हमार रौ हाळ – जनकवि ऊमरदान लाळस

जनकवि ऊमरदान जी लालस द्वारा लगभग १०० पूर्व लिखी यह कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। इसमें कवि ने अपने समय के नैतिक पतन का दो टूक शैली में वर्णन किया है।
(राग प्रभाती बिलावल)
खारी रे आ समें दुखारी, हाहा बड़ी हत्यारी रे।।टेर।।
मोटा घरां म्रजादा मिटगी, बंगळां रै सौ बारी रे।
गोला जुगळी मांय गई जद, नसल बिगड़ गई न्यारी रे।।खारी…।।1।।
होटल मांई खाणौ हिळतां, बिटळां बुरी बिचारी रे।
मांनव धर्म शास्त्र री महिमा, सुरती नहीं समारी रे।।खारी…।।2।।
घुड़दौड़ां सूं ढूंगा घसग्या, नामरदी फिर न्यारी रे।
लाखां रुपया लेखे लागा, कोई न लागी कारी रे।।खारी…।।3।।
ख्यातव्यां बंद छोड खिड़कियां, धणियां टोपी धारी रे।
कमर बंदा बांदण री कवि नै, बिध इण आई बारी रे।।खारी…।।4।।
अदालतां सूं होय आगती, पिरजा रोय पुकारी रे।
सूंक दुकांनां मँडी सरासर, धौळै दिवस अंधारी रे।।खारी…।।5।।
फिर जंगळायत कियौ फायदौ, जुल्म कायदौ जारी रे।
टोगड़ियां रा गळा टूंपतां, भयौ कष्ट अति भारी रे।।खारी…।।6।।
छत्री धर्म छोड़ियौ छैलां, चौड़े हुय व्यभिचारी रे।
परण्योड़ी रै पास न पौढै, पातर लागै प्यारी रे।।खारी…।।7।।
दुख सतियां रौ सुणै न दिलकी, बिलकी फिरै बिचारी रे।
धणी जीवतां देखी घरां में, भोगै रंडापौ भारी रे।।खारी…।।8।।
रजपूतांणी रहै रिजक बिन, धर्म पतीब्रत धारी रे।
बिदरांणी परदां में बैठी, किसब कमावै सारी रे।खारी…।।9।।
निरोगता रौ नाल करै नित, निरख पराई नारी रे।
ऊमरदान डूबसी आंधां, कोई न लागे कारी रे।।खारी…।।10।
~~जनकवि ऊमरदान लाळस