दारू दुरगण

आदरणीय मोहनसिंहजी रतनू री सेवा में लिख्यो एक छंद आज आपरी निजरां
।।दूहा।।
ऊमर कवि निज आखरां, दाटकपण सूं देख।
दूसण दारू दाखवा, लिखग्यो लाल़स लेख।।1
कवियां विध विध सूं कही, सैणां नैं समझाय।
कोयन दारू काम रो, छतो परै छिटकाय।।2
सुणी सुणाई बात सह, सत कछु दैणी सार।
कथियै कीं कड़वै कथन, वडपण सुणो विचार।।3
सांझ प्रात इक सारखी, प्रीत प्यालै सूं पेख।
बुद्धबल़ आप विचारजो, नहीं काम ओ नेक।।4
।।छंद त्रोटक।।
सत मोहन भ्रात कहूं सुणियै।
धुर बांचत सीस मती धुणियै।
कल़ु कीचड़ जात फसी कतनू।
रण कोम रु काज करै रतनू।।1
कस दोरपरु दीह पूर कटै।
रवि आथमिय मद नाम रटै।
गुणि देख जरा कुल़ रि गतनू।
रण कोम रु काज दटै रतनू।।2
उपदेश नहीं सच बात अखूं।
झखमार नहीं रद एक झखूं।
सुकवी मन धार पढै सतनू।
रण कोम रु काज मँडै रतनू।।3
मन सांम समै ज सखां मिल़िया।
हिव खोज पियालियां ले हिल़िया।
पण सोच नकूं निजरी पतनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।4
अजुं जात उथांन नहीं अपणी।
तन पूर मजूर करै तपणी।
किम कारण पान सुरा कथनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।5
वसु छोकर नौकर के बणिया।
तक पीवण टीवण नूं तणिया।
जग कूण सुधार रचै जतनू?(जतन)
रण कोमरु काज रचै रतनू।।6
इम हाकम केक अखो अपणा।
धुर काढत पीवण री धपणा।
जस बोल जबून पढै जतनू।।(जितने)
रण कोमरु काज सजै रतनू।।7
मद पीवत बंतल़ के मिसनू।
तण जोर बता पद की तिसनू।
तद नाय लखै छकिया ततनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।8
कुण कोम सुधारण बात करै।
धुर आप बडा नहीं ध्यान धरै।
बिगड़ी सुल़झै किम ऐ बतनू।
रण कोमरु काज करै रतनू।।9
पग देख चपेट सुरा पिटिया।
मग आज कितायक यूं मिटिया।
चट चाखत गैंद हुवै चतनू।
रण कोमरु काज करै रतनू।।10
घट रोवत कामण जैण घरै।
झट जोवत जामण नैण झरै।
मुढ सोवत खोवत है मतनू।
रण कोमरु काज करै रतनू।।11
सट चाखत आंतड़ जा सड़िया।
जद केक अधी वय में झड़िया।
पड़िया घण जीवत खो पतनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।12
वट ब्याव खुशी घरमें बणियै।
भट जानिय मांढिय ऐ भणियै।
इतजाम सुरा करियै अतनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।13
कँठ ढाल़त केक फसाद करै।
सुण लौकिक बीह नहीं सधरै।
नकटापण आप फुला नथनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।14
बद बोलत है भरतो बटका।
तन ताणरु पाण करै तटका।
गुटकै गुटकै बदल़ै गतनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।15
हिय हूंस भरी झट ओ हरलै।
भट ऊंध दिसा पग ओ भरलै।
लग जाय दुरूह छुटै लतनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।16
उपजै उर पीवत ही अगनी।
भद नाय गिणै जणणी भगनी।
सिटल़ापण त्याग दियै सतनू।
रण कोमरू काज अड़ै रतनू।।17
कटुता रख वैर कुटंब करै।
गब खांचत आफत आप घरै।
भिसटापण बोह भरै भतनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।18
सठ गेह मता निज बोड़ सुदी।
झट बाड़िया झाड़िया आप जदी।
घर भूसण नीर दियो घतनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।19
छक छाकरु हाक नहीं छिकिया।
विटल़ापण खेत सबै बिकिया।
अब सीस ढकै इल़ है अतनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।20
अब जात तणी प्रतपाल़ अहो।
कुण आय करै दिल मांड कहो।
सब पीवत पंच मिल़्या सथनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।21
अगिवांण समाज तणा इतरा।
झट जोड़ सकूं सब नीं जितरा।
चुण धारत वैर बता चतनू?
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।22
दिल गीध नहीं उपदेश दिया।
कवि छंद हितू जन काज किया।
मन शारद मात दिवी मतनू।
रण कोमरु काज अड़ै रतनू।।23
।।छप्पय।।
सुरापान नीं सार,अग्गै के कवियां आखी।
सतजन कियो सुधार,रमा जिण हिरदै राखी।
जिकै सुणी नह जोय,प्रीत कर दारू पीधो।
सरब रोगरु सोग,दाग जिण पीढ्या दीधो।
समझलो सैण साची सबै, मद सब दूसण मानलो।
सदन सूं गीध अल़गी सदा, थिर मन पक्की ठानलो।।
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी