छका मनका गज़ाला – गज़ल

उसे फिर तोड डाला जा रहा है।
अंगारों पे उबाला जा रहा है।।१
गलाकर मौम की मानिन्द कुंदन,
नये जेवर में ढाला जा रहा है।।२
कोई रोको वो पतझड का पयंबर,
बिना ओढे दुशाला जा रहा है।।३
वो सच में सल्तनत का हुक्मरां है,
पे दरबां हुक्म टाला जा रहा है।।४
गुलो बू,रंग-ए-तितली में भरा खत,
लिफाफे से निकाला जा रहा है।।५
कफस में छटपटाता छोड पंछी,
लगा सैयाद ताला जा रहा है।।६
कि उसका नूर हर सू ही खलक में,
किये रोशन उजाला जा रहा है।।७
रदीफ-औ-काफिया से दोसती रख,
गज़ल का शौख पाला जा रहा है।।८
मिराज-ए-फन के पीछे शायरी के,
छका मन का गज़ाला जा रहा है।।९
जगत की उलझनों को छोड” नरपत”
वो मह पर कौन साला जा रहा है?।।१०
©वैतालिक