चित्तौड़ का साका और राव जयमलजी – राजेंन्द्रसिंह कविया (संतोषपुरा-सीकर)

जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी के पुत्र दूदा ने मेड़ता में राज्य कायम किया और दूदाजी से दूदावत मेड़तिया खांप चली। जोधपुर के राज्य में इनके बहुत से प्रसिध्द ताजीमदार तथा साधारण श्रैणी के ठिकाणे व बहुत ही सैनिक संख्या हुई है व अनेकानेक वीर शिरोमणी यौध्दा भी हुऐ हैं जिन्होने इतिहास रच दिया है और अमर नाम कायम कर दिया है। शक्ति, भक्ति व सूरमां इन तीनों की त्रिवेणी दूदाजी के वंशजो के बीच अविरल बहती रही है।
इसी वंश के जयमलजी मेड़तिया युध्द विद्या में प्रवीण विसारध हुए जो प्रतापी राव मालदेव से अनेक युध्द करके उनके हमलों व अत्याचारों से तंग आकर मेड़ता छोड़कर उदयपुर महाराणा उदयसिंहजी की सेवा में चले गए एवं वहां पर अपनी शौर्य वीरता दिखाकर स्वर्णिम इतिहास में नाम कायम कर दिया। आज भी यदा कदा चित्तौड़ की वीरता की गाथाओं के साथ जयमलजी का नाम जरूर आता है।
जयमलजी वीर के साथ साथ भगवान चारभुजा नाथ के बहुत बड़े भक्त भी थे। भक्तमाल मे भी उनका वर्णन आता है किः…..
जै जै जैमल भूप के,
समर सिध्दता हरी करी।।
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मेड़ता आदि मरूधर धरा,
अंस वंस पावन करियौ।
जयमल परचै भगत को,
इन जन गुन उर विस्तरियो।।
अंततः जयमल मेड़ता छोड़कर चित्तौड़ चले गए। महाराणा ने बड़ा सम्मान किया। बदनौर की जागीर प्रदान की व मेवाड़ मे बड़े ठिकानो के बराबर दर्जा कायम किया। जयमल की बहिन आमेट के सिसोदिया पत्ताजी को ब्याही गई थी वह भी बड़े वीर व दुर्घर्ष यौध्दा थे व चित्तौड़ के इस साके के प्रसिध्द वीरों मे से एक थे।
उस समय चित्तौड़ पर बादशाही हमला होने के पूरे आसार बन रहे थे। उदयसिंहजी का पुत्र शक्ति सिंह जो अकबर की सेवा में था उसे जब मेवाड़ पर हमले की योजना का पता लगा तो वो बादशाह को बिना बताये मेवाड़ आ गया, वहां जब उसने राणाजी से मिलना चाहा तो, रावत सांईदासजी, पताजी सिसौदिया व जयमलजी ने मिलकर के विचार किया कि राणाजी से सहमति लेकर ही शक्तिसिंह को राणाजी से मिलाया जाये, क्योकि वे संदेह के घेरे में थे।
।।दोहा।।
जयमल पातल यूं जपै,
सांईदास सबूझ।
रांण हुकुम व्है रावतां,
तौ चाढां गढ तूझ।।
राणाजी ने अपनी युध्द परिषद की बैठक में ही शक्तिसिंह को बुलाया, वहां पर बादशाह द्वारा आक्रमण की योजना की सूचना शक्तीसिंह ने दी। अकबर की तुलना में साधन-हीनता तथा स्वातंत्र्यता को कायम रखना आदि बातों पर ऐकमत बन कर राणाजी को सपरिवार पहाड़ी क्षैत्र की और भेजकर लड़ना तय हुआ। राणाजी बोझिल मन से चित्तौड़ छौड़ पहाड़ी क्षैत्र में चले गऐ और किले का भार जयमलजी व उनके बहनोई पत्ताजी पर छोड़ा गया। वीरौं ने सुरक्षा घेरा मजबूत किया, सैन्य साजो सामान बढाया, सैनिक प्रशिक्षण चालू किया, किले की दीवारों को मजबूती दी गई और सभी प्रकार से तैयारी करली।
