फिर मैं जीवित रहकर क्या करूंगी?

19वीं सदी का उत्तरार्द्ध व 20वीं सदी का पूर्वार्द्ध का समय संक्रमणकाल था। इस दौर में राजाओं की सत्ता पर पकड़ शिथिल पड़ गई थी। क्योंकि उस समय के शासकों का ध्यान या तो आमोद-प्रमोद में लगा रहा या घातों-प्रतिघातों से बचाव में संलग्न रहा। जिससे मातहत लोगों ने दूरदराज के क्षेत्रों में अपनी मनमर्जी से क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर अपने अधिकारों का दुरपयोग किया।
छोटे-छोटे अधिकारियों ने सामान्य जनता पर इस कद्र कहर ढ़ाया जिसके विरोध स्वरूप शिव (मारवाड़) के हाकिम के खिलाफ जनहितार्थ व अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ तीन चार चारणों देवियों ने जमर कर अपना विरोध दर्ज करवाया।
उन देवियों की लोकहितैष्णा को जनसाधारण ने असाधारण रूप से अपने कंठों में संजोये रखा। ऐसी ही एक कहानी है हड़वेचा गांव की करमां माऊ के जमर की।
करमा माऊ का जन्म जैसलमेर के सुमलियाई गांव में रतनू शाखा के चारण सायबदानजी भागचंदजी रां के घर हुआ था।
सायबदानजी अपने समय के प्रतिष्ठित और मौजीज चारण थे। इनके पुत्रों के नाम मनरूपजी व व वीरभाणजी थे।
मनरूपजी भी उस समय के माने हुए वैद्य थे। जब जैसलमेर के क्रूर दीवान सालमसिंह मोहता पर महारानी रूपकंवरजी के कहने पर भाटी अन्नजी खींया ने प्रहार किया और उस प्रहार से वो भयंकर जख्मी हो गया था। उस समय मोहता का इलाज मनरूपजी ही कर रहे थे। जब महारानीजी को विदित हुआ तो उन्होंने मनरूपजी को पारिवारिक संबंधों का वास्ता देकर न केवल चिकित्सा करने से रोका अपितु अपने स्तर पर उसे नुकसान पहुंचाने की सलाह भी दी। मनरूपजी ने अपनी स्वामीभक्ति का परिचय देते हुए वो सब किया जो एक संवेदनशील चिकित्सक को नहीं करना चाहिए था। चूंकि सालमसिंह चारित्रिक व मानसिक रूप से विकृत प्रवृत्ति का था, जिससे मनरूपजी ने महारानीजी की बात को माना। मनरूपजी की स्वामीभक्ति व उनके उदात्त चरित्र की प्रशंसा करते हुए किसी समकालीन कवि ने कहा था-
अणियौ भँवर औनाड़, सायबावत दीठो सकव।
मानो चंदहर माड़, रतनू छोगो रेणवां।।
इन्हीं मनरूपजी के दो बहनों के नाम बहुत प्रसिद्ध है- उमा और करमां।
उमा माऊ गूंगा ने सोढों पर एक वणिक की रक्षार्थ जमर किया था तो करमां माऊ ने शिव के हाकिम जो भंडारी जाति का वणिक था की उद्दंडता और अमर्यादित व्यवहार से क्रोधित होकर उसके खिलाफ 90 वर्ष की उम्र में शिव और गूंगा के बीच आए उदासर तालाब के पास जमर किया था।
उलेख्य है कि सायबदानजी रतनू ने अपनी इन दोनों पुत्रियों की शादी रोहड़ियों में की थी। उमा की शादी गूंगा तो करमा माऊ का विवाह हड़वेचा के रुगदानजी बस्तीदानजी रां के साथ किया था।
करमां माऊ के चार पुत्र थे। जिनमें से एक का नाम भोजराजजी था। भोजराजजी का एक भाई झगड़ालू प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उनके इस स्वभाव के कारण पूरा गांव दुखी था। अतः उनकी शिव हाकिम को कईबार शिकायत की गई। इससे एक दिन हाकिम अपने दलबल सहित उनको गिरफ्तार करने हेतु आ गया। उसने आते ही भोजराजजी के भाई के बारे में पूछा लेकिन उनके डरके कारण किसी ने उनकी जानकारी नहीं दी।
