गायें हारमोर नहीं करने दूंगी

जिनके घर सदाचार, शिष्टाचार, मानवता, उदारता और परोपकार के भावों की सरिता सतत प्रवहमान रहती है, उसी घर में देवी अवतरण होता भी है तो कुलवधु के रूप में भी उस घर को पवित्र करने हेतु देवी आती हैं-
देवियां व्है जाके द्वार दुहिता कलत्र हैं।
आलाजी बारठ जिन्हें मंडोवर राव चूंडाजी ने भांडू व सिंयाधा नामक गांव इनायत किए थे के घर एक ही समय में दो महादेवियों का जन्म हुआ है। उनके पुत्र गोरजी के घर सूरमदे का जन्म वि.सं. 1451 में हुआ-
चवदै इकावन जलम चावो, दखूं सूरमदेव।।(धनजी लाल़स)
तथा दूसरे पुत्र दूल्हेजी के घर मालणदे का वि.सं. 1491 में जन्म हुआ, जिनकी शादी महावीर टीकमजी कविया के साथ हुई। जिस प्रकार प्रणवीर पाबूजी ने अर्द्ध फेरों में उठकर अपने प्रण की रक्षार्थ प्राण न्यौछावर किए उसी प्रकार टीकमजी ने भी अर्द्ध फेरों में उठकर अपने कर्तव्य का पालन किया था।
इसी प्रकार सूरमदे ने अपनी गायों की रक्षार्थ किसी म्याजल़ोत भाटी के अत्याचारों के खिलाफ वि. सं. 1521 सांवण में जमर किया था। उनके थांन पर अपनी वेदना मिटाने की मन्नत पूरी होने पर मंडोवर राव जोधाजी स्वयं आए थे और इस मन्नत की पूर्ति के उपलक्ष्य में चांचल़वा गांव सांसण समर्पित किया था। जहां आज भी उनकी संतति रहती है।
हालांकि मारवाड़ रै परगनां री विगत में नैणसी चांचलवा के साथ सुवेरी जोधाजी द्वारा प्रदान करने का उल्लेख किया है-
“चांचल़वा राव जोधाजी रो दत्त, लाल़स कान्हा उत्तमसीयोत नूं।
सुवेरी राव जोधाजी रौ दत्त लाल़स कान्हा उत्तमसीयोत नूं चांचल़वा साथे दीन्हों।”
परंतु श्रुति परंपरा में सुवेरी कान्हाजी के पूर्वजों को ईंदों का दतब बताया जाता है। जहां वे रहते थे। जब उनके पुत्र रायसी/रायदेवजी लाल़स की उम्र विवाह योग्य हुई तो उनकी शादी तत्कालीन चारण समाज में समादृत आलाजी बारठ की पौत्री व गोरजी की तनुजा सूरमदे के साथ संपन्न हुई।
विख्यात डिंगल कवि धनदानजी लाल़स चांचलवा लिखते हैं-
लाल़स सुहेरी लंगरी,
अति कांन सूं कंपै अरी,
वड कुंवर रायसी घणां बंको, सत्रवां उर साल।
चित ऐह आल विचारनै,
सुभ लगन दे द्विज सारनै,
इनका सुखद दांपत्यजीवन रहा। रायसीजी के पास खूब गायें व अन्य पशुधन था। जिनकी चर्चा आसपास के इलाके में सर्वत्र थी। उन्हीं दिनों मंडोवर रावजी की ओर से बैल़वा में कोई म्याजल़ोत शाखा का भाटी तफैदार था। उसने भी इन गायों की प्रशंसा सुनी तो अपने आदमियों के साथ कांकड़ में गया और गायें घेर लाया। धनदानजी लाल़स लिखते है-
जादव मेहाजल़ जोपियो,
ले कुजस घरवट लोपियो,
घण गाय कानड़ तणी घेरी, होय अति मतिहीन।।
