिय देश है। यहाँ कई धर्म परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं जिनमें हिंदू, इस्लाम, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध, यहूदी तथा पारसी धर्म मुख्य हैं। इनके लिए स्थान-स्थान पर मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारे बने हुए हैं। यहाँ हमारा प्रयोजन हिंदू धर्म से है। जो अपने पूर्वजों की शास्त्रानुमोदित धार्मिक परम्पराओं को धारण करता है, वह हिन्दू है और उसका स्थान हिंदुस्तान (भारत) है। धर्म का अर्थ निश्चित नियमों का पालन करते हुए ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करना है। ईश्वर सृष्टि का एक ऐसा रहस्य है जो प्रकट होने पर भी अप्रकट रहता है। मनुष्य को इसका बोध प्रकृति के माध्यम से हुआ, अतः सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्र, पृथ्वी-आकाश, सरिता-सागर, बन-पर्वत, सर्दी-गर्मी और वर्षा-वनस्पति की उपासना ईश्वरीय शक्तियों के रूप में हुई। ईश्वर इस जगत् की एक ऐसी वास्तविकता बन गई है कि जिसका विसर्जन कोई नहीं कर पाता। वेद हिंदू धर्म के मूल आधार हैं। इनमें ‘धर्म’ का अर्थ धार्मिक विधियों तथा क्रिया-संस्कारों से लिया गया है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन इसका पक्षधर है। आर्य जाति ने अपने विशद् ज्ञान तथा गहन अनुभव से जीवन-जगत्, आत्मा-परमात्मा की व्याख्या की जिससे धर्म की प्राणप्रतिष्ठा हुई तथा अध्यात्म-दर्शन का समुचित विकास हुआ। हिंदू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता देवी-देवता की मूर्ति का जप, तप और अनुष्ठान है। ईश्वर के विषय में हमारी ध्यान-धारणा इन्हीं मूर्तियों पर निर्भर है। मंदिर हिंदू धर्म के पवित्र स्थल हैं। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, देव-दर्शन तथा तीर्थ-यात्रा इसी के अंग हैं। संसार के किसी भी अन्य देश में धर्म का समाज के साथ इतना गहरा संबंध नहीं दिखाई देता जितना भारत में। यही कारण है कि धर्म के मार्ग में समय समय पर अनेक कठिनाइयां आईं, घोर अत्याचार हुए एवं रक्त की नदियाँ बहीं फिर भी मनुष्य का मन उसमें लगा रहा और आज भी वह उसकी रग-रग में समाया हुआ है।
जैसे भारत में अनेक जातियां हैं, वैसे ही धर्म भी। इस अनेकता में भी एकता के दर्शन होते हैं। हिन्दू संस्कार से आस्तिक, स्वभाव से धर्मभीरु और प्रकृति से भाग्यवादी है। आर्ष-ग्रन्थों में कर्म पर विशेष जोर दिया गया है और गीता का उपदेश तो कर्मयोग का ही प्रतिपादन है, फिर भी जन-मानस भाग्यवाद में डूबा हुआ है। इससे आलस्य और अकर्मण्यता आई। बाह्याडम्बर और अन्धविश्वास बढ़े। मुसलमान शासकों के समय का साम्प्रदायिक विष अँग्रेजों के समय में देशव्यापी हो गया। पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति के प्रभाव से धर्म को ठेस पहुंची और भौतिकता को बल मिला। भावना का स्थान बुद्धि ने ले लिया। शास्त्र-प्रमाण की निरर्थकता सिद्ध की जाने लगी। प्रत्येक बात का मूल्यांकन तर्क और विवेक की कसौटी पर कसकर वैज्ञानिक पद्धति से होने लगा। विज्ञान ने प्रकृति का रहस्योद्घाटन किया और एक-एक कर समस्त शक्तियों पर विजय प्राप्त की। ज्यों-ज्यों विज्ञान के चरण आगे बढ़ते गये, मनुष्य की अधिकाधिक भौतिक उन्नति होती गई। चन्द्रलोक के धरातल पर मनुष्य के अवतरण ने वैज्ञानिक उन्नति की गति में पंख लगा दिये (२१ जुलाई, १९६९ ई०)। कहने की आवश्यकता नहीं कि मनुष्य एक छलाँग में सैकड़ों वर्ष आगे बढ़ गया। इससे धार्मिक मान्यताओं का महत्त्व घटा। असत्य रूढ़ियां, बाह्याचार और अन्धविश्वास हिलने लगे। प्रकृति के साथ विज्ञान का यह नवीन समझौता मानवता को किस ओर ले जायेगा यह तो भविष्य ही बतायेगा, किन्तु यदि विवेक संतुलित न रहा तो पल भर में ही इस सृष्टि का विनाश हो जायेगा। यह संतुलन तथा नियमन धर्म के द्वारा सम्भव है।
