चारण साहित्य का इतिहास – आठवाँ अध्याय – चारण काव्य का नव चरण (उपसंहार) – [Part-C]
(ख) कवि एवं कृतियाँ
१. बद्रीदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१८९० ई०) और पाली (मारवाड़) जिलान्तर्गत ग्राम बासनी के निवासी हैं। इन्होंने अपनी प्रारिम्भक शिक्षा मातृभाषा राजस्थानी में अपने पिता अजीतदान जी से प्राप्त की (१८९७ ई०)। साथ ही पं० शंकरलाल (बनेड़ा) से भी ज्ञान ग्रहण किया। इस प्रकार इन्होंने दस वर्ष की आयु में कविता लिखना आरम्भ कर दिया। यह देख कर रायपुर-ठाकुर हरीसिंह ने इन्हें अपने पास रख लिया। रायपुर राजघराने की सेवा करते हुए ये अपना ज्ञान बढ़ाते गये। ठाकुर साहब के निधन के बाद ये जोधपुर आ गये जहाँ इन्होंने वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। आजकल आप वकालत के साथ-साथ साहित्य-साधना भी कर रहे हैं। आप वयोवृद्ध होने पर भी उत्साही हैं। जो कोई इनके पास जाता है उन्हें ये अपनी रचनायें बड़े प्रेम से सुनाते हैं।
बद्रीदानजी राजस्थानी भाषा एवं साहित्य के ज्ञाता हैं। ये ‘चारण-पत्रिका’ के सम्पादक भी रह चुके हैं। इन्होंने प्राचीन-अर्वाचीन दोनों प्रकार की रचनायें लिखी हैं। ‘बोम्बर बावनी’ तथा ‘रणबंका राठौड़’ गुजरे जमाने की याद दिलाती हैं। महाराजा सरदारसिंह, सुमेरसिंह, उम्मेदसिंह एवं हनुवंतसिंह (जोधपुर) पर लिखे शोक-गीत इसी श्रेणी में आते हैं। अर्वाचीन ढंग की रचनाओं में ‘जयहिंद शतक’, ‘केर सतसई’, ‘कांदा पच्चीसी’ आदि उल्लेखनीय हैं। सम्प्रति गीता का राजस्थानी में अनुवाद कर रहे हैं। इन्होंने फुटकर कवितायें भी बहुत लिखी हैं। संक्षिप्त होते हुए भी इनकी रचनायें अपने-अपने कालों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
एक बार प्रसिद्ध काँग्रेस-नेता लोकनायक श्री जयनारायण व्यास ने समस्या दी- ‘जय हिन्द !’ श्री कविया आशु कवि के रूप में धड़ाधड़ दोहे सुनाने लगे जिसका नमूना इस प्रकार है-
गांधी तो त्यागी घणो जिन्नो मुफतीयो जिन्द।
पाकथान ले ने पड्यो, हार वी’ क जय हिन्द।।
नागी द्रुपदी निरखतां, कुरुवंश निष्कंध।
नार हजारों नग्न की, हार वी’ क जय हिन्द।।
सीता रावण ने हरी, (जिणा) काट लिया दसकंध।
हा लाखों तीय हर लई, हार वी’ क जय हिन्द।।
‘केर-सतसई’ में प्रकृति की अद्भुत देन ‘केर’ की महिमा देखिये-
हिय हरियो हरियो रहै, हरदम हरियो हैर।
तू मरुधर रा कल्पतरु, (थने) किण विध भूलों कैर।।
आलू गोभी थों आगे, ठीक न जावे ठैर।
सब सागों रा सेहरा, किण विध भूलों कैर।।
और अंत में, गीता-अनुवाद का यह दोहा कितना प्रेरणादायक है ?
नर वैने नामरदगी, शोभै नँह समराट।
हिवड़ा री तज हीणता, भड़ उठ भिड़ भारात।।
२. ईश्वरीदानसिंह:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१८६५ ई०) और सवाईमाधोपुर जिलान्तर्गत ग्राम बंवली बिशनपुरा के निवासी हैं। जीवित कवियों में इन्हें डिंगल, पिंगल, हिन्दी, उर्दू तथा फारसी भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त है। ये राव साहब धूळा तथा जयपुर दरबार के राज्य-कवि रह चुके हैं। इसलिये लोग इन्हें ‘ठाकुर’ कहकर पुकारते हैं। इनकी रचनाओं में ‘कूर्म विजय’, ‘कमधज कबंध’, ‘पचरंग प्रकाश’, ‘महिपति रघुकुल नेम ग्रंथ’, ‘शेखावत प्रकाश’, ‘मोहन भक्ति प्रकाश’ आदि उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त फुटकर रचनाये भी बहुत लिखी हैं।
ईश्वरीदानसिंहजी परम्परागत कवि हैं। ‘पचरंग प्रकाश’ में जयपुर के पचरंगी झंडे की तवारीख है किन्तु साथ ही काव्य-सौन्दर्य देखते ही बनता है। इसमें महाराजा मानसिंह (प्रथम) तथा बादशाह अब्दुलाखां उज़वक़ (पठान) के युद्ध का चित्रोपम वर्णन है। काबुल के इस युद्ध में महाराजा को विजयश्री प्राप्त हुई थी। शह-शाह-तुरान की सेना आती देखकर मानसिंह की सेना सजने लगी। इसका वर्णन कवि ने छंद ‘पद्धरी’ में किया है-
ये सुनत ख़बर युवराज मान, काबुल रक्षक जो वंश-भान।
आज्ञा सुभटन को दी तुरन्त, सब सजे वीर कूरम दुरंत।।
भुजदंड फडक ब्रहमंड ओर, धक घकिये जोश मूंछन मरोर।
हो गए कंध केहरि समान, खिंच गई भौंह मानो कमान।।
चढ़ गये तौर जिन सार पार, चस गये नैन जैसे अंगार।
सजधज बलिष्ठ होकर तयार, गर्जत अनेक भट दळ संभार।
संसार मोह को त्याग दीन्ह, वह समय अंत सब लियो चीन्ह।।
छंद ‘भुजंगप्रयात’ में तोपों का यह वर्णन भी दृष्टव्य है-
चिती चाव पै चंचळा तोप चाळी, किलक्की मनो क्रोध में होम काळी।
दगी जौर पै तेज बारूद जागी, लखी यों मनो लंक में लाय लागी।।
अड्यो जाय आकाश में यो उजाला, मनो वीजळी सी उठी ज्वाल माला।
भयो घोर अंधार ना भान भास्यो, फळै काळ सो रूप आक प्रकास्यो।।
धरै धीर नाहीं धरा को धुजावै, डकै डाकनी डूंगरो को डिगावै।
इहि रीत दोनों दिशा में तड़क्की, किधो कंस पै माहमाया कड़क्की।।
३. तखतदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं और पाली जिलान्तर्गत ग्राम आंगदोष के निवासी हैं। इनकी गणना राजस्थानी के उत्तम कवियों में की जाती है। आपने फुटकर कवितायें लिखी हैं। एक उदाहरण देखिये-
ऊंट जवाहर अरब रो, निज कर घाल नकेल।
झटको दे झेकावतो, पड़ गयो पार पटेल।।
४. माधौसिंह:- ये सिंढायच शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९०१ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम मोगड़ा के निवासी हैं। इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की (१९२४ ई०) फिर राज्य-सेवा में लग गये। आपने स्वास्थ्य निरीक्षक, नगर-परिषद्, जोधपुर तथा पुलिस-विभाग में इन्सपेक्टर के पद पर कार्य किया है। आजकल अपने गाँव में ही रहते हैं। मिलने पर प्राय: कहा करते हैं- गाँव में सब-कुछ है- शुद्ध वायु, स्वच्छ जल और अनुकूल भोजन लेकिन विद्या और विद्वान के बिना सब सूना है। ग्राम्य-जीवन से स्नेह होने के साथ कवि विद्वानों से मिलने को उत्सुक रहता है। चश्मा लगाना तो दूर, इस अवस्था में भी आँखों का तेज ईश्वरीय कृपा से ज्यों का त्यों बना हुआ है।
माधौसिंहजी प्रारम्भ से ही राजस्थानी भाषा एवं साहित्य के उपासक रहे हैं। इन्होंने अपने पूर्वज कवियों एवं लेखकों की कई कृतियों का अध्ययन किया है। कई बातें इनके कंठ में निवास करती हैं। ये डिंगल एवं पिंगल दोनों भाषाओं में स्फुट काव्य-रचना करते हैं। साथ ही प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों ढंग की रचना करने में समर्थ हैं। स्वतंत्रता-काल के वीर योद्धाओं का वर्णन करते हुए कवि ने ये उद्गार प्रकट किये हैं-
भारत रा अणियों भंवर, जिण पुळ सजै जवांन।
दरकै छाती दोयणां, थरकै पाकिसथांन।
मुंड दिये हरमाळ में, रुंड रचै धमसांण।
तिकां कोतुहळ भालवा, रथ ठंभै रातांण।।
हर नाचै नारद हसै, अछरां वरण अधीर।
भारत रा जिण पुळ सुभट, हिचै जुघां हमगीर।।
प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की प्रशंसा में उसका कथन है-
कह्या बंगहित काज, वचन जिके निरवाहिया।
इणसूं भारत आज, अजसै तोसुं इन्दिरा।।
विध विध किया विहाल, यायाखां पापी असुर।
विलसै सुख बंगाल, अब अवलंब तो इन्दरा।।
५. गोविन्ददान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९०२ ई०) और जोधपुर राज्यान्तर्गत ग्राम बिराई के निवासी हैं। इनके पिता जसवंतदानजी जब ये केवल नौ महीने के थे, स्वर्गवासी हो गये। कवि-कुल में जन्म लेने के कारण आप काव्य-पाठ में दक्ष हैं। वृद्धावस्था में भी आपको अनेक छंद कंठस्थ हैं। आप समाज-सुधार में विशेष रुचि लेते हैं और अपने क्षेत्र में इतने लोकप्रिय हैं कि सभी जातियों के लोग पारस्परिक झगड़े निपटाने के लिए इनकी सहायता लेते हैं। इन्होंने निर्विरोध रूप से अपनी पंचायत में पंच, उप-सरपंच तथा पंचायत समिति, बालेसर के सहवृत्त सदस्य के रूप में कार्य किया है। आजकल आप अपने गाँव में ही कृषि-कार्य की देखभाल करते हैं।
गोविन्ददानजी ने फुटकर रूप से राजस्थानी साहित्य की सेवा की है। शोक-काव्य एवं वर्तमान भ्रष्टाचार को लक्ष्य करके जो दोहे कहे गये हैं, वे उल्लेखनीय हैं। एक उदाहरण देखिये-
कांम सड़क ऊपर करै, खास हृदै विच खोट।
मजदूरी (तो) वांनै (इ) मिळै, (पण) नेता हड़पै नोट।।
६. सीताराम:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९०८ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम नैरवा के निवासी हैं। इनके पिता का नाम हाथीरामजी है। जब इनकी अवस्था ढाई वर्ष की थी तब उनका स्वर्गवास हो गया अत: पालन-पोषण ननिहाल में हुआ। इनके नाना शादूलजी एक प्रसिद्ध विद्वान एवं कवि थे। उन्होंने इन्हें अपने गांव सरवडी (सिवाना) में प्रारम्भिक शिक्षा दी। इसके पश्चात् ये आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए जोधपुर आकर क्रमशः राजमहल मिडिल स्कूल तथा दरबार हाई स्कूल में भर्ती हुए किन्तु विशेष सफलता नहीं मिली। इन्होंने संस्कृत का ज्ञान पं० भगवतीलालजी से प्राप्त किया जिनका ये बहुत आभार मानते हैं। इस समय कबीर पंथी साधु जुढिया गाँव के पनारामजी मोतीसर जो राजस्थानी के उच्च ज्ञाता थे, उनकी देख-रेख में वर्षों तक इन्होंने अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया। इस प्रकार संस्कृत, हिंदी एवं राजस्थानी इन तीनों भाषाओं का आपने अध्ययन किया है।
सीतारामजी कई वर्षों तक माध्यमिक पाठशाला में शिक्षक के रूप में सेवा कर चुके हैं। राजस्थानी भाषा एवं साहित्य के आप मर्मज्ञ हैं। इसके साथ रजिस्टर्ड वैद्य भी हैं और आयुर्वेद शास्त्र में पर्याप्त रुचि रखते हैं। ये कवि के रूप में नहीं लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने कई ग्रन्थों का सफलतापूर्वक सम्पादन किया है जिनमें ‘विड़द सिंणगार’, ‘प्रेमसिंह रूपक’, ‘रघुवर जस प्रकाश’ एवं ‘सूरज प्रकाश’ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। मौलिक रचना में ‘राजस्थानी-व्याकरण’ का नाम लिया जा सकता है। इनके जीवन का ध्येय यही है कि किसी तरह ‘राजस्थांनी सबद-कोस’ का कार्य सम्पूर्ण हो और इस हेतु पावटा (जोधपुर) स्थित कार्यालय में साधना कर रहे हैं। यह कार्य प्रांतीय एवं केन्द्रीय सहायता से चल रहा है। जोधपुर विश्वविद्यालय ने इन्हें ‘डाक्टर’ की मानद डिग्री प्रदान की है (१९ जनवरी, १९७६ ई०)।
‘राजस्थांनी सबद-कोस’ छः हजार पृष्ठों का एक मूल्यवान ग्रंथ है। इसका प्रथम खंड एक जिल्द में भूमिका सहित ११७५ पृष्ठों का है जो अ से घ तक चलता है। द्वितीय खंड दो जिल्दों में है- पहली में च, ट तथा त वर्ग है और दूसरी में थ, द, ध तथा न वर्ग हैं। तृतीय खंड तीन जिल्दों में है-पहली में प और फ, दूसरी में केवल ब तथा तीसरी में भ और प वर्ग हैं। पहली दो जिल्दों पर कर्त्ता के रूप में स्व० उदयराज उज्वल का भी नाम है। चतुर्थ खंड भी तीन जिल्दों में है- पहली में व, दूसरी में स तथा तीसरी में स का अवशिष्ट और ह है। इस कोष में एक शब्द के अनेक अर्थ दिये गये हैं जैसे ‘गजगाह’ के ९ और ‘अंब’ शब्द के १५ अर्थ हैं। एक उदाहरण देखिये-
अंब-सं० पु० [सं०] १ शिव, महादेव (ना० डिं० को) [सं० अंबक] २. नेत्र, नयन। [सं० अंबुधि] ३. समुद्र (अ० मा०) [सं० अंबु] ४. जल। उ०-नैण नीरज में अंब बहै रे, गंगा बहि जाती-मीरां ५. चन्द्रमा। [सं० अंबुद] ६. बादल। [सं० आम्र] ७. आम का वृक्ष या उसका फल। उ०-मारगि-मारगि अंब मौरिया, अंबि-अंबि कोकिल अलाप। -वेलि [सं० अंबर] ८ आकाश। ९. वस्त्र। सं० स्त्री [सं० अंबा] १० उमा, पार्वती। उ०-अंब हुकम गई अंब अराधण, सुख-सागर दरसायौ हे माय। -गी० रां० ११. दुर्गा। १२. धरती। १३. शक्ति। १४ माता, जननी। उ०-आज कहौ तो आप जाइ आवूं, अंब जात्र अंबिका तणी। -वेलि० [सं० अंबु] १५ कांति।।
इतना होते हुए भी कुछ शब्द छूट गये हैं तथा कहीं-कहीं भ्रामक शब्द और शब्दार्थादि दिये गये हैं। राजस्थानी के एक अन्य कोष-कर्त्ता आचार्य श्री बदरी प्रसाद साकरिया ने ‘वैचारिकी’ में क्रमशः पाठकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करते हुए लिखा है – ‘प्रस्तुत राजस्थांनी सबद कोस में शब्द, व्युत्पत्ति, अर्थ, व्याख्या, उदाहरण और शब्द के रूप-भेदों आदि को लेकर के जो सहस्रों भूले हैं, उनके सुधार की नितांत आवश्यकता है। परन्तु राम जाने, कब, कैसे और कौन उनका संशोधन करेगा, कहना कठिन है। अनेक स्थल ऐसे हैं जो समीक्षायुक्त संशोधन की अपेक्षा रखते हैं।’
७. देवकरण:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९०९ ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम इंदोकली के निवासी हैं। इनके पिता का नाम जोधदान जी है। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने काका बद्रीदानजी से ग्रहण की। आप पंच तथा सरपंच भी रह चुके हैं। राजस्थानी के परम्परागत चारण कवियों में इनका नाम आदर के साथ लिया जायगा। साथ ही अर्वाचीन पद्धति की अनेक रचनायें उपलब्ध होती हैं जिनमें बहुत सी प्रकाशित हो चुकी हैं। आप अध्ययन में विशेष रुचि रखते हैं। संस्कृत, राजस्थानी, ब्रज तथा हिन्दी भाषाओं के आप जानकार हैं। तीव्र स्मरण शक्ति होने के कारण आपको प्राचीन इतिहास की बातें तथा गीत असंख्य मात्रा में कंठस्थ हैं। राजस्थान के इतिहास तथा काव्य का प्रामाणिक ज्ञान रखने वाले वर्तमान विद्वानों में आप अग्रणी हैं। इनकी वेशभूषा, रहन-सहन एवं बोलचाल में सादगी तथा ग्रामीण जीवन की झलक मिलती है। इनके विषय में कई प्रतिष्ठित जागीरदारों एवं विद्वानों ने छंद-रचना कर इन्हें सम्मानित किया है। इन पर आकाशवाणी से वार्ता भी प्रसारित हो चुकी है।