अकबर का लक्खी लश्कर शस्त्रास्त्रों से सजित होकर संवत 1624 की मार्गशीर्ष कृष्णा की षष्टी गुरूवार के दिन चित्तौड़ के किले के नजदीक आ गया। घेरा घालने की तैयारी के साथ कूट दांव भी चलाया गया। अपने विश्वासी राजा टोडरमल को जयमल के पास भेज कर कहा कि आप राठौड़ राजपूत नाहक सिसौदियों के साथ क्यों मरते हो। आपको मेड़ता के साथ जितना परगना चाहो वह हम दे देंगें। किन्तु छत्रवट के रूखवाले जैमल ने प्रलोभन की पार नहीं पड़ने दी और रजवट की आन पर अटल अडिग खड़ा हो गया। चारण कवि के गान में चित्तोड़ का किला अपना मान जैमल हाथों में देखकर कहता है कि हे जैमल, मेरे स्वामी तो दिल्लीश्वर के आने से पहले ही चले गऐ पर राठौड़ वीर तूं मुझे मत छोड़ देना। जैमलजी किले को सांत्वनां में कहते हैं कि:-
।।गीत।।
ढिल्ली पह आयां रांण ढीलियौ,
तैण कहै चीत्रं गढ तूझ।
जग पुड़ वार तुहाऴी जैमल,
मारू राव म ढीलस मूझ।।1।।
खीज करे चढियो खूंदामल,
घणूं कटकबंध मेल घणा।
गढ नायक मेलियौ कहै गढ,
तूं मत मेले वीर तणां।।2।।
अकबर साह आवतां उदै,
चवै ढलो कीधौ चित्तौड़।
मोटा छात जोधहर मंडण,
रखै तूझ ढीले राठौड़।।3।।
जंपै एम दुरग दिस जैमल,
हूं रजपूत धणी तो रांण।
सांक म कर जां लग सिर साजौ,
सिर पड़ियै लेसी सुरतांण।।4।।
गीत के भाव में विशाल सेन्य कटक आगमन से चित्तौड़ दुर्ग की वेदना प्रकट हो रही है जिसको जैमलजी ने धीर दिलासा दी है। चारण कवि को राणा का जाना अच्छा नही लगा है। सेवक की सेवा का अंकन बखुबी करके बताया कि मालिक वे हैं पर मेरे जीवित रहते आंच तुझे आने न दुंगा। दूसरे वीर गीत में जयमलजी चित्तौड़ को फिर कहते हैं कि:-
।।गीत।।
चवै एम जैमाल चीत्तौड़ मत चऴचऴै
हेड़ हूं अरी दऴ न दूं हाथै।
ताहरै कमऴ पण चढै नह ताइयां,
माहरै कमऴ जे खंवां माथै।।1।।
धड़क मत चत्रगढ जोधहर धीरपै,
गंज सत्रां दऴां करूं गजगाह।
भुजां सूं मूझ जद कमऴ कमऴां भिऴै
पछै तो कमऴ पग देह पतसाह।।2।।
दूद कुऴ आभरण धुहड़ हर दाखवै,
धीर मन डरै मत करे धोखौ।
प्रथी पर माहरै सीस पड़ियां पछै,
जांणजै ताहरै सीस जोखौ।।3।।
साच आछौ कियौ वीर रै सीध ली,
हांम चित पूरवै कांम हथवाह।
पुर अमर कमध जैमाल पाधारियौ,
पछै पाधारियौ कोट पतसाह।।4।।
मेड़तिया जैमल के इस वीर गीत के अनुरूप ही वीरगति को वरण कर अप्सरा परण कर सुरग पथ का गामी बनने के बाद ही बादशाह आगे बढ़ने में सक्षम हुआ। वह अनड़ वीर अपने जीवित रहते चित्तौड़ की चाबियां कैसे शत्रुऔं के हाथों सौंप सकता था। राज का लालच वह रजपूती के सामने छोटा समझता था। कविवर बांकजी आशिया नें अपनी रचना “भुरजाऴ-भूषण” में जैमल के मुख से कहा है कि:-
।।दोहा।।
केवी नूं गढ कूंचियां, सूंपै छौड़ सरम्म।
मुख ज्यांरा दीठां मिटै, धर रजपूत धरम्म।।1।।
पण लीधौ जैमल पतै, मसतक बांधै मौड़।
सिर साजै सूंपां नहीं, चकता नूं चित्तौड़।।2।।
