गायां तांझी नीं मांझी गी!!

दासोड़ी रै उतरादी कांकड़ रै कड़खै एक मोटो धोरो है, जिणनै गौयर धोरो कैवै। गौयर मतलब गायां रै स्थाई बैठण री जागा। रात री बखत चौमासै में गांम री गायां अठै बैठती अर इण गायां रो ग्वाल़ो मोहर अथवा मेहर जात रो मुसल़मान हो। पैला दासोड़ी में इण जातरै मुसल़मानां रा खासा घर हा।
एक दिन रात री गायां बैठी अर बो सूतो हो कै अचाणचक उणनै लागो कै कोई गायां नै टोर रैयो है। बो हाकल करर उठियो कै उणनै तीन -च्यार जणां पकड़र बांध दियो। उण पड़ियै पड़ियै ई किरल़ी (जोर से किसी को हेला करना या आवाज देना) करी। आप मानोला नीं पण लगटगै दो ढाई कोस उणरी किरल़ी गांम में अमान सुणीजी अर गांम में पत्तो लागग्यो कै गायां सिराई (मुसलमानों की एक शाखा) लेग्या।
दिनुगै वाहर चढी पण सिराई हाथ नीं आया। वाहर फलोदी पूगी। वाहर में शभजी (शोभारामजी) जोशी ई भेल़ा हा। उणां कैयो कै अठै मा लटियाल़ (आवड़जी रो ई एक नाम) रा दरसण करलां। वे मढ पूगा। जोत करी अर स्तुति पढ़णी शुरु करी-
अरि उथाल़क ईसरी, भोम उजाल़क भास।
बड लटयाल़क बीसहथ, रमै दयाल़क रास।
जय जय लटियालं, विरद उजाल़ं,
रास दयाल़ं मात रमै।।
फरहरती दाड़ी, जोशीली बाण (पढ़ने की आवाज) अर बेजोड़ छंद री घड़त सूं उठै बैठा स्थानीय पुस्करणां अर सिंधियां जाणियो कै दासोड़ी रा कोई चारण होसी। उणां “वाह बाजीसा वाह!! आपरी वाणी सुण धिन-धिन होया!! पण कवि तो बिनां की सुणियां अर बोलियां आगलो छंद शुरु कर दियो–
चौसठ वर चंडी रूप अखंडी,
मात ब्रह्मंडी तूझ रमम।
दैत्यन कुल़ डंडी देह प्रचंडी,
खल़ कर खंडी जोग समम।
अति अमर अखंडी मूरत मंडी,
थापन थंडी तैं थिरनम।
भजरै शभ अंबे भुज परलंबे,
शक्ति सरंबे तुझ सरनम।।
छंद पूरो होयो। कवि लटियाल़ नै नाक नमाय उठियो अर उठतां कैयो “हे मा कठै ई है!! जणै तो गावड़ै लधाई।”
मढ रै बारै बैठै स्थानीय लोगां भल़ै भलकार दियो-वाह बाजीसा वाह!!”
आ सुण शभजी कैयो कै-“हूं चारण नीं बल्कि चारणां रो गुरू हूं!!”
आ सुण वे इचरज में पड़तां पूछियो कै पछै कविता? तो उणां कैयो कै “म्है अरज करी ही नीं कै म्है चारणां रो गुरू हूं!!”
सगल़ां ई उठ अभिवादन कियो अर इतै आदम्यां रो साथ आवण रो कारण पूछियो जणै जोशीजी कैयो कै -“म्हांरै गांम री गायां इण विध सिराईयां हरली!!”