देवकरणजी की कृतियों में ‘गाँधी शतक’, ‘फर्जी नेताओं री फजीती’, ‘रावण-जटायु संवाद’, ‘वीर माळा’, ‘देपाळदे री वेल’, ‘शैतान सुजस’, ‘बंगला देश विजय’, ‘साख-प्रीत संवाद’, ‘सीहण दे चरित’, ‘पंच प्रबोध’, ‘मनुष्य चेतावनी’, ‘लाग बाग लतेड’, ‘दुर्गा पच्चीसी’, ‘व्याकरण दोहावली’, ‘पन्द्रह अगस्त पच्चीसी’ आदि उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त फुटकर रचनायें भी बहुत लिखी हैं। ‘वोट’ किसे नहीं देना चाहिए, इसके लिए कवि का यह कथन देखिये-
जो जनता रा चोरे नोट, वाने नहिं देवणो वोट।
चुगली झूठा ने गुण चोर, धूँस खाय अपराधी घोर।।
जिकण बिरछ री छाया चावे, उण पर लेर कवाड़ी आवे।
एक खर्च कर मांडे आठ, मन रे नहिं लागोड़ी माठ।।
छभा बनावे छठे छमास, पवित्र पंच राखे नही पास।
झोड़ी, जमा खरच कर झूठा, आंगलियां रा करे अंगूठा।।
गैला चूक गुड़ावे गोट, वाने नहीं देवणो वोट।
अत्याचारी, चोर उघाड़ा, धोले दिवस मांडणा धाड़ा।
खरा वणे ने हिरदे खोट, वांने नहीं देवणो वोट।
८. अर्जुनसिंह:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९१० ई०) और पाली जिलान्तर्गत ग्राम मृगेश्वर के निवासी हैं। इनके पिता रिडमलदानजी राजस्थानी के लब्ध प्रतिष्ठ कवि रह चुके हैं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव के निकट सेवाड़ी कस्बे में हुई और फिर ये राजमहल स्कूल, जोधपुर में पढ़ने लगे। इन्होंने मिडिल तक शिक्षा प्राप्त की है। आजकल आप कृषि-कार्य में रत हैं। साथ ही आप राजस्थानी में फुटकर काव्य-रचना भी करते हैं। आप ने प्रत्येक रस में कवितायें लिखी हैं जिनमें हास्य-व्यंग्य की कवितायें विशेष लोकप्रिय हैं। यह अत्यंत शोक का विषय है कि इस विवरण के छपते-छपते ही कवि का स्वर्गवास हो गया (२० जनवरी, १९७६ ई०)। प्रसिद्ध डॉ० शिवदत्तजी उज्वल के सेवा-भाव की प्रशंसा में इनकी कविता का यह उदाहरण देखिये-
केतां विखा कढाविया, केतां बधाया कार,
ओले केतां उबारिया, गंगहरे केई वार।
गंगहरे केई वार घणा खल गाहिया,
सरणायों साधार भुजां ब्रद साहियां।
अवरू किया आसान समवडो उपरा,
खाग त्याग दोहू राह, वेध नागेसरा।।
९. अक्षयसिंह:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९१० ई. ) और मूलतः नागौर जिलान्तर्गत ग्राम जीलिया चारणवास के निवासी हैं। इनके पिता का नाम झूझारसिंहजी है। माता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनका लालन-पालन अपनी बुआ के यहाँ राजगढ़ (अलवर) में हुआ और वहीं इन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दी गई। विघ्न-बाधाओं के कारण इनका अंग्रेजी का अध्ययन तो अधूरा ही रह गया किन्तु अलवर के प्रसिद्ध विद्वान् श्री गिरधारीलालजी भट्ट (तैलिंग) के सानिध्य में पूर्वार्जित हिन्दी एवं संस्कृत ज्ञान का परिष्कार किया और प्राचीन ग्रन्थों का पारायण कर काव्य-विषयक अच्छी व्युत्पत्ति प्राप्त कर ली। तत्कालीन अलवर-नरेश श्री सवाई जयसिंह देव ने जब भारत में सर्व प्रथम हिन्दी देवनागरी को राजभाषा घोषित किया तथा तत्शिक्षणार्थ कर्मचारी-प्रशिक्षणालय की स्थापना की तब इन्हें प्रधानाध्यापक नियुक्त किया गया। एक बार अर्थ-संकट से तंग आकर इन्होंने अलवरेन्द्र को एक दोहा लिख भेजा जिससे इनकी दुगनी पदोन्नति हो गई और ये उनके निजी प्रधान कार्यालय में बुला लिये। जब अलवरेन्द्र के देश-प्रेमपूर्ण क्रियाकलापों से क्रुद्ध होकर अँग्रेज सरकार ने उन्हें निर्वासित कर दिया (१९३३ ई०) तब सर फ्रांसिस वायली नियुक्त हुआ और उसने इनसे गुह्य भेद लेना चाहा किन्तु इन्होंने कुछ भी बताने से इन्कार कर दिया। इससे कुपित होकर एकमात्र इनको ही कमी में ले लिया गया। यह उल्लेखनीय है कि अखिल भारतीय चारण सम्मेलन, जोधपुर के खुले अधिवेशन में इन्होंने अपने कविता-बद्ध भाषण में तत्कालीन अँग्रेज शासकों की कड़े शब्दों में आलोचना की। इनके १२५ छंदों को सुनकर श्रोताओं ने सर्वसम्मति से इन्हें ‘चारण मैथिलीशरण’ की उपाधि से समलंकृत किया। इन्होंने कई मन्त्रालयों में मुख्य रीडर, निजी सहायक तथा शाखाधिकारी के रूप में राज्य-सेवा की है। आपने अलवर राज्य के अत्यल्प संख्यक चारण समाज को संगठित करके श्री करणी चारण छात्रावास की स्थापना की है। राज्यसेवा से अवकाश ग्रहण कर जयपुर में भी इन्होंने श्री करणी चारण छात्रालय का निर्माण कराया है। आजकल आप अक्षय कुटीर, जयपुर में अपना अधिकांश समय अध्ययन एवं लेखन में व्यतीत कर रहे हैं। महाकवि श्री नरहरिदास रचित ‘अवतार चरित’ की व्याख्या लिखने में इन दिनों परिश्रम रत है।
अक्षयसिंहजी ने चौदह वर्ष की अवस्था में कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया था। प्रारम्भिक अवस्था में इन्होंने श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध का छंदोबद्ध अनुवाद किया किन्तु न रुचने के कारण फाड़ डाला। इन्होंने ‘अक्षय जय स्मृति’, ‘अक्षय किशोर स्मृति’, ‘अक्षय रत्न स्मृति’, ‘अक्षय संदेश’, ‘अक्षय तेज नीति समुच्चय’, ‘श्री करणी पूजा पद्धति’, तथा ‘चित्तौड़ के तीन शाकै’ नामक कृतियों की सृष्टि की है जो प्रकाशित हैं। पत्र-पत्रिकाओं में राजस्थानी, ब्रज तथा हिन्दी में फुटकर रचनायें भी बहुत छपी हैं। इन्होंने चीन एवं पाक के साथ संघर्ष में वीर योद्धाओं की जो प्रशस्तियां लिखी हैं, वे बड़ी ही प्रेरणास्पद हैं। इसी प्रकार इनकी बसंत वर्णन, वर्षा ऋतु वर्णन, शेखावटी वर्णन आदि बहुत-सी नव सामयिक स्फुट रचनायें आकाशवाणी, जयपुर से प्रसारित होती रहती हैं। राजस्थानी कविता के उदाहरण स्वरूप यहाँ कवि की रचना ‘जयपुर री झमाळ’ का उपसंहार दिया जाता है। इसमें जयपुर की आद्योपांत विशेषताओं का निरूपण है-
हिन्द पाक जुध हाल में, कीरत जैपुर कीह।
सिद्ध किद्ध बड़ि सिन्ध में, सुभड़ भवानीसिंह।।
सुभड़ भवानीसिंह, बिमाणां बाहनी।
ऊतारी अविलम्ब, दम्भ रिपु दाहनी।।
महि हज़ार पंच मील, चरच अर चाचरो।।
वीर वाह ले वाह, छिनियो छाछरो।।
इसी प्रकार प्रकृति-प्रेम-सूचक ‘बसंत-वर्णन’ की यह प्रस्तावना देखिये-
अवनी ओपै आज भी, राजा पण ऋतु राज।
पतझड़ ढूँडाँ पादपां, छद पौशाकां छाज।।
छद पौशाकां छाज, शिरोपा साजिया।
फूटरमल फळ फूल, भूषणाँ भ्राजिया।।
लता पता लहलही, चहचही चहुँ दिशाँ।
सजी धजी सिंणगार, मह घणी इण मिसां।।
१०. अजयकरण:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१६१० ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम चौपासनी के निवासी हैं। इनके पिता का नाम जवारदानजी है। इनके पास कई हस्तलिखित ग्रंथ तथा बहियाँ है। इन्होंने फुटकर कवितायें लिखी है, यथा-
नौमी बेरो नीबलो, करसण पावणा काज।
चावां मरुधर चौधरी, गैना नै गजराज।।
११. लालसिंह:- ये दधवाडिया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९११ ई०) और उदयपुर जिलान्तर्गत ग्राम धारता के निवासी हैं। इनके पिता का नाम आवड़दानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता की देख-रेख में हुई। विद्याध्ययन के पश्चात् इन्होंने मेवाड़ राज्य में नौकरी कर ली (१९३१ ई०) तथा कई वर्षों तक निरीक्षक के पद पर कार्य किया। इन्हें महाराणा भूपालसिंह जी (उदयपुर) के राज्य-दरबार में मान-सम्मान प्राप्त था (१९३९ ई०)। आपने सहायक वन अधिकारी के पद से अवकाश ग्रहण किया है। संघर्ष ही उज्ज्वल भविष्य का द्योतक है और यही बात इनके जीवन में पाई जाती है। दुर्भाग्य से १६ वर्ष की आयु में ही इन्हें जागीर सम्बंधी मुकदमों ने घेर लिया जो अब तक चल रहे हैं। ईश्वर में अटूट आस्था रखते हुए ये साहसपूर्वक उनका सामना कर रहे हैं।
लालसिंहजी ने जटिल परिस्थितियों से जूझते हुए काव्य-रचना की है। इनकी पाँच पद्य-रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं-‘भक्तिशतक’, ‘जन्माष्टमी’, ‘करुण कहानी’, ‘जय जवान, जय किसान’ तथा ‘बिलखता बाँगला।’ अप्रकाशित रचनाओं में ‘प्रताप पच्चीसी’, ‘लाल दोहावली’, ‘वनिता विनोद’, ‘दोहावली गीता’, ‘बापू बत्तीसी’, ‘विरद बत्तीसी’, ‘शराब और शराबी’, ‘रावण शिर सँवाद’, ‘कुतांरी करतूत’, ‘प्यारा राजस्थान’ तथा ‘बटोही राम’ के नाम लिये जा सकते हैं। इसी प्रकार गद्य-रचनाओं में ‘भारतीयों का धन’ तथा ‘अजमायश सुदा अकसीर नुस्के’ नामक दो कृतियां प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। इनके अतिरिक्त फुटकर रचनायें भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार इनके काव्य में प्राचीन तथा अर्वाचीन दोनों प्रकार की रचनायें पाई जाती हैं। यहाँ ‘जय जवान, जय किसान’ का एक उदाहरण देखिये-
देखूं इन अखियान तें, सहविधि सम्पन्न देश।
जय जवान किसान लिखी, यही एक उद्देश।
हल धर बल धर वीर दुहुँ, करत परस्पर बात।
लालसिंह वाको लिखी, काव्य कला के साथ।।
इक कृषि कर पौषण करे, इक रक्षा रण धीर।
दोहु सहायक देश रा, बलधर-हलधर बीर।।
इक अरपण जिय जान तें, इक पैदा कर धान।
सच्चा सेवक देश रा, जय जवान जय किसान।।
वीर जवान का यह मनोबल देखिये, कितना ऊँचा है ?-
तुपक तोप अरु टेंक तक, गाड़ी बखतर बन्द।
तोडूँ इनको तनिक में, नहि छोडूँ रिपु वृन्द।।
सनमुख सेना शत्रुरी, तोपां री घरड़ाट।
सैनिक ठाड़ो ठाट सूं, रोके रण री वाट।
फोडूँ पैटन टेंक को, तोडूँ यन्त्र रडार।
अरियां रा दल ऊपरे, उछल पडूं अबार।।
जल थल वायू सैन में, बोले जहां बिचार।
हर वेलां तैयार हूँ, लडवाने ललकार।।
शैल धमोड़ा मैं सहूँ, तुमक तीर तलवार।
मात्र धरा रे कारणे, सब सहवा तैयार।।
तुपक तेग तोपां चले, गोली जाण गिलोल।
शत्रुन के सनमुख तबे, खोलू सीनो खोल।।
१२. बद्रीदान:- ये आढा शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९११ ई०) और सिरोही जिलान्तर्गत ग्राम झांखर के निवासी हैं। इनके पिता का नाम शम्भुदानजी है। इनकी सामान्य शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने बीस वर्ष की अवस्था में भगवद् प्रेरणा से कविता लिखना प्रारम्भ की। ये दोहा-सोरठा, छप्पय तथा गीत रचना में सिद्धहस्त हैं। देवी-भक्ति की चिरजायें लिखने में इन्हें विशेष सफलता प्राप्त हुई है। इस भक्त कवि का साहित्य अप्रकाशित है। यहाँ इनकी भक्ति-रचना का एक गीत दिया जाता है-
सुरों राय नवें लाख साथ लिधो सगत, ध्वजा त्रीशूल ले वार धाई।
भीड पृथ्वीराज की मंजवा भवोनी, आगरे सुधारियों काम आई।।
पकडीयों राव मुगल तणो पातस्या, जादवों करी फरियाद जरणी।
जैल तुरखो तणी तोड झट जोगणी, कुशलती लाविया आप करनी।।
सेवगों सुधारिया कोंम केता सगत अनेकों परवाड़ों जीत आई।
बदरिये कहें संभाल थूं बीरद ने मौहाला गुना मत भाळ माई।।
भवोनी बालका आपरै भरौसे चालका करीजे स्याय साची।
ईश्वरी अरज आढो करे आपने विश्वरी भुजायत आप वाची।।
१३. शुभकरण:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९१३ ई०) और पाली जिलान्तर्गत ग्राम बासनी के निवासी हैं। इनके पिता का नाम बद्रीदानजी है जिनका परिचय वयोवृद्धतम कवि के रूप में सर्वप्रथम दिया जा चुका है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा चांवडिया गाँव में हुई। फिर इन्होंने चारण छात्रावास जोधपुर में रहकर बी० ए० उत्तीर्ण किया और तत्पश्चात् हिंदू विश्वविद्यालय, काशी में विद्याध्ययन के लिए गये। एम० ए०, एल० एल० बी० की उपाधि लेकर इन्होंने राज्य-सेवा स्वीकार कर ली। भू० पू० मारवाड़ राज्य एवं आज के राजस्थान में उच्च पदाधिकारी के रूप में आपकी प्रशंसनीय सेवायें रही हैं। आप हाकिम के पद को सुशोभित कर चुके हैं। अब सेवा-निवृत्त होकर जयपुर में वकालत रत हैं। इन्होंने ‘चारण पत्रिका’ का भी सम्पादन किया है।
शुभकरणजी राजस्थानी भाषा एवं साहित्य के सेवक और लेखक हैं। इसके संवर्द्धन में सदैव इनका हाथ रहा है। आपने विद्यार्थी-काल में ‘चारण काव्य’ पर एक महत्त्वपूर्ण निबन्ध लिखा था जिसकी प्रशंसा हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक स्व. प्राचार्य रामचंद्र शुक्ल ने की थी। इन्होंने राजस्थानी में स्फुट काव्य-रचना की है। गर्मियों में किसी मित्र ने कहा- चलो, कश्मीर चलें। इस पर कवि ने उत्तर दिया-
अठे निकट आडोवळो, शीतल वहै समीर।
झरना ज्युं टांपा झरै क्युं जावों कश्मीर।।
इनकी प्रशंसात्मक कविता का एक उदाहरण देखिये-
आज कालरा अधिपती, रिळिया पच्छिम रंग।
आरज ध्रम अनुरत्त ओ, गुण सागर नृप गंग।
ध्रम चर्चा चित्त नह धरे, शास्त्र न कोई सतसंग।
(पण) इष्ट बली ध्रम आस्तिक, गुण सागर नृप गंग।।
उणी समे इज ईहगों थाय्यो देव सथान।
पधरावी करनी प्रतिम, पुष्कर मध्य प्रमान।।
सुधरायो मन्दिर सुविज्ञ, नरपत बीकानेर।
धिन धिन धिन ध्रम धारणा, दिल घण ऊँच दिलेर।
१४. प्रभुदानसिंह:- ये पाल्हावत बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९१९ ई०) और जयपुर जिलान्तर्गत ग्राम किशनपुरा के निवासी हैं। आपके पिता का नाम शेषदानसिंहजी है। आपने जोबनेर से मैट्रिक उत्तीर्ण कर (१९३९ ई०) सतत् राज्य-सेवा की और गत वर्ष इससे निवृत्त हुए हैं (१९७४ ई०)। ये विद्यार्थी-काल से ही कवितायें लिखते आये हैं। इनकी रचनायें भक्ति काव्य के अन्तर्गत आती हैं जिनमें ‘श्री दुर्गा शप्तशती’ तथा ‘श्रीमद्भागवत गीता’ का अनुवाद, ‘श्री करणीजी का जीवन-चरित्र महाप्रयाण तक’, ‘श्री जगदम्बा की प्रार्थनायें’, ‘भगवत भजन व स्तुति’ आदि उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त फुटकर छंद भी अनेक हैं। ‘करणी-चरित्र’ का यह उदाहरण देखिये-