धर्म ज्ञान की कसौटी है अत: चितनशील व्यक्ति इसके मर्म को जानते हैं। देश-काल के अनुरूप हमें अपने रहस्य को नया रूप देना होगा। दैनिक जीवन की जटिलताओं के कारण आज का व्यस्त मनुष्य धर्माचरण के लिए समय नहीं निकाल पाता अतः उसे शुद्ध अंतकरण से अपने भीतर ही ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। यह सब धर्म स्वीकार करते हैं कि ईश्वर प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करता है। मन ही मंदिर है, मनुष्य ही देवता है और यह पृथ्वी ही स्वर्ग है। यह आज का युगधर्म है। यदि मनुष्य अपने दैनिक व्यवसाय सही अर्थों में करने लगे तो यह उसका सबसे बड़ा धर्म होगा। मन, वचन और कर्म से दूसरे की सेवा करना सबसे बड़ा धर्म है और यही भगवान की पूजा है। धर्म कर्त्तव्य से पृथक् नहीं है इसलिए प्रत्येक प्रसंग में सही कर्तव्य का निर्णय करना धर्म है। भव-सागर को पार करने का उपाय नैतिक नियमों का पालन है। वस्तुत: मूर्ति पूजा कच्चे और दुर्बल चित्त के लिए है और ऐसे लोगों की संख्या अधिक है अत: इनके लिए मंदिर जाना लाभदायक है। यदि मंदिर शांत, शुद्ध तथा पवित्र हों तो सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की झाँकी पाना कठिन नहीं है। यहाँ की दैनिकचर्या में सुधार होना चाहिए। इससे सामान्य जनता सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, धृति आदि भावनाओं के द्वारा उदात्त होगी।
धर्म का प्रमुख अर्थ नैतिकता है जिसके बिना कोई समाज अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता। आज हमारा कितना नैतिक अधःपतन हो रहा है, यह व्यवहार में स्पष्ट दिखाई देता है। यह कैसा विरोधाभास है कि धर्म-प्रिय जनता अधर्म के मार्ग पर चलने लगी है। भलाई-बुराई, सच-झूठ और पाप-पुण्य की परिभाषायें बदल रही हैं। और तो और, मनुष्य भगवान को ही खरी खोटी सुनाने लग गया है। धर्म ढोंग बनता जा रहा है। चारों ओर पाखंड का बोलबाला है। पाखंडी साधु, और चमत्कारी बाबा लोग फल-फूल रहे हैं। धर्म के नाम पर आज विश्वास करना धोखा खाना है। इसकी आड़ में बलात्कार की घटनायें होती हैं। हिंदू को पशु-बलि और नर-बलि की कोई चिन्ता नहीं। मूर्त्तियों और चित्रों को चुराने में भी कोई हिचक नहीं। आज धर्म अपनी शक्ति, पुजारी अपनी निष्ठा तथा संस्थायें अपनी प्रतिष्ठा खोती जा रही हैं।
भारत एक धर्म-निरेपक्ष राष्ट्र है। इस निरेपक्षता से अभिप्राय समस्त धर्मों के प्रति सम-भाव है। वसुधा को एक परिवार मानने वाला देश कदापि साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। वर्तमान काँग्रेस सरकार सब धर्मों के प्रति समान व्यवहार करती है किन्तु जनता में अपने-अपने धर्म के प्रति जो कट्टरता है, वह स्थान-स्थान पर संघर्ष कराती है। धर्म में भी राजनीति आ गई है। चुनाव के समय कई नेता अधिक मत-प्राप्ति के लोभ में साम्प्रदायिक भावनाओं को उभारते हैं। कई व्यक्ति आर्थिक प्रलोभन में राष्ट्रीय एकता को नष्ट करने में लगे रहते हैं। यदि आर्थिक और राजनैतिक स्वार्थों की बात छोड़ दी जाय तो धर्म-निरपेक्षता स्थापित करना कठिन नहीं है। देश में जितने धार्मिक संगठन और