डिंगल़ वाणी में भगवती इंद्र बाई

श्री हिंगऴाज शक्ति-पीठ की उपासक चारण जाति मे शक्ति अवतरण की परंपरा सदा सर्वदा व आदि अनादि काल से ही चली आ रही है। माँ आवड़, माँ खोडियार, माँ बिरवड़ी माँ सोनल, माँ मोगल, माँ करनी, माँ सैणल, माँ कामेही, माँ गिगाई, माँ राजल, माँ बहुचरा, माँ चन्दु, माँ इन्द्रबाई, माँ सायरबाई, माँ सुवाबाई, माँ लूंगबाई व अनेक असाधारण अवतार इस महान जाति में हुए हैं। नवलाख लोवड़ीयाऴ के विरूद से विभूषित चौरासी चारणी शक्तियों के प्राकट्य का सौभाग्य पराम्बा ने इस राजस्थान व गुजरात में बसनेवाली कट्टर शाक्त चारण जाति को दिया है। इन शिरोमणी शक्तियों की महिमागान साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं है, यह तो माँ के अहेतु की कृपा-प्रसाद से ही संभव है।

अनेक विद्वान कवियों एवं इतिहासकारों ने माँ भगवती को अपने श्रध्दा सुमन अर्पित किये हैं व इतिहास की अमूल्य थाति व विरासत बन गए उनके स्वर्णाक्षर आगत पीढियों के लिए पाठकों श्रोताओं को ऐक अनूठा साहित्य शोध उपलब्ध करा गए हैं।
भगवती इन्द्रबाईसा का अवतरण आषाढ शुक्लपक्ष नवमीं शुक्रवार विक्रमी संवत 1964 को ग्राम गेढा खुरद में शिवदानजी रतनू के पुत्र श्रीसागरदानजी की धर्मपत्नि मातृस्वरूपा धापू बाई जागावत की कुक्षि से हुआ था। माँ साक्षात भगवती आवड़ का स्वरूप लेकर अवतरित हुई व अपने अनेक भक्तों को कष्टों, आधि-व्याधि से मुक्त कर व कल्याण करते हुए मात्र बयालीस वर्ष की उम्र में अपनी लौकिक लीला का संवरण कर लिया। तात्कालीन समय मे विद्यमान कवेसरों ने माँ के जन्म से पूर्व की हिंगऴाज माँ के स्थान पर देवियों का अखाड़ा परिषद लगने से लेकर भगवती के धाम पर आयोजित उत्सव और माँ इन्द्रेश भवानी भगवती के विभिन्न धाम की शुभ यात्रा व भक्तों के पदार्पण तक का भी विवरण अपने काव्य में दिया है जो आज इतिहास की धरोहर बन गया है।

भव भय हारणी भगवती भवानी के कवि कोविदों की समकालीन कालजयी रचनावों का विवेचन करने का प्रयास करता हूं। कहीं त्रुटियाँ रहे तो आप सभी मुझे भूल सुधारनें में मदद करके माफ करेंगे, इसी विश्वास व आशा के साथ —
~~आपका राजेन्द्र

माँ भगवती लीलाविहारिणी इन्द्रकुँवरी बाईसा का जन्म संवत १९६४ में हुआ था उनके भक्त कवि हिंगऴाजदानजी जागावत ने अवतरण की ऐक प्रसिध्द रचना चिरजा सृजित की है जिसमें विक्रम संवत १९६३ के आश्विन नवरात्रो में माँ हिंगऴाज के स्थान पर सभी देवियों की पार्षद भैरव सहित परिषद लगती है, उस परिषद में भैरव माँ को ज्ञापित करते हैं कि मरूधर देश में अवतार की आवश्कता है, भगवती हिंगऴाज अपनी अनुचरी आवड़ माँ को आदेश देकर सही स्थानादि बताकर मरूधरा में अवतार के लिए प्रेरित करती है व भगवती आवड़ अवतरित हो भक्तवत्सला बनती है अद्भूत कल्पना व शब्दों का संयोजन है रचना में यथाः…..