सांझ को जब गायें नहीं आई तो घर में चिंता बढ़ गई। इधर बाछड़ियों का भूख से डाडना तो उधर ऊष में दूध लिए गायों के तंभाड़ने की कल्पना मात्र से सूरमदेजी को पूरी रात नींद नहीं आई। जैसे-तैसे ही डोकरी ने रात व्यतीत की और अलसुबह स्वयं गायों के झूंसरे में पहुंची तो देखा कि गायों को घोड़ों के आगे देकर हांका गया है। वे खोज लेकर पासके गांव बैल़वा पहुंची। उन्हें विश्वास हो गया था कि गायें तफादार ही लाया है।
वे उससे मिली और एक राजपूत होकर चारणों की गायें घेरकर लाने हेतु आकरे शब्दों में उलाहना दिया। लेकिन जिनको पद व शक्ति का मद हो वे कभी भी अपनी अंतरात्मा में नहीं झांखते। वे तो सदैव ‘पर दुख देख महा सुख पामै’ के पथ अनुगामी होते हैं।
उसने सूरमदेजी के किसी उलाहने की परवाह न करके उल्टे उन्हें धमकाना शुरु कर दिया।
आखिर सूरमदेजी ने कहा कि-
“तूं भूल रहा है! मैं चारणी हूं। मेरी गायें रखना तेरे वश से बाहर है। भलेही तूं उन्हें चोर लाया होगा परंतु मैं तुझे गायों को हारमोर नहीं करने दूँगी। अभी भी समय है कि तूं तेरी भूल सुधार और मेरी गायें दें। वैसे भी तुझे टोघड़ियों की हया भी ले बैठेगी। क्यों नर्क मैं जगह कर रहा है। मैं यहां जमर कर लूंगी। जमर की आंच से तेरे वंश को विध्वंस कर दूंगी।”
यह सुनकर उस अधम ने कहा कि भलेही तूं जो चाहे करले। मैं मना नहीं करता। तेरी गायें न तो मैं लाया हूं और न ही मुझे पता है। जमर-वमर की बातें कहीं ओर जाकर करना मेरे यहां नहीं।”
आखिर विवाद बढ़ा। उस नराधम ने सूरमदेजी की गायें नहीं लौटाई।
सूरमदेजी बैल़वा से रवाना हुई और एक-डेढ़ किमी. आई कि उन्होंने देखा कि किसी खेत में एक पचावा (घास की अधिक बड़ी ढेरी) है। वे पचावा के अग्नि लगाकर बैल़वा और सुवेरी के बीच जमर कर गई।
जनश्रुति तो यह भी है कि उस समय उनके साथ दो छोटे-छोटे बच्चे भी थे जिन्हें वे साथ लेकर अग्नि को समर्पित हो गई। लोक में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि उस भाटी की उसी समय जबान अटक गई और वो सूरमदे के जमर के बारहवें दिन मर गया। धनदानजी के शब्दों में-
धन कोप आतुर धारियो,
महमाय म्याजल़ मारियो,
बात यह भी बहुत प्रसिद्ध है कि मंडोवर राव जोधाजी भी उन्हीं दीनों किसी व्याधि से इतने व्यथित हुए कि खूब इलाज करवाया लेकिन पीड़ा मिटी नहीं। तब उनके किसी शुभचिंतक ने कहा कि सुवेरी सुरमदेजी की यात्रा बोलकर उनके प्रति श्रद्धा रखेंगे तो आपकी पीड़ा मिट जाएगी। रावजी ने ऐसा ही किया। पीड़ मिट गई तब रावजी ने श्रदास्पद होकर उनके श्वसुर कान्हाजी लाल़स को चांचल़वा का तांबापत्र इनायत किया था।
