ऐड़ो ई करड़ा हो तो भेल़ू जावो नीं
जूनी बगत री जूनी रीतां। कवियां री आपरी ठसक अर मठोठ क्यूंकै उण बगत री सत्ता अर सत्ता रै कर्णधारां रै अतंस में कवियां रै प्रति घणो सम्मान। कवियां रो सम्मान करणियो ऐड़ो ई एक ठिकाणो खिंदासर। बीकानेर महाराजा सुजाणसिंह रा समकालीन खिंदासर ठाकुर इंद्रसिंह। खाग अर त्याग सूं अनुराग। कवि रुघजी रतनू रै आखरां में –
खींदासर खिंया दीपे रावां देवण रेस।
अमलां वेल़ा आपनैं रँग भाटी इँदरेस।।
इणां रा ई समकालीन कवि शंभुदान रतनू दासोड़ी। जिणां रो बीकानेर दरबार सुजाणसिंह ई घणो सम्मान करता। जिणां रो राजा सम्मान करै वांरो ठाकुर तो सम्मान करणो ई हा।
शंभुदान रतनू , रतनू सुंदरदास दासोड़ी री वंश परंपरा में हा किणी कवि कैयो ई है –
धिन सुंदर थारो धरम जाणै सकल़ जहान।
दोहीतो दानो भयो पोतो शंभुदान ।।
इणी शंभुदानजी री किणी बात नैं लेयनैं भेल़ू ठाकुर आईदानसिंहजी रूपावत हूं अणबण। ठाकुर शंभुदान सूं अरूठ पण शंभुदान ई गिनर नीं करै तो कमती ठाकुर ई नीं। शंभुदानजी एक दिन खिंदासर गया। ठाकर माल़ा फेरै हा। कमतरियां कोई ध्यान नीं दियो। कवि नै रीस आयगी। पाछा फुरण लागा जितै ठाकुरां री मींट कवि री फुरती घोड़ी माथै पड़ी। ठाकुरां अबोलां हाजरियै नै इसारो कियो कै शंभुदानजी नैं रोक। हाजरियै कैयो कै हुकम ठाकर साहब माल़ा फेरै। आप पधारो। कवि नैं तो रीस आयोड़ी ही। बोलिया “पागड़ा छोडाई कुण थारो बाप दे ला हरामखोर ! ठाकुरां रा डोबा फूटोड़ा है ?” हाजरियै नै रीस आयगी। बो बोलियो ई ठाकुरां माथै इता कोपो ! इता तीस मारका हो तो भेल़ू सूं लो नीं पागड़ा छोडाई!” रीस री बलाय शंभुदान सीधा भेल़ू कानी घोड़ी रै ऐडी दी। ठाकुर उठिया। छोरै नै बकिया। “हरामखोर ! थन्नै शंभुदानजी नै आ बात कैवण री कांई जरूत? जे कीं अजोगती होयगी तो म्हारो मूंडो काल़ो हो जावैला। म्हनै झख मार र शंभुदानजी री हाजरी बजावणी पड़ेला। ओ वांरो घर है अठै उणां रो उजर लागै।”
शंभुदान री घोड़ी तो एक सरड़ाटै में भेल़ू रै गोरवै पूगी। ठाकुर आईदानजी घोड़ी री पोड़ां सुण धूड़कोट माथै बंदूक ताणी। अबोलां बावणी ठीक नीं समझी जणै बोकारियो, कुण ? शंभुदानजी एक दूहो कैयो –
आदो है जसराज रो, सादो पाखर सेर।
भेल़ू है थारै भुजां, निरभै बीकानेर।।
उल्लेखजोग है कै आईदानजी रा पूर्वज भोज सादावत मालदेव जोधपुर रै बीकानेर माथै हमलै री बगत राव जैतसी री अनुपस्थिति में कोट रो भार झाल जिकी वीरता बताई वा आज ई अजंसजोग है। भोजराज री कीरत में रचित एक गीत रो एक द्वालो पढणजोग, जिण में वीर भोजराज कैय रैयो है “कै जावो जिकै मरण रै भय सूं जा सकै अर जिकै कुल़ मरजादा नै राखणी चावै बे रैय सकै पण हे कोट ! थन्नै डरण री जरूत नीं है क्यूं कै म्है मरियां ई कोई थन्नै लेवैला –
जावो जिकै मरण भय जावो
रहै जकै कुल़ लाज रहै।
सिर साटै देसी सादावत
कोट म बीहै भोज कहै।।
आईदानजी ओ दूहो “भेलू है थारै भुजां निरभै बीकानेर।” सुण र रीस पांतरग्या। मोद सूं गदगद होयग्या। हाथ जोड़ कवि रै सम्मान में साम्हा आया। “पधारो पधारो कविवर पधारो।” पण कवि घोड़ी चढियै कैयो “पैला पागड़ा छोडाई अर पछै बीजी बात!” उदार ठाकुर। ठिकाणो छोटो पण मन मोटो। दो सौ बीघा जमीन पागड़ा छोडाई री देय कवि रो सम्मान कियो। “लो अबै पधारो।” पण कवि कैयो कै हुकम आज तो माफी चावूं। आज अठै अंजल़ नीं करूं। आज तो पाछो खिंदासर ई जावूंलो।” पाछी घोड़ी दड़बड़ां दड़बड़ां खिंदासर कानी। कवि रो सम्मान देखो कै खुद सोनानवेसी ठाकुर इंद्रसिंह कवि रै लारै आवता मारग में मिलग्या। बोलिया “हुकम एक छोरै रै कैणै सूं इतरी रीस ! कीं हो जावतो तो पीढ्यां रै प्रीत रै कलंक लाग जावतो।