सर्व रूप त्रय लोकमय, वंदौ पुरुष विराट् छवि।
करणी कीरति कथत ‘प्रभु’ क्षमहु भूल सब संत कवि।।
करणी करुणाधाम ग्राम देशाण विराजै।
लाल ध्वजा यश विमल मूर्ती छवि अनुपम छाजै।।
शेखा हित बन सेन आप मुल्तान सिधाई।
लाई बंधु छुड़ाय कीर्ति जण अबलौं छाई।।
भक्त काज सारे सकळ, विरद विचारो करनला।
‘प्रभु’ चारण चितवत् सभी देशनोक दुर्गे कला।।
१५. उजीणसिंह:- ये सामौर शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२० ई०) और चुरू जिलान्तर्गत ग्राम बोबासर के निवासी हैं। इनके पिता का नाम चतुरदानजी है जो राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि रह चुके हैं। शिक्षा-दीक्षा सामान्य होने पर भी कवि-कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें साहित्यिक परम्परा विरासत में प्राप्त हुई है। अपने क्षेत्र के विकास कार्यो में विशेष अभिरुचि लेते हैं। आप ग्राम विकास समिति के संस्थापक सदस्य हैं। इनका प्रमुख व्यवसाय कृषि है किन्तु इसके साथ-साथ साहित्य-सेवा भी करते रहते हैं। बांगला देश मुक्ति संग्राम से सम्बंधित इनकी रचना ‘विजय-सतक’ बहुत लोकप्रिय हुई। इसके अतिरिक्त स्फुट रचनायें प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं। इन रचनाओं के प्रस्तुतीकरण की इनकी अपनी मौलिक विशेषता है। उदाहरण के लिए ‘विजय-सतक’ का यह अंश देखिये-
लेवण नै कसमीर तूं, घणा बजातो गाल।
को याह्या किसड़ी हुई, खो बैठ्यो बंगाल।
निरहत्था लाखां मिनख, खूंनी तूं खायाह।
काकी जायां सूं भिड़्या, होवै आ भायाह।।
निकसन तो कस बायरो, जग सारै जाणीह।
मिनख पणो अळगो धर्यो, ताना साह तांणीह।।
राज विभीषण नै दियो, जिंयां राम जग तेस।
जण बळ नै भारत दियो, बिंयां बांगला देस।।
माणक उस्मानी मरद, जबरोड़ा जग जीत।
भुजबळ थांरै भारती, गाया जस रा गीत।।
अकाल के संदर्भ में कवि का निन्दात्मक स्वर भी देखिये-
दुरभख री इण देश में, अब न रही ओगाळ।
आज मनिस्टर सांपरत, पगां चालता काळ।।
इसी प्रकार चाँद पर चढ़ने वालों की भर्त्सना करते हुए भी कवि का मानवतावादी स्वर ही मुखरित हुआ है-
करक बण्यो सिड़र्यो मिनख, इण धरती रो आज।
धिरक चांद पर चढणियां, तोय न थांनै लाज।।
१६. नारायणसिंह:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२० ई०) और पाली जिलान्तर्गत ग्राम नोख के निवासी हैं। इनके पिता का नाम सुमेरदानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा जोधपुर में हुई जहाँ से मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण करके आप अध्यापक हो गये। आगे अध्यापन कार्य के साथ-साथ अध्ययन भी करते गये और इस प्रकार एम० ए० हिन्दी तथा बी० एड० की परीक्षायें उत्तीर्ण की। ये धुन के पक्के हैं और जो काम हाथ में लेते हैं उसे पूरा करके ही छोड़ते हैं। आपका जीवन ग्रामीण क्षेत्रों में ही व्यतीत हुआ है। सम्प्रति राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, निम्बेड़ा कला में मुख्य अध्यापक के रूप में कार्य कर रहे हैं।
नारायणसिंहजी बाल्यावस्था से ही राजस्थानी काव्य-क्षेत्र में रुचि लेते रहे हैं। इन्होंने अपने गेय गीतों के दो संकलन प्रकाशित कराये हैं- ‘मीठे बाल गीत’ (१९६१ ई०) तथा ‘प्रेरणा के गीत’ (१९५७ ई०)। इनका वर्ण्य विषय राजस्थान की धरती और यहाँ का शौर्य है। इनके अतिरिक्त फुटकर रचनायें लिखने में भी पीछे नहीं रहते। यहाँ ‘धरती काशमीर री’ का एक उदाहरण देखिये-
अम्बर गरजे धर हिले, सुण भारत रा वीर।
शीश भलां ही देवजे मत दीजे कशमीर।।
इण धरती रो म्हांने अभिमान ओ ईपर वारों प्राण ओ-
धरती काशमीर री।।
हँसतोड़ा फुलड़ों री घाटी महके केसर क्यारियां।
ज्योरी शोभा देख लजावे अमरापुर री नारीयां
रसवन्ती धरती में निपजे दाख बिदाम ओ-
धरती काशमीर री।।
इण धरती में हड़पण सारु दुसमण उभा लपके है।
अंगूरी खेतों रे सारूं मूंडे पाणी टपके है।
पण आंगल आंगल धरती सारु जासी जान ओ-
धरती काशमीर री।।
इमरत सर जोधोणे जम्मू दुस्मन गोला नाखिया।
सरगो धो लाहौर लेतो भुट्टो गोडा टेकिया।।
कसमीरी धरती सूं पापी पड़िया ढाण ओ-
धरती काशमीर री।।
चौबेजी छबेजी बाणता दुब्बे वे ने दौड़िया।
टैंक ने बन्दूक गोला डरता लारे छोड़िया।।
पूछड़ी दबाय कायर कियो पयाण ओ-
धरती काशमीर री।।
हाजी पीर हेलो दीन्हो अयूब अठी मत आवजे।
भुट्टो भाई भले भचेड़ो भारत सू मत खावजे।।
काशमीर खोदेला थारो कब्रिस्तान ओ-
धरती काशमीर री।।
१७. जोरावरसिंह:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२१ ई०) और पाली जिलान्तर्गत ग्राम मृगेश्वर के निवासी हैं। इनके पिता का नाम नाथूदान जी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मिडिल स्कूल, सेवाड़ी में हुई फिर आपने मैट्रिक, इन्टर उदयपुर से और बी० ए० जसवंत कॉलेज से उत्तीर्ण की (१९४४ ई. )। विद्याध्ययन के पश्चात् ये जोधपुर राज्य-सेवा में तहसीलदार पद पर नियुक्त हुए। फिर तो शनैः शनैः उन्नति करते गये तथा राजस्थान-प्रशासनिक-सेवा में आकर (१९५० ई०) अनेक महत्त्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया। अभी आप ‘राजस्व अपील अधिकारी’ के पद से सेवा-मुक्त हुए हैं।
जोरावरसिंहजी उदयपुर में शिक्षा ग्रहण करते समय कवितायें लिखने लगे। इन्होंने कविता प्रतियोगिताओं में भाग लिया तथा प्रथम पुरस्कार भी प्राप्त किया (१९३८-‘३९ ई०)। ठा० केसरीसिंहजी बारहठ (सौन्याणा) को आप अपना गुरू मानते हैं और इन्हीं से कविता लिखने की प्रेरणा मिली। समाजसुधार की महत्त्वाकांक्षा से आपने कवितायें लिखी हैं। कवि ने राष्ट्रपिता गाँधी का यशोगान इन शब्दों में किया है-
ध्रुव से अटल अरु सलिल से नम्र संत,
धीर, वीर ! पीर पर असह्य है तेरे काज।
दीदन तें दीन बनि सेवा करि जग को तूं,
सेवाग्राम संत बन्यो उर को सम्राट आज।
अस्त्र, शस्त्र, वस्त्र साज हटा नग्न होय पूज्य,
मिटाने लंगोटी कसी विश्व की नग्नता आज।।
१८. फतहसिंह मानव:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२१ ई०) और पाली जिलान्तर्गत ग्राम बासनी के निवासी हैं। इनके पिता का नाम ठा० साधूरामजी है जिनका इनके बाल्यकाल में ही स्वर्गवास हो गया। इनकी शिक्षा-दीक्षा दरबार हाई स्कूल, जोधपुर, हरबर्ट कॉलेज, कोटा तथा जसवंत कॉलेज, जोधपुर में हुई। आप बी० ए० करने के बाद जोधपुर राज्य-सेवा में लग गये और संयुक्त राजस्थान बनने पर राजस्थान-प्रशासनिक-सेवा के लिए चुन लिये गये (१९५० ई०)। राज्य-सेवा में रहकर आपने कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है। इन्हें भारत सरकार ने अणुशक्ति विभाग के ‘राजस्थान एटेमिक पावर प्रोजेक्ट’ में मुख्य प्रशासनिक अधिकारी के रूप में नियुक्त किया (१९७१ ई०)। जनगणना में आपकी सराहनीय सेवा के उपलक्ष्य में भारत सरकार ने रजत पदक तथा प्रशस्ति-पत्र प्रदान किया (१९७१ ई०)।
फतहसिंहजी विद्यार्थी-जीवन से ही साहित्य-साधना और आराधना करते आये हैं। इन्टर में तीन-सौ पृष्ठों का एक उपन्यास लिखा और बाद में कहानियाँ, गद्य-काव्य एवं लेख इत्यादि लिखे जो समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। आपकी रचनायें आकाशवाणी, जयपुर से भी प्रसारित हुई हैं। उल्लेखनीय है कि इन्होंने उत्कृष्ट कोटि के हिन्दी गद्य-काव्य लिखे हैं। ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ का यह उदाहरण निरर्थक न होगा-
‘समुद्र सरोवर, तड़ाग सभी मेरे सन्मुख आये, पानी भी देखा और उसका प्रवाह भी,
उसके अन्तर में छिपे अनमोल मुक्ताओं की भी कल्पना की।
उनको भी देखा जो गहन जल के अन्तर्पटों में डुबकी लगा रहे थे,
अथवा जल के अन्दर पैठने का उपक्रम कर रहे थे।
मैंने उन सभी को देखा, देखकर उनकी वन्दना की और अनुगमन का साहस
किया लेकिन जल-समूह की अगाधता को देखकर घबरा गया,
जल-राशि में थोड़ा-सा आगे बढ़ा ही था कि सहसा पाँव ठिठक गये,
मैं डरा कि कहीं जल-मग्न न हो जाऊं इसीलिये शीतल जल-राशि में पाँव तक न बढ़ा सका।
मेरे सन्मुख ही अनेकानेक साहसी पुरुष आये, डुबकी लगाई और मुक्ताओं से
अंजुलिया भरकर कृत-कृत्य होकर चले गये।
लेकिन मेरी अंजुलि अभी तक खाली है, वक्षस्थल में साहस का अभाव है,
चरण द्वय ठिठके हुए खड़े हैं और भर्यात होकर कम्पित हो रहे हैं।
क्या जीवन की अन्तिम श्वास तक मैं इसी प्रकार किनारे पर खड़ा ही रहूँगा और मुझे कुछ भी नहीं मिल सकेगा?
यद्यपि मैंने सागर, सरोवर और तड़ाग सभी देखे।।’
१९. अनोपदान:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१६२१ ई०) और बाड़मेर जिलान्तर्गत ग्राम झिणकली के निवासी हैं। इनके पिता का नाम कवि हेमराजजी है। इन्होंने मिडिल तक शिक्षा प्राप्त की है। बाल्यावस्था से ही इन्हें अपनी मातृभाषा से विशेष अनुराग रहा है। जब आप चौदह वर्ष की आयु के थे तब शरीर में पीड़ा रहती थी। अतः आपने चारण-देवी सिलां माजी के स्थान पर धरना दिया जिससे पीड़ा का अंत हुआ और कविता करने का भी अनुभव हो गया (१९३७ ई०)। आप कई वर्षों से अपने क्षेत्र में पंच, उपसरपंच एवं सरपंच के प्रतिष्ठित पदों पर निर्विरोध चुने गये हैं। इससे इनकी लोकप्रियता प्रकट होती है। आजकल आप शिव पंचायत समिति में वित्तकर एवं करारोपण के निर्विरोध सदस्य हैं। व्यावसायिक दृष्टि से आप पशुपालन एवं खेती करते हैं।
अनोपदानजी राजस्थानी के प्रसिद्ध भक्त कवि हैं। इन्होंने ‘देवी सीलां माजी की स्तुति’, ‘उम्मेद उदारता’, ‘हरि रस का रस’, ‘भारत भुगतारियो का वर्णन’, ‘चार वाक् चोको’, ‘टिडी रासा’, ‘चारणों का विरद वाखोण’ आदि रचनायें लिखी हैं। इसके अतिरिक्त फुटकर छंद भी बहुत हैं। कतिपय रचनायें प्रशंसात्मक हैं किन्तु भक्ति की रचनायें उत्तम हैं। ‘हरि रस का रस’ में कवि ने हिंदी वर्णमाला को लेकर गीत सांणोर के रूप में जो भाव-सुमन पिरोये हैं, वे अपूर्व हैं। इसी प्रकार ‘चार वाक् चोको’ में वह कहता है- ईश्वर एक है और वैदिक, जैन, ईसाई, इस्लामी चार मत के चार वाक् ईश्वर को इस प्रकार प्रार्थना करते हैं-
।।दोहा।।
अलख निरंजन एक है, गरु अनेकां ज्ञान।
पंथ असंखां प्रापती कर देखो कल्याण।।
।।छंद-रेणकी।।
वेदक वरणंत ओम हरि ईश्वर, जोगेसर धर ध्यांन जपै।
हरहर महादेव विसंभर हरिहर, करकर सुमिरन पाप कपै।।
पूरण परिब्रह्म परमेसर प्राप्त, अजर अमर आतम उजला।
माँनत गति मुगत जगत अत मत मत, कुदरत पत सत अनत कळा।।
अरिहंत हित अनत जैन मत उचरत, नुरत सुरत कर सुमत निरणै।
उपजत अंतः करण अहिंसा उत्पुत, भगवंत अणिहंत भगत भणै।।
तृष्णा चित्त त्रिपत तरत ब्रत तपस्या, प्राप्त केवल ज्ञांन पला।
मानत गत मुगत जगत अत मत मत, कुदरत पत सत अनत कळा।।
ओमनीपोटेण्ट रटन ईसाई, माइ लॉरड ऑलमाइटी।
प्रोमनीप्रोजेन्ट सेंट फिस ओमनी, इटरनल गॉड इटरनटी।
क्रियेटर यो बा क्रियेचर दू क्रिचन, सालवेसन वी आफ सलाह।
मानत गत मुगत जगत अत मत मत, कुदरत पत सत अनत कळा।।
अल्लाह आवाज मजब इसलामी, ला हे ला अल्लाहईलील्लाह।
महोला मालक रब बिसमल्लाह सिल्लिाह सालम सिलसिल्लाह।।
खुल्ला दीदार अवलीया दाखल, किबला काबल जिन्नत कळा।
मानत गत मुगत जगत अत मत मत, कुदरत पत सत अनत कळा।।
कुदरत पत सत अखंड कळा।।
२०. कैलाशदान:- ये उज्वल शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२२ ई०) और जैसलमेर जिलान्तर्गत ग्राम ऊजलां के निवासी हैं। इनके पिता का नाम डॉ. शिवदत्तजी है जिन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में कीर्ति अजित की है। इनकी शिक्षा के तीन प्रमुख केन्द्र हैं- जोधपुर, जयपुर और लखनऊ। इन्होंने एम० एस सी० की उच्च उपाधि गणित विषय में प्राप्त की और साथ में एल-एल० बी० परीक्षा उत्तीर्ण की है। विद्याध्ययन के पश्चात् आप जोधपुर राज्य में नायब हाकिम के पद पर नियुक्त हुए (१९४४ ई०) फिर हाकिम बने। राजस्थान बनने पर आपने अनेक उच्च उत्तरदायित्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया है। अपनी योग्यताओं के कारण ये शनैः शनैः उन्नति करते गये। सन् १९५७ ई० में आप संघीय लोकसेवा आयोग द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चुने गये। | यह उल्लेखनीय है कि सन् १९७१-‘७२ ई० में भारत द्वारा जीते गये पाकिस्तानी क्षेत्र के जब आप आयुक्त थे तब छाछरो एवं बीजणोट के किले पर तिरंगा फहराने का श्रेय इनको ही है। सम्प्रति मरु-विकास आयुक्त के पद पर जोधपुर में सेवारत हैं।
कैलाशदानजी प्रतिभासम्पन्न कवि हैं। आपकी राजस्थानी, हिन्दी एवं अँग्रेजी में कई वार्तायें आकाशवाणी, जयपुर केन्द्र से प्रसारित होती रहती हैं। राजस्थानी भाषा तथा साहित्य से आपका विशेष अनुराग है। राजस्थली कार्यक्रम को सफल बनाने में आपकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इन्होंने “भगवती श्री करणीजी महाराज” के दिव्य चरित को उजागर करने हेतु अंग्रेजी में एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखा है जो शोधकर्ताओं के लिए अत्यंत उपयोगी है। इसका हिन्दी अनुवाद भी तैयार है। इनका लिखा हुआ स्फुट काव्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। ‘मोहन माथे म्होने मोद’ कविता में कवि राष्ट्रपिता गाँधी पर न्यौछावर होता हुआ कहता है-
