चारणों के गाँव – हरणा, मोलकी तथा हाड़ोती के अन्य मीसण गाँवों का इतिहास

बूंदी राज्य में बारहट पद सामोर शाखा के चारणों के पास था परन्तु भावी के कर्मफल से उनकी कोई संतान नहीं हुई तथा कालांतर में उनका वंश समाप्त हो गया।

इस समय मेवाड़ में दरबारी कवि ईसरदास मीसण थे जिनके पूर्वज सुकवि भानु मीसण से उनके सत्यवक्ता बने रहकर मिथ्या भाषण करने के अनुरोध को नहीं मानने की जिद से कुपित होकर चित्तौड़ के तत्कालीन राणा विक्रमादित्य ने सांसण की जागीर के मुख्य गाँव ऊंटोलाव समेत साथ के सभी उत्तम गावों की जागीर छीन कर केवल रीठ गाँव उनके लिए छोड़ दिया था। जब उदयपुर में ईसरदास मीसण से तत्कालीन महाराणा प्रताप ने बहुत आग्रह पूर्वक उस घटना का निर्भय होकर सत्य वर्णन दुबारा करने को कहा तो कवि ने भूतकाल की उस घटना का साहस पूर्वक काव्यमय वर्णन किया तथा इस बात को जोर देकर बताया कि किस प्रकार हाड़ा राजा सूर्यमल को महाराणा रत्नसिंह ने छल-कपट पूर्वक मारा था। सत्य का पक्ष लेकर उस कवि ने राणा रत्नसिंह का कुयश और हाड़ा राजा सूर्यमल का सुयश प्रचारित करने वाला काव्य रच कर सुनाया। अपने स्वामी को पापी कहने के पश्चात उसका आश्रित बने रहना नीतिगत नहीं होता ऐसा मानकर ईसरदास मीसण अपने सांसण के गाँव ऊंटोलाव को त्याग कर मेवाड़ छोड़ जोधपुर (मारवाड़) की ओर चल दिए। महाराणा ने उनको फिर से सारे गाँव देकर रोकना चाहा परन्तु उन्होंने स्वीकार नहीं किया।

इधर बूंदी में हाड़ा कुमार भोजराज ने जब यह वृतांत सुना कि ईसरदास मीसण मेवाड़ छोड़ कर मारवाड़ जा रहे हैं तो उसने यह समाचार अपने पिता काशीराज सुर्जन सिंह को भिजवाया (काशी की जागीर हाड़ा सुर्जनसिंह को अकबर से प्राप्त हुई थी)। काशी से हाडा राजा सुर्जनसिंह का निर्देश पाकर कुमार भोजराज ने बूंदी के मंत्री दौलत सिंह तथा जोगीदास दहिया को मीसण कवि को बूंदी लिवा लाने के लिए भेजा। बूंदी के मंत्री गणों ने कवि से सावर नामक नगर में मुलाकात करी तथा खूब शपथें दिलवाकर कवि को मनाकर बूंदी जाने वाली राह पर मोड़ दिया। बड़ोदपुर के पास वाले पर्वत के दक्षिण दिशा वाली घाटी तक दो मील चल कर हाडा कुमार भोज कवि ईसरदास मीसण की अगवानी करने सम्मुख आया। इस तरह ईसरदास मीसण को बूंदी लाकर कुमार ने अपना अभिप्राय कहा कि है सुकवि अब आप बूंदी में ही रहें पर कवि को कुमार का यह भाव-भरा प्रस्ताव पसंद नहीं आया। तब कुमार ने कवि से कहा कि पहले आप मेरे साथ काशी (पिता के पास) चलें फिर वहाँ से जहां आपकी इच्छा हो वहां जाने के लिए आप स्वतंत्र हैं। इसी बहाने हम लोग कुछ समय साथ-साथ गुजारेंगे और काशी का तीर्थाटन भी हो जाएगा।