।।दोहा।।
सम्वत उन्नीसै त्रैसट्यां, साणिकपुर सामान।
शुक्ल पक्ष आसोज में, श्री हिंगऴाज सुथान।।

इसके ठीक नवमास बाद आषाढ शुक्ला नवमी को भगवती का अवतरण निर्दिष्ट स्थान पर हो जाने के बाद विभिन्न कवेसरों ने सहज सुन्दर व सरस सटीक वर्णन किया है यथा कुछ दृष्टान्त:

(1) मानदानजी कविया
।।सवैया।।
चार छवै नव एक के संवत,
साढ मंनू शुकला पख थाई।
नौमिय तिथ्थ भृगु शुभ वासर,
सागर के घर थे प्रकटाई।।

(2) हिगऴाजदानजी जागावत
।।चिरजा।।
वेद ॠतु ग्रह भव विमल, संवत इण सुरराय।
साढ शुकल नवमी शुकर, अवतरिया जग आय।।

(3) हिंगऴाजदानजी कविया
।।गीत।।
संवतसर विक्रम छत्तीस कम बे संहस।
मास आषाढ तिथी शुकल नौमी।
वार शुकर नखत स्वाति संध्या वखत।
भवानी अवतरिया श्रीखुड़द भौमी।।

इस तरह से अनेक विद्वजन कवि समुदाय ने माँ भगवती के जन्मोत्सव पर साहित्य व काव्य रचना की है। संवत १९८८ जैष्ठ सुदी बीज के दिन खुड़द में माँ श्री करणी जी के श्रीमढ की स्थापना (मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा) के शुभ अवसर पर अनेक कविगणों ने अन्यतम सुन्दर व सरस सटीक रचनाएं लिखी जिनमें हिंगऴाजदान जी कविया की “मेहाई-महिमा” व हिंगऴाजदान जी जागावत की “बलिदान-विनोद” नामक रचनाओं के साथ दोनों जोगीदानजी ( कविया व जागावत), जवाहरजी रतनूं, मुरारीदानजी कविया, मानदानजी कविया तथा अनेक कवि प्रभृत्रि विद्वानों ने एक से बढ एक साहित्यिक व भक्तिरस की रचनाएं दी है।।

श्री हिंगऴाजदानजी कविया द्वारा रचित सुन्दर कवित्त शिलालेख पर उत्कीर्ण कर श्रीमढ गर्भगृह के द्वार दक्षिण दिशा पर लगाया गया है।।

अण गांव षुड़द मै संबत १९६४ रा असाढ सुदि ९ नै सागरजी रतनू रे घरे धापू बाई जागावत री कूष श्री इंद्रबाई ओतार लेयने ओ मंदिर बणायो यणारी प्रतिष्ठा होय श्रीकरनीजी महाराज री मूरती स्थापित कीई तिण समे रो।।

।।कवित्त।।
संबत उनीससै अठ्यासी बीज जेठ सुदी,
रोहनी मिथुन मिस्रताई भू सुवन की।
कुंभ नव मांस समै मूरति प्रतिष्ठा किई,
भई धुनि बेद हुवी पावक हवन की।
श्रीकरनी आदिक पधारी हैं सकति सारी,
गगन बिथारी षेह सिंहन गवन की।
मेह दुलारी की धुजाधारी निज मंदर पै,
बलिहारी इंदर भवानी के भवन की।।

।।सेवापुरा निवासी कविया हिंगलाजदान कृत।।

सम्वत १९९८ में श्रीमढ खुड़द में माँ करनल किनियाँणी के जन्मोत्सव के शुभ अवसर पर आश्विन शुक्ला सप्तमी को आयोज्य वृहत्तर व विराट उत्सव पर अनेक कविगणों की कलम के साथ कवि पुंगव कविया हिंगऴाजदानजी ने भी साल गिरह शतक नामक सुन्दर सरस और सटीक झमाऴ छंद की रचना की है जिसको पढ कर पाठक अपने को वहीं पर उपस्थित होने का भाव अनुभव करते हैं।।

