फागुन के सवैया

गल गुंजनमाल, रू नैन विशाल, चलै गजचाल सदा शुभ जो री।
कटि फेंट धरी मुरली, पटपीत, लिये लकुटी कर में लखियो री।
मुकुटं सिर सुंदर मोरपखा मुख मंजुल चोरत है मति मोरी।
रँग डाल गुलाल अबीर उछाल सखी नँदलाल रचावत होरी।।१।।
बरसे रंग आज सखी ब्रजमें, उर आनंद की सरिता सरसे।
सरसे सब गोपिन के तन के तरू, पल्लव पात नये दरसे।
दरसे दसहू दिस लाल गुलालअबीरन गाल पिया परसे।
परसे हुई आज निहाल अली! ब्रजबाल पे लाल कृपा बरसे।।२।।
करिये सुकृपा नँदलाल कृपाल गुलाल सुगालन पे धरिये।
धरिये कर मंजुल मो तन पें, मन मैल सुकान्ह सखा हरिये।
हरि ये बिनती सुनिये हमरी तुम चित्त उल्लास सदा भरिये।
भरिये अंग रंगबिरंग अहो!ब्रजचंद सखा इतना करिये।।३।।
डफ चंग मृदंग बजै चहूधा, मुरचंग रू झांझ बजावत सारै!
रँग लाल गुलाल अबीर उडै, नभ पातल और रँगी वसुधा रे।
तरुपल्लव नित्यनवीन, खिली सरसों, अरु किंशुक, फूल अपारे।
रुतुराज बसंत बनें दुलहा सखी फागुन के तुररा सिर धारे।।४।।
मुखमंडल मंजुल हास मनोहर, बेणु बजावत जो नित ही।
सिर मोरपखा, गल गुंजन माल हरे ब्रजबालन के चित ही।
पटपीत धरे तन, ले लकुटी वर धेनु चरावत है तित ही।
चल री सजनी ब्रजधाम चलें, घनश्याम ललाम बसे जित हीं।।५।।
रस राग पराग भरा अनुराग पिया मम पाटल फूल सखी।
नित नेह नवीन सनेह सु सिंचित, आठ घडी अनुकूल सखी।
बिरहा बन बाग घिरा अब लों प्रतिकूल मनों जनु शूल सखी।
अब हार बनाय धरूं हिव पे, भुल बातन और फिजूल सखी।।६।।
शुभ मोर पखा सिर धार अनूपम साज सजी वृषभानु लली।
वपु कंचुकि कंगन औ गलहार रू श्याम रँगी अनुराग पली।
मुख हास उजास ज्यूं पूनम चंद किंधो निकली घन सो बिजली।
गजगत्त चलत्त हरे चित को नटनागर नेह सुगेह चली।।७।।
~~नरपतदान आसिया “वैतालिक”