हेमालो निरखै हरखायो, गद-गद गँग धार निज गोद।
भल-भल करे आज धर भारत, मोहन माथे मन तन मोद।।
अबखी वगत सदा आगेइ, टणकों खग पौण रूखाली टेक।
विन खागौं राखणियो बाजी, ओ युग पुरुष जनमियो एक।।
साच, धर्म रो झाल सहारौ, लीना दुर्गम मारग लांघ।
नेह नींव री भींत निकालै, वैर प्रवाह लियो इण बांध।।
साम दाम अरु दंड भेद सह शस्त्र उचित अरियण संहार।
तेज अहिंसा शस्त्र तोल इण, प्रबल झेलिया लोह प्रहार।
ओछी बात न रसणा आणी, माणी कीरत जोत महान।
प्रतिमा आज आंकने प्रथमी, मौन्यो गांधी पुरुष महान।।
२१. राजलक्ष्मी देवी साधना:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुई हैं (१९२३ ई०) और माणिक भवन कोटा इनका जन्म-स्थान है। इनके पिता का नाम रणजीतसिंहजी है जो स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानी देशभक्त ठा० केसरीसिंहजी के सुपुत्र हैं। इनकी शिक्षा-दीक्षा पितामह के संरक्षण में कोटा गर्ल्स हाईस्कूल में हुई। प्रारम्भ से ही इनकी रुचि काव्य की ओर रही है। आपका पाणिग्रहण श्री फतहसिंह मानव के साथ हुआ (१९३७ ई०)।
श्रीमती राजलक्ष्मी की साहित्यिक साधना गद्य और पद्य दोनों में ही प्रारम्भ हुई। तत्कालीन प्रमुख पत्रों में आपकी कहानियाँ, गद्य-काव्य एवं कवितायें प्रकाशित होती थीं। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलनों में आपको निमंत्रित किया जाता रहा किंतु आंतरिक संकोचवश इन्होंने ऐसे समारोहों का त्याग किया। आकाशवाणी, जयपुर से आपकी कई कवितायें, वार्तायें एवं लेख इत्यादि प्रसारित किये गये हैं। इन्होंने डिंगल, पिंगल, गुजराती और हिन्दी में काव्य-रचना की है। मुख्यतया देश-भक्ति, आत्मचिंतन तथा ईश्वर-भक्ति ही इनके विषय रहे हैं। भाव-सौंदर्य को दृष्टि से इनकी तुलना हिंदी की यशस्वी कवयित्री स्व० सुभद्राकुमारी चौहान से की जा सकती है। हजारों की संख्या में की गई इनकी कविता सभी प्रकार के छंदों, दोहों, सवैयों, कवित्तों, पदों, चतुष्पदों आदि से परिवेष्टित हैं। सरलता, सत्यता, कर्मठता एवं विवेकशीलता आपके स्वाभाविक गुण हैं। प्रकाशन की ओर कम रुचि होने के कारण आपने अपने काव्य-संकलन प्रकाशित नहीं कराये।
सन् १९४७ ई० में ‘आह्वान’ लघुकाव्य अवश्य प्रकाशित हुआ। आपके लिखने की क्षमता आश्चर्यजनक है। आपने एक पुस्तक एक दिन में ही सम्पूर्ण कर दी। साधनाजी अपने इसी जीवन में परम सत्य को प्राप्त करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं तथा निरन्तर जागरूक हैं। राष्ट्रकवि स्व० मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में- ‘श्री साधना उस वंश की बेटी है जो अपनी वाणी से वीरों में साहस और उत्साह भरकर समर में भी उन्हें अमरता प्रदान करने का कार्य पीढ़ियों से करता आया है। उनके बड़ों ने इससे भी बढ़कर देश की स्वतंत्रता के लिए स्वयं अपना बलिदान किया है। मेरा संकेत स्वर्गीय बारहठ केसरीसिंहजी की ओर है जिनकी पौत्री होने का गौरव साधनाजी को प्राप्त है। उन्हें और उनकी बहनों को पुरखों का कवित्त भी उत्तराधिकार रूप में प्राप्त हुआ है। यह हर्ष और संतोष की बात है। उन्होंने राजस्थान की सीमा से बढ़कर राष्ट्र की भाषा में रचनायें की हैं। यह और भी प्रसन्नता की बात है। उन रचनाओं में भी परम्परागत स्वर गूँजता है। उनके संस्कारों ने उनकी वाणी को ओज दिया है और स्वयं उन्होंने उसे करुण कोमल भावना दी है। मुझे आशा है, हिंदी प्रेमी उसका आदर करेंगे और उनके कृतज्ञ होंगे। तथास्तु।’
‘अमर शहीद प्रताप’ के विषय में कवयित्री के ये वास्तविक, अनुभूतिमय, संवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी उद्गार देखिये-
केहरी हो बंदी जेलां में परिवार लियां मां पीहर ही।
घरबार छुट्यो परिवार लुट्यो, सब बिखर गया कण-कण रे ज्यूं।।
लाखां री पूंजी रा मालिक रोटी बिन दुखड़ों पाता हा।
भारत मां रो करुणा क्रन्दन, सह सक्यो वीर नहीं उठ बोल्यो।
ममा धोती रे खातीर बस, दो रुपिया किण सू लाकर दो।।
जो कई बार कर दान लुटा, देती ही माणिक जेवरात।
पण आज पईसा रे खातिर, फैलावे किण रे द्वार हाथ।।
ला दिया रुपया लेकर चाल्यो, वो पुत्र प्राण सूं हो प्यारो।
उण दिन सूं फिर मिल न सक्यो, मारे आंखडल्यां रो तारो।।
नेणां में रंग गुलाबी ले, मां रो मतवाळो चाल्यो हो।
धरती री छाती धूजी ही, अंबर भी थरहर हाल्यो हो।
वासग री करवट बदली ही, समंदा रो पाणी हाल्यो हो।
नदियां रे नीर तीर छांड्या, बादळ पथरा, नीचे पड़िया।
हेमाळे रो हिम दिघल बह्यो, सूरत सीतल वै चाल्यो हो।
मरदां रे भूखे दिल मांहि, जद रंग वीरता रा चढिया।
२२. रेवतदान कल्पित:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२४ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम मथाणिया के निवासी हैं। इनके पिता का नाम भेरूदानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई। बचपन से ही इनकी काव्य के प्रति रुचि रही। आगे जोधपुर आकर इन्होंने मिडिल तथा मैट्रिक की परीक्षायें उत्तीर्ण की और यहीं से बी० ए० तथा एल०-एल० बी० की उपाधियाँ प्राप्त की। आपने हिन्दी की ‘प्रभाकर’ परीक्षा भी उत्तीर्ण की है। स्वजातीय बंधुओं के बीच चारण छात्रावास, जोधपुर में रहने से इनका काव्य-प्रेम परिवर्द्धित हुआ एवं ‘चारण’ पत्रिका के माध्यम से ये ‘ऊगता कवि रेवत मथाणिया’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। काव्य-जगत् में कल्पना करते रहने से इन्हें ‘कल्पित’ नाम विशेष प्रिय है। साहित्यिक एवं सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में भाग लेते रहने से इन्हें पुरस्कार भी मिले हैं। कॉलेज-जीवन में इनके काव्य में नया मोड़ आया। शिक्षा के उत्तरोत्तर विकास के साथ इनके हृदय में समाजवादी विचार विकसित होते गये। यही कारण है कि रेलवे आडिट की नौकरी से त्याग-पत्र देकर आप प्रजा समाजवादी दल में कार्य करने लगे और विधान-सभा के चुनाव में ओसियां क्षेत्र से खड़े हए। आपने राजस्व प्रतिनिधि तथा पंच के रूप में भी जन-सेवा की है। आप राष्ट्रीय विस्तार सेवा खंड की समिति के सदस्य तथा प्रजासमाजवादी दल की प्रांतीय समिति के सँयुक्त मंत्री भी रह चुके हैं। आजकल आप मथाणिया में कृषि के साथ वकालत करते हैं और कवि-सम्मेलनों में भाग लेते हुए काव्य-सृजन भी करते हैं। इन दिनों साहित्य-जगत् के साथ राजनैतिक क्षेत्र में भी प्रसिद्ध हैं।
रेवतदानजी समाजवादी कवि हैं। राजस्थान के लोकप्रिय जन-कवियों एवं स्पष्टवक्ताओं में इनका नाम आदर से लिया जाता है। इनके काव्य में सामंतशाही विरोधी विचार विशेष रूप से प्रकट हुए हैं तथा विद्रोह का स्वर मुखर है। यद्यपि इनकी प्रारम्भिक रचनायें भक्ति-भावना, प्रकृति-चित्रण एवं प्रेम-वर्णन से ओतप्रोत है तथापि अब इनके काव्य में प्रमुख रूप से कृषक एव मजदूर के चित्र उभर कर सामने आये हैं। इनकी चुनी हुई कविताओं के सँग्रह ‘चेत मांनखा’, ‘धरती रा गीत’, ‘ओळबौ’ आदि के नाम से प्रकाशित हुए हैं। ‘रे बंदा चेत मांनखा चेत, जमानौ चेतण रौ आयौ’ का मूलमंत्र देकर कवि ने नव जागरण में योग दिया है। अनेक कविताओं में देश-भक्ति एवं प्रदेश-गौरवप्रेम की भावना अभिव्यक्त हुई है, यथा-
औ भारत रौ सिरमौड़ देस है बंका वीरां रौ।
रे सेर बाजरी रै साटै माथै जिसा मतीरा दीना।
मायड़ निज वीर सपूतां ने मिस दूध दूधियौ पायौ हौ।
जे मातृभूमि रौ मुगट हेमाळौ खण्डित हुयग्यौ,
तो इण धरती नै लोर निपूती कैवैला।
रे लाज मरैला ऊँचौ सीस झुकैला नीचौ,
मौते हँसैला कायरता नै माटी मोसा देवैला।
इसी प्रकार-
जद इण धरती री लाज परायै हाथां लुटगी।
तौ मां बैनां री लाज बचायां कांई होसी।।
जे तैनसिंह री धजा तिरंगी हेमाळै सूं नीची पड़गी।
तौ लाल किले में आजादी त्यौंहार मनायां कांई होसी।।
गद्य के क्षेत्र में इनका ‘कृष्णाकुमारी’ नाटक तथा एक एकांकी सँग्रह उल्लेख्य कृतियां है जो प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। इसके अतिरिक्त स्फुट रचनायें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं।
२३. अमरसिंह:- ये देपावत शाखा में उत्पन्न हुए हैं और इनका जन्मस्थान बीकानेर राज्यान्तर्गत माता करनीजी का निवास स्थान देशनोक है। आपके माता-पिता बाल्यकाल ही में चल बसे अत: इनका लालन-पालन नानी के द्वारा हुआ। ये निर्भीक, स्पष्टवक्ता, समाज सेवी तथा अपने आप में बहुत गहरे थे। देशनोक में आपका सम्मान एवं प्रेम बहुत अधिक था। अपनी जन्मभूमि के सामाजिक सुधार एवं विकास की ओर आपको पूर्ण रुचि थी। आपने बिहार राज्य में पूर्णिया जिले में अपने एक साथी के साथ जूट का व्यापार शुरू किया था। वहाँ भी जन-मानस पर इनके चरित्र की छाप थी। आपका विवाह श्रीमती नगेन्द्र बाला, कोटा के साथ फरवरी १९४७ ई० में हुआ।
अमरसिंहजी राजस्थानी के उच्च कोटि के कवि थे। आपने उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद राजस्थानी में बड़ी खूबी से किया। महाकवि कालिदास कृत ‘मेघदूत’ का राजस्थानी में अनुवाद कर प्रकाशन करवाया तथा ‘श्रेणी बीजनन्द’ नामक राजस्थानी लोक-गाथा को बड़े ही अनूठे ढंग से चित्रित किया। आपको मधैपुरा में अचानक दिल का दौरा पड़ा। वहाँ से उपचार के लिए कोटा लाये गये और इन्दौर में भी इलाज हुआ किन्तु डाक्टरों के अथक परिश्रम के बाद भी अगस्त १९६९ ई० में कोटा में आपके जीवन की लीला समाप्त हो गई। इनका काव्यात्मक विवेचन गत अध्याय में दिया जा चुका है। यहाँ राजस्थानी ‘मेघदूत’ का यह हृदयस्पर्शी उदाहरण देखिये-
दुरबळ देह अडोळी अँग-अँग झरै नैण आँसू झर-झर।
खाय पछाड़ गिरै धण सेजां छावै मुखड़ै केस बिखर।।
देख हाल इण विरहण बादळ होसी थांरा नैण सजळ।
बहे पराये दुख हुय कातर दिल सज्जनां रो मीत ! पिघळ।।
२४. चंद्रदान:- ये सिंढायच शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१६२४ ई०) और चुरू (बीकानेर) के निवासी हैं। इनके पिता का नाम भारतदानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा चुरू में हुई। फिर आगे अध्ययन हेतु बीकानेर चले गये। आपने आगरा विश्वविद्यालय से एम० ए० हिन्दी तथा ‘साहित्यरत्न’ की परीक्षायें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की हैं। भारत सरकार द्वारा आपको शोध के लिए दो सौ रुपये मासिक छात्रवृत्ति स्वीकृत हुई (१९५५ ई०)। विद्यार्थी-काल से ही आपने लेखन-कार्य आरम्भ कर दिया था अतः एक मॅजे हुए लेखक के रूप में सामने आये। इनका साहित्यिक सभा-संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। ये उनकी गतिविधियों में बराबर भाग लेते रहते हैं। बीकानेर की स्थानीय संस्थानों में विभिन्न विषयों पर आपके सारगर्भित भाषण हुए हैं। बाहर के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समारोहों में जाकर आपने कई निबंध-पाठ किये हैं। आप भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग; राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर तथा सादूळ राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट, बीकानेर के सदस्य हैं। आपको हिन्दी, अंग्रेजी एवं राजस्थानी भाषाओं का अच्छा ज्ञान है। आप संस्कृत तथा गुजराती भी जानते हैं। संत साहित्य तथा लोक साहित्य से सम्बंधित साहित्य का आपने विशेष अध्ययन किया है। आप भारतीय विद्या मंदिर शोध प्रतिष्ठान, बीकानेर के अध्यक्ष रह चुके हैं। सम्प्रति भारतीय विद्या मंदिर रात्रि महाविद्यालय के प्रिन्सिपल हैं।
चंद्रदानजी ने राजस्थानी आलोचना-क्षेत्र में विशेष रुचि प्रदर्शित की है। उनकी समर्थ लेखनी ने दो शोधपूर्ण ग्रंथ लिखे जो प्रकाशित हो चुके हैं- ‘गोगाजी चौहान री राजस्थानी गाथा’ तथा ‘अलखिया सम्प्रदाय’। आपने ‘सभा श्रृंगार’, ‘पीरदान ग्रंथावली’ एवं ‘हरिरस’ ग्रंथों के साहित्यिक सौन्दर्य का उद्घाटन किया है। इसके अतिरिक्त इनके अनेक लेख प्रांतीय एवं भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। उदाहरण के लिए ‘हरिरस का काव्य-सौन्दर्य’ का यह उद्धरण देखिये-
‘हरिरस भक्त ईसरदासजी के निश्छल हृदय की सहज अभिव्यक्ति है। अपने प्रभु से क्या दुराव और क्या छिपाव। इसीलिए यह रचना इतनी मार्मिक है। कवि ने एक ओर तो सगुण-निर्गुण में समन्वय करते हुए ‘सर्वदेव नमस्कार: केशव प्रति गच्छति’ के अनुसार एक देववाद का आदर्श उपस्थित किया है तथा दूसरी ओर कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों में तुलसी की तरह सामंजस्य करते हुए अंत में भक्ति का अनुसरण किया है। इसलिए वह हरि और ‘हरिरस’ काव्य को एक मानता है और कहता है कि इस काव्य के पढ़ने वाले दुःखों से मुक्त होकर सद्गति को प्रात होंगे।’
