काव्य एवं इतिहास का सुभग सुमेल: गजन प्रकास

प्राक्कथन
राजस्थान वीर प्रसविनी धरा के रूप में विश्वविदित है। इसे धारा तीर्थ के धाम के रूप में जाना जाता है। जहाँ शूरमाओं ने केशरिया कर शाका किए वहीं वीरांगनओं ने अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ जौहर की अग्नि में स्नान कर अपनी कुलीन परम्पराओं को अक्षुण्ण रखा। यहाँ के वीरों ने मातृभूमि के मान-मंडन व अरियों के दर्प खंडन हेतु रणांगण में वीरगति प्राप्त करने में मरण की सार्थकता मानकर यह घोषित किया कि ”मरणो घर रै मांझियां, जम नरकां ले जाय। “ मातृभूमि, स्त्री सम्मान, निज स्वाभिमान, गोधन की रक्षार्थ, देवालयों की सुरक्षार्थ, स्वातंत्र्य चेतना व मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु वीरगति प्राप्त करने में गौरव की अनुभूति मानी जाती था।
डिंगल कवि बदनजी मीसण लिखते है कि-
सत विवेक सुकृत सरम, साहस धरम समाज।
पर-धर में नह पावजे, ऐ मुरधर में आज।।
इन वीरों की वंदान्य वीरता को अभिमंडित करने एवं भविष्य की पीढी को सुभग संदेश सम्प्रेषित करने हेतु यहाँ के डिंगल कवियों ने प्रबन्ध काव्य, खण्डकाव्य एवं प्रकीर्णक काव्य सृजित कर यहाँ की रचनात्मक चेतना एवं चितंन से भावी पीढ़ी में संस्कार सिंचन का कार्य किया है। डिंगल चारणों की प्रिय भाषा रही है और ऐतिहाससिक वीर काव्य इनका प्रिय विषय। ऐसा नहीं कि चारणों ने केवल वीर रसात्मक काव्य ही रचा हो। नहीं, चारणों ने उस तमाम विषयों पर लिखा जो मानव कल्याण व सद्मार्ग निर्देशन हेतु निश्चित है। डिंगल में अनके ऐतिहासिक वीर काव्य रचे गए। जिनमें से कई तो आज भी अज्ञात, अल्पज्ञात व अप्रकाशित पड़े हैं। जिसके कारण काव्य और इतिहास में रुचि रखने वाले इनके महत्त्व से सर्वथा अपरिचित ही है। ऐसा ही एक ऐतिहासिक वीर काव्य है ’गजन प्रकास’।
आज से पहले गजन प्रकास भी अज्ञात काव्य कृति थी। इसकी एकमात्र प्रति डिंगल कवि अम्बादानजी घूवड़ (सुमलियाई, जैसलमेर) के पास थी। इतिहास व साहित्य में गहन रुचि व गति रखने वाले तनेसिंह सोढा ’काठा’ (व्याख्याता इतिहास) ने मूर्धन्य विद्धान अम्बादानजी की महकीन सहायता से इस महत्त्वपूर्ण कृति को प्रकाश में लाकर ऋषि ऋण परिशोध का उदात कार्य किया है। क्योंकि डिंगल काव्य कृति का सम्पादन, पाठ निर्धारण व उसका सरलार्थ दुरुह कार्य है। लेकिन सम्पादक द्वय ने कठिन परिश्रम व कर्मनिष्ठा से इस कठिन कार्य को डिंगल के पाठकों के लिए सुगम बना दिया है।
अम्बादानजी घूवड़ डिंगल के सिद्धहस्त विद्धान हैं तो वहीं तनेसिंहजी इतिहास गांभीर्यपूर्ण कार्य कर रहे हैं। आप दोनों ने ’गजन प्रकास’ की टीका, ऐतिहासिक टिप्पणियां, कठिन शब्दार्थो के अर्थ देकर साधारण से साधारण पाठक के लिए पठनीय बना दिया है। इसके लिए आप दोनों साधुवाद के पात्र हैं।
’गजन प्रकास’ ऐतिहासिक वीर काव्य की सृजनधारा में एक खण्डकाव्य है। खंडकाव्य उसे कहते है, जिसमें किसी विशेष घटना या कथांश के वर्णन तक उद्देश्य सीमित रहता है। इस दृष्टि से बात करें तो ‘गजन प्रकास’ में बीकानेर महाराजा रतनसिंहजी व जैसलमेर महारावल गजसिंह जी के बीच ’बासनपी’ नामक स्थान पर हुए युद्ध और इस युद्ध में बीकानेर की पराजय व जैसलमेर की विजय का प्रामाणिक वर्णन है। गजन प्रकास के रचयिता साहिबदान रतनू सिरूवा, महारावल गजसिंहजी के समकालीन कवि थे। ’गजन प्रकास’ के ऐतिहासिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक महत्त्व की बात करें उससे पहले कवि परिचय व जैसलमेर के शासकों के साथ रतनुओं के सनातनी संबंधों की बात करना समीचीन रहेगा।
