पुस्तक समीक्षा: गीतां पैली घूघरी – श्री भागीरथ सिंह भाग्य

गीतां पैली घूघरी (काव्य-संग्रह):- श्री भागीरथ सिंह भाग्य
समीक्षक – डॉ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’
हेत रो बनोरो गावती सांतरी सिरजणां
राजस्थानी कविमंचां रा महारथी कवियां मांय सूं अेक गीरबैजोग कवि है- श्री भागीरथसिंह भाग्य। आपरी अलबेली अदा, सरस रचनावां, सुरील राग, मनमौजी सभाव, ऊंडी दीठ, लोकरंग-ढंग री गैरी पिछाण, संस्कृति अर सामाजिक जीवणमूल्यां री जबरी जाण-पिछाण, लोकव्यवहार री लळकती-टळकती रगां नैं टंटोळण री लकब अर जनता-जनार्दन री चाह रा जाणीजाण कवि भागीरथसिंह भाग्य री रचनावां रा अनुभूति अर अभिव्यक्ति दोनूं पख प्रबळ है। कवि जीवण रा लगैटगै साठ बसंत देख चुक्यो अर मोकळी रचनावां लिखी है। कवि री लगैटगै 90 काव्यरचनावां रूपी सुमनां सूं सज्यो गुलदस्तो है ‘गीतां पैली घूघरी’ सिरैनामक पोथी। पोथी सद्भावना समिति पिलाणी सूं प्रकाशित हुई है। आमुख पं. नागराज जी शर्मा, संपादक-बिणाजारो रो लिख्योड़ो है, जकां रो अनुभव अर साहित्यिक दखल किणी परिचै री मोहताज नीं है। नागराजजी लिखै कै ‘भागीरथसिंह भाग्य कविता लिखै ई कोनी, कविता नैं जीवै है।’ साव साची बात है। श्री भाग्य री रचनावां पाठक अर श्रोता रै सामी अेक सरस अर जीवंत चित्र प्रस्तुत करै। कठैई इयां नी लागै कै कवि कोई विद्वता दिखावण का पांडित्यप्रदर्शन रो प्रयास कर रियो है। उणरै बावजूद रचनात्मक सिद्धि रै कारण ठौड़-ठौड़ कलात्मकता री रळियावणी छिब उभरै, जिकी सुधीपाठक नैं रस सूं सराबोर करै।
पोथी री रचनावां पाठक नें लोक-व्यवहार री सांतरी सीख देवै। कवि साच री साख भरै तो कूड़ रै जूत जड़ै। ओपती पर अंजस करै तो अणओपती रै लारै पड़ै। इण संसार री अटपटी अर अणखावणी चाहतां रो खुलासो करतो कवि खेंच’र व्यंग-बाण मारै अर लोगां नैं सोचण पर मजबूर करै कै जकी चीज जठै होणी चाईजै, उणरी ई आस बठै करणी चाईजै पण उदमादो मिनख तो अटपटै गेलै चालै। कवि व्यंग्य करतो लिखै कै अै लोग बातां में गजल रो मजो चावै अर गजल मांयनैं कहाणी ढूंढता फिरै –
लोग बातां में चावै गज़ल रो मजो
अर गज़लां में पूछै कहाणी कठै ?
बियां तो कविता नाम ई प्रगतिशीलता रो है। प्रगतिशील चिंतन रै बिनां कविता हुवै ई कोनी पण कीं कवि आपरी गहन संवेदन-दीठ रै पाण आमजन री पीड़ नैं सावळसर पिछाणै। न्याय-नीत री ताकड़ी रा पालड़ा भलांई भगवान ई ऊंचा-नीचा करै तो कवि उणनैं भी बगसै कोनी। भागीरथसिंह भाग्य रो मानणो है कै आम आदमी रै दरद नैं नीं समझणियै देवतावां नैं हिवड़ै में बसावण रो कोई मतलब कोनी। राजस्थानी कवि ऊमरदान लाल़स नैं ई लागै कै जिण भगवान रै राज में वेश्यावां सुख भोगै अर प्रतिव्रत्ता रै घरै व्याधि रवै, उण ईश्वर री ईश्वरता आधी है, पूर्ण नीं हो सकै। उणीं गत जनवादी सोच रै सिखरां नैं नावड़ती ‘भाग्य’ री अै ओळियां कितरी खरी अर अकरी है-
ल्या जीवूं चैन सूं जिंदगाणी कठै
डूब मरज्याऊं ढकणी में पाणी कठै
देवता नैं हियै में रमाऊं कियां,
रामजी पीर मिनखां री जाणी कठै ?