२५. करणीदान:- ये बारहठ शाखा में उन्पन्न हुए हैं (१९२५ ई०) और गंगानगर जिलान्तर्गत ग्राम फेफाना के निवासी हैं। इनके पिता का नाम नोपदानजी है। आपने एम० ए० तथा बी० एड० परीक्षायें उत्तीर्ण की हैं और राजस्थानी तथा हिन्दी दोनों भाषाओं के सशक्त कवि एवं लेखक हैं। इनके राजस्थानी प्रकाशित साहित्य में १. झिंडियो (लोकप्रिय बाल-कथाओं पर आधारित काव्य) २. झरझर कथा (फुटकर कविताओं का सँग्रह) ३. शकुन्तला (महाकाव्य) एवं ४. आदमी रो सींग (मौलिक कहानियों का सँग्रह) नामक कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। महाकाव्य ‘शकुन्तला’ कवि की मौलिक सृजन है। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थानी के पाठ्यक्रम में इसका संक्षिप्त संस्करण स्वीकृत हुआ है। इसी प्रकार हिन्दी में आपने छः रचनायें लिखी हैं जिनमें एक-एक कविता तथा कहानी-संग्रह और शेष चार उपन्यास हैं। ‘शकुन्तला’ का यह उदाहरण देखिये जिसमें प्रेम का निरालापन, यौवन की चंचलता एवं नई कल्पना देखने को मिलती है-
री प्रेम न पूछै जात पांत, ओ प्रेम न जाणै नाम हाम।
री प्रेम पूर्ण परमेशर है, ओ सकल धरम रो सकल धाम।।
बो लाज प्यार रो मूर्त रूप, अल्हड़ जौबन झुक झूम फिरै।
पळकै मुळकै कर निरत थिरक, कम्पन धड़कन नवनूर झरै।।
चरणां नै चूमै हरी दूब, गांलां नै चूमै झुकी डाल।
अळकां नै रीस इसी आई, ढक लिया गुलाबी लाल गाल।
उलट्यो घूँघट ज्यूँ दीप जग्या, मावस री घोर अँधेरी में।
पूनम मुळकी कीं दूर हटा, बादळ री काळी ढेरी नै।।
२६. विजयदान:- ये देथा शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२६ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम बोरूंदा के निवासी हैं। इनके पिता का नाम सबलदानजी है जो राजस्थानी के अच्छे कवि रह चुके हैं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा प्राथमिक शाला, जैतारण में हुई फिर बाड़मेर में रहकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् जसवंत कॉलेज, जोधपुर से बी० ए० की उपाधि प्राप्त की। विद्यार्थी-काल से ही हिन्दी कहानियाँ लिखने की ओर इनकी विशेष रुचि रही है। आजकल आप राजस्थानी कथा-साहित्य के भण्डार को समृद्ध बनाने में पूर्ण रूप से संलग्न हैं।
विजयदानजी ने अपनी जन्मभूमि में ‘रूपायन संस्थान’ की स्थापना कर राजस्थानी कथा साहित्य को एक नवीन दिशा प्रदान की है। यह संस्था प्रांतीय एवं केन्द्रीय सरकार से आर्थिक सहायता प्राप्त कर विकसित होती जा रही है। इसके पुस्तकालय में देश-विदेश की लोक-कथाओं का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध है। राजस्थानी लोक-कथाओं को अपनी शैली में सविस्तार लिखकर ‘बाताँ री फुलवाड़ी’ नामक लगभग बारह भाग प्रकाशित हो चुके हैं। यहाँ से ‘वाणी’ नामक राजस्थानी मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी हुआ है जिसके ये भी एक सम्पादक हैं। ‘लोक-संस्कृति’ नामक हिन्दी-पत्रिका भी इस संस्था से प्रकाशित हुई है जिसमें इनका हाथ रहा है। बाल-साहित्य पर भी इनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त आपने राजस्थानी कृतियों का भी सम्पादन किया है जिनमें ‘सांझ’, ‘मेघदूत’, ‘दुर्गादास’, ‘चेत मांनखा’, ‘राधा’, ‘दीवा कांपे क्युं’, ‘संभाल’ आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अपना प्रेस होने से इनके लिए प्रकाशन की कोई समस्या नहीं है। अब तक आधुनिक राजस्थानी साहित्य में गद्य का जो अभाव खटक रहा था, उसकी पूर्ति करने में आपने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। यह देखकर केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने इन्हें पाँच हजार की राशि से पुरस्कृत किया है (१९७५ ई०)। यहाँ उनकी ‘बावळौ पिंडत’ गद्य-रचना का एक उदाहरण दिया जाता है-
‘औ पिंडत तौ अजब बावळौ – कोई जलमै तौ रोवै, मरै तौ हंसै। मसांण नै बस्ती कैवै, बस्ती नै मसांण कैवै। बीज नै ब्रच्छ कैवै, ब्रच्छ नै बीज कैवै। छांट नै समंदर कैवै, समंदर नै छांट कैवै ! भाखर ने कण कैवै, कण नै भाखर कैवै। औ पिंडत तौ अजब बावळौ है।’
२७. मनुज:- ये देपावत शाखा में उत्पन्न हुए हैं और इनका जन्म-स्थान बीकानेर राज्यान्तर्गत माता करनीजी का निवास स्थान देशनोक है। आपके बड़े भाई श्री अमर देपावत राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि रह चुके हैं। इनकी राजस्थानी कवितायें स्वाभाविकता तथा क्रांति का उद्घोष लिये हुए हैं। इन दोनों भाइयों से राजस्थानी को बड़ी-बड़ी आशायें थीं किन्तु अकाल काल के कराल गाल में समा जाने से साहित्य की क्षति हुई है। सन् १९५२ ई० की भयंकर रेल दुर्घटना में कवि का देहान्त हो गया। आप बहुत लोकप्रिय हुए। ‘रे धोरां आळा देश जाग’, ‘जद झुके शीश’ आदि आपके सुन्दर गीत हैं।
जन-चेतना उत्पन्न करने में मनुज ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। वह जन-साधारण को जगाते हुए कहता है-
उठ खोल उणींदी आँखडल्यां, नैणां री मीठी नींद तोड़।
रे रात नहीं अब दिन उगियो सुपना रो झूठो मोह छोड़।
अब दिन आवैला एक इसो, धोरां री धरती धूजैला।
अ सदा पथरां रा सेवक अब, आज मिनख नै पूजैला।
इण सदा सुरंगै मरुधर रा, सूतोड़ा जागै आज भाग।
छाती पर पैणा पड्या नाग, रे धोरां आळा देश जाग।।
२८. सांवलदान:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए हैं और पाली जिलान्तर्गत ग्राम बीजलिया वास के निवासी हैं। इनके विषय में विशेष विवरण ज्ञात नहीं हुआ किन्तु आप अच्छी कवितायें लिखते हैं। एक नमूना देखिये-
भूपों दीनी भोम, कवियों ने गुण कारणे।
करसों वाली कोम, क्यूं धणियो कोसण करै।।
पूरो दुख पटवारियां, पालण दे नह पेट।
सुध वेगी ले शीशवद, मकबूजा दुख मेट।।
२९. नगेन्द्र बाला:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुई हैं (१९२६ ई०) और माणिक भवन, कोटा इनका जन्म-स्थान है। इनके पिता का नाम रणजीतसिंह जी है। पितामह राजस्थान केसरी ठा० केसरीसिंहजी राष्ट्रीय एवं क्रांतिकारी नेता के रूप में चिरप्रतिष्ठित हैं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा ‘महारानी गर्ल्स हाई स्कूल’, कोटा में हुई। जब राष्ट्रपिता बापू ने ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन आरम्भ किया (१९४२ ई०) तभी से ये राष्ट्रीय आंदोलन-धारा में बाल्यावस्था में ही कूद पड़ी। कोटा और बूंदी सत्याग्रहों में आपने सक्रिय भाग लिया तथा विशाल जन-सभाओं में जाकर भाषण देना आरम्भ किया। जब राष्ट्रपिता की अस्थियाँ कोटा में लाई गई तो अपार जन-समूह के आगे अश्वारोही होकर राष्ट्रीय ध्वज लेकर आप उसका नेतृत्व कर रही थीं। देश-भक्ति, समाज-सेवा तथा त्याग-भावना के साथ माँ सरस्वती की भी आप पर पूर्ण कृपा रही और बहुत पूर्व इन्होंने एक कविता लिखी थी जिसकी यह पँक्ति इनके समग्र जीवन को चरितार्थ करती है- ‘सिंहनी हूँ डर नहीं, वन देवियों संग खेल होगा।’ उल्लेखनीय है कि भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के १९४७ ई० के जयपुर अधिवेशन में आपने अपनी सहोदरा योगेन्द्र बाला के साथ स्वयं-सेवकों का संचालन किया था। आपका पाणिग्रहण श्री अमरसिंह देपावत के साथ हुआ (१९४७ ई०) जो स्वयं बड़े समाज-सेवी और श्रेष्ठ कवि थे।
श्रीमती नगेन्द्र बाला राजस्थान में पंचायती राज के श्रीगणेश के साथ ही कोटा जिला परिषद् की प्रमुख चुनी गई (१९६० ई०)। ये भारत की प्रथम महिला जिला प्रमुख हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू ने चम्बल बेराज का उद्घाटन करते हुए १९६१ ई० में नगेन्द्र बाला को लक्ष्य करके कहा था- ‘मैं चाहता हूँ, देश में ऐसे जन-सेवक हों जैसे आपके प्रमुख हैं।’ सन् १९६२ ई० में आप छबड़ा क्षेत्र से राजस्थान विधान-सभा के लिए चुनी गई और १९७१ ई० में पुनः कोटा दीगोद क्षेत्र से विधान-सभा के लिए विजयी हुई तथा अभी काँग्रेसदल की सचेतक (whip) हैं। इस प्रकार आपको चारण जाति की प्रथम विधानसभा सदस्या होने का गौरव प्राप्त है। इसके अतिरिक्त आप प्रदेश काँग्रेस कार्यकारिणी की सदस्या भी हैं तथा राज्य समाज-कल्याण बोर्ड की सदस्या के साथ-साथ आकाशवाणी, जयपुर की परामर्शदात्री समिति की भी सदस्या हैं। कोटा के जन-जीवन में आपका विशिष्ट स्थान है। जिस अप्रतिम देशभक्ति और त्याग का परिचय इनके पूर्वजों ने दिया, उसी आदर्श को सम्मुख रखकर आप राजनैतिक क्षेत्र में सेवा, निष्ठा एवं ईमानदारी से आगे बढ़ रही हैं। साथ ही आप उन्नत विचारक और कुशल लेखिका भी हैं। आपने कई फुटकर सुन्दर गद्य-गीत लिखे हैं, जैसे-
प्रेम-संदेश लेकर उड़ान भरने से पूर्व
सुदूर की ओर एक दृष्टिपात कर
अपनी पाँखों का पौरष देख लेना
कहीं मार्ग में अन्य सहारे की आवश्यकता प्रतीत न होने लगे !
जीवन-पाथेय की पूर्णता पर भी विचार कर लेना अन्यथा,
पावन पुनीत मुक्ति-संदेश अधूरा न रह जाये
गन्तव्य का छोर छूना है तुम्हें !
विकट घाटियाँ, पहाड़, रेतीले टीबे और
रेगिस्तान के लम्बे मार्ग, जहाँ
गज़नवी की फौजों ने जल के अभाव में दम तोड़ा था,
तुम्हें पार करना है।
जहाँ-जहाँ धरातल पर किंचित विश्राम है
अपना पात्र धरोगे, स्मरण रहे पात्र से
झरने वाली बूंद अमरता प्रदान करेगी
उस धरा को।।
३०. रामदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२७ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम मथाणियां के निवासी हैं। इनके पिता का नाम मेहरदानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव में हुई और उसके बाद जोधपुर विश्वविद्यालय से बी० ए०, एल-एल० बी० की परीक्षायें उत्तीर्ण की। इन्होंने १९४६ ई० में राज्य-सेवा में प्रवेश किया। सामाजिक कार्यो में ये १९५२ ई० से रुचि लेने लगे और समाज के दुर्बल वर्गों के लिए कार्य किया। समाज-सेवा के साथ-साथ आप साहित्य-रचना भी करते हैं। इसे ये अपनी इष्टदेवी का वरदान मानते हैं। इन्होंने एक ऐसी अलबेली ‘समाज सतसई’ की सृष्टि की है जिसमें अँग्रेजों के समय में भारतीय समाज की क्या दशा थी, आज कैसी है तथा भविष्य में कैसी होगी ? – इसका छंदोबद्ध वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त आपने ‘अपनायत इक्कीसी’, ‘सामी सीख सताईसी’ आदि फुटकर रचनायें भी लिखी हैं। उदाहरण के लिये ‘समाज सतसई’ के कतिपय दोहे देखिये-
लखिया लोयण लागणा, चंचल चिटकत चीर।
साइकल सोहे सुन्दरी, कुसम कली कश्मीर।।
स्वतंत्र समाजवाद री, प्रजातांत्रिक पोशाक।
धारण करता धूजै धणी, मन मैला नापाक।।
बिन शस्त्र वार करणरी, नेशर नहीं नाखून।
छोड़ दे प्राणी छछून्दर, क्रूर कला करन खून।।
सज सेना सूरज सिधाई, गगन गाजन्तो शीस।
आटो कर उड़ावियो, गरब पठानो पीस।।
३१. केसरीसिंह:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं और पाली जिलान्तर्गत ग्राम मूंदियाड़ के निवासी हैं। आप प्रधान तथा विधान-सभा के सदस्य रह चुके हैं। आपने स्वामी शरणानन्दजी की पुण्य स्मृति में शोक-काव्य लिखकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है, यथा-
नैन धन्य मम जिन लख्यौ, (वो) संकर रूप रसाल।
धन्य सीस चरणां झुक्यौ, श्रीमुख चूम्यौ भाल।।
स्रवणां वाणी संभळी, सुधा झरत श्रीकण्ठ।
बार अनेकन धिन पियौ, इमरत वो आकण्ठ।।
(पण) भमत फिरयौ, भूलै पड़्यौ, विविध लुभाणै लाग।
मन-अलि धिक मोह्यौ नहीं, गुरु-पद-पद्म पराग।
साहिल बैठ समंद रै, परस्यौ परमानंद।
अवगाह्यौ ऊँडौ नहीं, मैं मूरख मतिमंद।।
३२. योगेन्द्र बाला:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुई हैं (१९२८ ई. ) और माणिक भवन, कोटा इनका जन्म-स्थान है। आपकी शिक्षा-दीक्षा भी परिवार के प्रबुद्ध वातावरण में ‘महारानी गर्ल्स हाई स्कूल’, कोटा में हुई। कहना न होगा कि इन्होंने राष्ट्रभक्ति और साहित्य-सौष्ठव को पारिवारिक परम्परा के रूप में प्राप्त किया। अपनी सहोदरा नगेन्द्र बाला के साथ-साथ आपने भी १९४२ ई० के राष्ट्रव्यापी ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में भाग लिया और कोटा तथा बूंदी के प्रजामण्डलों द्वारा संचालित आंदोलनों में सक्रिय कार्य किया।
राष्ट्र-चेतना और सेवा के साथ-साथ योगेन्द्र बाला पर माँ सरस्वती की भी कृपा रही और अनेक कवितायें, छंद इत्यादि लिखने का आपको भी श्रेय प्राप्त है। आपका पाणिग्रहण श्री शक्तिदान मेहडू, राजोला कलां, जोधपुर के साथ हुआ (१९४७ ई०) जो राजस्थान प्रशासनिक सेवा के सुयोग्य अधिकारी हैं (१९६० ई०)। इनकी लिखी हुई कवितायें कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘राष्ट्रवाणी’ के सम्पादक महोदय ने इनके विषय में लिखा है- ‘सुश्री नगेन्द्र बाला तथा योगेन्द्र बाला राजस्थान के सुप्रसिद्ध त्यागी व तपस्वी सेनानी तथा कविवर स्व० श्री केसरीसिंहजी बारहठ की पौत्री तथा राजस्थान की सुपरिचित कवयित्री सौभाग्यवती राजलक्ष्मी ‘साधना’ की छोटी बहनें हैं। इन सबका परिवार ही राजस्थान की सेवा और साहित्य-साधना में सदा अग्रणी रहा है।’ उदाहरण के लिए यहाँ इनकी हिन्दी कविता ‘जीवन जीत है या हार’ की ये पंक्तियां देखिये-
दिवस बीते रात आती, दीप की लौ टिमटिमाती।
अरुणिमा की रक्त आभा-आ, पुनः दीपक बुझाती।।
यों सदा प्रत्यागमन-दो रूप में निशि-दिवस होता।
एक मिटता दूसरे हित, वह स्वयं अस्तित्व खोता।।
क्या यही है दो हृदय का, प्रेम-बल-अधिकार ?
इनकी जीत है या हार ?
वह गलेगी या जलेगी, जो कहाती देह नश्वर।
अमर-आत्मा देह में, कैसा सुदृढ़ बंधन परस्पर।
किन्तु अंतिम के क्षणों में, बंध भी यह टूट जाता।
जगत के जंजाल से, मानव सदा को छूट जाता।
क्या यही चर-अचर के, प्यार का प्रतिकार ?
जीवन जीत है या हार ?