रावल तणुरावजी के प्रोत्र व विजयराज जी चूड़ाला के पुत्र देवराज जी भाटी के प्राणरक्षक वसुदेवायत पुरोहित के पुत्र रतनूजी से चारणों में रतनू शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। देवराजजीभाटी की प्राण-रक्षार्थ रतनूजी और देवराजजी ने एक थाली में एक साथ भोजन किया था। उसी के फलस्वरूप देवराजजी के दुश्मनों ने उन्हें भी ब्राह्मण समझकर छोड़ दिया था। उससे देवराजजी की प्राण रक्षा हुई। उसी कारण रतनुओं का विरुद ’राव रुखवाळ’ कहलाने लगा-
रावल शरणै राखिया, पाया लाख पसाव।
वीणं सारे ई भाखियो, रतनू साचा राव।।
उसके कारण पुरोहितों ने रतनूजी को जातिच्यूत कर दिया था। कालान्तर में नीति निपुणता व साहस के बल पर देवराजजी ने देरावर की स्थापना की, तब रतनूजी प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु अपने आदमियों को भेजकर गिरनार से वापस बुलाया। किंवदती चलती है कि उस समय भगवती आवड़ सदेह विराजमान थीं, उन्होंने रतनूजी को अपना मानस-पुत्र मानकर चारण बना दिया था।
पग पेस हुवो रतनेस पुरोहित, ऐस गुणी द्विज वेस आयो।
पळटै नर भेस दिवी अपणेरू, जेस कियो गढवेस जयो।।
जिण वेस हमेस रहै जग-जामण, काट कळेस की श्वेत कळी।
अर₹इ आवड़ रूप विख्यात इळ पर, मात दियै मनरंगथळी।।
उस समय देेवराजजी रतनूजी को एक अरब पसाव इनायत कर अपना पोलपात बनाया था। किसी शासक द्वारा किसी चारण कवि को ऐसे महनीय पुरस्कार देने का इससे पहले उदाहरण देखने-सुनने में नहीं आया। हां बाद के तो उदाहरण मिलते हैं-
रीधै भाटी राव, अरब इक रतनू अप्पै।
विभिन्न राजवंशों के अपने पोलपात हुआ करते थे-
सौदा ने सिसोदिया, रोहड़ ने राठौड़।
दुरसावत ने देवड़ा, जादम रतनू जोड़।।
पोलपात के पास गढ़ की मुख्य पोल की रक्षा का महनीय दायित्व हुआ करता था। इससे यह सिद्ध होता है कि पोलपात विश्वनीय, स्वामिभक्त व संबंधित राजवंश के प्रति पूर्ण समर्पित हुआ करते थे। विभिन्न डिंगल गीतों में पोल के स्वाभिमान की रक्षार्थ पोलपातों के दिए बलिदानों का गौरवशाली इतिहास गुम्फित है। दो-चार उदाहरण देने समीचीन रहेंगे-
मुदायत रीझ लेतो सदा मोहरी, मोहरी नेग में झोक मतनू।
मोहरी पणो निरवाहियो मोटमन, राड़ में मोहरी लड़ै रतनू।।
~~गीत कुशल जी रतनू रो
अंणद चंद जिसा उजवाळै, भाळै अंक संसारे भट।
दूर हजूरी करै साहिबी, राठौड़ां विच बारहट।।
~~मोटम जी बारहठ रो गीत
पळट पाट जोधाण दहूं रंग सिरां पळट, वळोवळ हुई धर हाक बाकां।
जोस इन्दरभाण मेले नहीं जीवतो, नर जिते ऊससे सास नाकां।।
~~इन्दरभाणजी बारठ रो गीत
कहियो नरपाळ आविये कटकां, धोम छडाळ धराखे धोळ।
पोळ बडा गज गांम पावतो, पड़िया भार न छोडूं पोळ।।
~~नरूजी सौदा रो गीत
स्यांम रे काज गुजरात जीवण सुतन, विढण धड़ कुंवारी तणौ वनियो।
रंभवर हरी रे साथ बेठौ रथां, कथा नायो कहण घरै किनियो।।
~~माहवजी कनियिा रो गीत
उस समय देवराजजी व रतनूजी ने एक थाल में एक साथ भोजन किया था। भरे दरबार में देवराजजी ने रतनूजी को अपना अग्रज कहकर सम्बोधित किया तथा भाटियों को शपथ दिलाई कि जो भाटी कुलीन होगा वो रतनू व रतनू की संतति से
सदैव सद्भावी रहेगा। एक लोक विश्रुत दोहा है-
देवराज इम दाखियो, मूझ तणै कुळ मांम।
विरचै भाटी रतनुवां, जो कुळ सुधा नाय।।
. . . . . . . . . .