श्री भागीरथसिंह भाग्य री कवितावां मांय आमजन री आवाज मुखर होय सामनै आवै। कवि आपरै लांबै अनुभव अर झीणी अवलोकन दीठ सूं मिनखां रै मांयली भावनावां नैं पकड़ण री अनूठी लकब पाई है। अेक गांव अर अेक घर री बात नीं, इयांकला स्याणां लोग सगळै लाध ज्यावै जका आपरी डोढ-हुंस्यारी में बावळा हुया फिरै अर पुटियै दांई पग ऊंचा कर-कर आसमान नैं अेड्यां पर तोलता रवै। श्री भाग्य इयांकला लोगां री फितरत नैं घणी सरसता रै साथै उजागर करी है। कवि लिखै कै इण माजनैं रा लोग इतरा स्याणां हुवै कै बै आपरै खोयड़ै ऊंट नैं घड़ै में ढूंढै, अेक काठ री हांडी मांय सौ-सौ बार दळियो पकावण री आफळ करता रवै। राजस्थानी कैबतां रो फबतो अर फूटरो प्रयोग करतां कवि इयांकलै फोरै मिनखां री पोची नीत रो खरा-खरी खुलासो कियो है-
जका चालता बेटा बांटै, बै नित का परसिद्ध हुया।
बिगड़ी तो बस चेली बिगड़ी, संत सिद्ध का सिद्ध रह्या।
न भी सिद्ध रह्या तो कुणसो, कटग्यो नाक ठिकाणै में।
खोयो ऊंट घड़ै में ढूंढै, कसर नहीं है स्याणै में।।
कवि मूळ रूप सूं गाम अर ग्रामीण संस्कृति रो संगी है। कवि रै अेक-अेक आखर मांय गाम, गळी, गुवाड़, खेत, खळा, सूड़, अळसोट, निदाण, लावणी, किसानां री पीड़ा, मजूरां री मजबूरी, बोरा-ब्याज, अडाणा-ओझा आद रो साचो सरूप उघड़ै। समै रै बायरियै री फेट में आयोड़ा गाम जद विकास अर प्रगतिशीलता रै नाम माथै अंधेरी बाटां पर हाटां मांडणी सरू करी तो कवि रो दूरदर्शी मन दुख पायो। कवि नै गाम री सुरंगी संस्कृति री भेळप, सैणप, परापरी सैयोग-वृत्ति, चारित्रिक उच्चता आद पर आवती आंच आगूंछ दीखगी। संकीर्ण स्वार्थ, गंदी राजनीति, छद्म व्यवहार अर दोगली नीत रो गाम में दाखलो देख कवि गाम री बदळती तस्वीर नैं उकेरी अर लोगां नैं साच सूं अरू-बरू कराया है। कवि लिखै कै गामां री पंचायतां रा फैसला अबै अमली अर गंजेड़ी करै, गाम रा मानीता लोग दूजां रै खेतां मांय सूं चोरीदावै खेजड़्यां काटता फिरै, तथाकथित रूप सूं समझदार मानीजण बाळी सुगनी काकी लोगां री आडी-टेढी बातां बणावती फिरै, बात नैं बतंगड़ बणतां टेम ई नीं लागै। जकां पंच सदा परमेसर रो रूप मानीजता, बांरी जुबानां ताळवै चिपगी। गाम री बदळती छिब रै दरसणां सारू अेक दाखलो –
छोटो सो है गांव गुवाड़ी, गळियां नेड़ी-नेड़ी।
टूटी फूटी छान झूंपड़ी, ना पोळी ना मेड़ी।
पंचायत रा करै फैसला, अमली और गंजेड़ी।
सौ-सौ चूसा खा’र बिलाई, चढ़गी हर री पेड़ी।
धाड़ेत्यां लूटली दुकान, म्हारै गांव में,
पंचां री काटली जुबान, म्हारै गांव में।।