३३. करणीशरण:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२८ ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम इंदोकली के निवासी हैं। इनके पिता का नाम किशोरदानजी है। ये अपने काका देवकरणजी को गुरु मानते हैं जिन्होंने इन्हें काव्य-रचना करना सिखाया। आजकल आप पटवारी के रूप में राज्य-सेवा कर रहे हैं और साथ ही साथ कवितायें भी लिखते रहते हैं। आप शक्ति के उपासक हैं और इसमें आपकी अटूट आस्था है। इनकी अधिकांश रचनायें भक्ति काव्य की कोटि में आती हैं। साथ ही कतिपय हास्य रस की कवितायें भी लिखी हैं जिनमें ‘डालडा री डकार’, ‘चाय रो चरित्र’, ‘कामयाब री कुंजी’, ‘शराब री शहादत’ आदि उल्लेखनीय हैं। इनकी कविता का यह नमूना देखिये-
पुरुषार्थ तमाम हाय, स्त्री अरु पुरुषों की।
डंके की चोट दे के, डालडो डकार ग्यो।
स्वास को उठाय अरु, स्वास्थ्य को बिगारे हाय।
ऐ रे चाय तेरे उपर, लाय क्यू नहीं लाग गी।।
इस जमाने में तूजे कामयाब होना हो तो,
नेता बन राख खूब अपने पास वोटों को।
वोटों की कमी हो तो दूसरी उपाय कहूँ,
दिखा देना जाय हाथी छाप वाले नोटों को।
नोटों की तजवीज़ अगर नहीं हुवे तो फिर तू
सिक्स प्लस फोर बनके, हाथ रख सोटों को।
सोटों को चलाने में तेरे में ताकत नहीं तो
रखना पड़ेगा पास झूठे सर्टिफिकटों को।।
३४. खीमदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९२८ ई०) और बाड़मेर जिलान्तर्गत ग्राम बाळेवा के निवासी हैं। इनके पिता का नाम पहाड़दानजी है। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा सात वर्ष की अवस्था में अपने पिता से घर पर ही ग्रहण की (१९३५ ई०)। घर की परिस्थितियों के कारण ये सातवीं कक्षा से आगे नहीं पढ़ सके किन्तु राजस्थानी तथा ब्रज के ग्रंथों का पारायण करने से साहित्य की ओर इनकी रुचि बढ़ी और राजस्थानी में काव्य-रचना करने लगे। समाज-सेवा करना आपके जीवन का उद्देश्य है। इसके लिए ये घर के काम-धंधे छोड़कर निःस्वार्थ भाव से जुटे रहते हैं। आजकल आप कृषि एवं पशु-पालन का व्यवसाय करते हैं।
खीमदानजी की प्रथम रचना ‘पावस-पच्चीसी’ है। आपने उत्तम कोटि का भक्ति-काव्य लिखा है जिसमें ‘सुबध पच्चीसी’, ‘शक्ति शतक’, ‘करणी बाल चरित’, ‘महिषासुर मर्दिनी’, ‘करणी रा छंद’ आदि कृतियां उल्लेखनीय हैं। ‘अकाल वर्णन’ में दुर्भिक्ष का वर्णन है। ‘विकास-विनाश’, ‘देश-रक्षा’, ‘समाज-सुधार’ आदि कृतियां सम-सामयिक हैं। ये सब प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। इसके अतिरिक्त इनकी फुटकर कवितायें भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। एक उदाहरण देखिये-
भारत रो ऊँचो सर करणो, दिल मां लेस मात्र नी डरणो।
संख्या मै दुसमण घण सारा, सींह सांमै की स्याल बिचारा।।
असल महीनां पिता ओई है, सुत मेले हित देस सई है।
सो धन्य मात धर्म नां सेवै, देस रक्षा अपणो पुत्र देवै।।
हाय अकल कुछ काम ही लावो, दुनीया सुधरी क्यांन देखावो।
रूस अमरेका तरकी रूड़ै, देखो ग्रह मंगल लग दोड़ै।
मांय नशां क्रोडां खरचाओ, उणसै नी तरकी मां आओ।
उलटा मूरख असभ कहावे, जगत रीत सर नीचा जावे।।
बार्ड के पंच काम मै पोल है, सरपंच काम मै पोल सदावै।
समिति सदस्यों रे काम पोल है, ओ सिय काम मै पोल ही आवै।।
प्रधान के काम में है अत पोल ही, बी. डी. ओ. पोल में ढोल बजावै।
सरकार को हाय कोई समुझाय, विकास नहीं ए विनास दिखावै।।
३५. भँवरदान ‘मणिधर’:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए है (१९३२ ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम रसाल के निवासी हैं। इनके पिता का नाम हरीसिंहजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता की देखरेख में हुई। ये राजस्थानी और ब्रज दोनों भाषाओं के ज्ञाता हैं। आप धार्मिक एवं राष्ट्रीय विचारधाराओं के व्यक्ति हैं। अखिल भारतीय दीनबंधु काँग्रेस की राजस्थान शाखा के संगठन मंत्री हैं। इन्होंने ‘करुणा पच्चीसी’, ‘करुणाष्टक’ तथा ‘करुणा बहोत्तरी’ नामक कृतियां लिखी हैं। साथ ही फुटकर कवितायें भी लिखते रहते हैं। आप अच्छे संगीतकार भी हैं और समदड़ी में रहते हैं। राजस्थानी के साथ हिन्दी में भी रचनायें लिखते हैं। इनकी कविता का यह उदाहरण देखिये-
गजां पीठ पै नोपतां रोज घल्लै। जिकां सेवगां इंदरा घात घल्लै।
सुणो सारदा आपरा हंस सोरा। छतां आपरै छांग सी कंठ मोरा।।
धकै आ विधाता कनै मोर ध्यायौ। उनै आज रा राज रौ सोच आयौ।
चरंदा परंदा सभी जाय चोंक्या। धण्या दीठ आप नै पांव धोक्या।।
३६. उदयसिंह:- ये पाल्हावत बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं और अलवर के निवासी हैं। इनके विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हुई है अतः इन दोहों-सोरठों से ही संतोष करना पड़ रहा है-
पुहुमी अत पळकेह, किरण वीरता तन कढ़ै।
भाटी तूं भळकेह, भांण रूप हिंद भाळ पर।
सबद कह्या रण साथियां, जाहर हुवा जहांन।
अड्यो मर्यो चूसूल पर, सौ-सौ रंग सैतान।।
मर्यो मर्यो मूरख मुणै, कहै न स्याणो कोय।
मरै जिस्यो भाटी मरद, कुण फिर अम्मर होय।।
३७. जयकरण:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९३५ ई०) और बाड़मेर जिलान्तर्गत ग्राम डाबड़ के निवासी हैं। इनके पिता नाथूदानजी राजस्थानी के एक अच्छे कवि रह चुके हैं। इनकी वंश-परम्परा में क्रमबद्ध साहित्य-सेवा होती चली आ रही है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा बाड़मेर में हुई फिर इन्होंने बी० ए० (राजस्थान, १९५७ ई०) तथा अंग्रेजी में एम० ए० (पंजाब, १९६९ ई०) की उपाधियाँ प्राप्त की। सम्प्रति पुलिस विभाग में निरीक्षक के रूप में सेवारत हैं। आप गत २३ वर्षों से निष्ठा से राज्य-सेवा कर रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि आप मातृभाषा, राष्ट्र भाषा और अन्तरराष्ट्रीय इन तीनों भाषाओं में रचनायें लिखते हैं।
जयकरणजी एक प्रतिभासम्पन्न कवि हैं। परम्परा का पालन करते हुए भी आप नव-नव सम-सामयिक रचनायें लिखने में सिद्धहस्त हैं। आपकी राजस्थानी कविता का यह उदाहरण देखिये जिसमें राजस्थान राज्य के पुलिस महानिरीक्षक वीरवर गणेशसिंहजी, आई० पी० एस० के गुणों की प्रशंसा की गई है-
गुणवंती रतनो गजब, दीपण भारत देश।
पुलिस प्रशासक प्रांत रो, गौरव मुकुट गणेश।।
मन उज्वल मधुरा वयण, धीरज सगुण धनेश।
भलपण वंको भाटीयो, गहिरे वीर गणेश।
रजपूती रो सेहरो, वीरत ध्रम रो वेश।
अनवी मानी अडिग ओ, ज्ञानी वीर गणेश।।
३८. रामलाल:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए हैं और अलवर के निवासी हैं। इनके विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हुई है अतः इन दोहों से ही संतोष करना पड़ रहा है-
विपत बादळा शीस पैं, मँढिया अधिक महान।
सूरज ज्यूं चमक्यो सदा, धनि-धनि राजस्थान।।
खाल्याँ उपटी खून हूं, उगळी नाल्यां अग्ग।
भिड्यो समर सैतान भड़, पड्यो न पाछो पग्ग।
धमक तोप धूजै धरा, सोला उछटै सूळ।
मारि-मारि रोळा मचै, तदपि न दियो चसूळ।।
तड़के गोळी तिड़ तिड़ै, पळकै तोपां पांण।
खळकै नाला खून का, सिंह झलकै सैतांण।।
३९. शिवदत्त:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९३५ ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम सीहू के निवासी हैं। इनके पिता का नाम मानसिंहजी है। इन्होंने प्राथमिक शिक्षा खींवसर से ग्रहण की। फिर चारण छात्रावास में रहते हुए श्री सुमेर स्कूल, जोधपुर से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् आप शिक्षा-विभाग में अध्यापक हो गये (१९५८ ई०) और अध्ययन का क्रम जारी रखते हुए बी० ए० की उपाधि प्राप्त की। प्राचीन साहित्य से आपका विशेष अनुराग है।
शिवदत्तजी विद्यार्थी-जीवन से ही कवितायें लिखते आ रहे हैं जो समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आप हिन्दी एवं राजस्थानी दोनों में काव्य-रचना करते हैं। राजस्थानी कविताओं के साथ आप कहानियाँ भी लिखते हैं। फुटकर कविताओं में ‘आजादी’, ‘बंगाल रो काळ’, ‘गाँधी’, ‘तिलक’, ‘जवानी’, ‘कळायण’, ‘हाळी’ आदि लोकप्रिय हुई हैं। आप कई बार आकाशवाणी, जयपुर से ‘मरुवाणी’ कार्यक्रम के अन्तर्गत चारण-शैली में कविता-पाठ कर चुके हैं। महात्मा गाँधी में गहरी आस्था होने से कवि ने उनके निधन पर आठ-आठ आँसू बहाये हैं-
अंधारे घणे दिवळो हो, निबळां रो साथी नामी हो।
हर दिल रो दरद पिछाणे हो, जाणे वो अन्तरजामी हो।।
गाँधी ने दुनिया प्यारी ही, दुनिया ने गाँधी प्यारो हो।
अणपार हिया में नेह भर्यो, गाँधी रो हिवड़ो न्यारो हो।।
पण मोतड़ली कर दी मनमानी, खूटी पर लागी नां बूंटी।
गाँधी पर गोळी क्यूं छूटी, लाखांरी किस्मत क्यूं लूटी।।
‘बंगाल रो काळ’ के दुर्भिक्ष का यह मार्मिक स्थल देखिये-
खाय तड़ाछ पडियो भूखो, रोठी विन रोयो अठे मानवी।
दांणां सूं प्राण घणा सस्ता, आ वात सुणी, रे रुको जाह्नवी।।
फळ फूल विना मरगा पंछी, घास विना मरगी गायां।
आख्यां फोड़ी रे ! रोय रोय, रोठी रे सारू मिनख जायां।।
काम चल्यो नहीं सोने सूं, पहरियोड़ों रेगो सब गहणो।
अरे अठे वस इणी जगह, रोठी विन रुळगौ मिनखपणो।।
और ‘कळायण’ (काली घटा) में कवि का यह प्रकृति-प्रेम दृष्टव्य है-
उड़े असमान में वादळ, के गजराज आया है।
काजळ गिरि तूट ने टुकड़ा, अरे असमांन छाया है।।
झकां में वीजली चमके, तो सोवनी रेख ज्यूं दमके।
पावस आज आयो है, धर-धर गिगन में धमके।।
ठंडी लेर चलतोड़ी, सुणो संदेश लाई है।
देवण लो रूप धरती ने, कळायण आज आई है।।
४०. भँवरदान:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९३५ ई०) और बाड़मेर जिलान्तर्गत ग्राम झिणकली के निवासी हैं। इन्हें अपने नाम के आगे ‘मदकर’ लिखना प्रिय है। इनके पिता का नाम हेमराजजी है। कवि अनोपदान इनके बड़े भाई हैं। इन्होंने पूर्व विश्वविद्यालय परीक्षा उत्तीर्ण की है।
आप लगभग आठ वर्ष तक भारतीय सेना में सेवा करने के बाद ‘स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर’ में ‘हैड केशियर’ हैं। बाल्यकाल से ही अपने पिता तथा भ्राता के सान्निध्य में आपने अनेक कवितायें कंठस्थ कर ली थीं और इसके नियमों की जानकारी प्राप्त करने के बाद स्व० उदयराजजी उज्वल की सत्प्रेरणा से प्रथम रचना लिखी (१९६४ ई०)।
भँवरदानजी अपने क्षेत्र के अत्यंत लोकप्रिय कवि हैं। कवि-मंच पर इनकी धाक है। इन्होंने कई राष्ट्रीय, राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं अन्य रचनायें लिखी हैं। इन रचनाओं में देश, काल और परिस्थिति का सुंदर चित्रण है। ‘समाजवाद’ के लिए कवि का कथन है-
सपना साचै समाजवाद का होसी साकार।
कामगार वणैला आधार राज काज का।
श्रमिक किशान कारीगरों का होसी समाज।।
लाधैलान को लुटेरा अबला की लाज का।।
धरा का सपूत रैसी रैवैला न कोई धणी।
विश्व राज करैला इनशान विना ताज का।
आज का सामंत पूंजीवाद नै सांम्राजशाही।
जासी डूब जातरी ज्यूं जीरण जहाज का।।
कवि ने ‘त्रिकूट बँध गीत’ में प्रकृति का यह वर्णन खूब किया है-
आसाड़ ऊबां आथड़ै, पाहड़ां सिर अरगत पड़ै।
उतराद भुरजां मंडे आड़ंग, कटण मरूधर काळ।
छांमणां जळ नदियां छिळै, मद कांमणां साजण मिलै।
रळ वळ वदळ दळ रळ वदळ, सळ वळ सकळ वळ ढळ सजळ।
वळ वळ कजळ कांठल शबल, पळ पळ चपल बीजळ प्रबल।
भळ भळ गुडळ जळ भूमंडळ, खळ खळ उथल तालर खळल।
मलहार सुण विरहण मचल, हळ हाल हळधर कर हकल।
चल बलध चंचल चाल।।
४१. रामसिंह:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९३७ ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम मौलासर के निवासी हैं। इनके पिता का नाम गंगासिंहजी है। बाल्यावस्था से ही कविता की ओर इनकी रुचि है। इन्होंने ‘साहित्य रत्न’ की परीक्षा उत्तीर्ण की है। सम्प्रति राज्य-सेवा में रत हैं। आपने स्फुट काव्य-रचना की है। एक उदाहरण देखिये-
पीसा पीसै पीसणू, पीसा पीसण जोग।
पीसा प्यारा है जठै, बठै पिसीजै लोग।।
धधक धधक हिवड़ो बळै, सासां लागी लाय।
कुण नै कैवा कुण सुणै, मिनख मिनख नै खाय।।
४२. शक्तिदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४० ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम बिराई के निवासी हैं। इनके पिता का नाम कवि गोविन्ददानजी है जिनके ये इकलौते पुत्र हैं। आप डेढ़ वर्ष की अवस्था में मातृवात्सल्य से वंचित हो गये। इनकी शिक्षा-दीक्षा के प्रमुख तीन केन्द्र हैं-मथाणिया, बालेसर एवं जोधपुर। जब ये सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे तभी इनकी ‘करणी यश प्रकास’ नामक प्रथम कविता प्रकाश में आई। स्व० उदयराजजी उज्वल के मार्ग दर्शन प्रेरणा एवं प्रोत्साहन से ये साहित्य क्षेत्र में अग्रसर हुए। ये अपने गाँव के प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने बाहर रहकर एम० ए० हिन्दी की उपाधि प्राप्त की है और अपनी जाति में प्रथम पी-एच० डी० हैं। ये राजस्थानी, ब्रज एवं हिन्दी तीनों के ज्ञाता हैं। इन्हें प्राचीन छंद-शास्त्र का पर्याप्त ज्ञान है और इस शैली में छंद-रचना तथा काव्य-पाठ में बेजोड़ हैं। आप आकाशवाणी पर कविता-पाठ के लिए विशेष रूप से आमंत्रित किये जाते हैं। आपके शोध-प्रबन्ध का विषय है-‘डिंगल के ऐतिहासिक प्रबन्ध काव्य (१७००-२००० विक्रम)। आप कई सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं में प्रतिष्ठित पदों पर कार्य कर रहे हैं। आप आधुनिक कवि-सम्मेलनों में भाग लेते रहते हैं। वर्तमान में जोधपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हैं।
शक्तिदानजी प्राचीन साहित्य तथा संस्कृति में विशेष आस्था रखते हैं। इन्होंने राजस्थानी के गद्य-पद्य के कई संकलन तैयार किये हैं जिनमें ‘रंगभीनी’, ‘लाखीणी’, ‘सोढायण’, ‘काव्य-कुसुम’, ‘दर्जी मयाराम री वात’ आदि के नाम लिये जा सकते हैं। इनमें से प्रथम दो संकलन बी० ए० तथा एम० ए० के पाठ्यक्रम में स्थान पा चुके हैं। इनकी प्रकाशित मौलिक रचनाओं में ‘करणी यश प्रकास’, ‘प्रीत पच्चीसी’ एवं ‘बरसाळे रा दूहा’ के नाम उल्लेखनीय हैं। अँग्रेज कवि ग्रे के शोक-काव्य (Elegy) का आपने राजस्थानी पद्यानुवाद किया है। इनकी अप्रकाशित रचनाओं में ‘करणी सुजस प्रकास’ तथा ‘खोटै नेता रो खुलासो’ है। पद्य के साथ-साथ गद्य लिखने में भी आप सिद्धहस्त हैं। इनकी स्फुट रचनायें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। इसके अतिरिक्त आप ‘तरुण शक्ति’ तथा ‘चारण पत्रिका’ के सम्पादक भी हैं। उदाहरण के लिए जमाना कैसा आया है, इसे कवि कृत ‘उडतो पंछी’ में देखिये-
आज जमाना अैड़ो आयो, भोळप सूं मानव भरमायो।
खुद रै हाथां बेलां बोई, पाक्यो फळ जद मन पछतायो।
गी नैणां री सरम, मरम रा घट में पड़िया घाव रे।
प्रीत रो संदेस पठावण, उडता पंछी आव रे।।
खिलकां मांय अदावत खाटी भाई-भाई री जड़ काटी।
अेक दूसरै री अटकळ में, पांतरग्या बडकां री पाटी।।
मूंडै मीठा घट में खोटा, दुनियां खेलै दाव रे।
प्रीत रो संदेस पठावण, उडता पंछी आव रे।।
विधि सम्मत स्वच्छ प्रशासन समय पर न्याय देकर जनता का विश्वास बनाये रख सकता है। यदि संसार की करतूतों को देखा जाय तो फिर न्याय की नौका ही डूब जायेगी-