देवराज यूं दख्यो, सुणो मो गोती सारा।
रावळ रु रतनेस, निमख मत जांणो न्यारा।
कहूं सुणो दे कान, भाळ रतनो मो भाई।
जादम बदळै जोय, निपट असली रो नाई।।
जादमां छात इण विध जगत, वसू सुजस वरणावियो।
मीसणां घरे धिन माड़पत, पह रतनो परणावियो।।
~~गिरधरदान रतनू कृत, वंश परंपरा से
इन्हीं रतनूजी की संतति में आगे चलकर बांझाजी रतनू हुए।
जग रतनै रे जोय, लूूंप वड पूत वडाळो।
चौथौ जिण रै चतुर, वसू हुवो विरदाळो।।
खगधारी खंगार, चौथ सुत धरती चावो।
जिण घर बांझो जोय, ठिमर हुवो धर ठावो।।
इतिहास बात कायब इधक, विध-विध करै बखाणियो।
जैण नै जदै जैसल-सुतन, जबर महिपत जांणियो।।
~~गिरधरदान रतनू कृत
बांझारावजी रतनू को जैसलमेर रावल शालीवाहनजी ने (1184-1189 ई. ) 21 गांवों के साथ सिरूवा गांव इनायत कर बहुमान बढ़ाया था। सिरूवा समस्त रतनुओं का मथासरा है। सिरूवां का तांबापत्र तो उपलब्ध नहीं है लेकिन दंताल-पत्र उपलब्ध है, जिसमें द्रव्यादि देने के साथ-साथ सिरूवा देने का भी उल्लेख है-
सांसण सह इकबीस, हसत उभै सौ हेमर।
सहंस गाय सुवाय, सहंस दत भैस्यां सद्धर।।
दस सहंस दारक्क, सहंस दस सांढ थूंबाळी।
मांणां हेक मोतियां, वसुह दे मौज बडाळी।
कर वीर मूठ बांझो सकव, थिर कर बारठ थाप्पियो।
सालवांण राण जैसल सुतन, सिरूवो सांसण समप्पियो।
बांझरावजी रतनू अपने समय के वीर, साहसी, नीति निपुण व उदार चारण थे। उन्होंने सिरूवा में अपने रहने के लिए एक भव्य भवन बनाया था, जो बांझामेड़ी कहलाता था। आज भी उसके खंडहर के अवशेष सिरूवा में मिलते हैं। बांझरावजी ने लोद्रवा के शासक भोजदेव भाटी के नेतृत्व में मोहम्मद गौरी से लड़े गए युद्ध में अदम्य साहस व वीरता प्रदर्शित की थी। उस युद्ध में बांझरावजी के भाई-पुत्र आदि सतरह रतनुओं ने वीरगति प्राप्त कर स्वामिभक्ति व स्वदेश प्रेम की मिशाल कायम की थी। इस सम्बन्ध में लोक में एक दोहा प्रसिद्ध है-
वढियो रावळ भोज वढ, अतंस धार उछाव।
सझ कटिया कज सांम रै, रतनू सतरै राव।।
इन्हीं बांझरावजी की संतति में आगे चलकर करनीदानजी हुए और करनीदान जी के पुत्र गरवोजी हुए। डिंगल कवि चालकदानजी रतनू मोड़ी लिखते हैं-
वसुदेव रतनू लूंपो चौथरु खंगार चेत।
बांझो देदो जोगराज रतन राव जानिए।।
जेत माल चंद जोय सदन करन सोम।
गरवो रू गीगो खेड़ो रूपसिंह मानिए।।
गरवोजी अपने समय के उदार चारण थे। लोक में एक दोहा प्रसिद्ध है-
सिरुवो छोगो सांसणां, गरवै वाळो गांम।
जोड़ै जैसलमेर रै, नवखण्ड चावो नाम।।
इन्हीं गरवोजी के आगे चलकर भवानोजी रतनू हुए। भवानोजी अपने कालखंड के प्रसिद्ध कवि थे। उनकी ’देवी स्तुति’ नामक रचना प्राप्य है। छंद का भाषायी सौष्ठव व प्रांजलता प्रशंसनीय है-
झलरी झणकार झणण झम झमर, झळहळ कुंडळ निळझारम।
झट्टा झड़ झोर खगै जुआरी, झरहर रुहिरे झमालम।।
झंकार बाण भुज झालंती, झाझ दुरी हेकण झाया।।
सारदा सुरता बकता सिद्धि, सकळा कमळा सुरराया।
त्रपुरा त्रिसगति तोतला तारा, तंपाचारी तेमंगा।
त्रियहराई विज्जया तरणी, तव नतवंता तारंगा।।
त्रहूवण तती सती कत्याणी, तं मालंगाी प्रविताया।