इस तरह समझाकर कुमार भोजराज कवि ईसरदास मीसण को अपने साथ काशी ले आया। काशीराज हाड़ा सुर्जनसिंह भी महल के मुख्य द्वार तक कवि की अगवानी के लिए आया और कवि को साथ लेकर महल में गया। अनुकूल समय पाकर हाड़ा राजा सुर्जनसिंह ने कवि मीसण से निवेदन किया कि हमारे हाड़ा कुल के बारहट धीर सामोर का निसंतान निधन हो गया तथा उन्होंने अपने वंश के किसी बालक को गोद भी नहीं लिया है। इसलिए हमारा अनुरोध है कि आप इस कुलवृत्ति को धारण करने की कृपा कर हाड़ाओं का बारहट पद ग्रहण कीजिये। राजा के इस तरह अधिक इसरार करने पर कवि ने राजा का प्रस्ताव मान लिया और बारहट बनना स्वीकार कर बूंदी को अपना घर बनाने का निश्चय किया। कुमकुम और मोतियों से तब राजा ने कवि के पांवों की पूजा की। राजा ने कवि के दरबार में आते समय और जाते समय ताजीम देना नियत किया। बामन खेडा और भीम खेडा नामक मऊ नगर के समीप दो गाँव जागीर में दिए और अपने राजमहल के समीप बनी एक हवेली भी दी। राजा ने यह सब पट्टे में लिख कर दिया और कवि के साथ “महा” का विशेषण लगाने का अर्थात “महाकवि” का उपटंक स्थिर रूप से प्रदान किया। इसके अलावा राजा की मृत्यु के अवसर पर उसका कुमार निमंत्रण पत्र से आमंत्रित करेगा। कवि के घर विवाह और मृत्यु के अवसर पर राजा उसके घर जाएगा ऐसा कायदा भी निश्चित किया। यह सब कुछ देकर राजा ने इस कवि के ललाट पर मोतियों के अक्षत लगाकर उसे अपना प्रिय पोलपात नियुक्त किया।

सन्दर्भ: वंश भास्कर (महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण)
।।दोहा।।
कवि मन्नि नृप के कहत, अति आग्रह करि एह।
हव हड्डन कुल बारहट, गिनि बुंदिय निज गेह।।
कुंकुम मुक्ता प्रमुख करि, पूजि सु पहु कवि पाय।
थिर जो दिय जो पुनि अथिर, राम सुनहु नरराय।।
आत जात गौरव उभय, मिलत हि अप्प महीप।
बलि दुव सासन वृत्ति मैं, दये दुलभ कुलदीप।।
बम्हनखेट स नाम बलि, भीमखेट धन सूरि।
द्रंग मऊ के ग्राम दु, पहु अप्पे हित पूरि।।
निलय राजमंदिर निकट, उचित हवेली अप्पि।
छम कुटुंब सब लेखछद, थिर महादि दिय थप्पि।।
अधिप मरन कुमरहिं उचित, दल रू निमंत्रन देन।
व्याह मरन मुख हेतु बलि, आवन नृप कवि अैन।।
सब इतिमुख आदर सहित, दै समुचित सब देय।
अच्छत मुक्तिय दै अलिक, पोलिपात्र किय प्रेय।।

पूर्व में हाड़ा राजा समरसिंह ने अपने सामोर कवि केशवदास को बरोदा के परगने में छः गाँव सांसण की जागीर के प्रदान किये थे। वे छह गाँव भी कवि ईसरदास को ही प्राप्त हुए। ये छः गाँव थे काछोला, रोसुन्दा, हरणा, दोड़ुंदा, गिंडोली और चम्पकखेड़ा। इन छः गाँवो को आमदनी के हिसाब से कमतर मानते हुए छः और गाँव कवि ईसरदास को दिए गए जो इस प्रकार हैं – लबान, देवीखेड़ा, दुपटखेड़ा, पर्पटखेड़ा, वक्रपुर और रामपुर। इस प्रकार २+६+६=१४ अर्थात चौदह गाँव राजा ने ईसरदास मीसण को दिए।

तदुपरांत राजा ने कवि का पाँव अपने कंधे पर रखवा कर उसे हाथी पर आरूढ़ किया और कवि के डेरे तक पहुचाने गया। विक्रमी संवत के वर्ष सोलह सो चालीस में उपरोक्त वर्णित वैभव प्राप्त कर मीसण शाखा के चारण हाड़ा कुल के बारहट नियुक्त हुए।

सन्दर्भ: वंश भास्कर (महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण)
।।दोहा।।
पय निज कंध दिवाइ पहु, इभ चढ़ाइ इम अक्खि।
पहुंचाए डेरन प्रथित, राजा स्व बिरुद रक्खि।।
सक ख बेद रस ससि समय, गहि इम बैभव ग्राम।
हुव हम तुम कुल बारहट, रसा रमन प्रभु राम।।