संस्थायें हैं उनके प्रति सरकार की नीति उदार है। इनके अखिल भारतीय सम्मेलन होते हैं जिनमें धर्म की महत्ता प्रकट की जाती है। स्वतंत्र भारत में धार्मिक आचार-विचारों के पुनर्गठन का समय आ गया है। वर्तमान वर्ष में जैन-धर्म भगवान महावीर की २५०० वीं देशव्यापी जयंती मना रहा है (१९७५ ई)। हर्ष का विषय है कि अब विश्व-धर्म सम्मेलन हो रहे हैं और प्रेम, मैत्री तथा शांति के नये प्रयास किये जा रहे हैं। यह निश्चित है कि जब तक हिंसा, अंधविश्वास तथा आर्थिक और जातीय मतभेद नहीं मिटेंगे, धर्म का उद्देश्य अधूरा ही रहेगा। इस प्रसंग में बैरन फ्रेब्लोमबर्ग (अमेरिका) के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं-‘संयुक्त राष्ट्रसंघ की तरह ही विश्व-धर्म का साझा मंच गठित किया जाय और उसका मुख्यालय भारत में हो’ (नवम्बर, १९७५ ई०)। अपने नये रूप में भारत विश्व का नीति-निदेशक और अध्यात्म-गुरु है। अतः उसे विश्व-धर्म की रूप-रेखा तैयार करने के लिए पृथक् अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना करनी चाहिए। यह उसके गौरव के अनुकूल होगा।
(८) आर्थिक अवस्था
प्राचीन काल में यह शस्य-श्यामला धरती धन-धान्य से परिपूर्ण थी और थी आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र ! हम आत्म-निर्भर थे और अनेक वस्तुओं का निर्यात करते थे। इनकी बाहर बड़ी माँग और प्रतिष्ठा थी। भारत की श्री-समृद्धि से लालायित होकर विदेशी दस्युओं ने देश पर बारम्बार आक्रमण किये। इतिहास साक्षी है कि इन विदेशी जातियों के शोषण से हमारी अर्थव्यवस्था को धक्का लगा। देश की सम्पत्ति विदेशों में जाने लगी और वहाँ की वस्तुओं का आयात होने लगा। महात्मा गाँधी ने इन विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की जन-चेतना उत्पन्न की। काँग्रेस ने ‘खादी-व्रत’ द्वारा इस भावना का प्रसार किया।
संदेह नहीं कि आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनैतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारत में समाजवाद की स्थापना हुई। भारतीय समाजवाद राजनैतिक तथा आर्थिक जीवन-पद्धति का ऐसा आधार है जिसमें समानता, स्वाधीनता एवं बंधुता के सार्वभौम मानवीय आदर्श सन्निहित हैं। समाजवाद का प्राथमिक लक्ष्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने, कार्य करने और एक सम्मानपूर्ण जीविका उपार्जन करने का अवसर प्राप्त हो। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी क्षमता के अनुसार अपने श्रम का पारिश्रमिक प्राप्त हो। इस सिद्धांत को व्यवहार में लाने के लिए नित्य नये प्रयोग हो रहे हैं। स्वतंत्र भारत में सरकार ने छोटे-बड़े प्राय: सभी उद्योगों के उत्थान-पुनरुत्थान में सक्रिय रुचि दिखाई है। कृषि के क्षेत्र में एक नई हरित क्रांति के दर्शन हो रहे हैं। फलतः कृषक वर्ग का जीवन-स्तर ऊपर उठ रहा है और गाँव समृद्ध होते जा रहे हैं। ज्यों-ज्यों उत्पादन बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों जनसंख्या भी बढ़ती जाती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ का अनुमान है कि आज से २५ वर्षों बाद संसार की जनसँख्या ६ अरब हो जायेगी। पृथ्वी पर जन-भार अधिक बढ़ने से यौन-विकृति, अपराध, मनुष्य-भक्षण, युद्ध, कलह, महामारी और मानसिक रुग्णता का भयंकर प्रसार होने लगेगा। ऐसी स्थिति में समाज का अनुशासन भंग हो जायेगा, नैतिकता का नाम भी नहीं रहेगा और मानव-जाति पुनः पाषाण-युग की ओर लौट जायेगी। जनसँख्या वृद्धि से मानव के भविष्य का लोमहर्षक दृश्य दिखाई दे रहा है। आज देश में कीड़े-मकोड़ों की तरह जो जनसँख्या बढ़ती जा रही है, उसे परिवार-नियोजन के सिद्धांतानुसार नियंत्रित करना होगा अन्यथा जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होना सम्भव नहीं। सरकार इसके लिए समुचित सहायता प्रदान कर रही है।
