चिरजा – देशनोक दर्शन की आकांक्षा पुर्ती की – हिंगऴाजदानजी जागावत

अनेकानेक चारण कवियों ने माँ भगवती का भक्ति साहित्य सृजन किया है जिसमें अलंकार युक्त अजब अनूठी चिरजा, छंद, दोहा, सोरठा गीत, अनेक प्रकार की विधाएं दृष्टिगोचर होती है परन्तु इन सभी में चिरजाओं की अपनी एक प्रकार की अलग ही जगह है सुमधुर कंठ वाले भक्तगण इसका संम्पूर्ण रसास्वादन कर सकते हैं और करते भी हैं।

चारण जाति, जोगमाया भगवती श्रीकरणीजी के मढ देशनोक में ही सभी सनातनधर्मी तीर्थों का समावेश समझती है और यहां आकर सभी तीर्थों की यात्रा का पुण्यफल महसूस करती है। आज से लगभग 70-80 वर्ष पहले जब संचार एंव यातायात के साधनों की बहुतायत नहीं थी, तब राजस्थान व भारत के सभी क्षेत्रों से चलकर देशनोक आना सुगम सहज नहीं था। परन्तु हर भक्त की आकर दर्शन करनें की आकाँक्षा बनी रहती थी।

इसी भाव को लेकर भक्त कवि हिंगऴाज दान जी जागावत नें अपने मन मानस की तथा अहरनिश भव भय भंजनी के चरणारविंद में रहकर माँ के दर्शन करते रहने की कल्पना की है कि हे माँ मेरा आना नहीं हो रहा है और तेरे दर्शन की रात दिन इच्छा रहती है अतः आप मुझे अपनें श्रीमढ में काबो बनाकर रखलो मैं वहीं पर रह लूंगा और आपके दर्शन, चिरजा श्रवण खेल कूद आदि सभी वहीं पर होकर मेरा जन्म धन्य व कृतार्थ हो जायेगा इस भाव की चिरजा आदरणीय जागावतजी की।।

।।छप्पय।।
देशनोक निरदोख, थोक निर्जर जंह थावै।
औक-औक ते लौक, अम्ब अवलोकन आवै।
लखिकरनी रवीलोक, कोकनंद हिये खिलावै।
लोयणकिरण विलोक, कोकमनकवि हरखावै।
सब शोक विहाय अशोक व्है, धाय नाय सिर धोक दै।
सुनि घोक घंट झालर श्रवण, झुकि चरणन मन झोक दै।।

।।सोरठा।।
जोगण मत जाणैह, मो ओगण मेहासदू।
दरषण देशाणैह, बेगा दीज्यो बीस हथी।।1।।
मन देशाणैं रे मगां, हगां मगां घण होय।
जग मांही ऐङी जगां, दृगां न देखी दोय।।2।।
करनादे काबोह, मंढ में कर राखो मनैं।
अऴगांसूं आबोह, बणै कदैकद बीसहथी।।3।।

।।चिरजा।।
करो जगदम्ब मोहि काबो,
हुवै नां दूर सूं आबो।।टेर।।

पङछायां पङियो रहूं, मन रहे मूरति मांय।
फिरूं फलांगां जा पङूं, छतरां हंदी छांय।।
कहै कुण मोद को माबो।।1।।

खेल करूं कदमां खनै, खटब्यंजन खांऊतीस।
कबुक होय बैठूं खुशी, सजनां हंदै सीस।।
सूरत को होत सरसाबो।।2।।

बैठूं निज मंदिर बारणै, कनक कपाटां खास।
जोतसमय जहांजायके, आई राखूं घण आस।।
गुणो गुण सेवकां गाबो।।3।।

सुंन्दर राग सवासण्यां, गावत हद गम्भीर।
करजोङ्यां कविता कहे, ऊभा अधिक अमीर।
चहूँ नहीं नींद को चाबो।।4।।

सोख्योसंमद अगस्तज्यूं, श्रीआवङ सुरराय।
कहूँ जकां दर्शण करूं, लोचन अधिक लुभाय।
हुकम को होत फरमाबो।।5।।

कबुक चौक कुदूंघणो, दे निज कदमां धोक।
धजबन्द रो मंढ देखतां, सौ सुख ना सुरलोक।
तपस्या झूंठौ तन ताबो।।6।।

आठैं नौमी नौरतां, रच नृत्य करत सु माय।
जगत अखाङै जैणरो, जब देखूं जगमांय।।
औही हिंगऴाज को चाबो।।8।।

करो जगदम्ब मोही काबो,
हुवै नां दुर सूं आबो।।टेर।।

~~कवि हिंगऴाजदानजी जागावत
प्रेषित: राजेंन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर (राज.)

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