सारदा सुरता वकता सिद्धि, सकळा कमळा सुररया।।
इन्हीं भवानो जी की संतति में आगे की पीढ़ी में हरसूळजी हुए और हरसूळ जी की संतति में आगे चलकर मायाराम उदयरामोत के घर हमारे आलोच्य कवि साहिबदानजी का जन्म हुआ।
चारणों में रतनू शाखा में डिंगल के अनेक सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं जिनमें आसरावजी, तिहणरावजी, चंद्रभांणजी, भोजराजजी, करनजी, भरमसूरजी, ईसरदासजी, डूंगरसी, भारमलजी, कुशललाभजी, आसाणंदजी, जीवराजजी, देवराजजी, हिंगोलदासजी, वीरभाणजी, हमीरजी, बलूजी, सूरदासजी, दूदोजी, शंभुदानजी महादानजी, बगसीरामजी, चिमनजी, जालमजी प्रभृति कवियों की ही श्रेणी में साहिबदानजी रतनू का नाम अग्रगण्य हैं।
साहिबदानजी की शिक्षा-दीक्षा साधारण परिवारों में होती है, वैसी ही हुई परन्तु डिंगल काव्य सृजन की कला उन्हें विरासत में मिली थी। उनके पिता मायारामजी भी अपने समय के निष्णांत डिंगल कवि थे। ’मानप्रकास’ (सम्पादक डॉ. शक्तिदानजी कविया) में मायारामजी रतनू का एक गीत उपलब्ध है। जैसलमेर महारावल गजसिंह ने मानसिंह के विपत्तिकाल में मायाराम जी के साथ स्वर्ण मुद्राएं भेजी थी। जब मायाराम जी वापस आए तब गजसिंहजी ने पुछा था मानसिंह कैड़ाक है? तब मायाराम जी ने एक छोटा गीत कहकर मानसिंहजी के प्रभावी व्यक्तित्व को रेखांकित किया था। उसके दो दोहाले देने समीचीन रहेंगे।
रिव घण तेज मौज रैणायर, चोज भोज वीकम गुण चाव।
धजबंधी विजपाळ कुलोधर, राजा इसौ कमधजां राव।।3।।
करसी राज कमध नवकोटां, ईहग घणां पूरसी आस।
धाकल दिली सतारै धरसी, विस्तरसी प्रथमी जसवास।।4।।
ऐसे प्रभावी व प्रतिभा संपन्न पिता की साहिबदान सुयोग्य संतान थीं। पिता-पुत्र दोनों की जैसलमेर दरबार में पारंपरिक प्रतिष्ठा थी। महारावलजी के विश्वसनीय मिनखों में दोनों अग्रगण्य थे। जब हम भाटियों व कवि साहिबदानजी रतनू के स्वगोतिय बंधुओं के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो यह बात स्पष्ट होती है कि भाटियों ने रतनुओं पर पूरा विश्वास किया और रतनू उस विश्वास पर सदैव खरे उतरे। लोद्रवा के शासक भोजदेव से लेकर महारावल जवाहरसिंहजी तक रतनुओं ने इस बात को सिद्ध किया कि-
प्रीत पुराणी न पड़े, जे उत्तम सूं लग्ग।
सौ वरसां जळ में रहै, (तो ई) पत्थरी तजै न अग्ग।।
रतनू आसरावजी, तिहणरावजी, चंद्रभांणजी, चिराईजी, भोजराजजी रतनू आदि जैसलमेर के शासकों के संकट में विश्वसनीय साथी सिद्ध हुए।
जैसलमेर रावल घड़सीजी ने तो अपने संक्रमणकाल में अपने ‘रावले’ (रानियां) को बधाऊड़ा के रतनुओं के यहां सुरक्षा में कुछ माह तक रखा था। क्षत्रिय संकटकाल में केवल अपनी जनानियों को चारणों के यहां ही रखते थे, अन्यत्र नहीं-
सरब कंबीला सूंप, भड़ चढ जाता भाखरां।
(ज्यांनै) रखता माता रूप, कविजन नित सेवा करै।।