यह सच है कि मँहगाई की मार ने प्रायः सभी देशों के व्यक्तियों को सताया है किन्तु भारत में तो इससे लोगों की कमर ही टूट गई है। इतने कम वर्षों में इतनी अधिक मँहगाई को देखकर बड़े-बूढ़ों का दिल धड़कने लगता है। मुगल सम्राट औरंगजेब का समय बीते लगभग तीन-सौ वर्ष हुए हैं। उस समय चावल एक रुपये का सवा मन, तेल इक्कीस सेर और घी साढे-दस सेर बिकता था। अँग्रेजी शासन-काल में चावल सवा-रुपये मन, दाल डेढ़-रुपये मन, तेल सरसों पाँच रुपये मन और घी सोलह रुपये मन मिलता था (१९१० ई०)। समय-चक्र के साथ भाव बढ़े। आज़ादी से ४-५ वर्ष पूर्व सन् १९४२ ई० में चावल चौंतीस रुपये मन, दाल पच्चीस रुपये मन, शक्कर चालीस रुपये मन, घी एक-सौ-चालीस रुपये मन, कोयला दो रुपये मन, दूध पाँच रुपये मन और धोती-जोड़ा बारह रुपये में बिकता था। जब से अर्थ-व्यवस्था की कुंजी हमें मिली है, भाव स्थिर न होकर बढ़ते ही रहते हैं। सन् १९५२ ई० में चावल चालीस रुपये मन, चीनी पैंतीस रुपये मन, घी दो-सौ रुपये मन, कोयला दो रुपये मन, दूध अठाईस रुपये मन और धोती-जोड़ा दस रुपये में मिलता था। गत २०-२५ वर्षों में मँहगाई अपनी चरम-सीमा पर पहुँच गई है। सन् १९६९ ई० की समाप्ति पर बाजारों में गेहूँ पचास रुपये मन चावल अस्सी रुपये मन, घी चार-सौ-पचहत्तर रुपये मन, वनस्पति दो-सौ-पच्चीस रुपये मन, तेल दो-सौ रुपये मन, दाल साठ रुपये मन, नमक छः रुपये मन, कोयला पाँच रुपये मन, दूध साठ रुपये मन और धोती-जोड़ा सोलह रुपये के भाव पर बिकता था। आज प्रति क्विंटल गेहूँ एक-सौ-अस्सी रुपये, चावल चार-सौ-पचास रुपये, शक्कर पाँच-सौ रुपये, घी दो हजार दो सौ रुपये, कोयला साठ रुपये, दूध तीन-सौ रुपये और धोती-जोड़ा सत्तर रुपये में मिलता है (१ मन = ३७ किलोग्राम, १०० किलोग्राम = १ क्विंटल)। आज़ादी के दो वर्ष बाद सन् १९४९ ई० में रुपये का मूल्य सौ-पैसे माना जाय तो वह आज घटकर २७. ६ पैसे रह गया है।
आलोच्य काल में विज्ञान ने सबको भौतिकवादी बना दिया। जैसे राष्ट्र-राष्ट्र में धन की होड़ लगी हुई है वैसे ही जन-जन में भी। दौलत के मोह-बंधन ने सबको जकड़ रखा है। पैसा ही सबका मुख्य ध्येय रह गया है। शिष्टाचार का स्थान भ्रष्टाचार ने ले लिया है। अर्थ-व्यवस्था का आधार नैतिक मूल्य हैं जिनके अभाव में समाज का अवमूल्यन होता जा रहा है। आज मनुष्य पैसे के लोभ में दूसरे का गला घोंटने में तनिक भी नहीं हिचकता। अभाव, कर-चोरी, मुनाफाखोरी, जमाखोरी, कालाबाजारी, कालाधन, मुद्रा स्फीति, विदेशी मुद्रा की धोखाधड़ी, मिलावट और तस्करी ने हमारी अर्थ-व्यवस्था को कलंकित कर दिया है। वेतन-भोगियों को छोड़कर अंधाधुध कमाई में लगे लोग कर-वंचना करते हैं। कृत्रिम अभाव उत्पन्न कर व्यापारी मूल्य बढ़ाते रहते हैं। थोक व्यापारी बड़े-बड़े गोदामों में पहले तो माल छिपा देते हैं और फिर उसे ऊँचे दाम पर बेचते हैं। कालाबाजारी करते रहने से काला धन बढ़ता रहता है। इसके फलस्वरूप मुद्रा स्फीति हुई है। मिलावट का तो हाल यह है कि लोगों ने खाद्यपदार्थों और दवाइयों तक को नहीं छोड़ा। इससे न जाने कितने लोगों के जीवन का दुखद अंत हुआ है। तस्करी ने तो एक ऐसा जाल फैलाया कि जिससे अर्थव्यवस्था क्षत-विक्षत हो गई। हर्ष का विषय है कि सरकार ने आंतरिक सुरक्षा कानून (Misa) के अन्तर्गत ऐसे लोगों की धर-पकड़ करना आरम्भ कर दिया है। गत १-२ वर्षों से इन दोषों को दूर करने के लिए विशेष अभियान चलाये जा रहे हैं। फलतः स्थिति में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है।