अन्दाता श्रीइन्द्रबाईसा ने अनेक स्थानों यथा तेमड़ाराय, तरनोटराय, देशनोक, बीकानेर एवं गजनेर तथा जगन्नाथपुरी, पुष्कर, द्वारिकापुरी, अपने ननिहाल गांव बूढऴा चारणवास आदि की यात्राएं भी की थी व उनके साथ भक्तगणों आदि को भी जाने का सुअवसर मिला था। उसी संदर्भ में अनेक कविकोविदों ने सृजन किया है। विक्रमी संवत २००१ के आश्विन शुक्ला नवरात्रों मे इन्द्रभवानी देशनोकधाम की यात्रा मे पधारे उस वर्णन को लिपिबध्द व शब्दगुम्फित किया है कविया हिंगऴाजदानजी ने।


गीत इंन्द्रबाईसा रो

विक्रमी संवत 2001 रा आसोज सुदि चवदस नै अन्दाता इंन्द्रबाईसा महाराज देशाण राय रा दर्शण करण ने देशनोक पधारिया अर श्रध्दालू भक्तां ने आपरा दर्शण दिया, उण समय उठै महाराजा गंगासिंहजी बीकानेर भी दर्शण करण वास्ते आया अर बाईसा ने निवेदन कियो कि अन्दाता आप बीकानेर पधारो। ओ निवेदन भगवती स्वीकार कर बीकानेर अर गजनेर दोनूं जगां पधार आपरा दरषण देय, राणियां आदि नें आशिष देय देशनोक पाछा आय खुड़द पधारि गया। उण यात्रा में हिगऴाजदानजी कविया अर जागावत दोनूं साथै हा, अर सेवा में हा इण सूं यात्रा रो आँखिया देखियो एक गीत बणायो है, जिण नै आप लोगां री निजर पेश करूं हूं।।

।।गीत।।
कर्यो द्रंग देसांण प्रसथाण इंदर सकति,
प्रेम अप्रवाण रा अमृत पीधा।
करनला मातरा आप दरसण किया,
दुनीनूं आपरा दरस दीधा।।1।।

धजाबंध कमंध अणभग जंगऴधणी,
प्रथीपत गंग आ खबर पाई।
आय उण ठौड़ कर जोड़ि कीधी अरज,
बीकपुर पधारो इंन्द्र बाई।।2।।

ईसुरी छाक ऐराक आरौगता,
चोगता दया द्रग कुसऴ चाता।
प्रसन चितथाय पहराय माऴा पुहप,
मांनली भूपरी इनय माता।।3।।

तिका यण बार अवतार सकती तणा,
भाव भकती तणा घणा भूका।
फजर ग्रह रांण तप तेज मुख फाबियां,
ढाबियां सूऴ बीकाण ढूका।।4।।

पछै इंन्द्र मात आसेर बण पधारिया,
दिई जिण नींव अवदात दाढी।
करी घण कृपा रणवास पावन करण,
चरण रज रांणियां सीस चाढी।।5।।

उठा हूं नागणेच्यां भवण आविया,
लाविया सरब रणवास लारै।
गती गजराज हंसां गवण गांमणी,
इंन्द्र पर कांमणी लवण वारै।।6।।

जादमण आद करि भेट भणिया जठै,
आपरा अठै परताप आछा।
ऊगिया मदां सुप्रसन्न सबदां इसां,
पूगिया भवण बिसरांम पाछा।।7।।

हालिया फेर गजनेर करबा सहल,
देखिया कोठियां महल देवी।
भालि दोनूं सहर आय पूठा भलै,
सहर देशाण दीवाण सेवी।।8।।

देवियां जोत ऊदोत करि दोवड़ी,
लोवड़ीयाऴ हूं सीख लीधी।
ताकवां रिजक रिछपाल सागर तणां,
कंवरि भुरजाऴ हूं सिध्य कीधी।।9।।

करे आदेश आरोहिया केसरी,
मरद अलबेसरी जोगमाया।
दाखता बिगति जंगऴ धरा देसरी,
इंन्द्र परमेसरी खुड़द आया।।10।।

