डफोळाष्टक डूंडी – जनकवि ऊमरदान लाळस

आठ सवैयों में संपूर्ण होने के कारण ही इसका शीर्षक जनकवि ऊमरदान जी लाळस ने ‘डफोलाष्टक डूंडी‘ रखा था और उसे अपनी मृत्यु से तीन वर्ष पूर्व संवत् 1957 में प्रकाशित भी कराया था। कवि के परम मित्र श्री शिवदानमलजी थानवी ने ग्रन्थकर्ता की आज्ञा से इसे निर्णय सागर यंत्रालय, मुंबई में मुद्रित कराया था, जिसमें दिनांक 21 अगस्त 1900 ई. की लिखी हुई ऊमरदानजी के हाथ की भूमिका प्रकाशित है। भूमिका में रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए बड़ी मार्मिक बातें कही गई हैं। ऊमरदानजी के शब्दों में-

हर एक गुण जो मनुष्य ग्रहण करता है, बड़े परिश्रम से प्राप्त होता है – जैसे कविता, राग, पंडिताई इत्यादि। अब जो मनुष्य ने गुण प्राप्त किया हो, उसका कोई गुणग्राहक मिल जाय, तब तो उसका सकल परिश्रम सफल हो जाता है और जो गुणग्राहक न मिले, तो उसका गुण मिट्टी में मिल जाता है। और जिसके पास गुण प्रकाश करे, वह कुछ नहीं समझे, तो उसको महान् संताप होता है, जिसमें भी कवि लोगों को तो सबसे विशेष शोकाकुल होना पड़ता है। यथा कालिदासस्य कल्पनानुसार श्लोक –

इतर कर्मफलानि निजेच्छया बितरतानि सहे चतुरानन।
अरसिकेषु कवित्व निवेदनं शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख।।
भावार्थ, हे परमात्मन् मेरे पूर्वजन्म के पापों का फल भुकताने के वास्ते जो कुछ आप मेरे ऊपर दण्ड करना चाहें वो करें, मैं प्रसन्नतापूर्वक सहन करने को सन्तुष्ट हूँ परन्तु एक प्रार्थना है कि मुझे वो वेदना न भुक्ताइये जो किसी महामूर्ख के पास जाकर मेरे काव्य पढ़ने पर उस बछिये के बाबा के कुछ न समझने से मेरे हृदय में होवे। उसको मैं सहन नहीं कर सकता, इस वास्ते मेरे मस्तक में ऐसे दण्ड न लिखें, न लिखें, न लिखें।

सो कालिदास की कल्पना पर करुणानिधान ने करुणा करके भोज जैसे गुणों का भण्डार भूपाल भेजा था, परन्तु आजकल के बिचारे कवियों के पूर्व भव के पाप भुक्ताने को परमात्मा शायद पीछे पड़ा है; सो कालिदास ने नहीं चाहे ऐसे ही विशेष वसुधा में पृथ्वीपति पाये जाते हैं। जिन लोगों का जनम इधर उधर की डावाडोल में डफोलपन से व्यतीत होता है और जो गुणवानों की कदर नहीं करते उन डफोलों की सेवा में हमने भी यह “डफोलाष्टक डूंडी” समर्पण की है।

सर्व सज्जनों का सेवक अनुगामी
ऊमरदान
ता. 21 अगस्त, 1900

उपर्युक्त वक्तव्य में इस रचना की प्रेरणा और विषयवस्तु सुस्पष्ट हो जाती है।

।।डफोळाष्टक-डूंडी।।
(सवैया)
ऊसर भूमि कृसान चहै अन, तार मिलै नहिं ता तन तांई।
नारि नपुंसक सों निसि में निज, नेह करै रतिदान तौ नांई।
मूरख सूम डफोलन के मुख, काव्य कपोल कथा जग कांई।
वाजति रै तो कहा वित लै बस, भैंस के अग्र मृदंग भलांई।।1।।

गायन झीन सुरावलि में गहि, ज्यूं बधिरादर बीन बजाई।
फूल दियौ नकटे कर में फिर, रील करी रुख राख रुखाई।
पोल में उत्तम काव्य पढ्यौ, पुनि गोल कपूत कि कीरति गाई।
अंध के अग्रिम ज्यूं हि गई वह, चूनरि बांधन की चतुराई।।2।।

ग्राम दिगंबर के रजकाग्रह, गेह कियौ गिन दाम न दीने।
खांट खुजा दिनरात रहे खुश, लात लई पयपात न पीने।
मन्द स्वछन्दन की महिमा मल, छंद गये छलछंद बिहीने।
कानकटी नटकी कुलटा कर, कारक नै नथ कुंडल कीने।।3।।

भोगिय मोख कुरोगिय भोजन, जोगिय जोषत जोवत जैसे।
पातर कों उपदेश पतीवृत, कातर कों सुर सिन्धुन तैसे।
स्राव्य सुझावत है सुकवी सुठि, काव्य कपूतन भावत कैसे।
बंध किलौरन कंधन के बिधि, अंधन आरसि ओपत ऐसे।।4।।

बंदनवंत बसंत विभा बर, चंदन चक्रियवंत चढ़ायो।
मंदर अंदर बंदर कां मनु, पैठि पुरंदर पाठ पढ़ायो।
हे सविता कवितामृत ह्रीहत, मूसल पै घ्रत ज्यूं मुरझायो।
पैल न जानत वास प्रभा प्रिय, बैल के पास गुलाब बिछायो।।५।।

गंधि गयौ ग्रह रेगर के गल, बंध भयो ग्रहधंध बिगार्यो।
पीनसकाय के पास कपूर, धर्यो कवि ऊमर तौ हिय हार्यो।
गोबर के गननाथन की गुन-गाथ करी सु वृथा गुन गार्यो।
गायन व्यग्र प्रलाप गह्यौ जनु, ऊँठ के अग्र अलाप उचार्यो।।6।।

बांझ के पास प्रसूत की वेदन, भेद न जानत मूंड भमायौ।
पूत कपूतन कों चटशाल कि, ज्यूं कुलटा सुसराल सुनायौ।
हीर कंगालन हाथ दियो हँस, चीर कु कोढ़िय साथ चिपायौ।
श्लोक झरी विसरी सुनके शठ, गर्धभ पैं मिसरी गुन गायौ।।7।।

छंद अलंकृत छांह छुवे नहिं, बांह गहै नहिं पुस्तक बाचै।
लक्षक लक्ष्य कहां अविधा कथ, वाच्य रु वाचक नाच न नाचै।
व्यंग रु व्यंजक नां रस वृत्तिय, रीत न दूषण दूषण राचै।
छौल डफोलन तोल यथातथ, जाचक पौल वृथा जिन जाचै।।8।।

~~जनकवि ऊमरदान लाळस

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