जोयलै नवलख तारां वीच, चांनणौ चांद सूं होवै।
करे कुण राजहंस विन न्याव, निवेड़ौ नीर खीर जोव्है।।
करे कुण वाड़ विनां रखवाळ, विगाडू सेढ़ां रा वासी।
जगत री करतूतां मत जोय, न्याव री नाव डूब जासी।।
४३. ओमप्रकाश:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४० ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम इंदोकली के निवासी हैं। इनके पिता का नाम कवि देवकरणजी है। इन्होंने डीडवाना से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर जोधपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से यांत्रिकी विभाग की बी० ई० उपाधि प्राप्त की। आजकल आप लोक निर्माण विभाग, जयपुर में कान्ट्रेक्टर हैं। आपने विविध विषयों पर पाँच-सौ के आसपास दोहे लिखे हैं। इनके ‘भारत-पाक युद्ध’ (१९७० ई०) के कतिपय दोहे देखिये-
धुब तोपां थरकी धरा, घुरै त्रंबक घमसाण।
झालै देव झिकोळियी, (जाणे) मंदराचल मेहराण।।
जंगी ‘सैबरजेट’ ने, हाथ दिखाया हिन्द।
पोळा झड़ बूठा पवन, पड़िया जाण परिन्द।।
फिर दोळा गोळा फचर, नट टोळा हिन्द ‘नेट’।
फाबै बणिया फिड़कला, (ए) जंगी ‘सैबरजेट’।।
‘नेट’ झपट धर नांखिया, विकट लपेटां बाज।
फोगट दीधा फ्रांस थे, मगतां हाथ ‘मिराज’।।
आछा बेग उंतावला, सजित विकट रण साज।
चम्पै डरता न चढै, ‘मिग’ रे धके ‘मिराज’।।
४४. भंवरसिंह:- ये खिड़िया शाखा में उत्पन्न हुए हैं और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम रलावता के निवासी हैं। इनके पिता का नाम दुर्गादानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा उच्च माध्यमिक विद्यालय, जावला में हुई जहाँ से आपने प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे भी राजकीय कॉलेज, किशनगढ़ से बी० ए० तथा एम० ए० हिन्दी की परीक्षायें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् चयड़िया कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुये। आपने राजस्थान विश्वविद्यालय से ‘ढोला मारू रा दूहा’ पर शोध-कार्य आरम्भ किया था किन्तु इस बीच राजस्थान प्रशासनिक सेवा के लिये चुन लिये गये (१६७४ ई०)। जो लिखित प्रतियोगिता हुई उसमें आपने सबसे अधिक अंक प्राप्त किये। आपने ‘शिव साधना’ तथा ‘विरद विपिन’ नामक कृतियां लिखी हैं जो अप्रकाशित हैं। फुटकर रचनायें अवश्य प्रकाशित हुई हैं। सन् १९६५ ई० के भारत-पाक युद्ध का वर्णन आपने ‘पाक-पच्चीसी’ में किया है, यथा-
अब आपहिं पाक पड़ी अबकी, बरिबंड ही बंब जवै बबकी।
धर नीध हि देस पै सैन धकी, जमराण जमात जमाव जकी।
कर क्रूर करार उबै कमकी, हिय हेरही मौत भई हमकी।
दम हार अबैहि लहौर दई, गढ़ रा गढ़ को अब सैन गई।।
तिहु लोक इहां जंग देख तपी, चप पैंटन सेबर चेट चपी।
झप झैप झपैट झंडेस रपी, रज रज्जत है न आकास रपी।।
४५. डूंगरदान:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए हैं और बाड़मेर जिलान्तर्गत ग्राम बाळाउ के निवासी हैं। इनके पिता का नाम नरसिंहदानजी है। ये फुटकर काव्य-रचना करते हैं। इनके शोक-गीत का यह अंश देखिये-
सुणियो दिन एक शोक संदेशो, श्रवणो नही सुहायो।
आछो सुत लिछमण उजल रो, धर उदो उठ धायो।
बाणी चित्त विचळित मग्ग बहियां, हुई घणी हित हांणी।
कित गयो सिंहढायच कविराजा, मोह छोड़ माडाणी।।
साहित अरु जाति रो सेवक, कांज पराया कीना।
नाथा हरे छोड नरपुर ने, लख सुरपुर मग लीना।
पंडत कव लेखक पछितावे, सारा झुरे सनेही।
मोह लगाय बहिग्यों मारग, दूथी तजने देही।।
४६. कानदान:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४१ ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम झोरड़ा के निवासी हैं। ये अपने नाम के आगे ‘कल्पित’ लगाकर काव्य-रचना करते हैं। इनके पिता का नाम हीरदानजी है। जब ये पन्द्रह वर्ष के थे तब से ही कविता लिखने लग गये। आजकल आप राजकीय उच्च प्राथमिक शाला, नागौर में अध्यापक के रूप में राज्य-सेवा कर रहे हैं। इनकी कविताओं का संग्रह ‘श्री हरि-लीला इमरत’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है। इसमें ४५० दोहों में श्री हरिरामजी महाराज का जीवन-चरित्र वर्णित है। इसके अतिरिक्त आपने फुटकर कवितायें भी बहुत लिखी हैं जिनमें ‘आजादी रां रुखवाळा’, ‘चेत मानखा’, ‘भाई रो भाई पणो’, ‘रैत रोवै बापड़ी’, ‘थूं बोल तो सरी’, ‘पड़दे रे भीतर मत झांकी’, ‘मुरधर म्हारो देस’, ‘गीत मिलण रा गाऊंला’, ‘चन्दर चकोरी’ आदि लोकप्रिय हुई हैं। कवि-मंच पर आप सस्वर कविता-पाठ करते हैं। यहाँ इनकी ‘आजादी रां रुखवाळा’ कविता का यह उदाहरण देखिये-
आजादी रां रुखवाळां सूता मत रीज्यो रे।
आवैला घण मोड़ मारग पर, चलता रीज्यो रै।।
आजादी खातर मां-बैणां, कांकड़ में बांठां रूळगी।
हत्थळैवे मैंदी लाग्योडी, ओरां रे हाथां चढ़गी।।
नुंवै दिन कामण घर काळा, काग उड़ाती ही रैगी।
मांवां री बैटां रे खातर, पुरस्योड़ी थाळयां रैगी।
बळीदानां री मूंघी घड़ियां, याद करिज्यो रै।
आजादी रा रुखवाळां, सूता मत रीज्यो रै।।
और ‘चेत मानखा’ में कवि की यह राष्ट्रीय भावना मुखरित हुई है-
चेत मानखा दिन आया, झगड़ै रा ढोल घुरावांला।
उठो आज पसवाड़ो फेरो, सूता नाहर जगावांला।।
मत ताको पाछी भारत रां, जुद्ध में रड़क बजावांला।
दुशम्यां री छाती रे माथै, दुनाळयां झड़कावांला।।
आज देश री सीमा माथै, हंस हंस सीस चढावांला।
मरग्या तो मां री गौदी में, रहग्या तो गुण गावांला।
४७. भंवरसिंह:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४२ ई०) और जयपुर जिलान्तर्गत ग्राम खेड़ी चारणान के निवासी हैं। इनके पिता का नाम रामलालदानजी है। इन्होंने आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की ही थी कि पिता चल बसे अतः घर-परिवार का भार इन पर आ पड़ा। फिर भी साहसपूर्वक आगे बढ़ते गये। अपने काकोसा श्री अक्षयसिंह रतनू को काव्य-गुरु मानकर उनके सान्निध्य में अध्ययन का क्रम जारी रखा और राजस्थानी तथा हिन्दी ग्रंथों का पारायण किया। पं० राधावल्लभजी शास्त्री (कचनारिया) के व्याकरण से इनकी संस्कृत के प्रति रुचि बढ़ी और प्रसिद्ध कवियों का काव्य हृदयंगम किया। साथ ही आपने वेदों का स्वाध्याय किया जो आज भी चल रहा है। इसके अतिरिक्त संगीत-शास्त्र का भी अध्ययन किया तथा कई राग-रागनियां सीखकर स्वयं गेय पद भी लिखे। इनकी लिखी हुई स्फुट रचनायें उपलब्ध होती हैं। आप प्रधानतः वीर रस के कवि हैं और चौरासी प्रकार के गीतों में झम्माल गीत इन्हें सर्वप्रिय है। अत: इसी छंद में इनका वीरों का यह यशोगान देखिये-
बाजै बाजा बाहरू, साजै शूरां शान। गाजै गौरव गीतडां, राजै राजस्थान।
राजै राजस्थान, (क) वीर वसुन्धरा। मरण तणी मुरजाद, पवित्र परम्परा।।
जबर हुया जूझार, कला रण खेत में। मोत्यां मूंगा मिनख, रल्या इण रेत में।
आखी घण इतिहास में, साखी धर संसार। राखी रजवट राजव्यां, बांकी टेक विचार।
बांकी टेक बिचार, प्रतिज्ञा पालणां। उमड्यां अरियांवात, घात घण घालणां।
धण चौरासी घाव अंग में ओपणां। सांगा सा सीसौध, रणां पग रोपणां।।
शरणागत वत्सल सदा, धर्म धुरंधर धीर। हुया हठी हम्मीर सा, बांका रजवट बीर।
बांका रजवट बीर, (क) नेम निभावणां, बचनां बांका बिरद, मरद मर जावणां।।
रणांज रणथम्भोर, जोध घण जूटिया, हुया अमर हम्मेश, लाभ जग लूटिया।
४८. भँवरसिंह:- ये सामौर शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४३ ई०) और चुरू जिलान्तर्गत ग्राम बोबासर के निवासी हैं। इनके पिता का नाम कवि उजीणसिंहजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता की देख-रेख में गाँव में हुई। फिर आप उच्च शिक्षा के लिए राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर चले गये जहाँ आपने एम० ए० हिन्दी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आजकल आप लोहिया कॉलेज, चुरू में हिन्दी के व्याख्याता पद को सुशोभित कर रहे हैं। आप राजस्थानी भाषा एवं साहित्य के प्रबल समर्थक हैं और इसमें प्रारम्भ से ही इनका अनुराग रहा है। इन्होंने ‘शृंगार शतक’ का ‘सिंणगार सतक’ के नाम से भावानुवाद किया है। सन् १९६५ ई० के भारत-पाक युद्ध के संदर्भ में राजस्थानी की प्रतिनिधि रचनाओं का सम्पादन ‘मरण त्यूंहार’ के नाम से प्रकाशित किया है। आधुनिक राजस्थानी की कवितायें भी ‘मरुवाणी’, ‘मरुश्री’ (पत्रिकायें) तथा ‘आज रा कवि’ (संकलन) में प्रकाशित हुई हैं। आपकी कवितायें आकाशवाणी, जयपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आप पद्य के साथ-साथ गद्य में निबन्ध, कहानियाँ आदि भी लिखते रहते हैं। आजकल आप ‘राजस्थानी का चारण शक्ति-काव्य’ विषय पर पी०एच० डी० के लिए शोध-प्रबंध लिखने में रत हैं।
भँवरसिंहजी राजस्थानी के होनहार कवि हैं। इनकी मातृभूमि-प्रेम की प्रतीक ‘नमो जुग बाल्ही धरा महाण’ कविता की ये पंक्तियां देखिये-
मोड़ बंधियोड़ा मुड़ता मुळक, गोरड़यां री गळबांहां छोड़।
देवता करतब हित बळिदांन, नेह रा बंधण नाता तोड़
जठै काळा पख काळी रात, काळ ऊचाळै रा सहवास।
बठै बाळकिया बेघरबार, जलमिया घर घर रा ऊजास।।
चढाई मात भोम रै चरण, पालणै झोटा खांती प्रीत।
जदी सिर आंख्यां पर असवार, जिणां रै जस रा गौरव गीत।।
अठै रो बळिदानी इतियास, चारणां रै सुर में साकार।
न कोरी बीते जुगरी बात, आंवतै जुगरो है आकार।।
कमर कस भरम भाग रौ मेट, धरा सिणगारी मैनत पाण।
बणाई मांटी कंचन जोड़, इस्या करसा पारस परवांण।।
इसी प्रकार आपकी ‘धरा सिंणगार चावै है’, ‘मुगती जुद्ध रो गीत’, ‘परभात’, ‘तानासाहां रै नांव’, ‘इंदर राजा क्यूं मांड्यो रूसणो’, ‘मरणों ही मंगळ बण्यो हमैं’, ‘महल सपनां रा बणा मत’ आदि कवितायें विशेष लोकप्रिय हुई हैं। इन सब में कवि का जीवन के प्रति आशावादी स्वर मुखरित हुआ है। इन्होंने राजस्थानी की ओजस्विता को नई कविता में नये मूल्यों के साथ प्रतिष्ठापित किया है। यथा, ‘धरा सिंणगार चावै है’ की ये पंक्तियां लीजिए-
हजारां बरस स्यूं उजड़ी धरा तो सिंणगार चावै है।
जुगां लग जुद्ध स्यूं जूझी धरा तो प्यार चावै है।।
एटम जुद्ध बुझती झळां फेरूं क्यूं जगावै है।
हजारां बरस सूं उजड़ी धरा तो त्रांण चावै है।।
४९. नंदकिशोर:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४४ ई०) और सवाई माधोपुर जिलान्तर्गत ग्राम बंवली बिशनपुरा के निवासी हैं। इनके पिता का नाम ईश्वरीदानसिंहजी है। ये अपने नाम के आगे ‘नवाब’ लिखते हैं। आप चारण समाज के सक्रिय कार्यकर्ता हैं और विभिन्न प्रायोजनों में भाग लेते रहते हैं। आजकल आप राजस्थान विद्युत मण्डल में राज्य-सेवा कर रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि आप राजस्थानी, ब्रज तथा हिन्दी में कवितायें लिखने के साथ-साथ उर्दू भाषा में भी गजलें तथा रुबाइयां लिखते हैं। इसके अतिरिक्त कहानी तथा नाटक लिखने में भी आपकी रुचि है। एक रुबाई देखिये-
जो शख्स किसी शख्स के, काम नहीं आता।
उसका किसी की बज्म में, नाम नहीं आता।
महफ़िल के चांद होते हैं, अहले-वफ़ा ‘नवाब’।
गो ज़िन्दगी में उनको, आराम नहीं आता।।
और एक शे’र भी-
जीते जी तो हाल न पूछा, आज ये कैसी भीड़ लगी है।
‘नवाब’ तुझे अपने कांधों पर, आये हैं ले जाने लोग।।
५०. रामजीवनसिंह:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४५ ई०) और जयपुर जिलान्तर्गत ग्राम सेवापुरा के निवासी हैं। इनके पिता का नाम कवि जोगीदानजी है। इन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से एम० ए० हिन्दी की परीक्षा उत्तीर्ण की है। आजकल आप आकाशवाणी, जयपुर में पदाधिकारी हैं। सन् १९६५ ई० के भारत-पाक युद्ध के समय वीररस पूर्ण राजस्थानी कविताओं का जो संग्रह ‘मरण त्यूंहार’ के नाम से प्रकाशित हुआ, उसके आप सह-सम्पादक रह चुके हैं। इसी प्रकार आपने ‘नागदमण’ का भी सम्पादन किया है। ‘मूमल’ नामक राजस्थानी काव्य के सृजक आप ही हैं। इसके अतिरिक्त आपने ‘हठी हमीर’ के नाम से राजस्थानी में एक उपन्यास भी लिखा है। आप राजस्थानी की नवीन प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि साहित्यकार हैं। आप फुटकर रचनायें भी लिखते रहते हैं। यहाँ इनकी ‘हिये री हूंस’ एवं ‘सींधू राग रा बोल’ नामक लोक प्रचलित रचनाओं का एक-एक उदाहरण दिया जाता है-
ओ, म्हारा सांईना!
मैं हिवड़ा रा थाळ में प्रीत रो दीवो जोय,
आंसू रो अरघ जळ ले-
हरख री रोळी मेल
मिलण री हूंस रा आखा ले
घर रै दरवाजै ऊभी, थारी मंगळ आरती उतारूं
जे तूं भागते बैरी री पीठ देख आवै
लांबी भुजावां रो बंदणवार करूं
जाणै, आ हिये री हूंस कद पूरी होसी।।
जिका रण गंगा में सिनान कर
जलम भोम री लाज रै खातर
पुरखां रा लोही भर्या खांडा सू मांड्या इतिहास री
म्रजाद रै वास्तै
जुद्ध री जळती झाळां में कूद सहीद व्हैगा
जीवण नै, मायड़ री कूख रै सारथकता दी-अमर व्हैगा
उण जूंझारां रा सनमान मैं ही
सींधू राग रा बोल गूंजै।।
५१. सोहनदान:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४६ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम मथाणिया के निवासी हैं। इनके पिता का नाम शक्तिदानजी है। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई और वहीं से आपने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे उच्च शिक्षा के लिए जोधपुर आकर एम० ए० हिन्दी की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर शोध में मन लगाया। इसी विश्वविद्यालय से आपने ‘राजस्थानी लोक साहित्य का सैद्धांतिक विवेचन’ विषय पर पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। आजकल आप जोधपुर विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में सेवारत हैं।
सोहनदानजी एक परिश्रमी अध्येता हैं और स्वभाव से नम्र हैं। इनकी प्रारम्भिक रचनायें भक्ति-भावना से ओतप्रोत हैं। भगवती श्री करणीजी के जीवन-चरित्र एवं उनके प्रवाड़ों से सम्बन्धित रचनायें ऐसी ही हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्थानी गद्य के क्षेत्र में इन्हें प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसमें इन्होंने कहानी, निबन्ध एवं आलोचना की ओर विशेष ध्यान दिया। इसके अतिरिक्त व्यंग्य लिखने में भी पटु हैं। इनका ‘फगडा’ नामक व्यंग्य लेख प्रसिद्ध है। एक उदाहरण देखिये-
‘फगडा करौ अर पेट भरौ। इण घर आइज रीत। आज तांई रौ इतियास ई इणरी पूरी-पूरी साख देवै। भगवान रै भगवांनपणै री मैलायत फगडां रै चूनै अर गारै सूं चिणियोड़ी। पछै बापड़ौ नाकुछ मांनखौ फगडां रै पांण दो रोटी री जुगाड़ बैठावै तौ किणी नै किणी भांत रौ अैतराज नीं हूवणौ चाईजै। . . . . . सिरैपोत भगवांन रा फगडा इज चौड़ै आयोड़ा चोखा। किसन भगवांन– चोर-चोर, मन माडै ई माखणियौ मठोठणौ, गोपियां सू मसखरियां करणी, वांरी पारियां रा बटीड़ उठाय दईड़ौ ढोळांय देणौ, बंसली री तांन छेड़ गोपियां ने घर-बसू नीं राख परबस कर देणी, जमना रै कांठै बाछड़ा चारता थकां मखमल रै मांन कंवळी हरियल घास माथै लुटणौ अर किलकारियां करणी, वां इज रूप री रास, प्रीत री प्रांण गोपियां नै बिजोग री लाय में न्हांख मथरा में ठकरायत री मौजां माणणी !’