इसी संदर्भ में रतनुओं ने भी देशभक्ति की मिशाल कायम कर सुयश व अपने स्वामियों का विश्वास प्राप्त किया था। यही कारण था कि जैसलमेर के शासकों ने समय-समय पर यह सार्वजनिक घोषित किया था कि गढ़ भले ही चला जाए परन्तु गढ़वी रहने चाहिए। महारावल हरराजजी ने तो अपनी मृत्युशय्या पर अपने पुत्र भीम से वचन लिया था कि वो राजा बनने के बाद सदैव कवियों का आदर करता रहेगा क्योंकि चारण सदैव सुमार्ग पर चलते हैं और अपने राजा को भी सद्मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करते हैं। ये जब-जब क्षत्रियत्व में कमी देखते हैं अथवा क्षत्रियत्व का वट जलने लगता है तो उस समय अपने ओजस्वी शब्दों से अमृत सिंचन कर उसे हरा-भरा रखते हैं-
हालण सुमग सुमाग हलाणां, रहणी-कहणी एक रहे।
तारण तरण छत्रियां ताकव, कुल़ चारण हरराज कहे।।
धू धारण केवट छत्रीधर्म, कळियण छत्रवट भाळ कमी।
व्रछ छत्रवाट प्राजल़ण वेळा, ईहग सींचणहार इमी।।
महारावल भीम ने सदैव इन वचनों व भावों की रक्षा की थी। महारावल अमरसिंहजी ने तो इनसे भी बढ़कर अपने पितामह के वचनों की दृढ़ पालना सुनिश्चित की थी। उन्होंने उन लोगों को कठोर दण्डित किया था जो अकारण चारणों को दुःखी करते थे। कविराजा बांकीदास लिखते हैं-
वैरी वेहल व्रन रा, दीठा-दीठा जिण देस।
माड़ेचा तें मेलिया, आभ धूवां अमरेस।।
प्रसंगवश उल्लेख करना समीचीन रहेगा कि एक बार अकाल के समय जैसलमेर के कुछ रतनुओं ने महारावल अमरसिंहजी के सांढियों के टोळे (वर्ग) को घेरकर अपने यहाँ ले गए। जब लोगों ने इस अपराध की तरफ दरबार का ध्यान इंगित किया और निवेदन किया कि इस अक्षम्य अपराध के लिए चारणों को उचित दण्ड दिया जाए। लेकिन उस उदारमना नरेश ने दरबारियों की सलाह पर अमल नहीं करके अपनी उदार परंपरा का निर्वाह करते हुए चारणों के स्वाभिमान को बनाए रखने हेतु उन चारणों को भौतिक सुविधाएं नियमानुसार ’खुरी’ के रूपये देकर ’टोळा’ ससम्मान वापस मंगवाया। परन्तु उन्होंने चारणोंको इकट्ठा किया और कहा कि मैंने मेरे पितामह हरराजजी के वचनों की पालना की है। अतः आप बताओ कि वे मरते समय हमें क्या कह कर गए थे? वहाँ उपस्थित कोई चारण इस बात का प्रत्युत्तर नहीं दे सका। तब डिंगल के दिग्गज कवि कुंभकरणजी सांदू भदोरा ने एक गीत कहकर इस बात का प्रत्युत्तर दिया था, जिसे सुनकर महारावलजी बहुत प्रसन्न हुए थे। उस गीत के दो दोहाले देने समीचीन रहेंगे।
धिनो धारणा हरराज गोरसर धणी, देस री भोळावण नको दीधी।
चारणां वरन री क्रीत हंस चालतां, करण सिंवरण तणी पाळ कीधी।।
व्योम नंद घुरंतां धरत पग विमाणां, वेणसर पधारे जिकण वेळा।
आपरां सेवगां रमण हर रावळै, वडाळा भूलो नहीं तिकण वेळा।।
महाकवि कुंभकरणजी महारावल़ अमरसिंहजी की कमनीय कीर्ति में ‘अमररासो’ नामक महनीय ग्रंथ लिखा था, जो अद्यावधि अप्रकाशित है।
जैसलमेर के भाटियों ने सदैव आक्रांताओं का मुकाबला सबसे पहले किया और मातृभूमि की रक्षार्थ बलिदानों की श्रृंखला स्थापित की थी। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इस्लाम की उमड़ती आँधी को भाटियों ने सदैव रोका था। जैसलमेर के शाका व जौहर इस बात के साक्षी है। यही नहीं जैसलमेर के मगरों पर जगह-जगह स्थापित पाषाण पुतलियां भी इस बात की गवाही दे रही है कि इन पूतलियों में उत्कीर्ण छवियों के नायकों ने अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ वीरगति प्राप्त की थी। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक का एक डिंगल गीत अविकल रूप से देना समीचीन रहेगा-