आज हमारे सामने अर्थ-व्यवस्था सर्व-प्रमुख है। गरीबी, बेकारी और बेरोजगारी से जनता विशेष दुखी है। किसान, मजदूर, व्यापारी एवं राज्यकर्मचारी किसी में आंतरिक प्रसन्नता नहीं दिखाई देती। उसके भीतर निराशा की भावना ने घर कर लिया है। यदि देश की सारी सम्पत्ति गरीबों में बाँट दी जाये तो भी गरीबी नहीं मिट सकती तथा आर्थिक समानता नहीं आ सकती। आवश्यकता इस बात की है कि देश आत्म-निर्भर बने। इसके लिए उत्पादन बढ़ाना होगा और उसका सही, समान तथा न्यायपूर्ण ढंग से वितरण करना होगा। प्रत्येक वस्तु का राष्ट्रीयकरण अथवा सरकारीकरण समस्या का निदान नहीं। वर्तमान अर्थ-व्यवस्था में गरीब और गरीब बना, धनवान और धनवान बना तथा इन दोनों के बीच में मध्यम वर्ग पिसने लगा। यह देखकर आंतरिक संकटकालीन स्थिति की घोषणा के उपरांत प्रधानमंत्री ने निम्न एवं मध्यम वर्ग के लिए जिस २१ सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम की घोषणा की है (१ जुलाई, १९७५ ई०), उसका समस्त क्षेत्रों में स्वागत हुआ है और अब प्रत्येक राज्य में इसे क्रियान्वित किया गया है। कहना न होगा कि इसके माध्यम से सरकार ने मूल्यों का मोर्चा सँभाला है, भूमिहीनों को भूमि, सिंचाई व्यवस्था, आर्थिक साधन और आवश्यक उपकरण जुटाये हैं तथा मध्यम आय वर्ग को आयकर में राहत देकर जन-साधारण में राष्ट्रीय अनुशासन की वृद्धि की है। निश्चय ही इससे लोगों को सहायता मिलेगी और उनकी आर्थिक दशा में सुधार होगा। आज चल-अचल सम्पदा की एक निश्चित सीमा से व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता। समय ने सबको निचोड़ कर रख दिया है।
समाजवादी देशों के साथ आर्थिक सहयोग भारत की अर्थ-व्यवस्था का एक सुदृढ़ स्तम्भ है। विश्व की आर्थिक स्थिति जितनी अनिश्चित इन वर्षों में रही उतनी पहले कभी नहीं रही। भारत पर भी इसका प्रभाव पड़ा। कर-भार बढ़ा। भारत में परोक्ष कर संसार भर में सबसे अधिक हैं। इन परोक्ष करों से जन-साधारण के कष्ट बढ़ते जा रहे हैं। विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लोभ में आवश्यक जीवनोपयोगी वस्तुओं का निर्यात करना पड़ा जिन्हें देशवासी ताकते ही रहे। पेट्रोल का मूल्य चार गुना बढ़ जाने से (१९७४ ई०) देश का अरबों रुपया खर्च होते देखकर सरकार ने ‘बम्बई हाई’ में तेल के अनेक कुए खुदवाये। इससे हमारी आर्थिक दशा सुधरने की आशा है। यह संतोष का विषय है कि भारत विश्व में साइकिल, सिलाई-मशीन एवं ट्रांजिस्टर के उत्पादन और निर्यात में सबसे आगे है। यह देखकर गर्व होता है कि भारत अब उन देशों को भी अपने यहाँ के बने हुए जहाज और हवाई जहाज भेजने लगा है जहाँ से पहले वह इन्हें मँगाता था। हमें अपनी कठिन आर्थिक स्थिति में निराश होने की आवश्यकता नहीं। चुनौतियों का सामना श्रम, एकता तथा निष्ठा से करना होगा। यदि सच पूछा जाय तो आपातकाल में भारतीय अर्थ-व्यवस्था सुधरने लगी है। मूल्यों में सुधार होने से कृषि एवं प्रौद्योगिक दोनों ही क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ने लगा है। आज देश प्रगति के एक नये मोड़ पर आ खड़ा हुआ है।
(९) शैक्षणिक अवस्था