बादशाह ने लाखों रूपये खर्च कर किले में प्रवेश हेतु सुरंगे व साबातें बनानी शुरु की जो कई वर्षों में बनकर तैयार हुई। दोनो और बैचैनी ऐवं उन्माद फैला हुआ था। हार-जीत भी सुनिश्चित नही थी। किले के भीतर भी पानी व अन्न की कमी आती जा रही थी। ऐसे में ऐक बार किले वालों ने समझोते का पाशा फैंक कर सुलह करनी चाही पर इसको अकबर नही पचा सका। सुलह का प्रस्ताव लेकर गए दल के अगुवा डोडिया सांडां ने अकबर से अपने वीरगति प्राप्त होने के उपरांन्त दाह क्रिया हिन्दु विधि विधान से कराने का वचन ले लिया। अब मरण मारण की घड़ी आ गई। किले की रक्षक सेना ने दो रात और एक दिन तक लगातार लौहा टकराकर दुश्मन को दंग कर दिया। पांव से घायल व घुड़सवारी में असमर्थ जैमलजी को नवयुवक वीरवर कल्ला राठौड़ नें अपने कंधै पर सवार करवा कर ऐसा लौहा लिया कि अकबर भी स्तम्भित विस्फिरित नेत्रों से निहारता रहा। इनका स्वरूप चारों हाथों में तलवारें चलाने पर साक्षात चतुर्भुज नारायण का अहसास प्रतीत कराने लगा। कवि अक्षयसिंह जी रतनूं ने “चित्तौड़ साकै री झमाऴ” मे लिखा है कि:-
।।दोहा।।
दुय जयमल कर जेम दुय, कल्ला कर करवाल।
बढ्या चतुरभुज रूप बण, बिंहूं कमधज बिकराऴ।।
दूसरे कवि ने सिलोका छंद में जैमलजी की वीरता का वर्णन अतुलनीय किया है कि:-
बीबी कागद इसा पठाया,
तूं घर आए बेगम जाया।
जैमल सूं मत करै संग्रांमो,
जैमल रो छै नवखंड नामौ।।
बाद के वर्षों में डिंगऴ के प्रसिध्द विद्वान कवि भोपाऴदानजी भदौरा ने जयमलजी के लिए लिखा कि:-
दोऴा फिर पतसाह दऴ, वैह गोऴा वैभीत।
लड़ै सबोऴा भड़ लियां, जैमल रोऴा जीत।।
सब रज्जां हूंतां सरस, कमधज्जां कुऴ चाल।
पातल घर कज्जां पुखत, पर कज्जां जैमाल।।
बांकीदासजी आशिया राजकवि जोधपुर:-
औ पातल सीसौदियो, औ पातल कमधज्ज।
ऐक सूर घरकज्ज है, ऐक सूर परकज्ज।।
दोनों ही महान कवि आशियाजी व सांदुजी ने जयमल की वीरता को श्रैष्ठत्तर इसलिए बताया है क्योंकि जैमलजी पराई लड़ाई लड़े थे। लड़ाई के आखिरी दिन से पहले किले की राजपूत वीर नारियों ने जौहर की ज्वाला चेतन कर अपने शरीर को उसमें होम दिया था। किले के बाहर उठती ज्वाला देखकर आमेर के राजा भगवान दास ने अकबर को बताया कि अब समस्त नारियों ने अग्निस्नान कर लिया है और सभी वीर केसरिया पहन मरण माण्डेंगे। उस जौहर की अगुवा जैमलजी की बहिन व पत्ताजी की पत्नी थी। लोकनीति के कविवर नाथूसिंहजी महियारिया ने जैमलजी को स्वामीभक्ति में हनुमानजी से भी बढकर बताया है देखिए:-
।।कवित्त।।
राम महाराज हू के काज हनुमान आयौ,
जंत्रन में मंत्रन में ग्रंथन में गायौ है।
सिर्फ लंगरायौ पैर तऊ कहलायौ वीर,
शत्रु तें न खायौ घाव धौखा भरत खायौ है।
महाराज हू के काज आयौ बदनोर धीस,
अम्बर समान मानो छिती जस छायौ है।
पुत्र अंजनी तें याको अधिक सराहूं क्यों न,
राष्ट्रवर जैमल तो सीस कटवायौ है।।1।।
और अन्त में यह भी प्रसिध्द है कि बादशाह अकबर ने जयमलजी व पत्ताजी की पाषाण की गजारूढ मूर्तियां आगरे के किले की पौऴ पर लगाकर बहुत ही प्रसन्नता व्यक्त की थी जो कि कवि लोगों के कथनों मे निम्न प्रकार है।
।।दोहा।।
जैमल वड़तां जीमणै, पत्तौ डावै पास।
हिन्दु चढिया हाथियां, अड़ियौ जस आकास।।
पत्ता जैमल सुपह की, प्रतिमा ले पतसाह।
राजभवन में आगरै, रखी सराह सराह।।
चढियौ गढ चीत्तौड़, पालटियौ पड़ियां पछै।
रंग जैमल राठौड़, दूणां दौढा दूदवत।।
~~राजेंन्द्रसिंह कविया (संतोषपुरा-सीकर)
Nice Hukum
Nice hukum