उमड़ी इसलाम तणी वा आंधी, ढिगला हुय-हुय कोट ढया।
बीकण हुवा बांठखां वांसै, रण हरवळ जदुरांण रया।।
सिद्ध वडो देवराज सूरमो, धिन खाटी पिछमांण धरा।
त्याग-खाग निकळंक तिमिरहर, सर कर अरियां लीध सरा।।
इण गादी वीजड़ आंटीलो, हिव धिन लंझो नाम हुवो।
वट जोवै विजड़ासर अजतक, दीठो कोय न भूप दुवो।।
देतां दही विजड़ री दिसिया, सासू कहिया वैण सही।
आडो उत्तर तूं भड़ भाटी, रोकण दुसम्यां अडग रही।।
आयो साह लोद्रवै ऊपर, भोज तात कथ कियो भलो।
कटियो अनड़ झेल किरमाळां, ओ निरवहियो वचन अलो।।
सालीबांण सुतन जैसल रो, सिग दातारां साख सही।
गांम इकीस बांझ गढवी नुं, देयर बातां राख दही।।
रावळ रतन मूळरज मांटी, थिर कीरत रा थंभ थपै।
गोरहरो गरवीलो गरबै, जस जह हिन्दुस्थान जपै।।
दाटक जसहड़ जोय दूदड़ो, मांन गोरहर मुगट मणी।
जिण री अज जैसळगिर जाझो, जपिसे बातां जणो-जणी।।
सिर पड़ियां लड़ियो रण सूरो, बातां अह अखियात बही।
सांदू कवि हूंफड़ै सांप्रत, कीरत जिणरी विमळ कही।।
भो हरराज वडाळो भाटी, खाटी कीरत बात खरी।
जावै राज भलांई जावै, कवियण राखण बात करी।।
राज तणो इस सोच रसा पर, कदियन नरपत रिदै कियो।
सींचण साहित वेल सचाळै, दिल सुध एको ध्यान दियो।।
अनड़ भीम हुवो इण अवनी, ज्यांरा झाटां नको झली।
पणधर प्रगट लियो जस प्रथमी, हर दिस बांरी गल्ल हली।।
भड़ अमरेस हुवो इण भूयण, खत्रवट पिंडां पूर रखी।
प्रीत सनातन पाळ परधळी, इळ पंगी दुनियांण अखी।।
भळहल धरां भूरिया भाखर, विमळ बेकळू रेत बठै।
जग रा जोवण आय जातरी, अंतस पाळ’र हेत अठै।।
वा ! वा! रै जैसळगिर वसुधा, रम डूंगरियां आई रँजै।
जिण सूं रही अपरबळ जोरां, गाढ कैण में तुझ गँजै।।
जैसलमेर के भाटियों की अदम्य वीरता और परम्पराओं से प्रीत का वर्णन किसी कवि ने व्याज-स्तुति अलंकार में वरेण्य रूप से किया है। व्याज-स्तुति में ऐसा आभास होता है कि मानो कहने वाला उसकी निंदा कर रहो, लेकिन वो वास्तव में होती प्रशंसा है-
जैसल़मेरे भाटियां, दोय अवगुण्ण अेह।
बेटा रण जूंझै मरै, बेटी काठ चठैह।।
यही बात महाराजा मानसिंहजी जोधपुर ने अपने एक गीत में कही है। अद्यावधि अप्रकाशित उस गीत का एक दोहाला उदाहरणार्थ-
गहभरिया गात गढां रा गहणा, उर समाथ छिबता अनड़।
स्वारथ में अखियात साम धरम, भारथ में समराथ भड़।।
इन बातों का समावेश ’गजन प्रकास’ में कवि साहिबदानजी रतनू ने प्रावीण्य के साथ किया है। कवि केवल वर्णन विशदता में ही पारंगत हो, ऐसी बात नहीं है अपितु भाषा पर भी पूरी पकड़ है। ऐतिहासिक काव्य में लम्बा वर्णन पाठक को निरस लगने लगता है। लेकिन ’गजन प्रकास’ में ऐसा नहीं है क्योंकि कवि ने सुघड़ता, सहजता एवं सरसता के साथ तथ्यात्मक वर्णन किया है, जो पाठक को अपनी ओर खींचे रखता है। डिंगल काव्य में प्रायः ध्वनात्मक प्रयोग कवि अधिक करते रहे हैं। लेकिन साहिबदानजी ने ऐसा नहीं