कालांतर में राजा सुर्जनसिंह के पश्चात कुमार भोजराज ने राजगद्दी पायी जिनसे उनके पुत्र हाड़ा रत्नसिंह को मिली। राजा रत्नसिंह के पश्चात बूंदी का राज्य उनके पुत्र शत्रुसाल को मिला किन्तु उनके अन्य पुत्र हाडा माधवसिंह द्वारा दक्षिण विजय में बादशाह की सहायता करने के लिए बादशाह के आदेश पर बूंदी राज्य में से एक बड़ा क्षेत्र निकाल कर कोटा राज्य की स्थापना की गयी और माधवसिंह को कोटा का राज्य प्राप्त हुआ।

इधर इसरदास मीसण के देहावसान से पश्चात उनकी जागीर का स्वामी परशुराम मीसण हुआ। कोटा राज्य अलग बनने पर राजा माधवसिंह हाड़ा ने परशुराम से विनम्रतापूर्वक कहा कि तुम्हे एक भाई या पुत्र हमारे साथ भेजना पडेगा। यह सुन कवि परशुराम ने कहा कि आपका कुल बड़े विस्तार वाला है तथा कवि (चारण) तो अल्पसंख्यक होते हैं अतः ये नयी परंपरा स्थापित ना की जाये। परन्तु इस पर भी हाड़ा माधवसिंह ने अपना हट नहीं छोड़ा तो राजा के निर्देश की मर्यादा रखते हुए परशुराम मीसण ने अपने छोटे भाई खांदल को साथ जाने का कहा।

मीसण खांदल भी यह सोच कर कोटा जाने को तैयार हो गया कि राजाओं के वंश की तरह बूंदी में तो उसका बड़ा भाई पाटवी बना हुआ है तथा उसे अपनी जागीर में से बराबर हिस्सा मिलने की संभावना नहीं है अतः खांदल अपने पुत्र मानसिंह सहित हाड़ा राजा माधवसिंह के साथ कोटा आ गया। खांदल मीसण ने कुछ ही माह की अवधि में देह त्याग दी तब राजा ने उसके स्थान पर स्नेहपूर्वक उसके पुत्र मानसिंह मीसण को अपना कविराज स्थापित किया।

इससे पूर्व राजा माधवसिंह  ने बादशाह से चार परगनों की लिखित बख्सीस प्राप्त की थी और साथ ही तीन हजारी मनसब प्राप्त किया था। सम्मान के अतिरिक्त वह गुग्गैर के गढ़ की जागीर पाने में भी सफल रहा था। बादशाह से अत्यंत प्रीति पाने तथा अचानक इतनी सफलता पा जाने से कोटा आते ही हाड़ा राजा का गर्व बढ़ आया जो धीरे धीरे दर्प में बदल गया। राजा माधवसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह जयपुर के कछवाहा राजा के साथ किया। इस अवसर पर राज्य के कविराज मानसिंह मीसण ने राजा की पूरी बारात को स्वरुचि पूर्ण भोज दिया। इस विवाह के बाद और बादशाह का स्नेह पाकर राजा माधवसिंह ने स्वयं को भी बूंदी और जयपुर के सद्रश्य बड़ा राजा मानना शुरू कर दिया। मानसिंह मीसण द्वारा आयोजित भोज को देख कर राजा नृपत्व गर्व से इर्ष्या वश खफा हो गया। मानसिंह मीसण के भाइयों का ही परिवार बूंदी रहता था जिसके फलस्वरूप वो अक्सर बूंदी भी आया जाया करते थे यह बात भी राजा माधवसिंह को नागवार गुजरती थी।  उसके मन में यह धारणा भी घर कर गई थी कि कविराज का बूंदीराज शत्रुसाल से मन ही मन अधिक स्नेह है।