आ सुण उठै बैठै पुस्करणां अर सिंधियां कैयो कै-
“ऐ गायां तांझी नीं मांझी गी है। थे नचींता बैठो, गायां म्हे लासां।”
वे ई वाहर साथै होया। जैसल़मेर सूं आगै गायां रो पत्तो लागो।
पुस्करणां अर सिंधियां सिराईयां माथै जोर दिरायो जणै वे गायां हांकरिया। इणां कैयो कै आज पछै कदै ई दासोड़ी री गायां नीं लावोला वे गायां असांझी (हमारी) है। जद सिराईयां कैयो कै दासोड़ी रा वासी कटार/त्रिशूल़ आद खैंग (निसान) री जागा तीन कूंडल़ी रो खैंग मवेशियां रै देवैला तो म्हे दासोड़ी मांय सूं तो कांई आसै-पासै देखांला तो ई हाथ नीं घालांला। सगल़ै साथ बात अंगेजी। जा पछै दासोड़ी रै मवेशियां रै तीन कूंडल़ी रो खैंग लागतो। आज भलांई इण बात री महता नीं पण जिण दिनां चोरियां होवती जद दासोड़ी रा वासी निरभै सूवता।
शभजी बेबाक कवि हा, इणांरै लागती में एक भाई री आधी औलाद बिगड़गी तो एक भाई अनारामजी रामस्नेही होयग्या।
जिण भाई री औलाद अणपढ रैयगी अर बामणाचार रै उलट धंधा करण लागी जद कवि कैयो-
गंगाविशन तो गधै चढै, पाडै चढै पैल़ाद।
क्यूं किसना कारा करै, (थारी )बिगड़ गई औलाद।।
इणीगत एकर अनारामजी रामद्वारै में भंडारो कियो पण पंथ रै नेम मुजब उणां फखत साधुवां नै ईज बुलाया। जणै उणां उठै जाय कैयो-
आपै कीजै कामड़ा, दीजै किणनै दोस।
गुर बैठा जीमै गधा, ओ ई बडो अफसोस।।
अनाराम तो आज दिन, देवां किणनै दोस?
माल मिटावै मसकरा, ओ ई बडो अफसोस!!
आं इणी शभजी रै बेटा अगरजी होया। वे ई डिंगल़ रा मोटा कवेसर। जिणां रा छंद गीत घणा चावा है-
अखंड जोत मात की,
ब्रह्मांड में प्रकास है।
पचास कोट मेदनी,
ऊपेज तो अकास है।
धरा अकास गोरजा,
अधार तोय कारणी।
नमामी अंब जोगमाय,
तीन लोक तारणी।।
इणांरै विषय में एक बात चालै कै खिंदासर ठाकर बुलिदानसिंह भाटी, जिकै ताजीमी ठिकाणैदार हा। इणांरै जंवाईसा रै साथै कोई विद्वान बारठजी आया। उणां रात-रात तो रावल़ै जका आदमी हा, उणां सूं हथाई करी अर सवार रा जंवाईसा नै कैयो कै ठाकरां नै अरज करो कै – “इण हथाई सूं म्है रंजीयो नीं सो कनै ई चारणां रो गांम दासोड़ी है सो किणी चारण सिरदार नै बुलायो जावै ताकि म्हांनै ई ठाह लागै कै आपरै रतनू कैड़ाक विद्वान है!!”
जंवाईसा ठाकरां नै कैयो अर कैतां जेज ही, अजेज हलकारो दासोड़ी आय दो च्यार दानै सिरदारां नै कैयो कै –
“आपनै ठाकरां हथाई सारु तेड़ाया है अर तेड़ाया कांई है! एक बारठजी पधार्योड़ा है जिणां नै आपरै ग्यान री गल़दवाई होयोड़ी है।”
आ बात सुणर डोकरिया चमकिया अर मतोमती कैयो कै-
“अबै कांई करणो रैयो? आपां तो ऊमर में धनवाल़ (मवेशी आदि रखने वाले) रैया!! अर कविता वाल़ै तो कदै ई मारग ई नीं ग्या।”
उणां मांय सूं किणी कैयो कै चूकी चोट ऐरण झालसी!! हालो गुरां अगरजी कनै हालां सो कोई तजबीज बैठसी।
उणां जाय गुरां नै पगै लागणा किया तो गुरां आसीस देतां कैयो – “रे आज राऊ-पाऊ सगल़ा भेल़ा कीकर?”
जणै उणां मांय सूं कोई बोलियो कै -“दादा! बात दासोड़ी अर खिंदासर रै इज्जत री है।”
उणां पूरी बात बताई जणै दादै कैयो –
“रे इणमें इतै सांसै में पड़ै जैड़ी कांई बात? लाज भगवती राखसी! थे च्यारूं ई म्हारै साथै हालो!! थे सोच मत करो वां बारठजी रै मूंडै गुड़ दे दां ला!!”
वे गया। हथाई जमी। वां बारठजी एक दो कविता पढी अर अगरजी नै छोडर कैयो “लो रतनू सिरदारां इणरो अरथ करो!!”