एक समय था जब भारत विश्व का गुरु था। देववाणी संस्कृत राष्ट्रभाषा थी। यहाँ के तक्षशिला, मध्यमिका, मथुरा, अहिच्छत्रा, कन्नौज, अयोध्या, काशी, पाटलिपुत्र, नालंदा, विक्रमशिला, वलभी, उज्जयिनी, घानाकारक एवं काल्ची विश्वविद्यालयों की कीर्ति-कौमुदी दूर-दूर तक फैली हुई थी। देश-विदेश के सहस्रों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते और विभिन्न विद्याओं में पारंगत होकर जीवन में प्रवेश करते थे। कालांतर में मुसलमानों और तत्पश्चात् अँग्रेजों के शासन-काल में यह आदर्श पद्धति नष्ट हो गई। यही नहीं, राष्ट्रभाषा के स्थान पर उर्दू, फारसी तथा अँग्रेजी में शिक्षा दी गई अतः विद्यार्थी-समुदाय पराधीन हो गया। लार्ड मैकाले के अभिशाप ने बाबू बनने की होड़ लगा दी (१९२८ ई०)। खेद है कि स्वतन्त्र भारत में भी इतने वर्षों तक वही ढांचा और ढर्रा विद्यमान है। वही पराधीन-काल की कक्षा, शिक्षा परीक्षा और दीक्षा का क्रम चला आ रहा है।
शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास है। यदि शिक्षा शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक शक्तियों का निर्माण न करे तो भिक्षा तुल्य है। आधुनिक शिक्षा सैद्धांतिक है, व्यावहारिक नहीं। वह अक्षर-ज्ञान कराती है, जीवन-ज्ञान नहीं। यह शिक्षा हमें तथ्यों की बाह्य जानकारी देती है, भीतरी शक्तियाँ नहीं जगाती। यही कारण है कि शिक्षण-संस्थानों के उत्तीर्ण विद्यार्थी जीवन की अन्य परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण ही रह जाते हैं। शिक्षा उपाधियां प्रदान करती है, जीविका नहीं। नाना प्रकार की उपाधियों से अलंकृत विद्यार्थी इधर-उधर भटकता रहता है। उसके सामने एक निश्चित उद्देश्य नहीं होता। शिक्षण संस्थानों की आत्मा उसका ‘टाइम-टेबल’ (समय-सारणी) है लेकिन आज न ‘टाइम’ का पता है और न ‘टेबल’ का। घंटा बजने पर कक्षा लगती है और विद्यार्थियों को भीड़ जमा होती है। अध्यापक आता है और शुष्क ज्ञान देकर चला जाता है। कोई किसी को नहीं जानता। अवकाश के दिन अधिक होने से पाठ्यक्रम पूरा नहीं हो पाता। शुल्क वर्ष भर का लिया जाता है किन्तु पढ़ाई तीन-चार महीनों की हो पाती है। आज शिक्षा का अर्थ यही रह गया है कि येन-केन-प्रकारेण उपाधि मिले और उसके सहारे नौकरी प्राप्त की जाय। सही अर्थों में ज्ञानोपार्जन की प्रवृत्ति का ह्वास होता जा रहा है। परम्परागत मूल्य क्षत-विक्षत हो रहे हैं। शिक्षा व्ययशील होती जा रही है, पाठ्यक्रम बोझ बना हुआ है और योग्य अध्यापकों का अभाव है। देश-काल के अनुरूप मनोवैज्ञानिक ढंग की शिक्षा नहीं दी जाती। सह-शिक्षा विकारयुक्त हो रही है। साधन सीमित हैं और माध्यम में एकरूपता नहीं। परीक्षा योग्यता की कसौटी नहीं रह गई। सफलता का रहस्य प्रभाव बन गया। परीक्षा की परीक्षा करने से पता चलता है कि इस प्रक्रिया में स्तर-स्तर पर अनेक दोष आ गये हैं। सारा खेल अंकों का है जो प्रेमपूर्वक लुटाये जाते हैं। एक ओर उत्तीर्ण प्रतिशत बढ़ रहा है तो दूसरी ओर स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। नकल करने का दंडनीय कुकृत्य साहसिक कार्य बन गया। निर्दोष निरीक्षक एवं परीक्षक पिटने लगे। छूट अधिक मिलने से विद्यार्थी मनमानी करने लगे। वे बेरोजगारी, अपराध, असंतोष एवं मादक द्रव्यों की ओर प्रवृत्त हुए। दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत की शिक्षण-संस्थानों में भी राजनीति ने घुस-पैठ कर ली। विद्यार्थी तथा अध्यापक विभिन्न दलों में विभक्त