समै री मार इसी पड़ी कै चोखै लोगां रो घाटो आयग्यो। ‘ज्यां मिनखां में मिनखपण, वां मिनखां रो काळ’ वाळी बात साची होगी। जोरामरदी रै जमानैं री बलिहारी है कै हेत रा खेत रुखाळणियां लोगां री बाड़ां जुरड़ीजै। मारग भटक्योड़ा पंडतां नैं नूत-नूत चूरमां जीमाइजै, पंचायत में माधिया भाई भेळा हुग्या, खुद री लुगायां बेचणियां फदड़पंच लोगां रा फेरा करावै, साची बातां नैं छुपावै अर माड़ी बातां नैं उघाड़ता फिरै। कवि कई जाग्यां इयांकला खुलासा करै जकां नैं सास्वत कानून तो कोनी कैय सकां पण ट्रेंड बो ई बण्योड़ो है अर लगैटगै आज ई देखां तो कवि री बात सौ टंच साची होवती लखावै। कई अणजाण्या साच उघाड़ती कवि री अै ओळियां बांचणजोग है-
बै ई मन रा काळा होसी, जां री सूरत भोळी है।
बां री जेब गरम नोटां सूं, जां रै हाथां झोळी है।
बठै खेलसी चोर हटीलो, जां घर नहीं किंवाड़ रे।
जका कराता मेळ जगत में, बां सूं करली राड़ रे।
कवि आपरी सुरीली राग अर प्रभावी प्रस्तुतीकरण रै बळ पर कविमंचां पर खूब जमतो रयो है। कविमंचां पर ‘हंसी री कविता रै नाम पर कविता री हंसी’ होवती देख कवि नैं पीड़ा हुवै। हास्य रै नाम पर कोरी अश्लीलता परोसणियै लोगां पर अन्योक्तिपरक अंदाज में व्यंग्य करती कवि री अै ओळियां उल्लेख करबा जोग है-
कुण सा गीत गळ्यां गावण रा, कुणसा मंचां बीच जमै।
गीतां मांही रमज्या ‘भागी’, इण बातां में मत भरमै।
श्री भाग्य री लेखनी पर मां सरस्वती री असीम अनुकंपा है। भावपख री प्रबळता रै साथ कलापख री कारीगरी ई मूंढै बोलती निगै आवै। अेक दाखलो देखो-
बां सूं के बतळाणो जाकी, बात बात में घात बणै।
अेक बात साची करदे तो, भांत भांत री बात बणै।
बात बात में बिना बात ही, बात निकळगी बातां में।
अब बरसूं मैं अब बरसूं, बरसात निकळगी बातां में।
ऊमर ढळण रै साथै कवि रो अनुभव गहराई लेवै। जिंदगाणी रै हर मोड़ री अबखायां अर सबखायां रो अनुभव करतो कवि बुढापै रा दोजख आगूंछ महसूस करै। कवि भगवान सूं अरज करै कै हे ईश्वर जिंदगी उतरी ई दे, जितरी सौरी-सौरी कटज्या। आपरै हाथां आपरी जुगत जचाई राखीजे, उतरै ई जीवण में सार है, पछै तो लोगां सारू बेगार, खुद सारू धिक्कार अर जिंदगाणी सारू हार हुवै तो बियांकलै जीवण में सार कोनी। आयै सियाळै लागै कै अबकाळै ओ सियो काळजै में चढसी अर पाछो निकळै ई कोनी। रात्यूं सरीर में सणफां चालै, रूं-रूं कुळै, खांसी, कफ, खंखार, हर घड़ी लागै कै अबकाळै सांस नीकळ्यो, अबकाळै सांस नीकळ्यो। खुदोखुद नैं हर दीठ सूं घरवाळां सारू आफत बणतो देख मिनख नैं आ लागण लागज्यावै कै सौ साल जीवण में कोई सार कोनी। हलण-चलण चालतां सांवरो सुणल्यै तो सावळसर निभाव हुज्या। खुद री ई इज्जत रैयज्या अर घरवाळां रो ई पोत चोड़ै कोनी आवै। देखो कवि री जिंदगाणी रो सार बतावती भगवान नैं संबोधित अै ओळियां –
उतणी ही दे ऊमर सांवरा, जितणी सोरी कटज्या।
अेक ऊमर तक बढ़ै उमरिया, (फिर) ठौड़ ठांयचै डटज्या।
बिना जुगत के लेणौ, हो के पूरो सौ को।