रतनू कीं बोलता उणां सूं पैला ई जोशीजी कैयो –
“हुकम माफी चावूं, म्है हूं तो बामण, पण हूं ! रतनुवां रो!! म्है ई इणां सूं कविता रो आंटो सीखियो हूं सो आप आज वडा सिरदार आयोड़ा हो म्हारी पारखा ई करलो कै म्है कीं सीखियो हूं कै इणां रो ईं बखत गमायो!!”
अगरजी, बारठजी कैयी उण कविता रो फटाफट वो अरथ कर दियो जको वां बारठजी रै दिमाग में नीं हो। बारठजी अरथ सूं राजी होया अर कैयो –
“दादा कविता तो आप जाणो!! पण आपरै जजमानां सूं कीं पूछां, सुणां!”
जोशीजी कैयो –
“हुकम खरी बात जजमानां री पण म्हारी अरज है कै-
“म्हारै जजमानां सूं अड़ो ! उणसूं पैला दो-तीन म्हारै आधै-अधूरै दूहां-सवैयां रो ई अरथ करदोला तो, तो जजमानां सूं अड़जो नीतर जाणजो कै बूंगड़ी पाधरियां में नीं है।”
“ओ तो म्हारै डावै हाथ रो खेल है फरमावो !! आप पूरी नीं करोला उणसूं पैला जाणै अरथ कियोड़ो ई हो!!” बारठजी कैयो तो अगरजी एक दूहो कैयो-
एक रूंखड़ो ऊमदा, जड़ बिहूणो जाण।
फल़ बीरो है फूठरो, खाधां जाए प्राण!!
बारठजी सूं कोई अरथ होयो नीं पण उणां आपरी मूंछ ऊंची राखण सारु कैयो आप तो दोनूं – तीनूं सवैया आद साथै ई फुरमा दिरावो!! अरथ म्हारै सारु आंख वाल़ो फूस है!!
आ सुणर अगरजी लगता ई दो सवैया कैया-
एक सखी घर ते निकसी,
विकसी बंब बीच आकाश सूं आई।
रही कंवारी बहु वर वींदसु,
पीव मर्यो नहीं रांड कहाई।
भूख बिनां फल़ भक्षण करै,
अरूं पेट भरै नही रैत अधाई।
कवि अग्र कहै तुम अर्थ करो,
है कौनसी नार इसी जग मांई।।
पग नहीं पण पाधरी आवत,
जोग नहीं पण दैवत फेरी।
भूप नहीं पण जग को हेरत,
नार नहीं पण रैवत भेरी।
लाखां य बात मिल़ै नहीं सुंदर,
चित चढ्यां मन दैत बिखेरी।
कवि अग्र कहै तुम अर्थ करो,
इसी कौनसी बात मिले नहीं हेरी!!
वाह दादा! वाह दादा! री दाद साथै अगरजी ठंभिया, वां बारठजी रै साम्हो जोयो तो लागो कै बारठजी ‘छ दांत र मांडो पोलो!! री गत होयोड़ा हा। उणां री विद्वता रो आफरो झड़ चूको हो।
अगरजी कैयो -‘हुकम म्है तो ऐ आंटै-टूंटै कवितां री ओल़्यां म्हारै इण माथै रै मोड़ जजमानां सूं ईज सीखियो हूं अर बदल़ै में आंनै ई थोड़ो-घणो शास्त्रां रो भेद दियो है। जे आप इणां रो अरथ करदो तो ऐ बैठा जजमान !! ग्यान दड़ी चवड़ै पड़ी, हर कोई खेलो आय।।
बारठजी सोचियो कै आ कैड़ी होई ? आणी होती दूध नै बेठी चरै कपास!! उण बारठजी रो आगै चारणां सूं साहित्यिक चर्चा रो मतो नीं बणियो। उणां सोचियो कै इणां सूं सीखियो बामण ई इतरो विद्वान है तो पछै ऐ तो नीं जाणै कैड़ा विद्वान होसी। फालतु ई माजनो गमावांला।
आज गांम में शभजी रै परिवार रो कोई नीं है अर अगरजी री गल़त बुई गी पण लोक रसना माथै ऐ दोनूं कवि अमर है।
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”