गजल: देख लै – कवि जी. डी. रामपुरिया

🌺गजल🌺
चीरड़ा चुगता गळी गोपाळ देख लै।
पेट सारूं सैंग ही पंपाळ देख लै।।

मोह-माया रो दिनो दिन वाधपो दीसे।
काल कुण देखी है गैला काळ देख लै।।

प्रीत री माळा है काचे सूत में पोई।
रीत रिसती जा रही परनाळ देख लै।।

चींचड़ा कुरसी रै कितरा जोर सूं चिपिया।
लपलपाती जीब गिरती लाळ देख लै।।

धरम अर मजहब जिकि धधकाय दी ज्वाळा।
बळ रया उण में अपांरा “बाळ” देख लै।।

देह माटी सूं बणी नित दे रया उपदेश।
भगडा बण्या इण गत अठै भूपाळ देख लै।।

राम मूंडे हाथ मोटी जापता माळा।
कितरी छिपि इण भेख मे किरमाळ देख लै।।

नोट बंदी की हुई चोखो लग्यो चरड़क।
कूदती “ममता” नै नौ नौ ताळ देख लै।।

ऐक ही थाळी जो भाई बैठ कर जीम्या।
परणी रे आतां खिंच गई वो पाळ देख लै।।

आईनों कीकर बतावै आप रो चेहरो।
जम गया कितरा मतळबी जाळ देख लै।।

लूण, मिरची, दाळ, आटे सूं रयो लड़तो।
जीवते इण जीव रा जंजाळ देख लै।।

कर सुमिर “करणी” कि जिवड़ा मोक्ष हो जासी।
तारसी भव डोकरी डाढाळ देख लै।।

~~जी. डी. रामपुरिया

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