माँ भगवती करणीजी री शुभ जात्रा रो चावो ठावो ऐतिहासिक बरणन अब केई जागां नहीं मिऴै इण सीगै ओ आपरी निजरां भेजणरो एक छोटोक परयास।।


।।भगवती माँ का चारणवास पदार्पण।।
।।कवि-भक्त जागावत का वर्णन।।

विक्रमी संवत २००१ आषाढ सुदी दसमी शनिवार भगवती इन्द्रबाईसा अपने ननिहाल में गांव बुढऴा चारणवास पधारे, उस समय अनेक कविगणों की लेखनी रचना सृजन मे उदृत हुई जागावत हिंगऴाजदानजी ने जो कि श्रीबाईसा के मामासा थे, इस पर सुन्दर व सरस काव्य सृजन किया है।

।।दोहा।।
आनन्द कन्द अम्बा इन्दर, सुजन घणां ले साथ।
पावन करण पधारिया, अनुचर जांण अनाथ।।

शनि दशमी अरू साढ सुदी, सहस्त्र दोय इक साल।
कीन्ही इन्दु करि कृपा, पूरण जन प्रतिपाल।।

।।छन्द – मोतीदाम।।
कथूं जस इन्द्र कृपा जिमि कीन,
हुवै जस खास सुण्यां दुख-हीन।
धजाबन्द जो है करि घण आप,
जपूं कर जोड़ि बिहूं वह जाप।।1।।

अमां इन्दरेश के स्वासनि नेक,
आज्ञा अनुसार चलै घण ऐक।
इन्दू जिण शीश दया अणपार,
सको नित चालै कृपा अनुसार।।2।।

घणो चिमनां शुभ नाम गम्भीर,
सुण्यो जिसको हम पेशव पीर।
जकां घण भक्ति कही नंहिं जाय,
रहै अति तापै खुशी सुरराय।।3।।

रह्या मद लेय अम्बा इक रैंण,
भणी उन खूब कृपा लखि बैंण।
अम्बा तव मुझ्झ घणी मन आस,
चहुं दृग देखण चारणवास।।4।।

हँस्या इन्दरेश घणा हरषाय,
भृतां हित हुक्म दियो बगसाय।
दयो लघु भ्रात को अग्र पठाय,
लिया हित संग सुदास बुलाय।।5।।

बुला निज मात कही यह बात,
बहीर व्है है तव-पीर प्रभात।
दई बड़ मन्दिर इन्दर धोक,
धुरंत त्रमागऴ मादऴ धोक।।6।।

धजाबन्द आप खड़ा मँढ द्वार,
भई चिमना संग हो हुशियार।
सको सब भक्तन में सिरमौड़,
अजू हिय भक्त लहै कुण औड़।।7।।

अनोप हली हिय हर्ष अपार,
विनय कर होय धजा बन्द लार।
बड़ापण हूंत भणैं कुण बात,
खरी जिनके हिए भक्ति लखात।।8।।

सको निमराण सुता चहुवाण,
सको समझ्यो निज पीर समान।
चली मन ध्याव घणो करि चन्द्र,
आज्ञा अति पाय हली संग इन्द्र।।9।।

लई निज मात को साथ बुलाय,
हल्या इन्दरेश घणां हरखाय।
महा महम्माय हल्या भलि माग,
भयो उण बेर बड़ो जन भाग।।10।।

इतैं शुभ बात सुनी मों आय,
जकी पल मोद कह्यो नँह जाय।
चखें अरविन्द घणो कर चाव,
खड़ी मग जोय रही इक माग।।11।।

घणो शुचि काव्यऽरू राग गम्भीर,
अभै स्वर गावत राग अमीर।
अमोघ सु-मोद रह्यो भर अंग,
जकां कविराज दवै घण रंग।।12।।

द्दृगां अति दूर लख्या इन्दरेश,
भयो उण बेर में मोद बिशेष।
तिकी तिण बेर दियो तज गान,
भई गति चन्द-चकोर समान।।13।।