किया है। इन्होंने पांडित्य प्रदर्शन नहीं करके सहज वर्णन किया है। साहिबदानजी डिंगल के सिद्धहस्त कवि हैं। आपने डिंगल के कई छंदों का साधिकार प्रयोग किया है। यथा दोहा, सोरठा, गाथा, साटक, त्रोटक, मोतीदाम, भुजंगी, पधरी, झमाल, बेअखरी उधोर, हनुफाल, दोमलिया, आदि छंदों का प्रयोग किया है तो साथ ही वचनिका को भी परोटा है। दोमलिया, यानी दुर्मिला जिन्हें रोमकंद, रूपमुकंद मंकदडंबरी, केसरी आदि नामो से डिंगल कवियों ने लिखा है। इन छंदों को पढ़ने पर हमें विदित होता है कि साहिबदानजी डिंगल के सभी छंदों को लिखने में प्रवीण थे। इनका जितना अधिकार डिंगल छंदों पर था, उतना ही डिंगल गीतों पर अधिकार था। डिंगल कवियों ने महाकाव्यों व प्रबन्धकाव्यों में विभिन्न छंदों का प्रयोग कर यह सिद्ध किया है कि डिंगल कवि काव्य सृजन में उच्च कोटि के कारीगर हुआ करते थे। साहिबदानजी ने काव्य और इतिहास को एक साथ सुरक्षित रखा है। काव्य में इतिहास का वर्णन सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन जो कवि सरस्वती के मौन साधक होते हैं उनके लिए वीणावादिनी वाणी का वरदान देकर कठिन कार्य को भी सरलतम बना देती है।
साहिबदानजी ने ’गजन प्रकास’ में गांभीर्ययुक्त वर्णन करते हुए विभिन्न घटनाओं व विषयों का अलंकृत शैली में मनोहारी वर्णन कर अपने पांडित्य को कवि समाज के समक्ष प्रस्तुत कर सुयश के भागी बने। कवि संस्कृत, डिंगल, पिंगल में समदक्षता रखता है। बहुज्ञता व भाषायी वैभव का ’गजन प्रकास’ पुष्ट प्रमाण है। ऐतिहासिक काव्य को विरचित करते समय प्रायः एक पक्ष कमजोर रह जाता है, लेकिन हमारे आलोच्य कवि ने इतिहास व काव्य को एक साथ गुम्फित कर मणिकांचन संयोग सिद्ध किया है। अलंकारों का प्रयोग कवि ने सायास नहीं किया है, अपितु अनायास रूप से हुआ है। यथा अनुप्रास, यमंक, रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा अलंकारों का यथा स्थान प्रयोग स्वतः हुआ है। इससे कवि के काव्य का कला पक्ष उम्दा बन पड़ा है। साहिबदानजी के काव्य का जितना मजबूत भाव पक्ष है उतना ही वरेण्य कला पक्ष है। चूंकि संपादक ने अपनी बात में भाव पक्ष व कला पक्ष पर विस्तार से कह दी है अतः यहाँ उसी बात को लिखना केवल पिष्टपेषण ही होगा। अतः यहां यह बात पुनः नहीं लिखूंगा।
प्रायः कवि अपने काव्य नायक को श्रेष्ठ और प्रतिपक्षी को कमतर आंक कर वर्णन करते हैं और यही डिंगल कवियों पर आरोप भी है कि वे एक पक्षीय अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन करते हैं। लेकिन साहिबदानजी ने यहाँ यही सिद्ध किया है कि-
भूंडी हो अथवा भली, है विधना रै हाथ।
कवि ने तो कहणी पडै़, सुणी जिसी सह बात।।
या देवकरणजी के शब्दों में
कूड़ो साचो कैवणो, है नी म्हांरै हाथ।
कवि समै रो केमरो, विश्व बात विख्यात।।