उल्लेख्य है कि सूरमदेजी पूरे थल़ी इलाके में लोकदेवी के रूप में पूजित है।
।।सूरमदे – सुजस।।
।।दूहा।।
घर आलावत गोर रै, भांडू पावन भोम।
इल़ सूरमदे ऊजल़ी, कीधी रोहड़ कोम।।1
घरवट ऊजल़ गोर री, थल़वट ऊजल़ थाय।
सतवट सूरम शंकरी, ऊजल़ कुल़वट आय।।2
सिरै सुवेरी सांसणां, लाल़स कव वड लेख।
मोड़ वडो जिथ मात तैं, दुनी कियो प्रब देख।।3
जादम मेहाजल़ जठै, लोपी पुरखा लीक।
सांसण री सुरभ्यां सको, बहियो लेय बधीक।।4
मात सँदेशो मोकल़्यो, सुणियो नहीं सजोर।
झूलण झल़झाल़ां जबर, जिणदिन बैठी जोर।।5
मुरड़ मेहाजल़ मारियो, जादम विमुखो जोय।
जिण दिन जाहर जोगणी, हिव जगती में होय।।6
जोगण विपदा जोध री, सधर हरी सुरराय।
सांसण चांचल़वो सही, पेस कियो पड़ पाय।।7
परवाड़ा परमेसरी, गढवाड़ा नित गाय।
जठै अखाड़ा जोगणी, आप रचै नित आय।।8
वाणी बुद्ध दे बीसहथ, सुभ आखर सुरराय।
गीत सुजस गिरधर कहै, महर तूझ महमाय।।9
।।गीत – प्रहास साणोर।।
धिनो गोर आलोत रै प्रगट भांडू धरा,
चाढणी सरासर सुजल़ चंडी।
बराबर दिपै तूं हेमजा बीसहथ,
मुरधरा रोहड़ां जात मंडी।।10
सईकै चबदमै इकावन साल सुध,
मही धिन आलरी पवित मांडू।
सूरमदे नाम जन जाणियो सांपरत,
भवा तन धारियो आय भांडू।।11
सूरमदे शंकरी सुजस संसार में,
कार निज सेवगां तणा काढै।
सार में रखै निज सांभनैं सायल़ां,
वार झट बिखम री तुंही बाढै।।12
कुंवर हद सुवेरी जोड़ तो कान रो,
निडर नर रायसी जको नामी।
आपरो सुवर जो ओपियो अवन पर,
सधर सूं नजर भर वर्यो सामी।।13
अथग जल़ कूप में कियो तैं ईसरी,
सुथल़ इल़ जेण री भरै साखी।
चांचल़वै विराजी तूठ नै चंडका,
रीझ नैं भैर री बात राखी।।14
मेहाजल़ माचियो कुछत्र मही पर,
रुगट घरवाट री आण रेटी।
रसा पर भाटियां तणी वा रीत तज,
मछर में चारणां माम मेटी।।15
हेर उण सुरभियां हारली हेतवां,
हिवां जद गाम में हुवो हाको।
वारता सांभली बणी विकराल़का,
धारियो शूल़ कर करण धाको।।16
अंग में अगन जद ऊपड़ी अराड़ी,
जोत में भिल़ी जद परम जोतां।
चारणां मांम नैं राखणी चारणी,
बाघणी रूप में मिल़ी बोतां।।17
मारियो मेहाजल़ पलक में मावड़ी,
खलक रै जोवतां बडो खूनी।
सुछत्री तणी तूं भीर रह सदाई,
जगत में रखै थप बात जूनी।।18
जोवतां वेदना मिटाई जोध री,
कमध मन धारणा अडग कीधी।
मँडोवर छात पढ जाप मुख मातरा,
दुरस उर जातरा राव दीधी।।19
लाल़सा रुखाल़ी रखै नित लोवड़ी
थल़ी में प्रवाड़ो मान ठावो।
जामणी मालणा बिराई जेम ही,
चांचल़वै आपरो थान चावो।।20
दासुड़ी गीध कव सुजस ओ दाखियो,
भरोसो थेट सूं मनां भारी।
कंटका माग रा दूर कर कृपाल़ी,
सताबी नेहाल़ी काज सारी।।22
~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”