हाकिम के साथ उस समय इसी गांव का दर्जी खूमाराम भी था। जो हाकिम का मातहत कर्मचारी भी था। वो हाकिम को अपने घर ले गया। खूमाराम ने अपनी पत्नी को हाकिम के लिए दूध रड़ा कर देने को कहा तो उसकी पत्नी ने कहा कि गायों को आने दें, अभी घर पर दूध है नहीं। यह बात गडाल़ में बैठे हाकिम ने सुनली। संयोग से उसी समय करमां माऊ की तीन बहुआरियां अपने बाड़े से गायों की दूहारी करके दूध से भरे चरूड़ै ऊंचाए गडाल के आगे से निकल रही थी। उन्हें देखकर हाकिम ने खूमाराम से कहा कि-
“इन लुगाइयों से मांगलो दूध! इनके कल़शें दूध से भरे हुए हैं।”
तब खूमाराम ने कहा कि-
“हुकम! यह उसी चारण के घर की सहुआल़ियां हैं। मैं इनसे यहां दूध मांगू ! मुझे यहां रहना है कि नहीं। वो तो वैसे भी बाड़ों से लड़ता हुआ चलता है। इतने बहाने से तो वो मेरी क्या हालत करेगा? आप सोच ही नहीं सकते।”
यह सुनते ही हाकिम उठा और चारणों की मर्यादाओं को भंग करते हुए अशिष्टता के साथ एक महिला के सिर से चरूड़ा उतारने कुत्सित कोशिश की। उन्होंने हाकिम की इस अभद्रता को देखकर तीनों महिलाओं ने दूध से भरे अपने चरूड़े वहीं पटक क्रोध में अपने घर चली गई।
क्रोधित बहुएं जब अपने घर पहुंची उस समय करमां माऊ माला फेर रही थी। ध्यातव्य है कि करमां माऊ की उस समय 90वर्षों को पार कर चुकी थी तो साथ ही अपनी नैत्र ज्योति भी खो चुकी थी। जब माऊ ने बहुओं के पैरों की धमक सुनी तो कहा कि-
“बेटा! दूहारी कर लाई क्या?”
तब बहुओं ने क्रोधातुर होते हुए कि- “माऊ! दूहारी तो करली लेकिन उस खूमले की जड़ जाए! खुमे की गडाल़ में राज के आदमी बैठे थे। उनमें से एक ने हमारे सिर पर रखे चरूड़े को बिनां कुछ कहे अशिष्टता के साथ से उतार लिया और दूसरों ने यही कोशिश की तो हम चरूड़े वहीं फोड़कर सीधी घर पर आ रही हैं। माऊ क्या बताएं? उस दुष्ट ने हमारे सिर से चरूड़ा नहीं उतारा अपितु चीरहरण किया है। हम तो मानो लज्जा के मारे मर ही गई थी। भां भारण हो गई थी।”
माऊ ने इतना सुना ही था कि उनकी भ्रगुटियां तन गई। शरीर कंपित होने लगा। माला छूट गई और वो भचाक पीढे से खड़ी हुई और बोली कि-
“राज के आदमियों की इतनी हिम्मत जो हमारी मान मर्यादा को भंग करें! क्या उस नीच खूमले के हिया फूटे हुए थे कि यह सहुआल़ियां चारणों की है और हमारे बहन-बेटियों जैसी है!”
तब एक बहुआरी ने कहा कि “माऊ राज के आदमी हमारे फलां को पकड़ने आए थे। तब वो किसकी परवाह करते? और उस खूमे की राय साथ है।”
माऊ ने उसी क्रोध में कहा कि “तो क्या हुआ? गलती फलाने की है और मर्यादा तार-तार करे मेरी बहु-बेटियों की! रामगत और राजगत तो एक जैसी होती है। क्या वे नहीं जानते कि बहन-बेटी तो सभी की समान होती है। उनकी मर्यादा भंग हुई,
वो भी उन्हीं के घर में ! ऐसे में मेरी इस माल़ा में सौ मण धूड़ है। मैं एक क्षण जीवित नहीं रह सकती। बेटियों ! यह अपमान तुम्हारा नहीं अपितु मेरा हुआ है। मैं घर की ढाकण हूं। मैं मर्यादा को रक्षा नहीं कर सकी तो मेरी इस माला का औचित्य ही क्या है? क्या करूंगी अब मैं जीवित रहकर?”
उन्होंने अपने पुत्रो से कहा कि मैं अब जमर करूंगी।
तब उनके एक बेटे ने कहा कि-
“माऊ एक तो ई फलानिये का दुख खा गया है। हम तो उसी से तंग आए बैठें हैं और ऊपर से तेरा यह हठ कि मैं जमर करूंगी! राज तो हाथ धोकर पीछे पड़ा है। ऐसे में तूं तो भली विचार और यह हठ छोड़दें। वैसे भी तूं जाचक अंधी कैसे चलेगी और कैसे जमर करेगी?”