सांस चालतां चाणचकै ही, देज्या कदे न धोखो।
कवि भाग भरोसै बैठणियां री आळसी वृत्ति पर चोट करतां वांनै सावचेत करै कै जे चोर पोटळी लेज्यावता दीखै तो भाज’र पोटळी खोसो। सामनो मांडो। कवि रो साफ मानणो है कै जे आळस ई धन करवावै तो पछै भागदौड़ कुण करै पण आळस तो काम नैं बिगाड़ै ई है, सुधार नीं सकै। आळसी अर भाग भरोसै सुधार री आस में बैठ्यै मिनख रै मांयलै नैं चंचेड़ती कवि री अै ओळियां खास उल्लेखण जोग है-
सगळा ही ठाला रैता, जे आळस धन करवादे।
मन की मानै बात मांयनैं बड़ के मन मरवादे।
कांधै धरी दुनाळी मन पर, दाग्यां पार पड़ैगी।
चोर पोटळी लेग्या तेरी, भाग्यां पार पड़ैगी।।
कवि समय री मांग रै मुजब काम अर सोच नैं बदळण री पैरवी करै। नयी पीढ़ी नैं संबोधित करतां कवि लिखै कै बडेरां रो सम्मान करो पण परंपरा रै नाम माथै कोरी लीकां पीटण रो काम मत करो –
बडकां की तूं बात छोड़, बडका तो पूरी करग्या।
आं ही लीकां नैं पीटी तो, आ ही जाणले मरग्या।
बगत भागर्यो तेज डोळियां डाक्यां पार पड़ैगी।
चोर पोटळी लेग्या तेरी, भाग्यां पार पड़ैगी।।
कवि संवेदनशील प्राणी हुवै। समाज री विसंगतियां, विद्रूपतावां अर नाजोगी नीतां उणनैं विचलित करै। कोई नैं दुखी देख’र बो खुद उतरो ई दुखी हुज्यावै अर इणीं संवेदन दीठ सूं वो सामलै रै दरद नैं गैराई तक पिछाण लेवै। पुरुष प्रधान समाज में नारी री पीड़ा नैं सगळा जाणै। अेक गरीब घर में जे रंग-रूप में फूटरी बेटी हुज्यावै जो उणरो जीवणो दुभर हुज्यावै। जवानी तो आपरै समै पर आवै ई आवै अर ऊमर रो आपरो धरम है उण अनुरूप शारीरिक अर मानसिक बदळाव ई पण आवै। आपरै मायतां रै काळजै री कोर हुवतां थकां भी जे बा लाडेसर डावड़ी सावळसर पैरण-ओढण लागै तो बाबोसा बरजै क्यूंकै बां नैं अेक अणजाण्यो सो डर सदा सतावतो रवै। मैली-कुचेली रवै तो दादोसा टोकै। कोई बारलै सूं बात करै तो मां री डांट-फटकार मिले। सहेलियां कनै जावै तो बै आप-आपरै जीवणसाथ्यां री बातां बतावती उणरै दरद नैं और बधापो देवै। गरीब घर री कुंवारी जवान बेटी आपरै घर री, परिवार री अर कुळ मरजादा री रक्षा करण सारू अडि़खंब रैवतां थकां ई रात-रात भर जागती रवै। उणनैं ठा है कै उणरा बाबोसा उणरै भविष्य नैं ले’र चिंतित है। बा आपरी बात आपरी मां नैं ई बता सकै। देखो कवि कियां संकेत करै-
लांबी सूनी रातां में डर घणो लागै।
बाबल रै अबखाई, रात रात जागै।
जागै है लाडो तूं, जाग मावड़ी।
देख थारी धीवड़ रा भाग मावड़ी।।
‘जागै है लाडो थूं जाग मावड़ी’ में उण धीवड़ री पीड़ा रो समंदर उझळ आयो। सुख सेजां पर सोवण रै दिनां थारी लाडो रात-रात भर जागै। हे मावड़ी थूं जाग यानी थूं चेतो कर अब तो म्हनैं आगलै घरां भेजण रो सांज कर।