५२. वसुदेव:- ये देवल शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४८ ई०) और पाली जिलान्तर्गत ग्राम बासनी के निवासी हैं। इनके पिता का नाम बालूदानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा उच्चतर माध्यमिक स्तर तक सोजत में हुई। फिर जोधपुर विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में प्रथम आकर एम० ए० राजनीतिशास्त्र की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके लिए आप स्वर्ण-पदक से अलंकृत हुए। इतना ही नहीं, आपने शोध-प्रबन्ध लिखकर इस विषय में पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। सम्प्रति जोधपुर विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में व्याख्याता के पद को सुशोभित कर रहे हैं।
वसुदेवजी राजस्थानी भाषा एवं साहित्य में रुचि रखते हैं। आरम्भ में इन्होंने भक्ति भावनापूर्ण रचनायें लिखी हैं और जाति में प्रचलित अंध-विश्वासों एवं कुरीतियों पर व्यंग्य किये हैं। आजकल आप राजनीति, समाज-सुधार एवं विश्वव्यापी समस्याओं पर स्फुट रचनायें लिखते हैं। विषय वैविध्य की दृष्टि से ये रचनायें अवलोकनीय हैं। इनके गद्य का एक उदाहरण देखिये-
‘मातमा गाँधी नवा भारत री थरपणा वास्ते जिका दीठ दीनी ही अर जिका सुपना उणां देख्या हा वै सगळा आजादी मिळयाँ रै पछै ई अधूरा इज रैवता लाग रह्या हा इणरो कारण ओ हो के जिण अनुसासन पर मेहनत री इण खातर जरूरत ही उणसूं देसवासी अजांण इज हा। आपतकाल पांणी खातर तरसती खेती रै ज्यूं आयो। वे सगळी बातां जिणरी मुळक नैं लांठी जरूरत ही वे सगळी चीजां अब एक एक करने सामने आय री है। सरकार पण इसा पगळा लीधा है जिण सूं गरीब जनता री भलाई व्है सके पर पीढ़ियां लग जिण मुसीबतां माय रैयत फसियोड़ी ही उण सूं उणने मुगती मिळ सकै। आज सगळा आपरा फर्ज नै समझे, अनुसासन री कीमत नै जाणे अर मुळक रै खातर काम कर रहा है। ‘
५३. नारायणसिंह:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४९ ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम भदोरा के निवासी हैं। इनके पिता का नाम धनेसिंहजी है जिनकी देखरेख में इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव में हुई। आपने जोधपुर विश्वविद्यालय से एम० ए० हिन्दी की परीक्षा उत्तीर्ण की है (१९७४ ई०)। वर्तमान में चारण कवि कुंभकरण पर शोध कर रहे हैं।
नारायणसिंहजी का राजस्थानी भाषा एवं साहित्य से विशेष नाता है। इन्होंने एक वर्ष तक शिकागो विश्वविद्यालय में हिन्दी-प्राध्यापक डॉ० कालीचरण बहल के साथ राजस्थानी व्याकरण पर कार्य किया। इसके पश्चात् इसी विश्वविद्यालय के इतिहास-प्राध्यापक नोरमन पी० जिलगर के शोध-प्रबन्ध में सहायक के रूप में कार्य किया। इसके लिए इन्हें प्रमाण-पत्र मिले हैं। आजकल आप ‘राजस्थानी सबद कोस’ कार्यालय, जोधपुर में कार्यरत हैं। इन्होंने गद्य-पद्य दोनों में सेवा की है। पद्य में ‘सगती असुर संग्राम’, ‘छप्पय महभायरा’ एवं ‘नागौरी बैलां ने रंग’ उल्लेखनीय रचनायें हैं। आप फुटकर दोहा, गीत आदि भी लिखते हैं। गद्य में ‘हरोळ रौ हट’, ‘पेट रौ पंपाळ’, ‘एकांकी रसिया तीज रमाय’ तथा ‘राजस्थानी भासा माथै एक नीजर’ निबंध के नाम लिये जा सकते हैं। इनके गद्य और पद्य का एक-एक उदाहरण देखिये-
लळवळ भेवै लळकता, सुथरै डील सुचंग।
भारतवाळी भौम पर, नसल नागौरी रंग।।
अदहद चले ऊंतावळा, ढांण अनोखे ढंग।
भारतवाळी भौम पर, नसल नागौरी रंग।।
सुगट सिगाड़ी साकवर, ओपे पाखर अंग।।
भारतवाळी भौम पर, नसल नागौरी रंग।।
‘इण रळियावणी रुत में तीज रौ सुरंगौ तिवार आया करै। जद तीज री कोडीली तीजणियां कोयल सरीखा कंठ सूं गीतां रा धमरोळ उडावती थकी परदेसी पीव री बाटां जोवै। सरोदा लेवती काग उडावै। देवता नै बोलवा बोलै। जिकां रा साजन घर बसै वे म्रगानैणियां जोबन रा हचोळा लेवती थकी उनमत्त व्हैय रंगभीणी रुत रो रस लूटै। लागणियां लोयणां में अणियाळौ सुरमौ सारियां प्रितम रै गळै लाग रंगरळियां मनावै। घणे आदर सतकार सूं मदवा री गहरी मनवारां घणा थौरा कर-कर ने देवै। ‘. . . .
५४. लक्ष्मणदान:- ये किनिया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४९ ई०) और सीकर जिलान्तर्गत ग्राम मनरूपजी का बास के निवासी हैं। इनके पिता का नाम गणेशदानजी है। इनकी शिक्षा-दीक्षा प्रसिद्ध क्रांतिकारी ठाकुर कानसिंहजी बारहठ की देख-रेख में हुई। आपने बी० कॉम, एल-एल० बी तक शिक्षा प्राप्त की है। आजकल आप राज्य वित्त निगम जयपुर में कार्यरत हैं। ये राजस्थानी के प्रबल समर्थक हैं। कविता के क्षेत्र में प्रारम्भ से ही इनकी रुचि रही है। इनकी अधिकांश रचनायें भक्ति से साधर्म्य रखती हैं जिनमें भगवती स्तुति (चिरजायें) उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त ‘जैतरी जीत’ रचना भी लिखी है। अंग्रेजी भाषा को लक्ष्य करके कवि ने लिखा है-
चिरजीवौ इँगलिश मदर, अध्ययन ही गँभीर।
नेता हैं सब उसके सेवक, हम उनकी तसवीर।।
हम उनकी तसवीर कि मैडम बन गई देवी।
पापा डैडी पिता बन गये मुन्नी बन गई बैबी।।
कर स्टडी राणाजी नै क्यों मर-मर कर जीवो।
इँगलैंड भले ही छोड़ो देवि, पर भारत में चिरजीवो।
५५. सुखदेव:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४९ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम खारी खुर्द के निवासी हैं। इनके पिता का नाम रामदानजी है। इनका प्रमुख व्यवसाय खेती है। बाल्यावस्था से ही इनकी कविता की ओर रुचि रही है। इन्होंने अपने नाना स्व० पाबूदानजी (खराडी) से दोहे और फिर भजन लिखने सीखे। वर्तमान में आप देश-भक्ति तथा श्रृंगार की स्फुट रचनायें भी लिखते हैं। इनकी रचनायें अभी अप्रकाशित हैं। आप कवि-सम्मेलनों में भाग लेकर अपनी कवितायें मंच पर सुनाते हैं। उदाहरण देखिये-
आज कठै अरजी करसूं, सुध लेन यहाँ कोई मात हमारी।
जानत होय अजान भयो, माता भूल हुई हमसे बहु भारी।।
बालक मात तिहारो ही दास हूं, तार सके तो ले मात उबारी।
दे सुमती ‘सुखदेव’ कहै, (पुनि) मेटहु मात तूं चिंत हमारी।।
५६. चावण्डदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९५० ई०) और सीकर जिलान्तर्गत ग्राम दीपपुरा के निवासी हैं। इनके पिता का नाम मानदानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता की देख-रेख में घर पर ही हुई। आपकी श्रृंगार रस में बहुत रुचि एवं गति है। आपने स्फुट काव्यरचना की है जिसमें भजनों की संख्या अधिक है। यहाँ ‘चिरजा’ का एक नमूना दिया जाता है-
अम्बा म्हानै एक भरोसो थारो, म्हारा सब विध काज सँवारो।
देशणोक निज धाम दयानिध, निरधारां आधारो।।
आवत पात जात नित देवत, लेवत नाम तुम्हारौ।।
करनल नाम सगत किनियाणी, नासत ‘टेम’ निहारौ।।
कालो गोरो साथ लियां अब, लंकाळो ललकारौ।।
गावत चावण्डदान ध्यान धर, चाहत दरशण थारौ।
आवत जेज करी मत अम्बा, लाजै बिरद तुम्हारौ।।
५७ मदनसिंह:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९५० ई०) और सीकर जिलान्तर्गत ग्राम नरसिंहपुरा के निवासी हैं। इनके पिता का नाम आशकरणजी है। आप रामनाथजी कविया, तिजारा एवं ‘लावारासा’ के रचयिता श्री गोपालदानजी की वंश-परम्परा में से हैं। आपने बी० ए० तक शिक्षा प्राप्त की है। आजकल आप राजस्थान सहकारी स्पिनिंग मिल, गुलाबपुरा में कार्यरत हैं। इनकी लिखी हुई बहुत सी फुटकर रचनायें हैं जिनमें श्रृंगार एवं भक्ति रस की रचनायें मुख्य हैं। एक सवैया देखिये-
आप लिखी सिणगारहि के रस मैं रळियो दिन चारहि तांई।
चींठ रियो अलि अम्बुज ज्यूँ खुशबू दिनरातहि लैत सवाई।।
सोच सखा नित रोज पराग कहाँ पनपै अति भाग बड़ाई।
क्यूँ नहीं आप लई अपनाय सही समझाय मुझे ही बताई।।
५८. लक्ष्मणसिंह:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९५१ ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम खैण के निवासी हैं। इनके पिता का नाम चैनदानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा मारवाड़ मूंडवा के हाईस्कूल में सम्पन्न हुई। सम्प्रति राजस्थान राज्य पथ परिवहन निगम में कार्यरत हैं। इनकी लिखी हुई रचनाओं में ‘शक्ति सागर’, ‘गोविन्द गरिमा’, ‘विविध विलास’, ‘भारत-पाक युद्ध वर्णन’ आदि मुख्य हैं। इनकी करनीजी पर लिखी कविता का यह उदाहरण देखिये-
नमौ करणि हरणि दुख क्रोड़, जपूं तव नामज बै कर जोड़।
नमौ विरजाह रजा हथवीस, नमौ कुमुदा दुख दूर करीस।।
नमौ दुरगा गिरजा शिवनार, नमौ विमला भव तार निहार।
नमौ महमाय नमौ सुरराय, नमौ गवरि हिगळाज गिगाय।।
सारण कारज सेवगां, गज तारण गोबिन्द।
बेली भगता मन बसै, वंदू पद अरविन्द।।
५९. प्रकाश रामावत:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुई हैं (१९५२ ई०) और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम इंदोकली इनका जन्म-स्थान है। इनके पिता का नाम करणीशरणजी है। इन्होंने आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की है। आपका विवाह सूरजसिंह रामावत के साथ हुआ है। आप ज्योतिष विद्या की जानकार हैं। इनकी लिखी हुई फुटकर रचनायें प्राप्त होती हैं। हरिगीतिका छंद में लिखी हुई श्री करनीजी की स्तुति का यह अंश देखिये-
जय रूप भैरव हरनि भय जग श्याम गौर स्वरूपयम्।
चामुण्ड के अगवान चेलक आंच शूल अनूपयम्।
सिन्दूर चरचित अंग शोभा फूलमाल फबेसरी।
जय आद करनल जगत जननी आप माया ईश्वरी।।
६०. अर्जुनदेव:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९५४ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम मथाणिया के निवासी हैं। इनके पिता का नाम कवि रेवतदानजी है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा महेश स्कूल, जोधपुर में हुई। उच्च शिक्षा हेतु जोधपुर विश्वविद्यालय में इनका अध्ययन जारी है। अपने पिता के सदृश ये भी समाजवादी भावनाओं से प्रभावित हैं किन्तु वर्तमान राजनीति में कोई आस्था नहीं है। इन्होंने स्फुट रचनायें लिखी हैं जो अधिकांश में ‘ललकार’, ‘कन्ट्रोलर’ आदि पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित हुई हैं। इनकी कविताओं का विषय प्रेम अथवा प्रकृति है। कुछ रचनाओं में सामाजिक विसंगतियों पर भी प्रहार किया गया है। इनकी कविता का एक उदाहरण देखिये-
बांध हिये रो आज फूटग्यौ, भर्या नैण सुखाऊं कींकर।
रैयत भूखी मांगै रोटी, गीता सूं बिलमाऊं कींकर।।
जाग मुलक रा मोट्यार, मोह नींद रौ छोड़ दै।
चेत बगत रा अभिमन्यु, इण चक्रव्यूह नै तोड़ दै।।
६१. मोहनसिंह:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९५७ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम चौपासनी के निवासी हैं। इनके पिता का नाम अचलदानजी है। इन्होंने उच्चतर माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण की है (१९७५ ई०)। ये एक होनहार बालकवि के रूप में प्रकट हुए हैं और अच्छी कवितायें लिखते हैं। वर्षा के अभाव में इन्द्रदेव को उपालम्भ देता हुआ कवि अपने गीत ‘साणौर प्रहास’ में कहता है-
प्रथम पुछू पण जोड़ने बातड़ी पुरन्दर,
बसुधा तुझ्झ बिन कोय बीजो।
कोपियो मरु मे आज किण कारणे,
देवपत खुलासो भेव दीजो।।
पोढीयो नंचितो आप हुय पाधरो,
राजवी आज किण काज रुठो।
काळ री झाळ में मोनखो कळकळे,
बसुधा छोंट नी मैह बूठो।।
परिशिष्ट
६२. गुलाबदान:- ये खिडिया शाखा में उत्पन्न हुए हैं और झुंझनू जिलान्तर्गत ग्राम सादूलपुरा के निवासी हैं। दुर्भाग्य से अभी हाल ही में इनका निधन हुआ है (१९७५ ई०)। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।
६३. गोपीदान:- ये वीठू शाखा में उत्पन्न हुए हैं और बीकानेर जिलान्तर्गत ग्राम देशनोक के निवासी हैं। इन्होंने स्फुट काव्य-रचना की है जिसमें वीरगति प्राप्त मेजर शैतानसिंह पर लिखी कविता प्रसिद्ध है।
६४. शंकरदान:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए हैं और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम रामासणी के निवासी हैं। इन्होंने फुटकर कवितायें लिखी हैं।
६५. ब्रजलालसिंह:- ये गाडण शाखा में उत्पन्न हुए हैं और झुंझनू जिलान्तर्गत ग्राम दुलसाच के निवासी हैं। इन्होंने पाबूजी पर शोध-ग्रन्थ लिखकर पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की है। सम्प्रति सेठ पोद्दार कॉलेज, नवलगढ़ में प्राचार्य हैं। इनकी फुटकर रचनायें महत्त्वपूर्ण हैं।
६६. तेजदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम बिराई के निवासी हैं। इनके पिता का नाम रामदानजी है। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।
६७. शंकरसिंह:- ये आसिया शाखा में उत्पन्न हुए हैं और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम भांडियावास के निवासी हैं। इन्होंने ‘मयाराम दर्जी री वात’ का शुद्ध संस्करण प्रकाशित किया है। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।
६८. अखैदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम बिराई के निवासी हैं। इनके पिता का नाम खुशालदानजी है। इन्होंने फुटकर कवितायें लिखी हैं।
६९. भिक्षुदान:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९३२ ई०) और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम चौपासनी के निवासी हैं। इनके पिता का नाम जसदानजी है। आप संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी तीनों के जानकार हैं। अभी आयुर्वेदिक औषधालय में वैद्यक का कार्य करते हैं। इनके पास बहुत से हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। इन्होंने फुटकर कवितायें लिखी हैं जिन्हें ये सस्वर मंच पर सुनाते हैं।
७०. सूर्यदेवसिंह:- ये बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए हैं और अलवर जिलान्तर्गत ग्राम माहुंद के निवासी हैं। इनके पिता बलवंतसिंहजी उच्चकोटि के कवि गिने जाते हैं। इन्होंने एल-एल० बी तक शिक्षा प्राप्त की है। आप एक सुशिक्षित, प्रतिष्ठित, प्रगतिशील एवं प्रभावशाली व्यक्ति हैं। अपने क्षेत्र के लोकप्रिय काँग्रेसी नेता हैं तथा पंचायत समिति के प्रधान हैं। साथ ही वकालत भी करते हैं। कृषि के क्षेत्र में इन्हें भारत सरकार ने ‘पद्म-श्री’ की उपाधि से अलंकृत किया है। आप राजस्थानी एवं हिन्दी दोनों में सुन्दर रचनायें लिखते रहते हैं जो जन-समाज में प्रिय हैं। कवि-मंच पर जमने वाले कवियों में आप अग्रणी हैं।
७१. सोमकरण:- ये वणसूर शाखा में उत्पन्न हुए हैं और जालोर जिलान्तर्गत ग्राम मोतीसरी के निवासी हैं। इनके पिता का नाम दुर्गादानजी है। इन्होंने फुटकर प्रशंसात्मक गीत लिखे हैं।
७२. चंद्रप्रकाश:- ये देवल शाखा में उत्पन्न हुए हैं (१९४८ ई०) और ग्राम गोटीपा (उदयपुर) के निवासी हैं। इनके पिता का नाम भूरसिंहजी है।
आपने एम० एस-सी० परीक्षा रसायन-शास्त्र में उत्तीर्ण की है। इनकी स्फुट रचनायें मिलती हैं।
७३. गिरधारीदान:- ये उज्वल शाखा में उत्पन्न हुए हैं और बाड़मेर जिलान्तर्गत ग्राम भीयाड़ के निवासी हैं। इन्होंने फुटकर प्रशंसात्मक कवितायें लिखी हैं।
७४. इन्द्रदान:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए हैं और जैसलमेर जिलान्तर्गत बारहट रो गांव के निवासी हैं। इन्होंने राजस्थानी की एक नई वर्णमाला बनाई है।
७५. मनोहर:- ये लालस शाखा में उत्पन्न हुए हैं और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम नैरवा के निवासी हैं। इन्होंने विज्ञान में बी० एस-सी० तक की शिक्षा प्राप्त की है। आजकल आप रूपायन संस्थान, बोरूंदा में कार्यरत हैं। इनकी पत्र-शैली सुन्दर है।
७६. लूंगीदानसिंह:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं और सीकर के निवासी हैं। सम्प्रति रींगस राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक हैं और फुटकर रचनायें लिखते हैं।
७७. हिम्मतसिंह:- ये मिश्रण शाखा में उत्पन्न हुए हैं और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम गवारडी के निवासी हैं। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।
७८ नाथूसिंह:- ये सांदू शाखा में उत्पन्न हुए हैं और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम हिलोड़ी के निवासी हैं। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।
७९. अंबादान:- ये देपावत शाखा में उत्पन्न हुए हैं और बीकानेर जिलान्तर्गत ग्राम देशनोक के निवासी हैं। इनकी फुटकर रचनायें मिलती हैं।
८०. चैनदान:- इनकी शाखा का पता नहीं चला किन्तु ये नागौर जिलान्तर्गत ग्राम गावड़ा के निवासी हैं। इनके पिता का नाम हरदानजी है। इन्होंने फुटकर मरसिया-काव्य लिखा है।
८१. माधौदान:- ये कविया शाखा में उत्पन्न हुए हैं और जोधपुर जिलान्तर्गत ग्राम बिराई के निवासी हैं। इन्होंने फुटकर काव्य-रचना की है।
८२. रामसिंह:- ये रतनू शाखा में उत्पन्न हुए हैं और नागौर जिलान्तर्गत ग्राम जीलिया चारणवास के निवासी हैं। इनकी फुटकर कवितायें मिलती हैं।
यह है आज के चारण का नव-चरण ! यह देखकर हर्ष होता है कि वह आज देश की पीड़ा एवं निराशा को पहचानने लगा है और जन-समाज की ओर बढ़ रहा है लेकिन अभी वह मार्ग में ही है। विश्वास है कि स्वतंत्रता के नवीन वातावरण में विकसित राजस्थान का चारण साहित्य राष्ट्रीय अभ्युत्थान के लिए विगत काल के सदृश उपादेय सिद्ध होगा। चारण राष्ट्र-निर्माण एवं सामाजिक चेतना का प्रहरी बनेगा। अस्तु,
।।इति।।
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