साहिबदानजी ने बड़ी निष्पक्षता के साथ अपने कविकर्म के कर्त्तव्य का निर्वहन करते हुए किसी भी पक्ष के प्रति पूर्वाग्रह प्रकट नहीं किया है। भले ही वे जैसलमेर के दरबारी कवि व पोलपात थे, लेकिन यहाँ उन्होंने अपने कवि रूप की भूमिका को ही निभाया है। यही कारण है कि पढ़ते समय कहीं भी नहीं लगता कि कवि का किसी एक पक्ष के प्रति लगाव या पूर्वाग्रह है। साहिबदानजी ने संक्षेप में जैसलमेर के अन्य महारावलों के लोक कल्याणकारी कार्यो एवं वीरता का वर्णन करते हुए महारावल गजसिंहजी के उदात्त, मुखर, व प्रभावी व्यक्तित्व का विस्तार से वर्णन किया है तो साथ ही तत्कालीन उनके प्रमुख सहयोगियों, भाटी सामंतों, ठाकुरों, चारणों तथा अन्य प्रभावी व्यक्तियों का यथायोग्य वर्णन कर काव्य कृति को प्रभावी बनाया है।
‘गजन प्रकास’ जैसा महनीय ग्रंथ लिखने पर महारावल गजसिंहजी ने कवि साहिबदानजी मायारामोत को किस प्रकार सम्मानित किया था? इसका कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। लेकिन साहिबदानजी ने महारावल गजसिंहजी की कमनीय कीर्ति को काव्य में पिरोकर अक्षित कर दिया जिसका पुष्ट प्रमाण ‘गजन प्रकाश’ है। सही है दातार, कवि को जो कुछ भी भेंट करता है, कवि उसे थोड़े दिनों में ही अपनी आजीविका में काम ले लेता है लेकिन कवि, दातार को जो भी भेंट करता है वो जाते युगों तक अमर रहती है-
दाता ने कवि को दिया, कवि गया सो खाय।
कवि ने दाता को दिया, (वो) जातां जुगां न जाय।।
मैं पुस्तक के संपादक तनेसिंहजी सोढा को आत्मिक बधाई देता हूं कि आपने इस पुस्तक के संपादन में श्रमनिष्ठ और कर्मनिष्ठ होकर कार्य सम्पादित किया है। परिशिष्ट में बासनपी यृद्ध के प्रायः सभी नायकों पर विस्तार से टिप्पणियां लिखकर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को पाठकों के समक्ष रखकर उन नायकों को जिंदाकर दिया, जिन्हें उनके वंशज भी प्रायः भूल चुके थे-
मात-पिता सुत मेहली, बांधव वीसारेह।
सूरां-पूरां बातड़ी, चारण चीतारेह।।
यहाँ चारण किसी जाति का सुचक न होकर एक संवेदनशील व सजग साहित्यकार का प्रतीक है। जो वीरों व चरित्रवान लोगों के प्रति सदैव कृतज्ञ रहकर उन्हें विस्मृत नहीं करता। यही बात यहाँ श्री सोढा भी पर लागू होती है। क्योंकि किसी बात को विगतवार खोलकर लिखना बड़ा कठिन कार्य है। श्री सोढा ने दत्तचित्त होकर इस युद्ध के नायकों, अन्य प्रमुख घटनाओं तथा सांस्कृतिक संदर्भाें का पाठकों के समक्ष रखकर यह सिद्ध किया है कि-
दूहा दुकड़ा दाम, जोड़ण वाळा जोड़सी।
ब्यावर तणो विराम, बांझ न जाणै बीझंरा।।
श्री सोढा एक कुशल अनुसंधित्सु है। यही कारण है कि सत्य तथ्यों को परोटते हुए टिप्पणियां लिखी है। यह टिप्पणियां जैसलमेर के इतिहास के संदर्भ में एक कालखण्ड विशेष पर शोध करने वालों के लिए एक आधार का काम करेगी।
श्री सोढा ने अंबादान जी की सहायता से इस महनीय ग्रंथ की हिन्दी टीका, कठिन शब्दों के अर्थ और संदर्भ विशेष की समुचित व्याख्या करके एक अनुकरणीय कार्य किया है। आशा ही नहीं अपितु विश्वास है कि इस पुस्तक का इतिहास एवं साहित्य के क्षेत्र में पूरा सम्मान होगा।
इति शुभम।
~~गिरधरदान रतनू दासोड़ी
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान,
दासोड़ी कोलायत बीकानेर 334302 9982032642