गद्दार तुम्हारी खैर नहीँ जो हमसे पंगा मोल लिया

मानव होकर जो पशुओं का चारा तक खा जाते हैं,
नेकी को नाचीज़ समझकर दूर बिठाकर आते हैं,
जिनके दिल से संवेदन के तारों का संपर्क कटा,
जो लाचारों की आहों पर सेंक रोटियां खाते हैं।
इस धरती पर आने वाले वहीँ लौटकर जाएंगे,
गाड़ी, बंगले, सोना, चांदी पीछे ही रह जाएंगे,
विकलांगों की वैशाखी से काला माल कमाने वाले,
तेरी कब्र खोदने हम सब बिना मजूरी आएंगे।
तुम क्या जानो हमें पालने वाले तिल-तिल जलते हैं,
तब जाकर लाचार विकल अंग बेबस बच्चे पलते हैं,
अगर कहीं सरकार भूल से उन्हें हंसाना चाहती है,
थककर रुकी हुई कश्ती को पार लगाना चाहती है।
तब-तब तुमसे नेता नाविक बनकर स्वांग रचाते हैं,
हरी-हरी झंडी हिलवाकर तट से नाव चलाते हैं,
पर जिनकी नियत पतली हो (वे) नाविक कब बन पाते हैं,
बीच भंवर में धोखा रचकर नाव तलक खा जाते हैं।
शंकर बनकर हमने जिस दिन नैत्र तीसरा खोल दिया,
गद्दार तुम्हारी खैर नहीं जो हमसे पंगा मोल लिया,
विकट घड़ी में जो वैशाखी साथ निभाने वाली थी,
डगमग करते कदमों को जो राह दिखाने वाली थी,
था मन में उत्साह सहारा लेकर मंजिल नापेंगे,
विकल अंग अब अंग वालों से हाथ मिलाकर नाचेंगे।
पर इस धार पर नर की सोची बात कहाँ हो पाती है,
कलयुग में बस नेताओं की बात खुदा तक जाती है,
अरे खुदा के बन्दे होकर झूठ कपट का कोल किया,
गद्दार तुम्हारी खैर नहीँ जो हमसे पंगा मोल लिया।
जो किसी आग से नहीँ जले उसको भी आह जलाती है,
लाचार क्रोध की लपटों से खुद आग तलक दह जाती है,
पाषाण पिघलकर बहने को मजबूर आह से होता है,
बरबाद बैल की आह दाह से लोह भसम हो जाता है।
भूखे मुंह का छीन निवाला तहखाने भरवाने वाले,
तिल-तिल तुझको जलना होगा पर घर आग लगाने वाले,
तेरा दम्भ तुझे खाएगा न्याय तुला पर तोल लिया,
गद्दार तुम्हारी खैर नहीँ जो हमसे पंगा मोल लिया।।
~~डा. गजादान चारण “शक्तिसुत”