हुए। ज्ञान-मंदिर क्षुद्र स्वार्थों तथा घटिया दलबंदी से घिर गये। चुनावों ने गुड़गोबर कर दिया। उदण्डता, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता तथा अराजकता फैलने लगी। शांति भंग होती गई। गम्भीर शिक्षण तथा गहन शोध-कार्य के लिए शांत एवं पवित्र वातावरण जाता रहा। यह लक्ष्य करने की बात है कि अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं ने भी बुद्धिजीवियों को प्रभावित किया। अनेक देशों में उग्र आंदोलन हुए। इन्डोनेशिया का तख्ता ही उलट गया, फ्रांस में भूकम्प आया, पाकिस्तान काँप गया, अमेरिका जैसे देश को झुकना पड़ा और जापान के विश्वविद्यालय बंद हो गये। भारतीय शिक्षण-संस्थानों में भी आंदोलन हुए। विद्यार्थी-नेता उचित अनुचित मांगों को लेकर राजनैतिक भाषा-शैली में बातें करने लगे। राष्ट्रीय समय और सम्पत्ति की हानि हुई। पता नहीं, यह शिक्षा-प्रणाली मनुष्य के जीवन को क्या बनाना चाहती है ?
किसी भी राष्ट्र में शिक्षक और शिक्षार्थी ही उसकी वास्तविक शक्ति होते हैं। यदि वे साथ दें तो किसी भी क्षेत्र में परिवर्तन लाया जा सकता है। स्वतंत्रोपरांत राजनैतिक दल कुर्सी और सत्ता छीनने में ऐसे उलझ गये कि विद्यार्थियों के भविष्य की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। समय आ गया है, हमें शिक्षा-पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। यदि छात्र-छात्राओं का पल-पल रचनात्मक प्रवृत्तियों में लगाया जाय तो शिक्षा का उद्धार हो। शिक्षा भारतीयता से ओतप्रोत होनी चाहिये। आयातित विदेशी समाधान हमारी समस्यायों के हल नहीं है। मानसिक ज्ञान के साथ शारीरिक, धार्मिक, नैतिक, चारित्रिक एवं राष्ट्रीय शिक्षा देने की आज सबसे बड़ी आवश्यकता है। विद्यार्थी की दैनिक चर्या में इनका प्रबन्ध होना चाहिए। यदि विद्यार्थी को श्रम, निष्ठा, कर्त्तव्यपरायणता तथा स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाया जाय तो वह बेकार कदापि नहीं रह सकता। स्वाधीन राष्ट्र के समस्त शिक्षित राज्य-सेवा में नहीं लगाये जा सकते। पढ़ने-लिखने के साथ श्रम करना होगा। शिक्षा का प्रमुख कार्य हमें चारित्रिक गुणों से भरकर उत्तम मनुष्य बनाना है। शिक्षण-संस्थाओं में एक-एक विद्यार्थी के गुणावगुणों की शुद्ध संचिका रखी जानी चाहिए और उसी के आधार पर वह उत्तीर्ण घोषित होना चाहिए। कक्षा का अध्यापक ही विद्यार्थी का सबसे बड़ा परीक्षक है। वह अपने शिष्य की नाड़ी जानता है, बाहर का परीक्षक नहीं। विद्यार्थी को कसौटी ज्ञान है, उपाधि नहीं अतः इसका अंतिम निर्णायक कक्षा का अध्यापक ही होना चाहिए। अनौपचारिक कक्षाओं के द्वारा विद्यार्थी और अध्यापक एक-दूसरे के सन्निकट आ सकते हैं। यहाँ राजनैतिक ढंग के चुनावों से क्या लाभ ? आवश्यक हो तो होनहार विद्यार्थियों को मनोनीत किया जा सकता है। विद्यार्थी राजनीति का अध्ययन अवश्य करें लेकिन सक्रिय राजनीति में भाग न लें तो यह उनके हित में होगा। माँ भारती के पवित्र प्रांगण में माँगें शालीनता से रखनी चाहिए जिससे उसका गौरव बढ़े।
