गुण-गर्जन

गरजा बादल गगन में,
घटा बनी घनघोर।
उमड़-घुमड़ कर छा गए,
अम्बुद चारों ओर।

सुन कर गर्जन समुद्र को,
आया क्रोध अपार।
मूढ़ मेघ किस मोद में,
गर्जन करत गंवार।।

मेरे जल से तन बना,
अन्य नहीं गुण एक।
मो ऊपर गर्जन करत,
लाज न आवत नेक।।

मैं मालिक जलराशि का,
तोयद तू जलवाह।
मुझसे ले मुझको दिया,
कहो बड़प्पन काह।।

वाहक को हक है नहीं,
नाहक मत इतराय।
अरे बलाहक मन्दमति,
गुण-ग्राहकता लाय।।

लाज न आवत लेशभर,
गाज सुनावत बेग।
आज तेरी आवाज का,
ताज गिरेगा मेघ।।

रख धीरज सुनता रहा,
बादल सारी बात।
ले आज्ञा कहने लगा,
तनिक समय दो तात।।

अहम है न अज्ञानता,
ना कछु दम्भ नदीस।
निज गुण पे गर्वित रहूँ,
बात ये बिसवा बीस।

तुझ से ले तुझको दिया,
कछु नहीं इसमें खास।
पर उस कड़वे नीर में,
मैंने भरा मिठास।।

सारे जग से कर रहा,
मैं तो इक अरदास।
कण कण के कड़वास में,
मिलकर भरो मिठास।।

जग के इक इक जीव का,
करता हूँ आह्वान।
अपने अपने हुनर से,
करो जगत कल्याण।।

कड़वापन को सोख कर,
बहुरि जो मिष्ट बनाय।
दिल से उसको दाद दें,
अम्बुधि यह गुण लाय।।

समदर बोला हे सखे,
मोर खता कर माफ।
गुण का गर्जन उचित है,
सन्देसा यह साफ।।
~~डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”

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