कवि सिणगार रस रो रसियो कवि है। ‘अेक छोरी काळती’ सिरैनाम वाळी कविता कविमंचां री चर्चित कविता रयी है। कवि आपरै गाम री खेत पाड़ोसण अेक डावड़ी अर उणरै प्रेम री बात करतां प्रेम में प्रेमी-प्रेमिका रै हाव-भावां अर क्रिया-व्यापारां रो मनोवैज्ञानिक चित्रण कियो है। प्रेम री प्रबळताई आ ही है कै प्रेमी पात्र कोई ऊलजुलूल हरकत ई करै तो, सामलो उण पर रीझतो जावै। कवि आपरै चहेतै पात्र ‘काळती’ रै व्यवहार पर रीझतो अर अेक-अेक सबद में कई-कई संकेत करतो उणरी ओळखाण करावै-
भोत राजी होवती तो झूंपड़ी बुहारती।
रूसती तो गावड़्यां नैं, बाछड़्यां नैं मारती।
हेत जे जणावती तो, टींडसी उछाळती।
अेक छोरी काळती, हमेसा जीव बाळती।।
कवि आपरी कवितावां रै पाण समाज री बुराइयां नैं दूर करण रो प्रयास करै। नशाखोरी नैं माड़ी मानतां कवि उणसूं बचण री सला देवै। दारू पीवणियै रै घर वाळा कितरा दुखी रवै, इणरो खुलासो करतां कवि लिखै कै बापड़ी घरवाळी घरै बाट उडीकै पण मदछकियो रात्यूं गळ्यां में पड़्या रवै, दो रिपिया बापरै तो दारू पीज्यावै, नीं बापरै तो लोगां सूं मांगण में संको कोनी करै, घरै चूण कोनी इणरो सोच नीं करै, कमाई करै कोनी, घर आवै तो कळह करै। भरजोबन में मारवणी इयांकलै ढोलै री बाट जोवती आपरा भागां पर रोवै। अेक पियक्कड़ री हरकतां अर घरवाळां री पीड़ा रो अत्यंत मार्मिक चित्रण कवि ‘आज बेच के ऊंट’ कविता में कर्यो है, उदाहरण सरूपी अेक अंतरो देखो-
जोबन झोला चांद च्यानणी रंग-रातां।
जलम जलम रो साथ, जलम भर री बातां।
कर के सगळां नैं झूठ, बलम मेरा घर आया।
पी दारू की घूंट, बलम मेरा घर आया।
गरीबी अपणैआप में अभिशाप है अर कोई गरीब जे दारू पीवण लागज्या तो ‘कोढ में खाज’ वाळी बात हुज्यावै। घरै बापड़ी घरनार मांय री मांय पीड़ भोगै, टाबरियां रो बाळपण अर जोबनवंती री जवानी रुळती दीखै। भर जवानी मांय पदमण रंग-रळियां करण री ठौड़ पति नैं इण सारू उडीकै कै कद आवै अर कद चूल्हो जगै, मर्मभरी ओळियां जोवो-
ना काजळ ना टीकी, ना दरपण में दीखी।
जोध जुवानी गौरी, बिन सिणगारां फीकी।
कद ल्यावैलो पिव दाणां, जोवै मरवण बाट रे।
हां अे गरीबी! फकीरी थारा ठाठ रे।।
कवि री मौलिक उपमावां सुधीपाठक नैं वांरा मुरीद बणावै। कवि चौमासै रो चित्रण करतां परकत री छिब पर मोहित हुयोड़ो लिखै कै ओ मौसम तो म्हारै खेतां में मजूरी करण नैं आयोड़ो है। दाखलै सरूप अेक अंतरो देखो-
म्हारै खेतां में मौसम मजूरी करै।
बाजरो रात दिन जी हजूरी करै।
म्हारै खेतां री रेतां रमै रामजी
आज तन्नै रमा ल्याऊंगी।
देस रा रुखाळा नेतावां री नांजोगी नीत अर रुळपट रीत रो खुलासो करतां कवि रा सबद खासा खार ले लेवै। कवि नैं उण बगत भीतरी दरद हुवै जद कोई चरित्रहीण नेता मरै अर उणरी ल्हास तिरंगै में लपेटीजै। कवि नैं लागै कै ओ तिरंगै रो अपमान है। कवि रै सबदां में कविमन री पीड़ देखो-