लेकिन करमां माऊ अपनी जिद्द पर अड़ी रही और कहा कि-
“मैं अब एक पल भी यहां नहीं रुकूंगी। शीघ्र ऊंट गाड़ा तैयार करो और शिव की तरफ चलो मैं शिव थाने पर जमर करूंगी।”
उनके पुत्रो ने कहा कि
“माऊ आप घाव में घोबा मत करो। आप माल़ा फेरो। हमें एक और समस्या में मत डालो।”
तब माऊ क्रोध से फुंफकारती हुई बोली कि-
“किसने कहा कि मुझे दिखाई नहीं देता? मुझे सब दिखाई देता है। तुम शीघ्रता से चलने की तैयारी करो, मुझे आज ही जमर करना है।”
बेटों ने वृद्ध माऊ का मन रखने हेतु गाड़ा जुताया और रवाना हुए। माऊ अपनी दिव्य दृष्टि से मार्ग के बीच की हर जगह से अपने पुत्रो को परिचित करवाती कह रही थी कि-
“यह फलां ठौड़ और यह अमुक स्थान है। यह फलां खेजड़ी है और यह फलां पेड़ आ गया है।”
जब माऊ का गाड़ा शिव और गूंगा की सीमा के पास उदासर तालाब के पास पहुंचा तब माऊ ने कहा कि-
“अब गाड़ी रोक दो मैं यहीं जमर करूंगी।”
बेटों ने गाड़ा रोक दिया। उस भंडारी हाकिम के अमर्यादित व्यवहार के विरुद्ध करमां माऊ ने जमर में प्रविष्ट होते हुए अपने पुत्रों से कहा कि-
“शिव का ‘अपिया’ रखना साथ ही खूमले के घर का अन्नजल भी त्याग देना। हाकम भंडारी का सत्यानाश होगा तो साथ ही खूमले की हर पीढ़ी में एक कोढ़िया और असाध्य रोग से पीड़ित होगा। उसी से उसकी मृत्यु होगी। तुम्हारा कोई बाल ही बांका नहीं कर पाएगा। यह सब बातें सत्य हो तो मान लेना कि माऊ के वचन फलिभूत हो रहें हैं और वचनों में सत्य का निवास था।”
कालांतर में ये सभी बातें सही सिद्ध हुई।
करमां माऊ के पुत्र भोजराजजी ने माऊ के जमर की स्मृति में पूरे 12 माह तक लोगों को पुण्यार्थ भोजन करवाया, दान पुण्य किए।
माऊ के वंशजों ने माऊ की भोल़ावण का अक्षरशः पालन किया। जिन्होंने ने नहीं किया उन्हें उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़े और जिन्होंने किया उनके घर आनंद की बांसुरी बजती रही।
जमर स्थल पर स्थापित करमां माऊ के साथ एक और मूर्ति हैं। वो उनकी बुआ विजया माऊ की है। ऐसा हड़वेचा के लोगों का कहना है। मूर्ति से अनुमानित होता है कि विजया माऊ ने उनके साथ ही जमर किया होगा।
।।करमां माऊ रा दूहा।।
करमां सुकरत कर करम, धरम तणी रख धज्ज।
राखी जाती रेणवां, लोवड़याल़ी लज्ज।।1
सूमलयाई माड़ सुज, सायब तणै सदन्न।
रतनू कुल़ धिन रेणवां, तैं हद धार्यो तन्न।।2
हड़वेचा धर हेतवां, सतधर हेर सथांन।
प्रतापी पायो प्रसिद्ध, रोहड़ वर रुगदांन।।3
जात भंडारी जांणियो, हाकम शिव रो हीण।
सांसण री मरजाद सठ, उथपी आय कमीण।।4
मरजादा उण मछर में, रेट दिवी आ रुढ्ढ।
हाकम पाई हाण हिव, मतहीणै शिव मुढ्ढ।।5
करमां गल कानां करी, कड़क उठी कर रीस।
बीज विछूटी बादल़ां, पड़ी पापियां सीस।।6
जद इम कहियो जोगणी, रचूं जमर इण रीत।
सुणसी कथ आगै सकव, गाय वरण सह गीत।।7
डिगी न पण सूं डोकरी, चढी जमर चित लाय।
हर समरण कर हेत सूं, जुड़ी सगतियां जाय।।8
खल़ भेल़ो इक खूमलो, निलजो दरजी नीच।
करमां तैं दी कोप नै, मोत उणीनै मीच।।9
जस छायो इण जगत में, इल़ कुल़ अंजस आप।
रीझ सदामत राखजै, धुर थारी धणियाप।।10
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी
फोटोज साभार-रमेशजी हड़वेचा