हाड़ा राजा माधवसिंह ने मानसिंह मीसण से कहा कि तुम हमारे बारहट हो इसलिए तुम्हे अन्यत्र कहीं से कुछ पाने की आशा नहीं रखनी चाहिए। तुम्हे बूंदी नगर और लबानपुर बार बार जाकर ठहरना भी नहीं चाहिए वहां से गुजरो भले ही। राजा के साथ ठगी का व्यवहार ना कर तुम्हे स्पष्ट यह जान लेना चाहिए कि अन्न जल तुम्हे मुझ राजा द्वारा ही प्रदत्त है। प्रत्येक अवसर पर तुम्हारा बूंदी जाना लगभग तय रहता है। यदि तुम्हे हमारे कुल की वृत्ति रखनी है तो अपने प्राणों को कहीं अन्यत्र नहीं लगाना होगा। यह सुनते ही कवि ने खीज कर कहा कि गर्व हमेशा कम भूमि वाले को ही ग्रसित करता है। आप भले ही गर्व के मद में बढ़ चढ़ कर डींगे मार लें पर आप बूंदी के बराबर नहीं बढ़ सकेंगे। आप भी जाने योग्य जगह पर नहीं जाने देकर अपयश अर्जित कर रहे हैं। वहाँ जाने देने में ही आपका यश है। आप और कीर्तिवान होंगे। यह सुनते ही माधवसिंह को गुस्सा आ गया। उसने खीज कर कविराज पद छीन लिया और अपने यहाँ से मिलने वाले सारे नेगों पर रोक लगा दी। उसने मीसण कवि की जागीर (सांसण) के तीन गाँव जब्त कर उसके निर्वाह के लिए एक छोटा सा गाँव मोलकी को सांसण में रख कर कहा कि अब जहां जाने का तुम्हारा मन करे वहाँ जाने को स्वतंत्र हो।

इस तरह मीसण (मिश्रण) कुल के कवि मानसिंह से अपने कुल अर्थात हाड़ा कुल की वृत्ति छीन कर हाड़ा राजा माधवसिंह ने उसकी जगह पर लक्ष्मीदास महियारिया को अपना कविराज बनाया और उसे चार गाँवों की जागीर अता कर समृद्ध बनाया। इसी दिन से माधानी वंश (माधवसिंहउत) के हाड़ाओं से प्राप्त होने वाले सारे नेग मीसणों को मिलने बंद हो गए और आने वाले समय के लिए वे सारे नेग महियारिया शाखा के चारणों को भाग्यबल से मिलने लगे। इसी कारण से महियारियों के साथ मीसणों का विरोध हो गया जो शनेः शनेः बढ़ता गया पर जब महियारियों ने अपने वंश की तीन कन्याओं का विवाह मीसण कुल में कर दिया तो विरोध समाप्त हो गया और वे सुख पूर्वक मेलजोल के साथ रहने लगे।

सन्दर्भ: वंश भास्कर (महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण)
।।दोहा।।
पुर बुंदी रू लबान पै, रुकिहै गमन न रंच।
अन्न दकों कहि दे अधिप, बिनु नृप पदहु अबंच।।
हम भूपति तुम बारहट, उज्झहु ओरन आस।
अक्खिय कवि सुनतहि अनखि, गर्वहु जिन लघु ग्रास।।
बुंदी सम कबहु न बढहु, जिन गर्बहु मद जोर।
स्वीकृत तुम कुल कृत्ति सन, असु रक्खन तजि ओर।।
प्रति ओसर तुमकों हु पुनि, बुंदी गमन बिधेय।
गम्य रोध अपजस गहत, गमन बहत जस गेय।।
यह सुनतहि माधव अनखि, तंहं कवि वृत्ति उतारि।
छिन्नि त्रि सासन मुख्य छिति, मान मानपन मारि।।
मित कर ग्राम जु मोलखी, सो तस रक्खि सदाहि।
अक्खिय कवि सब ठां अटहु, अब तुम रोध न आहि।।
लघु निबसथ इक मोलखी, इनके रक्खि अधीन।
छिन्नि इतर सब किय छमहु, मिश्रन तनु जल मीन।।
मिश्रन कुल कवि मान तैं, निजकुल वृत्ति निवारि।
दिय कवि लखमीदास को, चहि सासन बसु च्यारि।।
माधानिन सन तब मिटे, नियत मिश्रनन नेग।
अरु पाए महियारयन, बिधि उदर्क लहि बेग।।
इम मिश्रन महियारयन, बढिगो तबहि बिरोध।
तामैं व्याहि कनीन त्रिक, बहुरि लयो सुख बोध।।

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One comment

  • vaibhav singh

    समान बाई जी के सोळा राम जी के गीत कृपिया पोस्ट करे

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