जांनै दिन में माता बोलै, बां रा मुजरा रातां में।
जां भैणां रा चरण पखारै, रात भांण बै बांथां में।
हद होगी अै लूंड मरै जद, लिपटै ल्हास तिरंगां में।
काळै मुंह रा धोळपोसिया, हाथ घिचोळै गंगा में।।
कवि रो अनुभव तो लंबो अर गैरो है ई भाषा पर ई वांरो इधको अधिकार है। कवि आपरी रचना ‘गीत जमारै घुळज्या’ में प्रीत, मीत, रीत अर नीत आं च्यारां रै सफल अर असफल होवण रा झीणां मारग दिखाया है। कवि आ सिद्ध करी है कै थोड़ो सो क आंतरो सफलता नैं असफलता में बदळद्यै। सबद चयन ई इतरो ई रुपाळो है। कवि लिखै कै प्रीत जे हेलो पाड़’र बुलाल्यै तो जीवण सिणगारीज ज्या अर जे प्रीत गेलो बदळल्यै तो जीवण धिक्कारीज ज्या। इयां ई जे मित्र आपरै भावां नै तोलै तो उणरी सौ-सौ बार दरकार हुवै पण जे बो आपरी बातां नैं तोलण लागज्यावै तो धिक्कार सौ-सौ बार हुवै। जे रीत साच नै गावै तो मिलण री मीठी झणकारां उठै पण वा ई रीत हिवड़ै नैं भरमावै तो धिक्कार बण जावै। इणीं गत नीत रो व्यवहार है, जे नीत साख नैं तोलै तो ओ ओपतो बौपार हुवै पण नीत अडाणै मेलै तो धिक्कार बणज्यावै। अेक-अेक क्रिया-व्यापार रै उभै पखां री इतरी झीणी विरोळ करतां सबदां रै सांचै पिरोणियोे कवि धन्य है, उणरी लेखनी नमन करण जोग है-
मनड़ै री पोथी खोलो तो लाखीणा आखर बांचां।
ढळती रातां बांध घूघरा, सपनां रै आंगण नाचां।
प्रीत मारल्यै हेलो तो, सिणगार सौ-सौ बार है।
प्रीत बदळल्यै गेलो तो धिक्कार सौ-सौ बार है।
देस अर परदेस री तुलना करतां कवि आपरै गाम री यादां नैं सलाम करै अर बगतै बटाऊ साथै आपरै गाम नैं रामा-स्यामा भिजवावै। देस अर परदेस री तुलना करतां गाम री इधकायां रो खुलासो करती अै ओळियां देखो-
कुण राखै काण कुण बोलै अपणेस में।
कुण गावै हेत रा बनोरा परदेस में।
तूं प्रीत सांवळी नैं, सलाम म्हारी कीजे रे।
गाम री गळी नैं राम-राम म्हारी कीजे रे।।
कवि री लेखनी में व्यंग्य री धार घणी तेज है। कमा’र खावण री नींत नीं होवण रै कारण जोग धारण करणियां नकली विरक्तां री पोल खोलती ‘जोगी मत जा’ रचना मांय सूं कीं उदाहरण बिनां किणी संकेत रै सीधा आपरी निजर है-
भगवां में भगवान मिस, भांत-भांत रा भोग।
जोगी मन सूं ना गई, मनस्या बाळण जोग।।
ओढ जतन चादर धरी, अेक न लाग्यो दाग।
बिन सळवट री चादरां, कितरी है निरभाग।।
जोगी थारै जोग सूं, निकळ्यो अेक निचोड़।
जे जीवण नीं जी सको, भागो जीवण छोड़।।
कृति मांय ‘दरद दिसावर’ नाम सूं कवि 101 दूहा लिख्या है, परदेस अर देस री खूबी अर खामी सगळी गिणाई है। विस्तार भय रै कारण दाखला देवणा समीचीन कोनी लागै। फगत अेक मार्मिक दूहो दाखलै रूप निजर है-
बेटो तो परदेस में, घर बूढ़ा मा-बाप।
दोन्यूं पीढी दो जग्यां, दुख भोगै चुपचाप।।