धिनो अति दाखत आवत दास,
सुवासनि कीन्ह बिछायत खास।
सहस्त्र बिये अरू ऐक के साल,
दया उर धारि पधारे दयाल।।14।।

अषाढ सुदी दशमीं शनिवार,
कृपा जगदम्ब करी अणपार।
भलो जगदम्ब जणाय के भाव,
पधारिये मों पलकां धरि पाव।।15।।

घणों उण बेर भयो शुभ गान,
जयोजय आखत आलम जहान।
चढ्यो जिण दिव घणो मम छोह,
जुबान सकै न बखाण जकोह।।16।।

जतै जन हाजिर होय के जोग,
कही शुचि काव्य सुमोद अमोघ।
करी कविता मँह ताहि प्रकाश,
अमां मम गेह पधारण आश।।17।।

इन्दु उर जाणि घणी अभिलाख,
जना-निज हूंत जनावत साख।
महा महमाय दियो फरमाय,
प्रभैं कल आहु सवारी सजाय।।18।।

हुयो फिर हाजिर आ हिंगऴाज,
करी अरजी घर पावन काज।
अम्मां अरदास यही है अखीर,
धजाबन्द है मम बृध्द शरीर।।19।।

समैं फिर येहु नहीं सुरराय,
अबै नजदीक रहे दिन आय।
बिशेष कहूं किम बात बणाय,
हुवै अब हुक्म हमें हरषाय।।20।।

बड़ापण धारि घणों भुजलम्ब,
धरौ उर धीर कह्यो जगदम्ब।
हिला पुर-ओर अम्मा निज हाथ,
सबैं जन लेय चलूं तव साथ।।21।।

धिनो अति दाखि खड़ो निज दास,
खमा भणि खूब रह्यो मुख खास।
सको हिंगऴाज कव्यां सिरताज,
बऴू जिण इन्द्र गरीब नबाज।।22।।

भये मम गेह अछेह हगाम,
कर्या इन्दरेश सबै सिध्द काम।
धिनो कविराज कहै इण दास,
रह्या जगदम्ब कृपा करि खास।।23।।

धजाबन्द आप रह्या दश-दीह,
जको जश भाख सकै नँह जीह।
भयो जग में जश येहु विख्यात,
हुवो हिंगऴाज कवि सिर हाथ।।24।।

।।दोहा।।
अम्बा धीरज दे अधिक, इन्द्र गरीब नवाज।
हरषि बिशनपुर हालिया, कवि जोगा रै काज।।

।।छप्पय।।
सत्र सुजन सवार, गति-गज बैठी गाड्यां।
धूरत दास्यां दौड़ि, मुऴक चढि बैठी माड्यां।
इन्दू कँवरि अनूप, सको चिमनां रथ सौहै।
खुड़दराय रथ खास, मात निज गोदी मोहै।
अधिक दास हाल्या उमंगि, खिदमत में भणता खम्मां।
दाखै जोगो देखि द्युति, हुवो भाग आछौ हम्मां।।


श्रीइन्द्रबाईसा भगवती पराम्बा उसी यात्रा में कविवर कविया हिंगऴाजदानजी के गांव सेवापुरा, पालावतो के नामी ठिकाणे खटून्दरा जिसे महलों वाला गांव भी कहते है वहां भी पधारे थे। उस यात्रा वृतान्त का एक सवैया हिंगऴाजदान जी सेवापुरा रचित देकर इस आलेख को पूर्ण करता हूं।

माँ की महिमा अपरम्पार है हजारो लेखनी भी लिखने में असमर्थ है फिर साधारण मानव के बस की बात कहां है।

।।सवैया।।
पावन, पांवन की रजतें करिबा श्रीपरमेश्वरी इन्द्र पधारे।
चन्द्र मुखी अरू कंज चखी अवला चिरजान के गान उच्चारे।
कीरत छंद कविंद कहै धुनि गाजत बाजत ढोल नगारे।
आज तो बूढरे चारणवास पै नग्र नवीन कवीन के वारे।।

~~आलेख: राजेन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर (राज.)

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