शिक्षा केन्द्र का नहीं राज्यों का विषय है। अधिकांश योजनायें राज्यों द्वारा केन्द्र की सहायता से क्रियान्वित होती हैं। केन्द्रीय शिक्षा-मंत्री की अध्यक्षता में एक केन्द्रीय नियोजन समूह की स्थापना हुई (१९६६ ई०)। प्रारम्भिक शिक्षा सुधार के लिये एक राष्ट्रीय संस्थान बना (१९५६)। माध्यमिक शिक्षा में सुधार के लिये मद्रास विश्वविद्यालय के उप-कुलपति डॉ० लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में एक माध्यमिक शिक्षा आयोग की नियुक्ति हुई (१९५२ ई०) तथा एक अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् की नींव पड़ी। उच्च शिक्षा में सुधार के लिये डॉ० राधाकृष्णन की अध्यक्षता में एक आयोग स्थापित हुआ (१९४८ ई०) जिसके सुझावों को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने एक स्थायी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन किया (१९५३ ई०)। सुप्रसिद्ध शिक्षा-शास्त्री डॉ० दोलतसिंह कोठारी की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया गया (१९६६ ई०) जिसके फलस्वरूप एक नीति प्रस्ताव पारित हुआ (१९६८ ई०) और संस्तुतियों को स्वीकार किया गया किन्तु दुर्भाग्य से कोई निर्णायक कार्यवाही नहीं हो पाई। इन संस्तुतियों को केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार समिति के सामने रखा गया (१९७२ ई०) जिसने स्वीकृति प्रदान कर इस प्रणाली को समस्त देश में लागू करने की सलाह दी। अंत में सरकार ने इस पर अपनी मुहर लगा दी (१९७४ ई०)। इस में शिक्षा की एकरूपता, राष्ट्रीय एकता, शिक्षा का विस्तार, सामाजिक एकता, आत्मनिर्भरता और शारीरिक शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है।
शिक्षा के क्षेत्र में जो विचार-मंथन हुआ है, उसे अब त्वरित सोच-समझकर लागू किया जाना चाहिए। अधिक विलम्ब होने से शिक्षा-जगत् में निराशा उत्पन्न हो रही है। यह हर्ष की बात है कि राज्य सरकार शिक्षा पर पूर्वापेक्षा कई गुना अधिक व्यय कर रही है। शिक्षण-संस्थाओं की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। राजस्थान में पहले जहाँ एक भी विश्वविद्यालय नहीं था वहाँ अब जयपुर (१९४७ ई०), जोधपुर (१९६२ ई०) एवं उदयपुर (१९६२ ई०) ये तीन विश्वविद्यालय हैं। बिड़ला संस्थान, पिलानी को भी विश्वविद्यालयीय मान्यता प्राप्त है। प्रत्येक जिले में कला, वाणिज्य एवं विज्ञान का कम से कम एक महाविद्यालय है। छात्र-छात्राओं के लिए पृथक्-पृथक् अनेक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय हैं। प्रारम्भिक शिक्षा का तो गाँव-गाँव और नगर-नगर में जाल फैला हुआ है। अब इसे अनिवार्य और निःशुल्क बनाया जा रहा है। साथ ही कई व्यावसायिक विद्यालय और विशिष्ट संस्थान भी कार्यरत हैं। तकनीकी शिक्षा में भी उन्नति हुई है। पत्राचार तथा प्रौढ़ शिक्षा की पृथक व्यवस्था है। इस प्रकार शिक्षण-संस्थाओं और समितियों की कमी नहीं हैं, आवश्यकता है इन्हें सुव्यवस्थित करने की ! सरकार इसके लिए कृतसंकल्प है। आपातकालीन स्थिति की घोषणा के उपरांत इन संस्थाओं में अनुशासन की एक नई लहर आई है। विद्यार्थी तथा अध्यापक शांति से अध्ययन-अध्यापन में दत्तचित्त हैं। कहना न होगा कि २१ सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षा को प्रमुखता दी गई है। पाठ्य-पुस्तकों, कॉपियों और कागज की पर्याप्त पूर्ति बनाये रखने हेतु कागज का उत्पादन बढ़ने लगा है। स्थान-स्थान पर बुक बैंक खुले हैं। शिक्षण संस्थानों में रैगिंग और नये छात्रों को परेशान करने की प्रथा, जो बहुत विकट हो गई थी, समाप्त कर दी गई है। प्रवेश, उपस्थिति, अध्ययन, अध्यापन एवं परीक्षा में कसावट आने लगी है। आशा है कि आज का विद्यार्थी राष्ट्रीय नीति में ढलकर अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने के साथ राष्ट्र का मस्तक भी ऊँचा उठायेंगे। अस्तु,
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