चारणों की आपसी मसखरी ! – राजेंद्र सिंह कविया

आज के समय में यह सब बातें संभव नही हैं न ही पहले जैसा अपनापन, हेत, प्यार, मनवार व मर्यादा। अब तो आपाधापी व भागम भाग ही लगी रहती है, हमारे दादासा हथाई जमाकर के पुराने समय की बातें बताया करते थे, उनमें से एक छौटा पर आपसी मजाक का सुंन्दर प्रसंग है किः…….
पालावत बारठों की जागीरदारी का गांव हणुतिया पर भगवती श्रीकरणीजी व हनुमान जी की कृपा थी। जागीरदारी समय में वहां पर बड़े ठाट-बाट थे। चौक में चारों तरफ हवेलियां, प्रोऴ आदि बनी हुई थी। बीच के बड़े चौक मे एक हथाई का बड़ा व पक्का चबूतरा जिस पर बैठने की कुर्सियां बणी हुई, अलाव तापने के लिए भी निश्चित व पक्का स्थान, बालाबक्सजी बारहठ जैसे गुणी विद्वान। हथाईयों के मेऴे व सगे गिनायतों का आना जाना लगा ही रहता था।
पालाजी चारण के चार बेटे थे 1-केसोदासजी, 2-गिरधरदासजी, 3-भूधरदासजी, और 4-बनमाऴीदासजी जिनसे चारों के वंशज खूब फल फूल रहे हैं।
इनके भी अलग अलग गांवो से उतरोतर वंश वृध्दि हो रही है, यथाः….. एक बार गांव हणूतिया मे आस पड़ोस के सभी सजातिय व अन्य सज्जनों का एक पर्व पर आने का संयोग हुआ। हथाई का मेऴा मंडा चौक के पास में कुआ बना था उसमें रस्सी से बालटी लगा कर भूणी पर से रस्सी को खेंच कर पाणी निकालने की प्रक्रिया चल रही थी। भूणी जिसे चाकला भी कहते हैं आवाज कर रहा था। पाणी भरकर बालटी या चड़स बाहर आते समय आवाज धीमी व अलग होती है वापसी में खाली चड़स वेग से जाता है तो आवाज अलग होती है।
वहां विराजित एक कवि ने प्रस्ताव किया कि सब कवि कल्पना करो किः…..
“यौ चाकलौ कांई कह रैयो छै?”
सभी ने जैसी जिनकी बुध्दि मत्ति अनुसार ही चाकले की आवाज को कल्पना से व्यक्त किया। सेवापुरा के कई कविया सरदार भी वहां पर थे, वे चुपचाप बैठे रहे, उनकी चुप्पी पर सभी को बड़ा अचम्भा हुआ तो वहां पर आये हुए एक सांन्दु सरदार ने कहा कि “ये कविया कोन बोल या कांई बात छै याने कोई भी बात कैंयां कोन उकलै”
कविया सरदार ने उतर दिया कि “साब उकलै तो छै पण पालावतां का पावणा छां ज्यो म्हांसूं तो यो चाकलो ख छै बा बात कही कोने जाय, यां के ही तो आयेड़ा छां अर यां की ही…..”
इस तरह काफी समय सस्पैंस पैदा करवाकर सभी सगा गिनायतों को अच्छी तरह मनुहार कराने के बाद बोले कि-
“आप सगऴा ही कहबा क लिय मजबूर करो छो तो कहद्यां छां, यो चाकलो कहरयो छै–
(कुए में चड़स वापसी मे जाते समय)
केसो, केसो, केसो, केसो, केसो, केसो, केसो, केसो, (आवाज की गति बढाते हुए ) केसो, केसो गिरधर, भूधर बनम्म्म्म्माऴ्ल्ली ह्हो।
या कह रैयो छै।”
इस तरह उन की कल्पना पर सभी सरदारों का हंसी का दौर चल पड़ा व पालावत सरदारों ने भी हंसने में साथ दिया अब कहां वे हंसी ठठ्ठे और कहां वह आपस का प्रेम अपनापन अब तो जुल्मी जमाने मे सभी बातें बीते जमानें की हो गई हैं।
~~राजेंद्र सिंह कविया (संतोषपुरा – सीकर)