कवि लोकोक्तियां, कैबतां अर मुहावरां रो ओपतो रो फबतो अर फूटरो प्रयोग कियो है, कतिपय उदाहरण देखो –
बिगड़ी तो बस चेली बिगड़ी, संत सिद्ध का सिद्ध रह्या/ खोयो ऊंट घड़ै में ढूंढै, कसर नहीं है स्याणै में/डाकण बेटा दे या लेवै, या भी बात बताणी के/ तेल बड़ां सूं पैली पीज्या, बा भी कथा कहाणी के/ भोळो पंडित के लेले, भागोत बांचकर थाणै में/ भींत पड़ण लागी तो ईंटां, आंगण कानी करली/ इतणी माख्यां गिटी जीवती, भूख समूळी मर ली/ कण कायदो राख गांव तो, सगळो ही साखीणो है/ भूख भजन कररी है कड़तू, आंत निकळगी बातां में।
अनेक बार श्री भाग्य ने मंच सूं लाइव सुणण रो सौभाग्य मिल्यो है। पोथी में कवि री टाळवां रचनावां है। अेक सूं अेक व्हाली अर निराळी। श्री भाग्य री भाषा अर भाव अेक दूसरै रा अनुगामी लागै। कवि कनैं बात नैं परोटण री खिमता अनूठी है। चुभती सूं चुभती चोट सहज अंदाज में करण री लकब कवि नैं पाठकां री श्रद्धां रो पात्र बणावै। संकलित रचनावां मांय विषय वैविध्य, वर्णन वैविध्य अर कलात्मक विलक्षणता देखण नैं मिलै। रचनाकार रै मंतव्य री भाळ करां तो लागै कै कवि मरजादावां रै मंडण, पाखंड रै खंडण, रिश्तां री पवित्रता, निस्वार्थ मित्रता, अपणायत री आण, स्वाभिमान री बाण, परकत रै प्रेम, नैतिकता रै नेम, हेत री हथाई, संस्कारां री सगाई आद अंजसजोग व्यवहार रो पखधर है। विसंगतियां पर प्रबळ प्रहार करतां थकां कवि सुधार रो हामी है। कवि री दीठ आसावादी है। निरासा मांय आसा खोजण री जीवटता कवि री मूळ ताकत है।
पोथी मांय कवि री राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भाषावां री रचनावां भेळी करीजी है, बियां तो पाठक नैं अेक ठौड़ दोनूं भाषावां री रचनावां रो आनंद लेवण रो मौको मिलै पण पोथी रै कलेवर री दीठ सूं इण मांय राजस्थानी री ही रचनावां राखणी चाईजती। हिंदी री रचनावां देवणी ही तो परिशिष्ट रूप में बाद में जोड़ी जा सकती। राजस्थानी कवितावां रै बिचाळै ई हिंदी अर पाछी राजस्थानी, इयां करणो कीं पाठक नैं अटपटो लागै। आ भूल संकलनकर्तावां री रही है। टंकण री त्रुटियां ई खासा है। आगलै संस्करण में आं दो बातां नैं सुधार’र छपाई हुवै तो और अधिक आनंद आसी। सद्भावना सेवा समिति बधाई अर धन्यवाद री पात्र है जकी साहित्यिक कृति रै प्रकासण रो जसजोग काम कर’र समाज री ओपती सेवा करी है। लाख-लाख रंग आपरी पूरी समिति रै सदस्यां नैं, आगै ई इयांकली सोच अर मन बणायां राखो। श्री भागीरथसिंह जी भाग्य री लेखनी घणां रंग। अस्तु।
~~डॉ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’
geeta peli ghughri .. kahan milege ye pustak
marudhar mahro desh -kandan kalpit
ye books kahan milege koi detail ho to please share kare